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डॉ. प्रभात ओझा अभी 3 जनवरी को हमारे ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) ने कोविड-19 से बचाव के लिए दो वैक्सीन के आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति दी थी। इनमें से कोविशील्ड नाम की वैक्सीन ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका का भारतीय संस्करण है, तो कोवैक्सीन पूरी तरह भारत में निर्मित है। इस अर्थ में दोनों को स्वदेशी वैक्सीन कहा गया है। अब रूस की ‘स्पुतनिक वी’ के भारत में इमरजेंसी इस्तेमाल को भी मंजूरी मिल गई, तो फाइजर और मॉडर्ना के साथ जॉनसन एंड जॉनसन की वैक्सीन भी सात दिनों तक 100 लोगों पर परीक्षण के बाद भारत में प्रयोग के लिए कतार में है। इन फैसलों के साथ भारत अपने यहां छह वैक्सीन को उपयोग में लाने वाला दुनिया का पहला देश बन जायेगा। निश्चित ही यह किसी लोक कल्याणकारी राज्य का स्वागत योग्य कदम कहा जायेगा कि वह अपनी जनता के जीवन की चिंता करे। देश में वैक्सीन की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए इसीलिए केंद्र सरकार ने यह कदम उठाया है। फिर भी कुछ सवाल कायम रहेंगे। पूछा जायेगा कि क्या ये सभी वैक्सीन मानकों के हिसाब से पूरी तरह सुरक्षित हैं। खासकर तब जबकि पूर्ण स्वदेशी ‘कोवैक्सीन’ के मुकाबले स्वदेश में निर्मित ‘कोविशील्ड’ के प्रयोग से विदेश में कुछ लोगों के शरीर में खून के थक्के जमने की शिकायतें मिली थीं। अलग बात है कि कोविशील्ड से विपरीत असर की बात भी नाममात्र के मामलों और वह भी विशेष परिस्थितियों के चलते मिलीं। विपक्ष के आरोपों के बीच देश-दुनिया के वैज्ञानिकों ने इन वैक्सीन को पूरी तरह सुरक्षित बताया है। जानकारी मिली थी कि अन्य देशों में भी यही स्थिति है और आरोप वैज्ञानिक तथ्यों को जाने बिना ही लगाए जा रहे हैं। ऐसे में पूर्ण और आंशिक स्वदेशी के बाद बाहर से आने वाली इन नई वैक्सीन पर कितना यकीन किया जा सकेगा। संकेत मिले हैं कि ये वैक्सीन भी शीघ्र भारत में ही बनने लगेंगी। ‘स्पुतनिक वी’ तो इसी महीने के अंत तक सुलभ होगी तो मई में हमारे यहां पैनेसिया बॉयोटेक ने स्पुतनिक वी टीके बनाने के भी संकेत दिए हैं। इस कंपनी ने भारत में सालाना 10 करोड़ खुराक का उत्पादन करने पर सहमति जताई थी। इसके अलावा हेटेरो बायोफार्मा, ग्लैंड फार्मा, स्टेलिस बायोफार्मा और विक्रो बायोटेक जैसी भारतीय फार्मास्युटिकल कंपनियों के साथ भी ‘स्पुतनिक वी’ निर्माता रूसी संस्था आरडीआइएफ ने करार किया है। इस अर्थ में स्पुतनिक भी ‘मेक इन इंडिया’ अथवा ‘मेड इन इंडिया’ वाली हो जायेगी। इसने जो आंकड़े दिए हैं, इन सभी भारतीय कंपनियों में स्पुतनिक वी का उत्पादन होने पर 85 करोड़ डोज तक सालाना बन सकेंगे। अकेले स्पुतनिक के 85 कोरोड़ डोज उत्पादन की बात सुनकर हर देशवासी को संतोष हो सकता है। पहले से मौजूद हमारी दोनों वैक्सीन का उत्पादन भी अनवरत जारी है। तीन नई वैक्सीन भी जल्द मिलने की उम्मीद बंधी है, तो हर भारतवासी वैक्सीन मिलने के प्रति आश्वस्त हो सकते हैं। तो क्या मान लें कि भारत में हर नागरिक को वैक्सीन की डोज जल्द ही मिल सकेगी? ऐसा सोचना अभी जल्दबाजी होगी। कारण यह है कि उत्पादन और किसी एक देश में उपलब्धता के मसले अलग-अलग हुआ करते हैं। भारतीय कंपनी सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया का ही उदाहरण लें जो ‘कोविशील्ड’ बनाती है। एस्ट्राजेनेका की सहयोगी कंपनी होने के नाते इसे ‘कोवैक्स कार्यक्रम’ के तहत निम्न आय वाले देशों को भी अपनी वैक्सीन की दो अरब डोज भेजनी है। पहले भी भारत 65 से अधिक देशों को वैक्सीन भेज चुका है और आगे भी ऐसी योजना है। विश्व बंधुत्व और मानवता के दृष्टि से इसकी सराहना भी होती है। भारत ने पाकिस्तान जैसे अपने पड़ोसी को भी साढ़े चार करोड़ वैक्सीन भेजने का प्रस्ताव किया है। इसकी पुष्टि स्वयं पाकिस्तान राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा के सचिव आमिर अशरफ ख्वाजा ने मार्च के अंत में की थी। पाकिस्तान को ये वैक्सीन ग्लोबल अलायंस फॉर वैक्सीन्स एंड इम्यूनाइजेशन (गावी) के तहत दी जायेगी। इसके जरिए पाकिस्तान अपनी 20 फीसद आबादी को कवर कर सकेगा। अभीतक पाकिस्तान को चीन निर्मित वैक्सीन मिल रही है। भारत ने डोमनिका जैसे छोटे देश को भी 70 हजार डोज भेजे हैं। अनुदान के रूप में भेजी गई वैक्सीन वहां की लगभग आधी जनसंख्या के लिए पर्याप्त है। भारत के इस कदम से डोमनिका के प्रधानमंत्री रूजवेल्ट स्करीट ने भारत के प्रति आभार जताया। उन्होंने अभिभूत होकर कहा कि भारत हमारी प्रार्थना का जवाब इतनी सहृदयता के साथ और इतना जल्द देगा, इसका बिल्कुल अंदाजा नहीं था। फरवरी के अंत तक अनुदान वाली खुराकें बांग्लादेश (20 लाख), म्यांमार (17 लाख), नेपाल (10 लाख), श्रीलंका (पांच लाख), अफगानिस्तान (पांच लाख), भूटान (1.5 लाख), बहरीन (एक लाख), ओमान (एक लाख), मालदीव (एक लाख), मॉरीशस (एक लाख), बारबडोस (एक लाख) और सेशेल्स (50 हजार) को भी भेजी जा चुकी थीं। अभी मार्च के अंत में अपनी हाल की बांग्लादेश यात्रा के दौरान भी प्रधानमंत्री मोदी ने वहां की सरकार को वैक्सीन की 12 लाख डोज भेंट की है। इन देशों के अनुदान के अलावा वाणिज्यिक आधार पर ब्राजील (20 लाख), मोरक्को (60 लाख), बांग्लादेश (50 लाख), म्यांमार (20 लाख), दक्षिण अफ्रीका (10 लाख), कुवैत (दो लाख), यूएई (दो लाख), इजिप्ट (50 हजार) और अल्जीरिया (50 हजार) को भी टीकों की आपूर्ति की गई है। विश्वस्तरीय महामारी की परिस्थितियों में वैक्सीन का उत्पादन और एक-दूसरे को इन्हें उपलब्ध कराने की स्थितियों को समझना जरूरी है। महामारी से बचने के लिए दुनिया में कई तरह के समझौते किए गये हैं। कोरोना के पहले चरण में ही अमेरिका जैसे सक्षम माने जाने वाले देश ने भी भारत से हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन जैसी दवा के टेबलेट्स लिए थे। माना कि हमने पिछले दिनों अपनी जरूरतों के हिसाब से लगभग हर क्षेत्र में स्वदेशी की तरफ बढ़ना शुरू किया है, पर महामारी सामान्य स्थिति नहीं होती। आज हर देश एक-दूसरे की मदद कर रहा है। ये तथ्य हमारे देश के विपक्ष को भी पता है कि कोई भी देश आज की तिथि में अपने हर नागरिक को वैक्सीन नहीं दे पाया है। हर जगह प्राथमिकाता तय की जा रही है। दरअसल, दुनिया मिलजुलकर ही इस असाधारण हालात से बाहर निकल सकेगी। (लेखक हिन्दुस्थान समाचार की पाक्षिक पत्रिका 'यथावत' के समन्वय सम्पादक हैं।)
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अनिल निगम देश में कोरोना महामारी के बढ़ते ग्राफ ने एकबार फिर लोगों को डराना शुरू कर दिया है। विभिन्न राज्यों के महानगरों और नगरों में नाइट कर्फ्यू एवं लॉकडाउन के चलते मजदूरों में दहशत का माहौल बन रहा है। वे अपने घरों की ओर पलायन करने लगे हैं। पिछले वर्ष लगाए गए लॉकडाउन के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था पांच-सात साल पीछे चली गई थी। उसका खामियाजा देश आजतक भुगत रहा है। आज हमारी स्थिति तब ज्यादा खराब हो रही, जबकि हमारे पास लड़ने का अनुभव और वैक्सीन दोनों हैं। बावजूद इसके हम बदतर स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राज्यों के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि महामारी का समाधान लॉकडाउन नहीं है, फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब स्थिति बेकाबू होने लगेगी तो इसका अंतिम समाधान लॉकडाउन ही है। और अगर ऐसा होता है तो देश की अर्थव्यवस्था पुन: चौपट हो जाएगी। सवाल यह नहीं है कि संपूर्ण देश में लॉकडाउन होगा अथवा नहीं। अहम प्रश्न यह है कि इसबार संक्रमण की लहर सरपट क्यों दौड़ रही है? क्या कोरोना संक्रमण की दर बढ़ने के लिए केवल नया स्ट्रेन जिम्मेदार है? संक्रमण बढ़ने के लिए और कौन से कारक जिम्मेदार हैं? यह तय है कि अगर हम अब भी नहीं चेते तो भारत में सिर्फ संक्रमण और मौतों का आंकड़ा ही नहीं बढ़ेगा, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को एकबार फिर बहुत बड़ा पलीता लग जाएगा। आईआईटी कानपुर के विशेषज्ञों ने अपने हालिया शोध में कहा है कि वायरस का नया वैरिएंट अथवा स्ट्रेन आ चुका है। इसके मामले दिल्ली, पंजाब और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में पाए गए हैं। ब्रिटेन और अफ्रीका से आए नए स्ट्रेन का फैलाव बहुत तेजी से हो रहा है। विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि देश में सक्रिय वायरस में म्युटेशन के चलते लगातार उसमें बदलाव चल रहा है। इसके अलावा पूर्व में कोरोना से संक्रमित हो चुके 30 फीसदी लोगों में न्यूट्रलाइजिंग एंटीबॉडीज समाप्त हो चुकी है, इसलिए एकबार संक्रमित हो चुके इन लोगों को दोबारा कोरोना हो सकता है। यही नहीं, कोरोना प्रोटोकॉल का उल्लंघन भी लोगों को कोरोना की चपेट में तेजी से ले रहा। जॉन हॉपकिंस मेडिसिन के विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना की दूसरी लहर के लिए लोगों का बर्ताव जिम्मेदार है। पिछले वर्ष के लॉकडाउन ने भारत में कोविड-19 महामारी की रफ्तार धीमी कर दी थी। लोगों ने भी कोरोना प्रोटोकॉल को अपनाते हुए मास्क पहने, दो गज की दूरी बनाई और नियमित तौर पर हाथों को सफाई करते रहे। इसके चलते हम कोरोना से निपटने में कारगर रहे। लेकिन यह भी सच है कि वैक्सीन आने और कोरोना संक्रमण के आंकड़ों के कम होने के बाद लोगों ने मास्क से दूरी बना ली और फिजीकल डिस्टैंसिंग को ताक पर रख दिया। शादी-विवाह और अन्य सामाजिक समारोहों में असीमित संख्या और मानकों के पालन में लापरवाही के चलते स्थिति खराब होने लगी। ऐसा नहीं है कि इसके लिए सिर्फ आम आदमी ही जिम्मेदार है। पहले किसान आंदोलनों में बिना मास्क के आंदोलनकारी और बाद में विभिन्न राज्यों में चुनाव के दौरान होने वाली रैलियों को देखकर ऐसा लगा ही नहीं कि किसी नेता या जनता को कोरोना का भय है। इस समय देशभर में स्थिति खराब हो रही है लेकिन बाजार, मंदिर और चुनावी रैलियों में देखकर नहीं लगता कि लोगों को इस महामारी की गंभीरता के बारे में कुछ समझ आ रहा है। पिछले साल जब देश में लॉकडाउन किया गया तो यातायात अचानक बंद होने के चलते सर्वाधिक परेशानी प्रवासी मजदूरों को झेलनी पड़ी थी। मजदूरों को जब खाने-पीने की परेशानी हुई तो वे पैदल अपने घरों के लिए निकल पड़े थे। लेकिन जब फैक्टरी शुरू हुई तो मजदूर काफी मशक्कत के बाद शहरों को वापस लौटे थे। अब एकबार फिर कोरोना के मामले बढ़ने पर सख्ती शुरू हुई तो प्रवासी मजदूरों ने लॉकडाउन के भय से पलायन शुरू कर दिया है। जैसे-जैसे प्रवासी मजदूर अपने घरों को जा रहे हैं, उद्यमियों के माथे पर बल पड़ना शुरू हो गए हैं। निस्संदेह, अर्थव्यवस्था की हालत को देखते हुए सरकार देश में फिर से लॉकडाउन की स्थिति में नहीं है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री लॉकडाउन करने से परहेज कर रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि अगर महामारी का संक्रमण ऐसे ही तेजी से दौड़ता रहा तो सरकारों के पास लॉकडाउन के अलावा कोई और विकल्प नहीं होगा। यह बात भी सोलह आने खरी है कि यदि देश में एक-दो महीने का लॉकडाउन करना पड़ा तो देश की अर्थव्यवस्था एकबार फिर पांच से सात साल पीछे चली जाएगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक अन्तरराष्ट्रीय राजनीति का खेल कितना मजेदार है, इसका पता हमें चीन और अमेरिका के ताजा रवैयों से पता चल रहा है। चीन हमसे कह रहा है कि हम अमेरिका से सावधान रहें और अमेरिका हमसे कह रहा है कि हम चीन पर जरा भी भरोसा न करें। लेकिन मेरी सोच है कि भारत को चाहिए कि वह चीन और अमेरिका, दोनों से सावधान रहे। आँख मींचकर किसी पर भी भरोसा न करे। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार 'ग्लोबल हेरल्ड' ने भारत सरकार को अमेरिकी दादागीरी के खिलाफ चेताया है। उसने कहा है कि अमेरिकी सातवें बेड़े का जो जंगी जहाज 7 अप्रैल को भारत के 'अनन्य आर्थिक क्षेत्र' में घुस आया है, यह अमेरिका की सरासर दादागीरी का प्रमाण है। जो काम पहले उसने दक्षिण चीनी समुद्र में किया, वह अब हिंद महासागर में भी कर रहा है। उसने अपनी दादागीरी के नशे में अपने दोस्त भारत को भी नहीं बख्शा। चीन की शिकायत यह है कि भारत ने अमेरिका के प्रति नरमी क्यों दिखाई ? उसने इस अमेरिकी मर्यादा-भंग का डटकर विरोध क्यों नहीं किया ? चीन का कहना है कि अमेरिका सिर्फ अपने स्वार्थों का दोस्त है। स्वार्थ की खातिर वह किसी भी दोस्त को दगा दे सकता है। उधर अमेरिकी सरकार के गुप्तचर विभाग ने अपनी ताजा रपट में भारत के लिए चीन और पाकिस्तान को बड़ा खतरा बताया है। उसका कहना है कि चीन आजकल सीमा-विवाद को लेकर भारत से बात जरूर कर रहा है लेकिन चीन की विस्तारवादी नीति से ताइवान, हांगकांग, द.कोरिया और जापान आदि सभी तंग हैं। वह पाकिस्तान को भी उकसाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। भारत की मोदी सरकार पाकिस्तानी कारस्तानियों को शायद बर्दाश्त नहीं करेगी। यदि किसी आतंकवादी ने कोई बड़ा हत्याकांड कर दिया तो दोनों परमााणुसंपन्न पड़ोसी देश युद्ध की मुद्रा धारण कर सकते हैं। चीन की कोशिश है कि वह भारत के पड़ोसी देशों में असुरक्षा की भावना को बढ़ा-चढ़ाकर बताए और वहां वह अपना वर्चस्व जमाए। वह पाकिस्तानी फौज की पीठ तो ठोकता ही रहता है, आजकल उसने म्यांमार की फौज के भी हौसले बुलंद कर रखे हैं। उसने हाल ही में ईरान के साथ 400 बिलियन डाॅलर का समझौता किया है और वह अफगान-संकट में भी सक्रिय भूमिका अदा कर रहा है जबकि वहां भारत मूकदर्शक है। अब अमेरिका ने घोषणा की है कि वह 1 मई की बजाय 20 सितंबर 2021 को अपनी फौजें अफगानिस्तान से हटाएगा। ऐसी हालत में भारत के विदेश मंत्रालय को अधिक सावधान और सक्रिय होने की जरूरत है। हमारे विदेश मंत्री डाॅ. जयशंकर पढ़े-लिखे विदेश मंत्री और अनुभवी कूटनीतिज्ञ अफसर रहे हैं। विदेश नीति के मामले में जयशंकर यदि कोई मौलिक पहल करेंगे तो भाजपा नेतृत्व उनके आड़े नहीं आएगा। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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डॉ. भीमराव आम्बेडकर जयंती (14 अप्रैल) पर विशेष रमेश सर्राफ धमोरा हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी 14 अप्रैल को बाबा साहेब डॉ. भीमराव आम्बेडकर की जयन्ती मनायी जायेगी। मगर देश में कोरोना महामारी की चल रही दूसरी लहर के कारण देश वासियों को सावधानी पूर्वक अपने-अपने घरों में रह कर ही बाबा साहेब की जयन्ती मनानी चाहिये। सार्वजनिक आयोजनों में भी मास्क पहनकर ही शामिल हों तथा दो गज की दूरी रखें। बाबासाहेब की जयन्ती पर इसबार लोगों को अपने घरों में राष्ट्र की एकता के नाम एक दीपक जलाकर संकल्प लेना चाहिये कि हम सब सच्चे मन से उनके बताये मार्ग का अनुशरण करेंगे। उनके बनाये संविधान का पालन करेंगे। ऐसा कोई काम नहीं करेगें जिससे देश के किसी कानून का उल्लघंन होता हो। चूंकि बाबा साहेब हमेशा जातिप्रथा, ऊंच-नीच की बातों के विरोधी थे इसलिये उनकी जयन्ती पर उनको श्रद्धांजलि देने का सबसे अच्छा तरीका, उनके सिद्धांतों को जीवन में अपनाने का है। बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के मऊ में एक गरीब परिवार मे हुआ था। वे भीमराव रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14 वीं सन्तान थे। उनका परिवार मराठी था जो महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले मे स्थित अम्बावडे नगर से सम्बंधित था। उनके बचपन का नाम रामजी सकपाल था। वे हिंदू महार जाति के थे जो अछूत कहे जाते थे। उनकी जाति के साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। एक अस्पृश्य परिवार में जन्म लेने के कारण बचपन में उन्हें कई कष्ट उठाने पड़े। भारतीय संविधान के रचयिता डॉ. भीमराव आम्बेडकर के कई सपने थे। भारत जाति-मुक्त हो, औद्योगिक राष्ट्र बने, सदैव लोकतांत्रिक बना रहे। लोग आम्बेडकर को एक दलित नेता के रूप में जानते हैं जबकि उन्होंने बचपन से ही जाति प्रथा का खुलकर विरोध किया था। उन्होने जातिवाद से मुक्त आर्थिकदृष्टि से सुदृढ़ भारत का सपना देखा था मगर देश की गन्दी राजनीति ने उन्हे सर्वसमाज के नेता के बजाय दलित समाज का नेता के रूप में स्थापित कर दिया। डॉ.आम्बेडकर का एक और सपना भी था कि दलित धनवान बनें। वे हमेशा नौकरी मांगने वाले ही न बने रहें अपितु नौकरी देने वाले भी बनें। डॉ.भीमराव आम्बेडकर का मानना था कि भारतीय महिलाओं के पिछड़ेपन की मूल वजह भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था और शिक्षा का अभाव है। शिक्षा में समानता के संदर्भ में आंबेडकर के विचार स्पष्ट थे। उनका मानना था कि यदि हम लड़कों के साथ-साथ लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान देने लग जाएं तो प्रगति कर सकते हैं। शिक्षा पर किसी एक ही वर्ग का अधिकार नहीं है। समाज के प्रत्येक वर्ग को शिक्षा का समान अधिकार है। नारी शिक्षा पुरुष शिक्षा से भी अधिक महत्वपूर्ण है। चूंकि पूरी पारिवारिक व्यवस्था की धुरी नारी है उसे नकारा नहीं जा सकता है। आम्बेडकर के प्रसिद्ध मूलमंत्र की शुरुआत ही 'शिक्षित करो' से होती है। इस मूलमंत्र की पालना से आज कितनी ही महिलाएं शिक्षित होकर आत्मनिर्भर बन रही हैं। बाबा साहब का मानना था कि वर्गहीन समाज गढ़ने से पहले समाज को जातिविहीन करना होगा। आज महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए हमारे पास जो भी संवैधानिक सुरक्षाकवच, कानूनी प्रावधान और संस्थागत उपाय मौजूद हैं, इसका श्रेय किसी एक मनुष्य को जाता है तो वे हैं- डॉ. भीमराव आम्बेडकर। भारतीय संदर्भ में जब भी समाज में व्याप्त जाति, वर्ग और लिंग के स्तर पर व्याप्त असमानताओं और उनमें सुधार के मुद्दों पर चिंतन हो तो डॉ.आंबेडकर के विचारों और दृष्टिकोण को शामिल किए बिना बात पूरी नहीं हो सकती। भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो आम्बेडकर संभवतः पहले अध्येता रहे हैं। जिन्होंने जातीय संरचना में महिलाओं की स्थिति को समझने की कोशिश की थी। उनके संपूर्ण विचार मंथन के दृष्टिकोण में सबसे महत्वपूर्ण मंथन का हिस्सा महिला सशक्तिकरण था। आम्बेडकर यह बात समझते थे कि स्त्रियों की स्थिति सिर्फ ऊपर से उपदेश देकर नहीं सुधरने वाली, उसके लिए कानूनी व्यवस्था करनी होगी। हिंदू कोड बिल महिला सशक्तिकरण का असली आविष्कार है। इसी कारण आंबेडकर हिंदू कोड बिल लेकर आये थे। हिंदू कोड बिल भारतीय महिलाओं के लिए सभी मर्ज की दवा थी। पर अफसोस यह बिल संसद में पारित नहीं हो पाया और इसी कारण आम्बेडकर ने कानून मंत्री पद का इस्तीफा दे दिया था। स्त्री सरोकारों के प्रति डॉ. भीमराव आम्बेडकर का समर्पण किसी जुनून से कम नहीं था। जब 15 अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार बनी तो उसमें डॉ.आम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री नियुक्त किया गया। 29 अगस्त 1947 को डॉ.आम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष नियुक्त किया गया। 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने उनके नेतृत्व में बने संविधान को अपना लिया। अपने काम को पूरा करने के बाद डॉ.आम्बेडकर ने कहा मैं महसूस करता हूं कि भारत का संविधान साध्य है, लचीला है पर साथ ही यह इतना मजबूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों समय जोड़ कर रखने में सक्षम होगा। मैं कह सकता हूं कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नही होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य ही गलत था। आम्बेडकर ने 1952 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लोकसभा का चुनाव लड़ा पर हार गये। मार्च 1952 में उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनित किया गया। अपनी मृत्यु तक वो उच्च सदन के सदस्य रहे। बाबा साहेब आम्बेडकर कुल 64 विषयों में मास्टर थे। वे हिन्दी, पाली, संस्कृत, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, मराठी, पर्शियन और गुजराती जैसे 9 भाषाओं के जानकार थे। इसके अलावा उन्होंने लगभग 21 साल तक विश्व के सभी धर्मों की तुलनात्मक रूप से पढ़ाई की थी। डॉक्टर आम्बेडकर अकेले ऐसे भारतीय है जिनकी प्रतिमा लंदन संग्राहलय में कार्ल मार्क्स के साथ लगाई गई है। इतना ही नहीं उन्हें देश-विदेश में कई प्रतिष्ठित सम्मान भी मिले है। भीमराव आंबेडकर के पास कुल 32 डिग्रियां थी। डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर के निजी पुस्तकालय राजगृह में 50,000 से भी अधिक किताबें थी। यह विश्व का सबसे बड़ा निजी पुस्तकालय था। डॉ.आम्बेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में अपने लाखों समर्थकों के साथ एक सार्वजनिक समारोह में एक बौद्ध भिक्षु से बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। राजनीतिक मुद्दों से परेशान आम्बेडकर का स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया। 6 दिसम्बर 1956 को आम्बेडकर की नींद में ही दिल्ली स्थित उनके घर मे मृत्यु हो गई। 7 दिसम्बर को बम्बई में चैपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली में उनका अंतिम संस्कार किया गया जिसमें उनके हजारों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया। आम्बेडकर के दिल्ली स्थित 26 अलीपुर रोड के उस घर में एक स्मारक स्थापित किया गया है जहां वे सांसद के रूप में रहते थे। देशभर में आम्बेडकर जयन्ती पर सार्वजनिक अवकाश रखा जाता है। अनेकों सार्वजनिक संस्थानों का नाम उनके सम्मान में उनके नाम पर रखा गया है। आम्बेडकर का एक बड़ा चित्र भारतीय संसद भवन में लगाया गया है। हर वर्ष 14 अप्रैल व 6 दिसम्बर को मुम्बई स्थित उनके स्मारक पर काफी लोग उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए आते हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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राष्ट्रीय जल दिवस (14 अप्रैल) पर विशेष योगेश कुमार गोयल प्रतिवर्ष भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की जयंती को ‘राष्ट्रीय जल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इसकी घोषणा तत्कालीन केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती द्वारा डॉ. अम्बेडकर की 61वीं पुण्यतिथि के अवसर पर 6 दिसम्बर 2016 को की गई थी। दरअसल ब्रिटिश शासनकाल में बाबा साहेब ने देश की जलीय सम्पदा के विकास के लिए अखिल भारतीय नीति तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और देश की नदियों के एकीकृत विकास के लिए नदी घाटी प्राधिकरण अथवा निगम स्थापित करने की वकालत की थी। देश की जल सम्पदा के प्रबंधन में दिए गए उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए ही केन्द्र सरकार द्वारा 14 अप्रैल को ‘राष्ट्रीय जल दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। प्रतिवर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस का आयोजन किया जाता है तथा 14 अप्रैल को राष्ट्रीय जल दिवस का और ऐसे दिवसों की महत्ता आज के समय इसलिए सर्वाधिक है क्योंकि देश-दुनिया में जल संकट की समस्या लगातार गहराती जा रही है। भारत में तो पानी की कमी का संकट इस कदर विकराल होता जा रहा है कि गर्मी की शुरुआत के साथ ही स्थिति बिगड़ने लगती है। कई जगहों पर तो लोगों के बीच पानी को लेकर मारपीट तथा झगड़े-फसाद की नौबत आ जाती है। करीब तीन साल पहले शिमला जैसे पर्वतीय क्षेत्र में भी पानी की कमी को लेकर हाहाकार मचा था और दो वर्ष पूर्व चेन्नई में भी ऐसी ही विकट स्थिति देखी गई थी। महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में लगभग हर साल ऐसी ही परिस्थितियां देखने को मिल रही हैं। प्रतिवर्ष खासकर गर्मी के दिनों में सामने आने वाले ऐसे मामले जल संकट गहराने की समस्या को लेकर हमारी आंखें खोलने के लिए पर्याप्त होने चाहिएं किन्तु विड़म्बना है कि देश में कई शहर अब शिमला तथा चेन्नई जैसे हालातों से जूझने के कगार पर खड़े हैं लेकिन जल संकट की साल दर साल विकराल होती समस्या से निपटने के लिए सामुदायिक तौर पर कोई गंभीर प्रयास होते नहीं दिख रहे। एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय दुनिया भर में करीब तीन बिलियन लोगों के समक्ष पानी की समस्या मुंह बाये खड़ी है। विकासशील देशों में तो यह समस्या ज्यादा ही विकराल हो रही है, जहां करीब 95 फीसदी लोग इस समस्या को झेल रहे हैं। पानी की समस्या एशिया में और खासतौर से भारत में तो काफी गंभीर रूप धारण कर रही है। विश्वभर में पानी की कमी की समस्या तेजी से उभर रही है और यह भविष्य में बहुत खतरनाक रूप धारण कर सकती है। अगर पृथ्वी पर जल संकट इसी कदर गहराता रहा तो यह निश्चित मानकर चलना होगा कि पानी हासिल करने के लिए विभिन्न देश आपस में टकराने लगेंगे। आशंका जताई जा रही है कि अगला विश्व युद्ध भी पानी की वजह से लड़ा जा सकता है। अधिकांश विशेषज्ञ अब आशंका जताने भी लगे हैं कि जिस प्रकार तेल के लिए खाड़ी युद्ध होते रहे हैं, उसी प्रकार दुनिया भर में जल संकट बढ़ते जाने के कारण आने वाले वर्षों में पानी के लिए भी विभिन्न देशों के बीच युद्ध लड़े जाएंगे। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान कुछ समय पूर्व दुनिया को चेता चुके हैं कि उन्हें इस बात का डर है कि आगामी वर्षों में पानी की कमी गंभीर संघर्ष का कारण बन सकती है। दुनियाभर में पानी की कमी को लेकर विभिन्न देशों और भारत जैसे देश में तो विभिन्न राज्यों में ही जल संधियों पर संकट के बादल मंडराते रहे हैं। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच भी पानी के मुद्दे को लेकर तनातनी चलती रही है। उत्तरी अफ्रीका के कुछ देशों के बीच भी पानी को लेकर झगड़े होते रहे हैं। इजराइल तथा जोर्डन, मिस्र तथा इथोपिया जैसे कुछ अन्य देशों के बीच भी पानी के चलते ही अक्सर गर्मागर्मी देखी जाती रही है। दूसरे देशों में गहराते जल संकट और इसे लेकर उनके बीच पनपते विवादों को दरकिनार भी कर दें और अपने यहां भी विभिन्न राज्यों के बीच पानी के बंटवारे के मामले में पिछले कुछ दशकों से गहरे मतभेद बरकरार हैं। अदालतों के हस्तक्षेप के बावजूद मौजूदा समय में भी जल वितरण का मामला अधर में लटका होने के चलते कुछ राज्यों में जल संकट की स्थिति गंभीर बनी हुई है। एक ओर इस प्रकार के आपसी विवाद और दूसरी ओर भूमिगत जल का लगातार गिरता स्तर, ये परिस्थितियां देश में जल संकट की समस्या को और विकराल बनाने के लिए काफी हैं। एक तरफ जहां भूमिगत जलस्तर बढ़ने के बजाय निरन्तर नीचे गिर रहा है और दूसरी तरफ देश की आबादी तेज रफ्तार से बढ़ रही है, ऐसे में पानी की कमी का संकट तो गहराना ही है। पर्यावरण संरक्षण पर प्रकाशित पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ के मुताबिक पृथ्वी का करीब तीन चौथाई हिस्सा पानी से लबालब है लेकिन धरती पर मौजूद पानी के विशाल स्रोत में से महज एक-डेढ़ फीसदी पानी ही ऐसा है, जिसका उपयोग पेयजल या दैनिक क्रियाकलापों के लिए किया जाना संभव है। विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टों के मुताबिक पृथ्वी पर उपलब्ध पानी की कुल मात्रा में से मात्र तीन फीसदी पानी ही स्वच्छ है और उसमें से भी लगभग दो फीसदी पानी पहाड़ों और ध्रुवों पर बर्फ के रूप में जमा है जबकि बाकी एक फीसदी पानी का उपयोग ही पेयजल, सिंचाई, कृषि तथा उद्योगों के लिए किया जाता है। शेष पानी खारा होने अथवा अन्य कारणों की वजह से उपयोगी अथवा जीवनदायी नहीं है। पृथ्वी पर उपलब्ध पानी में से इस एक फीसदी पानी में से भी करीब 95 फीसदी भूमिगत जल के रूप में पृथ्वी की निचली परतों में उपलब्ध है और बाकी पानी पृथ्वी पर सतही जल के रूप में तालाबों, झीलों, नदियों अथवा नहरों में तथा मिट्टी में नमी के रूप में उपलब्ध है। इससे स्पष्ट है कि पानी की हमारी अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति भूमिगत जल से ही होती है लेकिन इस भूमिगत जल की मात्रा भी इतनी नहीं है कि इससे लोगों की आवश्यकताएं पूरी हो सकें। हालांकि हर कोई जानता है कि जल ही जीवन है और पानी के बिना धरती पर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती लेकिन जब हर जगह पानी का दुरुपयोग होते देखते हैं तो बेहद अफसोस होता है। पानी का अंधाधुध दोहन करने के साथ-साथ हमने नदी, तालाबों, झरनों इत्यादि अपने पारम्परिक जलस्रोतों को भी दूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसी कारण वर्षा का पानी इन जलसोतों में समाने के बजाय बर्बाद हो जाता है और यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा गत दिनों ‘जल शक्ति अभियान: कैच द रेन’ की शुरुआत की गई थी। 30 नवम्बर 2021 तक चलने वाले इस अभियान का एकमात्र उद्देश्य देश के नागरिकों को वर्षा जल के संचयन के लिए जागरूक करना और वर्षा जल का ज्यादा से ज्यादा संरक्षण करना ही है। जल संकट आने वाले समय में बेहद विकराल समस्या बनकर न उभरे, इसके लिए हमें समय रहते पानी की महत्ता को समझना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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सुरेश हिन्दुस्थानी वर्तमान भारत में जिस प्रकार से सांस्कृतिक मूल्यों का क्षरण हुआ है, उसके चलते हमारी परंपराओं पर भी गहरा आघात हुआ है। यह सब भारतीय संस्कृति के प्रति कुटिल मानसिकता के चलते ही किया गया। आज भारत के कई लोग इस तथ्य से अवगत नहीं हैं कि भारतीय संस्कृति क्या है, हमारे संस्कार क्या हैं? लेकिन अच्छी बात यह है कि कोई भी शुभ कार्य करने के लिए आज भी समाज का हर वर्ग भारतीय कालगणना का ही सहारा लेता है। चाहे वह गृह प्रवेश का कार्यक्रम हो या फिर वैवाहिक कार्यक्रम, हम भारतीय पंचांग का सहयोग ही लेते हैं। इसी प्रकार हमारे त्यौहार भी प्राकृतिक और गृह नक्षत्रों पर ही आधारित होते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि वर्ष प्रतिपदा पूर्णतः वैज्ञानिक और प्राकृतिक नव वर्ष है। कहा जाता है कि जो देश प्रकृति के अनुसार चलता है, प्रकृति उसकी रक्षा करती है। वर्तमान में जिस प्रकार से विश्व के अनेक हिस्सों प्रकृति का कुपित रूप दिखाई देता है, उससे मानव जीवन के समक्ष अनेक प्रकार की विसंगतियां प्रादुर्भित हुई हैं। यह सब पश्चिमी विचार की अवधारणा के चलते ही हो रहा है। भारत की संस्कृति मानव जीवन को सुंदर और सुखमय बनाने का मार्ग प्रशस्त करती है। विश्व की महान और शाश्वत परंपराओं का धनी भारत देश भले अपनी पहचान बताने वाली कई बातों का भूल गया हो, लेकिन कुछ बातें ऐसी भी हैं, जिनका स्वरूप आज भी वैसा ही दिखाई देता है, जैसा दिग्विजयी भारत का था। हम भले अपने शुभ कार्यों में अंग्रेजी तिथियों का उल्लेख करते हों, लेकिन उन तिथियों का उन शुभ कार्यों से कोई संबंध नहीं रहता। हम जानते हैं कि भारत में जितने भी त्यौहार उवं मांगलिक कार्य किए जाते हैं, उन सभी में केवल भारतीय कालगणना को ही प्रधानता दी जाती है। इसका आशय स्पष्ट है कि भारतीय ज्योतिष उस कार्य के गुण-दोष को भलीभांति प्रकट करने की क्षमता रखता है। किसी अन्य कालगणना में यह संभव नहीं है। वर्तमान में हम भले स्वतंत्र हो गए हों, लेकिन पराधीनता का काला साया एक आवरण की तरह हमारे सिर पर विद्यमान है। जिसके चलते हम उस राह का अनुसरण करने की ओर प्रवृत्त हुए हैं, जो हमारे संस्कारों के साथ समरस नहीं है। अब नव वर्ष को ही ले लीजिए। अंग्रेजी पद्धति से एक जनवरी को मनाया जाने वाला वर्ष नया कहीं से भी नहीं लगता। इसके नाम पर किया जाने वाला मनोरंजन, फूहड़ता के अलावा कुछ भी नहीं है। आधुनिकता के नाम पर समाज का अभिजात्य वर्ग वह सबकुछ कर रहा है, जो सभ्य और भारतीय समाज के लिए स्वीकार करने योग्य नहीं है। विसंगति तो यह है कि हमारे समाज के यही लोग संस्कृति बचाने के नाम पर लम्बे-चौड़े व्याख्यान दे देते हैं। भारतीय काल गणना के अनुसार मनाए जाने वाले त्यौहारों के पीछे कोई न कोई प्रेरणा विद्यमान है। हम जानते हैं कि हिन्दी के अंतिम मास फाल्गुन में वातावरण भी वर्ष समाप्ति का संकेत देता है, साथ ही नव वर्ष के प्रथम दिन से ही वातावरण सुखद हो जाता है। हमारे ऋषि मुनि कितने श्रेष्ठ होंगे, जिन्होंने ऐसी काल गणना विकसित की, जिसमें कब क्या होना है, इस बात की पूरी जानकारी समाहित है। पिछले दो हजार वर्षों में अनेक देशी-विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनीतिक दृष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया, किंतु भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान केवल विक्रमी संवत के साथ ही जुड़ी रही। अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईसवी संवत का बोलबाला हो और भारतीय तिथि-मासों की कालगणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों, परंतु वास्तविकता यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक आदि महापुरुषों की जयंतियाँ आज भी भारतीय कालगणना के हिसाब से ही मनाई जाती हैं, ईसवी संवत के अनुसार नहीं। विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण आदि सामाजिक कार्यों का अनुष्ठान, ये सब भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईसवी सन की तिथियों के अनुसार नहीं। इसके बाद भी हमारे समाज का एक वर्ग इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। इसके कारण हम सामाजिक मान मर्यादाओं का स्वयं ही मर्दन करते जा रहे हैं। जिसके चलते इसका दुष्प्रभाव हमारे सामने आ रहा है और समाज में अनेक प्रकार की विसंगतियां भी जन्म ले रही हैं, जो भारतीय जीवन दर्शन के हिसाब से स्वीकार योग्य नहीं हैं। भारतीय नव वर्ष का अध्ययन किया जाए तो चारों तरफ नई उमंग की धारा प्रवाहित होती हुई दिखाई देती है। जहां प्रकृति अपने पुराने आवरण को उतारकर नए परिवेश में आने को आतुर दिखाई देती है, वहीं भारत माता अपने पुत्रों को धन धान्य से परिपूर्ण करती हुई दिखाई देती है। भारतीय नव वर्ष के प्रथम दिवस पूजा पाठ करने से असीमित फल की प्राप्ति होती है। कहा जाता है कि शुभ कार्य के लिए शुभ समय की आवश्यकता होती है और यह शुभ समय निकालने की सही विधा केवल भारतीय काल गणना में ही समाहित है। भारतीय नववर्ष का पहला दिन यानी सृष्टि का आरम्भ दिवस, युगाब्द और विक्रम संवत जैसे विश्व के प्राचीन संवत का प्रथम दिन, श्रीराम एवं युधिष्ठिर का राज्याभिषेक दिवस, मां दुर्गा की साधना चैत्र नवरात्रि का प्रथम दिवस, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, प्रखर देशभक्त डॉ. केशवराव हेडगेवार जी का जन्मदिवस, आर्य समाज का स्थापना दिवस, संत झूलेलाल जयंती। इतनी विशेषताओं को समेटे हुए हमारा नव वर्ष वास्तव में हमें कुछ नया करने की प्रेरणा देता है। वास्तव में ये वर्ष का सबसे श्रेष्ठ दिवस है। भारतीय नववर्ष का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। ब्रह्मपुराण के अनुसार पितामह ब्रह्मा ने इसी दिन से सृष्टि निर्माण प्रारम्भ किया था, इसलिए यह सृष्टि का प्रथम दिन है। इसकी काल गणना बड़ी प्रचीन है। सृष्टि के प्रारम्भ से अब तक 1 अरब, 95 करोड़, 58 लाख, 85 हजार, 115 वर्ष बीत चुके हैं। यह गणना ज्योतिष विज्ञान के द्वारा निर्मित है। आधुनिक वैज्ञानिक भी सृष्टि की उत्पत्ति का समय एक अरब वर्ष से अधिक बता रहे हैं। जो भारतीय काल गणना की शाश्वत उपयोगिता का प्रमाण देता है। हिन्दु शास्त्रानुसार इसी दिन से ग्रहों, वारों, मासों और संवत्सरों का प्रारम्भ गणितीय और खगोलशास्त्रीय संगणना के अनुसार माना जाता है। भारतवर्ष में वसंत ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लासपूर्ण है, क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव शृंगार किया जाता है। भारतीय कालगणना के अनुसार वसंत ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीन काल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है। वसंत ऋतु में आने वाले वासंतिक नवरात्र का प्रारम्भ भी सदा इसी पुण्य तिथि से होता है। विक्रमादित्य ने भारत की इन तमाम कालगणनापरक सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत को चलाने की परम्परा शुरू की थी और तभी से समूचा भारत इस तिथि का प्रतिवर्ष अभिवंदन करता है। ऐसे में विचारणीय तथ्य यह है कि हम जड़ों से जुड़े रहना चाहते हैं या फिर जड़ बनकर पश्चिम के पीछे भागना चाहते हैं। ध्यान रहे नकल हमेशा नकल ही रहती है, वास्तविकता नहीं हो सकती। आज चमक-दमक के प्रति बढ़ता आकर्षण हमें भारतीयता से दूर कर रहा है, लेकिन यह भी एक बड़ा सच है कि दुनिया के तमाम देशों के नागरिकों को भारतीयता रास आने लगी है। वृंदावन की कुंज गलियों में, गंगा के घाटों पर कई विदेशी, भारतीय संस्कृति में गोता लगाते हुए मिल जाएंगे। जब यह ऐसा कर सकते हैं तो भारतीय समाज के लिए यह बहुत ही सीधा मार्ग है। (लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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विश्व होम्योपैथी दिवस (10 अप्रैल) पर विशेष योगेश कुमार गोयल ‘होम्योपैथी’ के जनक माने जाने वाले जर्मन मूल के डॉ. क्रिश्चियन फ्रेडरिक सैमुअल हैनीमैन के जन्मदिवस के अवसर पर प्रतिवर्ष 10 अप्रैल को दुनियाभर में ‘विश्व होम्योपैथी दिवस’ मनाया जाता है। डॉ. हैनीमैन जर्मनी के विख्यात डॉक्टर थे, जिनका जन्म 10 अप्रैल 1755 को और निधन 2 जुलाई 1843 को हुआ था। डॉ. हैनीमैन चिकित्सक होने के साथ-साथ एक महान विद्वान, शोधकर्ता, भाषाविद और उत्कृष्ट वैज्ञानिक भी थे, जिनके पास एमडी की डिग्री थी लेकिन उन्होंने बाद में अनुवादक के रूप में कार्य करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी थी। उसके बाद उन्होंने अंग्रेजी, फ्रांसीसी, इतालवी, ग्रीक, लैटिन इत्यादि कई भाषाओं में चिकित्सा, वैज्ञानिक पाठ्य पुस्तकों को सीखा। होम्योपैथी एक ऐसी चिकित्सा पद्धति है, जो औषधियों तथा उनके अनुप्रयोग पर आधारित है। होम्योपैथी को आधार बनाने के सिद्धांत से चिकित्सा विज्ञान की एक पूरी प्रणाली को प्राप्त करने का श्रेय डॉ. हैनीमैन को ही जाता है। इसीलिए उनके जन्मदिवस को ‘विश्व होम्योपैथी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिवस के आयोजन का उद्देश्य चिकित्सा की इस अलग प्रणाली के बारे में लोगों में जागरूकता पैदा करना है। विश्व होम्योपैथी दिवस के अवसर पर इस वर्ष डॉ. हैनीमैन की 266वीं जयंती मनाई जा रही है। इसके आयोजन का प्रमुख उद्देश्य भारत सहित दुनियाभर में होम्योपैथी औषधियों की सुरक्षा, गुणवत्ता और प्रभावकारिता को मजबूत करना, होम्योपैथी को आगे ले जाने की चुनौतियों और भविष्य की रणनीतियों को समझना, राष्ट्रीय नीतियों के विकास की रणनीति तैयार करना, अंतरपद्धति एवं अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान सहयोग, उच्चस्तरीय गुणवत्तापरक चिकित्सा शिक्षा, प्रमाण आधारित चिकित्सा कार्य और विभिन्न देशों में होम्योपैथी को स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में समुचित स्थान दिलाकर सार्वभौमिक स्वास्थ्य के लक्ष्य को प्राप्त करना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी मानना है कि वैकल्पिक और परम्परागत औषधियों को बढ़ावा दिए बगैर सार्वभौमिक स्वास्थ्य के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता और वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों में विश्व में होम्योपैथी का प्रमुख स्थान है। एलोपैथ, आयुर्वेद तथा प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों की भांति होम्योपैथी की भी कुछ अलग विशेषताएं हैं और इन्हीं विशेषताओं के कारण आज होम्योपैथी विश्वभर में सौ से भी अधिक देशों में अपनाई जा रही है तथा भारत तो होम्योपैथी के क्षेत्र में विश्व का अग्रणी देश है। दरअसल होम्योपैथी दवाओं को विभिन्न संक्रमित और गैर संक्रमित बीमारियों के अलावा बच्चों और महिलाओं की बीमारियों में भी विशेष रूप से प्रभावी माना जाता है। हालांकि होम्योपैथिक दवाओं के बारे में धारणा है कि इन दवाओं का असर रोगी पर धीरे-धीरे होता है लेकिन इस चिकित्सा प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह रोगों को जड़ से दूर करती है और इन दवाओं के साइड इफेक्ट भी नहीं के बराबर होते हैं। होम्योपैथी दवाएं प्रत्येक व्यक्ति पर अलग तरीके से काम करती है और अलग-अलग व्यक्तियों पर इनका असर भी अलग ही होता है। होम्योपैथी चिकित्सकों की मानें तो डायरिया, सर्दी-जुकाम, बुखार जैसी बीमारियों में होम्योपैथी दवाएं एलोपैथी दवाओं की ही भांति तीव्रता से काम करती हैं लेकिन अस्थमा, गठिया, त्वचा रोगों इत्यादि को ठीक करने में ये दवाएं काफी समय तो लेती हैं मगर इन रोगों को जड़ से खत्म कर देती हैं। विभिन्न शोधों के अनुसार कार्डियोवैस्कुलर बीमारी की रोकथाम, मैमोरी पावर बढ़ाने, उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करने तथा ऐसी ही कुछ अन्य बीमारियों में होम्योपैथी दवाएं अन्य दवाओं की तुलना में ज्यादा कारगर होती हैं। होम्योपैथी के बारे में सरदार वल्लभभाई पटेल का कहना था कि होम्योपैथी को चमत्कार के रूप में माना जाता है। भारत में होम्योपैथी केन्द्रीय परिषद अधिनियम, 1973 के तहत होम्योपैथिक चिकित्सा प्रणाली एक मान्यता प्राप्त चिकित्सा प्रणाली है, जिसे दवाओं की राष्ट्रीय प्रणाली के रूप में मान्यता प्राप्त है। केन्द्रीय होम्योपैथी अनुसंधान परिषद (सीसीआरएच) आयुष मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त अनुसंधान संगठन है, जो होम्योपैथी में समन्वय, विकास, प्रसार और वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देता है। 30 मार्च 1978 को इसका गठन आयुष विभाग, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन एक स्वायत्त संगठन के रूप में किया गया था। सीसीआरएच अनुसंधान कार्यक्रम और परियोजनाएं बनाती तथा चलाती है और होम्योपैथी के मौलिक एवं अनुप्रयुक्त पहलुओं में साक्ष्य आधारित अनुसंधान करने के लिए राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय उत्कृष्ट संस्थानों के साथ सहयोग करती है। केन्द्रीय होम्योपैथी अनुसंधान परिषद के अनुसार चिकित्सा का ही एक वैकल्पिक रूप है होम्योपैथी, जो ‘समः समम् शमयति’ अथवा ‘समरूपता’ दवा सिद्धांत पर आधारित है, जो दवाओं द्वारा रोगी का उपचार करने की ऐसी विधि है, जिसमें किसी स्वस्थ व्यक्ति में प्राकृतिक रोग का अनुरूपण करके समान लक्षण उत्पन्न किया जाता है, जिससे रोगग्रस्त व्यक्ति का उपचार किया जा सकता है। इस पद्धति में रोगियों का उपचार समग्र दृष्टिकोण के अलावा रोगी की व्यक्तिवादी विशेषताओं को अच्छी प्रकार से समझकर किया जाता है। देश में प्रतिवर्ष केन्द्रीय आयुष मंत्रालय होम्योपैथी दिवस की थीम निर्धारित करता है और देशभर में यह विशेष दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस साल की थीम है ‘होम्योपैथी: द अल्टीमेट ग्रीन मेडिसिन’। भारत में होम्योपैथी सबसे लोकप्रिय चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। देशभर में 210 से ज्यादा होम्योपैथी अस्पताल, 8 हजार से ज्यादा होम्योपैथी डिस्पेंसरी और करीब तीन लाख होम्योपैथी प्रैक्टिशनर हैं। भारत में आयुष मंत्रालय, भारत सरकार के तत्वावधान में विश्व होम्योपैथी दिवस मनाया जाता है। आयुष (AYUSH) के अलग-अलग अंग्रेजी अक्षरों का पूरा अर्थ है आयुर्वेद, योग और नेचुरोपैथी, यूनानी, सिद्धा और होम्योपैथी। आयुष का वास्तव में चिकित्सा सेवाओं के बीच महत्वपूर्ण स्थान है। इनमें होम्योपैथी को एक वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में जाना जाता है। दिखने में भले ही होम्योपैथी दवाएं एक जैसी लगती है किन्तु वास्तव में विश्वभर में होम्योपैथी की 4000 से भी ज्यादा तरह की दवाएं हैं। होम्योपैथी के संस्थापक माने जाने वाले सैमुअल हैनीमैन का कहना था कि इलाज का उच्चतम आदर्श सबसे भरोसेमंद और कम से कम हानिकारक तरीके से स्वास्थ्य की तेज, कोमल और स्थायी बहाली है। चूंकि बहुत सारी होम्योपैथी दवाओं का असर रोगी पर कुछ धीमी गति से होता है जबकि एलोपैथी दवाएं रोगी पर तुरंत असर दिखाती हैं, इसीलिए हाम्योपैथी भले ही एलोपैथी जितनी लोकप्रिय नहीं है लेकिन दुनियाभर में यह उपचार के सबसे लोकप्रिय वैकल्पिक रूप में मौजूद हैं। दरअसल होम्योपैथिक उपचार सबसे सरल उपचार है, जो शरीर को अधिक प्राकृतिक उपचार प्रक्रिया की अनुमति देता है। होम्योपैथी दवाएं चिकित्सा का एक सुरक्षित और प्राकृतिक विकल्प प्रदान करती हैं, जो बिना किसी दुष्प्रभाव अथवा दवा के परस्पर क्रिया का कारण बनता है। सही मायनों में होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति सस्ती कीमत पर चमत्कार करती है। होम्योपैथिक दवाएं कम लागत वाली बेहद प्रभावी और रुचिकर होती हैं, जिनका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता और इनका आसानी से सेवन किया जा सकता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक म्यांमार में सेना का दमन जारी है। 600 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। आजादी के बाद भारत के पड़ोसी देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल, मालदीव- आदि में कई बार फौजी और राजनीतिक तख्ता-पलट हुए और उनके खिलाफ इन देशों की जनता भड़की भी लेकिन म्यांमार में जिस तरह से 600 लोग पिछले 60-70 दिनों में मारे गए हैं, किसी भी देश में नहीं मारे गए। म्यांमार की जनता अपनी फौज पर इतनी गुस्साई हुई है कि कल कुछ शहरों में प्रदर्शनकारियों ने फौज का मुकाबला अपनी बंदूकों और भालों से किया। म्यांमार के लगभग हर शहर में हजारों लोग अपनी जान की परवाह किए बिना सड़कों पर नारे लगा रहे हैं। लेकिन फौज है कि वह न तो लोकनायक सू ची को रिहा कर रही है और न ही अन्य छोटे-मोटे नेताओं को! उन पर उल्टे वह झूठे आरोप मढ़ रही है, जिन्हें हास्यास्पद के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। यूरोप और अमेरिका के प्रतिबंधों के बावजूद म्यांमार की फौज अपने दुराग्रह पर क्यों डटी हुई है? इसके मूल में चीन का समर्थन है। चीन ने फौज की निंदा बिल्कुल नहीं की है। अपनी तटस्थ छवि दिखाने की खातिर उसने कह दिया है कि फौज और नेताओं के बीच संवाद होना चाहिए। चीन ऐसा इसलिए कर रहा है कि म्यांमार में उसे अपना व्यापार बढ़ाने, सामुद्रिक रियायतें कबाड़ने और थाईलैंड आदि देशों को थल-मार्ग से जोड़ने की उसकी रणनीति में बर्मी फौज उसका पूरा साथ दे रही है। भारत ने भी संयुक्तराष्ट्र संघ में म्यांमार में लोकतंत्र की तरफदारी जरूर की है। भारत सरकार बड़ी दुविधा में है। उसकी परेशानी यह है कि वह बर्मी लोकतंत्र का पक्ष ले या अपने राष्ट्रीय स्वार्थों की रक्षा करे? जब म्यांमार से शरणार्थी सीमा पार करके भारत में आने लगे तो केंद्र सरकार ने उन्हें भगाने का आग्रह किया लेकिन मिजोरम सरकार के कड़े रवैए के आगे सरकार को झुकना पड़ा। सरकार की रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस भेजने की नीति का सर्वोच्च न्यायालय ने समर्थन कर दिया है, जो ठीक मालूम पड़ता है लेकिन फौजी अत्याचार से त्रस्त लोगों को अस्थाई शरण देना भारत की अत्यंत सराहनीय नीति शुरू से रही है। म्यांमार की फौजी सरकार ने अपने लंदन स्थित राजदूत क्याव जवार मिन्न को रातोंरात अपदस्थ कर दिया है। उन्हें दूतावास में घुसने से रोक दिया गया है। शायद उनका घर भी वहीं है। उन्होंने अपनी कार में ही रात गुजारी। ब्रिटिश सरकार ने इसपर काफी नाराजगी जाहिर की है लेकिन उसे कूटनीतिक नयाचार को मानना पड़ेगा। राजदूत मिन्न ने फौजी तख्ता-पलट की निंदा की थी। अमेरिका ने हीरे-जवाहरात का व्यापार करनेवाली सरकारी बर्मी कंपनी पर प्रतिबंध लगा दिया है। भारत को अपने राष्ट्रहितों की रक्षा जरूर करनी है लेकिन यदि वह फौजी तख्ता-पलट के विरुद्ध थोड़ी दृढ़ता दिखाए तो अन्तरराष्ट्रीय छवि तो सुधरेगी ही, म्यांमार में आंशिक लोकतंत्र की वापसी में भी आसानी होगी। भारत फौज और नेताओं की बीच सफल मध्यस्थ सिद्ध हो सकता है। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक म्यांमार में सेना का दमन जारी है। 600 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। आजादी के बाद भारत के पड़ोसी देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल, मालदीव- आदि में कई बार फौजी और राजनीतिक तख्ता-पलट हुए और उनके खिलाफ इन देशों की जनता भड़की भी लेकिन म्यांमार में जिस तरह से 600 लोग पिछले 60-70 दिनों में मारे गए हैं, किसी भी देश में नहीं मारे गए। म्यांमार की जनता अपनी फौज पर इतनी गुस्साई हुई है कि कल कुछ शहरों में प्रदर्शनकारियों ने फौज का मुकाबला अपनी बंदूकों और भालों से किया। म्यांमार के लगभग हर शहर में हजारों लोग अपनी जान की परवाह किए बिना सड़कों पर नारे लगा रहे हैं। लेकिन फौज है कि वह न तो लोकनायक सू ची को रिहा कर रही है और न ही अन्य छोटे-मोटे नेताओं को! उन पर उल्टे वह झूठे आरोप मढ़ रही है, जिन्हें हास्यास्पद के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। यूरोप और अमेरिका के प्रतिबंधों के बावजूद म्यांमार की फौज अपने दुराग्रह पर क्यों डटी हुई है? इसके मूल में चीन का समर्थन है। चीन ने फौज की निंदा बिल्कुल नहीं की है। अपनी तटस्थ छवि दिखाने की खातिर उसने कह दिया है कि फौज और नेताओं के बीच संवाद होना चाहिए। चीन ऐसा इसलिए कर रहा है कि म्यांमार में उसे अपना व्यापार बढ़ाने, सामुद्रिक रियायतें कबाड़ने और थाईलैंड आदि देशों को थल-मार्ग से जोड़ने की उसकी रणनीति में बर्मी फौज उसका पूरा साथ दे रही है। भारत ने भी संयुक्तराष्ट्र संघ में म्यांमार में लोकतंत्र की तरफदारी जरूर की है। भारत सरकार बड़ी दुविधा में है। उसकी परेशानी यह है कि वह बर्मी लोकतंत्र का पक्ष ले या अपने राष्ट्रीय स्वार्थों की रक्षा करे? जब म्यांमार से शरणार्थी सीमा पार करके भारत में आने लगे तो केंद्र सरकार ने उन्हें भगाने का आग्रह किया लेकिन मिजोरम सरकार के कड़े रवैए के आगे सरकार को झुकना पड़ा। सरकार की रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस भेजने की नीति का सर्वोच्च न्यायालय ने समर्थन कर दिया है, जो ठीक मालूम पड़ता है लेकिन फौजी अत्याचार से त्रस्त लोगों को अस्थाई शरण देना भारत की अत्यंत सराहनीय नीति शुरू से रही है। म्यांमार की फौजी सरकार ने अपने लंदन स्थित राजदूत क्याव जवार मिन्न को रातोंरात अपदस्थ कर दिया है। उन्हें दूतावास में घुसने से रोक दिया गया है। शायद उनका घर भी वहीं है। उन्होंने अपनी कार में ही रात गुजारी। ब्रिटिश सरकार ने इसपर काफी नाराजगी जाहिर की है लेकिन उसे कूटनीतिक नयाचार को मानना पड़ेगा। राजदूत मिन्न ने फौजी तख्ता-पलट की निंदा की थी। अमेरिका ने हीरे-जवाहरात का व्यापार करनेवाली सरकारी बर्मी कंपनी पर प्रतिबंध लगा दिया है। भारत को अपने राष्ट्रहितों की रक्षा जरूर करनी है लेकिन यदि वह फौजी तख्ता-पलट के विरुद्ध थोड़ी दृढ़ता दिखाए तो अन्तरराष्ट्रीय छवि तो सुधरेगी ही, म्यांमार में आंशिक लोकतंत्र की वापसी में भी आसानी होगी। भारत फौज और नेताओं की बीच सफल मध्यस्थ सिद्ध हो सकता है। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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ऐड़ा प्रथा................................ जंगल कर दिया अशांत, महिलाओं को देना था एकांत सामाजिक परम्पराएं वन्यजीवों पर आज भी भारी सन्तोष गुप्ता- अजमेर। मौज, शौक, मनोरंजन, रीत-रिवाज, प्रथाएं समय के प्रवाह में सजते, संवरते और बदलते रहे हैं, और बदलते रहेंगे भी। समय के साथ जो ना बदले वही कुरीति और कुप्रथाओं के नाम से पीढ़ी दर पीढ़ी पहचाने जाने लगते हैं। राजस्थान के अजमेर संभाग में खासतौर पर अजमेर और भीलवाड़ा जिलों से जुड़े कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में होली से लेकर शीतला सप्तमी तक पखवाड़े भर या उसके आसपास के दिनों में आज भी ऐड़ा प्रथा के नाम से एक सामाजिक प्रथा का निर्वाह किया जाता है जो कानूनी तौर पर निषेध, सामाजिक दृष्टि से गलत, धार्मिक नजरिए से बुरी यहां तक कि कथा संस्मरण सुनने और देखने में भी कान और आंख को प्रिय कतई नहीं। बताते हैं कि इस ऐड़ा प्रथा में गांव के लोग सामूहिक रूप से एकत्र होकर पारम्परिक हथियारों के साथ जिनमें खास तौर पर लाठी, गिलोल, कुल्हाड़ी, दातली, फरसा आदि होते हैं जंगल की ओर कूच कर जाते हैं। जहां मार्ग में दिखाई देने वाले वन्यजीवों को घेर कर खदेड़ा जाता है। वन्यजीव अपनी जान की रक्षा में इधर से उधर भागते हैं। ग्रामीण उन पर जबरदस्ती शिकंजा कसते हुए उन पर अपनी विजय प्राप्त करते हैं। इस खेल में वो लोग चाहें वह स्त्री हो या पुरुष जवान और बलवान होते हैं वे तो वन्यजीवों से द्वन्द्व में आगे रहते हैं जो लोग कमजोर अथवा बुजुर्ग होते हैं व वन्य जीवों को खदेड़ने के लिए मुंह से आवाजें निकालते हैं। कई बार वन्यजीव हिंसक होकर हमला कर देते हैं तो कई बार ग्रामीण जन वन्य जीवों पर हथियारों से वार कर उन्हें मार देते हैं। वन्य जीवों को मृत अथवा जीवित अवस्था में हांसिल करने के इस मनोरंजक खेल के समापन पर ग्रामीण गांव पहुंचकर जश्न मनाते हैं। इस प्रथा के शुरू होने को लेकर यद्यपि कोई स्पष्ट विचार सामने नहीं आया। ऐड़ा प्रथा क्यों और कितने बरस पहले शुरू हुई कोई प्रमाण नहीं है। किन्तु यह सही है कि यह प्रथा चोरी-छिपे या सांठगांठ से रस्मी तौर पर आज भी हो रही है। यही वजह है कि समय के साथ कुप्रथा बनी इस प्रथा को रोकने के लिए राज्यसरकार के वन विभाग को अच्छी खासी मशक्कत करनी होती है। वन्य जीवों के संरक्षण से जुड़े कायदे कानूनों को याद किया जाता है, उनका ग्रामीण क्षेत्रों में निचले स्तर तक प्रकाशन और प्रसारण के माध्यम से ग्रामीणों को स्मरण कराया जाता है। वन विभाग के कर्मचारियों की टोलियां बनाई जाती हैं। उनकी क्षेत्रवार जंगल जंगल तैनाती की जाती है, कानून का भय कायम किया जाता है। अधिकारियों के लावलश्कर के साथ दौरे होते हैं, कुल मिलाकर विभागीय धन सम्पदा, समय, श्रम की होली हो जाती है पर कुप्रथा है कि साल दर साल अपनी जड़ें मजबूत और प्रभाव गहरा ही बनाती जाती हैं। हां यह बात दीगर है कि डिजीटल मीडिया के दौर में पहले की तुलना में अब यह प्रथा प्राय समाप्त अथवा सिर्फ रस्मी तौर पर ही रह गई है। इसके पीछे वक्त के साथ बदली परिस्थितियां भी हैं। ऐड़ा प्रथा को लेकर जितनी भी किवदंतियां सामने आई हैं वह है बड़ी दिलचस्प। ग्रामीण जन बताते हैं कि पहले के जमाने में पर्दा प्रथा थी। महिलाएं पुरुषों से पर्दा किया करती थीं। फाल्गुनी मास में जबकि हवाएं भी गुददुदाने वाली चलती हैं, होली और शीलसप्तमी जैसे रंग रंगीले त्योंहार पर महिलाओं को घरों में एकांत की आवश्यकता महसूस होती थी जिससे वे आपस में ननद, देवरानी, जेठानी, सास, पड़ोसन के साथ होली पर्व पर रंगों का आजादी से आनन्द ले सके। इस एकांत के लिए गांव के पुरुषों को गांव से बाहर भेज दिया जाता था। जितनी देर गांव के पुरुष गांव से बाहर होते थे महिलाएं आपस में होली खेल कर आनन्द प्राप्त करती थीं। कहा तो यह भी जाता है कि यदा कदा कोई पुरुष गांव में ही रह जाता था तो महिलाएं उसके कपड़े तक फाड़ देती थीं और उसके साथ वैसा ही वर्ताव किया जाता था जैसा जंगल में पुरुष वन्य जीवों के साथ किया करते थे। वहां जंगल में पुरुष सामूहिक रूप से एक छोर से प्रवेश करते थे। मार्ग में जो भी जानवर मिलते उन्हें घेर कर खदेड़ते हुए जंगल के दूसरे छोर से बाहर आ जाते थे। इस कालखण्ड में जो भी जानवर संघर्ष में मृत्यु को प्राप्त होता ग्रामीण उसपर अपनी विजय का इजहार कर गांव में लौटकर जश्न मनाते थे। दूसरी किवदंती है कि होली यानी फाल्गुन मास में खेतों में धान पका हुआ होता था। बहुत से किसान तो धान को काट कर मंडी में पहुंचाने से पहले खेतों में ही रखा रहने देते थे। धान का खेतों में पड़े रहने पर जानवरों द्वारा उनका नुकसान किए जाने का खतरा बना रहता था। ग्रामीणों ने अपनी खड़ी अथवा कटी फसलों को बचाने के लिए आपस में मिलकर इसका तोड़ निकाला। संबंधित क्षेत्र में जितने भी गांव आते थे अलग अलग तिथियों पर निगरानी के लिए अलग-अलग गांव के लोगों को तैनात किया जाता था। इस दौरान ग्रामीण सामूहिक रूप से निगरानी करते थे। बताते हैं कि निगरानी के समय कोई वन्यजीव दिखाई देने पर महिलाएं तो मुंह से आवाजें निकाला करती थीं और पुरुष लाठियां लेकर संबंधित वन्य जीव को गांव के बाहर जंगल की तरफ घेरकर खदेड़ते थे। वन्य जीव को खदड़ने में सफल होने पर सब मिलकर विजय उत्सव मनाते थे। समय बदलता गया जंगल खत्म होने लगे तो वन्यजीव भी लुप्त होते चले गए। गांव शहर में तबदील होने लगे, ग्रामीणों ने अपनी मौज मस्ती के लिए अच्छी सामाजिक प्रथाओं को कुप्रथाओं में तबदील कर दिया। ऐड़ा प्रथा के नाम पर वन्य जीवों को घेर कर मारने को ही अपना धर्म बना लिया। ऐड़ा प्रथा के नाम पर प्रभावशाली ग्रामीण अब जंगल में लाठियों के बजाय बंदूक आदि अन्य आग्नेय अस्त्र-शस्त्र लेकर शिकार करने जाने लगे। यह काम कानून के रखवालों की सांठगांठ से होने लगे। यानी वन संरक्षक ही वन्य जीव और वन सम्पदा के भक्षक बनने लगे। आखिर समाज के जागरूक लोगों ने इस प्रथा को रोकने के लिए आवाजें उठानी शुरू की। सरकार, प्रशासन और ग्रामीण पंचायत स्तर पर जागरूकता अभियान चलाए गए। ग्रामीणों को वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 की धारा (9) के तहत वन्य जीवों को मारने, खदेड़ने, शिकार करने आदि के लिए पाबंद किया जाने लगा। ऐड़ा प्रथा में कोई जाति विशेष नहीं पूरा गांव हो जाता था शामिल............. भीलवाड़ा, अजमेर व राजसमंद जिले सहित अन्य जिलों में कुछ जाति विशेष के लोगों द्वारा होली के बाद से शीतला सप्तमी पर्व तक वन्य जीवों का शिकार किया जाता है। अजमेर जिले के ब्यावर, जवाजा, भिनाय, सरवाड़, मसूदा, केकड़ी, नसीराबाद, पुष्कर, उधर भीलवाड़ा जिले के करेड़ा, आसींद, शिवपुर, बदनौर, ज्ञानगढ़ तथा राजमंद जिले के भीम, टाटगढ़ आदि वन्य क्षेत्रों से जुड़े ग्रामीण लोग ऐड़ा प्रथा में शामिल होते हैं। वैसे रावत, चीता मेहरात जाति के लोगों में ऐड़ा प्रथा को अधिक मान्यता है। इन वन्य जीवों का होता है शिकार................... ऐड़ा प्रथा के नाम पर मोर, जंगली सुअर, चिंकारे, काले हिरण, रोजड़े, खरगोश, तीतर, बटेर सहित अन्य वन्यजीवां का शिकार व वन्यजीवों को सामूहिक रूप से घेरकर लाठियों से भी पीटा जाता है। पहले के जमाने में शड्यूल एक के जीव जैसे हिंसक जानवर हुआ करते थे। किन्तु अब वे रहे भी नहीं अब तो शडयूल तीन के वन्य जीव ही इस प्रथा का शिकार अधिक होते हैं। वन्य जीव के शिकार पर यह है सजा.................. वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत शिकारियों पर कठोर कार्यवाही की जाती रही है। शड्यूल एक के वन्य जीव का शिकार करने पर 3 से 7 साल का कारावास है वहीं शड्यूल दो व तीन के लिए तीन साल का कारावास है। भीलवाड़ा व अजमेर जिले के जवाजा पंचायत समिति क्षेत्र में वर्ष 1912 व 13 से लेकर 1917 व 18 में ऐड़ा प्रथा की रोकथाम को लेकर बहुत काम हुआ। रेंजर अशोक चतुर्वेदी, वन्य अधिकारी भगवानसिंह जी ने व्यक्तिगत इच्छा शक्ति दर्शा कर लोगों को जागरूक किया, कानून का भय डाला, पंचायत समिति स्तर पर समाजसेवी व जनप्रतिनिधियों को साथ लेकर कुप्रथा पर रोग लगाने के कारगर प्रयास किए। मुलकेश सालवान- क्षेत्रीय वन अधिकारी, वन विभाग आवाज उठाई तो विभाग एक्शन में आया........... मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक मोहनलाल मीणा को पत्र भेजकर भीलवाड़ा, राजसमंद, अजमेर सहित अन्य जिलों के उप वन संरक्षकों को निर्देशित कर गश्त व्यवस्था बढ़ाकर, ऐड़ा प्रथा की आड़ में होने वाले वन्य जीव शिकार की घटनाओं पर अंकुश लगाने की मांग की गई। मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक मीणा को पूर्व में ऐड़ा के नाम पर वन्यजीवों के शिकार किये जाने के वीडियो भी भेजे गए। विभाग ने इस पर एक्शन लिया। इस बात की खुशी है। बाबू लाल जाजू- प्रदेश प्रभारी, पीपुल फॉर एनीमल्स, राजस्थान समस्त क्षे़़त्रीय अधिकारियों को किया निर्देशित................. वर्तमान में ऐड़ा प्रथा समय के साथ प्राय समाप्त हो गई है। फिर भी सभी क्षेत्रीय वन अधिकारियों को सजग और सतर्क रहने को कहा गया है। टोलिया बना कर गश्त के निर्देश दिए गए हैं। अपने नियंत्रणाधीन इलाके में उक्त कुप्रथा अथवा अन्य गतिविधियों जैसे होली त्योहार के मौके पर जंगल की अवैध कटाई, अतिक्रमण, शिकार या खनन की घटना घटित होने की आशंका हो तो उसे रोकने की कार्यवाही सुनिश्ति करें।
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सियाराम पांडेय 'शांत' किसी संगठन का विस्तार और उसकी उपलब्धियां बताती है कि उसके रणनीतिकारों ने कितनी मेहनत की है। भारतीय जनता पार्टी भी इसका अपवाद नहीं है। 6 अप्रैल उसका स्थापना दिवस ही नहीं है बल्कि उसके लिए आत्ममंथन का अवसर भी है। इसी दिन वर्ष 1980 में भाजपा की स्थापना हुई थी। 2 लोकसभा सीटों से 303 लोकसभा सीटों पर विजय का राजनीतिक सफर कम नहीं होता। आज भाजपा न केवल केंद्र में सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है बल्कि देश के 29 में से 16 राज्यों में उसकी सरकार है। उसके सदस्यों की संख्या भारत ही नहीं, दुनिया भर के किसी भी राजनीतिक संगठन से कहीं अधिक है। 1951 में पं. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की थी। 1977 में आपातकाल की समाप्ति के बाद जनता पार्टी का निर्माण हुआ जिसमें जनसंघ समेत अन्य दलों का विलय हो गया। 1977 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की चुनावी हार हुई और तीन साल तक जनता पार्टी की सरकार चली। 1980 में जनता पार्टी विघटित हो गई और जनसंघ के पदचिह्नों को पुनर्संयोजित करते हुए भारतीय जनता पार्टी का निर्माण किया गया। हालांकि शुरुआती दौर में उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली। 1984 के आम चुनाव में भाजपा को लोकसभा की केवल दो सीटें मिलीं। यह संख्या ज्यादा भी हो सकती थी लेकिन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी को सहानुभूति का लाभ मिला। इसके बाद भाजपा ने विश्व हिंदू परिषद द्वारा शुरू किए गए राम जन्मभूमि आंदोलन को अपना समर्थन दिया। यह और बात है कि इसके लिए उसे परेशानियां भी खूब झेलनी पड़ी लेकिन उसने पलटकर नहीं देखा। वर्ष 2004 से 2014 तक के कालखंड को छोड़कर। यह और बात है कि इस बीच वह केंद्र में ही सत्ता से बाहर रही। अन्य राज्यों में उसकी जड़ें अपेक्षाकृत मजबूत ही होती रहीं। 1996 में वह भारतीय संसद में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रण मिला भी और सरकार भी बनी लेकिन बहुमत के अभाव में वह 13 दिन ही चल पाई। 1998 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का निर्माण हुआ और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी जो एक वर्ष तक चली। इसके बाद आम-चुनाव में राजग को पुनः पूर्ण बहुमत मिला और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार ने अपना कार्यकाल पूर्ण किया। अगर यह कहें कि अपना कार्यकाल पूर्ण करने वाली वह पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी तो कदाचित गलत नहीं होगा। 2004 के आम चुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा और अगले 10 वर्षों के लिए वह संसद में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में आ गई। 2014 के लोकसभा चुनाव में राजग को गुजरात के लगातार तीन बार के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारी जीत मिली और केंद्र में भाजपा की सरकार बनी। जम्मू और कश्मीर के लिए विशेष संवैधानिक दर्जा ख़त्म कर मोदी सरकार ने अगर पार्टी का एक एजेंडा पूरा कर दिया है तो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद अयोध्या में राममंदिर का निर्माण भी आरंभ हो गया है। राम वन गमन मार्ग बनाया जा रहा था तो अयोध्या में विशेष संग्रहालय का भी निर्माण हो रहा है। इतना ही नहीं, नव्य अयोध्या भी विकसित की जा रही है। सरकार की कोशिश समान नागरिक संहिता बनाने की है लेकिन राज्यसभा में उसकी थोड़ी कम उपस्थिति है। एनआसी जैसे मुद्दों पर विपक्ष का हंगामा किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में सरकार दूध की जली बिल्ली की तरह छांछ भी फूंक कर पीना चाहती है। यह सच है कि अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने 1998-2004 के बीच किसी भी विवादास्पद मुद्दे को नहीं छुआ। इसके स्थान पर वैश्वीकरण पर आधारित आर्थिक नीतियों तथा सामाजिक कल्याणकारी आर्थिक वृद्धि पर केन्द्रित रही लेकिन नरेंद्र मोदी की केंद्र में सरकार बनने के बाद से देशभर में भाजपा मजबूत हुई है। सबका साथ-सबका विकास और सबका विश्वास का नारा देकर नरेंद्र मोदी ने देश के जनता-जनार्दन के दिल में अपनी जगह बनाने की कोशिश की है। 1980 से लेकर 2021 तक के 41 साल के कालखंड में भाजपा ने अगर बहुत कुछ पाया है तो बहुत कुछ खोया भी है। असम, केरल, पुडुचेरी, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में वह जिस तरह चुनावी जोर आजमाइश कर रही है, उससे तो यही लगता है कि डबल इंजन की सरकार बनाने का एक भी मौका अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहती। पहले अध्यक्ष अटल बिहारी बाजपेयी से लेकर जेपी नड्डा तक की अध्यक्षता में भाजपा निरंतर प्रगति पथ पर गतिशील है। यही वजह है कि आज कांग्रेस समेत सभी प्रमुख विपक्षी दल उसे जड़-मूल से उखाड़ फेंकना चाहते हैं लेकिन उसकी जड़ें इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि विपक्ष को मुंह की खानी पड़ रही है। सितम्बर 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा आरंभ होने और बिहार की तत्कालीन लालू सरकार द्वारा समस्तीपुर में हुई उनकी गिरफ्तारी ने भाजपा को और मजबूती दे दी थी। उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सरकार में अयोध्या में कारसेवकों पर हुई गोलीबारी से भी भाजपा को बल मिला था और आज उसका स्वर्णिम काल है। जब देश के 16 राज्यों और केंद्र में उसकी अपनी या समर्थन की सरकार है। 27 फरवरी 2002 कारसेवकों को लेकर अयोध्या से आ रही साबरमती एक्सप्रेस को गोधरा कस्बे के बाहर आग लगा दी गयी। हादसे में 59 लोग मारे गये। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप गुजरात में हिंसा भड़क गई। इसमें मरने वालों की संख्या 2 हजार तक पहुंच गई जबकि तकरीबन डेढ़ लाख लोग विस्थापित हो गए। यह और बात है कि इन सबके बावजूद नरेंद्र मोदी ने देश को जोड़े रखने का अपना अभियान नहीं छोड़ा। प्रधानमंत्री बनने के बाद से उन्होंने देश के विकास को लेकर दिन-रात प्रयास किया। एक दिन का भी अवकाश नहीं लिया। लोग जागरूक हों, इसके लिए वे सतत सचेष्ट रहते हैं। भाजपा अगर एकजुटता के साथ आगे बढ़ रही है तो उसके मूल में नरेंद्र मोदी की प्रेरणा ही है। भाजपा को सोचना होगा कि वह और बेहतर क्या कर सकती है। जन-जन तक, घर-घर तक कैसे पहुंच सकती है। जनहित के पार्टी के संकल्पों को कैसे पूरा कर सकती है। भाजपा का निश्चित रूप से यह स्वर्णकाल है लेकिन विश्राम काल कतई नहीं है। इसलिए भाजपा के हर छोटे- बड़े कार्यकर्ता को अपनी जिम्मेदारियों का शत-प्रतिशत पालन करना होगा। सरकार की जनहितकारी योजनाओं का निष्पक्षता से अनुपालन हो, इस दिशा में विचार करना होगा। अपने-अपने क्षेत्र में चल रहे विकास कार्यों में कदाचार रोकने के लिए उसपर नजर रखनी होगी। जब पूरी भाजपा एकजुटता से खड़ी होगी तभी यह देश सही मायने में सोने की चिड़िया बन सकेगा। (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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विश्व स्वास्थ्य दिवस (7 अप्रैल) पर विशेष योगेश कुमार गोयल लोगों के स्वास्थ्य स्तर को सुधारने तथा स्वास्थ्य को लेकर प्रत्येक व्यक्ति को जागरूक करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 7 अप्रैल को वैश्विक स्तर ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ मनाया जाता है। इस दिवस को मनाए जाने का प्रमुख उद्देश्य दुनिया के हर व्यक्ति को इलाज की अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना, उनका स्वास्थ्य बेहतर बनाना, उनके स्वास्थ्य स्तर को ऊंचा उठाना तथा समाज को बीमारियों के प्रति जागरूक कर स्वस्थ वातावरण बनाते हुए स्वस्थ रखना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के बैनर तले मनाए जाने वाले इस दिवस की शुरूआत 7 अप्रैल 1950 को हुई थी और यह दिवस मनाने के लिए इसी तारीख का निर्धारण डब्ल्यूएचओ की संस्थापना वर्षगांठ को चिन्हित करने के उद्देश्य से किया गया था। दरअसल सम्पूर्ण विश्व को निरोगी बनाने के उद्देश्य से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ नामक वैश्विक संस्था की स्थापना 7 अप्रैल 1948 को हुई थी, जिसका मुख्यालय स्विट्जरलैंड के जेनेवा शहर में है। कुल 193 देशों ने मिलकर जेनेवा में इस वैश्विक संस्था की नींव रखी थी, जिसका मुख्य उद्देश्य यही है कि दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा हो, बीमार होने पर उसे बेहतर इलाज की पर्याप्त सुविधा मिल सके। संस्था की पहली बैठक 24 जुलाई 1948 को हुई थी और इसकी स्थापना के समय इसके संविधान पर 61 देशों ने हस्ताक्षर किए थे। संगठन की स्थापना के दो वर्ष बाद ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ मनाने की परम्परा शुरू की गई। इस वर्ष कोरोना की महामारी से जूझ रही पूरी दुनिया 71वां विश्व स्वास्थ्य दिवस मना रही है, ऐसे में विश्वभर में लोगों के स्वास्थ्य के दृष्टिगत इस दिवस की महत्ता इस वर्ष भी पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। एक वर्ष से भी ज्यादा समय से कोरोना से लड़ी जा रही जंग में प्रत्येक देश का यही प्रयास है कि कोरोना से जल्द से जल्द निजात पाई जा सके और इसके लिए दुनियाभर में कोविड वैक्सीनेशन का कार्य चल भी रहा है। संयुक्त राष्ट्र का अहम हिस्सा ‘डब्ल्यूएचओ’ दुनिया के तमाम देशों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग और मानक विकसित करने वाली संस्था है। इस संस्था का प्रमुख कार्य विश्वभर में स्वास्थ्य समस्याओं पर नजर रखना और उन्हें सुलझाने में सहयोग करना है। अपनी स्थापना के बाद इस वैश्विक संस्था ने ‘स्मॉल पॉक्स’ जैसी बीमारी को जड़ से खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। टीबी, एड्स, पोलियो, रक्ताल्पता, नेत्रहीनता, मलेरिया, सार्स, मर्स, इबोला जैसी खतरनाक बीमारियों के बाद कोरोना की रोकथाम के लिए भी जी-जान से जुटी है। इस संस्था के माध्यम से प्रयास किया जाता है कि दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहे। भारतीय समाज में तो सदियों से धारणा भी रही है ‘जान है तो जहान है’ तथा ‘पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में हो माया’। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः’ अर्थात् ‘सब सुखी हों और सभी रोगमुक्त हों’ मूलमंत्र में यही स्वास्थ्य भावना निहित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का पहला लक्ष्य वैश्विक स्वास्थ्य कवरेज रहा है लेकिन इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह सुनिश्चित किया जाना बेहद जरूरी है कि समुदाय में सभी लोगों को अपेक्षित स्वास्थ्य सुविधाएं व देखभाल मिले। हालांकि दुनिया के तमाम देश स्वास्थ्य के क्षेत्र में लगातार प्रगति कर रहे हैं लेकिन कोरोना जैसे वायरसों के समक्ष जब पिछले साल अमेरिका जैसे विकसित देश को भी बेबस अवस्था में देखा और वहां भी स्वास्थ्य कर्मियों के लिए जरूरी सामान की भारी कमी नजर आई, तब पूरी दुनिया को अहसास हुआ कि अभी भी जन-जन तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन तो स्वयं यह भी मानता है कि दुनिया की कम से कम आधी आबादी को आज भी आवश्यक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं। विश्वभर में अरबों लोगों को स्वास्थ्य देखभाल हासिल नहीं होती। करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं तथा स्वास्थ्य देखभाल में से किसी एक को चुनने पर विवश होना पड़ता है। जन-स्वास्थ्य से जुड़े कुछ वैश्विक तथ्यों पर ध्यान दिया जाए तो हालांकि टीकाकरण, परिवार नियोजन, एचआईवी के लिए एंटीरिट्रोवायरल उपचार तथा मलेरिया की रोकथाम में सुधार हुआ है लेकिन चिंता की स्थिति यह है कि अभी भी दुनिया की आधी से अधिक आबादी तक आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच नहीं है। विश्वभर में 80 करोड़ से भी ज्यादा लोग अपने घर के बजट का कम से कम दस फीसदी स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर खर्च करते हैं। यही नहीं, स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर बड़ा खर्च करने के कारण दस करोड़ से ज्यादा लोग अत्यधिक गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। चिंता की स्थिति यह है कि पिछले कुछ दशकों में एक ओर जहां स्वास्थ्य क्षेत्र ने काफी प्रगति की है, वहीं कुछ वर्षों के भीतर एड्स, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के प्रकोप के साथ हृदय रोग, मधुमेह, क्षय रोग, मोटापा, तनाव जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी तेजी से बढ़ी हैं। ऐसे में स्वास्थ्य क्षेत्र की चुनौतियां निरन्तर बढ़ रही हैं। अगर भारत की बात की जाए तो मौजूदा कोरोना काल को छोड़ दें तो आर्थिक दृष्टि से देश में पिछले दशकों में तीव्र गति से आर्थिक विकास हुआ लेकिन कड़वा सच यह भी है कि तेज गति से आर्थिक विकास के बावजूद इसी देश में करोड़ों लोग कुपोषण के शिकार हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार तीन वर्ष की अवस्था वाले तीन फीसदी से भी अधिक बच्चों का विकास अपनी उम्र के हिसाब से नहीं हो सका है और चालीस फीसदी से अधिक बच्चे अपनी अवस्था की तुलना में कम वजन के हैं। इनमें करीब अस्सी फीसदी बच्चे रक्ताल्पता (अनीमिया) से पीडि़त हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक दस में से सात बच्चे अनीमिया से पीडि़त हैं जबकि महिलाओं की तीस फीसदी से ज्यादा आबादी कुपोषण की शिकार है। कुछ रिपोर्टों के मुताबिक देश में अभी भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह मुफ्त नहीं हैं और जो हैं, उनकी स्थिति संतोषजनक नहीं है। भारत में ग्रामीण तथा कमजोर आबादी में सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का विस्तार करने के उद्देश्य से ‘आयुष्मान भारत कार्यक्रम’ की शुरूआत की गई थी, जिसके तहत देश की जरूरतमंद आबादी को अपेक्षित स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने का प्रयास किया जा रहा है। इसके अलावा ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण मिशन’ (एनएचपीएम) के तहत दस करोड़ से अधिक गरीब लोगों और कमजोर परिवारों की स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक परिवार को पांच लाख रुपये वार्षिक की कवरेज प्रदान की जा रही है। हालांकि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं को देखा जाए तो देश में स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रशिक्षित लोगों की बड़ी कमी है। यहां डॉक्टरों तथा आबादी का अनुपात संतोषजनक नहीं है, बिस्तरों की उपलब्धता भी बेहद कम है। देश में सवा अरब से अधिक आबादी के लिए महज 26 हजार अस्पताल हैं अर्थात् 47 हजार लोगों पर सिर्फ एक सरकारी अस्पताल है। देशभर के सरकारी अस्पतालों में इतनी बड़ी आबादी के लिए करीब सात लाख बिस्तर हैं। सरकारी अस्पतालों में करीब 1.17 लाख डॉक्टर हैं अर्थात् दस हजार से अधिक लोगों पर महज एक डॉक्टर ही उपलब्ध है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के नियमानुसार प्रति एक हजार मरीजों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। कुछ राज्यों में तो स्थिति यह है कि 40 से 70 हजार ग्रामीण आबादी पर केवल एक सरकारी डॉक्टर ही उपलब्ध है। आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में अधिकांश लोग जाने-अनजाने में स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कामकाज के साथ अपने स्वास्थ्य का भी पूरा ध्यान रखें ताकि जिंदगी की यह रफ्तार पूरी तरह दवाओं पर निर्भर होकर न रह जाए। बेहतर होगा, अगर व्यस्त दिनचर्या में से थोड़ा समय योग या व्यायाम के लिए निकाला जाए और भोजन में ताजी सब्जियों, मौसमी फलों और फाइबर युक्त हैल्दी डाइट का समावेश किया जाए। बहरहाल, विश्व स्वास्थ्य दिवस के माध्यम से जहां समाज को बीमारियों के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया जाता है, वहीं इसका सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु यही होता है कि लोगों को स्वस्थ वातावरण बनाकर स्वस्थ रहना सिखाया जा सके। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक छत्तीसगढ़ के टेकलगुड़ा के जंगलों में 22 जवान मारे गए और दर्जनों घायल हुए। माना जा रहा है कि इस मुठभेड़ में लगभग 20 नक्सली भी मारे गए। यह नक्सलवादी आंदोलन बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से 1967 में शुरु हुआ था। इसके आदि प्रवर्तक चारु मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी जैसे नौजवान थे। ये कम्युनिस्ट थे लेकिन माओवाद को इन्होंने अपना धर्म बना लिया था। मार्क्स के 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' के आखिरी पेराग्राफ इनका वेदवाक्य बन गया है। ये सशस्त्र क्रांति के द्वारा सत्ता-पलट में विश्वास करते हैं। इसीलिए पहले बंगाल, फिर आंध्र व ओडिशा और फिर झारखंड और मप्र के जंगलों में छिपकर ये हमले बोलते रहे हैं और कुछ जिलों में ये अपनी समानांतर सरकार चलाते हैं। इस समय छत्तीसगढ़ के 14 जिलों में और देश के लगभग 50 अन्य जिलों में इनका दबदबा है। ये वहां छापामारों को हथियार और प्रशिक्षण देते हैं और लोगों से पैसा भी उगाहते रहते हैं। ये नक्सलवादी छापामार सरकारी भवनों, बसों और नागरिकों पर सीधे हमले भी बोलते रहते हैं। जंगलों में रहनेवाले आदिवासियों को भड़काकर ये उनकी सहानुभूति अर्जित कर लेते हैं और उन्हें सब्जबाग दिखाकर अपने गिरोहों में शामिल कर लेते हैं। ये गिरोह इन जंगलों में कोई भी निर्माण-कार्य नहीं चलने देते हैं और आतंकवादियों की तरह हमले बोलते रहते हैं। पहले तो बंगाली, तेलुगु और ओड़िया नक्सली बस्तर में डेरा जमाकर खून की होलियां खेलते थे लेकिन अब स्थानीय आदिवासी जैसे हिडमा और सुजाता जैसे लोगों ने उनकी कमान संभाल ली है। केंद्रीय पुलिस बल आदि की दिक्कत यह है कि एक तो उनको पर्याप्त जासूसी सूचनाएं नहीं मिलतीं और वे बीहड़ जंगलों में भटक जाते हैं। उनमें से एक जंगल का नाम ही है-अबूझमाड़। इसी भटकाव के कारण इस बार सैकड़ों पुलिसवालों को घेरकर नक्सलियों ने उन पर जानलेवा हमला बोल दिया। 2013 में इन्हीं नक्सलियों ने कई कांग्रेसी नेताओं समेत 32 लोगों को मार डाला था। ऐसा नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने अपनी आंख मींच रखी है। 2009 में 2258 नक्सली हिंसा की वारदात हुई थी लेकिन 2020 में 665 ही हुईं। 2009 में 1005 लोग मारे गए थे जबकि 2020 में 183 लोग मारे गए। आंध्र, बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना के जंगलों से नक्सलियों के सफाए का एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि वहां की सरकारों ने उनके जंगलों में सड़कें, पुल, नहरें, तालाब, स्कूल और अस्पताल आदि बनवा दिए हैं। बस्तर में इनकी काफी कमी है। पुलिस और सरकारी कर्मचारी बस्तर के अंदरूनी इलाकों में पहुंच ही नहीं पाते। केंद्र सरकार चाहे तो युद्ध-स्तर पर छत्तीसगढ़-सरकार से सहयोग करके नक्सल-समस्या को जड़ से उखाड़ सकती है। यह भी जरूरी है कि अनेक समाजसेवी संस्थाओं को सरकार आदिवासी क्षेत्रों में सेवा-कार्य के लिए प्रेरित करे। (लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक छत्तीसगढ़ के टेकलगुड़ा के जंगलों में 22 जवान मारे गए और दर्जनों घायल हुए। माना जा रहा है कि इस मुठभेड़ में लगभग 20 नक्सली भी मारे गए। यह नक्सलवादी आंदोलन बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से 1967 में शुरु हुआ था। इसके आदि प्रवर्तक चारु मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी जैसे नौजवान थे। ये कम्युनिस्ट थे लेकिन माओवाद को इन्होंने अपना धर्म बना लिया था। मार्क्स के 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' के आखिरी पेराग्राफ इनका वेदवाक्य बन गया है। ये सशस्त्र क्रांति के द्वारा सत्ता-पलट में विश्वास करते हैं। इसीलिए पहले बंगाल, फिर आंध्र व ओडिशा और फिर झारखंड और मप्र के जंगलों में छिपकर ये हमले बोलते रहे हैं और कुछ जिलों में ये अपनी समानांतर सरकार चलाते हैं। इस समय छत्तीसगढ़ के 14 जिलों में और देश के लगभग 50 अन्य जिलों में इनका दबदबा है। ये वहां छापामारों को हथियार और प्रशिक्षण देते हैं और लोगों से पैसा भी उगाहते रहते हैं। ये नक्सलवादी छापामार सरकारी भवनों, बसों और नागरिकों पर सीधे हमले भी बोलते रहते हैं। जंगलों में रहनेवाले आदिवासियों को भड़काकर ये उनकी सहानुभूति अर्जित कर लेते हैं और उन्हें सब्जबाग दिखाकर अपने गिरोहों में शामिल कर लेते हैं। ये गिरोह इन जंगलों में कोई भी निर्माण-कार्य नहीं चलने देते हैं और आतंकवादियों की तरह हमले बोलते रहते हैं। पहले तो बंगाली, तेलुगु और ओड़िया नक्सली बस्तर में डेरा जमाकर खून की होलियां खेलते थे लेकिन अब स्थानीय आदिवासी जैसे हिडमा और सुजाता जैसे लोगों ने उनकी कमान संभाल ली है। केंद्रीय पुलिस बल आदि की दिक्कत यह है कि एक तो उनको पर्याप्त जासूसी सूचनाएं नहीं मिलतीं और वे बीहड़ जंगलों में भटक जाते हैं। उनमें से एक जंगल का नाम ही है-अबूझमाड़। इसी भटकाव के कारण इस बार सैकड़ों पुलिसवालों को घेरकर नक्सलियों ने उन पर जानलेवा हमला बोल दिया। 2013 में इन्हीं नक्सलियों ने कई कांग्रेसी नेताओं समेत 32 लोगों को मार डाला था। ऐसा नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने अपनी आंख मींच रखी है। 2009 में 2258 नक्सली हिंसा की वारदात हुई थी लेकिन 2020 में 665 ही हुईं। 2009 में 1005 लोग मारे गए थे जबकि 2020 में 183 लोग मारे गए। आंध्र, बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना के जंगलों से नक्सलियों के सफाए का एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि वहां की सरकारों ने उनके जंगलों में सड़कें, पुल, नहरें, तालाब, स्कूल और अस्पताल आदि बनवा दिए हैं। बस्तर में इनकी काफी कमी है। पुलिस और सरकारी कर्मचारी बस्तर के अंदरूनी इलाकों में पहुंच ही नहीं पाते। केंद्र सरकार चाहे तो युद्ध-स्तर पर छत्तीसगढ़-सरकार से सहयोग करके नक्सल-समस्या को जड़ से उखाड़ सकती है। यह भी जरूरी है कि अनेक समाजसेवी संस्थाओं को सरकार आदिवासी क्षेत्रों में सेवा-कार्य के लिए प्रेरित करे। (लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक छत्तीसगढ़ के टेकलगुड़ा के जंगलों में 22 जवान मारे गए और दर्जनों घायल हुए। माना जा रहा है कि इस मुठभेड़ में लगभग 20 नक्सली भी मारे गए। यह नक्सलवादी आंदोलन बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से 1967 में शुरु हुआ था। इसके आदि प्रवर्तक चारु मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी जैसे नौजवान थे। ये कम्युनिस्ट थे लेकिन माओवाद को इन्होंने अपना धर्म बना लिया था। मार्क्स के 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' के आखिरी पेराग्राफ इनका वेदवाक्य बन गया है। ये सशस्त्र क्रांति के द्वारा सत्ता-पलट में विश्वास करते हैं। इसीलिए पहले बंगाल, फिर आंध्र व ओडिशा और फिर झारखंड और मप्र के जंगलों में छिपकर ये हमले बोलते रहे हैं और कुछ जिलों में ये अपनी समानांतर सरकार चलाते हैं। इस समय छत्तीसगढ़ के 14 जिलों में और देश के लगभग 50 अन्य जिलों में इनका दबदबा है। ये वहां छापामारों को हथियार और प्रशिक्षण देते हैं और लोगों से पैसा भी उगाहते रहते हैं। ये नक्सलवादी छापामार सरकारी भवनों, बसों और नागरिकों पर सीधे हमले भी बोलते रहते हैं। जंगलों में रहनेवाले आदिवासियों को भड़काकर ये उनकी सहानुभूति अर्जित कर लेते हैं और उन्हें सब्जबाग दिखाकर अपने गिरोहों में शामिल कर लेते हैं। ये गिरोह इन जंगलों में कोई भी निर्माण-कार्य नहीं चलने देते हैं और आतंकवादियों की तरह हमले बोलते रहते हैं। पहले तो बंगाली, तेलुगु और ओड़िया नक्सली बस्तर में डेरा जमाकर खून की होलियां खेलते थे लेकिन अब स्थानीय आदिवासी जैसे हिडमा और सुजाता जैसे लोगों ने उनकी कमान संभाल ली है। केंद्रीय पुलिस बल आदि की दिक्कत यह है कि एक तो उनको पर्याप्त जासूसी सूचनाएं नहीं मिलतीं और वे बीहड़ जंगलों में भटक जाते हैं। उनमें से एक जंगल का नाम ही है-अबूझमाड़। इसी भटकाव के कारण इस बार सैकड़ों पुलिसवालों को घेरकर नक्सलियों ने उन पर जानलेवा हमला बोल दिया। 2013 में इन्हीं नक्सलियों ने कई कांग्रेसी नेताओं समेत 32 लोगों को मार डाला था। ऐसा नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने अपनी आंख मींच रखी है। 2009 में 2258 नक्सली हिंसा की वारदात हुई थी लेकिन 2020 में 665 ही हुईं। 2009 में 1005 लोग मारे गए थे जबकि 2020 में 183 लोग मारे गए। आंध्र, बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना के जंगलों से नक्सलियों के सफाए का एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि वहां की सरकारों ने उनके जंगलों में सड़कें, पुल, नहरें, तालाब, स्कूल और अस्पताल आदि बनवा दिए हैं। बस्तर में इनकी काफी कमी है। पुलिस और सरकारी कर्मचारी बस्तर के अंदरूनी इलाकों में पहुंच ही नहीं पाते। केंद्र सरकार चाहे तो युद्ध-स्तर पर छत्तीसगढ़-सरकार से सहयोग करके नक्सल-समस्या को जड़ से उखाड़ सकती है। यह भी जरूरी है कि अनेक समाजसेवी संस्थाओं को सरकार आदिवासी क्षेत्रों में सेवा-कार्य के लिए प्रेरित करे। (लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार हैं।)
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भाजपा स्थापना दिवस (06 अप्रैल) पर विशेष डॉ. अजय खेमरिया 41 वर्ष आयु हो गई है भारतीय जनता पार्टी की। मुंबई के पहले पार्टी अधिवेशन में अटल जी ने अध्यक्ष के रूप में कहा था कि "अंधियारा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा।" आज भारत की संसदीय राजनीति में चारों तरफ कमल खिल रहा है। कभी बामन-बनियों और बाजार वालों (मतलब शहरी इलाके) की पार्टी रही भाजपा आज अखिल भारतीय प्रभाव के चरम पर है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के शोर में बीजेपी का स्थापना दिवस कुछ अहम सवालों के साथ विमर्श को आमंत्रित करता है। सवाल यह कि क्या बीजेपी का अभ्युदय केवल एक चुनावी हार-जीत से जुड़ा घटनाक्रम है? हर दल के जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं इसलिए क्या बीजेपी का चरम भी समय के साथ उतार पर आ जायेगा? इस बुनियादी सवाल के ईमानदार विश्लेषण में एक साथ कई पहलू छिपे हैं बशर्ते संसदीय राजनीति के उन पहलुओं को पकड़ने की कोशिश की जाए जो स्वाभाविक शासक दल और उसके थिंक टैंक की कार्यनीति से सीधे जुड़े रहे हैं। बंगाल,सहित सभी पांच राज्यों में भाजपा चुनाव हार भी जाये तब भी यह सुस्पष्ट है कि भारत एक नए संसदीय मॉडल की राह पकड़ चुका है और यह रास्ता है बहुसंख्यकवाद का। यानी बीजेपी ने शासन और राजनीति को महज 41 साल में एक नए मॉडल में परिवर्तित कर दिया है, जिसे 60 साल में कांग्रेस ने खड़ा किया था। बेशक दूर से यह मॉडल 2014 के बाद से ही नजर आता है लेकिन इसकी बुनियाद 95 साल पहले रखी जा चुकी थी जब एक कांग्रेसी डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार भारत के स्वत्व केंद्रित सामाजिकी को भारत के भविष्य के रूप में देख रहे थे। आरएसएस यानी संघ उस बुनियाद का सामाजिक, सांस्कृतिक नाम है जिसे आज के पॉलिटिकल पंडित मोदी-शाह की सोशल इंजीनियरिंग कहकर अपनी सतही समझ को अभिव्यक्त करते हैं। असल में बीजेपी का राजनीतिक शिखर महज एक पड़ाव है उस सुदीर्ध परियोजना का जिसे संघ ने अपने सतत संघर्ष ,बलिदान और तपस्या से खड़ा किया है। सवाल यह है कि महज 7 साल से भी कम के दौर में गैर बीजेपीवाद की राष्ट्रीय मांग क्यों बेचारगी के साथ मुखर होने लगी, स्वाभाविक शासक परिवार के मुखिया अमेरिका से हस्तक्षेप तक की मांग पर उतर आए, जबकि गैर कांग्रेसवाद को फलीभूत होने में 60 साल का समय लगा। मोदी-शाह के अक्स में इस राजनीतिक मांग को जब तक देखा जाता रहेगा यह न तो कभी बीजेपी के लिए चुनौती साबित होगा न निकट भविष्य में उसके चुनावी पराभव को सुनिश्चित करेगा, जैसा कि हालिया कांग्रेस का हुआ है। सच्चाई यह है कि बीजेपी एक दीर्धकालिक समाज परियोजना का पड़ाव भर है। भारत का भविष्य अब सेक्युलरिज्म या अल्पसंख्यकवाद से नहीं बहुसंख्यकवाद से ही निर्धारित होगा। इसलिए अगर निकट भविष्य में बीजेपी चुनावी शिकस्त भी खाती है तब भी यह परियोजना सफलतापूर्वक आगे बढ़ेगी। पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण सब दूर ध्यान से देखा जाए तो सियासी महल के दुमहले मोदी-शाह से भयाक्रांत है। बीजेपी का यह राजनीतिक भय आखिर किसकी दम पर खड़ा हुआ है? बुद्धिजीवियों की सुनें तो सत्ता के कथित दुरुपयोग से, साम्प्रदायिक राजनीति और धनबल से। हकीकत यह है कि बीजेपी ने भारत की संसदीय राजनीति को 70 साल बाद सही अर्थों में समावेशी और समाजवादी बनाने का काम किया है। यह नया मॉडल बहुसंख्यक भावनाओं पर मजबूती से आकर खड़ा हो गया है। यह भी तथ्य है कि भारत के साथ रागात्मक रिश्ता संसदीय व्यवस्था में अगर किसी ने खड़ा किया तो वह बीजेपी ही है और इसका श्रेय जाता है उसकी मातृ संस्था संघ को। 60 साल तक अल्पसंख्यकवाद भारत की उदारमना बहुसंख्यक आबादी की छाती को मानो रौंदते हुए खड़ा रहा। समाजवाद और सामाजिक न्याय की अवधारणाओं को ध्यान से देखिए कैसे सिंडिकेट निर्मित हुए इन चुनावी अखाड़ों में।सैफई, पाटलिपुत्र जैसे तमाम समाजवादी और फैमिली सिंडिकेटस को बीजेपी ने केवल 2014 में आकर तोड़ दिया है, यह मानना भी बचकाना तर्क ही है। कल मोदी-शाह नहीं होंगे तब क्या कोई प्रधानमंत्री हिन्दू भावनाओं को दोयम बनाने की हिम्मत करेगा? क्या शांडिल्य गोत्री कोई ममता चंडीपाठ की जगह केवल कलमा से अपनी चुनावी वैतरणी पार कर सकेंगी? क्या बंगाल में अब कोई भी दल जयश्री राम के जयघोष करने वालों को जेल में बंद कराने की हिम्मत करेगा? क्या आगे कोई राजकुमार अपने कुर्ते के ऊपर से जनेऊ पहनकर खुद के दतात्रेय गोत्र को बांचने से बचेगा? क्या गारंटी है कि कोई दिग्विजय सिंह जैसा सेक्युलर चैम्पियन राममन्दिर के लिये चंदा नहीं देगा। सबरीमाला पर वाम और कांग्रेसी माफी की मुद्रा में नहीं होंगे और स्टालिन कबतक खुद को नास्तिक कह पायेंगे। इस विमर्श को गहराई से समझने की जरूरत है कि कैसे भारत की चुनावी राजनीति नए संस्करण में खुद को ढाल रही है। क्या यह सेक्युलरिज्म का बीजेपी मॉडल नहीं है जिसे संसदीय स्वीकार्यता मिल रही है। सामाजिक न्याय और समाजवाद के उसके मॉडल को भी देखिये। गोकुल जाट, सुहैलदेव, कबीर से लेकर सबरी और मतुआ को लेकर मथुरा, बनारस से बंगाल तक एक नया ध्रुवीकरण बीजेपी के पक्ष में दिखाई देता है। मौर्या, कोइरी, कुर्मी, लोधी, लिंगायत, निषाद, मुसहर,जैसी बीसियों पिछड़ी, दलित जातियां बीजेपी की छतरी के नीचे खुद को राजनीतिक न्याय के नजदीक पा रही हैं। जबकि संविधान के होलसेल डीलर इस न्याय को केवल परिवारशाही की हदबंदी में बंधक बनाए रखें। इसका सीधा मतलब यही है कि माई और भूरा बाल जैसे समीकरण अब इतिहास के कूड़ेदान में जा चुके हैं और सैफई महोत्सव की समाजवादी रंगीनियत भी शायद ही अब लौटकर आ पाएं। इसे समाजीकरण की प्रक्रिया में आप भव्य हिन्दू परम्परा का निरूपण भी कह सकते हैं। एक दौर में देश ने अटलजी के स्थान पर देवेगौड़ा और गुजराल जैसे प्रधानमंत्री इसी हिन्दू राजनीति की प्रतिक्रिया में देखे थे। यानी कल जिस हिन्दूत्व ने बीजेपी को अलग-थलग किया था आज वही उसके उत्कर्ष का आधार बन गया है। तो फिर इसे बीजेपी की वैचारिकी पर भारत की बहुसंख्यक आबादी की मोहर नहीं माना जाना चाहिए। पार्टी ने जिस नए मॉडल को सफलतापूर्वक लागू किया है उसमें शासन और राजनीति दोनों का व्यवस्थित ढांचा नजर आता है। बेरोजगारी, आर्थिक संकट के स्वीकार्य वातावरण के बावजूद अगर मोदी की विश्वसनीयता बरकरार है तो इसके पीछे वैचारिक अधिष्ठान का योगदान भी कम नहीं है। गरीबी हटाने के नारे भले खोखले साबित हुए हों लेकिन कश्मीर से 370, सीएए और राममंदिर जैसे मुद्दे पर पार्टी ने जिस तरीके से काम किया वह उसकी विश्वसनीयता को बढ़ाने वाला ही साबित हुआ है। चीन और पाकिस्तान के मुद्दे भी उस बड़ी आबादी को बीजेपी से निरन्तर जोड़ने में सफल है जिसे एक साफ्ट स्टेट के रूप में भारत की छवि नश्तर की तरह चुभती रही है। इंदिरा गांधी को जिन्होंने नहीं देखा उन्हें मोदी एक डायनेमिक पीएम ही नजर आते हैं और आज इस पीढ़ी की औसत आयु 36 साल है। दुनिया के सबसे युवा देश के लोग राहुल गांधी की अनमनी राजनीति को सिर्फ परिवार के नाम पर ढोने को तैयार नहीं हैं। जेपी, लोहिया,कांशीराम और कर्पूरी ठाकुर के नाम से खड़ी की गई वैकल्पिक विरासत भी इसलिए प्रायः खारिज नजर आती है क्योंकि यह विकल्प केवल कुछ परिवारों और जातियों के राजसी वैभव पर आकर खत्म हो गया। बीजेपी ने करीने से इस नवसामन्ती समाजवाद को अपने राजनीतिक कौशल से हटा लिया है। मप्र, उप्र,असम, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में पार्टी की नई पीढ़ी को ध्यान से देखने की जरूरत है। यहां जिस नेतृत्व को विकसित किया गया है वह आम परिवार और उन जातियों को सत्ता एवं संगठन में भागीदारी देता है जो सँख्या बल के बावजूद राजनीतिक विमर्श और निर्णय से बाहर रहे हैं। यानी जाति की राजनीति को समावेशी जातीय मॉडल से भाजपा ने रिप्लेस कर दिया है। बंगाल और असम में पार्टी का जनाधार बामन,बनिये या ठाकुर नहीं बना रहे हैं बल्कि आदिवासी और दलितों ने खड़ा किया है। हिंदी पट्टी में आज पिछड़ी जातियां उसके झंडे के नीचे खड़ी हैं। यह नहीं भूलना चाहिये कि देश के प्रधानमंत्री भी एक पिछड़ी जाति से आते हैं। द्विज के परकोटे में पिछड़ी और दलित जातियों को समायोजित करने का राजनीतिक कौशल 70 साल में बीजेपी से बेहतर कोई भी अन्य दल नहीं कर पाया है। नजीर के तौर पर मप्र में 16 साल से सत्ता चलाने का जिम्मा तीन ओबीसी मुख्यमंत्री के पास ही है। जाहिर है बीजेपी ने चुनावी राजनीति को एक प्रयोगधर्मिता पर खड़ा किया है और सतत सांगठनिक ताकत ने इसे सफलतापूर्वक लागू भी करा लिया। वैचारिकी पर खड़े संगठन के बल पर बीजेपी का चुनावी ढलान भी शायद ही कांग्रेस की तरह शून्यता पर कभी जा पाए क्योंकि यहां परिवारशाही नहीं वंचित, पिछड़े समूह पार्टी के नए ट्रस्टी बनते जा रहे हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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प्रमोद भार्गव गर्मियों के शुरू होने के साथ ही देश के राष्ट्रीय अभ्यारणयों मे दावानल की घटनाएं देखने में आने लगी हैं। चार अभ्यारणयों में सैंकड़ों हेक्टेयर वन जलकर खाक हो गए। कितने वन्य जीव हताहत हुए, यह अभी साफ नहीं है, लेकिन बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में लगी आग से बचने के लिए बाघों ने घर बदलना शुरू कर दिया है। इसी फेर में एक बाघ ने बाघिन को मार दिया। उद्यान प्रबंधन इस मौत को आपसी संघर्ष की वजह बताकर पल्ला झाड़ रहा है। लेकिन यह संघर्ष एक बाघ के दूसरे बाघ के क्षेत्र में अतिक्रमण करने से छिड़ा था। मध्य-प्रदेश के पन्ना और माधव राष्ट्रीय उद्यान में भी आग की घटनाएं सामने आई है। यही हाल उत्तर-प्रदेश के दुधवा और ओड़िसा के सिमलीपाल नेशनल पार्क का हुआ है। आग लगने के बाद देखने में आया कि वन अमले ने आग न लगे ऐसे पूर्व में कोई उपाय किए ही नहीं थे। आग बुझाने के संसाधन भी देखने में नहीं आए। साफ है, ये घटनाएं वन अमले की लापरवाही का नतीजा है। भारतीय वन सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार नवंबर 2020 से जनवरी 2021 तक जंगल में आग की 2984 घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इनमें से सबसे ज्यादा 470 उत्तराखंड में दर्ज की गई हैं। यहां फरवरी माह से ही जंगलों में आग सुलग रही है। इस अध्ययन रिपोर्ट से पता चला है कि 95 फीसद आग इंसानी लापरवाही से लगी है। यूं तो जंगल में आग लगना सामान्य घटना है। लेकिन इसबार करीब दो माह से किसी न किसी जंगल में आग सुलग रही है। दुधवा नेशनल पार्क के किशनपुर क्षेत्र में लगी आग से करीब 100 हेक्टेयर से ज्यादा वन संपदा जलकर राख हो गई है। आशंका है कि वन्य जीव भी चपेट में आ गए हैं। इस आग से जंगल की सीमा पर बसे गांव कटैया, कांप व टांडा डरे हुए हैं। पिछले साल जून में भी इसी क्षेत्र में भीषण आग लगी थी। नतीजतन 70 हेक्टेयर के करीब जंगल राख में तब्दील हो गया था। दुधवा के जंगलों का विस्तार ही पन्ना टाइगर रिर्जव तक है। यहां के जंगलों में आग लगे हुए एक पखवाड़ा बीत चुका है। उत्तर वनमंडल क्षेत्र में आने वाले जंगल में लगी आग बुझाने में वन विभाग का अमला विफल रहा है। इसमें करीब 750 वर्ग किमी क्षेत्र आता है, जबकि 1500 वर्ग किमी का क्षेत्र दक्षिण वनमंडल का है। वहीं, 1500 वर्ग किमी का इलाका पन्ना टाइगर रिर्जव के अंतर्गत है। इसी में कोर एवं बफर क्षेत्र हैं। यह आग अब पन्ना शहर से सटे जंगलों में फैलने लगी है। उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 64.79 प्रतिशत, यानी 34,651.014 वर्ग किमी वन क्षेत्र हैं। इनमें से 24414408 वर्ग किमी क्षेत्र वन विभाग के अधीन हैं। इसमें से करीब 24260.783 वर्ग किमी क्षेत्र आरक्षित वनों की श्रेणी में हैं। शेष 39.653 वर्ग किमी जंगल वन पंचायतों के नियंत्रण में हैं। आरक्षित वनों में से 394383.84 हेक्टेयर भूमि में चीड़ के जंगल हैं और 383088.12 हेक्टेयर बांस एवं शाल के वन हैं। वहीं 614361 हेक्टेयर में मिश्रित वन हैं। लगभग 22.17 फीसदी वन क्षेत्र खाली पड़ा है। चीड़ के जंगल और लैंटाना की झाड़ियां इस आग को फैलाने में सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। दरअसल चीड़ के पत्तों में एक विशेष किस्म का ज्वनलशील पदार्थ होता है। इसकी पत्तियां पतझड़ के मौसम में आग में घी का काम करती हैं। गर्मियों में पत्तियां जब सूख जाती हैं तो इनकी ज्वलनशीलता और बढ़ जाती है। इसी तरह लैंटाना जैसी विषाक्त झाड़ियां आग को भड़काने का काम करती हैं। करीब 40 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में ये झाड़ियां फैली हुई हैं। इस बार इन पत्तियों का भयावह दावाग्नि में बदलने के कारणों में वर्षा की कमी, जाड़ों का कम पड़ना, गर्मियों का जल्दी आना और तिस पर भी शुरूआत में ही तापमान का बढ़ जाना। इन वजहों से यहां पतझड़ की मात्रा बढ़ी,उसी अनुपात में मिट्टी की नमी घटती चली गई। ये ऐसे प्राकृतिक संकेत थे, जिन्हें वनाधिकारियों को समझने की जरूरत थी। बावजूद विडंबना यह रही कि जब वनखंडों में आग लगने की शुरूआत हुई तो नीचे के वन अमले से लेकर आला अधिकारियों तक ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। वैसे चीड़ और लैंटाना भारतीय मूल के पेड़ नहीं हैं। भारत आए अंग्रेजों ने जब पहाड़ों पर आशियाने बनाए, तब उन्हें बर्फ से आच्छादित पहाड़ियां अच्छी नहीं लगीं। इसलिए वे ब्रिटेन के बर्फीले क्षेत्र में उगने वाले पेड़ चीड़ की प्रजाति के पौधों को भारत ले आए और बर्फीली पहाड़ियों के बीच खाली पड़ी भूमि में रोप दिए। इन पेड़ों को जंगली जीव व मवेशी नहीं खाते हैं, इसलिए अनुकूल प्राकृतिक वातावरण पाकर ये तेजी से फलने-फूलने लगे। इसी तरह लैंटाना भारत के दलदली और बंजर भूमि में पौधारोपण के लिए लाया गया था। यह विषैला पेड़ भारत के किसी काम तो नहीं आया, लेकिन देश की लाखों हेक्टेयर भूमि में फैलकर, लाखों हेक्टेयर उपजाऊ भूमि जरूर लील ली। ये दोनों प्रजातियां ऐसी हैं, जो अपनी छाया में किसी अन्य पेड़-पौधे को पनपने नहीं देती हैं। चीड़ की एक खासियत यह भी है कि जब इसमें आग लगती है तो इसकी पत्तियां ही नष्ट होती हैं। तना और डालियों को ज्यादा नुकसान नहीं होता है। पानी बरसने पर ये फिर से हरे हो जाते हैं। कमोबेश यही स्थिति लैंटाना की रहती है। चीड़ और लैंटाना को उत्तराखंड से निर्मूल करने की दृष्टि से कई मर्तबा सामाजिक संगठन आंदोलन कर चुके हैं, लेकिन सार्थक नतीजे नहीं निकले। अलबत्ता इनके पत्तों से लगी आग से बचने के लिए चमोली जिले के उपरेवल गांव के लोगों ने जरूर चीड़ के पेड़ की जगह हिमालयी मूल के पेड़ लगाने शुरू कर दिए। जब ये पेड़ बड़े हो गए तो इस गांव में 20 साल से आग नहीं लगी। इसके बाद करीब एक सैंकड़ा से भी अधिक ग्रामवासियों ने इसी देशज तरीके को अपना लिया। इन पेड़ों में पीपल, देवदार, अखरोट और काफल के वृक्ष लगाए गए हैं। यदि वन-अमला ग्रामीणें के साथ मिलकर ऐसे उपाय करता तो आज उत्तराखंड के जंगलों की यह दुर्दशा देखने में नहीं आती। जंगल में आग लगने के कई कारण होते हैं। जब पहाड़ियां तपिश के चलते शुष्क हो जाती हैं और चट्टानें भी खिसकने लगती हैं, तो अक्सर घर्षण से आग लग जाती है। तेज हवाएं चलने पर जब बांस परस्पर टकराते हैं तो इस टकराव से पैदा होने वाले घर्षण से भी आग लग जाती है। बिजली गिरना भी आग लगने के कारणों में शामिल है। ये कारण प्राकृतिक हैं, इन पर विराम लगाना नामुमकिन है। किंतु मानव-जनित जिन कारणों से आग लगती है, वे खतरनाक हैं। इसमें वन-संपदा के दोहन से अटाटूट मुनाफा कमाने की होड़ शामिल है। भू-माफिया, लकड़ी माफिया और भ्रष्ट अधिकारियों के गठजोड़ की तिकड़ी इस करोबार को फलने-फूलने में सहायक बनी हुई है। राज्य सरकारों ने आजकल विकास का पैमाना भी आर्थिक उपलब्धि को माना हुआ है, इसलिए सरकारें पर्यावरणीय क्षति को नजरअंदाज करती हैं। आग लगने की मानवजन्य अन्य वजहों में बीड़ी-सिगरेट भी हैं, तो कभी शरारती तत्व भी आग लगा देते हैं। कभी ग्रामीण पालतू पशुओं के चारे के लिए सूखी व कड़ी पड़ चुकी घास में आग लगाते हैं। ऐसा करने से धरती में जहां-जहां नमी होती है, वहां-वहां घास की नूतन कोंपलें फूटने लगती हैं। जो मवेशियों के लिए पौष्टिक आहार का काम करती हैं। पर्यटन वाहनों के साइलेंसरों से निकली चिंगारी भी आग की वजह बनती है। आग से बचने के कारगर उपायों में पतझड़ के दिनों में टूटकर गिर जाने वाले जो पत्ते और टहनियां आग के कारक बनते हैं, उन्हें जैविक खाद में बदलने के उपाय किए जाएं। केंद्रीय हिमालय में 2.1 से लेकर 3.8 टन प्रति हेक्टेयर पतझड़ होता है। इसमें 82 प्रतिशत सूखी पत्तियां और बांंकी टहनियां होती हैं। जंगलों पर वन विभाग का अधिकार प्राप्त होने से पहले तक ज्ञान परंपरा के अनुसार ग्रामीण इस पतझड़ से जैविक खाद बना लिया करते थे। यह पतझड़ मवेशियों के बिछौने के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था। मवेशियों के मल-मूत्र से यह पतझड़ उत्तम किस्म की खाद में बदल जाता था। किंतु अव्यावहारिक वन कानूनों के वजूद में आने से वनोपज पर स्थानीय लोगों का अधिकार खत्म हो गया। स्थानीय ग्रामीण और मवेशियों का जंगल में प्रवेश वर्जित हो जाने से पतझड़ यथास्थिति में पड़ा रहकर आग का प्रमुख कारण बन रहा है। (लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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नीति गोपेन्द्र भट्ट केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री डॉ. हर्षवर्धन स्वास्थ्य के क्षेत्र में अहम शख्सियत बनकर उभर रहे हैं। पिछले वर्ष मई माह में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के कार्यकारी बोर्ड के अध्यक्ष बनने के बाद डॉ. हर्षवर्धन को हाल ही में 'स्टॉप टीबी पार्टरशिप बोर्ड' नामक ग्लोबल संस्था का तीन वर्षों के लिए अध्यक्ष बनाया गया है। उन्हें इस पद पर भारत द्वारा वर्ष 2025 तक देश को टीबी से मुक्त कराने की प्रतिबद्धता दर्शाने के फलस्वरूप नियुक्त किया गया है। इससे पहले पिछले वर्ष दिसम्बर में डॉ. हर्षवर्धन को 'वैक्सीन और टीकाकरण के लिए ग्लोबल एलायंस' (गावी) का भी तीन वर्षों के लिए सदस्य बनाया गया है। डॉ. हर्षवर्धन का विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के कार्यकारी बोर्ड अध्यक्ष के रूप में एक वर्ष का कार्यकाल आगामी माह मई में पूरा हो जाएगा लेकिन वे वर्ष 2023 तक विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के इस कार्यकारी बोर्ड के सदस्य बने रहेंगे। इन सभी नए दायित्वों के बाद डॉ. हर्षवर्धन के कन्धों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गई है। वे ऐसे समय इन सभी महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हुए हैं जब सारा विश्व कोविड-19 की वैश्विक महामारी के दौर से गुजर रहा है। देश-दुनिया में हालात सुधरने के बाद पुनः विकट हो रहे हैं। कोरोना से मुक्ति के लिए भारत सहित विश्व के कई अन्य देशों में टीकाकरण अभियान चलाया जा रहा है। भारत के वैज्ञानिकों ने रिकॉर्ड समय में दो स्वदेशी वैक्सीन का निर्माण कर इस जानलेवा वायरस से छुटकारा पाने की दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाये हैं। डॉ. हर्षवर्धन पूर्व में भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के पोलियो उन्मूलन पर महत्वपूर्ण विशेषज्ञ सलाहकार समूह और वैश्विक टेक्नीकल परामर्श समूह जैसी कई प्रतिष्ठित समितियों के सदस्य रहे हैं। उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन के सलाहकार के रूप में भी कार्य किया है। डॉ. हर्षवर्धन के पास भारत और दक्षिणी एशिया में पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम को सफल बनाने के साथ ही पर्यावरण की रक्षा के लिए एक बड़े नागरिक अभियान 'ग्रीन गुड डीड्स' की शुरुआत करने और स्वयं के एक वरिष्ठ चिकित्सक होने का व्यापक अनुभव है। इससे विश्व को उनके इन महत्वपूर्ण पदों पर रहते हुए स्वास्थ्य के क्षेत्र में और भी बेहतर परिणाम मिलने का विश्वास है। डॉ. हर्षवर्धन निश्चित ही इस परीक्षा में खरे उतरेंगे और दुनिया को कोरोना मुक्त करने में भारत की भूमिका को एक नई प्रतिष्ठा दिलायेंगे, इसमें सन्देह नहीं है। वे कर्मठ व्यक्ति हैं और अपनी नई जिम्मेदारी को निभाने में सक्षम हैं। उन्हें पूर्व में पोलियो 'ईरेडिकेशन चेंपियन अवॉर्ड' भी मिला है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने रोटरी इंटरनेशनल के एक कार्यक्रम में इस अवॉर्ड के लिए उन्हें 'स्वास्थ्य वर्धन' नाम से विभूषित किया था। आज देश और दुनिया के सामने सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा कोविड-19 की अनसुलझी पहेली की चुनौती से निपटना है। जहां तक भारत का प्रश्न है, कोरोना महामारी से बचाव के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कुशल नेतृत्व में केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्रालय ने अन्य मन्त्रालयों और राज्य सरकारों के साथ मिलकर समय रहते सामूहिक प्रयास और कारगर उपाय किए हैं। जिससे अन्य देशों के मुकाबले भारत में मृत्यु दर और रिकवरी दर बहुत बेहतर रही है। डॉ. हर्षवर्धन भारतीय राजनीति के कर्मठ और जुझारू नेता हैं। उनकी गिनती भारत के बहुत ही सज्जन और सुसंस्कृत जननेता के रूप में होती है। चिकित्सा-विशेषज्ञ और कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ उन्होंने प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ के रूप में भी देश का गौरव बढ़ाया है। वे अपनी प्रतिभा को विश्वव्यापी कर देश का गौरव बढ़ा रहे हैं। वे कर्मयोगी हैं, देश की सेवा के लिये सदैव तत्पर रहते हैं। वे किसी भी पद पर रहे, हर स्थिति में उनकी सक्रियता जीवंत बनी रहती है। वे सिद्धांतों एवं आदर्शों पर जीने वाले व्यक्तियों के प्रतीक हैं। डब्ल्यूएचओ सहित अन्य वैश्विक संस्थाओं के अध्यक्ष और सदस्य के रूप में उनका चयन विश्व स्वास्थ्य स्तर के ऊँचे मापदण्डों पर उनका कौशल और विशेषज्ञता, राजनैतिक जीवन में शुद्धता, सिद्धान्तों और मूल्यों की राजनीति का सम्मान है। डॉ. हर्षवर्धन ने गणेश शंकर विद्यार्थी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज कानपुर से 1979 में चिकित्सा में स्नातक और 1983 में चिकित्सा में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। वे 1993 से जनसेवा से जुड़े हैं। 1993 में वे दिल्ली विधानसभा के लिए पहली बार विधायक चुने गए। वे लगातार पांच बार विधानसभा के सदस्य रहे और मई 2014 में चांदनी चौक संसदीय क्षेत्र से 16वीं लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। वर्ष 1993 से 1998 के बीच उन्होंने दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य, शिक्षा, विधि और न्याय तथा विधायी कार्य के मंत्री के रूप में कार्य किया। दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री के रूप में 1994 में उनके नेतृत्व में 'पल्स पोलियो कार्यक्रम' की पायलट परियोजना का सफल कार्यान्वयन हुआ जिसके तहत दिल्ली में तीन वर्ष तक की आयु के 12 लाख शिशुओं का टीकाकरण किया गया। इस कार्यक्रम से 2014 में भारत के पोलियो मुक्त बनने की बुनियाद रखी गई। उन्होंने धूम्रपान निषेध और गैर धूम्रपान कर्ता स्वास्थ्य संरक्षण बिल पारित कराने और उसे लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस कानून का बाद में देश के विभिन्न राज्यों ने अनुसरण किया। डॉ. हर्षवर्धन को 2014 में भारत सरकार के केबिनेट मन्त्री के रूप में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। बाद में उन्हें केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी तथा पृथ्वी विज्ञान मंत्री बनाया गया। वे पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भी रहे। वे दिल्ली के चांदनी चौक संसदीय क्षेत्र से 17वीं लोकसभा के लिए दोबारा संसद सदस्य निर्वाचित हुए है। उन्हें 30 मई, 2019 को केन्द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण, विज्ञान और प्रौद्योगिकी तथा पृथ्वी विज्ञान मंत्री बनाया गया। डॉ. हर्षवर्धन कोरोना काल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रमुख सेनापति के रूप में भी उभरे। उन्होंने पिछले एक वर्ष में जिस प्रकार रात-दिन मेहनत कर अपने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कर्तव्यों एवं जिम्मेदारियों का निर्वहन किया है उसकी सर्वत्र प्रशंसा हो रही है। (लेखक, स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक पाकिस्तान ने गजब की पलटी खाई है। यह किसी शीर्षासन से कम नहीं है। उसके मंत्रिमंडल की आर्थिक सहयोग समन्वय समिति ने परसों घोषणा की कि वह भारत से 5 लाख टन शक्कर और कपास खरीदेगा लेकिन 24 घंटे के अंदर मंत्रिमंडल की बैठक हुई और उसने इस घोषणा को रद्द कर दिया। यहां पहला सवाल यही है कि उस समिति ने यह फैसला कैसे किया? उसके सदस्य मंत्री लोग तो हैं ही, बड़े अफसर भी हैं। क्या वे प्रधानमंत्री से सलाह किए बिना भारत-संबंधी कोई फैसला अपने मनमाने ढंग से कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। उन्होंने प्रधानमंत्री इमरान खान की इजाजत जरूर ली होगी। लेकिन जैसे ही परसों दोपहर उन्होंने यह घोषणा की, पाकिस्तान के विरोधी दलों ने इमरान सरकार पर हमला बोलना शुरू कर दिया। उन्हें कश्मीरद्रोही कहा जाने लगा। कट्टरपंथियों ने इस फैसले के विरोध में प्रदर्शनों की धमकी भी दे डाली। इमरान इन धमकियों की भी परवाह नहीं करते, क्योंकि उन्हें अपने कपड़ा-उद्योग और आम आदमियों की तकलीफों को दूर करना था। कपास के अभाव में पाकिस्तान का कपड़ा उद्योग ठप्प होता जा रहा है, लाखों मजदूर बेरोजगार हो गए हैं और शक्कर की मंहगाई ने पाकिस्तान की जनता के मजे फीके कर दिए हैं। ये दोनों चीजें अन्य देशों में भी उपलब्ध हैं लेकिन भारत के दाम लगभग 25 प्रतिशत कम हैं और परिवहन-खर्च भी नहीं के बराबर है। इसके बावजूद इमरान को इसलिए दबना पड़ रहा है कि फौज ने कश्मीर को लेकर सरकार का गला दबा दिया होगा। क्योंकि जबतक कश्मीर का मसला जिंदा है, फौज का दबदबा कायम रहेगा। इसीलिए मानव अधिकार मंत्री शीरीन मज़ारी ने अपने वित्तमंत्री हम्माद अजहर की घोषणा को रद्द करते हुए कहा है कि जबतक भारत सरकार कश्मीर में धारा 370 और 35 ए को फिर से लागू नहीं करेगी, आपसी व्यापार बंद रहेगा। आपसी व्यापार 9 अगस्त 2019 से इसलिए पाकिस्तान ने बंद किया था कि 5 अगस्त को कश्मीर से इन धाराओं को हटा दिया गया था। इसके पहले ही भारत ने पाकिस्तानी चीज़ों के आयात पर 200 प्रतिशत का तटकर लगा दिया था। पाकिस्तान को भारत के निर्यात में 60 प्रतिशत कमी हो गई थी और भारत में पाकिस्तानी निर्यात 97 प्रतिशत घट गया था। पिछले एक साल में कपास का निर्यात लगभग शून्य हो गया है। अब पाकिस्तान सरकार ने खुद अपने फैसले को उलट दिया। भारत सरकार को हाँ या ना कहने का मौका ही नहीं मिला। पाकिस्तान की इस घोषणा से यह सिद्ध होता है कि पाकिस्तान की जनता को तो भारत से व्यवहार करने में कोई एतराज नहीं है लेकिन फौज उसे वैसा करने दे, तब तो! इसीलिए मैं कहता हूं कि दोनों मुल्कों और सारे दक्षिण व मध्य एशिया के देशों की आम जनता का एक ऐसा लोक-महासंघ खड़ा किया जाना चाहिए, जो भारत के सभी पड़ोसी-देशों का हित-संपादन कर सके। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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ऋतुपर्ण दवे दुनिया भर में प्रकृति और पर्यावरण को लेकर जितनी चिन्ता वैश्विक संगठनों की बड़ी-बड़ी बैठकों में दिखती है, उतनी धरातल पर कभी उतरती दिखी नहीं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सामूहिक चिन्तन और हर एक की चिन्ता से जागरुकता बढ़ती है। बिगड़ते पर्यावरण, बढ़ते प्रदूषण को लेकर दुनिया भर में जहाँ-तहाँ भारी-भरकम बैठकों का दौर चलता रहता है परन्तु वहाँ जुटे हुक्मरानों और अफसरानों की मौजूदगी के मुकाबले कितना कुछ हासिल हुआ या होता है, यह सामने है। सच तो यह है कि दुनिया के बड़े-बड़े शहरों में ग्लोबल लीडरशिप की मौजूदगी के बावजूद प्रकृति के बिगड़ते मिजाज को काबू में नहीं लाया जा सका। उल्टा हमेशा कहीं न कहीं से पर्यावरण के चलते होने वाले भारी-भरकम नुकसानों की तस्वीरें चिन्ता बढ़ाती रहती हैं। यदि वाकई बिगड़ते पर्यावरण या प्रकृति के रौद्र रूप को काबू करना ही है तो शुरुआत हर एक घर से होनी चाहिए। धरती की सूखती कोख, आसमान का हाँफता रूप बीती एक-दो पीढ़ियों ने ही देखा है। इससे पहले हर गाँव में कुँए, पोखर, तालाब शान हुआ करते थे। गर्मी की ऐसी झुलसन ज्यादा पुरानी नहीं है। कुछ बरसों पहले तक बिना पँखा, आँगन में आनेवाली मीठी नींद भले अब यादों में ही है लेकिन ज्यादा पुरानी बात भी तो नहीं। बदलाव की चिन्ता सबको होनी चाहिए। मतलब पठार से लेकर पहाड़ और बचे-खुचे जंगलों से लेकर क्राँक्रीट की बस्तियों की तपन तक इसपर विचार होना चाहिए। सब जगह प्राकृतिक स्वरूप तेजी से बदल रहा है। काफी कुछ बदल गया है, बहुत कुछ बदलता जा रहा है। हल वहीं मिलेगा जब चिन्ता उन्हीं बिन्दुओं पर हो जहाँ इन्हें महसूस किया जा रहा हो। लेकिन हो उल्टा रहा है। हजारों किमी दूर, सात-सात समंदर के पार सीमेण्ट की अट्टालिकाओं के एयरकंडीशन्ड हॉल में इन समस्याओं पर चर्चा तो होती है परन्तु जिसपर चर्चा होती है वहाँ के हालात सुधरने के बजाए दिनों दिन बिगड़ते जाते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे में ये ग्लोबल बैठकें कितनी असरकारक रहीं हैं? बढ़ती जनसंख्या, उसी अनुपात में आवश्यकताएं और त्वरित निदान के तौर पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का बेतरतीब दोहन प्रकृति के साथ ज्यादती की असल वजह है। बजाए प्राकृतिक वातावरण को सहेजने के उसे लूटने, रौंदने और बरबाद करने का काम ही आज तमाम योजनाओं के नाम पर हो रहा है! इन्हें बजाए रोकने और समझने की जगह महज बैठकों से हासिल करना औपचारिकता से ज्यादा कुछ नहीं है। भारतीय पर्यावरणीय स्थितियों को देखें तो पर्यावरण और प्रदूषण पर चिन्ता दिल्ली या राज्यों की राजधानी के बजाए हर गाँव-मोहल्ले में होने चाहिए। इसके लिए सख्त कानूनों के साथ वैसी समझाइश दी जाए जो लोगों को आसानी से समझ आए। कुछ बरस पहले एक विज्ञापन रेडियो पर खूब सुनाई देता था-‘बूँद-बूँद से सागर भरता है।’ बस उसके भावार्थ को आज साकार करना होगा। आज गाँव-गाँव में क्रँक्रीट के निर्माण तापमान बढ़ा रहे हैं। साल भर पानी की जरूरतों को पूरा करने वाले कुँए बारिश बीतते ही 5-6 महीने में सूखने लगते हैं। तालाब, पोखरों का भी यही हाल है। पानी वापस धरती में पहुँच ही नहीं रहा है। नदियों से पानी की बारहों महीने बहने वाली अविरल धारा सूख चुकी है। उल्टा रेत के फेर में बड़ी-बड़ी नदियाँ तक अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं। सवाल वही कि बिगड़ते पर्यावरण और प्रकृति के मिजाज को कैसे दुरुस्त रखा जाए? इसके लिए शुरुआत गाँव-मोहल्ले और एक-एक घर से करनी होगी। जल, जंगल और जमीन के महत्व को सबको समझना और समझाना होगा। इस हाथ ले उस हाथ दे के फॉर्मूले पर हर किसी को सख्ती से अमल करना होगा। धरती का पानी लेते हैं तो वापस उसे लौटाने की अनिवार्यता सब पर हो। जितना जंगल काटते हैं उतना ही वापस तैयार कर लौटाएँ। गाँव, नगर व शहरों के विकास के नाम पर सीमेण्ट के जंगल खड़े हो जाते हैं लेकिन उस अनुपात में बढ़ते तापमान को काबू रखने के लिए हरियाली पर सोचा नहीं जाता है। आबादी से कुछ गज दूर जंगल या गैर रिहायशी खाली क्षत्रों के कम तापमान का फर्क तो सबने महसूस किया है। सभी पल दो पल ऐसी सुकून की जगह घूमने-फिरने आते भी हैं लेकिन कभी कोशिश नहीं की कि काश घर पर ही ऐसा सुकून मिल पाता। सोचिए, कुछ साल पहले ऐसा था तो अब क्यों नहीं हो सकता? बस यहीं से शुरुआत की जरूरत है। इसी तरह स्थानीय निकायों द्वारा जहाँ-तहाँ बनने वाली सीमेण्ट की सड़कों में ही ऐसी सुराख तकनीक हो जिससे सड़क की मजबूती भी बनी रहे और बारिश के पानी की एक-एक बूँद बजाए फालतू बह जाने के वापस धरती में जा समाए। हर नगर निकाय बेहद जरूरी होने पर ही फर्शीकरण कराए न कि फण्ड का बेजा इस्तेमाल करने के लिए चाहे जहाँ फर्शीकरण कर धरती में जानेवाले जल को रोक दिया जाए। खाली जगहों पर हरे घास के मैदान विकसित करें जिससे बढ़ता तापमान नियंत्रित होता रहे। ऐसा ही इलाके की नदी के लिए हो। उसे बचाने व सम्हालने के लिए फण्ड हो, निरंतर विचार हो, नदी की धारा निरंतर बनाए रखने के लिए प्राकृतिक उपाय किए जाएँ। कटाव रोकने के लिए पहले जैसे पेड़-पौधें लगें। रेत माफियाओं की बेजा नजरों से बचाएँ। इसके अलावा पर्यावरण पर बोझ बनता गाड़ियों का जला धुँआ घटे। बैटरी के वाहनों को बढ़ावा मिले। सार्वजनिक वाहन प्रणाली के ज्यादा उपयोग पर ध्यान हो। थोड़ी दूरी के सफर के लिए साइकिल का चलन बढ़े। इससे हमारा और प्रकृति दोनों का स्वास्थ्य सुधरेगा। धरती के प्राकृतिक बदलावों के लिए थोड़ी सख्ती और नेकनीयती की जरूरत है। पंचायत से लेकर नगर निगम तक में बैठा अमला भवनों और रिहायशी क्षेत्रों के निर्माण की इजाजत के समय ही हरियाली के प्रबंधन पर सख्त रहे। हर भू-खण्ड पर निर्माण की इजाजत से पहले नक्शे में बारिश के पानी को वापस भू-गर्भ तक पहुँचाने, हर घर में जगह के हिसाब से कुछ जरूरी और पर्यावरणीय अनुकूल वृक्षों को लगाने, लोगों को घरों की छतों, आँगन में गमलों में बागवानी और ऑर्गेनिक सब्जियों को घरों में पैदा करने की अनिवार्यता का जरूरी प्रबंध हो। पुराने निर्माणों, पुरानी कॉलोनियों में वर्षा जल संचय प्रबंधन न केवल जरूरी हों बल्कि जहाँ जिस तरह संभव हो तत्काल व्यवस्था करने के निर्देश और पालन कराया जाए। सबकुछ अनिवार्य रूप से निरंतर चलती रहने वाली प्रक्रिया के तहत हो जिसमें निकाय के अंतर्गत हर एक आवास में प्रबंधन की जानकारी संबंधी निर्देशों का अभिलेख हो। पोर्टल पर सबको दिखे ताकि सार्वजनिक क्रॉस चेक की स्थिति बनी रहे। पालन न करने वालों की जानकारी लेने की गोपनीय व्यवस्था और दण्ड का प्रावधान हो ताकि यह मजबूरी बन सबकी आदतों में शामिल हो जाए। प्रकृति और पर्यावरण की वास्तविक चिन्ता घर से ही शुरू होने से जल्द ही अच्छे व दूरगामी परिणाम सामने होंगे। यह काम संस्था, सरकार और देश के बजाए हर एक नागरिक के जरिए ही हो पाएगा। हर एक घर से ही स्वस्थ धरती, स्वस्थ पाताल और स्वस्थ आसमान की पहल साकार हो पाएगी। इसी से प्रकृति, पर्यावरण और आम जनजीवन की रक्षा, सुरक्षा हो पाएगी अन्यथा दिखावा की कोशिशें सिर्फ कागजों और नारों में सिमटकर रह जाएंगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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ऋतुपर्ण दवे दुनिया भर में प्रकृति और पर्यावरण को लेकर जितनी चिन्ता वैश्विक संगठनों की बड़ी-बड़ी बैठकों में दिखती है, उतनी धरातल पर कभी उतरती दिखी नहीं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सामूहिक चिन्तन और हर एक की चिन्ता से जागरुकता बढ़ती है। बिगड़ते पर्यावरण, बढ़ते प्रदूषण को लेकर दुनिया भर में जहाँ-तहाँ भारी-भरकम बैठकों का दौर चलता रहता है परन्तु वहाँ जुटे हुक्मरानों और अफसरानों की मौजूदगी के मुकाबले कितना कुछ हासिल हुआ या होता है, यह सामने है। सच तो यह है कि दुनिया के बड़े-बड़े शहरों में ग्लोबल लीडरशिप की मौजूदगी के बावजूद प्रकृति के बिगड़ते मिजाज को काबू में नहीं लाया जा सका। उल्टा हमेशा कहीं न कहीं से पर्यावरण के चलते होने वाले भारी-भरकम नुकसानों की तस्वीरें चिन्ता बढ़ाती रहती हैं। यदि वाकई बिगड़ते पर्यावरण या प्रकृति के रौद्र रूप को काबू करना ही है तो शुरुआत हर एक घर से होनी चाहिए। धरती की सूखती कोख, आसमान का हाँफता रूप बीती एक-दो पीढ़ियों ने ही देखा है। इससे पहले हर गाँव में कुँए, पोखर, तालाब शान हुआ करते थे। गर्मी की ऐसी झुलसन ज्यादा पुरानी नहीं है। कुछ बरसों पहले तक बिना पँखा, आँगन में आनेवाली मीठी नींद भले अब यादों में ही है लेकिन ज्यादा पुरानी बात भी तो नहीं। बदलाव की चिन्ता सबको होनी चाहिए। मतलब पठार से लेकर पहाड़ और बचे-खुचे जंगलों से लेकर क्राँक्रीट की बस्तियों की तपन तक इसपर विचार होना चाहिए। सब जगह प्राकृतिक स्वरूप तेजी से बदल रहा है। काफी कुछ बदल गया है, बहुत कुछ बदलता जा रहा है। हल वहीं मिलेगा जब चिन्ता उन्हीं बिन्दुओं पर हो जहाँ इन्हें महसूस किया जा रहा हो। लेकिन हो उल्टा रहा है। हजारों किमी दूर, सात-सात समंदर के पार सीमेण्ट की अट्टालिकाओं के एयरकंडीशन्ड हॉल में इन समस्याओं पर चर्चा तो होती है परन्तु जिसपर चर्चा होती है वहाँ के हालात सुधरने के बजाए दिनों दिन बिगड़ते जाते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे में ये ग्लोबल बैठकें कितनी असरकारक रहीं हैं? बढ़ती जनसंख्या, उसी अनुपात में आवश्यकताएं और त्वरित निदान के तौर पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का बेतरतीब दोहन प्रकृति के साथ ज्यादती की असल वजह है। बजाए प्राकृतिक वातावरण को सहेजने के उसे लूटने, रौंदने और बरबाद करने का काम ही आज तमाम योजनाओं के नाम पर हो रहा है! इन्हें बजाए रोकने और समझने की जगह महज बैठकों से हासिल करना औपचारिकता से ज्यादा कुछ नहीं है। भारतीय पर्यावरणीय स्थितियों को देखें तो पर्यावरण और प्रदूषण पर चिन्ता दिल्ली या राज्यों की राजधानी के बजाए हर गाँव-मोहल्ले में होने चाहिए। इसके लिए सख्त कानूनों के साथ वैसी समझाइश दी जाए जो लोगों को आसानी से समझ आए। कुछ बरस पहले एक विज्ञापन रेडियो पर खूब सुनाई देता था-‘बूँद-बूँद से सागर भरता है।’ बस उसके भावार्थ को आज साकार करना होगा। आज गाँव-गाँव में क्रँक्रीट के निर्माण तापमान बढ़ा रहे हैं। साल भर पानी की जरूरतों को पूरा करने वाले कुँए बारिश बीतते ही 5-6 महीने में सूखने लगते हैं। तालाब, पोखरों का भी यही हाल है। पानी वापस धरती में पहुँच ही नहीं रहा है। नदियों से पानी की बारहों महीने बहने वाली अविरल धारा सूख चुकी है। उल्टा रेत के फेर में बड़ी-बड़ी नदियाँ तक अपना अस्तित्व खोती जा रही हैं। सवाल वही कि बिगड़ते पर्यावरण और प्रकृति के मिजाज को कैसे दुरुस्त रखा जाए? इसके लिए शुरुआत गाँव-मोहल्ले और एक-एक घर से करनी होगी। जल, जंगल और जमीन के महत्व को सबको समझना और समझाना होगा। इस हाथ ले उस हाथ दे के फॉर्मूले पर हर किसी को सख्ती से अमल करना होगा। धरती का पानी लेते हैं तो वापस उसे लौटाने की अनिवार्यता सब पर हो। जितना जंगल काटते हैं उतना ही वापस तैयार कर लौटाएँ। गाँव, नगर व शहरों के विकास के नाम पर सीमेण्ट के जंगल खड़े हो जाते हैं लेकिन उस अनुपात में बढ़ते तापमान को काबू रखने के लिए हरियाली पर सोचा नहीं जाता है। आबादी से कुछ गज दूर जंगल या गैर रिहायशी खाली क्षत्रों के कम तापमान का फर्क तो सबने महसूस किया है। सभी पल दो पल ऐसी सुकून की जगह घूमने-फिरने आते भी हैं लेकिन कभी कोशिश नहीं की कि काश घर पर ही ऐसा सुकून मिल पाता। सोचिए, कुछ साल पहले ऐसा था तो अब क्यों नहीं हो सकता? बस यहीं से शुरुआत की जरूरत है। इसी तरह स्थानीय निकायों द्वारा जहाँ-तहाँ बनने वाली सीमेण्ट की सड़कों में ही ऐसी सुराख तकनीक हो जिससे सड़क की मजबूती भी बनी रहे और बारिश के पानी की एक-एक बूँद बजाए फालतू बह जाने के वापस धरती में जा समाए। हर नगर निकाय बेहद जरूरी होने पर ही फर्शीकरण कराए न कि फण्ड का बेजा इस्तेमाल करने के लिए चाहे जहाँ फर्शीकरण कर धरती में जानेवाले जल को रोक दिया जाए। खाली जगहों पर हरे घास के मैदान विकसित करें जिससे बढ़ता तापमान नियंत्रित होता रहे। ऐसा ही इलाके की नदी के लिए हो। उसे बचाने व सम्हालने के लिए फण्ड हो, निरंतर विचार हो, नदी की धारा निरंतर बनाए रखने के लिए प्राकृतिक उपाय किए जाएँ। कटाव रोकने के लिए पहले जैसे पेड़-पौधें लगें। रेत माफियाओं की बेजा नजरों से बचाएँ। इसके अलावा पर्यावरण पर बोझ बनता गाड़ियों का जला धुँआ घटे। बैटरी के वाहनों को बढ़ावा मिले। सार्वजनिक वाहन प्रणाली के ज्यादा उपयोग पर ध्यान हो। थोड़ी दूरी के सफर के लिए साइकिल का चलन बढ़े। इससे हमारा और प्रकृति दोनों का स्वास्थ्य सुधरेगा। धरती के प्राकृतिक बदलावों के लिए थोड़ी सख्ती और नेकनीयती की जरूरत है। पंचायत से लेकर नगर निगम तक में बैठा अमला भवनों और रिहायशी क्षेत्रों के निर्माण की इजाजत के समय ही हरियाली के प्रबंधन पर सख्त रहे। हर भू-खण्ड पर निर्माण की इजाजत से पहले नक्शे में बारिश के पानी को वापस भू-गर्भ तक पहुँचाने, हर घर में जगह के हिसाब से कुछ जरूरी और पर्यावरणीय अनुकूल वृक्षों को लगाने, लोगों को घरों की छतों, आँगन में गमलों में बागवानी और ऑर्गेनिक सब्जियों को घरों में पैदा करने की अनिवार्यता का जरूरी प्रबंध हो। पुराने निर्माणों, पुरानी कॉलोनियों में वर्षा जल संचय प्रबंधन न केवल जरूरी हों बल्कि जहाँ जिस तरह संभव हो तत्काल व्यवस्था करने के निर्देश और पालन कराया जाए। सबकुछ अनिवार्य रूप से निरंतर चलती रहने वाली प्रक्रिया के तहत हो जिसमें निकाय के अंतर्गत हर एक आवास में प्रबंधन की जानकारी संबंधी निर्देशों का अभिलेख हो। पोर्टल पर सबको दिखे ताकि सार्वजनिक क्रॉस चेक की स्थिति बनी रहे। पालन न करने वालों की जानकारी लेने की गोपनीय व्यवस्था और दण्ड का प्रावधान हो ताकि यह मजबूरी बन सबकी आदतों में शामिल हो जाए। प्रकृति और पर्यावरण की वास्तविक चिन्ता घर से ही शुरू होने से जल्द ही अच्छे व दूरगामी परिणाम सामने होंगे। यह काम संस्था, सरकार और देश के बजाए हर एक नागरिक के जरिए ही हो पाएगा। हर एक घर से ही स्वस्थ धरती, स्वस्थ पाताल और स्वस्थ आसमान की पहल साकार हो पाएगी। इसी से प्रकृति, पर्यावरण और आम जनजीवन की रक्षा, सुरक्षा हो पाएगी अन्यथा दिखावा की कोशिशें सिर्फ कागजों और नारों में सिमटकर रह जाएंगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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आर.के. सिन्हा कहते हैं, सुबह का भूला यदि शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। यह वही बात है कि अगर कोई अपनी एक-दो गलतियों से सीख ले तो उसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। पर कांग्रेस सांसद एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर को बार-बार गलत बयानबाजी करने की आदत-सी पड़ गई है। इस वजह से उन्हें अब जनता या मीडिया गंभीरता से नहीं लेती। उनकी पढ़े-लिखे सभ्य इंसान की छवि तार-तार हो रही है। मीन-मेख निकालने का रोग अब एक ताजा मामला ही लें। हालिया बांग्लादेश यात्रा के समय प्रधानमंत्री मोदी जी के एक भाषण पर उन्होंने गैर जिम्मेदाराना टिप्पणी कर दी। थरूर तथ्यों को बिना जाने-समझे प्रधानमंत्री की मीन मेख निकालने लगे। प्रधानमंत्री मोदी ने ढाका में अपने भाषण के दौरान बांग्लादेश की आजादी में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के योगदान का जिक्र किया था। थरूर कहने लगे कि प्रधानमंत्री मोदी ने इंदिरा गांधी का जिक्र नहीं किया। देखिए प्रधानमंत्री की नीतियों की निंदा लोकतंत्र में सामान्य बात है। पर निंदा का कोई आधार तो हो। शशि थरूर संयुक्त राष्ट्र से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के डावोस के वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में हिन्दी में दिए गए भाषणों का विरोध करते रहे हैं। वे तब सुषमा स्वराज की भी निंदा कर रहे थे, जब उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को हिन्दी में संबोधित किया था। वे एक तरह हिन्दी का विरोध जताते हुए खड़े होते हैं तो दूसरी तरफ थरूर अपनी किताबों का हिन्दी में भी अनुवाद जरूर करवाते हैं। शशि थरूर की पुस्तक 'अन्धकार काल : भारत में ब्रिटिश साम्राज्य' की प्रतियां कुछ समय पूर्व बाजार में आई। वही थरूर प्रधानमंत्री मोदी के डावोस में हिन्दी में अपनी बात रखने का यह कहते हुए विरोध करने लगे थे कि हिन्दी में बोलने से उनकी बात को दुनियाभर का मीडिया जगह नहीं देगा। पर मोदी के संबोधन को तो न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, बीबीसी ने शानदार तरीके से कवर किया था। सुषमा स्वराज ने दिखाया था आईना सुषमा स्वराज ने तो एकबार थरूर के लिए यहां तक कह दिया था कि वे अपने आप को बहुत महान चिंतक और विद्वान मानने लगे हैं? उन्हें फिलहाल खुद नहीं पता कि वे हिन्दी के पक्ष में खड़े हैं या विरोध में। अब किसानों के हक में भी शशि थरूर बोलने लगे हैं। कम से कम पिछले तीन पुश्तों से कोलकाता और मुंबई में ही पूरा जीवन बिताने वाले थरूर न जाने कब और कैसे किसान हो गये? ये भी किसानों और गरीबों के कल्याण के लिए ज्ञान बांटते फिर रहे हैं। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के विरोध पर केंद्र पर निशाना साधते हुए शशि थरूर ने कहा कि मोदी सरकार ने देश और किसानों को निराश कर दिया है। थरूर जी, यह भी देश को बता दें कि आपने अबतक किसानों के हक में क्या किया है? अगर आप सच में किसानों के हित में लड़ने वाले होते तो आप भी सिंघू बॉर्डर या टिकरी जैसे इलाकों में तम्बू गाड़कर जमे होते। आपको भी किसानों के साथ रात में सोना चाहिए था। आप कतई किसानों के बीच में नहीं जाएंगे। आप घनघोर सुविधाभोगी हैं। आपको सत्ता का सुख लेने की आदत पड़ी हुई है। इसलिए आपसे संघर्ष की अपेक्षा करना गलत होगा। लेकिन, आप पहली पंक्ति के बयानवीर जरूर हो। साफ है कि थरूर मोदी जी और एनडीए सरकार की लगभग अकारण निंदा, सोनिया गांधी और राहुल गांधी को इम्प्रेस करने के लिए करते रहते हैं। शशि थरूर का भॉटगिरी में फंसना खल जाता है। जो भी कहिए वे हैं तो विद्वान। मेरे शशि थरूर के पूरे परिवार से दशकों पुराने संबंध हैं। सत्तर के दशक में जब शशि थरूर के पिता चन्द्रन थरूर दि स्टेट्समैन अखबार में ऊंचे पद पर थे, तब से मैं उन्हें जानता था। जब बांग्लादेश युद्ध के जोखिम भरे असाइनमेंट के बाद मैं कोलकाता लौटा था, तब चन्द्रन ने मेरे लिए बंगाल क्लब में डिनर पार्टी दी थी, जिसमें अनेक वरिष्ठ पत्रकार शामिल हुए थे। उस दौर में जब कभी मैं कलकत्ता जाता, उनके घर जरूर जाता था। शशि थरूर की माताजी तरह-तरह के व्यंजन बनातीं। मैं और चन्द्रन बालकनी में बैठे सामने के ख़ूबसूरत बाग़ों को निहारते रहते। बाद में अस्सी के दशक में जब चन्द्रन के बड़े भाई और शशि थरूर के ताऊ जी पी. परमेश्वरन " रीडर्स डाइजेस्ट" के संपादक पद से रिटायर हुए, तब चन्द्रन थरूर " रीडर्स डाइजेस्ट " के मैनेजिंग एडिटर होकर मुंबई आ गये थे। तब मैं जे.पी. आन्दोलन में सक्रियता की वजह से हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप के दैनिक "सर्चलाइट" और "प्रदीप" (अब हिन्दुस्तान टाइम्स" और "दैनिक हिन्दुस्तान" पटना संस्करण) से निकाल दिया गया। तब मैं "धर्मयुग" मुंबई के लिये नियमित लिखने लगा। तब मेरे भी मुंबई के हर महीने चक्कर लगने लगे। गेटवे ऑफ़ इंडिया के पास बल्लार्ड एस्टेट्स में "रीडर्स डाइजेस्ट" में चन्द्रन साहब का वह आलीशान दफ़्तर था। लेकिन, वे मेरे जैसे साधारण मित्र को पूरी तरह सम्मान देने और मेहमाननवाजी में कसर नहीं छोड़ते। चंद्रन साहब रहते तो पूरे अंग्रेज की तरह ही थे। लेकिन, कुछ देर बैठकर ही आपको पता लग जाता था कि आप केरल के एक संस्कारी कर्मकांडी ब्राह्मण के साथ बैठे हैं। अब इतने शानदार माता-पिता का पुत्र सोनिया गांधी-राहुल गांधी के तलवे चाटने लगेगा, मैंने यह सपने में नहीं सोचा था। शशि थरूर कांग्रेस में हैं तो वे कांग्रेस पार्टी के अनुशासन से भी बंधे हैं। यह बात भी सही है। यह भी सही है कि वे पार्टी नेतृत्व की सार्वजनिक निंदा नहीं कर सकते। पर क्या उन्हें यह शोभा देता है कि वे देश के प्रधानमंत्री के भाषण को बिना पढ़े-समझे उसकी कमियां निकालने लगे? क्या प्रधानमंत्री अगर किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर हिन्दी में अपनी बात रखते हैं तो उन्हें क्यों तकलीफ होती है? प्रेम और सौहार्द की भाषा हिन्दी, जिसे भारत के करोड़ों नागरिक बोलते हैं, उसमें भाषण देना गलत कैसे हो जाता है? क्या आप मोदी जी की निंदा करने के बहाने कहीं न कहीं अपना हिन्दी विरोध तो दर्ज नहीं करवा रहे? प्रजातंत्र की प्राण और आत्मा है वाद-विवाद-संवाद। थरूर में विपक्ष का प्रखर नेता बनने की असीम संभावनाएं देश देख रहा था। वे पढ़े-लिखे मनुष्य हैं, स्तरीय अंग्रेजी बोलते-लिखते हैं। पर उन्होंने अपनी क्षमताओं का देशहित में दोहन नहीं किया। उनकी कोशिश यही रहती है कि देश उन्हें एक प्लेबॉय राजनीतिज्ञ के रूप में जाने। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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म्यांमार संकट से उपजे सवाल डॉ. प्रभात ओझा म्यांमार के नागरिक मुसीबत में हैं। लोकतंत्र के लिए प्रदर्शन कर रहे लोग मौत के मुंह में समा रहे हैं। जो हालात से डरकर भागना चाहते हैं, उन्हें पड़ोसी देश अपने यहां आने नहीं देना चाहते। चुनी हुई सरकार के फरवरी में तख्ता-पलट के बाद 29 मार्च तक सेना की गोलियों से म्यांमार के 400 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। अकले 28 मार्च को जब म्यांमार की सेना अपना वार्षिक परेड कर रही थी, लोकतंत्र के लिए सड़कों पर उतरे लोगों में से 114 को मौत की नींद सुला दिया गया। इन घटनाओं पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतरश ने कहा कि इस हिंसा से उन्हें 'गहरा सदमा' लगा है। ब्रिटेन ने तो इसे 'गिरावट का नया स्तर' बताया है। आपात स्थितियों पर विचार के लिए संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत टॉम एंड्रूस ने एक अंतराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने की मांग की है। चिंता जताने और विचार-विमर्श का सिलसिला चलता रहेगा। बड़ी चिंता यह है कि वहां के हालात से परेशान जो लोग किसी दूसरे देश में शरण लेना चाहते हैं, उनका क्या हो? म्यांमार से भागने वाले लोग शरणार्थी बनना चाहते हैं। अपने देश में सांप्रदायिक दंगे, युद्ध, राजनीतिक उठापटक जैसे हालात से बचकर दूसरे देशों में रहने वाले लोग ही शरणार्थी हुआ करते हैं। इसमें एक मुख्य बिंदु यह होता है कि दूसरे देश में रहते हुए उन्हें नागरिकता नहीं मिलती और वे अपने देश भी नहीं लौटना चाहते। भारत के मणिपुर में भी म्यांमार के ऐसे कुछ नागरिक आ चुके हैं। और तो और, इनमें पुलिस वाले भी शामिल हैं। ये ऐसे पुलिसकर्मी हैं, जिन्होंने लोकतंत्र समर्थकों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था। यानी मुसीबत में आम लोगों के साथ सरकारी कर्मचारी भी शामिल हैं। यह जरूर है कि ये सरकारी कर्मचारी भी आम लोगों की तरह सेना वाली सरकार के हुक्म नहीं मानना चाहते। सवाल यह है कि भारत जैसा देश ऐसे लोगों का बोझ किस स्तर तक बर्दाश्त करे। मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरमथंगा कहते हैं कि उनकी सरकार ऐसे लोगों को अस्थायी तौर पर पनाह देगी। इनके बारे में आगे का फैसला केंद्र सरकार करेगी। भारत से उम्मीद की किरणें देख ऐसे लोग इधर का मुंह करने लगे हैं। करीब 250 मील लंबी तिआउ नदी दोनों देशों के बीच सीमा के कुछ हिस्से को साझा करती है। इस नदी को पार कर आने वाले ही अधिक हैं। मुश्किल यह है कि मिजोरम के साथ पड़ोसी मणिपुर सरकार ने भी म्यांमार से आने वालों के लिए कोई रिफ्यूजी कैंप नहीं खोलने का फैसला किया है। केंद्र सरकार ने नगालैंड और अरुणाचल प्रदेशों से भी ऐसे शरणार्थियों को रोकने को कहा है। भारत-म्यांमार सीमा पर तैनात बॉर्डर गार्डिंग फोर्स को अलर्ट रहने की भी एडवाइजरी जारी की गई है। भारत की अपनी दिक्कतें हैं। किसी दूसरे देश में सताने के परिणामस्वरूप आए वहां के अल्पसंखयकों को नागरिकता देने का कानून बनाया गया है। उसकी एक समय सीमा तय की गयी। उस कानून का एक तबके ने विरोध भी किया। उन्हें लगा कि उन्ही के समुदाय को रोका जा रहा है। केंद्र सरकार की अपनी दिक्कते हैं। यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिप्टूजीज (यूएनएचसीआर) के 2014 के अंत के आंकड़े के मुताबिक भारत में 1 लाख 09 हजार तिब्बती, 65 हजार 700 श्रीलंकाई, 14 हजार 300 रोहिंग्या, 10 हजार 400 अफगानी, 746 सोमाली और 918 दूसरे शरणार्थी रह रहे हैं। ये रजिस्टर्ड शरणार्थी हैं, अवैध रूप से यहां रहने वालों की संख्या बहुत अधिक है। देश में बढ़ते शरणार्थियों से आर्थिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक दबाब तो है ही, कानून व्यवस्था सबसे बड़ा सवाल है। अपराध और यहां तक कि देश विरोधी आतंकी गतिविधि से भी कई बार ऐसे लोगों के तार जुड़े पाए जाते हैं। वैसे भी भारत ने यूनाइटेड नेशंस रिफ्यूजी कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। पहले से ही बड़ी संख्या में शरणार्थियों की जिम्मेदारी उठा रहे भारत के लिए यह उचित भी नहीं है। सवाल सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ा है कि जरूरमंदों की मदद कैसे हो। उचित समाधान तो म्यांमार में शीघ्र शांति-स्थापना ही है। (लेखक, हिंदुस्थान समाचार की पाक्षिक पत्रिका ‘यथावत’ के समन्वय संपादक हैं।)
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देवेन्द्रराज सुथार हाल ही में सामने आया कि बिहार के 19 जिलों के 10 लाख लोग आर्सेनिक से प्रभावित हैं। बिहार के उत्तरी भाग में गंगा के मैदान के अधिकतर जिले इसकी चपेट में हैं। केंद्रीय भूमि जल बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, 21 राज्यों में आर्सेनिक का स्तर भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा निर्धारित 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर की अनुमन्य सीमा से अधिक हो गया है। गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी बेसिन के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और असम इस मानव-प्रवर्तित भू-गर्भीय घटना से सबसे अधिक प्रभावित हैं। आर्सेनिक को विषों का राजा कहा जाता है। आर्सेनिक धातु के समान एक प्राकृतिक तत्व है। पेयजल, भोजन एवं वायु के माध्यम से मानव शरीर में एक निर्धारित मात्रा (0.05 मिग्रा./ली.) से अधिक पहुंच जाने पर यह मानव शरीर के लिये जहरीला हो जाता है। मुख्यतः आर्सेनिक प्रदूषण प्राकृतिक कारणों से होता है अर्थात हैण्डपम्प जिस स्ट्रैटा से पानी लेता है उसी में प्राकृतिक रूप से आर्सेनिक उपस्थित होता है। आर्सेनिक प्रदूषण मुख्यतः सक्रिय नदीय तंत्र से प्राकृतिक रूप से जुड़ा हुआ है और सामान्यतः बड़ी नदियों के बहाव क्षेत्र के मिट्टी में पाये जाते हैं। सामान्यतः आर्सेनिक विषाक्तता के प्रारम्भिक लक्षण त्वचा सम्बन्धी समस्याओं के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। बहुधा त्वचा के रंग में परिवर्तन, तथा गहरे या हल्के धब्बे शरीर पर दिखलाई पड़ते हैं। हथेली और तलवों की त्वचा कठोर, खुरदरी तथा कटी-फटी हो जाती है। ऐसे लक्षण ज्यादातर कई वर्षों तक लगातार आर्सेनिक प्रदूषित जल के पीने से होते हैं। यदि आर्सेनिक प्रदूषित जलग्रहण करना बन्द कर दिया जाये तो ऐसे लक्षणों का बढ़ना रुक सकता है तथा यह लक्षण खत्म भी हो सकते हैं। अधिक लम्बे समय तक आर्सेनिक प्रदूषित जल पीने से त्वचा का कैंसर तथा अन्य आन्तरिक अंगों तथा फेफड़े, आमाशय तथा गुर्दे का कैंसर हो सकता है। यह महत्त्वपूर्ण बात है कि आर्सेनिक प्रदूषण के लक्षण और चिन्ह अलग-अलग व्यक्ति, जनसमूह एवं भौगोलिक क्षेत्रों में भिन्न प्रकार के हो सकते हैं। आर्सेनिक से होने वाली बीमारियों की कोई सार्वभौमिक परिभाषा उपलब्ध नहीं है। आर्सेनिक एक ऐसा मीठा जहर है जो कभी भी स्वतंत्र रूप से प्रकृति में नहीं प्राप्त होता है, बल्कि यह संयुक्तावस्था में विभिन्न तत्वों के साथ प्राप्त होता है। सामान्य रूप से सल्फर, ऑक्सीजन, सीसा, तांबा एवं लोहा के साथ मिलता है। चट्टानों के टूटने की क्रिया या चट्टानों से जल रिसने पर आर्सेनिक भूमिगत जल के साथ मिश्रित हो जाता है। भूमिगत जल में आर्सेनिक का प्रवेश प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों कारणों से होता है। व्यापक स्तर पर कीटनाशी एवं खरपतवारनाशी रसायनों का कृषि कार्य में उपयोग ही भूमिगत जल में आर्सेनिक की मात्रा को बढ़ाने के लिए उत्तरदायी होता है। वर्तमान समय में व्यापक स्तर पर कीड़ों से फलों को बचाने हेतु पेड़ों पर छिड़काव करने हेतु कापर साइनाइट का प्रयोग कीटनाशी की तरह एवं आर्सेनिक ऑक्साइड का प्रयोग खरपतवार नाशक के रूप में किया जा रहा है। यही नहीं बरसात के पानी से मिलकर आर्सेनिक यौगिक पृथ्वी की सतह पर आता हैं एवं रिसकर सतह के नीचे पहुंचकर भूमिगत जल में मिल जाता है। चूंकि आर्सेनिक भूमिगत जल में अविलेय है, किन्तु इतना सूक्ष्म होता है कि यह जल के साथ लटका रहता है। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि पावर प्लांट में कोयला के जलने से भी आर्सेनिक उत्पन्न होता है जो नदियों द्वारा अपशिष्ट के रूप में बहाकर लाया जाता है। यही कारण है कि नदियों के आस-पास के क्षेत्रों में आर्सेनिक अधिक पाया जाता है। भू-वैज्ञानिकों का तो यह भी मत है कि आर्सेनिक गंगा नदी के किनारे अधिक पाया जाता है। यह पाया गया कि शरद ऋतु में उगाई जाने वाली धान से प्राप्त चावल में आर्सेनिक के अधिक विषैले तीन-संयोजी रूप पाए जाते हैं। दूसरी ओर चावल के भूसे में आर्सेनिक के पांच-संयोजी रूप मौजूद होते हैं। इसके अलावा धान की पारंपरिक और उच्च पैदावार दोनों ही किस्मों के साथ पारबॉइलिंग और मिलिंग जैसी प्रक्रियाओं में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ती है। जैविक खाद के माध्यम से मृदा संशोधन करने पर आर्सेनिक की मात्रा में कमी आती है। भूजल दूषित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में पानी और आहार दोनों के माध्यम से आर्सेनिक सेवन और पेशाब में आर्सेनिक के उत्सर्जन को लेकर किए गए कई अध्ययन बताते हैं कि आर्सेनिक प्रदूषित इलाकों में सिर्फ पेयजल में आर्सेनिक की समस्या को दूर करने से आर्सेनिक सम्बंधी खतरे कम नहीं होंगे। चावल का नियमित सेवन शरीर में आर्सेनिक पहुंचने का एक प्रमुख ज़रिया है जिसका समाधान ढूंढने की ज़रूरत है। आर्सेनिक विषाक्तता के उपचार के लिए समग्र व समेकित तरीके की आवश्यकता है जिसमें खाद्य शृंखला में आर्सेनिक की उपस्थिति और पेयजल में आर्सेनिक सुरक्षित मात्रा की सीमा में रखने के मिले-जुले प्रयास करने होंगे। लोगों को पेयजल की गुणवत्ता जांचने के मामले में जागरूक करना और परीक्षण करने के लिए प्रेरित करना महत्वपूर्ण है। गंभीर त्वचा-घाव से प्रभावित लोगों के स्वास्थ्य खतरे और परेशानी को ध्यान में रखते हुए आर्सेनिक मुक्त पेयजल की आपूर्ति के साथ राज्य अस्पतालों में इन रोगियों के निशुल्क उपचार की व्यवस्था बीमारी को कम करने में मदद कर सकती है। यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि आर्सेनिक से प्रभावित लोग बहुत गरीब हैं व दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। आर्सेनिक प्रदूषित भूमिगत जल के अत्यधिक उपयोग के कारण मिट्टी और खाद्य शृंखला में काफी आर्सेनिक प्रदूषण हुआ है। आर्सेनिक प्रदूषित जल का उपयोग कम करने और इसके उपायों के बारे में किसानों को जागरूक बनाने में काफी समय लगेगा। विविध संस्थाओं और विविध विषयों को जोड़कर कार्यक्रमों को मज़बूत करना होगा, तभी आर्सेनिक-दूषित संसाधनों पर निर्भरता को कम करने के लिए दीर्घकालिक तकनीकी विकल्प विकसित हो सकेंगे। सरकार व गैर सरकारी संगठनों को पेयजल और कृषि उत्पादों के लिये आर्सेनिक मुक्त जल सुनिश्चित करने के लिये अधिक व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को इस विषय पर अनुसंधान को सुगम बनाने की दिशा में काम करना चाहिए जो फसलों में आर्सेनिक के संचय की जाँच कर सके और प्रभावित क्षेत्रों की कृषि चिंताओं को दूर कर सके। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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सुरेन्द्र कुमार किशोरी होली सिर्फ रंगों का त्योहार ही नहीं है, बल्कि यह उद्घोष है ऋतु परिवर्तन के साथ सदियों की परंपरा का, जहां बड़ों के चरण स्पर्श, देव दर्शन और छोटों के साथ के प्रति स्नेहाशीष के साथ पूर्णता होती है। होली एक तरह से मन का त्योहार है और वैसे भी जब मन प्रफुल्लित होता है तब हर क्षण फागुन और हर दिन होली का उत्सव मनाता है। अपनों के बीच एकाकीपन, चिड़चिड़ाहट, गुस्सा, अवसाद जैसे इमोशन इस पर्व में पानी में घुल जाते हैं। होली के समय मौसम भी सुहाना हो जाता है। सूरज की उष्णता, भक्त प्रह्लाद का पुनर्स्मरण और मधुरिम लोकगीतों पर मग्न हुरियारों की मस्ती ह्रदय में उन कोमल भावों को जागृत करती है जो हमारे सारे अहंकार को त्यागकर स्वजनों को रंगों से सरोवर कर ही देती है। इंद्रधनुषी विविध रंगों की बौछार न सिर्फ हमारे तन को रंगीला करती है, बल्कि हृदय से आत्मा को भी जोड़ती है। होली में खुशियां बांटने और रिश्तों में मिठास घोलने के लिए एक दूसरे को रंग लगाने के साथ-साथ तरह-तरह के पकवान, व्यंजनों एवं पेय पदार्थों का स्वाद लेने का भी आनंद आता है। लोग बड़े उल्लास से कई दिन पहले से ही होली के त्यौहार पर विशेष तरह के पकवान तथा व्यंजन बनाने की तैयारियां करने लगते हैं, त्योहार पर इन्हें प्रसन्न मन से बनाते हैं तो इसका आनंद ही कुछ और होता है। विशेष रूप से गुजिया और ठंडाई इस त्यौहार में अत्यधिक पसंद की जाती है। लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों में विशेष तरह के व्यंजन भी बनाए जाते हैं। होली में रंग खेलने, एक दूसरे को रंग लगाने का जो रिवाज है उसके पीछे भाव है कि लोग रंगों के महत्व को भी समझें। जब सभी लोग विविध रंगों में रंगकर अपनी पहचान खो देते हैं और सभी एक समान प्रतीत होते हैं तो यह दृश्य बताता है कि हम मनुष्य भले ही समाज में जात-पात, ऊंच-नीच, कुल-धर्म, समानता-असमानता, रंग-भेद आदि से मनुष्यों के बीच दीवार खड़ी कर लेते हैं। वास्तव में हम सभी इन सब से ऊपर मनुष्य ही हैं, परमात्मा की दृष्टि में हममें कोई भेदभाव नहीं है। हम सभी में उसी परमात्मा का अंशरूप जीवात्मा मौजूद है, भिन्नता है तो सिर्फ हमारे कर्मों में, मनोवृतिओं में, दृष्टिकोण में एवं सोच में। यदि इन सब में भी परिष्कृति आ जाए तो हम मनुष्य किसी देव से कम नहीं हैं। रंगो की अपनी सौंदर्यता होती है, रंगों में एक आकर्षण होता है और रंग व्यक्ति के ऊपर भी अपना प्रभाव डालते हैं। होली में जो रंग खेलने के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं यदि उनमें रासायनिक तत्वों का इस्तेमाल है तो वह हमारे लिए लाभकारी नहीं बल्कि नुकसानदेह है। क्योंकि जब यह हमारे सिर, त्वचा, नाक, मुंह, आंख, कान और नाखूनों पर पड़ते हैं तो हमारे शरीर के अत्यंत सूक्ष्मछिद्रों के माध्यम से शरीर के अंदर भी प्रवेश कर जाते है तथा शरीर के संवेदनशील अंगों पर अपना बुरा प्रभाव डालते हैं। इसके विपरीत यदि हम प्राकृतिक रूप से बने हुए रंगों का प्रयोग करें तो यह हमारे लिए अत्यंत लाभदायक होंगे और होली के त्यौहार के आनंदों को कई गुना बढ़ा देते हैं। पहले की होली पारंपरिक रीति-रिवाजों से मनाई जाती थी। लेकिन अब पाश्चात्य संस्कृति की देखा-देखी होली में अश्लीलता का पादुर्भाव तेज हो चुका है। होली के बहाने लोग अश्लील हरकतों से बाज नहीं आते हैं और इस अश्लीलता को गति देने में भोजपुरी होली गीत और द्विअर्थी गीत के साथ-साथ मोबाइल का भी बहुत बड़ा योगदान है। होली के बहाने होने वाले अश्लीलता के इस कुचक्र को भी तोड़ना होगा। क्योंकि अश्लीलता की प्रवृत्ति एक भयानक विषबेल की तरह अपना प्रभाव दिखा रही है। एक पतली सी बेल, जिसमें वृक्षों, पौधों की तरह अपने बूते खड़े होने की क्षमता भी नहीं है। भूमि पर फैलती हुई इतने विषैले फल पैदा कर दे रही है कि समाज के एक बड़े सभ्य वर्ग के लिए संकट पैदा कर रहे हैं। वर्तमान समय में सभ्य समाज को कलंकित करने वाले ढ़ेरों दुष्कृत्य अश्लीलता की विषबेल से ही उपज रहे हैं। पुरुष के पुरुषार्थ को पंगु बनाना, नारी का नारकीय उत्पीड़न करना तथा परिवार और समाज की गरिमा पर हो रहा चोट इसी का तो दुष्परिणाम है। पुरुष को उसके पौरुष, पराक्रम के कारण पहचाना जाता है। लेकिन अश्लीलता की प्रवृत्ति पौरुष को पंगु, अप्रभावी बनाती जा रही है। अश्लील चिन्तन तथा उसके कारण उभरने वाली कुचेष्टायें, मनुष्य की मनुष्यता का गला घोंट रही है। शारीरिक और मानसिक शक्तियों का इतना क्षरण हो रहा है कि किसी आदर्श को अपनाने और उसके लिए पुरुषार्थ करने की हिम्मत ही नहीं होती। जो पुरुषार्थ समाज को दिशा देने, उसकी गरिमा बढ़ाने में लगना चाहिए था, वह कामना वासना के छिद्रों से बहकर नष्ट हो रहा है। जिस नारी को पुरुष की पूरक प्रकृति, देवी के रूप में पूजा जाता रहा है, उसे भोग्या मानकर मनमाने अनगढ़ ढ़ंग से उसका उपभोग करने की हीन प्रवृत्ति इसी अश्लील चिन्तन की उपज है। इसी प्रवृत्ति से उभरे पागलपन ने नारी को नारकीय उत्पीड़न झेलने के लिए बाध्य कर दिया है। उसके माता- बहन, पुत्री, गृहलक्ष्मी जैसे पवित्र और सम्मान जनक स्वरूपों की उपेक्षा इसी दुष्ट प्रवृत्ति ने कराई है। इस राक्षसी प्रवृत्ति ने शिष्ट परिवारों और सभ्य समाज की गरिमा को ध्वस्त कर देने का कुचक्र भी रच दिया है। अश्लीलता से प्रेरित दुष्कर्मों के कारण समाज को बार- बार शर्मिंदा होना पड़ता है। जिससे अजीब सी स्थिति पैदा हो गई है। अधिकांश समाज इससे त्रस्त और दुखी है। थोड़ी भटकी हुई प्रतिभाओं ने वातावरण में अश्लीलता फैला दिया। जिसके कारण अधकचरे मन-मस्तिष्क उस हवा में चाहे-अनचाहे बह रहे हैं। अश्लीलता की विषबेल को नष्ट किए बिना समाज के विकास के लिए स्वस्थ वातावरण बनाना असंभव ही है। इसके लिए सद्भाव सम्पन्न, लोकहितैषी, ऊर्जावान व्यक्तियों को एकजुट होकर अश्लीलता उन्मूलन आन्दोलन को गतिशील बनाना होगा। क्योंकि यह पूतना नयी पीढ़ी के बच्चों को सुख देने के बहाने विषपान कराकर नष्ट कर रही है, इसका वध तो करना ही होगा। यह होलिका युवाओं को प्यार से अपनी गोद में बिठाकर कामाग्रि में भस्म करने का कुचक्र रच रही है, इस कुचक्र को भी जल्दी से तोड़ना होगा।
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होली के त्योहार (29 मार्च) पर विशेष योगेश कुमार गोयल जन चेतना का जागरण पर्व होली हमें परस्पर मेल-जोल बढ़ाने और आपसी वैर भाव भुलाने की प्रेरणा देता है। रंगों के इस पर्व के प्रति युवा वर्ग व बच्चों के साथ-साथ बड़ों में भी अपार उत्साह देखा जाता है। वैसे तो यह त्यौहार देश में होलिका दहन व रंगों के त्यौहार के रूप में ही जाना जाता है लेकिन भारत के विभिन्न भागों में इस पर्व को मनाने के अलग-अलग और बड़े विचित्र तौर-तरीके देखने को मिलते हैं। डालते हैं देशभर में होली के विविध रूपों पर नजर। उत्तर प्रदेश में ब्रज की बरसाने की ‘लट्ठमार होली’ अपने आप में अनोखी और विश्व प्रसिद्ध है, जिसका आनंद लेने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। यहां होली खेलने के लिए रंगों के स्थान पर लाठियों व लोहे तथा चमड़े की ढालों का प्रयोग किया जाता है। महिलाएं लाठियों से पुरुषों को पीटने का प्रयास करती हैं जबकि पुरुष ढालों की आड़ में स्वयं को लाठियों के प्रहारों से बचाते हैं। लट्ठमार होली के आयोजन ब्रज मंडल में करीब डेढ़ माह तक चलते हैं लेकिन विशेष आयोजन के रूप में खेली जाने वाली लट्ठमार होली के लिए विभिन्न दिन एवं स्थान निश्चित हैं। ब्रज मंडल में नंदगांव, बरसाना, मथुरा, गोकुल, लोहबन तथा बल्देव की लट्ठमार होली विशेष रूप से प्रसिद्ध व दर्शनीय है। लट्ठमार होली के लिए लोग कई दिन पहले ही तैयारियां शुरू कर देते हैं। बरसाने की होली में नंदगांव के पुरुष और बरसाने की महिलाएं भाग लेती हैं जबकि नंदगांव की होली में पुरुष बरसाने के होते हैं और महिलाएं नंदगांव की। होली खेलने वाले हुरियारों के हाथों में अपनी सुरक्षा के लिए चमड़े की ढाल होती है जबकि रंग-बिरंगे लहंगे और ओढ़नियों से सजी गोरियों के नाजुक हाथों में लाठियां होती हैं। हुरियारों के झुंड में 3-4 वर्ष के बच्चों से लेकर 70 साल के वृद्ध भी दिखाई देते हैं। जब हुरियारे और गोरियां आमने-सामने होते हैं तो लाठियों और ढालों का मन मचलने लगता है। गोरियां लाठियां भांजती हैं और हुरियारे नाचते-गाते ढाल द्वारा बचाव करते हैं। इस दौरान आकाश रंग-बिरंगे गुलाल के बादलों से आच्छादित हो जाता है और बड़ा ही मनोहारी दृश्य उपस्थित होता है। रणबांकुरों की धरती राजस्थान में तो होली का अलग-अलग जगह अलग-अलग तरीके से आयोजन होता है। जयपुर के आसपास के कुछ क्षेत्रों में होलिका दहन के साथ पतंग जलाने की भी प्रथा है। गौरतलब है कि यहां पतंग उड़ाने का आयोजन मकर संक्रांति से शुरू होता है, जो होली तक पूरे शबाब पर होता है लेकिन होलिका दहन से पूर्व विभिन्न चौराहों पर होलिका को लोग अपने-अपने घरों से लाई रंग-बिरंगी पतंगों से सजाते हैं और होलिका दहन के साथ पतंगों को भी अग्नि को समर्पित कर इस दिन से पतंग उड़ाना बंद कर देते हैं। राजस्थान में कुछ स्थानों पर खूनी होली भी खेली जाती है, जहां ‘दुलहैंडी’ के दिन एक-दूसरे को गुलाल लगाने के बजाय खून का तिलक लगाने की प्रथा है। राज्य के कुछ हिस्सों में लोग एक-दूसरे को तब तक छोटे-छोटे कंकड़ मारते हैं, जब तक उनके शरीर के किसी हिस्से से खून न निकल आए। इसके बाद खून से तिलक लगाकर होली खेली जाती है। बांसवाड़ा क्षेत्र की पत्थरमार होली तो काफी प्रसिद्ध है। महिलाएं पुरुषों पर पत्थर फेंकती हैं और पुरुष बचने की कोशिश करते हैं। इस दौरान काफी लोगों को चोटें भी लगती हैं लेकिन फिर भी इस आयोजन के प्रति लोगों का उत्साह देखते बनता है। बिहार में कुछ स्थानों पर रात के समय होली जलाने की प्रथा है। लोग होलिका दहन के समय इसके चारों ओर एकत्रित होते हैं और गेहूं व चने की बालें भूनकर खाते हैं। प्रदेश के कुछ हिस्सों में युवक अपने-अपने गांव की सीमा के बाहर मशाल जलाकर रास्ता रोशन करते हैं। इस संबंध में मान्यता है कि ऐसा करके वे अपने गांव से दुर्भाग्य और संकटों को दूर भगा रहे हैं। पश्चिम बंगाल में होली का आयोजन तीन दिनों तक चलता है, जिसे ‘डोलीजागा’ नाम से जाना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के मंदिरों के आसपास कागज, कपड़े व बांस से मनुष्य की प्रतिमाएं बनाई जाती हैं और छोटी-छोटी पर्णकुटियों का भी निर्माण किया जाता है। शाम के समय मनुष्य की प्रतिमाओं के समक्ष वैदिक रीति से यज्ञ किए जाते हैं और यज्ञ कुंड में मनुष्य की प्रतिमाएं जला दी जाती हैं। उसके बाद लोग हाथों में भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमाएं लेकर यज्ञ कुंड की सात बार परिक्रमा करते हैं। अगले दिन प्रातः भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति को एक झूले पर सजाया जाता है और पुरोहित मंत्रोच्चार के साथ उसे झूला झुलाता है। इस दौरान वहां उपस्थित लोग भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति पर अबीर-गुलाल उड़ाते हैं। विधिवत पूजा अर्चना के बाद पुरोहित उस अबीर-गुलाल को उठाकर उसी से वहां उपस्थित लोगों के मस्तक पर टीका लगता है। इसके बाद दिनभर लोग रंगों से आपस में होली खेलते हैं। उड़ीसा में होली के अवसर पर जीवित भेड़ को जलाने की प्रथा रही है किन्तु अब इस प्रथा के स्वरूप में परिवर्तन आया है और बहुत से स्थानों पर भेड़ को प्रज्जवलित ज्वाला के पास ले जाकर रस्म अदायगी कर छोड़ दिया जाता है जबकि उड़ीसा के कुछ स्थानों पर लोग कागज और कपड़े से भेड़ की आकृति बनाकर जलाते हैं। उड़ीसा में होली का त्यौहार ‘तिग्या’ के नाम से जाना जाता है और इस अवसर पर देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के विशाल जुलूस निकालने की परम्परा भी देखी जाती है। हरियाणा में होली के इन्द्रधनुषी रंगों की छटा देखते ही बनती है। होली के दिन महिलाएं व्रत रखती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं पारम्परिक लोकगीत गाते हुए समूहों में होलिका दहन के लिए जाती हैं और पूजा अर्चना करती हैं तथा होलिका दहन के पश्चात् व्रत खोलती हैं। यहां होली की आग में गेहूं तथा चने की बालें भूनकर खाना शुभ माना जाता है। अगले दिन ‘दुलहैंडी’ के दिन स्त्री-पुरूष, बच्चे सभी गली-गली में होली के रंगों में मस्त दिखाई देते हैं। हर गली में पानी से बड़े-बड़े टब अथवा ड्रम भरकर रखे जाते हैं। आमतौर पर गांवों में कुंवारी लड़कियां इन टबों में पानी भरती हैं, जिन्हें इसके लिए ‘नेग’ के रूप में कुछ राशि दी जाती है। पुरूष महिलाओं पर पानी डालते हैं और महिलाएं उन पर कोड़े बरसाती हैं। कोड़े की जगह अब कहीं-कहीं लाठियों ने ले ली है। शाम को गांवों में कबड्डी व कुश्ती प्रतियोगिताएं भी आयोजित होती हैं। महिलाएं शाम के समय अपने लोक देवता की पूजा के लिए मंदिरों में जाती हैं और प्रसाद बांटती हैं। पंजाब में भी हरियाणा की ही भांति होली पर खूब धूमधाम और मस्ती देखी जाती है। लोग रंग और गुलाल से होली खेलकर एक-दूसरे से गले मिलते हैं। महिलाएं होली के दिन अपने घर के दरवाजे पर ‘स्वास्तिक’ चिन्ह बनाती हैं। शाम को जगह-जगह कुश्ती के दंगल और शारीरिक सौष्ठव के आयोजन होते हैं। मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी इलाकों में होली के अवसर पर ‘गोल बधेड़ो’ नामक उत्सव का आयोजन होता है, जिसमें ताड़ के वृक्ष पर नारियल व गुड़ की एक पोटली लटका दी जाती है और लड़कियां हाथ में झाड़ू लेकर लड़कों को वृक्ष पर चढ़ने से रोकती हैं। जो लड़का इसके बाद भी पेड़ पर चढ़कर पोटली उतारकर लाने में सफल हो जाता है, उसे वहां उपस्थित लड़कियों में से किसी भी एक लड़की को पत्नी के रूप में चुनने का अधिकार होता है। यहां की भील जनजाति में भी लोग एक सप्ताह तक ऐसा ही एक उत्सव मनाते हैं, जिसे ‘भगोरिया’ के नाम से जाना जाता है। इस दौरान यहां भील युवक-युवतियों का एक हाट लगता है और हाट में किसी भील युवक को अगर कोई लड़की पसंद आ जाती है तो वह उसके गालों पर गुलाल लगाकर अपने दिल की भावना व्यक्त कर देता है। अब अगर उस लड़की को भी वह लड़का पसंद है तो वह भी उसके गालों पर गुलाल लगा देती है। उसके बाद दोनों की शादी कर दी जाती है। गुजरात में होली का पर्व ‘हुलासनी’ के नाम से मनाया जाता है। होलिका का पुतला बनाकर उसका जुलूस निकाला जाता है और होलिका के पुतले को केन्द्रित कर लोग तरह-तरह के हंसी-मजाक भी करते हैं। उसके बाद पुतले को जला दिया जाता है और होलिका दहन के बाद बची राख से कुंवारी लड़कियां ‘अम्बा’ देवी की प्रतिमाएं बनाकर गुलाब तथा अन्य रंग-बिरंगे फूलों से उसकी पूजा अर्चना करती हैं। ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से लड़कियों को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है। हिमाचल प्रदेश में होलिका दहन के पश्चात् बची राख को ‘जादू की शक्ति’ माना जाता है और यह सोचकर इसे खेत-खलिहानों में डाला जाता है कि इससे यहां किसी प्रकार की विपत्ति नहीं आएगी और फसल अच्छी होगी। होली खेलते समय महिलाएं पुरूषों पर लाठियों से प्रहार करती हैं और पुरूष स्वयं को ढ़ालों इत्यादि से बचाते हैं। महाराष्ट्र में होली का त्यौहार ‘शिमगा’ नाम से मनाया जाता है। यहां इस दिन घरों में झाड़ू का पूजन करना शुभ माना गया है। पूजन के पश्चात् झाड़ू को जला दिया जाता है। प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में होली खेलते समय पुरुष ही रंगों का इस्तेमाल करते हैं। दक्षिण भारत के राज्यों में मान्यता है कि भगवान शिव ने इसी दिन कामदेव को अपने गुस्से से भस्म कर दिया था, इसलिए यहां होली पर्व कामदेव की स्मृति में ‘कामदहन पर्व’ के रूप में ही मनाया जाता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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होली के त्योहार (29 मार्च) पर विशेष योगेश कुमार गोयल जन चेतना का जागरण पर्व होली हमें परस्पर मेल-जोल बढ़ाने और आपसी वैर भाव भुलाने की प्रेरणा देता है। रंगों के इस पर्व के प्रति युवा वर्ग व बच्चों के साथ-साथ बड़ों में भी अपार उत्साह देखा जाता है। वैसे तो यह त्यौहार देश में होलिका दहन व रंगों के त्यौहार के रूप में ही जाना जाता है लेकिन भारत के विभिन्न भागों में इस पर्व को मनाने के अलग-अलग और बड़े विचित्र तौर-तरीके देखने को मिलते हैं। डालते हैं देशभर में होली के विविध रूपों पर नजर। उत्तर प्रदेश में ब्रज की बरसाने की ‘लट्ठमार होली’ अपने आप में अनोखी और विश्व प्रसिद्ध है, जिसका आनंद लेने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। यहां होली खेलने के लिए रंगों के स्थान पर लाठियों व लोहे तथा चमड़े की ढालों का प्रयोग किया जाता है। महिलाएं लाठियों से पुरुषों को पीटने का प्रयास करती हैं जबकि पुरुष ढालों की आड़ में स्वयं को लाठियों के प्रहारों से बचाते हैं। लट्ठमार होली के आयोजन ब्रज मंडल में करीब डेढ़ माह तक चलते हैं लेकिन विशेष आयोजन के रूप में खेली जाने वाली लट्ठमार होली के लिए विभिन्न दिन एवं स्थान निश्चित हैं। ब्रज मंडल में नंदगांव, बरसाना, मथुरा, गोकुल, लोहबन तथा बल्देव की लट्ठमार होली विशेष रूप से प्रसिद्ध व दर्शनीय है। लट्ठमार होली के लिए लोग कई दिन पहले ही तैयारियां शुरू कर देते हैं। बरसाने की होली में नंदगांव के पुरुष और बरसाने की महिलाएं भाग लेती हैं जबकि नंदगांव की होली में पुरुष बरसाने के होते हैं और महिलाएं नंदगांव की। होली खेलने वाले हुरियारों के हाथों में अपनी सुरक्षा के लिए चमड़े की ढाल होती है जबकि रंग-बिरंगे लहंगे और ओढ़नियों से सजी गोरियों के नाजुक हाथों में लाठियां होती हैं। हुरियारों के झुंड में 3-4 वर्ष के बच्चों से लेकर 70 साल के वृद्ध भी दिखाई देते हैं। जब हुरियारे और गोरियां आमने-सामने होते हैं तो लाठियों और ढालों का मन मचलने लगता है। गोरियां लाठियां भांजती हैं और हुरियारे नाचते-गाते ढाल द्वारा बचाव करते हैं। इस दौरान आकाश रंग-बिरंगे गुलाल के बादलों से आच्छादित हो जाता है और बड़ा ही मनोहारी दृश्य उपस्थित होता है। रणबांकुरों की धरती राजस्थान में तो होली का अलग-अलग जगह अलग-अलग तरीके से आयोजन होता है। जयपुर के आसपास के कुछ क्षेत्रों में होलिका दहन के साथ पतंग जलाने की भी प्रथा है। गौरतलब है कि यहां पतंग उड़ाने का आयोजन मकर संक्रांति से शुरू होता है, जो होली तक पूरे शबाब पर होता है लेकिन होलिका दहन से पूर्व विभिन्न चौराहों पर होलिका को लोग अपने-अपने घरों से लाई रंग-बिरंगी पतंगों से सजाते हैं और होलिका दहन के साथ पतंगों को भी अग्नि को समर्पित कर इस दिन से पतंग उड़ाना बंद कर देते हैं। राजस्थान में कुछ स्थानों पर खूनी होली भी खेली जाती है, जहां ‘दुलहैंडी’ के दिन एक-दूसरे को गुलाल लगाने के बजाय खून का तिलक लगाने की प्रथा है। राज्य के कुछ हिस्सों में लोग एक-दूसरे को तब तक छोटे-छोटे कंकड़ मारते हैं, जब तक उनके शरीर के किसी हिस्से से खून न निकल आए। इसके बाद खून से तिलक लगाकर होली खेली जाती है। बांसवाड़ा क्षेत्र की पत्थरमार होली तो काफी प्रसिद्ध है। महिलाएं पुरुषों पर पत्थर फेंकती हैं और पुरुष बचने की कोशिश करते हैं। इस दौरान काफी लोगों को चोटें भी लगती हैं लेकिन फिर भी इस आयोजन के प्रति लोगों का उत्साह देखते बनता है। बिहार में कुछ स्थानों पर रात के समय होली जलाने की प्रथा है। लोग होलिका दहन के समय इसके चारों ओर एकत्रित होते हैं और गेहूं व चने की बालें भूनकर खाते हैं। प्रदेश के कुछ हिस्सों में युवक अपने-अपने गांव की सीमा के बाहर मशाल जलाकर रास्ता रोशन करते हैं। इस संबंध में मान्यता है कि ऐसा करके वे अपने गांव से दुर्भाग्य और संकटों को दूर भगा रहे हैं। पश्चिम बंगाल में होली का आयोजन तीन दिनों तक चलता है, जिसे ‘डोलीजागा’ नाम से जाना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के मंदिरों के आसपास कागज, कपड़े व बांस से मनुष्य की प्रतिमाएं बनाई जाती हैं और छोटी-छोटी पर्णकुटियों का भी निर्माण किया जाता है। शाम के समय मनुष्य की प्रतिमाओं के समक्ष वैदिक रीति से यज्ञ किए जाते हैं और यज्ञ कुंड में मनुष्य की प्रतिमाएं जला दी जाती हैं। उसके बाद लोग हाथों में भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमाएं लेकर यज्ञ कुंड की सात बार परिक्रमा करते हैं। अगले दिन प्रातः भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति को एक झूले पर सजाया जाता है और पुरोहित मंत्रोच्चार के साथ उसे झूला झुलाता है। इस दौरान वहां उपस्थित लोग भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति पर अबीर-गुलाल उड़ाते हैं। विधिवत पूजा अर्चना के बाद पुरोहित उस अबीर-गुलाल को उठाकर उसी से वहां उपस्थित लोगों के मस्तक पर टीका लगता है। इसके बाद दिनभर लोग रंगों से आपस में होली खेलते हैं। उड़ीसा में होली के अवसर पर जीवित भेड़ को जलाने की प्रथा रही है किन्तु अब इस प्रथा के स्वरूप में परिवर्तन आया है और बहुत से स्थानों पर भेड़ को प्रज्जवलित ज्वाला के पास ले जाकर रस्म अदायगी कर छोड़ दिया जाता है जबकि उड़ीसा के कुछ स्थानों पर लोग कागज और कपड़े से भेड़ की आकृति बनाकर जलाते हैं। उड़ीसा में होली का त्यौहार ‘तिग्या’ के नाम से जाना जाता है और इस अवसर पर देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के विशाल जुलूस निकालने की परम्परा भी देखी जाती है। हरियाणा में होली के इन्द्रधनुषी रंगों की छटा देखते ही बनती है। होली के दिन महिलाएं व्रत रखती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं पारम्परिक लोकगीत गाते हुए समूहों में होलिका दहन के लिए जाती हैं और पूजा अर्चना करती हैं तथा होलिका दहन के पश्चात् व्रत खोलती हैं। यहां होली की आग में गेहूं तथा चने की बालें भूनकर खाना शुभ माना जाता है। अगले दिन ‘दुलहैंडी’ के दिन स्त्री-पुरूष, बच्चे सभी गली-गली में होली के रंगों में मस्त दिखाई देते हैं। हर गली में पानी से बड़े-बड़े टब अथवा ड्रम भरकर रखे जाते हैं। आमतौर पर गांवों में कुंवारी लड़कियां इन टबों में पानी भरती हैं, जिन्हें इसके लिए ‘नेग’ के रूप में कुछ राशि दी जाती है। पुरूष महिलाओं पर पानी डालते हैं और महिलाएं उन पर कोड़े बरसाती हैं। कोड़े की जगह अब कहीं-कहीं लाठियों ने ले ली है। शाम को गांवों में कबड्डी व कुश्ती प्रतियोगिताएं भी आयोजित होती हैं। महिलाएं शाम के समय अपने लोक देवता की पूजा के लिए मंदिरों में जाती हैं और प्रसाद बांटती हैं। पंजाब में भी हरियाणा की ही भांति होली पर खूब धूमधाम और मस्ती देखी जाती है। लोग रंग और गुलाल से होली खेलकर एक-दूसरे से गले मिलते हैं। महिलाएं होली के दिन अपने घर के दरवाजे पर ‘स्वास्तिक’ चिन्ह बनाती हैं। शाम को जगह-जगह कुश्ती के दंगल और शारीरिक सौष्ठव के आयोजन होते हैं। मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी इलाकों में होली के अवसर पर ‘गोल बधेड़ो’ नामक उत्सव का आयोजन होता है, जिसमें ताड़ के वृक्ष पर नारियल व गुड़ की एक पोटली लटका दी जाती है और लड़कियां हाथ में झाड़ू लेकर लड़कों को वृक्ष पर चढ़ने से रोकती हैं। जो लड़का इसके बाद भी पेड़ पर चढ़कर पोटली उतारकर लाने में सफल हो जाता है, उसे वहां उपस्थित लड़कियों में से किसी भी एक लड़की को पत्नी के रूप में चुनने का अधिकार होता है। यहां की भील जनजाति में भी लोग एक सप्ताह तक ऐसा ही एक उत्सव मनाते हैं, जिसे ‘भगोरिया’ के नाम से जाना जाता है। इस दौरान यहां भील युवक-युवतियों का एक हाट लगता है और हाट में किसी भील युवक को अगर कोई लड़की पसंद आ जाती है तो वह उसके गालों पर गुलाल लगाकर अपने दिल की भावना व्यक्त कर देता है। अब अगर उस लड़की को भी वह लड़का पसंद है तो वह भी उसके गालों पर गुलाल लगा देती है। उसके बाद दोनों की शादी कर दी जाती है। गुजरात में होली का पर्व ‘हुलासनी’ के नाम से मनाया जाता है। होलिका का पुतला बनाकर उसका जुलूस निकाला जाता है और होलिका के पुतले को केन्द्रित कर लोग तरह-तरह के हंसी-मजाक भी करते हैं। उसके बाद पुतले को जला दिया जाता है और होलिका दहन के बाद बची राख से कुंवारी लड़कियां ‘अम्बा’ देवी की प्रतिमाएं बनाकर गुलाब तथा अन्य रंग-बिरंगे फूलों से उसकी पूजा अर्चना करती हैं। ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से लड़कियों को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है। हिमाचल प्रदेश में होलिका दहन के पश्चात् बची राख को ‘जादू की शक्ति’ माना जाता है और यह सोचकर इसे खेत-खलिहानों में डाला जाता है कि इससे यहां किसी प्रकार की विपत्ति नहीं आएगी और फसल अच्छी होगी। होली खेलते समय महिलाएं पुरूषों पर लाठियों से प्रहार करती हैं और पुरूष स्वयं को ढ़ालों इत्यादि से बचाते हैं। महाराष्ट्र में होली का त्यौहार ‘शिमगा’ नाम से मनाया जाता है। यहां इस दिन घरों में झाड़ू का पूजन करना शुभ माना गया है। पूजन के पश्चात् झाड़ू को जला दिया जाता है। प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में होली खेलते समय पुरुष ही रंगों का इस्तेमाल करते हैं। दक्षिण भारत के राज्यों में मान्यता है कि भगवान शिव ने इसी दिन कामदेव को अपने गुस्से से भस्म कर दिया था, इसलिए यहां होली पर्व कामदेव की स्मृति में ‘कामदहन पर्व’ के रूप में ही मनाया जाता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डाॅ. रमेश ठाकुर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के प्रथम चरण के ठीक एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पड़ोसी देश बांग्लादेश पहुंच रहे हैं। चुनावी पंडित उनके इस दौरे को बंगाल दुर्ग को भेदने और पड़ोसी देश से और मधुर रिश्तों के लिहाज से खास बता रहे हैं। पीएम अपनी यात्रा में वहां के प्रसिद्व मंदिर ओरकांडी में भी जाना तय किया है जिसके पीछे का मकसद मतुआ समुदाय को अपने पक्ष में करना शामिल है। दरअसल, बांग्लादेश से सटे बंगाल के वे इलाके, जिनमें तकरीबन 50-55 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, वहां मतुआ समुदाय की मजबूत पकड़ है। पश्चिम बंगाल के नदिया से लेकर उत्तर और दक्षिण के 24-परगना तक मतुआओं का बड़ा दबदबा है। इसी वजह से पश्चिम बंगाल विधानसभा के पहले चरण के चुनाव से पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बंग्लादेश दौरा चुनावी समीकरणों के हिसाब से बहुत खास माना जा रहा है। बंगाल में रहने वाले मतुआ समाज का राजनीतिक लहजे से बांग्लादेश से बड़ा कनेक्शन है। बंगाल चुनाव और मतुआ समुदाय की राजनीतिक अहमियत को अगर ठीक से समझें तो कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं। दरअसल मतुआ समुदाय के लोग मूल रूप से पूर्वी पाकिस्तान से ताल्लुक रखते थे जो अब बांग्लादेश का हिस्सा है। समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था को समाप्त करने के लिए इनको एकजुट करने का काम साठ के दशक में सबसे पहले, समाज सुधारक हरिचंद्र ठाकुर ने किया था। बंगाल के मतुआ समुदाय के लोग हरिचंद्र ठाकुर को भगवान मानते हैं जिनका जन्म बांग्लादेश के एक बेहद गरीब और अछूत नमोशूद्र परिवार में हुआ था। माना जाता है कि इस समुदाय से जुड़े काफी लोग देश के विभाजन के बाद धार्मिक शोषण से तंग आकर 1950 की शुरुआत में बंगाल आ गए थे। मौजूदा समय में पश्चिम बंगाल में इनकी आबादी करीब दो से तीन करोड़ के आसपास है। बंगाल के कुछ जिले जैसे नदिया, उत्तर और दक्षिण 24-परगना में करीब सात लोकसभा सीटों पर उनके वोट निर्णायक होते हैं। यही वजह है कि मोदी ने बीते लोकसभा चुनावों से पहले फरवरी की अपनी रैली के दौरान इस समुदाय की माता कही जाने वाली बीनापाणि देवी से मुलाकात कर उनका आशीर्वाद लिया था। वीणापाणि देवी, हरिचंद्र ठाकुर के परिवार से आती हैं और इन्हें बंगाल में 'बोरो मां' यानी 'बड़ी मां' कह कर संबोधित किया जाता है। लेफ्ट और टीएमसी की हुकमूतों ने इस समुदाय का चुनावों में जमकर इस्तेमाल किया। लेकिन इस बार ये समुदाय उनसे छिटकर भाजपा के पाले में हैं। भाजपा ने इनको पूर्णरूपी नागरिकता देने और उनका सामाजिक-राजनैतिक रूप से उद्वार करने का वादा किया है। हालांकि मतुआ समुदाय ने अभी अपने पत्ते पूरी तरह से नहीं खोले हैं। लेकिन इशारा भाजपा की तरफ है। फिर भी सवाल एक ये भी उठने लगा है कि बंगाल चुनाव में मतुआ समुदाय किसके साथ पूरी तरह से रहेगा? पूर्ववर्ती सरकारों ने मतुआओं के साथ राजनैतिक रूप से बड़ा छल किया। ये लोग करीब 35 वर्ष तक लेफ्ट को समर्थन देते रहे। लेकिन बदले में उन्हें सिर्फ धोखा ही मिला। बाद में ममता बनर्जी ने इनपर डोरे डाले तो उनके समर्थन में आ गए। कमोबेश, उन्हें वहां भी निराशा हाथ लगी। अब भाजपा से इनको बड़ी उम्मीदें हैं। ये सच है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में लेफ्ट की बड़ी ताकत हुआ करते थे मतुआ समुदाय। लेकिन लेफ्ट के शासन में उन्हें वह सब नहीं मिला। लेफ्ट से टीएमसी की तरफ इनका वोट शिफ्ट करने के पीछे एक बड़ी वजह खुद ममता बनर्जी रही हैं। उन्होंने ही पहली बार इस समुदाय को एक वोट बैंक के तौर पर विकसित किया। ममता 'बोडो मां' के परिवार को राजनीति में लेकर आई। साल 2014 में बीनापाणि देवी के बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर ने तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर बनगांव लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और संसद पहुंचे। साल 2015 में कपिल कृष्ण ठाकुर के निधन के बाद उनकी पत्नी ममता बाला ठाकुर ने उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर यह सीट जीती थी। इसके बाद बंगाल में अपने विस्तार की आस लगाए भाजपा की निगाहें भी इसी वोट बैंक पर जाकर टिक गई। 'बोड़ो मां' यानी मतुआ माता के निधन के बाद परिवार में राजनीतिक मतभेद खुलकर आ गए और अब ये समुदाय दो गुटों में बंटा हुआ है। भाजपा ने इस बंटवारे का फायदा उठाकर उनके छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर को भाजपा में शामिल किया। साल 2019 में भाजपा ने मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शांतनु ठाकुर को बनगांव से टिकट दिया और वे जीतकर सांसद बन गए। अब मोदी के बांग्लादेश दौरे में सांसद शांतनु ठाकुर भी साथ जा रहे हैं और इसी से ये कयास लगाए जा रहे हैं कि भाजपा किसी भी हाल में इस वोट बैंक को अपने खेमे में समेटना चाहेगी। बहरहाल, मतुआ समुदाय के लिए नागरिकता आज की तारीख में बहुत बड़ा मुद्दा है। पहले बांग्लादेश से आए लोगों में इस तरह का कोई डर नहीं था। पर, 2003 में नागरिकता कानून में बदलाव के बाद वे थोड़ा भयभीत हैं। उनको लगता है, कहीं अवैध तरीके से भारत में घुसने के नाम पर उन्हें वापस बांग्लादेश ना खदेड़ दिया जाए। फिर नए सीएए कानून में बांग्लादेश में प्रताड़ित हिंदुओं को भारत में शरण देने की बात की गई है इस वजह से ये लोग अब भाजपा के पाले में हैं, जबकि ममता बनर्जी मुसलमान वोट बैंक की नाराजगी की वजह से सीएए के खिलाफ रहती हैं। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने रविवार को सोनार बांग्ला नाम से संकल्प पत्र जारी कर नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए को सख्ती से लागू कराने का वादा किया है। मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में मतुआ समुदाय आश्वस्त हो चुका है कि शायद अब उनका भला होने वाला है। यही कारण है प्रधानमंत्री का बांग्लादेश दौरा पश्चिम बंगाल चुनाव के लिहाज से भी अहम हो गया है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डाॅ. रमेश ठाकुर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के प्रथम चरण के ठीक एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पड़ोसी देश बांग्लादेश पहुंच रहे हैं। चुनावी पंडित उनके इस दौरे को बंगाल दुर्ग को भेदने और पड़ोसी देश से और मधुर रिश्तों के लिहाज से खास बता रहे हैं। पीएम अपनी यात्रा में वहां के प्रसिद्व मंदिर ओरकांडी में भी जाना तय किया है जिसके पीछे का मकसद मतुआ समुदाय को अपने पक्ष में करना शामिल है। दरअसल, बांग्लादेश से सटे बंगाल के वे इलाके, जिनमें तकरीबन 50-55 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, वहां मतुआ समुदाय की मजबूत पकड़ है। पश्चिम बंगाल के नदिया से लेकर उत्तर और दक्षिण के 24-परगना तक मतुआओं का बड़ा दबदबा है। इसी वजह से पश्चिम बंगाल विधानसभा के पहले चरण के चुनाव से पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बंग्लादेश दौरा चुनावी समीकरणों के हिसाब से बहुत खास माना जा रहा है। बंगाल में रहने वाले मतुआ समाज का राजनीतिक लहजे से बांग्लादेश से बड़ा कनेक्शन है। बंगाल चुनाव और मतुआ समुदाय की राजनीतिक अहमियत को अगर ठीक से समझें तो कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं। दरअसल मतुआ समुदाय के लोग मूल रूप से पूर्वी पाकिस्तान से ताल्लुक रखते थे जो अब बांग्लादेश का हिस्सा है। समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था को समाप्त करने के लिए इनको एकजुट करने का काम साठ के दशक में सबसे पहले, समाज सुधारक हरिचंद्र ठाकुर ने किया था। बंगाल के मतुआ समुदाय के लोग हरिचंद्र ठाकुर को भगवान मानते हैं जिनका जन्म बांग्लादेश के एक बेहद गरीब और अछूत नमोशूद्र परिवार में हुआ था। माना जाता है कि इस समुदाय से जुड़े काफी लोग देश के विभाजन के बाद धार्मिक शोषण से तंग आकर 1950 की शुरुआत में बंगाल आ गए थे। मौजूदा समय में पश्चिम बंगाल में इनकी आबादी करीब दो से तीन करोड़ के आसपास है। बंगाल के कुछ जिले जैसे नदिया, उत्तर और दक्षिण 24-परगना में करीब सात लोकसभा सीटों पर उनके वोट निर्णायक होते हैं। यही वजह है कि मोदी ने बीते लोकसभा चुनावों से पहले फरवरी की अपनी रैली के दौरान इस समुदाय की माता कही जाने वाली बीनापाणि देवी से मुलाकात कर उनका आशीर्वाद लिया था। वीणापाणि देवी, हरिचंद्र ठाकुर के परिवार से आती हैं और इन्हें बंगाल में 'बोरो मां' यानी 'बड़ी मां' कह कर संबोधित किया जाता है। लेफ्ट और टीएमसी की हुकमूतों ने इस समुदाय का चुनावों में जमकर इस्तेमाल किया। लेकिन इस बार ये समुदाय उनसे छिटकर भाजपा के पाले में हैं। भाजपा ने इनको पूर्णरूपी नागरिकता देने और उनका सामाजिक-राजनैतिक रूप से उद्वार करने का वादा किया है। हालांकि मतुआ समुदाय ने अभी अपने पत्ते पूरी तरह से नहीं खोले हैं। लेकिन इशारा भाजपा की तरफ है। फिर भी सवाल एक ये भी उठने लगा है कि बंगाल चुनाव में मतुआ समुदाय किसके साथ पूरी तरह से रहेगा? पूर्ववर्ती सरकारों ने मतुआओं के साथ राजनैतिक रूप से बड़ा छल किया। ये लोग करीब 35 वर्ष तक लेफ्ट को समर्थन देते रहे। लेकिन बदले में उन्हें सिर्फ धोखा ही मिला। बाद में ममता बनर्जी ने इनपर डोरे डाले तो उनके समर्थन में आ गए। कमोबेश, उन्हें वहां भी निराशा हाथ लगी। अब भाजपा से इनको बड़ी उम्मीदें हैं। ये सच है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में लेफ्ट की बड़ी ताकत हुआ करते थे मतुआ समुदाय। लेकिन लेफ्ट के शासन में उन्हें वह सब नहीं मिला। लेफ्ट से टीएमसी की तरफ इनका वोट शिफ्ट करने के पीछे एक बड़ी वजह खुद ममता बनर्जी रही हैं। उन्होंने ही पहली बार इस समुदाय को एक वोट बैंक के तौर पर विकसित किया। ममता 'बोडो मां' के परिवार को राजनीति में लेकर आई। साल 2014 में बीनापाणि देवी के बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर ने तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर बनगांव लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और संसद पहुंचे। साल 2015 में कपिल कृष्ण ठाकुर के निधन के बाद उनकी पत्नी ममता बाला ठाकुर ने उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर यह सीट जीती थी। इसके बाद बंगाल में अपने विस्तार की आस लगाए भाजपा की निगाहें भी इसी वोट बैंक पर जाकर टिक गई। 'बोड़ो मां' यानी मतुआ माता के निधन के बाद परिवार में राजनीतिक मतभेद खुलकर आ गए और अब ये समुदाय दो गुटों में बंटा हुआ है। भाजपा ने इस बंटवारे का फायदा उठाकर उनके छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर को भाजपा में शामिल किया। साल 2019 में भाजपा ने मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शांतनु ठाकुर को बनगांव से टिकट दिया और वे जीतकर सांसद बन गए। अब मोदी के बांग्लादेश दौरे में सांसद शांतनु ठाकुर भी साथ जा रहे हैं और इसी से ये कयास लगाए जा रहे हैं कि भाजपा किसी भी हाल में इस वोट बैंक को अपने खेमे में समेटना चाहेगी। बहरहाल, मतुआ समुदाय के लिए नागरिकता आज की तारीख में बहुत बड़ा मुद्दा है। पहले बांग्लादेश से आए लोगों में इस तरह का कोई डर नहीं था। पर, 2003 में नागरिकता कानून में बदलाव के बाद वे थोड़ा भयभीत हैं। उनको लगता है, कहीं अवैध तरीके से भारत में घुसने के नाम पर उन्हें वापस बांग्लादेश ना खदेड़ दिया जाए। फिर नए सीएए कानून में बांग्लादेश में प्रताड़ित हिंदुओं को भारत में शरण देने की बात की गई है इस वजह से ये लोग अब भाजपा के पाले में हैं, जबकि ममता बनर्जी मुसलमान वोट बैंक की नाराजगी की वजह से सीएए के खिलाफ रहती हैं। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने रविवार को सोनार बांग्ला नाम से संकल्प पत्र जारी कर नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए को सख्ती से लागू कराने का वादा किया है। मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में मतुआ समुदाय आश्वस्त हो चुका है कि शायद अब उनका भला होने वाला है। यही कारण है प्रधानमंत्री का बांग्लादेश दौरा पश्चिम बंगाल चुनाव के लिहाज से भी अहम हो गया है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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गोविंद सिंह राजपूत एक किसान के लिए उसकी जमीन ही उसकी माँ है और पिता भी। वो अपनी जमीन के लिए ही जीता है और उसी के लिए मरता भी है परंतु किसान को अपनी जमीन का मालिकाना हक पाने के लिए सिस्टम के 'चक्रव्यूह' से होकर गुजरना पड़ता है। उसका सारा जीवन पटवारी शब्द के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता था। कभी सीमांकन के लिए, कभी खसरे की नकल के लिए तो कभी किसी और कागज की पूर्ति के लिए। अन्नदाता को अन्नदाता से कराया परिचय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जो स्वयं एक गाँव में जन्मे और पले-बढ़े हैं, उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में किसान को तकलीफों के इस चक्रव्यूह से निकालने का मार्ग खोजा, जिससे पटवारी को भगवान समझने वाला किसान अब स्वयं को अन्नदाता महसूस करने लगा। मुख्यमंत्री की मंशा के अनुरूप राजस्व मंत्री के रूप में मैंने किसानों की समस्याओं के निराकरण के लिए राजस्व कार्यों में तकनीकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी के उपयोग से कभी भी और कहीं भी की तर्ज पर सुविधा उपलब्ध कराने की पहल की। पिछले एक वर्ष में राजस्व सेवाओं को और अधिक सुगम एवं सहज बनाने एवं इन सेवाओं को किसानों और आम नागरिकों तक आसानी से पहुँचाने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का राजस्व अभिलेखों के लिये अधिक से अधिक उपयोग किया गया है। इसका ही परिणाम है कि वर्ष 2020-21 में भू-अभिलेखों के कम्प्यूटरीकरण में नेशनल काउंसिल फॉर अप्लाइड इकोनामिक रिसर्च की रिपोर्ट में पूरे भारत में मध्य प्रदेश ने प्रथम स्थान प्राप्त किया है। आज की स्थिति में प्रदेश के समस्त 56 हजार 761 ग्रामों के लगभग एक करोड़ 51 लाख भूमि स्वामियों के 3 करोड़ 97 लाख खसरा नंबरों का इलेक्ट्रॉनिक डाटाबेस तैयार किया जा चुका है। प्रदेश में राजस्व विभाग की सेवाएँ एम पी ऑन लाइन, लोक सेवा केन्द्र एवं ऑन लाइन पोर्टल से प्रदान की जा रही हैं। भूमि के नक्शे का डिजिटाइजेशन एवं भू-अभिलेखों, खसरा, नक्शा एवं बी-1 की कम्प्यूटरीकृत प्रतियॉ 'कभी भी, कहीं भी' की तर्ज पर प्राप्त की जा सकती है। भूमि-बंधक की प्रक्रिया को ऑनलाइन कर किसानों को आसानी से ऋण प्राप्त करने, ऑनलाइन डायवर्सन मॉडयूल द्वारा डायवर्सन की सुविधा दी गई है। साथ ही नामांतरण और बँटवारे की प्रक्रिया को भी एकदम सरल बना कर उसे कम्प्यूटरीकृत किया है। कभी भी और कहीं भी प्राप्त करें भूमि के अभिलेख राजस्व विभाग की इस पहल से अब नागरिक घर बैठकर कभी भी और कहीं भी की तर्ज पर अपनी भूमि के खसरे, नक्शे एवं बी 1 की कॉपी प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा एमपीऑनलाईन के 30 हजार से भी ज्यादा केन्द्र और लोक सेवा केन्द्रों से भी यह सेवा प्राप्त की जा सकती है। अब तक लगभग दो करोड़ दस्तावेज ऑनलाइन डिलीवर किये जा चुके हैं। भू-अभिलेख सेवाओं से इस वर्ष दिसंबर 2020 तक 23 करोड़ रूपये का राजस्व अर्जित किया गया। 5 करोड़ दस्तावेज होंगे डिजिटाइज राज्य सरकार के निर्देश पर राजस्व विभाग द्वारा प्रचलित दस्तावेजों के अलावा पुराने दस्तावेज भी ऑनलाईन उपलब्ध कराये जाने के प्रयास किये जा रहे हैं। इस दिशा में अभी तक 15 करोड़ दस्तावेजों को डिजिटाइज करने का कार्य प्रारंभ किया जा चुका है। जिसके तहत वर्ष 2020-21 में 5 करोड़ दस्तावेजों को डिजिटाइज करने का लक्ष्य रखा गया है। अगले तीन वर्षों में डिजिटाइजेशन का कार्य पूर्ण कर लिया जायेगा। इसके अलावा अतिरिक्त पुराने अभिलेखों की स्केनिंग एवं बारकोडिंग का कार्य भी कराया जा रहा है। फसल गिरदावरी में उपयोगी सारा एप प्रदेश स्तर पर फसल का डाटा संकलित करने के लिए सारा एप के माध्यम से 6 माह में होने वाले काम को एक माह में और वह भी सटीक जानकारी के साथ किया जा रहा है। इसमें कितने क्षेत्र में, किस खसरे में कौन-सी फसल है, उत्पादन की मात्रा आदि डाटा सिंगल क्लिक पर उपलब्ध है। सारा एप से किसान अब अपनी फसल की जानकारी खुद दर्ज कर सकता है। फसल की क्षति की जानकारी, कृषि एवं उद्यानिकी की जानकारी एक ही स्थान पर एकत्र की जा रही है। मुख्यमंत्री किसान-कल्याण योजना मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कोरोना संक्रमण में सभी वर्गों की आवश्यकताओं के साथ किसानों को आर्थिक रूप से सुदृढ़ करने के उद्देश्य से मुख्यमंत्री किसान-कल्याण योजना शुरू की। पिछले वर्ष 22 सितंबर 2020 को प्रारंभ की गई इस योजना में वित्तीय वर्ष में दो समान किश्तों में कुल राशि 4 हजार का भुगतान किया जाना है। पहली किस्त के रूप में 25-26 सितंबर को 2020 को प्रदेश के साढ़े सात लाख किसानों को 150 करोड़ रूपये, नवंबर 2020 में 5 लाख किसानों को 100 करोड़ एवं 30 जनवरी 2021 को 20 लाख किसानों को 400 करोड़ एवं 27 फरवरी 2021 को 20 लाख किसानों को 400 करोड़ रुपये की राशि का भुगतान किया गया। इस प्रकार प्रदेश के 57 लाख 50 हजार किसानों को एक हजार 150 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया है। नागरिकों के लिए वरदान बना आरसीएमएस पोर्टल आरसीएमएस पोर्टल के माध्यम से नागरिक घर पर बैठकर ही विभिन्न शुल्क जमा करा सकते हैं। इस पोर्टल से आवेदन एवं सेवा शुल्क जमा कर प्रकरण दर्ज करा सकते हैं। अब कोर्ट फीस एवं बार-बार तलवाना जमा करने की आवश्यकता नहीं है। यह सेवाएँ आम नागरिक मोबाइल एप से भी प्राप्त कर सकते हैं। स्वामित्व योजना में होगा आबादी क्षेत्रों का सर्वे प्रदेश में आबादी भूमि पर बने हुए मकानों के कोई अभिलेख नहीं थे। शासन द्वारा 25 अप्रैल 2020 से स्वामित्व योजना के रूप में इसे लागू किया गया। इस योजना में प्रदेश के 20 जिलों के 22 हजार 500 गॉवों में संपत्ति सर्वे का काम किया जा रहा है। संपत्ति सर्वे से ऐसे संपत्तिधारक लाभान्वित होंगे, जिनके पास मकान तो है परंतु मकान के दस्तावेज नहीं हैं। हक दस्तावेज होने से संपत्तिधारक बैंक लोन आदि ले सकेगा।संपत्तियों के व्यवस्थित दस्तावेज होने से पारिवारिक विभाजन और संपत्ति हस्तांतरण का काम सुगम होने से पारिवारिक विवाद के मामलों में भी कमी आएगी। अभी तक 2 हजार 800 गाँवों में आबादी सर्वे में 2 हजार गाँवों के नक्शे तैयार कर लिए गए हैं और 500 गाँवों के 38 हजार 473 भू-स्वामियों के अधिकार अभिलेख तैयार कर लिए गए हैं। कोर्स नेटवर्क से सटीक सीमांकन समय पर एवं सटीक सीमांकन के लिए राज्य सरकार द्वारा सीमांकन की कोर्स पद्धति के माध्यम से सीमांकन का कार्य प्रारंभ किया गया है। इससे अब 12 महिने में कभी भी एक्यूरेट सीमांकन किया जा सकता है। अभी तक सीमांकन निश्चित माहों में ही किया जा सकता था क्योंकि बरसात के मौसम एवं खड़ी फसलों में सीमांकन करना संभव नहीं था। कोर्स नेटवर्क की स्थापना के लिए भोपाल, हरदा, सीहोर एवं देवास में कार्य प्रारंभ किया जा चुका है। इसके लिए प्रदेश में 35 करोड़ की लागत से 90 स्टेशन स्थापित किये जाने हैं। इनमें से 27 स्टेशन स्थापित किये जा चुके हैं। सभी स्टेशन जून 2021 तक स्थापित कर लिए जायेंगे। सटीक सीमांकन के लिए उच्च गुणवत्तापूर्ण नक्शों की उपलब्धता को नकारा नहीं जा सकता है। आज की स्थिति में कुछ नक्शे जीर्ण-शीर्ण हैं तो कहीं नक्शा, मौका एवं खसरे में विसंगति है, नक्शे काफी पुराने हैं। इन नक्शों को जीआईएस आधारित नक्शों में बदला जायेगा। जिससे नक्शे एवं खसरे की विसंगतियाँ दूर हो सकेंगी। इस तरह प्रदेश में पिछले एक साल में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की मंशा के अनुरूप किसानों और आम नागरिकों की समस्याओं के हल के लिये राजस्व विभाग के अधीन बहुआयामी कार्य किये गये हैं। आने वाले समय में भी विभाग किसानों और अन्य जनों की आकांक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश करेगा। हमारी कोशिश यह होगी कि प्रदेश में राजस्व प्रकरणों का निराकरण तेज, समय पर और आसान से आसानतर हो। (लेखक, मध्य प्रदेश के राजस्व एवं परिवहन मंत्री हैं।)
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सियाराम पांडेय 'शांत' केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना के क्रियान्वयन के करार पर केंद्र सरकार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने हस्ताक्षर कर दिए। केन नदी का पानी बेतवा तक भेजने के लिए दौधन बांध बनाया जाएगा जो 22 किलोमीटर लंबी नहर को बेतवा से जोड़ेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि वर्षा जल के संरक्षण के साथ ही देश में नदी जल के प्रबंधन पर भी दशकों से चर्चा होती रही है, लेकिन अब देश को पानी के संकट से बचाने के लिए इस दिशा में तेजी से कार्य करना आवश्यक है। केन-बेतवा संपर्क परियोजना को उन्होंने इसी दूरदृष्टि का हिस्सा बताया और परियोजना को पूरा करने की दिशा में काम करने के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश सरकारों की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि यह परियोजना बुंदेलखंड के भविष्य को नई दिशा देगी। इस परियोजना से 10.62 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सालभर सिंचाई हो सकेगी। 62 लाख लोगों को पेयजल आपूर्ति संभव होगी। 103 मेगावॉट बिजली पैदा की जा सकेगी। पानी की कमी से जूझ रहे बुंदेलखंड क्षेत्र, खासकर मध्य प्रदेश के पन्ना, टीकमगढ़, छतरपुर, सागर, दमोह, दतिया, विदिशा, शिवपुरी तथा रायसेन और उत्तर प्रदेश के बांदा, महोबा, झांसी और ललितपुर को बहुत लाभ मिलेगा। यह परियोजना अन्य नदी-जोड़ो परियोजनाओं का मार्ग भी प्रशस्त करेगी, जिनसे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि पानी की कमी देश के विकास में अवरोधक नहीं बने। इस परियोजना से वर्ष में 10.62 लाख हेक्टेयर क्षेत्र (मध्य प्रदेश में 8.11 लाख हेक्टेयर और उत्तर प्रदेश में 2.51 लाख हेक्टेयर क्षेत्र) में सिंचाई हो सकेगी। इससे करीब 62 लाख लोगों (मध्य प्रदेश में 41 लाख और उत्तर प्रदेश में 21 लाख) को पेयजल की आपूर्ति होगी। इस परियोजना के तहत 9 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में पानी रोका जाएगा, जिनमें से 5,803 हेक्टेयर क्षेत्र पन्ना बाघ अभयारण्य के तहत आता है। बताया तो यह भी जा रहा है कि मोदी सरकार नर्मदा-गंगा जोड़ने की प्रक्रिया में भी पेपर वर्क पूरा कर चुकी है। यह परियोजना गुजरात और पड़ोसी महाराष्ट्र से होकर गुजरेगी। महाराष्ट्र में अघाड़ी सरकार के बनने से इस बावत उसकी दुविधा जरूर बढ़ गई है। नर्मदा और क्षिप्रा को जोड़कर शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने एक मिसाल तो कायम की ही है। उज्जैन, देवास और इंदौर जैसे बड़े भूभाग की पेयजल और सिंचाई समस्या को दूर करने में भी सफलता हासिल की है। इन नदियों के जुड़ने के बाद मध्य प्रदेश देश का ऐसा पहला राज्य बन गया है, जिसने नदियों को जोड़ने का ऐतिहासिक काम किया है। वर्ष 1971-72 में तत्कालीन केंद्रीय जल एवं ऊर्जा मंत्री तथा इंजीनियर डॉ. कनूरी लक्ष्मण राव ने गंगा-कावेरी को जोड़ने का प्रस्ताव तैयार किया था। यह बताना मुनासिब होगा कि डॉ. कनूरी लक्ष्मण राव जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी की सरकारों में जल संसाधन मंत्री भी रहे, लेकिन उनके इस महत्वाकांक्षी प्रस्ताव को गंभीरता से नहीं लिया, अन्यथा चालीस साल पहले ही नदी जोड़ो अभियान की बुनियाद रखी जा चुकी होती। बहुत कम लोग जानते हैं कि पं. जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में ही देश की नदियों को जोड़ने की कल्पना की गई थी लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में वे इस योजना को अमली जामा नहीं पहना सके। पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार में इस योजना को मूर्त रूप देने की योजना बनी। सितंबर, 2017 में नरेंद्र मोदी सरकार ने पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की नदी जोड़ो परियोजना पर काम आरंभ किया था। 87 अरब डॉलर की इस परियोजना की औपचारिक शुरुआत उन्होंने केन-बेतवा के लिंकिंग योजना से करने की बात कही थी। इस विशाल परियोजना के तहत गंगा सहित 60 नदियों को जोड़ने की योजना पर प्रकाश डाला गया था। तर्क यह दिया गया था कि इससे कृषि योग्य लाखों हेक्टेयर भूमि की मानसून पर निर्भरता कम हो जाएगी। पर्यावरणविदों, बाघ प्रेमियों और विपक्ष के विरोध के बावजूद केन-बेतवा प्रोजेक्ट के पहले चरण के लिए मोदी ने व्यक्तिगत रूप से मंजूरी दे दी थी। ये दोनों नदियां भाजपा शासित राज्य मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश से गुजरती है। मोदी सरकार का मानना है कि केन-बेतवा योजना अन्य नदी परियोजनाओं के लिए एक उदाहरण बनेंगी। सरकारी अधिकारी भी मानते हैं कि गंगा, गोदावरी और महानदी जैसी बड़ी नदियों पर बांध और नहरों के निर्माण से बाढ़ और सूखे से निपटा जा सकता है। वर्ष 2015 में नदियों को जोड़ने की योजना की दिशा में एक कदम आगे बढ़ते हुए आंध्र प्रदेश में गोदावरी और कृष्णा नदियों को जोड़ने का काम पूरा हो गया है। आंध्र प्रदेश की पट्टीसीमा सिंचाई योजना देश की पहली ऐसी योजना है जिसमें नदियों को जोड़ने का काम किया गया है। हालांकि यह केंद्र की ओर से चलाई जा रही नदी जोड़ो परियोजना का हिस्सा नहीं है। इन नदियों को जोड़ने का काम पिछले पांच दशक से अटका पड़ा था, लेकिन अब 174 किलोमीटर लंबी इस परियोजना से कृष्णा, गुंटूर, प्रकासम, कुरनूल, कडपा, अनंतपुर, और चित्तूर जिले के हजारों किसानों को फायदा मिलने लगा है। कृष्णा नदी के डेल्टा क्षेत्र की 17 लाख हेक्टेयर भूमि में से 13 लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी मिल रहा है। वहीं हजारों गांवों को पेयजल भी उपलब्ध होने लगा है। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने यह आशंका जताई है कि केन और बेतवा नदियों को जोड़ने के कारण मध्य प्रदेश का पन्ना बाघ अभयारण्य तबाह हो जाएगा। नदियों को जोड़ने के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के बीच समझौते पर हस्ताक्षर होने से पहले, पूर्व पर्यावरण मंत्री रमेश ने कहा कि उन्होंने इस विषय पर दस वर्ष पहले विकल्पों के सुझाव दिए थे जिन्हें नजरंदाज कर दिया गया। भारत में नदी जोड़ो का विचार सर्वप्रथम 1858 में एक ब्रिटिश सिंचाई इंजीनियर सर आर्थर थॉमस कॉटन ने दिया था। लेकिन इस माध्यम से फिरंगी हुकूमत का मकसद देश में गुलामी के शिकंजे को और मजबूत करना, देश की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा का दोहन करना और नदियों को जोड़कर जलमार्ग विकसित करना था। देश की विभिन्न नदियों को जोड़ने का सपना देश की आजादी के तुरंत बाद देखा गया था। इसे डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया, डॉ. राम मनोहर लोहिया और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम जैसी हस्तियों का समर्थन मिलता रहा है। इसके पीछे राज्यों के बीच असहमति, केंद्र की दखलंदाजी के लिए किसी प्रभावी कानूनी प्रावधान का न होना और पर्यावरणीय चिंता सबसे बड़ी बाधक रही है। जुलाई 2014 में केंद्र सरकार ने नदियों को आपस में जोड़ने संबंधी विशेष समिति के गठन को मंज़ूरी दी थी। हमारे देश में सतह पर मौजूद पानी की कुल मात्रा 690 बिलियन घनमीटर प्रतिवर्ष है, लेकिन इसका केवल 65 फीसदी पानी ही इस्तेमाल हो पाता है। शेष पानी बेकार बहकर समुद्र में चला जाता है, लेकिन इससे धरती और महासागरों तथा ताजा पानी और समुद्र का पारिस्थितिकीय संतुलन बना रहता है। नदियों को आपस में जोड़ना नदियों के पानी का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करने का एक तरीका है। इस प्रक्रिया में अधिक पानी वाली नदी को कम पानी वाली नदियों से जोड़ा जाता है। केन-बेतवा लिंक परियोजना इस वृहद नदी जोड़ो योजना की ही पहली कड़ी है। लेकिन इस योजना पर आने वाला भारी-भरकम खर्च वहन करना भारत जैसे विकासोन्मुख देश के लिए आसान नहीं है। 2002 के अनुमानों के अनुसार इस योजना पर 123 बिलियन डॉलर लागत का अनुमान था। अब यह लागत और बढ़ गई है। नदियों को आपस में जोड़ना अपने आप में बेहद कठिन काम है। यह मुश्किल तब और बढ़ जाती है जब संबद्ध राज्य पानी के बंटवारे को लेकर आपस में उलझ जाते हैं। देशभर में लंबे समय से विभिन्न राज्यों के बीच नदियों के जल बंटवारे को लेकर विवाद चल रहे हैं। स्थिति इतनी गंभीर है कि विभिन्न ट्रिब्यूनल्स और सुप्रीम कोर्ट के आदेश भी इसे सुलझाने में नाकाम रहे हैं। सरकार को चाहिए कि राज्यों से विचार-विमर्श के बाद तुरंत एक ऐसी राष्ट्रीय जल नीति का निर्माण करे, जो भारत में भूजल के अत्यधिक दोहन, जल के बंटवारे से संबंधित विवादों और जल को लेकर पर्यावरणीय एवं सामाजिक चिंताओं का समाधान कर सके। इन सुधारों पर कार्य करने के बाद ही नदी जोड़ो जैसी बेहद खर्चीली परियोजना को अमल में लाया जाना चाहिए। नदियों को जोड़ना अच्छा विचार है लेकिन इसमें इस बात का ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए कि नदियों के प्राकृतिक जल प्रवाह में किसी भी तरह का व्यवधान न हो। (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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आर.के. सिन्हा अभीतक भारत का पाकिस्तान के मैत्री और बातचीत के प्रस्तावों पर ठंडा रुख अपनाना सिद्ध कर रहा है कि इस बार भारत अपने धूर्त पड़ोसी से संबंधों को सामान्य बनाने की बाबत कोई अनावश्यक उत्साहपूर्ण प्रयास करने वाला नहीं है। भारत ने पूर्व में जब भी पाकिस्तान के साथ मेल-मिलाप की ईमानदार कोशिशें कीं, बदले में उसे मिला करगिल या मुंबई का हमला। पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल कमर जावेद बावजा को अचानक नया ज्ञान प्राप्त हो गया लगता है I वे कह रहे हैं कि भारत-पाकिस्तान को अपने आपसी विवादों को हल कर लेना चाहिए, इससे दक्षिण एशिया में बेहतर वातावरण बनेगा। यह ज्ञान पहले कहाँ छिपा हुआ था? कारगिल मिला दोस्ती का हाथ बढ़ाने पर जनरल कमर जावेद बाजवा वैसे तो बात सही कह रहे हैं। पर वे जरा यह भी तो बताएं कि उन पर भरोसा कैसे किया जाए। उनके ही एक पूर्ववर्ती या कहें कि पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ ने तब करगिल में पाकिस्तानी फौजों को भेजा था, जब दोनों मुल्क राजनीतिक स्तर पर बेहतर संबंध बनाने की तरफ बढ़ रहे थे। श्री अटल बिहारी वाजपेयी बस में दिल्ली से लाहौर गए थे, दोस्ती का पैगाम लेकर। भारत अब भी पाकिस्तान के खिलाड़ियों, शायरों, कलाकारों के यहां आने के रास्ते में अवरोध खड़े नहीं करता। भारत को भी वहां के आम अवाम से रत्ती भर परेशानी नहीं है। भारत ने हाल ही में पाकिस्तान की घुड़सवारी टीम को वीजा दिया। पाकिस्तान की टीम ने ग्रेटर नोएडा में इक्वेस्टियन विश्वकप क्वालिफायर प्रतियोगिता में भाग लिया, जहां भारत के अलावा पाकिस्तान, बेलारूस, अमेरिका व नेपाल की टीमें भी आईं थीं। पाकिस्तान टीम के कप्तान मुहम्मद सफदर अली सुल्तान ने भारतीयों की गर्मजोशी और मेहमान नवाजी का तहेदिल से धन्यवाद भी किया। भारतीय दर्शकों ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों के बेहतरीन खेल को अच्छे ढंग से सराहा भी, यही है भारत की नीति और मिजाज। कौन पड़ा बाजवा के पीछे यह सच है कि पाकिस्तान में सेनाध्यक्ष राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री से भी कहीं अधिक शक्तिशाली होता है। पर कमर जावेद तो कुछ समय पहले खुद ही परेशान चल रहे थे। पाकिस्तानी मीडिया में जरनल बाजवा की धार्मिक पहचान को लेकर बहस छिड़ी हुई थी। बाजवा के मुसलमान होने को लेकर ही सवाल उठाए जा रहे थे। पाकिस्तान की पेशावर हाईकोर्ट में एक पूर्व मेजर ने याचिका दायर की थी, जिसमें बाजवा की नियुक्ति को इस आधार पर चुनौती दी गई कि वह कांदियानी समुदाय से आते हैं और मुसलमान नहीं हैं। कांदियानी समुदाय को पाकिस्तान में अहमदिया मुस्लिम के रूप में पहचाना जाता है। अहमदिया मुसलमानों को पाकिस्तान के मुख्यधारा के सुन्नी मुसलमान गैर-मुस्लिम मानते हैं। पाकिस्तान में कानून के तहत कोई भी गैर मुस्लिम शख्स आर्मी चीफ बन ही नहीं सकता है। कांदियानी मुसलमानों का मुख्यालय भारत के गुरुदासपुर में है। अब बाजवा जैसा सेना चीफ भारत से दोस्ती का आह्वान कर रहा है। हालांकि उसके अपने देश में कुछ कट्टरपंथी मुसलमान हाथ धोकर उनके पीछे पड़े हैं। बाजवा बीच-बीच में कश्मीर का मसला भी उठाते रहते हैं। यह भी सच है। पर वे पहली नजर में अपने पूर्ववर्ती राहील शरीफ की तरह शायद भारत से नफरत नहीं करते। यह भी कह सकते हैं कि उनके मन में भारत को लेकर उस हद तक जहर नहीं भरा है जितना कि राहील शरीफ की जहन में भरा था। राहील शरीफ के पूर्वज खांटी राजपूत थे। वे अपने को बड़े फख्र के साथ राजपूत बताते भी थे। राहील शरीफ बार-बार कहते थे कि उनका देश भारत से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार है। उनकी भारत से खुंदक की वजह शायद यह थी कि उनके अग्रज 1971 की जंग में मारे गए थे। देखिए, भारत में सरकार किसी भी दल या गठबंधन की हो, संकट के समय भारत अपने पड़ोसियों या किसी अन्य देश को मदद पहुंचाने से पीछे नहीं हटता। इसका उदाहरण है कि भारत पाकिस्तान को कोरोना की साढ़े चार करोड़ वैक्सीन देने जा रहा है। भारत द्वारा पाकिस्तान को सीरम इंस्टीट्यूट की वैक्सीन कोविशील्ड दी जा रही है। अपने गिरेबान में झांके पाक पाकिस्तान को अब अपने गिरेबान में झांकना ही होगा कि वह क्यों भारत या भारत से जुड़े किसी भी प्रतीक से घृणा करता रहा है। अब पाकिस्तान में हिन्दी की हत्या को ही लें। संसार के मानचित्र में आने के बाद पाकिस्तान में हिन्दी का नामो-निशान मिटा दिया गया। हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मान लिया गया। 1947 से पहले मौजूदा पाकिस्तान के पंजाब सूबे की राजधानी लाहौर के कॉलेजों में हिन्दी की स्नातकोत्तर स्तर तक की पढ़ाई की व्यवस्था थी। लाहौर में कई हिन्दी प्रकाशन सक्रिय थे। तब पंजाब में हिन्दी ने अपने लिए महत्वपूर्ण जगह बनाई हुई थी। हिन्दी पढ़ी-लिखी और बोली जा रही थी। पर 1947 के बाद हिन्दी की पढ़ाई और प्रकाशन बंद हो गए। तो यह है पाकिस्तान का चरित्र। पाकिस्तान ने भारत से नफरत करके उन लाखों मुसलमानों के ऊपर भी घोर नाइंसाफी की जिनके संबंधी सरहद के आर-पार रहते हैं। सबको पता है कि देश बंटा तो लाखों मुसलमान परिवार भी बंट गए। पर इनके बीच निकाह तो हो ही जाते थे। पर जब से पाकिस्तान ने अपने को घोर कठमुल्ला देश बना लिया और भारत से अनावश्यक पंगे लेने चालू कर दिए तो सरहद के आर-पार बसे परिवार हमेशा के लिए दूर हो गए। निश्चित रूप से भारत-पाकिस्तान के बीच लगातार तल्ख होते रहे रिश्तों के चलते सरहद के आर-पार होने वाले निकाहों पर विराम-सा लग गया। एक दौर में हर साल सैकड़ों निकाह होते थे, जब दूल्हा पाकिस्तानी होता था और दुल्हन हिन्दुस्तानी। इसी तरह से सैकड़ों शादियों में दुल्हन पाकिस्तानी होती थी और दूल्हा हिन्दुस्तानी। पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के पूर्व चीफ शहरयार खान ने चंदेक साल पहले अपने साहबजादे अली के लिए भोपाल की कन्या को अपनी बहू बनाया था। उनके फैसले पर पाकिस्तान में बहुत हंगामा बरपा। पाकिस्तान में कट्टरपंथियों ने शहरयार साहब पर हल्ला बोलते हुए कहा, "शर्म की बात है कि शहरयार खान को अपनी बहू भारत में ही मिली। उन्हें पाकिस्तान में अपने बेटे के लिए कोई लड़की नहीं मिली।" जवाब में शहरयार खान ने कहा, "भोपाल मेरा शहर है। मैं वहां से बहू नहीं लाऊंगा तो कहां से लाऊंगा।" दरअसल उनका भोपाल से पुराना गहरा रिश्ता रहा है। उनकी अम्मी भोपाल से थीं। वे नवाब पटौदी के चचेरे भाई हैं। लेकिन, उनके परिवार ने देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान का रुख कर लिया था। अगर पाकिस्तान सच में भारत से मैत्रीपूर्ण संबंध चाहता है तो इसबार उसे पुख्ता प्रमाण देने होंगे। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक श्रीलंका के मामले में भारत अजीब-सी दुविधा में फंस गया है। पिछले एक-डेढ़ दशक में जब भी श्रीलंका के तमिलों पर वहां की सरकार ने जुल्म ढाए, भारत ने द्विपक्षीय स्तर पर ही खुली आपत्ति नहीं की बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी तमिलों के सवाल को उठाया। उसने 2012 और 2013 में दो बार संयुक्त-राष्ट्र संघ के मानव अधिकार आयोग में इस मुद्दे पर श्रीलंका के विरोध में मतदान किया लेकिन इसबार इसी आयोग में श्रीलंका सरकार के विरोध में कार्यवाही का प्रस्ताव आया तो भारत तटस्थ हो गया। उसने मतदान ही नहीं किया। आयोग के 47 सदस्य राष्ट्रों में से 22 ने इसके पक्ष में वोट दिया 11 ने विरोध किया और 14 राष्ट्रों ने परिवर्जन (एब्सटेन) किया। भारत ने 2014 में भी इस मुद्दे पर तटस्थता दिखाई थी। इसका मूल कारण यह है कि पिछले छह-सात साल में भारत और श्रीलंका की सरकारों के बीच संवाद और सौमनस्य बढ़ा है। इसके अलावा अब वहां का सिंहल-तमिल संग्राम लगभग शांत हो गया है। अब उन गड़े मुर्दों को उखाड़ने से किसी को कोई खास फायदा नहीं है। इसके अलावा चीन के प्रति श्रीलंका का जो झुकाव बहुत अधिक बढ़ गया था, वह भी इधर काफी संतुलित हो गया है। लेकिन भारत सरकार के इस रवैए की तमिलनाडु में कड़ी भर्त्सना हो रही है। ऐसा ही होगा, इसका पता उसे पहले से था। इसीलिए भारत सरकार ने आयोग में मतदान के पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह श्रीलंका के तमिलों को न्याय दिलाने के लिए कटिबद्ध है। वह तमिल क्षेत्रों के समुचित विकास और शक्ति-विकेंद्रीकरण की बराबर वकालत करती रही है लेकिन इसके साथ-साथ वह श्रीलंका की एकता और क्षेत्रीय अखंडता के समर्थन से कभी पीछे नहीं हटी है। उसने श्रीलंका के विभाजन का सदा विरोध किया है। उसने दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों की आवाज में आवाज मिलाते हुए मांग की है कि श्रीलंका की प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव करवाए जाएं। दूसरे शब्दों में भारत ने बीच का रास्ता चुना है। मध्यम मार्ग ! लेकिन पाकिस्तान, चीन, रूस और बांग्लादेश ने आयोग के प्रस्ताव का स्पष्ट विरोध किया है, क्योंकि उन्हें श्रीलंका के तमिलों से कोई मतलब नहीं है। भारत को मतलब है, क्योंकि भारत के तमिल वोटरों पर उस मतदान का सीधा असर होता है। इसीलिए भारत ने तटस्थ रहना बेहतर समझा। श्रीलंका के तमिल लोग और वहां की सरकार भी भारत के इस रवैए से संतुष्ट हैं। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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शहीद दिवस (23 मार्च) पर विशेष योगेश कुमार गोयल भारत के वीर सपूतों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को श्रद्धांजलि देने के लिए प्रतिवर्ष 23 मार्च को शहीद दिवस अथवा सर्वोदय दिवस मनाया जाता है, जो प्रत्येक भारतवासी को गौरव का अनुभव कराता है। देश की आजादी के दीवाने ये तीनों स्वतंत्रता सेनानी इसी दिन हंसते-हंसते फांसी चढ़ गए थे और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार द्वारा इस दिन को ‘शहीद दिवस’ घोषित किया गया। हालांकि स्वतंत्रता आंदोलन में अनेक वीर सपूतों ने अपने प्राण न्यौछावर किए और उनमें से बहुतों के बलिदान को प्रतिवर्ष किसी न किसी अवसर पर स्मरण किया जाता है लेकिन हर साल 23 मार्च का दिन शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह वही दिन है, जब अंग्रेजों से भारत मां के वीर सपूतों भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की हत्या के आरोप में फांसी पर लटका दिया था। हालांकि पहले इन वीर सूपतों को 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी लेकिन इनके बुलंद हौसलों से भयभीत ब्रिटिश सरकार ने जन आन्दोलन को कुचलने के लिए उन्हें एकदिन पहले 23 मार्च 1931 को ही फांसी दे दी। भगत सिंह प्रायः एक शेर गुनगुनाया करते थे- जब से सुना है मरने का नाम जिन्दगी है, सर से कफन लपेटे कातिल को ढूंढ़ते हैं। भगत सिंह जब पांच साल के थे, तब एकदिन अपने पिता के साथ खेत में गए और वहां कुछ तिनके चुनकर जमीन में गाड़ने लगे। पिता ने उनसे पूछा कि यह क्या कर रहे हो तो मासूमियत से भगत सिंह ने जवाब दिया कि मैं खेत में बंदूकें बो रहा हूं। जब ये उगकर बहुत सारी बंदूकें बन जाएंगी, तब इनका उपयोग अंग्रेजों के खिलाफ करेंगे। शहीदे आजम भगत सिंह ने स्वतंत्रता सेनानी चन्द्रशेखर आजाद से अपनी पहली मुलाकात के समय ही जलती मोमबत्ती की लौ पर हाथ रखकर कसम खाई थी कि उनका समस्त जीवन वतन पर कुर्बान होगा। 28 सितम्बर 1907 को जन्मे भगत सिंह ने अपने 23 वर्ष के छोटे से जीवनकाल में वैचारिक क्रांति की ऐसी मशाल जलाई थी, जिससे आज के दौर में भी युवा काफी प्रभावित हैं। क्रांतिकारियों राजगुरू और सुखदेव का नाम हालांकि सदैव शहीदे आजम भगत सिंह के बाद ही आता है लेकिन भगत सिंह का नाम आजादी के इन दोनों महान् क्रांतिकारियों के बगैर अधूरा है क्योंकि इनका योगदान भी भगत सिंह से किसी मायने में कम नहीं। तीनों की विचारधारा एक ही थी, इसीलिए तीनों की मित्रता बेहद सुदृढ़ और मजबूत थी। भगत सिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में आसपास ही रहते थे और दोनों परिवारों में गहरी दोस्ती थी। 15 मई 1907 को पंजाब के लायलपुर में जन्मे सुखदेव, भगत सिंह की ही तरह बचपन से आजादी का सपना पाले हुए थे। भगत सिंह, कामरेड रामचन्द्र और भगवती चरण बोहरा के साथ मिलकर उन्होंने लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन कर सॉन्डर्स हत्याकांड में भगत सिंह तथा राजगुरू का साथ दिया था। 24 अगस्त 1908 को पुणे के खेड़ा में जन्मे राजगुरू छत्रपति शिवाजी की छापामार शैली के प्रशंसक थे और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से काफी प्रभावित थे। अच्छे निशानेबाज रहे राजगुरू का रुझान जीवन के शुरूआती दिनों से ही क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ होने लगा था। वाराणसी में उनका सम्पर्क क्रांतिकारियों से हुआ और वे हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए। चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह और जतिन दास राजगुरू के अभिन्न मित्र थे। पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के कारण स्वतंत्रता संग्राम के दिग्गज नेता लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए राजगुरू ने 19 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में जॉन सॉन्डर्स को गोली मारकर स्वयं को गिरफ्तार करा दिया था और भगत सिंह वेश बदलकर कलकत्ता निकल गए थे, जहां उन्होंने बम बनाने की विधि सीखी। भगत सिंह बिना कोई खून-खराबा किए ब्रिटिश शासन तक अपनी आवाज पहुंचाना चाहते थे लेकिन तीनों क्रांतिकारियों को अब यकीन हो गया था कि पराधीन भारत की बेड़ियां केवल अहिंसा की नीतियों से नहीं काटी जा सकती, इसीलिए उन्होंने अंग्रेजों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीतियों के पारित होने के खिलाफ विरोध प्रकट करने के लिए लाहौर की केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने की योजना बनाई। 1929 में चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में ‘पब्लिक सेफ्टी‘ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल‘ के विरोध में सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के लिए ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी‘ की पहली बैठक हुई। योजनाबद्ध तरीके से भगत सिंह ने 8 अप्रैल 1929 को बटुकेश्वर दत्त के साथ केन्द्रीय असेंबली में एक खाली स्थान पर बम फेंका, जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि वे चाहते तो भाग सकते थे लेकिन भगत सिंह का मानना था कि गिरफ्तार होकर वे बेहतर ढंग से अपना संदेश दुनिया के सामने रख पाएंगे। असेंबली में फेंके गए बम के साथ कुछ पर्चे भी फैंके गए थे, जिनमें भगत सिंह ने लिखा था, ‘आदमी को मारा जा सकता है, उसके विचारों को नहीं। बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है।’ हालांकि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को अलग-अलग मामलों में गिरफ्तार किया गया था लेकिन पुलिस ने तीनों को जॉन सॉन्डर्स की हत्या के लिए आरोपित किया। गिरफ्तारी के बाद सॉन्डर्स की हत्या में शामिल होने के आरोप में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव पर देशद्रोह तथा हत्या का मुकद्दमा चलाया गया और उन्हें मौत की सजा सुनाई। इसी मामले को बाद में ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ के नाम से जाना गया। भगत सिंह और उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हड़ताल की। 23 मार्च 1931 की शाम करीब 7.33 बजे भारत मां के इन तीनों महान् वीर सपूतों को फांसी दे दी गई। फांसी पर जाते समय तीनों एक स्वर में गा रहे थे- दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू ए वतन आएगी। फांसी पर चढ़ने से कुछ समय पहले भगत सिंह एक पुस्तक पढ़ रहे थे, राजगुरू वेद मंत्रों का गान कर रहे थे जबकि सुखदेव कोई क्रांतिकारी गीत गुनगुना रहे थे। फांसी के तख्ते पर चढ़कर तीनों ने फंदे को चूमा और अपने ही हाथों फंदा अपने गले में डाल लिया। जेल वार्डन ने यह दृश्य देखकर कहा था कि इन युवकों के दिमाग बिगड़े हुए हैं और ये पागल हैं। इस पर सुखदेव ने गुनगुनाते हुए कहा, ‘इन बिगड़े दिमागों में घनी खुशबू के लच्छे हैं। हमें पागल ही रहने दो, हम पागल ही अच्छे हैं।’ भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव भारत माता के ऐसे सच्चे सपूत थे, जिन्होंने देशप्रेम और देशभक्ति को अपने प्राणों से भी ज्यादा महत्व दिया। देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। भगत सिंह कहा करते थे कि एक सच्चा बलिदानी वही है, जो जरूरत पड़ने पर सबकुछ त्याग दे। ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले इन तीनों महान स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को देश सदैव याद रखेगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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शहीद दिवस (23 मार्च) पर विशेष योगेश कुमार गोयल भारत के वीर सपूतों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को श्रद्धांजलि देने के लिए प्रतिवर्ष 23 मार्च को शहीद दिवस अथवा सर्वोदय दिवस मनाया जाता है, जो प्रत्येक भारतवासी को गौरव का अनुभव कराता है। देश की आजादी के दीवाने ये तीनों स्वतंत्रता सेनानी इसी दिन हंसते-हंसते फांसी चढ़ गए थे और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार द्वारा इस दिन को ‘शहीद दिवस’ घोषित किया गया। हालांकि स्वतंत्रता आंदोलन में अनेक वीर सपूतों ने अपने प्राण न्यौछावर किए और उनमें से बहुतों के बलिदान को प्रतिवर्ष किसी न किसी अवसर पर स्मरण किया जाता है लेकिन हर साल 23 मार्च का दिन शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह वही दिन है, जब अंग्रेजों से भारत मां के वीर सपूतों भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की हत्या के आरोप में फांसी पर लटका दिया था। हालांकि पहले इन वीर सूपतों को 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी लेकिन इनके बुलंद हौसलों से भयभीत ब्रिटिश सरकार ने जन आन्दोलन को कुचलने के लिए उन्हें एकदिन पहले 23 मार्च 1931 को ही फांसी दे दी। भगत सिंह प्रायः एक शेर गुनगुनाया करते थे- जब से सुना है मरने का नाम जिन्दगी है, सर से कफन लपेटे कातिल को ढूंढ़ते हैं। भगत सिंह जब पांच साल के थे, तब एकदिन अपने पिता के साथ खेत में गए और वहां कुछ तिनके चुनकर जमीन में गाड़ने लगे। पिता ने उनसे पूछा कि यह क्या कर रहे हो तो मासूमियत से भगत सिंह ने जवाब दिया कि मैं खेत में बंदूकें बो रहा हूं। जब ये उगकर बहुत सारी बंदूकें बन जाएंगी, तब इनका उपयोग अंग्रेजों के खिलाफ करेंगे। शहीदे आजम भगत सिंह ने स्वतंत्रता सेनानी चन्द्रशेखर आजाद से अपनी पहली मुलाकात के समय ही जलती मोमबत्ती की लौ पर हाथ रखकर कसम खाई थी कि उनका समस्त जीवन वतन पर कुर्बान होगा। 28 सितम्बर 1907 को जन्मे भगत सिंह ने अपने 23 वर्ष के छोटे से जीवनकाल में वैचारिक क्रांति की ऐसी मशाल जलाई थी, जिससे आज के दौर में भी युवा काफी प्रभावित हैं। क्रांतिकारियों राजगुरू और सुखदेव का नाम हालांकि सदैव शहीदे आजम भगत सिंह के बाद ही आता है लेकिन भगत सिंह का नाम आजादी के इन दोनों महान् क्रांतिकारियों के बगैर अधूरा है क्योंकि इनका योगदान भी भगत सिंह से किसी मायने में कम नहीं। तीनों की विचारधारा एक ही थी, इसीलिए तीनों की मित्रता बेहद सुदृढ़ और मजबूत थी। भगत सिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में आसपास ही रहते थे और दोनों परिवारों में गहरी दोस्ती थी। 15 मई 1907 को पंजाब के लायलपुर में जन्मे सुखदेव, भगत सिंह की ही तरह बचपन से आजादी का सपना पाले हुए थे। भगत सिंह, कामरेड रामचन्द्र और भगवती चरण बोहरा के साथ मिलकर उन्होंने लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन कर सॉन्डर्स हत्याकांड में भगत सिंह तथा राजगुरू का साथ दिया था। 24 अगस्त 1908 को पुणे के खेड़ा में जन्मे राजगुरू छत्रपति शिवाजी की छापामार शैली के प्रशंसक थे और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से काफी प्रभावित थे। अच्छे निशानेबाज रहे राजगुरू का रुझान जीवन के शुरूआती दिनों से ही क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ होने लगा था। वाराणसी में उनका सम्पर्क क्रांतिकारियों से हुआ और वे हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए। चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह और जतिन दास राजगुरू के अभिन्न मित्र थे। पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के कारण स्वतंत्रता संग्राम के दिग्गज नेता लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए राजगुरू ने 19 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में जॉन सॉन्डर्स को गोली मारकर स्वयं को गिरफ्तार करा दिया था और भगत सिंह वेश बदलकर कलकत्ता निकल गए थे, जहां उन्होंने बम बनाने की विधि सीखी। भगत सिंह बिना कोई खून-खराबा किए ब्रिटिश शासन तक अपनी आवाज पहुंचाना चाहते थे लेकिन तीनों क्रांतिकारियों को अब यकीन हो गया था कि पराधीन भारत की बेड़ियां केवल अहिंसा की नीतियों से नहीं काटी जा सकती, इसीलिए उन्होंने अंग्रेजों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीतियों के पारित होने के खिलाफ विरोध प्रकट करने के लिए लाहौर की केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने की योजना बनाई। 1929 में चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में ‘पब्लिक सेफ्टी‘ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल‘ के विरोध में सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के लिए ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी‘ की पहली बैठक हुई। योजनाबद्ध तरीके से भगत सिंह ने 8 अप्रैल 1929 को बटुकेश्वर दत्त के साथ केन्द्रीय असेंबली में एक खाली स्थान पर बम फेंका, जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि वे चाहते तो भाग सकते थे लेकिन भगत सिंह का मानना था कि गिरफ्तार होकर वे बेहतर ढंग से अपना संदेश दुनिया के सामने रख पाएंगे। असेंबली में फेंके गए बम के साथ कुछ पर्चे भी फैंके गए थे, जिनमें भगत सिंह ने लिखा था, ‘आदमी को मारा जा सकता है, उसके विचारों को नहीं। बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है।’ हालांकि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को अलग-अलग मामलों में गिरफ्तार किया गया था लेकिन पुलिस ने तीनों को जॉन सॉन्डर्स की हत्या के लिए आरोपित किया। गिरफ्तारी के बाद सॉन्डर्स की हत्या में शामिल होने के आरोप में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव पर देशद्रोह तथा हत्या का मुकद्दमा चलाया गया और उन्हें मौत की सजा सुनाई। इसी मामले को बाद में ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ के नाम से जाना गया। भगत सिंह और उनके साथियों ने 64 दिनों तक भूख हड़ताल की। 23 मार्च 1931 की शाम करीब 7.33 बजे भारत मां के इन तीनों महान् वीर सपूतों को फांसी दे दी गई। फांसी पर जाते समय तीनों एक स्वर में गा रहे थे- दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू ए वतन आएगी। फांसी पर चढ़ने से कुछ समय पहले भगत सिंह एक पुस्तक पढ़ रहे थे, राजगुरू वेद मंत्रों का गान कर रहे थे जबकि सुखदेव कोई क्रांतिकारी गीत गुनगुना रहे थे। फांसी के तख्ते पर चढ़कर तीनों ने फंदे को चूमा और अपने ही हाथों फंदा अपने गले में डाल लिया। जेल वार्डन ने यह दृश्य देखकर कहा था कि इन युवकों के दिमाग बिगड़े हुए हैं और ये पागल हैं। इस पर सुखदेव ने गुनगुनाते हुए कहा, ‘इन बिगड़े दिमागों में घनी खुशबू के लच्छे हैं। हमें पागल ही रहने दो, हम पागल ही अच्छे हैं।’ भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव भारत माता के ऐसे सच्चे सपूत थे, जिन्होंने देशप्रेम और देशभक्ति को अपने प्राणों से भी ज्यादा महत्व दिया। देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। भगत सिंह कहा करते थे कि एक सच्चा बलिदानी वही है, जो जरूरत पड़ने पर सबकुछ त्याग दे। ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले इन तीनों महान स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को देश सदैव याद रखेगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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अनिल निगम कोरोना वायरस की नई वेव और स्ट्रेन ने महाराष्ट्र, केरल, गुजरात, पंजाब, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश सहित लगभग आठ राज्यों में कोहराम मचाना शुरू कर दिया है। एक ही दिन में देश में लगभग 44 हजार कोरोना संक्रमितों की संख्या आना शुरू हो गई है। इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि वायरस से मरने वालों का प्रतिशत भी बढ़ रहा है। लोगों की घोर लापरवाही के कारण देश पर एकबार फिर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। वायरस का नया स्ट्रेन बेहद परेशान करने वाला है। ब्रिटेन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के बाद फ्रांस और अब भारत में भी पाया गया है। वहां कई ऐसे संक्रमित मामले मिले हैं जिसने विज्ञानियों को भी चुनौती दे दी है। नए वायरस से लोगों के संक्रमित होने के बावजूद उनकी जांच रिपोर्ट नेगेटिव आ रही है। अहम सवाल यह है कि नया स्ट्रेन विकराल रूप ले, इसके पहले ठोस रणनीति बनाए जाने की जरूरत है कि इससे कैसे निपटा जाए? कहीं ऐसा न हो कि देश में एकबार फिर पहले जैसे हालात बन जाएं। विकराल होती इस बीमारी से निपटने की युक्ति और रणनीति पर विचार करने के पहले हमें इस पर चिंतन कराना होगा कि आखिर यह समस्या बढ़ क्यों रही है और इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं? सर्वविदित है कि जब गत वर्ष चीनी वायरस का प्रकोप हमारे देश में बढ़ रहा था, 24 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संपूर्ण देश में लॉकडाउन कर दिया था। ऐसा करने के चलते कोरोना संक्रमण को रोकने अथवा कम करने में मदद मिली थी, लेकिन यह भी सचाई है कि इसके कारण देश की उत्पादकता और अर्थव्यवस्था चरमरा गई। उससे निजात पाने के लिए सरकार और जनता आज भी संघर्ष कर रही है। सरकार ने सख्ती बरती और लोगों ने सावधानी। इससे वायरस के संक्रमण पर नियंत्रण संभव हो सका। लेकिन स्थितियां जैसे ही कुछ सामान्य होना शुरू हुईं, लोगों ने घोर लापरवाही बरतना शुरू कर दिया है। लोगों ने मास्क और सेनिटाइजर से दूरी बनाना शुरू कर दिया है। सार्वजनिक स्थागनों पर भी बिना मास्क के नजर आ रहे हैं। शादी-विवाह समारोह, चुनावी रैलियां, अन्य सार्वजनिक समारोहों, बस, ट्रेन, मेट्रो इत्यादि में लोग बिना मास्क नजर आ रहे हैं। समारोहों और सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था का प्रयोग करते समय सोशल डिस्टेंसिंग सहित कोरोना प्रोटोकाल की धज्जियां जमकर उड़ाई जा रही हैं। कई प्रदेशों में बहुत तेजी से संक्रमण बढ़ रहा है। महाराष्ट्र , गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश के कई जिलों में प्रदेश सरकारों ने अलग-अलग तरीके से कर्फ्यू या लॉकडाउन अथवा कुछ प्रतिबंधों की घोषणा की है। एक वर्ष पूर्व संपूर्ण भारत में लॉकडाउन करने के पीछे सबसे बड़ा उद्देश्य यह था कि उस समय देश इस बीमारी से लड़ने के लिए तैयार नहीं था। उसके पास मास्क, सेनिटाइजर, वेंटीलेटर और अस्पतालों तक की भीषण कमी थी। इसलिए ऐसा करना सरकार की मजबूरी थी। लेकिन आज हालात बदल चुके हैं। भारत मास्क, सेनिटाइजर, वेंटीलेटर बनाने के मामले में आत्मनिर्भर बन चुका है। हमने कोरोना की वैक्सीन भी तैयार कर ली है और चार करोड़ से अधिक लोगों को यह टीका लग भी चुका है। कहने का आशय यह है कि अब हम महामारी से लड़ने में सक्षम हैं। लेकिन अत्यंत चिंताजनक बात यह है कि जो नया स्ट्रेन भारत में आया है, वह कोरोना की आरटीपीसीआर जांच में पकड़ में नहीं आ रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि नए स्ट्रेन का स्पामइक प्रोट्रीन कई बार म्युैटेट हो चुका है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि भारत में कोरोना वायरस का नया स्ट्रेन आ चुका है। निस्संदेह, इसबार हम पहले की अपेक्षा अधिक तैयार हैं, पर हमारी जरा-सी लापरवाही बहुत महंगी पड़ सकती है। नया कोरोना वायरस न केवल टेस्ट से पकड़ में आ रहा है बल्कि वह पिछली बार की तुलना में अधिक घातक है। इसके अलावा उसके फैलने की रफ्तार भी कई गुना तेज है। इस वास्तविकता को हर नागरिक को समझने की जरूरत है। वैक्सीन हर राज्य में पर्याप्त मात्रा में पहुंच चुकी है, लेकिन कई ऐसे राज्य हैं, जहां लोग वैक्सीन लगवाने के प्रति उदासीनता दिखा रहे हैं और सरकारी स्टोर वैक्सीन से भरे पड़े हैं। लोग मास्क और सेनेटाइजर से परहेज कर रहे हैं। भीड़भाड़ वाले इलाकों में जाने में अभी भी सावधानी बरतने की जरूरत है। लॉकडाउन इस समस्या का समाधान नहीं है। अगर लॉकडाउन फिर लगाना पड़ा तो हमारी अर्थव्यवस्था फिर कई साल पीछे चली जाएगी। भारत पर गंभीर संकट मंडरा रहा है, इसलिए देश के जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें ज्यादा सतर्क और सावधान रहने की जरूरत है। हम इसका बिल्कुल इंतजार न करें कि सबकुछ सरकार करे अथवा वह हम पर प्रतिबंध लगाए और हम उसका अनुसरण करने को बाध्य हों। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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लालजी जायसवाल पिछले दिनों एक संसदीय समिति की संसद के दोनों सदनों में पेश रिपोर्ट में कहा गया कि अगर देश में एक चुनाव होता है, तो न केवल इससे सरकारी खजाने पर बोझ कम पड़ेगा बल्कि राजनीतिक दलों का खर्च कम होने के साथ मानव संसाधन का अधिकतम उपयोग किया जा सकेगा। साथ ही मतदान के प्रति मतदाताओं की जो उदासीनता बढ़ रही है, वह भी कम हो सकेगी। प्रधानमंत्री मोदी भी कई बार कह चुके हैं कि एक देश एक चुनाव अब सिर्फ एक चर्चा का विषय नहीं है, बल्कि ये भारत की जरूरत है। क्योंकि देश में हर महीने कहीं न कहीं बड़े चुनाव हो रहे होते हैं, इससे विकास कार्यों पर जो प्रभाव पड़ता है, उससे देश भली-भांति वाकिफ हैं। उनका कहना था कि बार-बार चुनाव होने से प्रशासनिक काम पर भी असर पड़ता है। अगर देश में सभी चुनाव एक साथ होते हैं, तो पार्टियां भी देश और राज्य के विकास कार्यों पर ज्यादा समय दे पाएंगी। एक देश एक चुनाव की बात कोई नई नहीं है, क्योंकि वर्ष 1952,1957,1962 और 1967 में लोकसभा और राज्य विधानसभा दोनों के चुनाव साथ-साथ हो चुके हैं। लेकिन वर्ष 1967 के बाद कई बार ऐसी घटनाएं सामने आई, जिसमें लोकसभा और राज्य विधानसभा अलग-अलग समय पर भंग होती रही है। इसका विशेष कारण अपना विश्वास मत खो देना और गठबंधन का टूट जाना था। लेकिन वन नेशन, वन इलेक्शन आज अपरिहार्य है। वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170 वीं रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने का समर्थन किया था। लेकिन इसके लिए संविधान में संशोधन करने की जरूरत होगी। क्योंकि यह देखा गया है कि पूर्व में विधानसभाएं समय रहते ही भंग होती रही हैं। जाहिर है कि कई राज्य विधानसभाओं का समय सीमा भी कम करना होगा और कई का समय सीमा बढ़ाना भी पड़ेगा। यही समस्या लोकसभा में भी हो सकता है। अतः इन तमाम मुश्किलों से निदान पाने के लिए अनुच्छेद 83, 85, 172 और अनुच्छेद 174 के साथ अनुच्छेद 356 में भी संशोधन करना होगा। साथ में लोक प्रतिनिधि कानून में भी बदलाव की जरूरत होगी। एक देश एक चुनाव के अनेक फायदे हैं, जो देश की प्रगति को नई दिशा प्रदान करेंगे, क्योंकि बार-बार चुनावों में खर्च होने वाली धनराशि बचेगी, जिसका उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य और जल संकट निवारण आदि ऐसे कार्यों में खर्च कर सकेंगे। लोगों के आर्थिक जीवन के साथ सामाजिक जीवन में सुधार सुनिश्चित हो सकेगा। कई देशों ने विकास को गति देने के लिए एक देश एक चुनाव का फार्मूला अपनाया। जैसे-स्वीडन में पिछले साल आम चुनाव, काउंटी और नगर निगम के चुनाव एकसाथ कराए गए थे। इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड, बेल्जियम भी एक बार चुनाव कराने की परंपरा है। एक साथ चुनाव से आर्थिक बोझ कम होगा, क्योंकि वर्ष 2009 लोकसभा चुनाव में ग्यारह सौ करोड़ वर्ष 2014 में चार हजार करोड़ और वर्ष 2019 में प्रति व्यक्ति बहत्तर रुपये खर्च हुआ था। इसी प्रकार, विधानसभाओं के चुनाव में भी यही स्थिति नजर आती रही है। बार-बार चुनाव के कारण आचार संहिताओं से राज्यों को दो चार होना पड़ता है, जिससे सभी विकास कार्य बाधित होते हैं। इससे शिक्षा क्षेत्र भी अत्यधिक प्रभावित होता है और अलग-अलग चुनाव से काले धन का अत्यधिक प्रवाह भी होता है। यदि एकसाथ चुनाव होगा तो काले धन के प्रवाह पर निश्चित रोक लगेगी। साथ ही लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ होने से आपसी सौहार्द बढ़ेगा, क्योंकि चुनाव में बार-बार जाति-धर्म के मुद्दे नहीं उठेंगे और आम आदमियों को भी तमाम परेशानियों से मुक्ति मिल सकेगी। नतीजतन, एक साथ चुनाव देश के हित में विकास को परिलक्षित करता है। निश्चित ही एक साथ चुनाव से कुछ समस्याओं का सामना भी करना होगा लेकिन सदैव के लिए इससे मुक्ति पाने के बाबत एक देश एक चुनाव जरूरी है। इससे क्षेत्रीय पार्टियों पर संकट आ सकता है और उनके क्षेत्रीय संसाधन सीमित हो सकते हैं, क्षेत्रीय मुद्दे भी खत्म हो सकते हैं और चुनाव परिणाम में देरी भी हो सकती है। साथ ही अतिरिक्त केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की आवश्यकता भी होगी। अतः इनकी भारी संख्या मे नियुक्ति की जरूरत पड़ेगी। एक साथ चुनाव कराने के लिए ईवीएम की पर्याप्त आवश्यकता पड़ेगी, क्योंकि आज वर्तमान समय में बारह से पंद्रह लाख ईवीएम का उपयोग किया जाता है। लेकिन जब एक साथ चुनाव होंगे तो उसके लिए तीस से बत्तीस लाख ईवीएम की जरूरत होगी। इसके साथ वीवीपैट भी लगाने होंगे। इन सब को पूरा करने के लिए चार से पांच हजार करोड़ रुपए की अतिरिक्त आवश्यकता होगी। निश्चित ही पूंजीगत खर्च तो बढ़ेगा ही, क्योंकि एक साथ तीस से बत्तीस लाख ईवीएम की जरूरत को पूरा करना होगा और प्रति तीन बार चुनाव अर्थात् पंद्रह साल में इनको बदलना भी होगा, क्योंकि इनका जीवनकाल पंद्रह साल तक ही होता है। लेकिन एक साथ चुनाव से अनेक फायदे भी होंगे। एक देश-एक चुनाव' से सार्वजनिक धन की बचत तो होगी ही वही दूसरी ओर प्रशासनिक सेटअप और सुरक्षा बलों पर भार भी कम होगा तथा सरकार की नीतियों का समय पर कार्यान्वयन सुनिश्चित हो सकेगा और यह भी सुनिश्चित होगा कि प्रशासनिक मशीनरी चुनावी गतिविधियों में संलग्न रहने के बजाय विकासात्मक गतिविधियों में लगी रहे। रिपोर्ट के अनुसार, आम चुनाव में राजनीतिक दल साठ हजार करोड़ रुपए खर्च करते हैं और राज्य विधानसभा चुनाव में भी इतना ही खर्च होता है तो दोनों को मिलाकर 1.20 लाख करोड़ रुपए राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किए जाते हैं। अब जब एक चुनाव से प्रचार भी एक ही बार करना होगा इसलिए खर्च घटकर आधा रह जाएगा। निश्चित ही पर्याप्त धन की बचत होगी जो देश कि दशा और दिशा का निर्धारण कर सकेगा। एक देश, एक चुनाव की अवधारणा में कोई बड़ी खामी नहीं दिखती है, किन्तु राजनीतिक पार्टियों द्वारा जिस तरह से इसका विरोध किया जाता रहा है, उससे लगता है कि इसे निकट भविष्य लागू कर पाना संभव नहीं हो सकेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत हर समय चुनावी चक्रव्यूह में घिरा हुआ नजर आता है। चुनावों के इस चक्रव्यूह से देश को निकालने के लिये एक व्यापक चुनाव सुधार अभियान चलाने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री लम्बे समय से लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराने पर ज़ोर देते रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की राय बँटी हुई रही है। पिछले साल जब लॉ कमीशन ने इस मसले पर राजनीतिक पार्टियों से सलाह ली थी, तब समाजवादी पार्टी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, शिरोमणि अकाली दल जैसी पार्टियों ने 'एक देश, एक चुनाव' की सोच का समर्थन किया था। अतः अब समय आ गया है कि देश के सभी राजनीतिक दलों को एकजुटता के साथ सरकार के एक देश एक चुनाव के मुद्दे पर चर्चा कर इसे लागू कराने पर अपनी सहमति देनी चाहिए। यह राजनीतिक नहीं अपितु विकास का मुद्दा है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हृदयनारायण दीक्षित वर्ण व जाति व्यवस्था समाज विभाजक थी और है। जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था से भारत का बड़ा नुकसान हुआ। कुछ लोग वर्ण व्यवस्था के जन्म और विकास को दैवी विधान मानते हैं और अनेक विद्वान इसे सामाजिक विकास का परिणाम मानते हैं। डाॅ. आम्बेडकर कहते हैं कि चार वर्णों की व्यवस्था के सम्बंध में दो भिन्न मत थे। दूसरा मत था कि इस व्यवस्था का विकास मनु के वंशजों में हुआ। इस तरह यह प्राकृतिक है। दैवी नहीं है। कुछ समाज विज्ञानी इसे रंग भेद का परिणाम मानते थे। कई यूरोपीय विद्वान ने वर्ण का अर्थ रंग करते थे। वे आर्यों को श्वेत रंग वाला और शूद्रों को श्याम वर्ण वाला मानते थे। वास्तविकता इससे दूर है। डाॅ.आम्बेडकर ने तमाम उदाहरण देकर बताया है कि आर्य गौर वर्ण के थे और श्याम वर्ण के भी थे। उन्होंने ऋग्वेद के हवाले से लिखा “अश्विनी देवों ने श्याव व रूक्षती का विवाह कराया। श्याव श्याम वर्ण का था और रूक्षती गोरी। अश्वनी देव ने गौर वर्ण की वंदना की रक्षा की थी।” डाॅ. आम्बेडकर का निष्कर्ष है कि “आर्यों में रंगभेद की भावना नहीं थी।” आर्यो में काई भेद नहीं था।” आर्य जाति के उपास्य श्रीराम श्याम रंग के थे और श्रीकृष्ण भी। ऋग्वेद के एक ऋषि दीर्घतमस भी गोरे रंग के नहीं श्याम रंग के थे। ऋग्वेद में संसार प्राकृतिक विकास का परिणाम है। वर्ण व्यवस्था सामाजिक विकास के क्रम में विकसित हुई और जाति भी। सभी आर्य एक समान थे। सभी वर्णो में आत्मीय सम्बंध थे। मनुस्मृति (10.64) में कहा गया है कि शूद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त होता है और ब्राह्मण शूद्रत्व को। भिन्न-भिन्न वर्ण में वैवाहिक सम्बंध थे।” धर्म सूत्रों में कहा गया है कि शूद्रों को वेद नहीं पढ़ना चाहिए लेकिन इससे भिन्न विचार भी थे। छान्दोग्य उपनिषद् में राजा जानश्रुति शूद्र थे। उन्हें रैक्व ऋषि ने वैदिक ज्ञान दिया था। ऋषि कवष एलूस शूद्र थे। ऋषि थे। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में उनके सूक्त हैं। भारद्वाज श्रौत्र शूद्र को भी यज्ञ कर्म का अधिकार देता है। धर्म सूत्रों में शूद्र को सोमरस पीने का अधिकार नहीं दिया गया। इन्द्र ने अश्विनि को सोम पीने का अधिकार नहीं दिया। सुकन्या के वृद्ध पति च्यवन को अविनी देवों ने यौवन दिया था। च्यवन ऋषि ने इन्द्र को बाध्य किया कि अश्विनी देवों को सोमरस दें। यह वही च्यवन है जिनके नाम पर आयुर्वेद का च्यवनप्रास चलता है। शूद्रों को समान अधिकार देने की अनेक कथाएं हैं। लेकिन बाद की वर्ण व्यवस्था के समाज में उत्पादन और श्रम तप वाले शूद्रों की स्थिति कमजोर होती रही। शूद्र आर्य थे। हम सबके पूर्वज थे। डाॅ. आम्बेडकर ने लिखा है कि पहले शूद्र शब्द वर्ण सूचक नहीं है। यह एक गण या कबीले का नाम था। भारत पर सिकंदर के आक्रमण के समय सोदरि नाम का गण लड़ा था। पतंजलि ने महाभाष्य में शूद्रों का उल्लेख आमीरों के साथ किया है। महाभारत के सभा पर्व में शूद्रों के गण संघ का उल्लेख है। विष्णु पुराण, मार्केण्डेय पुराण, ब्रह्म पुराण में भी शूद्रों के गण संघ का उल्लेख है।” शूद्र गुणवाची है। अब वर्ण व्यवस्था कालवाह्य हो गई लेकिन उसके अवशेष अभी भी हैं। यज्ञ आदि कर्मकाण्ड के समय उन्हें सम्मान जनक स्थान नहीं मिलता। यह दशा त्रासद है। वे पूजा, यज्ञ उपासना में केन्द्रीय भूमिका नहीं पाते। जातियां कालवाह्य हो रही हैं लेकिन पिछले सप्ताह शिवरात्रि के दिन एक प्रेरक घटना घटी। उ0प्र0 विधानसभा के प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे के खेत में खुदाई के समय एक प्राचीन शिव मूर्ति मिली। संयोग से यह शिवरात्रि का दिन था। दुबे ने शिव उपासना की। यज्ञ कराया और अनुसूचित जाति के एक वरिष्ठ को पुरोहित बनाया। उपस्थित जनसमुदाय ने उनसे प्रसाद लिया। उन्हें प्रणाम किया। मुझे आशा है कि लोग इससे प्रेरित होंगे। दुबे के इस अनुसूचित जाति के नेतृत्व वाले कर्मकाण्ड में कोई निजी हित नहीं था। ऋग्वेद में ब्राह्मण शब्द आया है। ब्राह्मणों के साथ अन्य लोग भी यज्ञ में सम्मिलित होते थे। यज्ञ आर्यो का प्रमुख अनुष्ठान था। सभी ब्राह्मण यज्ञ विज्ञान के जानकार नहीं थे। ऋग्वेद में एक मंत्र (8.58.1) में प्रश्न है कि “इस यज्ञ में नियुक्त हुआ है उसका यज्ञ सम्बंधी ज्ञान कैसा था?” ऋग्वेद में यज्ञ कर्म में योग्य ब्राह्मण नियुक्त किए जाते थे। यही यज्ञ कर्म में नियुक्त ब्राह्मण की योग्यता जरूरी है। यज्ञ के प्रोटोकाल में ब्राह्मण होता के नीचे बैठता था। ऋग्वेद के समाज में कवि ऋषि सबसे ज्यादा सम्मानित हैं। ऋषि कवि हैं। ब्राह्मण मंत्र रचना नहीं करते थे। वे मंत्रों का प्रयोग करते थे। मंत्र पढ़ते थे। ऋग्वेद में ब्राह्मण शब्द का अर्थ मंत्र या स्तुति भी है। एक ऋषि कहते हैं कि देव इन्द्र तेरे लिए मैं नए ब्राह्मण रचता हूं। ब्राह्मण का अर्थ कविता भी है। वर्ण धीरे-धीरे जाति बने। लेकिन ब्राह्मण वर्ण ही रहे। इस वर्ग में जातियां नहीं हैं। इसी तरह क्षत्रिय और वैश्य वर्ग में जाति नहीं है। शूद्र वर्ग में काम और व्यवसाय आदि के कारण सैकड़ों जातियों का विकास हुआ। फिर किसी दुर्भाग्यपूर्ण काल में शूद्र वर्ग की जातियां नीचे कही जाने लगीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य शूद्र को निम्न कहने लगे। इससे राष्ट्रीय क्षति हुई। अब भी हो रही है। सरकार बनाने और अपनी अपनी पार्टियों के लिए अभियान चलाने का राजनैतिक काम आसान है लेकिन सामाजिक परिवर्तन का कार्य कठिन है। अनुसूचित जातियों के बीच हमने 15 वर्ष काम किया है। यह काम सामाजिक परिवर्तन का है। मेरे विरुद्ध ऊंची जातियों के कुछ लोगों ने तमाम अभियान चलाए। मेरी निंदा हुई। भारतीय समाज जड़ नहीं है। इसे प्रयत्नपूर्वक गतिशील बनाया जा सकता है। अधिकांश पूर्वजों ने इसे गतिशील बनाया है। मैंने जाति विरोधी अभियान चलाकर सीमित क्षेत्र में सफलता भी पाई है। समाजवादी डाॅ. राममनोहर लोहिया ने जाति तोड़ो अभियान चलाया। उनके बाद के समाजवादियों ने जाति आधारित गोलबंदी की राह पकड़ी। जातियों की संख्या के आधार पर राजनीति चली। भारतीय कम्युनिष्टों से अपेक्षा थी कि वे वर्ग संघर्ष के अपने सिद्धांत के लिए अमीर और गरीब वर्गो के गठन के लिए काम करेंगे। लेकिन उन्होंने भारतीय संस्कृति की निंदा की। अल्पसंख्यक मुस्लिम वर्ग की आस्था स्वीकार की। वामपंथ के सिद्धांत में मजहबी अलगाववादी अस्मिता का कोई स्थान नहीं है लेकिन उन्होंने इसका पोषण किया। परिणाम सामने हैं। कम्युनिस्ट असफल होते रहे। अब वे इतिहास की सामग्री हैं। जाति वर्ण की अस्मिता का खात्मा राजनीति के द्वारा संभव नहीं है। राजनीति जाति वर्ण से लाभ उठाती है। सामाजिक आन्दोलन ही उपाय हैं। भारत के सभी निवासी आर्य हैं। ऋग्वेद आर्यो की ही रचना है और समूचा वैदिक साहित्य भी। आर्य नस्ल नहीं थे। शूद्र भी आर्य थे। आर्य समाज के अविभाज्य अंग थे। शूद्र कोई अलग नस्ल नहीं थे। डाॅ. आम्बेडकर ने ‘हू वेयर शूद्राज’ पुस्तक लिखी थी। यह 1946 में प्रकाशित हुई थी। प्रश्न है कि क्या शूद्र अनार्य थे? डाॅ. आम्बेडकर ने लिखा है “शूद्र आर्य थे। क्षत्रिय थे। क्षत्रिय में शूद्र महत्वपूर्ण वर्ग के थे। प्राचीन आर्य समुदाय के कुछ सबसे प्रसिद्ध शक्तिशाली राजा शूद्र थे।” शूद्र या अनुसूचित जाति के भाई बंधु हमारे अंग हैं। वे हमारे पूर्वज अग्रज थे और हैं लेकिन उन्हें सामाजिक दृष्टि में अब भी पर्याप्त सम्मान नहीं मिलता। शूद्र शब्द भीतर हृदय में कांटे की तरह चुभता है। दुनिया अंतरिक्ष नाप रही है। भारत भी चन्द्र और मंगल ग्रह तक पहुंच गया है। हम सब विश्व का अंग हैं। भारत परिवार के भी अंग हैं। हम सब सभी वर्गो को अपनाएं। इसी अपनेपन में भारत की ऋद्धि सिद्धि समृद्धि की गारंटी है। (लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।)
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विश्व जल दिवस (22 मार्च) पर विशेष डाॅ. रमेश ठाकुर बेपानी होता समाज अगला विश्वयुद्व पानी के लिए होने का संकेत देने लगा है। गाजियाबाद में 20 मार्च को दूषित पानी पीने से एक साथ सौ बच्चे बीमार पड़ गए। ऐसी घटनाओं को हम लगातार इग्नोर करते जा रहे हैं। जिन जगहों पर पानी की कभी बहुतायता होती थी, जैसे तराई के क्षेत्र, वहां की जमीन भी धीरे-धीरे बंजर हो रही है। नमीयुक्त तराई क्षेत्र में कभी एकाध फिट के निचले भाग में पानी दिखता था, वहां का जलस्तर कइयों फिट नीचे खिसक गया है। राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में पानी का जलस्तर तो पाताल में समा ही गया है। किसी को कोई परवाह नहीं, सरकारें आ रही हैं और चली जा रही हैं। कागजों में योजनाएं बनती हैं और विश्व जल दिवस जैसे विशेष दिनों पर पानी सहेजने को लंबे-चौड़े भाषण होते हैं और अगले ही दिन सबकुछ भुला दिए जाते हैं। इस प्रवृत्ति से बाहर निकलना होगा और गंभीरता से पानी को बचाने के लिए मंथन करना होगा। वरना, वह कहावत कभी भी चरितार्थ हो सकती है- ''रहिमन पानी राखिए, पानी बिन सब सून, पानी गये ना उबरे, मोती मानस सून।'' बात ज्यादा पुरानी नहीं है। कोई एकाध दशक पहले तक छोटे-छोटे गांवों में नदी-नाले, नहर, पौखर और तालाब अनायास ही दिखाई पड़ते थे, अब नदारद हैं। गांव वाले उन जगहों को पाटकर किसान खेती किसानी करने लगे हैं। एक जमाना था जब बारिश हो जाने पर गांववासी उन स्थानों का जलमग्न का दृश्य देखा करते थे। गांव के गांव एकत्र हो जाया करते थे। पर, अब ऐसे दृश्य दूर-दूर तक नहीं दिखते। जल संरक्षण के सभी देशी जुगाड़ कहे जाने वाले ताल-तलैया, कुएं, पोखर सबके सब गायब हैं। कुछके बचे हैं तो वह पानी के लिए तरसते हैं, सूखे पड़े हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि बीते दस सालों में देशभर में करीब दस पंद्रह हजार नदियां गायब हो गई हैं। करीब इतने ही छोटे-बड़े नालों का पानी सूख गया है, जो अब सिर्फ बारिश के दिनों में ही गुलजार होते हैं। नदी-तालाबों के सूखने से बेजुबान जानवरों और पक्षियों को भारी नुकसान हुआ है। कहा जाता है ग्रामीण क्षेत्रों में अब दुलर्भ पक्षी दिखाई नहीं पड़ते, लेकिन उनके न रहने के मूल कारणों की नब्ज कोई नहीं पकड़ता। ऐसे पक्षी बिना पानी के चलते बेमौत मरे हैं। कालांतर से लेकर प्राचीनकाल तक दिखाई देने वाले पक्षी बिना पानी के ही मौत के मुंह में समाए हैं। ऐसी प्रजातियों के खत्म होने का दूसरा कोई कारण नहीं है, पानी का खत्म होना है। ध्यान भटकाने के लिए भले ही कोई कुछ भी दलीलें दें। पक्षियों की भांति अब इंसान भी साफ पानी नहीं मिलने से मरने लगे हैं। विश्व में कई सारे देश ऐसे हैं, जहां पीने का स्वच्छ जल न होने के कारण लोग जीवन त्याग रहे हैं। स्वच्छ जल संरक्षण और इस समस्या का समाधान खोजने के लिए ही विश्व जल दिवस पर हम सबको प्रण लेना होगा। ये तय है कि पानी संरक्षण का काम सिर्फ सरकारों पर छोड़ देने से समस्या का समाधान नहीं होगा? सामाजिक स्तर पर भी चेतना हम सबको मिलकर जगानी होगी। इस मुहिम में सरकार से ज्यादा आमजन अपनी भूमिका निभा सकेंगे। जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग की हालिया रिपोर्ट बताती है कि मानसून के मौसम में भी देश के तकरीबन जलाशय सूखे गए। इससे साफ है कि वर्षाजल को एकत्र करने की बातें भी कागजी हैं। बर्षा का पानी भी अगर हम बचा लें, तो संभावित खतरों से बचे रहेंगे। लेकिन बात वही आकर रुक जाती है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? याद आता है, वर्षा जल संरक्षण के लिए पूर्ववर्ती सरकारों ने अभियान भी चलाया था, जो बाद में बेअसर साबित हुआ। यूं कहें कि जल संचयन और जलाशयों को भरने के तरीकों को आजमाने की परवाह उस दौरान ईमादारी से किसी से नहीं की। समूचे भारत में 76 विशालकाय और प्रमुख जलाशय हैं जिनकी बदहाली चिंतित करती है। इन जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट रोंगटे खड़ी करती है। रिपोर्ट के मुताबिक एकाध जलाशयों को छोड़कर बाकी सभी मण्याम् स्थिति में हैं। उत्तर प्रदेश के माताटीला बांध व रिहन्द, मध्य प्रदेश के गांधी सागर व तवा, झारखंड के तेनूघाट, मेथन, पंचेतहित व कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राण प्रताप सागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, उड़ीसा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयुराक्षी व कंग्साबती जलाशय सूखने के एकदम कगार पर हैं। गौरतलब है, पूर्ववर्ती सरकारों ने इन जलाशयों से बिजली बनाने की भी योजना बनाई थी, जो कागजों में ही सिमट कर रह गईं। योजना के तहत थोड़ा बहुत काम आगे बढ़ा भी था जिनमें चार जलाशय ऐसे हैं जो पानी की कमी के कारण लक्ष्य से भी कम विद्युत उत्पादन कर पाए। सोचने वाली बात है जब पर्याप्त मात्रा में पानी ही नहीं होगा, बिजली कहां से उत्पन्न होगी। तब जलाशयों को बनाने के शायद दो मकसद थे। अव्वल, वर्षा जल को एकत्र करना, दूसरा, जलसंकट की समस्याओं से मुकाबला करना। इनका निर्माण सिंचाई, विद्युत और पेयजल की सुविधा के लिए हजारों एकड़ वन और सैंकड़ों बस्तियों को उजाड़कर किया गया था, मगर वह सभी सरकार की लापरवाही के चलते बेपानी हो गए हैं। केंद्रीय जल आयोग ने इन तालाबों में जल उपलब्धता के जो ताजा आंकड़े दिए हैं, उनसे साफ जाहिर होता है कि आने वाले समय में पानी और बिजली की भयावह स्थिति होगी। इन आंकड़ों से यह साबित होता है कि जल आपूर्ति विशालकाय जलाशयों (बांध) की बजाए जल प्रबंधन के लघु और पारंपरिक उपायों से ही संभव है, न कि जंगल और बस्तियां उजाड़कर। बड़े बांधों के अस्तित्व में आने से एक ओर तो जल के अक्षय स्रोत को एक छोर से दूसरे छोर तक प्रवाहित रखने वाली नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। पानी की जितनी कमी होती जाएगी, बिजली का उत्पादन भी कम होता जाएगा। इसलिए पानी को बचाने के लिए जनजागरण और बड़े स्तर पर प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है। नहीं तो गाजियाबाद जैसी खबरें आम हो जाएंगी, जहां गंदा पानी पीने से बच्चे बीमार पड़ गए। पानी के लिए अगला विश्वयुद्व न हो, इसके लिए हमें सचेत होना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. प्रभात ओझा मुंबई पुलिस कमिश्नर पद से होमगार्ड में भेज दिए गए आईपीएस अफसर परमवीर सिंह ने महाराष्ट्र के अपने मंत्री पर ही भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए हैं। एक मातहत निर्वाचित नेता पर आरोप लगाए, यह बात जितनी गंभीरता से ली जानी चाहिए, अब वैसा होता नहीं। वे दौर हवा हो गए जब मातहतों की लापरवाही मात्र से मंत्री इस्तीफा दे दिया करते थे। ऐसा पहला उदाहरण तत्कालीन रेलमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का है, जो बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने थे। साल 1956 में तमिलनाडु के अरियालुर में एक भीषण ट्रेन दुर्घटना में 142 लोगों की मौत हो गई थी। जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में रेलमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने हादसे की नैतिक जिम्मेदारी ली और अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। इस घटना के 43 साल बाद भी 1999 में गैसाल ट्रेन हादसे में 290 लोग मारे गए। तब के रेलमंत्री नीतीश कुमार ने भी अपना पद छोड़ दिया था। तब वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे। अलग बात है कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के रेलमंत्री नीतीश कुमार की तरह उसी सरकार की रेलमंत्री ममता बनर्जी के कार्यकाल में भी दो रेल हादसे हुए। तब ममता के इस्तीफा देने पर वाजपेयी ने उसे स्वीकार नहीं किया। शायद ये तर्क रहे हों कि छोटी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। शायद यह भी कि मातहतों के कारण एक ही विभाग में मंत्री का इस्तीफा बार-बार क्यों हो। सम्भवतः इसी आधार पर बाद में सुरेश प्रभु ने हादसों की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए जब इस्तीफा दिया, स्वीकार नहीं हुआ।जो भी हो, ये मामले सिर्फ मातहतों के कारण नैतिक जिम्मेदारी लेने के ही हैं। अब तो मातहत ये आरोप लगा रहे हैं कि मंत्री धन वसूली के लिए अपने अधीनस्थों पर दबाव बनाते हैं। मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर परमवीर सिंह ने राज्य के गृहमंत्री अनिल देशमुख पर इसी तरह के आरोप लगाए हैं। ऐसा नहीं कि मंत्रियों पर लगे आर्थिक भ्रष्टाचार को हमेशा अनदेखा किया गया हो। साल 1958 में हरिदास मूंदड़ा ने सरकार में अपने रसूख के बल पर अपनी कंपनियों के शेयर एलआईसी को भारी दाम पर खरीदने को मजबूर किया था। इससे एलआईसी को बड़ा झटका लगा। आरोप वित्तमंत्री टीटी कृष्णामचारी पर भी लगे और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके विपरीत पंडित नेहरू के ही प्रधानमंत्री रहते जीप घोटाले की अनदेखी ने भ्रष्टाचार को दबाने अथवा आरोप लगाने वालों की परवाह न करने की परंपरा डाल दी। वीके कृष्ण मेनन इसके पहले उदाहरण हैं। वे ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त थे। भारतीय सेना के लिए ब्रिटेन से जीपों की खरीद हुई। कृष्ण मेनन ने समझौते पर खुद हस्ताक्षर किए थे। जीपों के भारत पहुंचने पर उन्हें काम के लायक ही नहीं समझा गया। विपक्ष ने संसद में हंगामा किया, पर नेहरू नहीं माने। कांग्रेस ने ललकारा कि विपक्ष चाहे तो इसे अगले चुनाव में इसे मुद्दा बना ले। बात इतनी ही नहीं रही। कृष्ण मेनन बाद में देश के रक्षामंत्री भी बनाए गए। अलग बात है चीन के साथ लड़ाई में देश की हार के बाद उन्हें रक्षामंत्री का पद छोड़ना पड़ा, पर एक ही साथ वे नैतिकता और भ्रष्टाचार का उदाहरण बन गए। नेहरू के ही समय पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरो पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। जांच कराई गई। अजीब परिणाम सामने आया कि कैरो की पत्नी और बेटे ने धन लिए। इसमें कैरो का कोई हाथ नहीं है। पंडित नेहरू को लगा था कि पंजाब में अकालियों से निपटने में कैरो ही सक्षम हैं। राजनीतिक मजबूरी में भ्रष्टाचार के लोकाचार बन जाने के और भी उदाहरण हैं। एक दौर आया कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘करप्सन’ को ‘वर्ल्ड फेनोमेना’ ही मान लिया। राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री रहते माना कि वे केंद्र से जो एक रुपया भेजते हैं, उसमें सिर्फ 15 पैसे ही उन तक पहुंचते हैं, जिनके लिए भेजे जाते हैं। आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जरूर दावा करते हैं कि ‘डिजिटल एज’ में सबकुछ खुला है और लोगों तक मदद जनधन खातों के जरिए पूरा के पूरे पहुंच जाते हैं। माना कि केंद्र में बैठे लोगों पर संस्थागत घोटाले के आरोप नहीं हैं, पर देश से यह खत्म हो गया, इसका दावा भी नहीं कर सकते। भ्रष्टाचार के संस्थागत उदाहरण कांग्रेस के ही दौर में हों, ऐसा नहीं है। कांग्रेस की कारस्तानियों के खिलाफ जेपी के नेतृत्व में लड़ने वाले भी घिरे हुए हैं। लालू प्रसाद यादव इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। बिहार में नई सरकार के बनते ही एक ही दिन बाद शिक्षा मंत्री मेवालाल को अपना पद छोड़ना पड़ा। मेवालाल पर कुलपति रहते अध्यापकों और जूनियर वैज्ञानिकों की नियुक्ति में अनियमितता के आरोप थे और जांच चल रही थी। इसके पहले नीतीश कुमार मंत्रिमंडल से ही जीतनराम मांझी पर आरोप लगे थे और उन्हें पद छोड़ना पड़ा था। देश का शायद ही कोई प्रदेश हो, जहां मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे हों, पर इस्तीफा हर बार नहीं हुआ। सम्भव है कि महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार के गृहमंत्री अनिल देशमुख के मामले में भी कोई उदाहरण अलग तरह का नहीं बन सके। सवाल तो यह कि मुबई जैसे देश के बड़े शहर में हजारों रेस्टोरेंट और बार आदि से धन उगाही के आरोप वाले संस्थागत मामलों का खात्मा कब होगा। आरोप सच साबित होंगे, उम्मीद कम ही है। आखिर संस्थागत भ्रष्टाचार में राजनेताओं के साथ अफसर भी तो होते हैं। जो भी हो, नजरें इसबार महाराष्ट्र की तरफ हैं। (लेखक, हिन्दुस्थान समाचार के न्यूज एडिटर हैं।)
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डॉ. दिलीप अग्निहोत्री इस समय हर तरफ योगी मॉडल चर्चा में है। चार वर्षों में उत्तर प्रदेश में उनकी सरकार की उपलब्धियां अभूतपूर्व रही है। अनेक योजनाओं के क्रियान्वयन में यूपी नम्बर वन बना है। यही कारण है कि योगी आदित्यनाथ जब अन्य प्रदेशों में चुनाव प्रचार के लिए जाते है तो वहां के लोग उनकी बातों पर विश्वास करते हैं। पार्टी को इसका लाभ मिलता है। बिहार के बाद बंगाल व असम में भी वही उत्साह दिखाई दे रहा है। योगी आदित्यनाथ ने पश्चिम बंगाल के बाद असम में भाजपा की चुनाव रैलियों को संबोधित किया। पश्चिम बंगाल में उनके निशाने पर तृणमूल कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी व कांग्रेस पार्टी रही। इन पार्टियों के नाम तो अलग-अलग हैं लेकिन इनकी विचारधारा व शासन संचालन के अंदाज में कोई अंतर नहीं रहा। योगी के एक तीर ने इन तीनों पार्टियों को छलनी किया। इनके सेक्युलर विचार में तुष्टिकरण रहा है। इसके चलते यहां विदेशी घुसपैठियों से सहानुभूति दिखाई गई। अब यही लोग पश्चिम बंगाल के लोगों के संसाधनों में हिस्सेदारी कर रहे हैं। ममता बनर्जी सरकार अपनी राजनीति के कारण केंद्र की कल्याणकारी योजनाओं को लागू नहीं कर रही हैं। योगी आदित्यनाथ यह बताना चाहते हैं कि पश्चिम बंगाल का चुनाव, मात्र सरकार बदलने के लिए नहीं है, यह व्यवस्था में बदलाव का भी अवसर है। विपक्ष की तीनों पार्टियां व्यवस्था में बदलाव नहीं कर सकती। क्योंकि इनकी विचारधारा ही इसके अनुरूप नहीं है। ये यथास्थिति के हिमायती हैं। जबकि भाजपा सत्ता के साथ व्यवस्था में बदलाव करती है। वह सबका साथ, सबका विश्वास के विचार पर आधारित सुशासन की स्थापना करती है। इस संकल्प को योगी आदित्यनाथ असम से जोड़ते हैं। असम में उन्होंने कहा कि भाजपा सरकार ने इस प्रदेश में व्यवस्था बदली है। यही कारण है कि यह प्रदेश विकास की मुख्यधारा में शामिल हुआ है। यहां विदेशी घुसपैठियों के विरुद्ध सख्ती दिखाई गई। यहां के लोगों को संसाधनों का लाभ मिलना सुनिश्चित कराया गया। दोनों ही प्रदेशों में योगी की जनसभाओं में भारी भीड़ उमड़ी। यहां उपस्थित सभी लोगों में उत्साह देखा गया। योगी कहते हैं कि वह श्रीराम व श्रीकृष्ण की जन्मस्थली से असम व बंगाल की तपोभूमि पर आए हैं। आमजन जयश्री राम का उद्घोष करते हैं। बिहार, केरल आदि प्रदेशों में भी योगी के प्रति ऐसा ही उत्साह देखा गया था। उन्होंने असम की होजाई विधानसभा, कलाईगांव विधानसभा, रंगिया विधानसभा क्षेत्र में चुनावी जनसभाओं को संबोधित किया। इससे पहले योगी गुवाहटी स्थित मां कामाख्या मंदिर पहुंचे। यहां उन्होंने दर्शन करने के साथ पूजा-पाठ किया। बंगाल में योगी ने कहा था कि रैली से पहले अब ममता मां चंडी के दर्शन कर रही हैं, ये परिवर्तन नहीं तो और क्या है। योगी आदित्यनाथ ने कहा कि शंकरदेव ने हमें घुसपैठ की समस्या के प्रति सचेत किया था और इसलिए कांग्रेस शंकरदेव को कभी बर्दाश्त नहीं कर पाई। कांग्रेस की नीति समृद्धि नहीं, तुष्टिकरण और येन-केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करने की थी। इसकी कीमत लंबे समय तक असमवासियों को उग्रवाद के रूप में चुकानी पड़ी। कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति के कारण असम को उग्रवाद के रूप में कीमत चुकानी पड़ी। कामख्या मंदिर में जय श्रीराम के नारे सुनकर आनंद मिला। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में श्रीराम मंदिर का सपना पूरा हुआ। राम के बिना भारत का काम नहीं चल सकता। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में राममंदिर का सपना पूरा हुआ। उन्होंने कहा कि भारत का काम राम के बिना नहीं चल सकता। योगी आदित्यनाथ ने कहा कि अब तीन तलाक को लेकर कानून बनाया गया। तीन तलाक कहने वाले लोग जेल जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि मोदी के नेतृत्व में जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाई गई, अब असम का व्यक्ति भी वहां जाकर रह सकता है। बहुत सारे क्षेत्रों में घुसपैठियों ने कांग्रेस की नीतियों के चलते पैठ बनाकर राष्ट्र के लिए खतरा पैदा कर दिया था। कांग्रेस की नीति आपकी खुशहाली नहीं रही। भाजपा सरकार सबका साथ सबका विकास कर रही है, लेकिन तुष्टीकरण किसी का नहीं। इसी सिद्धांत के साथ आज सरकार काम कर रही है। पहले पूर्वोत्तर विकास की आस देखता रहता था। पहले की सरकारों के एजेंडे में पूर्वोत्तर का विकास कभी नहीं रहा। लेकिन नरेंद्र मोदी ने इस धारणा को बदला। आज इसका परिणाम असम समेत पूरा पूर्वोत्तर देख रहा है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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अरविन्द मिश्रा विगत दिनों हमने देखा कि ग्रेटा थनबर्ग, रिहाना एवं मियां खलीफा को चेहरा बनाकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की साख धूमिल करने का कुत्सित प्रयास किस तरह संगठित रूप से चलाया गया। राजनीतिक स्वार्थ एवं अपने एजेंडे को स्थापित करने के उद्देश्य से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के योग व संस्कृति को अपमानित करने का प्रयास नया नहीं है। हर बार की तरह भारत विरोधी नकारात्मक छवि बनाने के ऐसे प्रयासों को एकबार पुन: बड़ा झटका लगा है। इसबार भारत की ऊर्जा व जलवायु परिवर्तन के समाधान से जुड़ी नीतियों को वैश्विक रूप से समय की आवश्यकता करार दिया गया है। यह आह्वान किसी और ने नहीं बल्कि ऊर्जा क्षेत्र की अग्रणी अमेरिकी संस्था सेरावीक-इंन्फॉर्मेशन हैंडलिंग सर्विस (आईएचएस) के द्वारा किया गया है। इसी क्रम में कुछ दिनों पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सेरावीक ग्लोबल एनर्जी एंड एनवायरनमेंट लीडरशिप अवार्ड से सम्मानित किया गया। किसी भी पुरस्कार की महत्ता उसे प्रदान किए जाने के उद्देश्यों की पूर्ति में किए गए कार्यों को प्रोत्साहित करने में समाहित होती है। सेरावीक वैश्विक ऊर्जा एवं पर्यावरण नेतृवकर्ता पुरस्कार की अहमियत जलवायु संकट के दौर में इसलिए और बढ़ जाती है क्योंकि यह ईंधन के वैकल्पिक विकास व पर्यावरण संरक्षण की सफलताओं को व्यक्त करता है। ऐसे में यह पुरस्कार भारत की उन मौजूदा ऊर्जा नीतियों का भी अभिनंदन है, जो विश्व को समावेशी विकास के मार्ग पर चलने के लिए अनुप्रेरित कर रही हैं। ऊर्जा से अंत्योदय की इस उपलब्धि पर चर्चा से पहले इंडिया एनर्जी फोरम सेरावीक 2019 से जुड़ी प्रेरक घटना याद आती है। दिल्ली में आयोजित इस इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए तय आतिथ्य क्रम में मिट्टी के कुल्हड़ में चाय परोसी जा रही थी। ऊर्जा क्षेत्र के इतने बड़े अंतराष्ट्रीय समागम में जहां विश्व के कोने-कोने से तेल व गैस क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सीईओ और प्रतिनिधि शिरकत कर रहे थे, वहां स्वदेशी का यह आग्रह भारत की पर्यावरणीय प्रतिबद्धता का अनुपम दृश्य था। इस कार्यक्रम में शिरकत करने सेरावीक के संस्थापक चेयरमैन डॉ. डेनियल येरगिन भी भारत पधारे थे। कार्यक्रम में व्यस्त सत्रों के बीच येरगिन चाय का कुल्हड़ हाथ में लेकर एक सन्तोष भरा अभिवादन वहां उपस्थित लोगों की ओर प्रेषित किया। ऊर्जा विशेषज्ञों ने येरगिन से जब वैश्विक ईंधन परिदृश्य व पर्यावरणीय बदलावों में भारत की भूमिका पर उनकी राय जाननी चाही तो उन्होंने कुल्हड़ की ओर संकेत करते हुए कहा कि सही अर्थों में पर्यावरण के प्रति भारत जैसी प्रतिबद्धता हर देश को दिखानी होगी। 1983 में स्थापित कैम्ब्रिज एनर्जी रिसर्च एसोसिएट्स वीक (सेरावीक) पिछले कुछ दशकों में ही ऊर्जा क्षेत्र की नॉलेज शेयरिंग और अभिमत निर्माण की प्रतिनिधि संस्था बनकर उभरी है। सेरावीक दुनिया भर में ऊर्जा संबंधित नीतियों व प्रयोगों का पर्यावरणीय दक्षता के आधार पर विश्लेषण करती है। हर साल अमेरिका के ह्यूस्टन में आयोजित होने वाले सेरावीक के वार्षिक सम्मेलन में वैश्विक प्रतिनिधि ऊर्जा व जलवायु क्षेत्र की चुनौतियों व उसके समाधान पर चर्चा करते हैं। इस साल मार्च के पहले सप्ताह में सेरावीक का वार्षिक सम्मेलन वर्चुअल माध्यम से आयोजित किया गया, जहां पीएम मोदी को यह सम्मान प्रदान किया गया। इस वर्ष सेरावीक के वार्षिक सम्मेलन का विषय ‘नया परिदृश्य : ऊर्जा, जलवायु और भविष्य के चित्रण’ थीम पर केंद्रित था। सेरावीक के संस्थापक व कॉफ्रेंस के अध्यक्ष डेनियल येरगिन ने इस अवसर पर कहा कि ऊर्जा संक्रमण के दौर में भारत का पर्यावरण संवर्धन के साथ ऊर्जा सुरक्षा के लक्ष्य हासिल करना भावी पीढ़ी लिए अच्छा संकेत है। देश और दुनिया की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को उनके विजन के लिए पुरस्कृत करने से ऊर्जा व जलवायु पर मानव केंद्रित पहल को प्रोत्साहन मिलेगा। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सामंजस्य पूर्ण नीतियों का पक्षधर रहा भारत आज पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्यक वैश्विक भागीदारी के केंद्र में है। मौजूदा दौर में जब ऊर्जा व पर्यावरण से संबंधित मुद्दों को लेकर दिग्गज अर्थव्यवस्थाओं में हितों का टकराव देखने को मिल रहा है, ऐसे समय में भारत का समाधान परक नीतियों के साथ आगे आना नई राह दिखाने वाला है। हमने 2016 में पेरिस समझौते पर न सिर्फ हस्ताक्षर किए, बल्कि ट्रंप कार्यकाल में जब अमेरिका पेरिस समझौते से बाहर हुआ उस वक्त भी पीएम मोदी जलवायु परिवर्तन को लेकर विकसित और विकासशील देशों को एकजुट करने में जुटे रहे। कार्बन तटस्थता को लेकर भारत के लक्ष्य अत्यंत महात्वाकांक्षी हैं। हमने 2005 के स्तर की तुलना में इस दशक के अंत तक कार्बन उत्सर्जन में 30 से 35 प्रतिशत की कमी का लक्ष्य लिया है। संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में भारत बिजली उत्पादन का 40 प्रतिशत हिस्सा गैर जीवाश्म आधारित ईंधन पर केंद्रित करने की प्रतिबद्धता पहले ही प्रगट कर चुका है। फ्रांस के सहयोग से स्थापित अंतर्राष्ट्रीय सोलर एलायंस के गठन के पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सौर गठबंधन पहल ने 2030 तक सौर ऊर्जा माध्यम से एक ट्रिलियन वाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य तय किया है। इन आंकड़ों को हासिल करने के लिए भारत ने परंपरागत ईंधन नीति को क्लीन फ्यूल की ओर उन्मुख करते हुए साहसिक निर्णय लिए हैं। आज गैस आधारित अर्थव्यवस्था की ओर हम जिस प्रभावी गति से कदम बढ़ा रहे हैं, उससे इस दशक के अंत तक अपनी ऊर्जा खपत में प्राकृतिक गैस की हिस्सेदारी को 15 प्रतिशत के स्तर पर ले जाने में सफल होंगे। वन नेशन वन गैस ग्रिड विजन पर आधारित परियोजनाओं का हाल के दिनों में परिचालन स्तर में आना इस ओर बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। पिछले पांच वर्षों में भारत ने नवीनीकृत ऊर्जा संसाधनों के विकास में लंबी छलांग लगाई है। कार्बन उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य अक्षय ऊर्जा संसाधनों के विकास पर ही निर्भर है। वर्तमान में कुल राष्ट्रीय बिजली उत्पादन में अक्षय ऊर्जा स्रोतों की लगभग 90 हजार मेगावाट से अधिक हिस्सेदारी है। एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक पिछले पांच वर्ष में हमारी नवीनीकरण ऊर्जा क्षमता 162 प्रतिशत बढ़ी है। केंद्र सरकार ने 2022 तक 175 गीगावाट और 2035 तक 450 गीगावाट अक्षय ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा है। इसी क्रम में पीएम मोदी और उनके स्वीडीश समकक्ष स्टीफन लोफवेन ने हाल ही में जैव अपशिष्ट से ऊर्जा ऊत्पादन की दिशा में द्विपक्षीय सहयोग प्रगाढ़ करने पर जोर दिया है। गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के विकास के साथ वनीकरण कार्यक्रम को समानांतर रूप से गति प्रदान की जा रही है। इससे निकट भविष्य में 260 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि को उर्वर भूमि में तब्दील करने का लक्ष्य है। घरेलू मोर्चे पर प्रदूषण नियंत्रक ऊर्जामयी नीतियों के साथ ही भारत जी-20 समेत हर मंच पर विकासशील देशों के हितों की पुरजोर वकालत करता रहा है। भारत ने जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से मुकाबले के लिए जलवायु न्याय के उस मार्ग पर आगे बढ़ने का आह्वान किया है, जिसमें विकासशील व गरीब देशों के ऊर्जा जरुरत का भी समाधान किया जाए। पिछले साल जी-20 के जलवायु सम्मेलन में पीएम मोदी पर्यावरणीय अपकर्षण से निपटने के लिए एकीकृत, व्यापक और समग्र तंत्र की स्थापना को समय की आवश्यकता करार दे चुके हैं। दुनिया भर में कुल कार्बन उत्सर्जन में चीन और अमेरिका एक-दूसरे को पछाड़ते नजर आते हैं। इसके बाद यूरोपीय यूनियन देशों का नंबर आता है। चीनी ड्रैगन तो लगातार अपनी ऊर्जा जरूरत के लिए कोयला आधारित संसाधनों का प्रयोग बढ़ा रहा है। भारत विकास की तीव्र आकांक्षाओं के बीच ऊर्जा खपत में विश्व के अग्रणी देशों में शुमार है। बावजूद इसके हम वैश्विक जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक में शीर्ष दस देशों में स्थान बनाने में सफल हुए हैं। ऐसी परिस्थिति में जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे पर दूसरी आर्थिक महाशक्तियों का सिर्फ अनुयायी बनने के बजाय भारत का नेतृत्वकर्ता की भूमिका में आना, हमारी उस महान संस्कृति का प्रकटन है जो प्रकृति और पर्यावरण के पारस्परिक सहकारिता पर आधारित है। यह एक ऐसी पर्यावरणीय प्रतिबद्धता है जिसमें पर्यावरण संरक्षण के लिए हर भारतीय नेतृत्वकर्ता की भूमिका में आज से नहीं सनातन काल से है। (लेखक ऊर्जा मामलों के जानकार हैं।)
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वर्षा जल संग्रह को लेकर सामूहिक चेतना की जरूरत देवेन्द्रराज सुथार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने `मन की बात' कार्यक्रम में पानी के संरक्षण की अपील करते हुए कहा कि वर्षा ऋतु आने से पहले ही हमें जल संचयन के लिए प्रयास शुरू कर देने चाहिए। पानी एक तरह से पारस से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। कहा जाता है पारस के स्पर्श से लोहा, सोने में परिवर्तित हो जाता है। वैसे ही पानी का स्पर्श जीवन के लिए जरूरी है, विकास के लिए जरूरी है। दरअसल, बारिश के पानी को विभिन्न स्रोतों व प्रकल्पों में सुरक्षित व संग्रहित रखना व करना वर्षा जल संचयन कहलाता है। वर्षा जल संचयन वर्षा जल के भंडारण को संदर्भित करता है, ताकि जरूरत पड़ने पर बाद में इसका उपयोग किया जा सके। इस तरह व्यापक जलराशि को एकत्रित करके पानी की किल्लत को कम किया जा सकता है। भारत में पेयजल संकट प्रमुख समस्या है। भूमिगत जल का स्तर लगातार नीचे जा रहा है और इस वजह से पीने के पानी की किल्लत बढ़ रही है। सिकुड़ती हरित पट्टी इसका मुख्य कारण है। पेड़ों से जहां पर्याप्त मात्रा में वर्षा हासिल होती है, वहीं यही पेड़ भूमिगत जल का स्तर बनाये रखने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन द्रुत गति से होने वाले विकास कार्यों ने हमारी हरित पट्टी की तेजी से बलि ली है। उसी का नतीजा है कि न सिर्फ भूमिगत जल का स्तर नीचे गया है, बल्कि वर्षा में भी लगातार कमी आई है। गौरतलब है कि भारत में दो सौ साल पहले लगभग 21 लाख, सात हजार तालाब थे। साथ ही, लाखों कुएं, बावड़ियां, झीलें, पोखर और झरने भी। हमारे देश की गोदी में हजारों नदियां खेलती थीं, किंतु आज वे नदियां हजारों में से केवल सैकड़ों में ही बची हैं। वे सब नदियां कहां गई, कोई नहीं बता सकता। बढ़ते भूजल की वजह से धरती की सतह धंसने लगी है। इसका परिणाम दुनिया के 63.5 करोड़ लोगों को भुगतना होगा। यह दावा हाल ही में हुए शोध में किया गया। साइंस जर्मन में छपे इस शोध के मुताबिक, जमीन के नीचे मिलने वाले पानी के दोहन के चलते 2040 तक दुनिया की 19 फीसदी आबादी पर इसका असर होगा। इसमें भारत, चीन और इंडोनेशिया जैसे देश शामिल हैं। इसके चलते विश्व की 21 प्रतिशत जीडीपी पर भी असर पड़ेगा। अनुमान है कि जिस तरह से कृषि पर दबाव बढ़ रहा है और इंसान अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए तेजी से भूजल का दोहन कर रहा है, उसका असर धरती की सतह पर पड़ रहा है। इसका सबसे ज्यादा असर एशिया में देखने को मिलेगा। साथ ही, इससे करीब 7 करोड़ 14 लाख रुपये का नुकसान होगा। शोध के अनुसार दुनिया के 34 देशों में 200 से ज्यादा जगह पर भूजल के अनियंत्रित दोहन के कारण जमीन धंसने के सबूत मिले हैं। इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में 2.5 मीटर जमीन धंस चुकी है। ईरान की राजधानी तेहरान में कई जगह जमीन 25 सेंटीमीटर प्रति साल की दर से धंस रही है। धरती के नीचे एक निश्चित दूरी के बाद पानी मौजूद रहता है। इसका अत्यधिक मात्रा में दोहन करने पर एक बड़ा हिस्सा स्थान खाली हो जाता है। जब इस भूमि में दबाव पड़ता है तो जमीन धंस जाती है। ऐसे इलाके में यदि कोई आबादी बसी हो तो यह और भी खतरनाक हो सकता है। गौरतलब है कि भूजल संसाधनों का 2011 में किये गए नमूना मूल्यांकन के अनुसार, भारत में 71 जिलों में से 19 में भूजल का अत्यधिक दोहन किया गया है। जिसका अर्थ है कि जलाशयों की प्राकृतिक पुनर्भरण की क्षमता से अधिक जल की निकासी की गई है। 2013 में किये गए आकलन के अनुसार जिसमें जिलों के ब्लॉकों को शामिल किया गया और पाया गया कि यहां का 31 प्रतिशत जल खारा हो गया था। जल प्रबंधन सूचना के अनुसार भारत में साठ करोड़ लोग गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। अधिकांश बीमारियों का कारण दूषित जल ही है। लोगों को जो पानी पीने के लिए मिलता है वो आचमन के लायक भी नहीं रहता। पानी मात्र देखने के लिए होता है, पीने और खाने में उसकी गुणवत्ता नगण्य रहती है। पानी की कमी और प्रदूषण का अनेकों प्रत्यक्ष कारण रसायनिक खाद, कम वर्षा, ग्लोबल वार्मिंग, पोखर कुंआ का खात्मा, अनावश्यक खनन, अंधाधुंध फैक्ट्री का बनना आदि है। यह एक विचारणीय प्रश्न है क्या होगा जब भूजल का भंडार खत्म हो जाएगा? जल जीवन का अनिवार्य तत्व है। जल पीना जैविक आवश्यकता है तो दूसरी ओर जल स्नान, आचमन, पवित्रता की प्यास है। ध्यातव्य है कि जल एक प्राकृतिक और असीमित संसाधन है, किंतु पीने योग्य जल की मात्रा सीमित है। पृथ्वी की सतह का 71 प्रतिशत जल से ढंका हुआ है जिसका 97 प्रतिशत भाग लवणीय जल के रूप में तथा शेष 3 प्रतिशत भाग अलवणीय जल के रूप में विद्यमान है, किंतु इसका अधिकांश भाग ग्लेशियरों में बर्फ के रूप में ठोसीकृत है। मानव के पीने योग्य जल की मात्रा अत्याधिक सीमित है। भारतीय संदर्भ में बात करें तो यहां विश्व जनसंख्या का 17 से 18 प्रतिशत भाग निवासरत है तथा जल संसाधनों की मात्रा केवल 4 प्रतिशत है, जिसका अधिकांश भाग मानव के अविवेकपूर्ण क्रियाकलापों के कारण सीमित और संदूषित होता जा रहा है। वर्षा जल संचयन कई मायनों में महत्वपूर्ण है। वर्षा जल का उपयोग घरेलू काम मसलन घर की सफाई प्रयोजनों, कपड़े धोने और खाना पकाने के लिए किया जा सकता है। वहीं औद्योगिक उपयोग की कुछ प्रक्रियाओं में इसका उपयोग किया जा सकता है। गर्मियों में वाष्पीकरण के कारण होने वाली पानी की किल्लत को 'पूरक जल स्रोत' के द्वारा कम किया जा सकता है। जिससे बोतलबंद पानी की किमतें भी स्थिर रखी जा सकेगी। यदि एक टैंक में पानी का व्यापक रूप से संचयन करे, तो साल भर पानी की पूर्ति के लिए हमें जलदाय विभाग के बिलों के भुगतान से निजात मिल सकती हैं। वहीं वर्षा जल संचयन को छोटे-छोटे माध्यमों में एकत्रित करके हम बाढ़ जैसे महाप्रयल से बच सकते हैं। इसके अतिरिक्त वर्षा जल का उपयोग भवन निर्माण, जल प्रदूषण को रोकने, सिंचाई करने, शौचालयों आदि कार्यों में बेहतर व सुलभ ढंग से किया जा सकता है। भारत की बढ़ती जनसंख्या के कारण जल की मांग में दिनोंदिन वृद्धि आंकी जा रही है। आए दिन देश में जल की कमी के कारण होने वाली घटनाएं हमारा ध्यान खींचती रहती हैं। ऐसी स्थिति में प्रत्येक मानव का दायित्व बनता है कि वो अपने हिस्से का पानी पहले ही संग्रहित करके रखे। राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों और गुजरात के कुछ इलाकों में पारंपरिक रूप से घर के अंदर भूमिगत टैंक बनाकर जल संग्रह का प्रचलन है, इस परंपरा को अन्य राज्यों में लागू कर हम इस गंभीरता को कम कर सकते हैं। कठोर कानून के द्वारा नदियों में छोड़े जाने वाले अपशिष्ट पर लगाम लगाकर जल प्रदूषण को रोका जा सकता है और वर्षा चक्र को बाधित होने से बचाया जा सकता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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भारत-उज्बेकिस्तान संयुक्त सैन्य अभ्यास पर चीन की नजर डॉ. प्रभात ओझा हमारे देश के सीमावर्ती राज्य उत्तराखंड के रानीखेत में एक छोटी-सी गतिविधि पड़ोसी चीन के लिए चिंता का सबब हो सकती है। इस जिले के चौबटिया क्षेत्र में इसे छोटी गतिविधि इसलिए कहा जाना चाहिए कि वहां भारत और उज्बेकिस्तान की सेनाएं नियमित सैन्य अभ्यास कर रही हैं। दोनों ओर से सिर्फ 45-45 सैनिकों की हिस्सेदारी से पहली नजर में अभ्यास को सामान्य ही कहा जा सकता है। इसके विपरीत इसपर चीन की नजर इस ऐतिहासिक तथ्य के कारण हो सकती है कि अभ्यास में भारत की ओर से वह कुमांऊ रेजीमेंट हिस्सा ले रही है, जिसने विपरीत परिस्थितियों के बावजूद 1962 की लड़ाई में चीन के सैनिकों को दिन में तारे दिखा दिए थे। पिछली 10 तारीख को शुरू और 19 मार्च तक चलने वाला अभ्यास आतंकवाद के खिलाफ साझा लड़ाई के गुर सीखने के लिए है। हाल के दिनों में म्यांमार के अंदर राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न होने के बाद से इस अभ्यास का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। म्यांमार ऐसा देश है, जो भारत और चीन के बीच स्थित है और एक समझौते के तहत हमारी सेनाएं आतंकियों के खिलाफ एक खास दूरी तक जाकर म्यांमार में भी कार्रवाई कर सकती हैं। गत एक फरवरी को वहां तख्ता पलट के बाद हिंसा में म्यांमार में लोगों का आरोप है कि सेना, चीन के अधिकारियों के इशारे पर चल रही है। बहरहाल, म्यांमार में भारत के मुकाबले अपना हित बढ़ाने की चिंता करने वाले चीन के लिए भारत और उज्बेकिस्तान का संयुक्त सैन्य अभ्यास खटकने वाला मसला है। सैन्य अभ्यास का नाम दुस्तलिक अथवा डस्टलिक रखा गया है। उज्बेकी भाषा में इसका अर्थ ‘दोस्ती’ है। यह दोस्ती भला चीन को क्यों सुहाएगी। भारत मध्य एशिया में चीन के बढ़ते असर को रोकना चाहता है और इस काम में उज्बेकिस्तान से दोस्ती बहुत काम की है। खासकर पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ हाल के तनाव के ठीक बाद दोनों देशों के सैन्य अभ्यास पर चीन नजर लगाए बैठा है। सैन्य अभ्यास के दौरान दोनों देशों की सेनाओं का अमेरिका से हाल ही में मिली सिग सोर राइफल का इस्तेमाल भी खास है। यह चीन के मुकाबले मध्य एशिया में अमेरिकी सहयोग का प्रतीक है। निश्चित ही इस अभ्यास से भारत और उज्बेकिस्तान के रिश्ते और अधिक मजबूत होंगे। उज्बेकिस्तान एशिया के केंद्र भाग में स्थित है। सोवियत संघ के विघटन के बाद अस्तित्व में आए इस देश से भारत के सम्बंध पहले से मजबूत हुए हैं। मध्य एशिया के अन्य देशों की तरह पुराने सोवियत संघ के इस हिस्से से भारत के सांस्कृतिक सम्बंध अत्यंत प्राचीन होने के प्रमाण मिलते ही हैं। अब वाणिज्यिक और रणनीतिक समझौते भी किए गए हैं। अभी 2019 में भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने उज्बेकिस्तान की यात्रा की थी, तो वहां के आंतरिक मामलों के मंत्री पुलत बोबोनोव ने भी भारत का दौरा किया था। राजनाथ सिंह की यात्रा के दौरान दोनों देशों ने सैन्य अभ्यास की शुरुआत की तो सैन्य चिकित्सा और सैन्य शिक्षा में सहयोग बढ़ाने के समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर भी किए। भारत ने उज्बेकिस्तान को संसाधनों की खरीद के लिए 40 मिलियन अमेरिकी डॉलर वाले रियायती ऋण देने की घोषणा की थी। इसी तरह उज्बेकी मंत्री की नयी दिल्ली यात्रा के दौरान आतंकवाद-रोधी, संगठित अपराध और मानव तस्करी के विरुद्ध सहयोग बढ़ाने पर समझौते हुए। दोनों देशों के प्रतिनिधियों ने तब सीमा सुरक्षा और आपदा प्रबंधन पर भी विचार किया था। उसी समय भारत ने अपने संस्थानों में उज्बेक सुरक्षाकर्मियों के प्रशिक्षण पर भी हामी भरी। तब से दोनों देशों के बीच सैन्य और रणनीतिक रिश्ते आगे ही बढ़े हैं। फिर उज्बेकिस्तान ने अपने प्राकृतिक संसाधन, विशेष रूप से तेल, प्राकृतिक गैस, यूरेनियम आदि के मामलों में भारत के लिए अपने द्वार खोलने के सकारात्मक संदेश दिए थे। ऐसे में भारत से दुश्मनी की हद तक जाने को आतुर चीन के दिल में भारत-उज्बेकिस्तान का मजबूत होता रिश्ता किसी भी तरह से अनुकूल नहीं होगा। यही कारण है कि दोनों देशों के मात्र 45-45 सैनिकों के संयुक्त अभ्यास को भी चीन में बड़ा मसला माना जा रहा है। (लेखक, हिन्दुस्थान समाचार की पाक्षिक पत्रिका ‘यथावत’ के समन्वय सम्पादक हैं।)
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योगेश कुमार गोयल वर्ष 2017 में बीबीसी की 100 प्रभावशाली महिलाओं में शामिल रही भारतीय महिला क्रिकेट टीम की कप्तान मिताली राज ने पूरी दुनिया में भारतीय महिला क्रिकेट का कद ऊंचा कर दिया है। 12 मार्च को लखनऊ के अटल बिहारी वाजपेयी एकाना क्रिकेट स्टेडियम में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ एकदिवसीय क्रिकेट सीरीज के दौरान तीसरे वनडे में 50 गेंदों पर अपनी 36 रनों की पारी में 35वां रन पूरा करते ही मिताली क्रिकेट के तीनों प्रारूपों को मिलाकर दस हजार अंतर्राष्ट्रीय रन बनाने वाली पहली महिला भारतीय और दुनिया की दूसरी महिला क्रिकेटर बन गई हैं। 38 वर्षीया मिताली से पहले इंग्लैंड की पूर्व कप्तान चार्लोट एडवर्ड्स ही यह उपलब्धि हासिल कर सकी हैं। चूंकि चार्लोट क्रिकेट के सभी प्रारूपों से संन्यास ले चुकी हैं, ऐसे में अपने अगले मैचों में मिताली का दुनियाभर में सर्वाधिक रन बनाने वाली महिला क्रिकेटर बनना तय है। मिताली के नाम अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में अब कुल 10001 रन दर्ज हैं और उनका औसत 46.73 है। महिला क्रिकेट में मिताली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि बल्लेबाजी का लगभग हर रिकॉर्ड उनके नाम है। अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में 22 वर्षों से भी ज्यादा समय से सक्रिय मिताली अबतक 212 वनडे, 89 टी-20 और 10 टेस्ट खेल चुकी हैं। वनडे में उन्होंने 6974, टी-20 में 2364 और टेस्ट में 663 रन बनाए हैं। वनडे मैचों में वह सात शतक और 54 अर्धशतक लगा चुकी हैं। फिलहाल 6974 रनों के साथ वनडे अंतर्राष्ट्रीय मैचों में उनके नाम दुनियाभर में सर्वाधिक रन बनाने का विश्व रिकॉर्ड दर्ज है। उनके बाद दूसरे नंबर पर 5992 रनों के साथ इंग्लैंड की चार्लोट एडवर्ड्स हैं। वनडे मैचों में सबसे ज्यादा बार 50 या उससे अधिक रन बनाने का रिकॉर्ड भी मिताली के ही नाम है। वह भारत की पहली ऐसी महिला कप्तान हैं, जिन्होंने दो वनडे विश्वकप के फाइनल में टीम इंडिया का प्रतिनिधित्व किया। वनडे मैचों में मिताली का औसत 50.53 का है जबकि टी-20 अंतर्राष्ट्रीय मैचों में उनका औसत 37.52 और टेस्ट मैचों में 51 का है। मिताली ने अपने अंतर्राष्ट्रीय कैरियर की शुरुआत 25 जून 1999 को लखनऊ के केडी सिंह बाबू स्टेडियम में वनडे क्रिकेट से की थी। अपने पहले ही वनडे मैच में मिताली ने 114 रनों की शानदार पारी खेलकर हर किसी को मंत्रमुग्ध कर दिया था। भारत ने कुल 258 रन बनाकर वह मैच 161 रनों से जीता था जबकि आयरलैंड की टीम 50 ओवर में 9 विकेट पर केवल 97 रन ही बना सकी थी। करीब दो साल पहले 1 फरवरी 2019 को वह 200 वनडे अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच खेलने वाली पहली महिला क्रिकेटर बनी थी। उससे कुछ ही समय पहले उन्होंने न्यूजीलैंड के खिलाफ एक मैच में 50 ओवरों के प्रारूप में अंतर्राष्ट्रीय मैचों का दोहरा शतक जमाने वाली पहली महिला बनने का कीर्तिमान भी स्थापित किया था। अबतक के कैरियर में मिताली ने 75 अर्धशतक और 8 शतक जड़े हैं, जिनमें से 54 अर्धशतक और सात शतक उन्होंने वनडे में लगाए। टेस्ट मैचों में उन्होंने एकमात्र शतक (214 रन) इंग्लैंड के खिलाफ 2002 में टॉटन में जड़ा था। भारतीय महिला टीम को आज दुनियाभर में वनडे में दूसरे नंबर की और टी-20 में तीसरे नंबर की टीम माना जाता है और इसमें फिटनेस, कौशल तथा क्रिकेट के प्रति समर्पण भाव के लिए मिसाल मानी जाने वाली मिताली के महत्वपूर्ण योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दरअसल जिस दौर में मिताली ने अपने कैरियर की शुरुआत की थी, तब भारतीय महिला टीम की गिनती हारने वाली टीमों में होती थी लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मैचों में मिताली का बल्ला ऐसा चला कि 2002 के बाद टीम इंडिया की स्थिति सुधरती गई और 2005 के वनडे विश्वकप फाइनल तक पहुंचने के बाद टीम इंडिया ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। टीम इंडिया को बेहतर स्थिति में ले जाने में अंजू जैन, अंजुम चोपड़ा, झूलन गोस्वामी, ममता माबेन इत्यादि खिलाड़ियों के योगदान को भी नहीं भुलाया जा सकता। मूल रूप से तमिल परिवार से संबंध रखने वाली हैदराबाद की मिताली का जन्म 3 दिसम्बर 1982 को जोधपुर में हुआ था। 10 साल की उम्र में उन्होंने क्रिकेट को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया तथा 17 साल की उम्र में वह भारतीय क्रिकेट टीम का हिस्सा बन गई। 26 जून 1999 को आयरलैंड के साथ हुए मैच से वनडे में मिताली के कैरियर का शानदार आगाज हुआ, जब उन्होंने 114 रनों की नाबाद पारी खेली। तब से अभी तक उन्होंने कई कीर्तिमान भारत की झोली में डाले हैं। 14 जनवरी 2002 को इंग्लैंड के साथ खेले गए मैच से मिताली के टेस्ट कैरियर की शुरुआत हुई थी, जिसमें वह बिना खाता खोले पैवेलियन लौट गई थी। 2005 में दक्षिण अफ्रीका में हुए विश्वकप में मिताली की कप्तानी में भारतीय टीम फाइनल तक पहुंची थी लेकिन ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ टीम को हार का सामना करना पड़ा लेकिन अगले ही साल 2006 में मिताली की ही कप्तानी में भारत ने इंग्लैंड को उसी की जमीन पर धूल चटाते हुए एशिया कप अपने नाम किया। मिताली का कहना है कि जब उन्होंने अपना कैरियर शुरू किया था तो सोचा नहीं था कि वो इतनी दूर तक पहुंच पाएंगी। हालांकि उनके 22 वर्षों के इंटरनेशल कैरियर में काफी उतार-चढ़ाव आए। कई विवाद भी हुए। जिनमें टी-20 की कप्तानी छोड़ना भी शामिल है लेकिन इसके बावजूद उनके बल्ले से रनों का पहाड़ निकलता रहा और उसी का नतीजा है कि वह आज सफलता के सातवें आसमान हैं। दुनिया भर में अंतर्राष्ट्रीय मैचों में सर्वाधिक रन बनाने वाली दूसरी खिलाड़ी और पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं। उनकी कुछ उपलब्धियां तो ऐसी हैं कि कुछ रिकॉर्ड के मामले में तो वह विराट कोहली सहित दूसरे पुरुष खिलाड़ियों को भी पीछे छोड़ चुकी हैं। वह अंतर्राष्ट्रीय टी-20 मैचों में रन बनाने के मामले में रोहित शर्मा और विराट कोहली को भी पीछे छोड़ चुकी हैं। टेस्ट क्रिकेट में दोहरा शतक बनाने वाली वह पहली महिला खिलाड़ी हैं। आईसीसी वर्ल्ड रैंकिंग में वह 2010, 2011 तथा 2012 में प्रथम स्थान पर रही हैं। मिताली के शानदार खेल प्रदर्शन के कारण ही उन्हें भारत की ‘लेडी सचिन’ भी कहा जाता है। बहरहाल, 38 वर्ष की आयु में भी टीम इंडिया की वनडे क्रिकेट की कप्तानी संभालते हुए महिला टीम को बुलंदियों तक ले जा रही मिताली से देश को आनेवाले समय में बहुत उम्मीदें हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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रंजना मिश्रा कहते हैं नमक स्वादानुसार खाना चाहिए लेकिन डॉक्टरों का मानना है कि नमक स्वास्थ्यानुसार खाना चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक एक व्यक्ति को दिनभर में औसतन 2 हजार कैलोरी की आवश्यकता होती है, इसमें नमक की कुल मात्रा 5 ग्राम ही होनी चाहिए इससे अधिक नहीं। ज्यादा नमक शरीर के लिए नुकसानदायक है और शरीर को खोखला कर सकता है। नमक और चीनी दोनों ही अधिक मात्रा में खाना नुकसानदायक होता है। ब्रिटेन की एक संस्था 'एक्शन ऑन साल्ट' ने हेल्दी स्नैक्स कहे जाने वाले 119 पैकेज्ड फूड पर सर्वे किया। जिसमें यह सामने आया कि 43% हेल्दी प्रोडक्ट्स में नमक, फैट और शुगर की मात्रा जरूरत से ज्यादा है, जबकि इन चीजों के कम इस्तेमाल से भी यह स्नैक्स बनाए जा सकते हैं। लंदन की "क्वीन मैरी' यूनिवर्सिटी की इसी रिसर्च टीम ने पाया कि ऐसे हेल्दी फूड्स जिन पर लेस फैट, नो ऐडेड शुगर या क्लूटन फ्री जैसी जानकारियां दी गई थीं, इनमें भी नमक की मात्रा जरूरत से ज्यादा थी। ब्रिटेन में हेल्दी स्नैक्स कहकर बेचे जा रहे सौ ग्राम चिप्स के पैकेट में 3.6 ग्राम नमक पाया गया, जो दिन की जरूरत यानी 5 ग्राम के काफी करीब है। हेल्दी स्नैक्स में मौजूद नमक, समुद्र के पानी में मौजूद नमक की मात्रा से भी ज्यादा है। समुद्र के 100 मिलीलीटर पानी में 3.5 ग्राम नमक पाया जाता है और इसे पीने लायक नहीं माना जाता। तात्पर्य यह है कि हम जिन्हें हेल्दी स्नैक्स समझकर खाते हैं, वास्तव में उतने हेल्दी हैं नहीं। भारत में बिकने वाले स्नैक्स का भी लगभग यही हाल है। विज्ञान के क्षेत्र में रिसर्च करने वाली संस्था 'सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट' की एक स्टडी में पाया गया कि भारतीय बाजारों में बिकने वाले जंक फूड में नमक की मात्रा तय सीमा से कहीं ज्यादा है। इस संस्था ने कुछ मशहूर ब्रांड के पिज्जा, बर्गर, सैंडविच, चिप्स व इंस्टेंट नूडल्स के सैंपल लिए और उनकी जांच की। जिसमें पाया गया कि खाने-पीने की इन चीजों में नमक जरूरत से ज्यादा या खतरनाक स्तर पर था। सर्वे में भारत में बिकने वाले मल्टीग्रेन चिप्स और बेक्ड स्नैक्स को भी शामिल किया गया। दिल्ली के अलग-अलग बाजारों से 33 सैंपल लिए गए और इन सैंपल्स की लैब में जांच की गई, इनमें से 14 सैंपल चिप्स, नमकीन और सूप के थे, 19 सैंपल बर्गर, पिज्जा और फ्रेंच फ्राइज के थे। जांच से पता चला कि मल्टीग्रेन चिप्स के 30 ग्राम के पैकेट में 5.1 ग्राम नमक था, 230 ग्राम आलू की भुजिया में नमक की मात्रा 7 ग्राम थी, 70 ग्राम इंस्टेंट नूडल्स में नमक की मात्रा 5.8 ग्राम पाई गई, इंस्टेंट सूप में 11.07 ग्राम नमक पाया गया। इससे पता चलता है कि इन प्रोडक्ट्स में मौजूद नमक की मात्रा किसी व्यक्ति के लिए एक दिन में खाए जाने वाले नमक की आवश्यक मात्रा से भी अधिक है। इस रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई है कि जिस प्रकार शाकाहारी एवं मांसाहारी खाने के पैकेट पर हरे व लाल रंग के निशान लगे होते हैं, उसी प्रकार नमक की मात्रा ज्यादा होने पर भी पैकेट के ऊपर चेतावनी लिखी जानी चाहिए, जिससे खरीदने वाले को सही जानकारी मिल पाए। भारत में खाने-पीने की चीजों के मानकों को तय करने वाली संस्था 'फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया' के मुताबिक पैकेट बंद खाने में नमक एवं फैट की मात्रा बताना जरूरी है। यदि पैकेट पर नमक या फैट की मात्रा जरूरत से ज्यादा हो तो पैकेट के सामने वाले हिस्से पर वार्निंग लेबल लगाना आवश्यक है। प्रोसैस्ड फूड यानी पैकेट में नमक की मात्रा इसलिए ज्यादा होती है क्योंकि नमक प्रिजर्वेटिव का काम भी करता है इसके अलावा पैकेट में डाले गए दूसरे केमिकल्स और कलर के टेस्ट को कम करने के लिए भी नमक ज्यादा मात्रा में डाला जाता है। अधिक नमक का इस्तेमाल हाईब्लड प्रेशर का कारण बन सकता है, ज्यादा नमक खाने से शरीर में पानी बहुत ज्यादा मात्रा में जमा होने लगता है, इसे वाटर रिटेंशन या फ्लुएड रिटेंशन कहते हैं। ऐसी स्थिति में हाथ, पैर और चेहरे पर सूजन आ जाती है। शरीर में ज्यादा नमक की मात्रा से डिहाइड्रेशन भी हो सकता है। ज्यादा नमक दिल की बीमारियों के खतरे को बढ़ा देता है। ज्यादा नमक से कैल्शियम का स्तर बढ़ जाता है और पथरी की समस्या हो सकती है। नमक की अधिकता किडनी और दिमाग से संबंधित कई बीमारियों को जन्म दे सकता है। भारत दुनिया का दूसरा देश है जहां डायबिटीज के सबसे अधिक मरीज हैं। दिसंबर 2019 तक हमारे देश में 7 करोड़ 70 लाख डायबिटीज के मरीज पाए गए। हाईब्लड प्रेशर के मरीजों की संख्या 20 करोड़ से ज्यादा है। दिल की बीमारियों के मरीज चार करोड़ से ज्यादा हैं। किडनी के मरीजों की संख्या 5 लाख से ज्यादा है, इन सभी बीमारियों का एक कारण ज्यादा नमक खाना भी हो सकता है। नमक सदा आयोडीन युक्त ही खाना चाहिए। बहुत कम नमक खाना भी नुकसानदायक है, इससे सोडियम की कमी हो सकती है, जिससे हार्मोन्स का स्तर बिगड़ सकता है व दिमाग सुस्त हो सकता है। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस (15 मार्च) पर विशेष योगेश कुमार गोयल जमाखोरी, कालाबाजारी, मिलावट, नाप-तौल में गड़बड़ी, मनमाने दाम वसूलना, बगैर मानक वस्तुओं की बिक्री, ठगी, सामान की बिक्री के बाद गारंटी अथवा वारंटी के बावजूद सेवा प्रदान नहीं करना इत्यादि समस्याओं से ग्राहकों का सामना अक्सर होता रहता है। ऐसी ही समस्याओं से उन्हें निजात दिलाने और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए प्रतिवर्ष 15 मार्च को विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस मनाया जाता है। वास्तव में यह उपभोक्ताओं को उनकी शक्तियों और अधिकारों के बारे में जागरूक करने का एक महत्वपूर्व अवसर है। उपभोक्ता आन्दोलन की नींव सबसे पहले 15 मार्च 1962 को अमेरिका में रखी गई थी और 15 मार्च 1983 से यह दिवस इसी दिन निरन्तर मनाया जा रहा है। भारत में उपभोक्ता आन्दोलन की शुरुआत मुम्बई में वर्ष 1966 में हुई थी। तत्पश्चात् पुणे में वर्ष 1974 में ग्राहक पंचायत की स्थापना के बाद कई राज्यों में उपभोक्ता कल्याण के लिए संस्थाओं का गठन किया गया। इस प्रकार उपभोक्ता हितों के संरक्षण की दिशा में यह आन्दोलन आगे बढ़ता गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल पर 9 दिसम्बर 1986 को उपभोक्ता संरक्षण विधेयक पारित किया गया, जिसे राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बार देशभर में लागू किया गया। पिछले कई वर्षों से भारत में प्रतिवर्ष 24 दिसम्बर को राष्ट्रीय उपभोक्ता संरक्षण दिवस मनाया जा रहा है जबकि उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों से परिचित कराने के लिए 15 मार्च को विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस का आयोजन किया जाता है। बाजार में उपभोक्ताओं का शोषण कोई नई बात नहीं है बल्कि उपभोक्ताओं के शोषण की जड़ें आज बहुत गहरी हो चुकी हैं। उपभोक्ताओं को इस शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए कई कानून बनाए गए लेकिन उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद से उपभोक्ताओं को शीघ्र, त्वरित एवं कम खर्च पर न्याय दिलाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। उपभोक्ताओं को किसी भी प्रकार की सेवाएं प्रदान करने वाली कम्पनियां व प्रतिष्ठान अपनी सेवाओं अथवा उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार के प्रति सचेत हुए। ग्राहकों के साथ आए दिन होने वाली धोखाधड़ी को रोकने और उपभोक्ता अधिकारों को ज्यादा मजबूती प्रदान करने के लिए देश में 20 जुलाई 2020 को ‘उपभोक्ता संरक्षण कानून-2019’ (कन्ज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट-2019) लागू किया गया। इसमें उपभोक्ताओं को किसी भी प्रकार की ठगी और धोखाधड़ी से बचाने के लिए कई प्रावधान हैं। यह कानून अब साढ़े तीन दशक पुराने ‘उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986’ का स्थान ले चुका है। विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस मनाए जाने का मूल उद्देश्य यही है कि उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया जाए। अगर वे धोखाधड़ी, कालाबाजारी, घटतौली इत्यादि के शिकार होते हैं तो वे इसकी शिकायत उपभोक्ता अदालत में कर सकें। भारत में उपभोक्ता संरक्षण कानून में स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक वह व्यक्ति उपभोक्ता है, जिसने किसी वस्तु या सेवा के क्रय के बदले धन का भुगतान किया है या भुगतान करने का आश्वासन दिया है। ऐसे में किसी भी प्रकार के शोषण अथवा उत्पीड़न के खिलाफ वह अपनी आवाज उठा सकता है तथा क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता है। खरीदी गई किसी वस्तु, उत्पाद अथवा सेवा में कमी या उसके कारण होने वाली किसी भी प्रकार की हानि के बदले उपभोक्ताओं को मिला कानूनी संरक्षण ही उपभोक्ता अधिकार है। यदि खरीदी गई किसी वस्तु या सेवा में कोई कमी है या उससे आपको कोई नुकसान हुआ है तो आप उपभोक्ता फोरम में अपनी शिकायत दर्ज करा सकते हैं। अगर उपभोक्ताओं का शोषण होने और ऐसे मामलों में उनके द्वारा उपभोक्ता अदालत की शरण लिए जाने के बाद मिले न्याय के कुछ मामलों पर नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि उपभोक्ता अदालतें उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण के लिए कितना बड़ा काम कर रही हैं। एक उपभोक्ता ने एक दुकान से बिजली का पंखा खरीदा लेकिन एक वर्ष की गारंटी होने के बावजूद थोड़े ही समय बाद पंखा खराब होने पर भी जब दुकानदार उसे ठीक कराने या बदलने में आनाकानी करने लगा तो उपभोक्ता ने उपभोक्ता अदालत का दरवाजा खटखटाया। अदालत ने अपने आदेश में नया पंखा देने के साथ उपभोक्ता को हर्जाना देने का भी फरमान सुनाया। एक अन्य मामले में एक आवेदक ने सरकारी नौकरी के लिए अपना आवेदन अंतिम तिथि से पांच दिन पूर्व ही स्पीड पोस्ट द्वारा संबंधित विभाग को भेज दिया लेकिन आवेदन निर्धारित तिथि तक नहीं पहुंचने के कारण उसे परीक्षा में बैठने का अवसर नहीं दिया गया। आवेदक ने डाक विभाग की लापरवाही को लेकर उपभोक्ता अदालत का दरवाजा खटखटाया और उसे न्याय मिला। चूंकि स्पीड पोस्ट को डाक अधिनियम में एक आवश्यक सेवा माना गया है, इसलिए उपभोक्ता अदालत ने डाक विभाग को सेवा शर्तों में कमी का दोषी पाते हुए डाक विभाग को मुआवजे के तौर पर आवेदक को एक हजार रुपये की राशि देने का आदेश दिया। जीवन में ऐसी ही छोटी-बड़ी समस्याओं का सामना कभी न कभी हम सभी को करना पड़ता है लेकिन अधिकांश लोग अपने अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ते। इसका एक प्रमुख कारण यही है कि देश की बहुत बड़ी आबादी अशिक्षित है, जो अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति अनभिज्ञ है लेकिन जब शिक्षित लोग भी अपने उपभोक्ता अधिकारों के प्रति उदासीन नजर आते हैं तो हैरानी होती है। अगर आप एक उपभोक्ता हैं और किसी भी प्रकार के शोषण के शिकार हुए हैं तो अपने अधिकारों की लड़ाई लड़कर न्याय पा सकते हैं। कोई वस्तु अथवा सेवा लेते समय हम धन का भुगतान तो करते हैं पर बदले में उसकी रसीद नहीं लेते। शोषण से मुक्ति पाने के लिए सबसे जरूरी है कि आप जो भी वस्तु, सेवा अथवा उत्पाद खरीदें, उसकी रसीद अवश्य लें। यदि आपके पास रसीद के तौर पर कोई सबूत ही नहीं है तो आप अपने मामले की पैरवी सही ढंग से नहीं कर पाएंगे। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे अनेक मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें उपभोक्ता अदालतों से उपभोक्ताओं को पूरा न्याय मिला है लेकिन आपसे यह अपेक्षा तो होती ही है कि आप अपनी बात अथवा दावे के समर्थन में पर्याप्त सबूत पेश करें। उपभोक्ता अदालतों की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इनमें लंबी-चौड़ी अदालती कार्रवाई में पड़े बिना ही आसानी से शिकायत दर्ज कराई जा सकती है। यही नहीं, उपभोक्ता अदालतों से न्याय पाने के लिए न तो किसी प्रकार के अदालती शुल्क की आवश्यकता पड़ती है और मामलों का निपटारा भी शीघ्र होता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हृदयनारायण दीक्षित भारतीय परंपरा को अंधविश्वासी कहने वाले लज्जित हैं। कथित प्रगतिशील श्रीराम व श्रीकृष्ण को काव्य कल्पना बताते थे। वे हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक कहते थे। राजनैतिक दलतंत्र का बड़ा हिस्सा भी हिन्दुत्व को साम्प्रदायिक बताता था। देवों की भी निन्दा थी। देव आस्था से जुड़े उत्सवों का भी मजाक बनाया जा रहा था। लेकिन अचानक देश की संपूर्ण राजनीति में हिन्दू हो जाने की जल्दबाजी है। संप्रति देश में हिन्दुत्व का स्वाभाविक वातावरण है। सो किसी भी पार्टी के नेता द्वारा हिन्दुत्व की निंदा का साहस नहीं है। हिन्दुत्व भारत के लोगों की जीवनशैली है। यहां देव आस्था की बात अलग है। यहां बहुदेव उपासना है। एक ईश्वर, परमतत्व की धारणा भी है। आस्था अंध विश्वास नहीं होती। आस्था का विकास शून्य से नहीं होता। करके देखना या देखने के बाद विश्वास, मानव स्वभाव है। बिना देखे-सुने या समझ, मान लेना अंधविश्वास है। भारत सत्य खोजी है। शोध और बोध की मनोभूमि से निर्मित भारत की देव आस्था निराली है। यहाँ कई तरह के देवता हैं। सबके रूप भिन्न-भिन्न हैं। कथित प्रगतिशील तत्व देवताओं का मजाक भी बनाते हैं। लेकिन भारतीय देव श्रद्धा में प्रकृति की शक्तियाँ ही देवता है। कुछ देवता प्रत्यक्ष हैं और कुछ अप्रत्यक्ष। अथर्ववेद में ज्ञानी, अच्छे कारीगर व हमारे आपके सबके मन के शुद्ध भाव भी देवता कहे गये हैं। अथर्ववेद के अनुसार प्रारंभ में कुल 10 देवता थे। इसके अनुसार प्राण, अपान, आँख, सूंघने की शक्ति, ज्ञान, उदान, वाणी, मन और क्षय-अक्षय होने वाली शक्तियाँ देवता है। अथर्ववेद के देवता मनुष्य के शरीर की प्रभावकारी शक्तियाँ हैं। इस प्रकार मनुष्य का शरीर भी देवताओं का निवास है। देवताओं की संख्या पर भी यहाँ मजेदार विवाद रहा है। भारत के लोक-जीवन में 33 करोड़ देवता कहे जाते हैं। शतपथ ब्राह्मण में 33 देवताओं की सूची है। इस सूची में 08 वसु हैं, 11 रुद्र हैं, 12 आदित्य हैं, इंद्र और प्रजापति हैं। कुल मिलाकर 33 हैं। फिर 11 रुद्रों का अलग विवरण भी है। 10 प्राण इन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ आत्म-मन मिलाकर 11 रुद्र हैं। यह सब मनुष्य की काया के भीतर हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद (अध्याय- 03) में रुद्र की स्तुति है। बताते हैं- ‘‘जो सबको प्रभाव में रखने वाले उत्पत्ति और वृद्धि का कारण हैं, विश्व के अधिपति हैं, ज्ञानी हैं, वह रुद्र हमको शुभ बुद्धि से जोड़ें।’’ यहाँ रुद्र का मानवीयकरण है। जो रुद्र है, वही शिव हैं। भारत में सभी देवताओं के रूप अलग-अलग हैं। लेकिन वास्तविक अनुभूति में सभी देवता मिलाकर एक हैं। इसका सबसे सुंदर उदाहरण ऋग्वेद (10.90) में एक विराट पुरुष का वर्णन है। पुरुष सहस्त्र शीर्षा है। हजारों सिर वाला। हजारों आँखों वाला है। हजारों पैरों वाला है। समस्त जगत को आच्छादित करता है।’’ यहां पुरुष नाम का देवता सबको आच्छादित करता है। आगे कहते हैं कि जो अबतक हो चुका है और होने वाला है वह सब पुरुष ही है।’’ यही बात श्वेताश्वतर उपनिषद् में भी कही गयी है। बताते हैं- ‘‘उसके हाथ-पैर सब जगह है। उसकी आँख सिर और मुख, कान सर्वत्र है। वह सबको घेरकर स्थित है।’’ यहाँ विराट पुरुष का रूपक है। पुरुष एक देवता है। इससे भिन्न कुछ नहीं लेकिन कुल मिलाकर देवताओं की अराधना अपने-अपने ढंग से की जाती है। कुछ लोग देवों की उपासना करते हैं, कुछ लोग नहीं करते। कुछ उन्हें मनुष्य की तरह मिठाई और पान भी खिलाते हैं। ऐसी पूजा के लाभ-हानि पर घण्टों बहस हो सकती है। लेकिन देवों की अनुभूति सहज ही अनुभव की जा सकती है। यहाँ रूप विधान हैं, देवता के रूप का वर्णन किया गया है। वहाँ शब्द रूपायन से देवता को समझने का प्रयास किया जा सकता है। लेकिन उपनिषदों में उस एक को अंततः रूप-रंग और शरीर रहित बताया गया है। अधिकांश प्राचीन साहित्य में सत्य और ईश्वर पर्यायवाची है। सत्य भी देवता है। ऐसी श्रद्धा के साथ चिंतन करने से जीवन मार्ग सुगम हो जाता है।’’ ऋग्वेद और कई उपनिषदों में एक सुंदर मंत्र आया है कि अक्षर-अविनाशी परम आकाश में मंत्र अक्षर रहते हैं। यहीं परम आकाश में ही समस्त देवता भी रहते हैं। जो यह बात नहीं जानते, उनके लिए वेद पढ़ना व्यर्थ है और जो यह बात जानते हैं, वे सम्यक रूप में उसी में स्थिर हो जाते हैं। परम व्योम देव निवास है। वैदिक पूर्वजों ने अलग-अलग रूप वाले देवों की उपासना की। सबका अलग-अलग व्यक्तित्व भी गढ़ा। इंद्र को ही लीजिए। वे प्रत्यक्ष देवता नहीं हैं। वैदिक साहित्य में वे पराक्रमी, ज्ञानी और श्रेष्ठ देवता हैं। मनुष्य की तरह मूंछ भी रखते हैं। इसी प्रकार रुद्र और शिव हैं। पुराण काल में उनका नया रूप प्रचारित हुआ। अग्नि भी प्रकृति की प्रत्यक्ष शक्ति है। उनका भी मानवीयकरण भी वेदों में ही है। वे भी वैदिक काल से प्रतिष्ठित देवता हैं। भारतीय देवतंत्र में अनेक के साथ एकत्व है। पहले अलग-अलग उपासना फिर सभी देवताओं को एक ही परम सत्य के भीतर प्रतिष्ठित करना ध्यान देने योग्य है। ऋग्वेद के एक मंत्र में कहते हैं- ‘‘इंद्र वरुण आदि देवताओं को भिन्न-भिन्न नामों से जाने जाते हैं, लेकिन सत्य एक है। विद्वान उसे अनेक नाम से बुलाते हैं। भारतीय देव-तंत्र का सतत् विकास हुआ है। दुनिया के किसी भी देश में देवों के रूप-स्वरूप का विकास भारत जैसा हजारों वर्ष लंबा नहीं है। दुनिया की सभी प्राचीन संस्कृतियों में देवताओं की उपस्थिति है और उनकी उपासना भी होती है लेकिन भारत की बात दूसरी है। यहां श्रीराम-श्रीकृष्ण भी उपास्य देवता हैं। कुछ यूरोपीय विद्वानों ने भारत के वैदिक देवताओं को अविकसित बताया है। कहा है यूनानी देवताओं की आकृतियाँ सुव्यवस्थित हैं और भारतीय देवों की अविकसित। वैदिक पूर्वजों ने अस्तित्व को अखण्ड और अविभाज्य पाया था। भारत सहित दुनिया के सभी देवताओं के रूप ससीम हैं। लेकिन भारत ससीम रूप और नाम के बावजूद उनकी उपस्थिति असीम है। वे रूप-नाम के कारण सीमाबद्ध हैं और अपनी व्याप्ति के कारण अनंत। अग्नि भी सर्वव्यापी है। अथर्ववेद में अग्नि के सर्वव्यापी रूप का उल्लेख है कि अग्नि दिव्यलोक में सूर्य है। अंतरिक्ष में विद्युत है। वनस्पति में पोषक-तत्व है। कठोपनिषद में यम ने नचिकेता को बताया- ‘‘एक ही अग्नि समस्त ब्रह्माण्ड के रूप में रूप-रूप प्रतिरूप है। ऋग्वेद में यही बात इन्द्र के लिए कही गयी है कि एक ही इन्द्र ब्रह्माण्ड के सभी रूपों में रूप-रूप प्रतिरूप हैं। वरुण देवता भी सब जगह व्याप्त हैं। वैदिक देव-उपासना का इतिहास ऋग्वेद के रचना काल से भी पुराना है और किसी न किसी रूप में आधुनिक काल में भी जारी है। ड्राइवर गाड़ी चलाने के पहले स्टीयरिंग को नमस्कार करते हैं, देवता की तरह। गाय को नमस्कार करते हैं। मंदिर को नमस्कार करते हैं। धरती को नमस्कार करते हैं और नदी-पर्वतों को भी। देव-उपासना आत्मविश्वास बढ़ाती है। उपासना में तमाम कर्मकाण्ड भी है। कर्मकाण्ड से होने वाले लाभ-हानि पर बहसें होती रहती हैं। उपासना और कर्मकाण्ड एक नहीं है। उपासना वस्तुतः उप-आसन है। इसका अर्थ निकट बैठना है। आस्था में ईश्वर या देव के निकट होना है। उपनिषद् का भाव भी यही है- सत्य के निकट बैठना या अनुभव करना। ऐसे अनुभव चित्त को आनंद से भरते हैं। (लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।)
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डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की हालिया फूड वेस्ट इंडेक्स रिपोर्ट बेहद चिंतनीय होने के साथ ही गंभीर भी है। रिपोर्ट के अनुसार सबसे चिंतनीय बात यह है कि दुनिया के देशों में 11 फीसदी भोजन हमारी थाली में नष्ट होता है। थाली में नष्ट होनेवाली भोजन की मात्रा में साधन संपन्न और साधनहीन, सभी तरह के देश समान रूप से एक ही स्थान पर आते हैं। यानी विकसित, विकासशील, अर्द्धविकसित और विकासहीन देशों में भोजन की बर्बादी को लेकर कोई भेद नहीं किया जा सकता है। खास बात यह कि एक ओर खाद्यान्नों की कमी और कुपोषण बड़ी समस्या है तो दूसरी तरफ अन्न की बर्बादी के प्रति कोई चिंता नहीं है। देखा जाए तो अन्न की यह बर्बादी हमारे हाथों हो रही है। इसके हम सभी भागीदारी हैं। यह तब है जब सारी दुनिया कोरोना संकट से अभी उबर नहीं पाई है। यह भी सच है कि कोरोना में भोजन की सहज उपलब्धता बड़ा सहारा बनी है। जब सबकुछ थम गया, सबके ब्रेक लग गए उस समय अन्नदाता की मेहनत के परिणाम से ही दुनिया बच सकी। नहीं तो अन्न के लिए जो अव्यवस्था सामने आती वह कोरोना से भी गंभीर होती। 2019 के आंकड़ों का ही अध्ययन करें तो दुनिया में करीब 69 करोड़ लोग भूख से जूझ रहे थे। यानी 69 करोड़ लोगों को दो जून की भरपेट रोटी नहीं मिल पा रही थी। दुनिया के देशों की बात करें या ना करें पर हमारी सनातन संस्कृति में अन्न को ईश्वर का रूप में माना जाता रहा है। खेत में अन्न उपजने से लेकर उसके उपयोग तक की प्रक्रिया तय की गई है। किस तरह किस अन्न पर किसका हक रहेगा, यहां तक कि पशु-पक्षियों तक के लिए अन्न की हिस्सेदारी तय की जाती रही है। हमारे यहां रसोई को सबसे पवित्र स्थान माना जाता रहा है। रसोई की शुद्धता और शुचिता पर खास ध्यान दिया गया है। अन्नमय कोष की बात की गई है तो भूखे भजन न होय गोपाला जैसे संदेश भोजन की महत्ता की ओर इंगित करते हैं। रसोई में खाना बनाते समय पशुओं का भी ध्यान रखा गया है और यह हमारी परंपरा ही है कि जिसमें पहली रोटी गाय के लिए तो आखिरी रोटी श्वान के लिए बनाने की बात की गई है। आज भी कहा जाता है कि महिलाएं चौका में व्यस्त रहती हैं। एक समय था जब रसोई की शुद्धता पर सबसे अधिक बल दिया जाता था। भोजन करने के भी नियम-कायदे तय किए गए। भजन और भोजन शांत मन से करने की बात की गई। खड़े-खड़े पानी पीने तक को निषिद्ध किया गया। पानी की शुद्धता पर बल दिया गया। भोजन करने से पहले अच्छी तरह हाथ धोने, चौके में भोजन करने और इसी तरह के अनेक नियम-कायदे बनाए गए। समय बदलाने के साथ इन्हें पुरातनपंथी कहकर नकारा गया। आज दुनिया के देशों को इनका महत्व समझ में आने लगा है। भोजन करने से पहले अच्छी तरह से हाथ धोने के लिए यूरोपीय देशों में अभियान तक चलाना पड़ रहा है। बच्चों को शिक्षित किया जा रहा है। हालिया कोरोना महामारी में एक महत्वपूर्ण सुरक्षा उपाय हाथों को बार बार धोना भी शामिल है। दरअसल जिस तरह की खानपान की व्यवस्था सामने आई है उसके दुष्परिणाम भोजन की बर्बादी के रूप में देखा जा सकता है। शादी-विवाह या किसी आयोजन के दूसरे दिन आयोजन स्थल गार्डन, सामुदायिक केन्द्र या इसी तरह के किसी सार्वजनिक स्थान के पास से गुजरने पर भोजन की बर्बादी दृष्टिगोचर हो जाती है। गार्डन या ऐसे स्थान के बाहर सड़क पर एकदिन पहले बनी सब्जियों आदि को फैले हुए आसानी से देखा जा सकता है। पशुओं को इसके आसपास मंडराते देखा जा सकता है। इलाके में बदबू फैलने की बात अलग है। इसी तरह किसी समारोह में खाने की प्लेटों को देखेंगे तो स्थिति साफ हो जाती है। भी़ड़ से बचने के लिए एकसाथ ही इस तरह से प्लेट को भर लिया जाता है कि दोबारा वह खाने की वस्तु मिलेगी या नहीं, ऐसा समझने लगते हैं या फिर दोबारा भीड़ में कौन आएगा। ऐसे में प्लेटों में छूटने वाली खाद्य सामग्री, सभ्य समाज का मुंह चिढ़ाती हुई दिख जाती है। यह सब सामने हैं। एक समय था जब परिवार के बड़े-बुजुर्ग थाली में जूठन छोड़ने पर बच्चों को नसीहत देते हुए मिल जाते थे। भोजन की थाली में जूठन छोड़ने को अपशकुन व उचित नहीं माना जाता था। पर अब स्थितियां बदल गई हैं। किसी को भी अन्न की बर्बादी की चिंता नहीं। एक तथ्य और सामने आया है और वह यह कि कोरोना के दौर में लाॅकडाउन के चलते लोगों में खानपान की सामग्री के संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ रही है। खासतौर से यूरोपीय देशों में यह देखा गया है। दरअसल हमारे यहां प्रचुर मात्रा में कच्ची सामग्री संग्रहित होती है, वहीं यूरोपीय देशों में ब्रेड, पाव और इसी तरह की वस्तुओं का अधिक उपयोग होता है। इस सामग्री का उपयोग एक समय सीमा तक ही किया जा सकता है और उसके बाद वह उपयोग के योग्य नहीं रहती। ऐसे में यूरोपीय देशों में जरूरत से अधिक इस तरह की सामग्री के संग्रहण से बहुत अधिक भोजन सामग्री बर्बाद हुई और कोरोना जैसी परिस्थितियों में भोजन की बर्बादी का प्रमुख कारण बनी। ऐसे में सोचना होगा कि भोजन की बर्बादी को कैसे रोका जाए। यह अपने आप में गंभीर समस्या हो गई है। दुुनिया के सामने दो तरह की चुनौतियां साफ है। एक दुनिया का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे लोगों का है जिन्हें एक समय का भरपेट भोजन नहीं मिल पाता तो पौष्टिक भोजन की बात बेमानी है। ऐसे में अन्न के एक-एक दाने को सहेजना होगा और भोजन के एक-एक कण को बर्बादी से बचाना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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आर.के. सिन्हा कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा के पति रॉबर्ट वाड्रा का आजकल एक नया चेहरा सबके सामने आ रहा है। वे टोयोटा लैंड क्रूजर एसयूवी में लॉकडाउन के कारण सड़कों पर पैदल ही निकले प्रवासी मजदूरों के पास पहुंचते हैं। उन बेबस मजदूरों के साथ कुछ वक्त गप्पें लगाकर अपनी महंगी एसयूवी में निकल लेते हैं। उनका नाटक यहीं तक सीमित नहीं है। वे पेट्रोल और डीजल की कीमतों की वृद्धि पर भी 15 मिनट के लिए सड़कों पर उतरते हैं। इसबार वे एक महंगी साइकिल से लुटियन दिल्ली की मक्खन जैसी सड़कों पर सैर करते चलते हैं। फिर वे एक जगह रुक जाते हैं। वहां पहले से आमंत्रित मीडिया पहुंचा होता है। उनके सामने वे सरकार को कोसते हैं कि वह ईंधन के तेजी से बढ़े हुए दामों को कम नहीं कर पा रही है। यहां भी वे पत्रकारों को प्रवचन देकर अपनी चमचमाती टोयोटा लैंड क्रूजर एसयूवी में बैठकर फुर्र से निकल लेते हैं। समझो वाड्रा का दर्द रॉबर्ट वाड्रा की पीड़ा को समझा जा सकता है जिसके चलते वे दुखी हैं। सरकार ने उनकी पत्नी प्रियंका गांधी से उनका लोधी एस्टेट का आलीशान बंगला खाली करवा लिया। वे उसमें बिना किसी सरकारी पद के भरपूर मौज ले रहे थे। जाहिर है कि लोधी एस्टेट का बंगला खाली होने से वे अंदर तक निराश तो होंगे ही। अब जाहिर है कि वे अपनी भड़ास किसी न किसी रूप में निकालेंगे ही। उन्हें एक नागरिक होने के नाते सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की निंदा करने का अधिकार तो है ही। पर वे अपने को इस देश का सामान्य नागरिक मानते कब हैं। अगर मानते तो वे लगातार जनता के सवालों को उठाते। वे एकबार दिखाई दिए थे,किसी एक स्थान पर मजदूरों को मास्क, सैनेटाइजर उपलब्ध करवाते हुए। उसके बाद वे लगभग एक साल गायब हो गए। क्या कोरोना महामारी पर विजय पा ली गई? तो फिर वे मोर्चे से क्यों नदारद हुए। अगर वे ईंधन के दामों को लेकर सच में बहुत चिंतित हैं तो अपनी कारों के काफिले को बेचकर एक-दो छोटी कारें रख लें। वे दिल्ली में रहते हैं तो उन्हें मेट्रो रेल में भी सफर करने में दिक्कत नहीं होना चाहिए। इसकी सेवा भी शानदार है। ससुराल के नाम को भुनाया सारा देश जानता है कि रॉबर्ट वाड्रा ने अपनी ससुराल के रसूख के चलते कथित रूप से आनन-फानन में मोटा पैसा कमाया। उनके काले कारनामों का चिट्ठा देश के सामने आ चुका है। उन्हें मालामाल करवाने में हरियाणा और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों ने सारे नियम-कानूनों को ताक पर रखकर उनकी दिल खोलकर मदद की। गांधी-नेहरू परिवार में वाड्रा और फिरोज गांधी के रूप में दो बिल्कुल अलग ही तरह के दामाद आए हैं। रॉबर्ट वाड्रा पर रीयल एस्टेट क्षेत्र की बड़ी कंपनी डीएलएफ के सौजन्य से मोटा पैसा बनाने के आरोप लगते रहे हैं। एक तो वाड्रा हैं, दूसरी तरफ इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी थे। वे भ्रष्टाचार के खिलाफ हमेशा आवाज बुलंद करते ही रहे। वे बेहद स्वाभिमानी किस्म के इंसान थे। हालांकि उनके ससुर पंडित नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे, इसके बावजूद वे तीन मूर्ति स्थित प्रधानमंत्री आवास में कभी भी नहीं रहे। फिरोज गांधी का अपना खास व्यक्तित्व था। वे सिर्फ इंदिरा गांधी के पति और नेहरू जी के दामाद ही नहीं थे। उन्होंने सांसद रहते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद की और 1955 में संसद में निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियों की तरफ से की जाने वाली कथित धोखाधड़ी का मामला संसद में उठाया। उनकी मांग के बाद ही सरकार ने बीमा कारोबार का राष्ट्रीयकरण किया। फिरोज गांधी ने सरकारी क्षेत्र की बीमा कंपनी में गड़बड़ी के लिए हरिदास मुंद्रा के खिलाफ संसद में आवाज उठाई। उनके अभियान के चलते नेहरू सरकार की छवि को ठेस भी पहुंची। फिरोज गांधी नेशनल हेरल्ड के प्रबंध निदेशक भी रहे। वे 1952 और 1957 में रायबरेली से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। नेहरू जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी तीन मूर्ति भवन में विशिष्ट अतिथियों का स्वागत करने लगीं, पर फिरोज अलग अपने सांसद वाले आवास में ही रहे। दिल्ली प्रेस क्लब उनका बैठकी वाला घर हुआ करता था। फिरोज गांधी को उनकी इन्हीं खूबियों के कारण देश उन्हें आज भी याद करता है। दामाद बाकी प्रधानमंत्रियों के अब बात कर लें लाल बहादुर शास्त्री के दोनों दामादों क्रमश: कौशल कुमार और विजयनाथ सिंह की भी। ये हमेशा विवादों से परे रहे। कौशल कुमार बड़े दामाद थे। उनकी पत्नी कुसुम का बहुत पहले निधन हो गया। कौशल कुमार आईएएस अफसर थे। उनका जीवन भी बेदाग रहा। विजयनाथ सिंह सरकारी उपक्रम में काम करते थे। लाल बहादुर शास्त्री ने कभीअपने बच्चों या दामादों को इस बात की इजाजत नहीं दी कि वे उनके नाम या पद का दुरुपयोग करें। क्या इस तरह का दावा वाड्रा या प्रियंका कर सकते हैं। चौधरी चरण सिंह की भी चार बेटियां थीं। उनके सभी दामाद भी कभी विवादों में नहीं रहे। एक दामाद डॉ. जेपी सिंह राजधानी के राम मनोहर लोहिया अस्पताल के प्रमुख भी रहे। पी.वी. नरसिंह राव के तीन पुत्र और पांच पुत्रियां थीं। राजनीति में आने के बाद उनका अपने बेटों या बेटियों से किसी तरह का घनिष्ठ संबंध नहीं था। वे जब प्रधानमंत्री बने तब भी उनके पास उनका कोई बेटा या बेटी नहीं रहते थे। राव साहब की पत्नी के 70 के दशक में निधन के बाद उनका अपने परिवार से कोई खास संबंध नहीं रहा। जब उनका कोई पुत्र या पुत्री उनके पास आते भी थे तो वे उनसे मिलने के कुछ देर के बाद ही उन्हें विदा कर देते थे। एच.डी.देवगौड़ा की दोनों पुत्रियों. डी.अनुसूईया और ए.डी. शैलेजा के पति डॉ. सी.एन.मंजूनाथ और डॉ. एच.एस.जयदेव मेडिकल पेशे से जुड़े हैं। इन पर भी कभी अपने ससुर के नाम का बेजा इस्तेमाल का आरोप नहीं लगा। अगर बात डॉ. मनमोहन सिंह के दामादों की करें तो ये भी विवादों से बहुत दूर रहे। उनकी सबसे बड़ी पुत्री डॉ. उपिंदर सिंह के पति डॉ. विजय तन्खा दिल्ली यूनिवर्सिटी में अध्यापक रहे। दूसरी बेटी दमन सिंह के पति अशोक पटनायक आईपीएस अफसर थे। तीसरी बेटी अमृत सिंह अमेरिका में अटार्नी हैं। उसके पति अध्यापक हैं। मतलब साफ है कि रॉबर्ट वाड्रा इन सबसे अलग हैं। उनमें कोई गरिमा नाम की चीज नहीं है। इसलिए उनके प्रति देश लेशमात्र भी सम्मान का भाव नहीं रखता है। वे इस देश के एक खास परिवार के दामाद हैं। भारतीय समाज में दामाद का बहुत अहम स्थान होता है। पर रॉबर्ट वाड्रा अपने कृत्यों से अपने सम्मान को तार-तार कर चुके हैं। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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प्रमोद भार्गव जय श्रीराम के नारे पर आपत्ति जताने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के धर्मनिरपेक्षता के पाखंड का मिथक इस चुनाव में टूटता दिख रहा है। चोला बदलते हुए अब ममता नंदीग्राम में शिव मंदिर पर जलाभिषेक करती दिखीं, वहीं स्वयं को देवी चंडी की भक्त और ब्राह्मण भी कहकर प्रचारित कर रही हैं। हिंदू मतदाताओं को साधने की दृष्टि से यह उनका मुस्लिम तुष्टिकरण से बाहर आने का स्वांग है। जबकि मार्क्सवादियों से सत्ता छीनने से लेकर दस साल मुख्यमंत्री बने रहने के दौरान न केवल उन्होंने हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई, बल्कि रामनवमी और दुर्गा पूजा के उत्सवों में भी व्यवधान डालती रही हैं। इसके उलट उन्होंने मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए न केवल हिजाब ओढ़ा, बल्कि उन्हीं की तर्ज पर इबादत भी की। कई बार तो हिंदुओं को अदालत के हस्तक्षेप के बाद सार्वजनिक स्थलों पर दुर्गा पूजा की अनुमति मिली। बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों को पश्चिम बंगाल में वोटबैंक बनाने की दृष्टि से इनकी नागरिकता के लिए आधार कार्ड जैसे पहचान-पत्र बनाए गए। ममता के इस पाखंड और नंदीग्राम में हुए हमले पर कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने करारा कटाक्ष किया है। उन्होंने कहा कि 'ममता अब स्वयं को देवी चंडी की भक्त और ब्राह्मण बता रही हैं, जबकि आज के पहले उन्होंने अपनी धार्मिक निष्ठा और जातीयता का खुलासा कभी नहीं किया। ममता पर हमला भी एक नौटंकी है। क्योंकि मुख्यमंत्री के काफिले के साथ बड़ी संख्या में पुलिस बल चलता है। हैरानी की बात यह है कि चार-पांच युवकों ने उनपर हमला किया, बावजूद न तो पुलिस ने उन्हें पकड़ा और न ही यह हमला वीडियो फुटेज के रूप में सामने आया। लिहाजा यह सब प्रपंच सहानुभूति बटोरने की कोशिश भर है।' अब तो मीडिया भी इस हमले को फरेब बता रहा है। हिंदुत्व के धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलू हैं। भारतीय जनता पार्टी ने इन्हीं पक्षों का चुनाव में इस्तेमाल कर केंद्र और कई राज्यों में सरकारें बनाईं। मुस्मिल तुष्टिकरण किए बिना और वोट मिले बिना भाजपा का दूसरी बार केंद्रीय सत्ता में आना इस बात का प्रतीक है कि हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कर लिया जाए, तो सत्ता पर काबिज हुआ जा सकता है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता के जितने भी पैरोकार हुए हैं, वे अब अपने छद्म आचरण से मुक्ति की ओर बढ़ रहे हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के दौरान कमलनाथ ने भगवान राम के वनवास के दौरान पथगमन को विकसित करने की योजना बनाकर धर्मनिरपेक्षता के मिथक को तोड़ा था। इसी से अब कदमताल मिलाती ममता दिख रही हैं। ममता को हिंदू घोषित करने की जरूरत व मजबूरी इसलिए भी आन पड़ी है, क्योंकि बंगाल भाजपा में नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने जनसभाएं कर हिंदुत्व के ध्रुवीकरण को उभार दिया है। इसी वजह से एक-एक कर तृणमूल और कांग्रेस के नेता भाजपा में शामिल होकर ममता के वर्चस्व के लिए चुनौती बन गए हैं। पश्चिम बंगाल में हिंसा चरम पर है, दूसरी ओर एक के बाद एक तृणमूल कांग्रेस के सांसद, विधायक व अन्य कार्यकर्ता भाजपा के पाले में समाते जा रहे हैं। कभी वामपंथियों की मांद में घुसकर दहाड़ने वाली ममता अपने ही घर में अकेली पड़ती दिख रही हैं। राज्य में विधानसभा चुनाव से पहले जिस तरह एक-एक करके तृणमूल के दिग्गज नेता पार्टी छोड़ रहे हैं, उससे लगता है ममता घोर राजनीतिक संकट से घिरती जा रही हैं। ममता ने वामपंथियों के जबड़े से जब सत्ता छीनी थी, तब उम्मीद बनी थी कि वे अनूठा नेतृत्व देकर बंगाल में विकास और रोजगार को बढ़ावा देंगी। लेकिन दस साल के शासन में अविवाहित होने के बावजूद वे वंशवाद, मुस्लिम तुष्टिकरण, भ्रष्टाचार और हिंसा से बंगाल को मुक्ति नहीं दिला पाईं, बल्कि इन विकृतियों की पैरोकार बन गई। यही कारण रहा कि अमित शाह और कैलाश विजयवर्गीय की रणनीति के चलते आज तृणमूल और ममता का भविष्य अंधेरे की ओर बढ़ रहा है। ममता को सबसे बड़ा झटका शुभेंदु अधिकारी के अलग होने से लगा है। इसके बाद ममता की देहरी फलांगने का सिलसिला चल पड़ा है। इसकी एक वजह ममता का तानाशाही आचरण तो है ही, राजनीति में तकनीक के जरिए जीत के खिलाड़ी माने जाने वाले प्रशांत किशोर का पार्टी में बढ़ता दखल भी है। हाल के दिनों में तृणमूल को जिन दिग्गज नेताओं ने छोड़ा है, उनमें सबसे ताकतवर शुभेंदु अधिकारी हैं। ममता ने जिस नंदीग्राम से खुद चुनाव लड़ने की ठानी हैं, वहीं से भाजपा प्रत्याशी के रूप में शुभेंदु पचास हजार से भी अधिक मतों से ममता बनर्जी को हराने का दावा अभी से करने लगे हैं। शुभेंदु के पिता शिशिर अधिकारी भी विधायक और सांसद रह चुके हैं। शुभेंदु के एक भाई सांसद और दूसरे नगरपालिका अध्यक्ष हैं। इस तरह इनके परिवार का छह जिलों की 80 से ज्यादा सीटों पर असर है। सर्वहारा और किसान की पैरवी करने वाले वाममोर्चा ने जब सिंगूर और नंदीग्राम के किसानों की खेती की जमीनें टाटा को दीं तो इस जमीन पर अपने हक के लिए उठ खड़े हुए किसानों के साथ ममता आ खड़ी हुईं थीं। मामता कांग्रेस की पाठशाला में पढ़ी थीं। जब कांग्रेस उनके कड़े तेवर झेलने और संघर्ष में साथ देने से बचती दिखी तो उन्होंने कांग्रेस से पल्ला झाड़ा और तृणमूल कांग्रेस को अस्तित्व में लाकर वामदलों से भिड़ गईं। इस दौरान उनपर कई जानलेवा हमले हुए, लेकिन उन्होंने अपने कदम पीछे नहीं खींचे। जबकि 2001 से लेकर 2010 तक 256 लोग सियासी हिंसा में मारे जा चुके थे। यह काल ममता के रचनात्मक संघर्ष का चरम था, जिसके मुख्य रचनाकार शुभेंदु अधिकारी ही थे। इसके बाद 2011 में बंगाल में विधानसभा चुनाव हुए। ममता ने मां, माटी और मानुष का नारा लगाकर वाममोर्चा का लाल झंडा उतारकर तृणमूल की विजय पताका फहरा दी थी। अब बंगाल की माटी पर एकाएक उदय हुई भाजपा ने ममता के वजूद को संकट में डाल दिया है। बंगाल में करीब 27 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। इनमें 90 फीसदी तृणमूल के खाते में जाते हैं। इसे तृणमूल का पुख्ता वोटबैंक मानते हुए ममता ने अपनी ताकत मोदी व भाजपा विरोधी छवि स्थापित करने में खर्च दी। इसमें मुस्लिमों को भाजपा का डर दिखाने का संदेश भी छिपा था। किंतु इस क्रिया की विपरीत प्रतिक्रया हिंदुओं में स्वस्फूर्त ध्रुवीकरण के रूप में दिखाई देने लगी। बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए एनआरसी लागू होने के बाद भाजपा को वजूद के लिए खतरा मानकर चल रहे हैं, नतीजतन बंगाल के चुनाव में हिंसा का उबाल आया हुआ है। इस कारण बंगाल में जो हिंदीभाषी समाज है वह भी भाजपा की तरफ झुका दिखाई दे रहा है। हैरानी इस बात की है कि जिस ममता ने परिवर्तन का नारा देकर वामपंथियों के कुशासन और अराजकता को चुनौती दी थी वही ममता इसी ढंग की भाजपा की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बौखला गई हैं। उनके बौखलाने का एक कारण यह भी है कि 2011-2016 में उनके सत्ता परिवर्तन के नारे के साथ जो वामपंथी और कांग्रेसी कार्यकर्ता आ खड़े हुए थे, वे भविष्य की राजनीतिक दिशा भांपकर भाजपा का रुख कर रहे हैं। 2011 के विधानसभा चुनाव में जब बंगाल में हिंसा का नंगा नाच हो रहा था, तब ममता ने अपने कार्यकताओं को विवेक न खोने की सलाह देते हुए नारा दिया था, 'बदला नहीं, बदलाव चाहिए।' लेकिन बदलाव के ऐसे ही कथन अब ममता को असामाजिक व अराजक लग रहे हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. प्रभात ओझा क्वाड्रीलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग यानी क्वॉड की स्थापना के बाद यह पहली ही बैठक थी और उसके पहले से ही चीन परेशान है। बैठक वर्चुअल माध्यम से सम्पन्न हुई है और उम्मीद जतायी गयी है कि इसी साल क्वॉड में शामिल चारों देशों के नेता एक साथ आमने-सामने बैठ कर बात करेंगे। आम तौर पर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में समुद्री रास्तों से व्यापार आसान करने के लिए गठित इस समूह की मूल अवधारणा को देखने से चीन की दिक्कतों का अंदाज लगाया जा सकता है। हाल के दिनों में चीन ने पाकिस्तान की मदद से और बहुत कुछ नेपाल में कोशिश करते हुए इस क्षेत्र में अपनी दखल बढ़ाने की कोशिश की। यह भारत के लिए चिंता का विषय था। अलग बात है कि सीमाओं पर तनाव बढ़ाने की कोशिश के बाद चीन की सेनाओं को वापस भी जाना पड़ा है। सन 2007 से ही चीन ने एशिया-प्रशांत के समुद्री क्षेत्र में अपनी दादागीरी शुरू कर दी थी। वह दक्षिण और पूर्वी चीन सागर क्षेत्र में अपने सैन्य अड्डे बढ़ाने लगा था। पहली बार जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने क्षेत्र में चीन के बढ़ते खतरे को महसूस किया था। उन्होंने चीन के दबाव और धमकियों के मुकाबले के लिए इस समुद्री क्षेत्र का उपयोग करने वाले सक्षम देशों का एक संगठन बनाने की पहल की। वैसे शिंजो आबे की यह कोशिश बहुत बाद में आकार ले सकी और 2019 में जापान के साथ भारत, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने मिलकर यह चतुर्भुज संगठन बनाया। निश्चित ही संगठन के निर्माण के पीछे कहीं से भी चीन का नाम नहीं लिया गया, पर दुनिया इस क्षेत्र के चार सशक्त देशों की एकजुटता का सहज ही अंदाज लगा सकती है। बहरहाल, निर्माण के बाद कोरोना के कारण पिछले साल इस संगठन की कोई बैठक नहीं हो सकी थी। अब ताजा वर्चुअल बैठक के बाद उम्मीद जतायी गयी है कि इसके नेताओं की आमने-सामने शिखर वार्ता जल्द ही किसी अन्य अंतरराष्ट्रीय आयोजन के साथ हो सकती है। याद करें कि जून में लंदन में जी7 की शिखर वार्ता होने वाली है। जी 7 के सात सदस्य देशों के अतिरिक्त मेजबान देश ब्रिटेन ने भारत और ऑस्ट्रेलिया को भी निमंत्रण भेजा है। दक्षिण कोरिया को भी इस बैठक में आमंत्रित किए जाने की खबर है। अमेरिका और जापान पहले से ही जी 7 के सदस्य हैं। इस तरह क्वाड के भी चारों नेता जी 7 की बैठक के समय ब्रिटेन में ही रहेंगे। उम्मीद है कि इसी मौके पर अलग से क्वाड की भी बैठक हो सकेगी। तब जी 7 के साथ क्वॉड भी आर्थिक सहयोग के अतिरिक्त आर्थिक हितों के लिए क्षेत्रीय सुरक्षा पर भी बातचीत करेंगे। जी 7 की आगामी बैठक के साथ विश्व-पटल पर एक और परिदृश्य उभरने के संकेत मिलने लगे हैं। ग्रुप सेवेन की बैठक में भारत, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया को निमंत्रण से दुनिया में ग्रुप टेन (जी 10) का आकार लेने जा रहा है। भले ही इस नाम से कोई नया संगठन खड़ा न किया जाय, एक बात स्पष्ट है कि ये सभी लोकतांत्रिक देश हैं। जी 7 में भारत और ऑस्ट्रेलिया के साथ रूस को भी शामिल करने की वकालत तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रंप ने की थी। हालांकि रूस में लोकतंत्र के अभाव के तर्क पर उसे शामिल करने की बात शुरू में ही खारिज हो गई। अब जो 10 देश लंदन में मिल बैठकर फैसले लेंगे अथवा विचार करेंगे, वे कट्टरपंथी और गैर लोकतांत्रिक चीन पर परोक्ष दबाव की तरह ही होंगे। स्वाभाविक है कि दक्षिण पूर्वी चीन सागर पर एकछत्र आधिपत्य का ख्वाब देखने वाले इस देश के मंसूबों को ये 10 देश काफी हद तक नियंत्रित कर सकेंगे। इतिहास गवाह है कि प्रगति के लिए सहयोग के इरादे जरूरत पड़ने पर सामरिक गठबंधन का भी रूप लेते रहे हैं। चीन की ताजा बौखलाहट इसी संभावना को ध्यान में रखते हुए सामने आयी है। यूं ही नहीं उसने क्वॉड की वर्चुअल बैठक के ठीक पहले कहा है कि देशों के गठबंधन से किसी अन्य पक्ष के हित प्रभावी नहीं होने चाहिए। चीन को याद रखना चाहिए कि दौर बदल गया है और अब देशों के गठबंधन और अधिक व्यापक मकसद से हुआ करते हैं। (लेखक हिन्दुस्थान समाचार के न्यूज एडिटर हैं)
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डॉ. रामकिशोर उपाध्याय नई शिक्षा नीति को लेकर चारों ओर उत्साह का वातारण है। इन दिनों देशभर में नई शिक्षा नीति को लेकर संगोष्ठियाँ, परिचर्चाएँ, सेमिनार एवं कार्यशालाएँ आयोजित की जा रही हैं। अभी हाल ही में जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर में एक क्षेत्रीय सेमीनार का आयोजन किया गया। इसमें विद्या भारती उच्च शिक्षा संस्थान के अखिल भारतीय सह-संगठन मंत्री के.एन. रघुनन्दन जी ने नई शिक्षा नीति 2020 के परिप्रेक्ष्य में शिक्षक-शिक्षा: चुनौतियाँ एवं समाधान विषय पर जो उद्बोधन दिया उसे सार रूप में यों समझा जा सकता है। नई शिक्षा नीति 2020, भारत केन्द्रित शिक्षा नीति है। भारतीय संस्कृति, इतिहास और नैतिकता इसकी पृष्ठभूमि में है। यह नए युग की शिक्षा का नवसूत्र है। यह लचीली, संवेदनशील एवं न्याय सम्मत है। यह वंचित और संपन्न, शासकीय और प्राइवेट सभी के लिए एक समान है। इसमे गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा को महत्व दिया गया है। करीकुलर, को-करीकुलर एवं एक्स्ट्रा करिकुलर गतिविधियों को समायोजित कर पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाए जाने की बात कही गई है। मल्टीडिसिप्लिनरी पाठ्यक्रम बनाये जाने पर ध्यान दिया गया है। साइंस वाला विद्यार्थी कॉमर्स भी पढ़ सकता है और चाहे तो अन्य कला संगीत भी अपनी रुचि के अनुसार ले सकता है। इसके लिए शिक्षकों का योग्य होना भी आवश्यक है। इस शिक्षा से शिक्षित विद्यार्थी मल्टीडिसिप्लिनरी व्यक्तित्व का धनी होगा। बंगलुरु के सुभाष गोपीनाथन ने सोलह वर्ष की आयु में अमेरिका में सॉफ्टवेयर कंपनी बनाई और सफल उद्यमी बन गए। हमारे देश में तो कम उम्र के बच्चों द्वारा कारोबार आरंभ करना भी मुश्किल है। एकबार गोपीनाथन भारत आए तो उनसे भारत के बारे में प्रश्न पूछे गए, तब उन्होंने कहा कि अपने देश में जिस से भी मिलो वह पहले यही पूछता है कि आपकी शिक्षा क्या है? कोई यह नहीं पूछता कि आपकी उपलब्धि क्या है। अपने देश में स्किल से अधिक महत्व डिग्री का है इसीलिये अनपढ़ों में बेरोजगारी का प्रतिशत कम है जबकि डिग्रीधारियों में बेरोजगरी अधिक है। डिग्रीधारियों में योग्यता की कमी है। अधिकांश ऐसे हैं जो प्रतियोगी परीक्षा पास नहीं कर पाते। हमारे कॉलेजों में शिक्षित विद्यार्थियों में अधिकांश टीईटी परीक्षा भी पास नहीं कर पाते क्यों? यह देखना होगा कि हमारे महाविद्यालयों की शिक्षा की गुणवत्ता इतनी ख़राब क्यों हुई कि विद्यार्थी शिक्षक बनने की पात्रता परीक्षा भी पास नहीं कर पाते। योग्य शिक्षक जबतक नहीं आएँगे तबतक योग्य विद्यार्थी कैसे निकलेंगे। नेशनल काउन्सिल ऑफ टीचर्स एड्युकेशन, लघु (NCTE) का काम है, आदर्श शिक्षक का निर्माण। जब विद्यालय चलाने में शिक्षक की भागीदारी होगी, जब पढ़ाने वाला शिक्षक यह सोचेगा कि मुझे भी अपने विद्यालय का विकास करना चाहिए तथा विद्यार्थी यह सोचें कि विद्यालय के विकास में उनकी क्या भूमिका होनी चाहिए तब शिक्षा व्यवस्था में सुधार होगा। वर्मा कमेटी की रिपोर्ट बताती है कि लगभग दस हजार शैक्षणिक संस्थान बंद करने लायक हैं। शैक्षणिक संस्थान का उद्देश्य केवल डिग्री बाँटना नहीं है। ज्ञान केवल डिग्रियों में नहीं है इसीलिये कई पद्मश्री और पद्म विभूषण ऐसे लोगों को मिले जिनके पास कोई विशेष डिग्री नहीं थी किन्तु वे अपने-अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ हैं। हमारे विश्वविद्यालयों ने कितने महान कलाकार, महान खिलाड़ी या महान संगीतज्ञ पैदा किये इस बात के मूल्यांकन की आवश्यकता है। प्रत्येक विश्वविद्यालय अपने आसपास की समस्याओं को चिन्हित करे फिर उनके समाधान के लिए शोध करे। समस्या के समाधान के लिए शोध हो तभी उसका महत्व है। आप जितना शोध और नवाचार को महत्व देंगे उतना ही विकास होगा। चाहे किसी भी विषय का छात्र हो उसका विचार भारत केन्द्रित होना चाहिए। हमारे देश में गरीबी के कारण घर बनाना एक समस्या है तो हमारे आर्किटेक्ट का उद्देश्य होना चाहए कि कम मूल्य में घर कैसे बनाया जाए। जब हम भारत केन्द्रित शिक्षा की बात करते हैं तो पहले हमें भारत को समझना होगा। भारत को समझने के लिए भारतीय दर्शन को समझना होगा। अँगरेजों के आने से पूर्व भारतीय व्यवस्था को अंगरेजों के बाद की व्यवस्था को समझना होगा। अँगरेजों के आने से पूर्व हमारे यहाँ स्त्रियाँ भी पढ़ाती थीं अब इन बातों के प्रमाण भी हमारे पास हैं। इतिहासकार धर्मपाल जी ने इस दिशा में बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया है। भारत को समझने के लिए उनकी पुस्तकों का अध्ययन करना पड़ेगा। भारतीय शिक्षा में व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास कैसे हो इसपर जोर दिया जाता है। यदि किसी को भारतीय शिक्षा पद्धति कैसे कार्य करती है यह देखना हो तो उसे एकबार विद्या भारती की शिशु वाटिका का भ्रमण अवश्य करना चाहिए। विद्या भारती की दस हजार शिशु वाटिकाएँ एक मॉडल के रूप में कार्य कर रही हैं। इनमें तीन लाख विद्यार्थी पढ़ रहे हैं। पहले कहा जाता था कि अधिक पढ़ा (ज्ञानी) लिखा घर छोड़ देता था अर्थात विरक्त हो जाता था किन्तु अब अधिक पढ़े-लिखे अधिक भ्रष्ट हो रहे हैं। शिक्षा में भारतीय लोकाचार या मान्य लोक परम्पराओं (इथोस) की अवहेलना के कारण ऐसी स्थिति निर्मित हुई। अब कई वर्षों बाद पहली बार वैसी शिक्षा नीति बनी है जैसी भारत के लिए बननी चाहिए थी। आज अन्य देशों के लोग भी हमारी शिक्षा नीति का अध्ययन कर रहे हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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दिनेश प्रताप सिंह एक बात तय हो गई कि अब कोई भी पार्टी देश में हिंदू विरोधी भावनाओं को उभारकर राजनीति नहीं कर सकती। आजादी के 70 साल बाद ही सही, भारत के गैर भाजपा राजनीतिक दलों को अहसास हो गया कि तुष्टीकरण के जरिए सत्ता प्राप्त करने का रास्ता बंद हो गया। इसके लिए सभी को आरएसएस और भाजपा का आभारी होना चाहिए कि दशकों तक पोषित छद्म सेकुलरिज्म की नीति अब और नहीं चलेगी। लेकिन यह मानना भी सही नहीं होगा कि गैर भाजपा दलों का कोई हृदय परिवर्तन हो गया है। उनका मन नहीं बदला, केवल उनकी चाल बदल गई। वह भी इस कारण कि जनसंघ की स्थापना के साथ ही जिस राष्ट्रवाद की अवधारणा और हिंदू हितों की कार्ययोजना लेकर जो लोग चलते रहे, समाज और देश को लगातार जागृत करते रहे, उनकी बात अब जनता सुनने लगी है। उनके पक्ष में जनता खुलकर मतदान करने लगी है। हिंदू विरोधी विचारों को आगे बढ़ाकर सत्ता की राजनीति करने वाले अब धीरे-धीरे देशभर की सत्ता से बाहर होने लगे हैं। इसलिए मजबूरन वे हिंदू और हिंदू विश्वास के प्रतीकों की बात करने लगे हैं। ताजा उदाहरण दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बदले अंदाज का है। दिल्ली सरकार के बजट को राष्ट्रवादी बजट और दिल्ली में रामराज्य की अवधारणा के साथ सरकार चलाने का दावा केवल राजनीतिक मजबूरी है। विधानसभा के बजट सत्र में उप राज्यपाल के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान मुख्यमंत्री ने कहा, ‘‘ मैं भगवान राम और हनुमान का भक्त हूं। हम दिल्ली की जनता की सेवा के लिए रामराज्य की संकल्पना से प्रेरित 10 सिद्धांतों का पालन कर रहे हैं।’’ उनमें खाद्य पदार्थ मुहैया कराना, चिकित्सा देखभाल, बिजली, पानी उपलब्ध कराना, रोजगार, आवास, महिला सुरक्षा और बुजुर्गों को सम्मान देना शामिल हैं। केजरीवाल जिस चुनावी तिकड़म को रामराज्य की परिकल्पना बता रहे हैं, दरअसल उन्हें रामराज्य के बारे में कुछ ज्ञात नहीं है। जब अयोध्या में रामराज्य स्थपित हुआ था तब तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता था। श्रीरामचंद्रजी के प्रताप से सबकी विषमता मिट गई थी। लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेद मार्ग पर चलते और सुख पाते थे। सभी दम्भरहित थे, धर्मपरायण थे। सभी कृतज्ञ थे। कपट-चतुराई किसी में नहीं थी। रामराज्य में रहने वाले छोड़ दीजिए, क्या उस काल के आम आदमी के गुण भी केजरीवाल में हैं? रामराज्य में राजा के लिए स्वयं का त्याग सबसे बड़ा आदर्श था, केजरीवाल स्वयं इस आदर्श के सबसे बड़े भंजक रहे हैं। त्याग की बात कौन कहे ‘‘सबके हिस्से का सबकुछ और केवल मुझे ही‘‘- केजरीवाल के व्यक्तित्व और कृतत्व का उदाहरण रहा है। पार्टी के पद से लेकर सत्ता के शीर्ष पद तक सिर्फ मेरा नाम और मेरे रास्ते में जो आए उसका मिटा दो नाम- यही ब्रह्मवाक्य केजरीवाल ने अपनाया। बात बीते इतिहास की नहीं है, हालिया वर्षों का ही है। जब केजरीवाल ने रामराज्य के त्याग के उदाहरण का परिहास करते हुए हर उस आदमी को राजनीतिक बलि पर चढ़ा दिया, जिसने केजरीवाल को ऊपर चढ़ाने में सीढ़ी की भूमिका निभाई। योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, मयंक गांधी, अंजलि दमानिया, सुभाष वारे और आनंद कुमार जैसे लोगों को अपने रास्ते से हटाने का उदाहरण सामने है। अंत में कुमार विश्वास जैसे शुभचिंतक व्यक्ति का कपट और चालबाजी से पार्टी से बाहर करने का प्रकल्प तो केजरीवाल के चरित्र को और भी प्रमाणित करता है। आम आदमी पार्टी राजनीति में सच्चाई की स्थापना और नैतिक बल पर जोर के नाम पर सत्ता आई लेकिन किया ठीक उसका उल्टा। राजनीति में पदार्पण के साथ ही इस पार्टी में झूठ का बोलबाला रहा। सबसे ज्यादा झूठ का सहारा स्वयं केजरीवाल ने लिया। केजरीवाल ने यह प्रचारित किया कि मीडिया प्रधानमंत्री के साथ है और उनके कहने पर ही मीडिया उनके बारे में गलत खबरें दिखाती है। बाद में उनका झूठ तब पकड़ा गया, जब स्वयं एक चैनल से इंटरव्यू के दौरान सेटिंग करते दिखाई दिए। केजरीवाल ने अपने बच्चों की कसम खाई कि वह ना तो कांग्रेस से समर्थन लेंगे और ना देंगे। पर उनकी कसम तुरंत झूठी साबित हुई और उन्होंने दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली। केजरीवाल की पार्टी ने गुजरात में कुछ स्थानीय सीटों में सफलता प्राप्त की है। अब उनकी महत्वाकांक्षा उत्तर प्रदेश में जाने की है। उन्हें मालूम है वहां उनका मुकाबला हिंदू हदय सम्राट योगी आदित्यनाथ से होना है। इसलिए रंग बदलकर केजरीवाल हिंदूवादी होने का स्वांग रचा रहे हैं। लेकिन वास्तव में उनकी प्रकृति क्या है। इसी केजरिवाल ने वोटबैक की खातिर बाटला हाउस और इशरत जहां एनकाउंटर को झूठा करार दिया था। एक मजहब के वोट के लिए जांच एजेंसियों पर सवाल खड़े किए थे। बाटला हाउस पर कोर्ट का फैसला आ गया और यह सिद्ध हो गया कि वहां आतंकवादी ही छिपे थे। इसी तरह एलईटी आतंकवादी डेविड हेडली कोर्ट में कह चुका है कि इशरत जहां आतंकवादी कार्रवाइयों में लिप्त थी। यह केजरीवाल ही थे, जिन्होंने 2013 के विधानसभा के दौरान बकायदा पर्चा निकाला था कि ‘‘बीजेपी एक कम्यूनल पार्टी है। अभीतक मुसलमानों के पास कांग्रेस के अलावा कोई विकल्प नहीं था। अब उनके सामने एक ईमानदार पार्टी आम आदमी पार्टी है।' इस पर्चे का संज्ञान चुनाव आयोग ने लिया था और अरविंद केजरीवाल के खिलाफ नोटिस जारी किया था। इस समय राम का सहारा लेने वाले केजरीवाल की असलियत समझी जा सकती है। पानी, बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर करोड़ों का प्रचार कर खुद को बहुत काबिल मुख्यमंत्री सिद्ध करने की होड़ में लगे केजरीवाल असलियत से मुंह मोड़ते नजर आते हैं। केजरीवाल को मालूम है कि दिल्ली को रोजाना 1260 मिलियन गैलन पानी की आवश्यकता है, लेकिन आपूर्ति अभी भी 937 मिलियन गैलन की है। यानी जितना लोगों को चाहिए उससे 25 प्रतिशत कम पानी दिल्ली वालों को मिलता है, उसपर तुर्रा यह कि पानी के मामले में दिल्ली सरकार ने कमाल कर दिया है। अभी भी दिल्ली के 17 प्रतिशत घरों में पाइप से पानी नहीं मिलता, 13 प्रतिशत अनाधिकृत काॅलोनियों को पानी की नियमित आपूर्ति से वंचित रखा गया है। केजरीवाल को मालूम है कि जिन कुछ शहरों में भूजल समाप्ति की ओर है, उसमें दिल्ली भी है। 2015 में इसी आम आदमी पार्टी ने यह वायदा किया था कि हर महीने प्रत्येक परिवार को 20 हजार लीटर पानी उनकी सरकार उपलब्ध कराएगी पर दिल्ली सरकार आजतक इस आकड़े तक नहीं पहुंच सकी। आज भी दिल्ली की एक बड़ी जनसंख्या गंदा पानी पीने के लिए मजबूर है और केजरीवाल पानी का रामराज्य लाने की बात करते हैं। दिल्ली को सिंगापुर बनाने का ख्याल आम आदमी पार्टी के हर बजट में आता है। पर यह ख्याल अगले साल के लिए सवाल में बदल जाता है। एकबार फिर आम आदमी पार्टी ने यह सपना दिखाया है कि 2047 तक दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय सिंगापुर की प्रति व्यक्ति आय के बराबर हो जाएगी। यानी इस पीढ़ी के लिए अरविंद केजरीवाल के पास कोई सपना भी नहीं है। सिंगापुर में प्रति व्यक्ति आय इस समय 58,500 डाॅलर है। रुपये में इसे बदलें तो यह 43 लाख 75 हजार बनता है। केजरीवाल जी 2020-21 में दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय दो लाख 54 हजार थी जबकि 2016-17 में दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय लगभग तीन लाख रुपये थी। अब आप ही बताइए कि पिछले छह साल के अपने शासनकाल में प्रति व्यक्ति आय कितना बढ़ा पाए। हर कमी को दूसरों के सिर पर डालना और अपनी नाकामी को विज्ञापन के जरिए छिपाना किसी रामराज्य का हिस्सा नहीं हो सकता। जिस मुख्यमंत्री के 40 विधायक अपराधी प्रवृति के हों, जिनके मंत्रियों के विरुद्ध बलात्कार, धोखाधड़ी और फर्जीवाड़े के मुकदमे अदालतों में चल रहे हों वह यदि रामराज्य की दुहाई दे तो वह किस श्रेणी का व्यक्ति होगा, यह जनता जानती है। (लेखक, दिल्ली बीजेपी के महामंत्री हैं।)
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सियाराम पांडेय 'शांत' विगत कई दशकों से बुंदेलखंड उपेक्षित है। इस क्षेत्र के नेताओं ने अपने बारे में तो सोचा लेकिन बुंदेलखंड की समस्याओं को दूर करने की दिशा में काम नहीं किया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार बनने के बाद हालात बदले हैं। यहां धरातल पर विकास कार्य दिखाई देने लगा है। बुंदेलखंड के लोगों की माली हालत सुधारने और यहां से पलायन रोकने को सरकार ने गंभीरता से प्रयास आरंभ कर दिया है। वर्ष 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूपी में डिफेंस इंडस्ट्रियल काॅरिडोर स्थापित करने की घोषणा की थी तभी इस बात के संदेश मिलने लगे थे कि अब बुंदेलखंड की तरक्की के द्वार खुलने लगे हैं। काॅरिडोर के लिए जिन 6 जिलों का चयन किया गया था, उसमें दो जिले झांसी और चित्रकूट बुंदेलखंड के हैं। लाॅकडाउन से पहले हुए डिफेंस एक्सपो में दो दर्जन कंपनियां 50 हजार करोड़ के निवेश के एमओयू पर हस्ताक्षर भी कर चुकी हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बुंदेलखंड के लोगों को आश्वस्त किया है कि बुंदेलखंड की धरती आने वाले दिनों में सोना उगलेगी, जिसमें अर्जुन सहायक परियोजना की बड़ी भूमिका होगी। खेतों को पानी मिले तो क्या नहीं हो सकता। बुंदेलखंड तरक्की नहीं कर पा रहा था तो इसके पीछे वहां पानी का अभाव ही प्रमुख था। इसमें संदेह नहीं कि योगी सरकार ने जनता की इस पीड़ा को समझा और उसे दूर करने का प्रयास किया। इसमें शक नहीं कि योगी सरकार जिस तेजी के साथ बुंदेलखंड को विकसित करने की दिशा में आगे बढ़ रही है। साल-दर साल उसके लिए बजट प्रस्ताव कर रही है। वहां एक से बढ़कर एक परियोजनाएं दे रही है, अगर उतनी योजनाओं का भी ठीक से क्रियान्वयन हो जाए तो बुंदेलखंड के विकास को पंख लगते और उसके दिन बहुरते देर नहीं लगेगी। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बुंदेलखंड के लोगों को आश्वस्त किया है कि एक -दो माह में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अर्जुन सहायक परियोजना के लहचूरा बांध का लोकार्पण करेंगे। 2600 करोड़ रुपये की लागत वाली धसान नदी पर बनी इस परियोजना से महोबा, हमीरपुर और बांदा जिले के 168 गांवों के किसान लाभान्वित होंगे। डेढ़ लाख किसानों के 15 हजार हैक्टेयर भूमि को सिंचाई की सुविधा मिलेगी तो चार लाख लोगों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो सकेगा। मुख्यमंत्री ने हर नदी को गंगा जैसा ही महत्व देने और उसके एक-एक बूंद जल का संरक्षण और सदुपयोग करने की लोगों से अपील की है। बुंदेलखंड को एक्सप्रेस वे, डिफेंस कॉरिडोर और जल जीवन मिशन जैसी परियोजनाएं इस क्षेत्र को नई ऊंचाइयों तक ले जाएंगी। स्थानीय नौजवानों को जल जीवन मिशन के तहत गांव-गांव रोजगार से जोड़ने, संस्थाओं के सीएसआर फंड से स्कूलों का कायाकल्प कराने पर भी सरकार का विशेष ध्यान सहज ही अपनी ओर आकृष्ट करता है। रसिन बांध परियोजना एवं चिल्लीमल पंप नहर परियोजना का लोकार्पण करने के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि 70 के दशक में बनी योजनाएं आजतक पूरी नहीं की गईं जबकि इस दौरान कुछ लोग बुंदेलखंड को कंगाल कर खुद मालामाल होते रहे। देश को आजादी 1947 में मिल गई लेकिन भगवान श्रीराम की तपस्थली बुंदेलखंड में पलायन, बेरोजगारी, सूखा, धर्म स्थलों पर कब्जा वन्य एवं प्राकृतिक संपदा पर डकैतों और माफियाओं का कब्जा रहा। 70 के दशक में बुंदेलखंड के लिये बनी योजनाएं आजतक पूरी नहीं की गईं। नेताओं के घर बने, उनके बच्चे विदेश पढ़ने गए लेकिन बुंदेलखंड की गरीबी नहीं गई । बुंदेलखंड के विकास का पैसा चंद लोगों की जेब में जाता रहा। मोदी-योगी की सरकार में अब ऐसा नहीं हो सकता। यदि किसी ने ऐसा किया तो उसकी वही दुर्गति होगी, जैसी डकैतों और माफियाओं की हुई। मुख्यमंत्री की मानें तो बुंदेलखंड का समग्र विकास उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है। बुंदेलखंड के लिए ऐसी समग्र कार्ययोजना तैयार की गई है कि यहां विकास भी होगा और बेरोजगारी भी दूर होगी। बड़े उद्योग-धंधे लगेंगे। हर घर को नल से जल मिलेगा। बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे के माध्यम से सड़क संपर्क बढ़ेगा तो जल्द ही हवाई सेवा भी शुरू होगी। अब यहां के प्राकृतिक संसाधनों का माफिया दोहन नहीं कर पाएंगे। यहां का पैसा यहीं के विकास पर खर्च होगा। उन्होंने भोले-भाले अन्नदाताओं के कंधे पर बंदूक रखकर भारत के विकास को अवरुद्ध करने वालों को करारा जवाब देने की जरूरत पर भी बल दिया। कहा कि किसानों को बरगलाया जाता है कि कॉन्ट्रैक्ट खेती से जमीन बंधक बना ली जाएगी। यह कोरी कल्पना है। उन्होंने कहा कि वैद्यनाथ समूह ने हर्बल प्रोजेक्ट में यहीं के किसानों से माल खरीदने का कार्य किया। किसी की जमीन कब्जा नहीं की बल्कि लोगों को मुनाफा दिया। सरकार किसानों के हित के लिए प्रतिबद्ध है और एमएसपी जारी रहेगी। चित्रकूट की धरती ऋषि-मुनियों के तप से लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने वाली रही है। यह वह धरती है जिसने वनवास काल में प्रभु श्रीराम को शरण दिया। देश के आजाद होने के 70 दशक बाद भी किया धरती प्यासी रहे, यह कैसे हो सकता है। त्रेता युग में भगवान श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा था 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।' आज इसके दर्शन करने हो तो बुंदेलखंड इसका साक्षात उदाहरण है। सरकार बुंदेलखंड को भगवान श्रीराम के भाव के अनुरूप स्वर्ग जैसा बनाने का कार्य कर रही है। चार वर्षों में चित्रकूट में धार्मिक पर्यटन के विकास का कार्य किसी से छुपा नहीं है। पूरे बुंदेलखंड में सर्वत्र कुछ ना कुछ परिवर्तन दिखाई दे रहा है। चित्रकूट को देश की राजधानी दिल्ली से जोड़ने के लिए बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे का निर्माण 50 प्रतिशत पूरा हो चुका है। आने वाले दिनों में दिल्ली की दूरी 6 घंटे में पूरी की जा सकेगी। हर जिले में औद्योगिक क्लस्टर विकसित हो रहे हैं, इससे नौजवानों को व्यापक रोजगार मिलेगा। बुंदेलखंड के डिफेंस कॉरिडोर में बनने वाली तोप और फाइटर प्लेन दुश्मन की छाती पर मूंग दलने का कार्य करेगी। हर घर नल से जल योजना विकास का मॉडल ही नहीं बल्कि रोजगार सृजन का माध्यम भी बनेगी। मुख्यमंत्री ने वनटांगिया और थारू लोगों की तरह यहां की कोल जाति के लोगों को आवास सुविधा देने की बात कही है। मुख्यमंत्री ने 229 परियोजनाओं का लोकार्पण व शिलान्यास किया। इसमें 168 परियोजनाएं लोकार्पण व 61 शिलान्यास की शामिल हैं। बांदा में 17 परियोजनाओं का लोकार्पण, 27 का शिलान्यास, हमीरपुर में 61 का लोकार्पण 20 का शिलान्यास, महोबा में 71 का लोकार्पण छह का शिलान्यास एवं चित्रकूट में 19 का लोकार्पण व आठ का शिलान्यास किया है। अगर वे अपने इस महाभियान में सफल होते हैं और अपनी नीतियों के क्रियान्वयन में नौकरशाहों का साथ उन्हें पूरी जिम्मेदारी से मिलता है तो बुंदेलखंड को विकसित होते देर नहीं लगेगी, इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है। (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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योगेश कुमार गोयल महिलाओं के 53 किलोग्राम भार वर्ग में टोक्यो ओलम्पिक का पहले ही टिकट हासिल कर चुकी भारत की 26 वर्षीया स्टार पहलवान विनेश फोगाट खेल प्रेमियों की उम्मीदों पर खरा उतरते हुए एकबार फिर दुनिया की नंबर एक महिला पहलवान बन गई हैं। यह रैंकिंग हासिल कर उन्होंने ओलम्पिक में भारत के पदक जीतने की संभावनाएं मजबूत कर दी हैं। एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों की स्वर्ण पदक विजेता तथा विश्व चैम्पियनशिप की कांस्य पदक विजेता रह चुकी विनेश टोक्यो ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करने वाली एकमात्र भारतीय महिला पहलवान हैं। विनेश ने 7 मार्च को माटियो पैलिकोन रैंकिंग कुश्ती सिरीज में लगातार दूसरे सप्ताह स्वर्ण पदक जीतते हुए अपने भार वर्ग में एकबार फिर नंबर वन रैंकिंग हासिल की है। उससे एक सप्ताह पहले ही उन्होंने कीव में भी स्वर्ण पदक जीता था। कोरोना महामारी के बुरे दौर से गुजरने के बाद विनेश नवम्बर 2020 से यूरोप में ट्रेनिंग कर रही थी और महामारी व लॉकडाउन के कारण खेल से दूर रहने के बाद वह करीब एक साल बाद रिंग में उतरी थी। 2020 में राष्ट्रीय खेल दिवस के अवसर पर ‘खेल रत्न’ अवॉर्ड मिलने से महज एक दिन पहले वह कोरोना संक्रमित पाई गई थी लेकिन अपने बुलंद हौसलों के चलते उन्होंने न केवल कोरोना को हराया बल्कि अपने भार वर्ग में फिर से दुनिया की शीर्ष महिला पहलवान बन गई हैं। विनेश ने प्रतियोगिता में विश्व की नंबर तीन पहलवान के रूप में प्रवेश किया था और 14 अंक हासिल कर वह फिर से नंबर एक बनी। उन्होंने टूर्नामेंट में एक भी अंक नहीं गंवाया और तीन में से अपने दो मुकाबलों में प्रतिद्वंद्वी को चित्त किया। महिला कुश्ती में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित विनेश ने 18वें एशियाई खेलों की कुश्ती प्रतियोगिता के 50 किलोग्राम वर्ग में स्वर्ण पदक जीतकर कीर्तिमान स्थापित किया था और वह लगातार दो एशियाई खेलों में पदक जीतने वाली पहली महिला पहलवान भी बनी थी। भिवानी (हरियाणा) की यह पहलवान राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों के अलावा विश्व चैम्पियनशिप में भी पदक जीत चुकी है। 18 सितम्बर 2019 को विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीतकर विनेश टोक्यो ओलम्पिक के लिए अपना टिकट पक्का करने में सफल हुई थी। उन्होंने 53 किलोग्राम भार वर्ग में विश्व चैम्पियनशिप के रेपचेज कांस्य पदक मुकाबले में दो बार की विश्व कांस्य पदक विजेता मिस्र की मारिया प्रेवोलार्की को 4-1 से हराकर कांस्य पदक जीता था। हालांकि उससे पहले उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तीन दर्जन से ज्यादा पदक जीते थे लेकिन किसी भी विश्व चैम्पियनशिप में वह उनका पहला पदक था। 2016 के रियो ओलम्पिक के दौरान चोटिल हो जाने के बाद विनेश ने वर्ष 2018 में रेसलिंग में शानदार वापसी करते हुए दो बड़े मुकाबलों में स्वर्ण पदक जीतकर भारत का बहुत मान-सम्मान बढ़ाया था और तब से वह महिला रेसलिंग में लगातार स्वर्णिम इतिहास रच रही हैं। विनेश ने पहली बार वर्ष 2013 की एशियन रेसलिंग चैम्पियनशिप में हिस्सा लिया था और 51 किलोग्राम भार वर्ग में कांस्य पदक हासिल कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया था। 2018 में पैर दर्द की समस्या के बावजूद एशियाई खेलों में 50 किलो फ्रीस्टाइल कुश्ती वर्ग में स्वर्ण पदक जीतकर उन्होंने स्वर्णिम इतिहास रचा था और एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान भी बनी थी। अगस्त 2018 में एशियाई खेलों के फाइनल मुकाबले के दिन विनेश पैर में दर्द की समस्या से जूझ रही थी, फिर भी उन्होंने जापान की इरी युकी को 6-2 से मात देते हुए गोल्ड पर कब्जा किया था और एशियाई खेलों में लगातार दो बार पदक जीतने वाली पहली महिला पहलवान बनी थी। 2014 के एशियाई खेलों में विनेश ने कांस्य पदक जीता था। एशियाई खेलों के अलावा राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण जीतने वाली विनेश पहली भारतीय पहलवान हैं। वह 2014 और 2018 के राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण तथा 2017 व 2018 की एशियन चैम्पियनशिप में रजत जीत चुकी है। 2014 के ग्लासगो राष्ट्रमंडल में स्वर्ण जीतकर विनेश ने पूरी दुनिया को अपनी काबिलियत का परिचय दिया था। अगस्त 2016 में रियो ओलम्पिक के दौरान भी उनसे देश को काफी उम्मीदें थी किन्तु स्पर्धा के दौरान गंभीर चोट लगने के कारण वह ओलम्पिक से बाहर हो गई थी और उनके भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया था। चोटिल होने के कारण वह एक साल से भी ज्यादा समय तक अखाड़े से दूर रही लेकिन अखाड़े से लंबी अवधि की दूरी के बाद जब उन्होंने मैदान में वापसी की तो एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर ही दम लिया। 2018 के एशियाई खेलों में विनेश के लिए सबसे सुखद अहसास यही रहा कि चीन की जिस पहलवान सुन यानान की वजह से उन्हें ओलम्पिक में चोट लगी थी, उसी पहलवान को शुरुआती मुकाबले में ही 8-2 से धूल चटाकर विनेश ने शानदार जीत हासिल की और फाइनल मुकाबले में जापान की युकी इरी को 6-2 से मात देकर गोल्ड अपने नाम कर रेसलिंग में भारत की सनसनी गर्ल बन गई। 25 अगस्त 1994 को हरियाणा के चरखीदादरी जिले के बलाली गांव में जन्मी विनेश ने 10 वर्ष की अल्पायु में ही अपने पिता राजपाल को खो दिया था, जिनकी एक जमीन विवाद में हत्या कर दी गई थी। पिता के देहांत के बाद उनका परिवार बहुत सीमित संसाधनों में जीवन-यापन करने को मजबूर था। उस दौरान वरिष्ठ ओलम्पिक कोच अपने ताऊ महावीर फोगाट की बेटियों गीता और बबीता को देखकर विनेश को भी अखाड़े में जोर आजमाइश की प्रेरणा मिली। उनके ताऊ महावीर फोगाट ने ही उन्हें भी पहलवानी के गुर सिखाए। बहरहाल, विनेश पिछले काफी समय से कहती रही हैं कि उनका अगला लक्ष्य ओलम्पिक में पदक जीतना है और अब दुनिया की शीर्ष महिला पहलवान बनने के बाद ओलम्पिक में भी उनसे उम्मीदें काफी बढ़ गई हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि विनेश ने जिस प्रकार हालिया मुकाबलों में स्वर्ण पदक जीते हैं, ओलम्पिक में भी उनका वैसा ही बेहतरीन प्रदर्शन देखने को मिलेगा और वह भारत को ओलम्पिक विजेता बनाने में सफल होंगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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योगेश कुमार गोयल महिलाओं के 53 किलोग्राम भार वर्ग में टोक्यो ओलम्पिक का पहले ही टिकट हासिल कर चुकी भारत की 26 वर्षीया स्टार पहलवान विनेश फोगाट खेल प्रेमियों की उम्मीदों पर खरा उतरते हुए एकबार फिर दुनिया की नंबर एक महिला पहलवान बन गई हैं। यह रैंकिंग हासिल कर उन्होंने ओलम्पिक में भारत के पदक जीतने की संभावनाएं मजबूत कर दी हैं। एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों की स्वर्ण पदक विजेता तथा विश्व चैम्पियनशिप की कांस्य पदक विजेता रह चुकी विनेश टोक्यो ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करने वाली एकमात्र भारतीय महिला पहलवान हैं। विनेश ने 7 मार्च को माटियो पैलिकोन रैंकिंग कुश्ती सिरीज में लगातार दूसरे सप्ताह स्वर्ण पदक जीतते हुए अपने भार वर्ग में एकबार फिर नंबर वन रैंकिंग हासिल की है। उससे एक सप्ताह पहले ही उन्होंने कीव में भी स्वर्ण पदक जीता था। कोरोना महामारी के बुरे दौर से गुजरने के बाद विनेश नवम्बर 2020 से यूरोप में ट्रेनिंग कर रही थी और महामारी व लॉकडाउन के कारण खेल से दूर रहने के बाद वह करीब एक साल बाद रिंग में उतरी थी। 2020 में राष्ट्रीय खेल दिवस के अवसर पर ‘खेल रत्न’ अवॉर्ड मिलने से महज एक दिन पहले वह कोरोना संक्रमित पाई गई थी लेकिन अपने बुलंद हौसलों के चलते उन्होंने न केवल कोरोना को हराया बल्कि अपने भार वर्ग में फिर से दुनिया की शीर्ष महिला पहलवान बन गई हैं। विनेश ने प्रतियोगिता में विश्व की नंबर तीन पहलवान के रूप में प्रवेश किया था और 14 अंक हासिल कर वह फिर से नंबर एक बनी। उन्होंने टूर्नामेंट में एक भी अंक नहीं गंवाया और तीन में से अपने दो मुकाबलों में प्रतिद्वंद्वी को चित्त किया। महिला कुश्ती में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित विनेश ने 18वें एशियाई खेलों की कुश्ती प्रतियोगिता के 50 किलोग्राम वर्ग में स्वर्ण पदक जीतकर कीर्तिमान स्थापित किया था और वह लगातार दो एशियाई खेलों में पदक जीतने वाली पहली महिला पहलवान भी बनी थी। भिवानी (हरियाणा) की यह पहलवान राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों के अलावा विश्व चैम्पियनशिप में भी पदक जीत चुकी है। 18 सितम्बर 2019 को विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीतकर विनेश टोक्यो ओलम्पिक के लिए अपना टिकट पक्का करने में सफल हुई थी। उन्होंने 53 किलोग्राम भार वर्ग में विश्व चैम्पियनशिप के रेपचेज कांस्य पदक मुकाबले में दो बार की विश्व कांस्य पदक विजेता मिस्र की मारिया प्रेवोलार्की को 4-1 से हराकर कांस्य पदक जीता था। हालांकि उससे पहले उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तीन दर्जन से ज्यादा पदक जीते थे लेकिन किसी भी विश्व चैम्पियनशिप में वह उनका पहला पदक था। 2016 के रियो ओलम्पिक के दौरान चोटिल हो जाने के बाद विनेश ने वर्ष 2018 में रेसलिंग में शानदार वापसी करते हुए दो बड़े मुकाबलों में स्वर्ण पदक जीतकर भारत का बहुत मान-सम्मान बढ़ाया था और तब से वह महिला रेसलिंग में लगातार स्वर्णिम इतिहास रच रही हैं। विनेश ने पहली बार वर्ष 2013 की एशियन रेसलिंग चैम्पियनशिप में हिस्सा लिया था और 51 किलोग्राम भार वर्ग में कांस्य पदक हासिल कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया था। 2018 में पैर दर्द की समस्या के बावजूद एशियाई खेलों में 50 किलो फ्रीस्टाइल कुश्ती वर्ग में स्वर्ण पदक जीतकर उन्होंने स्वर्णिम इतिहास रचा था और एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान भी बनी थी। अगस्त 2018 में एशियाई खेलों के फाइनल मुकाबले के दिन विनेश पैर में दर्द की समस्या से जूझ रही थी, फिर भी उन्होंने जापान की इरी युकी को 6-2 से मात देते हुए गोल्ड पर कब्जा किया था और एशियाई खेलों में लगातार दो बार पदक जीतने वाली पहली महिला पहलवान बनी थी। 2014 के एशियाई खेलों में विनेश ने कांस्य पदक जीता था। एशियाई खेलों के अलावा राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण जीतने वाली विनेश पहली भारतीय पहलवान हैं। वह 2014 और 2018 के राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण तथा 2017 व 2018 की एशियन चैम्पियनशिप में रजत जीत चुकी है। 2014 के ग्लासगो राष्ट्रमंडल में स्वर्ण जीतकर विनेश ने पूरी दुनिया को अपनी काबिलियत का परिचय दिया था। अगस्त 2016 में रियो ओलम्पिक के दौरान भी उनसे देश को काफी उम्मीदें थी किन्तु स्पर्धा के दौरान गंभीर चोट लगने के कारण वह ओलम्पिक से बाहर हो गई थी और उनके भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया था। चोटिल होने के कारण वह एक साल से भी ज्यादा समय तक अखाड़े से दूर रही लेकिन अखाड़े से लंबी अवधि की दूरी के बाद जब उन्होंने मैदान में वापसी की तो एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर ही दम लिया। 2018 के एशियाई खेलों में विनेश के लिए सबसे सुखद अहसास यही रहा कि चीन की जिस पहलवान सुन यानान की वजह से उन्हें ओलम्पिक में चोट लगी थी, उसी पहलवान को शुरुआती मुकाबले में ही 8-2 से धूल चटाकर विनेश ने शानदार जीत हासिल की और फाइनल मुकाबले में जापान की युकी इरी को 6-2 से मात देकर गोल्ड अपने नाम कर रेसलिंग में भारत की सनसनी गर्ल बन गई। 25 अगस्त 1994 को हरियाणा के चरखीदादरी जिले के बलाली गांव में जन्मी विनेश ने 10 वर्ष की अल्पायु में ही अपने पिता राजपाल को खो दिया था, जिनकी एक जमीन विवाद में हत्या कर दी गई थी। पिता के देहांत के बाद उनका परिवार बहुत सीमित संसाधनों में जीवन-यापन करने को मजबूर था। उस दौरान वरिष्ठ ओलम्पिक कोच अपने ताऊ महावीर फोगाट की बेटियों गीता और बबीता को देखकर विनेश को भी अखाड़े में जोर आजमाइश की प्रेरणा मिली। उनके ताऊ महावीर फोगाट ने ही उन्हें भी पहलवानी के गुर सिखाए। बहरहाल, विनेश पिछले काफी समय से कहती रही हैं कि उनका अगला लक्ष्य ओलम्पिक में पदक जीतना है और अब दुनिया की शीर्ष महिला पहलवान बनने के बाद ओलम्पिक में भी उनसे उम्मीदें काफी बढ़ गई हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि विनेश ने जिस प्रकार हालिया मुकाबलों में स्वर्ण पदक जीते हैं, ओलम्पिक में भी उनका वैसा ही बेहतरीन प्रदर्शन देखने को मिलेगा और वह भारत को ओलम्पिक विजेता बनाने में सफल होंगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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सियाराम पांडेय 'शांत' प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्वोत्तर के शिलांग में जहां 7500 वें जन औषधि केंद्र का उद्घाटन किया, वहीं देशवासियों को सस्ता और सुलभ इलाज उपलब्ध कराने का दावा भी किया। उन्होंने केंद्र सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों पर रोशनी डाली तो जन औषधि केंद्र चलाने वालों से संवाद भी किया। देश के मुखिया से इसी तरह के व्यवहार की अपेक्षा की जानी चाहिए। कहना न होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश में कुछ नया करने के लिए जाने जाते हैं। एक से सात मार्च तक देशभर में जन औषधि सप्ताह मनाया गया। इसके आखिरी दिन प्रधानमंत्री द्वारा 7500 वें जन औषधि केंद्र का राष्ट्र को समर्पण और संबोधन तथा इसी बीच लाभार्थियों से संवाद यह बताता है कि प्रधानमंत्री जन स्वास्थ्य को लेकर गंभीर हैं। उन्होंने बीमारियों से बचने को लेकर स्वच्छता पर ध्यान देने, उत्तम आहारचर्या अपनाने तथा योग करने की भी देशवासियों को नसीहत दी। 2014 में केंद्र में सरकार बनने के दिन से वे योग, स्वच्छता और आत्मनिर्भरता की वकालत कर रहे हैं। उनकी कोशिश है सबका साथ, सबका विकास लेकिन इसके लिए सबका विश्वास होना बहुत जरूरी है। प्रधानमंत्री इन तीनों ही मोर्चों पर एकसाथ काम कर रहे हैं। लोगों को सस्ता इलाज मिले, इसके लिए जरूरी है कि हर सरकारी अस्पताल में दवाओं की उपलब्धता हो। अच्छे विशेषज्ञ चिकित्सक हों। हर तरह के चिकित्सा जांच उपकरण हों, जिससे मरीजों को बाहर जाकर अपनी जांच न करानी पड़े। मेडिकल स्टोर पर भी दवाइयां सस्ती हों। इस जरूरत को यह देश लंबे अरसे से महसूस कर रहा था। प्रधानमंत्री ने वर्ष 2014 में जन औषधि केंद्र की स्थापना और उसमें सस्ती जेनेरिक औषधियों की उपलब्धता सुनिश्चित कर आम आदमी के जेब पर पड़ने वाले बेइंतहा स्वास्थ्य खर्च में कटौती करने का काम किया। इससे जहां कुछ लोगों को रोजगार मिला, वहीं गरीबों को इलाज में भी सहूलियत मिली। प्रधानमंत्री का यह दावा इस देश के आमजन का भरोसा मजबूत करता है कि केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य का बजट बढ़ा दिया है। हर प्रांत के हर जिले में मेडिकल काॅलेज खोले जा रहे हैं। एमबीबीएएस की 30 हजार और पीजी की 24 हजार सीटें बढ़ा दी गई हैं। देश में 1.5 लाख हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर खोले जा रहे हैं। इन सबका लक्ष्य केवल एक ही है कि लोग जहां कहीं भी रह रहे हैं, उसके आसपास स्वास्थ्य सुविधाएं हस्तगत कर सकें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस दावे में दम है कि जन औषधि केंद्र और आयुष्मान भारत योजना से गरीबों और मध्यम वर्ग को हर साल पचास हजार करोड़ रुपए की बचत हो रही है। आयुष्मान योजना से 50 करोड़ लोग लाभान्वित हुए हैं। खानपान में पोषक तत्वों का भंडार कहे जानेवाले मोटे अनाजों को शामिल करने का उनका सुझाव भी काबिलेगौर है। प्रधानमंत्री कोई नई बात नहीं कह रहे हैं। भारतीय संस्कृति, सभ्यता, रीति-नति और जीवन शैली को अपना कर ही यह देश स्वस्थ और सक्षम रहा है। आज हम भारतीय संस्कृति, सभ्यता, रहन-सहन से कट गए हैं। हमारी समस्याओं की मूल वजह भी यही है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि देश में मोटे अनाजों की समृद्ध परंपरा रही है। पहले कहा जाता था कि मोटे अनाज केवल गरीबों के उपयोग के लिए हैं लेकिन अब हालात बदले हैं। अब पांच सितारा होटलों में भी इनकी मांग की जा रही है। बीमारी कोई भी हो, वह देश के सामाजिक आर्थिक ढांचे को प्रभावित करती है। यही वजह है कि केंद्र सरकार ने अमीर-गरीब सभी के लिए बिना किसी भेदभाव के उपचार की व्यवस्था की है। इस सरकार का मानना है कि लोग जितने स्वस्थ होंगे, देश उतना ही समर्थ और समृद्ध होगा। दुनिया में योग का लोहा मनवाने के बाद नरेंद्र मोदी का प्रयास यहां की प्राकृतिक और परंपरागत औषधियों को महत्व देने और दिलाने की है। इसमें संदेह नहीं कि मेक इन इंडिया कार्यक्रम के तहत दवा और उपकरणों की मांग बढ़ रही है। इनका उत्पादन भी बढ़ा है और लोगों को रोजगार भी मिल रहे हैं। प्रधानमंत्री ने कहा है कि देश में अबतक 7500 केंद्र खुल गए हैं और सरकार 10000 केंद्र का लक्ष्य जल्द पूरा करना चाहती है। उन्होंने घोषणा की कि जल्दी ही जन औषधि केंद्र पर 75 आयुष दवा भी मिलेगी। देश में 1100 जन औषधि केंद्र का संचालन महिलाएं करती हैं। जन औषधि केंद्र खुलने से लोगों को इस साल सात मार्च तक 3600 करोड़ रुपए की बचत हो चुकी है। वर्ष 2014 में जन औषधि केंद्र का कारोबार 7.29 करोड़ रुपए का था जो अब बढ़कर 6000 करोड़ रुपए वार्षिक हो गया है। इन केन्द्रों पर 1449 तरह की दवाएं और उपकरण मिल रहे हैं। लोगों को पैसों की कमी की वजह से दवा खरीदने में दिक्कत न आए, इसलिए जन औषधि योजना की शुरुआत की गई थी। जनऔषधि केंद्र से सैनेटरी नैपकिन जैसी चीजें आसानी से मिल रही हैं। यह महिलाओं को आत्मनिर्भर और सशक्त बनाना नहीं तो और क्या है। लाभार्थियों से बातचीत के बाद पीएम मोदी ने जनऔषधि परियोजना से जुड़े लोगों के उत्कृष्ट कार्यों के लिए सम्मानित भी किया। उन्होंने कहा कि भारत दुनिया की फार्मेसी के रूप में खुद को साबित कर चुका है। हमने वैक्सीन बनाई। मेड इन इंडिया वैक्सीन सिर्फ भारत के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया के लिए भी है। हम दुनिया में सबसे सस्ती वैक्सीन दे रहे हैं। प्राइवेट अस्पतालों में वैक्सीन के दाम महज 250 रुपए हैं। जन स्वास्थ्य केंद्रों पर दवाएं बाजार मूल्य से 50 से 90 प्रतिशत सस्ती मिलती हैं। प्रधानमंत्री चाहते हैं कि हर मेडिकल स्टोर जेनेरिक औषधियों की बिक्री करे लेकिन औषधियों में मुनाफे का खेल उनकी सोच के आड़े आ जाता है। यह अच्दी बात है कि अब लोगों का जेनेरिक दवाओं पर विश्वास बढ़ने लगा है लेकिन अभी भी तमाम देशवासी इस राय के हैं कि जेनेरिक औषधियां अधोमानक होती हैं। कम प्रभावकारी होती हैं लेकिन उन्हें कौन समझाए कि ब्रांडेड कंपनियों के नाम पर देश में नकली दवाओं का कारोबार किस तेजी के साथ आगे बढ़ रहा है? कुछ साल पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस बात की चिंता जाहिर की थी कि भारत समेत कम और मध्यम आय वाले देशों में नकली दवाओं का कारोबार 30 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। भारतीय औषधि उत्पादन उद्योग सालाना लगभग 55 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक के फार्मास्यूटिकल उत्पादों का निर्यात करता है। भारत की दस प्रमुख दवा उत्पादक कंपनियों का कारोबार ही अरबों-खरबों का है। दरअसल दवा उत्पादक कंपनियों को जनता के स्वास्थ्य की नहीं, अपने लाभ की चिंता है। इसलिए वे जेनेरिक औषधियों की बिक्री नहीं चाहते। अगर वे ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हें अपनी औषधियों की कीमत कम करनी चाहिए, यही लोकहित का तकाजा है। देश स्वस्थ रहेगा तो कमाने के और रास्ते निकल आएंगे लेकिन अगर देश बीमार हो गया तो 'जाई रही पाई बिनु पाई' वाले हालात हो जाएंगे। इसलिए सबके भले में अपना भला तलाशने में ही वास्तविक भलाई है। सस्ते और सुलभ इलाज पर दवा कंपनियों के लालच की शनिदृष्टि किसी भी लिहाज से उचित नहीं है। (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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प्रमोद भार्गव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रसायन मुक्त और पर्यावरण हितैषी खिलौने बनाने का आह्वान व्यापारियों से किया है। उन्होंने भारतीय खिलौना मेले में कहा कि 'अगर देश के खिलौना उत्पादकों को वैश्विक बाजार में हिस्सेदारी बढ़ानी है तो उन्हें पर्यावरण-अनुकूल पदार्थों का अधिक से अधिक उपयोग करना होगा। खिलौनों के क्षेत्र में देश के पास परंपरा, तकनीक, विचार और प्रतिस्पर्धा है। गोया हम आसानी से रसायन-युक्त खिलौनों से छुटकारा पा सकते हैं। देश में फिलहाल खिलौना उद्योग करीब 7.20 लाख करोड़ का है। इसमें भारत की हिस्सेदारी नगण्य है। देश में खिलौनों की कुल मांग का करीब 85 प्रतिशत आयात किया जाता है। इस स्थिति को बदलने की जरूरत है। इससे हम आत्मनिर्भर बनने के साथ-साथ दुनिया भर की जरूरतों को भी पूरा कर सकते हैं, क्योंकि हमारे पास देशज तकनीक के साथ-साथ ऐसे सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं, जो कंप्युटर खेलों के माध्यम से भारत की कथा-कहानियों को दुनियाभर में पहुंचा सकते हैं।' खिलौना शब्द स्मरण में आते ही, अनेक आकार-प्रकार के खिलौने स्मृति में स्वरूप ग्रहण करने लगते हैं। खिलौनों को बच्चों के खेलने की वस्तु भले ही माना जाता हो, लेकिन ये सभी आयुवर्ग के लोगों को आकर्षित करते हैं। खिलौने जहां, बालमन में जिज्ञासा, रहस्य और रोमांच जगाते हैं, वहीं मन के चित्त को प्रसन्न भी रखते हैं। बच्चे या किशोर एकाकीपन की गिरफ्त में आकर अवसाद के घेरे में आ रहे हों, तो इस अवसाद को समाप्त करने के खिलौने प्रमुख उपकरण हैं। मूक, बघिर व मंदबुद्धि बच्चों को खिलौनों से ही शिक्षा दी जाती है। स्वस्थ छोटे बच्चों के लिए तो समूचे देश में खेल-विद्यालय अर्थत 'प्ले-स्कूल' खुल गए हैं। कामकाजी दंपत्तियों के बच्चों का लालन-पालन इन्हीं शालाओं में हो रहा है। साफ है, बच्चों के शैशव से किशोर होने तक खिलौने उनकी परवरिश के साथ, उनमें रचनात्मक विकास में भी सहायक हैं। खिलौनों की यही महिमा, इन्हें सार्वभौमिक व सर्वदेशीय बनाती है। परंतु बिडंवना है कि इन स्कूलों में प्लास्टिक व इलेक्ट्रोनिक खिलौने और पॉलिस्टर पालने बच्चों को दिए जाते हैं, जो अनजाने में बच्चों के शरीर में जहर घोलने का काम कर रहे हैं। भारत में खिलौना निर्माण का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन में अनेक प्रकार के खिलौने मिले हैं। ये मिट्टी, पत्थर, लकड़ी, धातु, चमड़ा, कपड़े, मूंज, वन्य जीवों की हड्डियों व सींगों और बहुमूल्य रत्नों से निर्मित हैं। जानवरों की असंख्य प्रतिकृतियां भी खिलौनों के रूप में मिली हैं। खिलौनों की अत्यंत प्राचीन समय से उपलब्धता इस तथ्य का प्रतीक है कि भारत में खिलौना निर्माण लाखों लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन था और ये कागज, धातु व लकड़ी से स्थानीय व घरेलू संसाधनों से बनाए जाते थे। मानव जाति के विकास के साथ-साथ खिलौनों के स्वरूप व तकनीक में भी परिवर्तन होता रहा है। इसीलिए जब रबर और प्लास्टिक का आविष्कार हो गया तो इनके खिलौने भी बनने लगे। ऑटो-इंजीनियरिंग अस्तित्व में आई तो चाबी और बैटरी से चलने वाले खिलौने बनने लग गए। नवें दशक में जब कंप्युटर व डिजीटल क्रांति हुई तो एकबार फिर खिलौनों का रूप परिवर्तन हो गया। अब कंप्युटर व मोबाइल स्क्रीन पर लाखों प्रकार के डिजीटल खेल अवतरित होने लगे हैं। हालांकि इनमें अनेक खेल ऐसे भी हैं, जो बाल-मनों में हिंसा और यौन मनोविकार भी पैदा कर रहे हैं। चीन से इनका सबसे ज्यादा आयात होता है। इसीलिए प्रधानमंत्री ने भारतीय लोक-कथाओं व धार्मिक प्रसंगों पर डिजीटल लघु फिल्में बनाने की बात कही है। यदि खिलौनों के निर्माण में हमारे युवा लग जाएं तो ग्रामीण व कस्बाई स्तर पर हम ज्ञान-परंपरा से विकसित हुए खिलौनों के व्यवसाय को पुनजीर्वित कर सकते हैं। ये खिलौने हमारे लोक-जीवन, संस्कृति-पर्व और रीति-रिवाजों से जुड़े होंगे। इससे हमारे बच्चे खेल-खेल में भारतीय लोक में उपलब्ध ज्ञान और संस्कृति के महत्व से भी परिचित होंगे। दूसरी तरफ रबर, प्लास्टिक व डिजीटल तकनीक से जुड़े खिलौनों का निर्माण स्टार्टअप के माध्यम से इंजीनियर व प्रबंधन से जुड़े युवा कर सकते हैं। खिलौना उद्योग से जुड़े परंपरागत उद्योगपति अत्यंत प्रतिभाशाली व अनुभवी है, इसलिए वे इस विशाल व्यवसाय में कुछ नवाचार भी कर सकते हैं। इससे हम एक साथ तीन चुनौतियों का सामना कर सकेंगे। एक चीन के वर्चस्व को चुनौती देते हुए, उससे खिलौनों का आयात कम करते चले जाएंगे। दो, खिलौने निर्माण में कुशल-अकुशल व शिक्षित-अशिक्षित दोनों ही वर्गों से उद्यमी आगे आएंगे, इससे ग्रामीण और शहरी दोनों ही स्तर पर आत्मनिर्भरता बढ़ेगी। यदि हम उत्तम किस्म के डिजीटल-गेम्स बनाने में सफल होते हैं तो इन्हें दुनिया की विभिन्न भाषाओं में डब करके निर्यात के नए द्वार खुलेंगे और खिलौनों के वैश्विक व्यापार में हमारी भागीदारी सुनिश्चित होगी। इस व्यापार में अनंत संभावनाएं हैं। वर्तमान में देश में खिलौनों का बजार 1.7 अरब अमेरिकी डॉलर का है। जिसमें से हम 1.2 अरब डॉलर के खिलौने आयात करते हैं। देश में चार हजार से ज्यादा खिलौने बनाने की इकाईया हैं, जिनमें से 90 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में आती है। 2024 तक इस उद्योग के 147-221 अरब रुपए के हो जाने की उम्मीद है। दरअसल दुनिया में खिलौनों की मांग हर साल औसत करीब पांच फीसदी बढ़ रही हैं, वहीं भारत में खिलौनों की मांग 10 से 15 प्रतिशत इजाफे की उम्मीद है। भारत में संगठित खिलौना बाजार शुरुआती चरण में है। फन स्कूल इंडिया कंपनी की इस बाजार में प्रमुख भागीदारी है। यह कंपनी विदेशी खिलौनों का वितरण भी भारत में करती है। इनमें हेसब्रो, लोगो, डिज्नी, वार्नर ब्रदर्स, टाकरा-टोमी और रेवेंसबर्ग ब्रांडस शामिल हैं। फिलहाल भारत में संगठित खिलौना बाजार खुदरा मूल्यों के आधार पर करीब तीन हजार करोड़ रुपए का है। खिलौना बाजार में पाठशाला जाने वाले बच्चों के लिए रोल-प्ले ट्वॉयज, सुपरमैन, बैटमेन, बेबी आॅल गॉन डॉल उपलब्ध हैं। बड़े बच्चों के लिए डिज्नी डॉल, आरसी कार, न्यू ब्राइट, रिमोट कंट्रोल कार और स्कॉटलैंड यार्ड जैसे खेल हैं। ये सभी खिलौने निर्माण की किसी विशेष तकनीक से नहीं जुड़े, इसलिए हमारे तकनीकीशियन इनका निर्माण भारत में आसानी से कर सकते हैं। इनमें हम भारत में बने परंपरगत रंगों का उपयोग कर फ्लेम रिटार्डेंट जैसे खतरनाक रसायन से बच सकते हैं। भारतीय गुणवत्ता परिषद् (क्यूसीआई) की एक रिपोर्ट ने खिलौनों में जहर की आशंका जताई है। इस रिपोर्ट के अनुसार अनुसार भारत में आयात होने वाले 66.90 प्रतिशत खिलौने बच्चों के लिए खतरनाक हैं। एक अध्ययन में क्यूसीआई ने पाया कि अनेक खिलौनों में मौजूद मैकेनिकल और केमिकल जांचों में गुणवत्ता की कसौटी पर खरे नहीं उतरे। बैटरी से चलने वाली खिलौनों की बैटरियां भी उच्च गुणवत्ता की नहीं पाई गई। यदि खिलौने के ऊपरी हिस्सों में रसायन की परत गीलेपन से गलने लगती है और बच्चा इसे मुंह में लगा लेता है तो जहर शरीर में चला जाता है, जो कई बीमारियों को पैदा कर सकता है। फिजेट स्पिनर नामक खिलौना दुनिया में ऑनलाइन कंपनी ईबे द्वारा बेचा जा रहा है। यह खिलौना ऑटिज्म बीमारी के शिकार बच्चों को रोग से लड़ने के लिए बनाया गया था। ऐसे बच्चे तनावग्रस्त रहते हैं। इसे तनाव से मुक्ति का उपाय बताया गया था। लेकिन यह खिलौना बच्चों में सनक पैदा करने के साथ उनकी खाल को भी नुकसान पहुंचा रहा है। बीबीसी की टीम ने इसे बाल सुरक्षा के मानकों पर खरा नहीं पाए जाने पर इसकी बिक्री प्रतिबंधित किए जाने की मांग की थी। अब इसे वेबसाइट से हटा दिया गया है। भारत में भी इसकी बिक्री बड़े पैमाने पर हुई है। सुरक्षा मानकों पर खरे नहीं उतरने के बाद भारत ने फिलहाल चीनी खिलौना कंपनियों के निर्यात पर फिलहाल पाबंदी लगाई हुई है। यह प्रतिबंध बच्चों के स्वास्थ्य और सार्वजनिक सुरक्षा की दृष्टि से लगाई गई है। इस रोक को हटवाने के लिए चीनी कंपनियों ने विश्व व्यापार संगठन का भी दरवाजा खटखटाया है। भारत सरकार वाकई चीनी उद्योग और उद्योगपतियों को पछाड़ना चाहती है और देसी उद्योगपतियों व नवाचारियों को प्रोत्साहित करना चाहती है तो नीतियों को उदार बनाने के साथ प्रशासन की जो बाधाएं पैदा करने की मानसिकता है, उसपर भी अंकुश लगाना होगा। तभी उद्यमिता विकसित होगी और जहरीले खिलौनों से मुक्ति मिलेगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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विक्रम उपाध्याय लद्दाख में चीन ने हमारी सीमाओं को लांघने की जो हिमाकत की और उसके प्रत्युत्तर में भारत ने जो चीन को जवाब दिया उसकी चर्चा सदियों तक होती रहेगी। सामरिक दृष्टिकोण से हमने चीन को इसबार पटखनी दे दी है। लेकिन भारत और चीन के बीच इस द्वंद्व की कोख से पैदा हुआ है एक अभियान जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने आत्मनिर्भर भारत का नाम दिया है। 20 मई 2020 को प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत अभियान की घोषणा करते हुए कहा कि था कि इस संकल्प को सिद्ध करने के लिए, जमीन, श्रम पैसा और कानून सभी पर बल दिया गया है। आर्थिक रूप से किसी देश को समृद्ध बनाने के लिए आत्मनिर्भरता से ज्यादा और किस चीज की दरकार भला हो सकती है। भारत इस आत्मनिर्भरता को प्राप्त करने की दिशा में चल निकला है लेकिन उसकी इस राह में सबसे बड़ी चुनौती चीन ही पेश कर रहा है। इससे पार पाने का कोई अल्पकालीन नीति नहीं अपनाई जा सकती है। चीन ने भारत को चुनौती परोक्ष रूप में नहीं दी है, बल्कि सीधे और खम ठोककर कहा है कि भारत विकास की कोई भी योजना चीन को दरकिनार कर नहीं बना सकता। 7 मार्च 2021 को चीन के समाचार पत्र ग्लोबल टाइम्स ने एक लेख प्रकाशित किया है जिसका शीर्षक है- हार्ड रियालिटी डैट इंडिया कैन नॉट डॉज व्हेन मेकिंग डेवलपमेंट पॉलिसी। यानी चीन का साफ कहना है कि बिना उसे साथ लिए भारत विकास कर ही नहीं सकता। हालांकि चीन के किसी भी समाचार के प्रकाशन का लक्ष्य चीनी सरकार का प्रोपोगेंडा करना होता है, क्योंकि चीन में कोई आजाद मीडिया तो है नहीं, फिर भी इस लेख में जो दलील और आकड़े दिए गए हैं उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। चीन का कहना है कि आत्मनिर्भर भारत जैसे अभियान का संकल्प देशभक्ति की भावनाओं से किया गया है, जबकि वास्तविकता कुछ और है। चीन इसे पुख्ता करने के लिए कुछ आकड़े प्रस्तुत कर रहा है। मसलन भारत सरकार ने चीन के साथ सीमा संघर्ष बढ़ने के दौरान चीनी कंपनियों पर कई तरह की पाबंदियां लगा दी। चीनी ऐप बंद कर दिए, कई ठेके निरस्त कर दिए, इसके बावजूद दोनों देशों के बीच इस दौरान भी जबर्दस्त बिजनेस हुआ। अप्रैल से दिसंबर 2020 के दौरान चीन भारत का सबसे बड़ा बिजनेस पार्टनर बनकर उभरा। यहां तक कि चीन ने भारत से व्यापार करने के मामले में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया। इस अवधि में भारत ने चीन को 15.3 अरब डॉलर का निर्यात किया तो 45.4 अरब डॉलर का आयात किया। यानी भारत प्रतिबंध के दौरान भी चीन से माल खरीदता रहा। चीन अब इसी आकड़े को आधार बनाकर आत्मनिर्भर भारत अभियान पर कटाक्ष कर रहा है और ज्ञान दे रहा है कि केवल देशभक्ति के नारे से विकास नहीं हो सकता है। क्या आयात-निर्यात के इन आकड़ों तक सीमित है आत्मनिर्भर भारत अभियान? नहीं। आत्मनिर्भर भारत के अभियान का आयाम बहुत बड़ा है। एक साल में कोई देश इतनी तरक्की नहीं कर सकता कि उसकी परनिर्भरता समाप्त हो जाए। खुद चीन ने अपनी विकास की यात्रा 40 सालों में पूरी की है। 1978 में माओ की मृत्यु के बाद चीन ने सोशलिस्ट इकोनॉमी मॉडल को छोड़कर मिश्रित अर्थव्यवस्था की राह पकड़ी थी। यह अलग बात है कि 1980 से लेकर 2005 तक लगातार चीन 10 प्रतिशत से अधिक की दर से विकास करता रहा। लोग कहते हैं कि चीन ने इस विकास यात्रा में दुनिया के तमाम नियम कानून, बिजनेस इथिक्स और मानवाधिकार आदि को ताक पर रख दिया था लेकिन आज की पीढ़ी तो चीन के विकास मॉडल को ही जानती है। भारत के सामने चीन की चुनौतियां हैं, इससे कोई इनकार नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी चुनौती चीन की बढ़ती आर्थिक ताकत ही है। चीन आज भी पूरी दुनिया का सबसे चहेता इनवेस्टमेंट डेस्टीनेशन बना हुआ है। यही नहीं चीन अपनी आर्थिक ताकत का इस्तेमाल कर कई देशों की अर्थव्यवस्था में पैठ बना चुका है। पिछले 15 साल के चीनी निवेश के पैटर्न पर नजर डालें तो पाएंगे कि 2005 से 2019 के दौरान चीन ने अमेरिका में 183.2 अरब डॉलर का निवेश किया है तो यूनाइटेड किंग्डम में 83 अरब डॉलर का। कनाडा में लगभग 60 अरब डॉलर का चीनी निवेश हुआ है तो जर्मनी में 47 अरब डॉलर का। चाइना ग्लोबल इनवेस्टमेंट ट्रैकर के अनुसार चीन का ग्लोबल निवेश 2 खरब डॉलर से ज्यादा का है। जबकि एक अन्य अमेरिकी एजेंसी के अनुसार चीन का ग्लोबल निवेश 5.7 खरब डॉलर का है। यानी भारत के कुल बजट से भी अधिक का निवेश चीन दुनिया के अन्य देशों में कर चुका है। चीन अपने इस निवेश का इस्तेमाल अपने अनुकूल फैसले कराने में करता है। भारत इस मामले में अभी चीन की चुनौती कबूल नहीं कर सकता। टेक्नोलॉजी ऐसा क्षेत्र है जहां भारत, चीन का न सिर्फ मुकाबला कर सकता है, बल्कि कई सेक्टर में उससे आगे भी है। रिसर्च एंड डेवलपमेंट के मामले में भारत को ज्यादा विश्वसनीय माना जाता है बनिस्पत चीन के। हालांकि टेक्नोलॉजी से संबंधित कंपनियां और पेटेंट्स आदि अभी भी चीन में ज्यादा हैं लेकिन भारत इस मामले में चीन को हमेशा टक्कर दे सकता है। भारत को चीन के मामले में कई सेक्टर में इसलिए बढ़त हासिल है कि भारत की अधिकतर जनसंख्या अंग्रेजी भाषा में काम करना जानती है। यही कारण है कि दुनिया की तमाम टेक्नोलॉजी कंपनी जैसे एप्पल, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और फेसबुक जैसी कंपनियां भारत में हैं और इनके ग्लोबल ऑपरेशन में भी भारतीयों का बोलबाला है। अंतरिक्ष विज्ञान में भी भारत के इसरो का नाम दुनिया के बेहतरीन स्पेश साइंस ऑर्गेनाइजेशन के रूप में आता है। संभवतः हम दुनिया में सबसे सस्ता और विश्वसनीय अंतरिक्ष कार्यक्रम चलाने वाले देश हैं। हाल ही में इसरो ने अकेले रॉकेट से 109 सैटेलाइट को लांच किया। कोरोना के बाद भारत का जिस तरह से वर्ल्ड मेडिसिन सुपर पावर के रूप में प्रादुर्भाव हुआ है वह न सिर्फ गर्व की बात है, बल्कि फार्मास्यूटिकल के क्षेत्र में हमारा दबदबा भी सिद्ध हुआ है। चीन इस मामले में बुरी तरह पिट चुका है और वह भारत के खिलाफ सिर्फ प्रोपोगेंडा करने में लगा है। आत्मनिर्भर भारत के अभियान में भारत को सबसे बड़ी चुनौती चीन के मैन्यूफैक्चिरिंग क्षेत्र से मिलने वाली है। लेकिन कोविड ने भारत को एक बड़ा अवसर दिया है। क्योंकि कोविड के कारण चीन की वैश्विक स्थिति कमजोर हुई है जो भारत के लिए वरदान हो सकता है। भारत के कई राज्य जिनमें उत्तर प्रदेश सबसे प्रमुख है, अपने यहां मैन्युफैक्चिरिंग हब बनाने में जुटे हैं। पहले से ही चीन से दूरी बनाने का मन बना चुकी विदेशी कंपनियां को आकर्षित करने के लिए आर्थिक कार्यबल का गठन किया जा चुका है। इन्वेस्ट इंडिया का अभियान इस दिशा में जोरों से चल रहा है। भले चीन ने घुड़की दी है कि बिना उसके भारत का काम नहीं चल सकता, लेकिन चीन यह बताना भूल गया कि विकास के पैमाने पर भारत में बहुत सारे संरचनात्मक परिवर्तन किए जा चुके हैं। आने वाले दशक में भारत की वृद्धि जारी रहेगी और बढ़ेगी। सॉफ्टवेयर निर्यात पिछले दो वर्षों में दोगुना हो गया है। भारत की विशाल जनसंख्या इस विकास को बनाए रखने में बहुत मदद करेगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हृदयनारायण दीक्षित सारी प्राचीनता गर्व करने योग्य नहीं होती लेकिन प्राचीनता का बड़ा भाग प्रेरक और गर्व करने योग्य ही होता है। अंग्रेजों ने प्रचारित किया कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। अंग्रेजी सभ्यता प्रभावित विद्वानों ने मान लिया कि हम कभी राष्ट्र नहीं थे। अंग्रेजों ने ही भारत को राष्ट्र बनाया है। लेकिन 20वीं सदी के सबसे बड़े आदमी महात्मा गांधी ने चुनौती दी। उन्होंने 1909 में हिन्द स्वराज में लिखा, “आपको अंग्रेजों ने बताया है कि भारत एक राष्ट्र नहीं था कि अंग्रेजों ने ही यह राष्ट्र बनाया है लेकिन यह सरासर झूठ है। भारत अंग्रेजों के यहां आने के पहले भी एक राष्ट्र था।” गांधीजी ने भारत को प्राचीन राष्ट्र बताया। प्राचीन भारत राष्ट्र के साथ-साथ एक राज्य रूप में भी था। मौर्यकाल इसकी सबसे बड़ी ऐतिहासिक गवाही है। तब यूरोप सहित दुनिया के अधिकांश भूभागों के पास राष्ट्र की कल्पना भी नहीं थी। विश्व के अन्य देशों में राष्ट्र जैसी कल्पना भी 11वीं सदी के पहले नहीं मिलती। भारतीय राष्ट्र हजारों बरस पुराना है। ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ज्ञान संकलन है। ऋग्वेद जैसा प्रीतिपूर्ण, ज्ञान विज्ञान युक्त काव्य अचानक नहीं उग सकता। इसके पहले एक विशेष प्रकार की संस्कृति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला दर्शन भी रहा होगा। ऋग्वेद में ज्ञान, विज्ञान है, अप्रतिम सौन्दर्यबोध है, इतिहासबोध है- पूर्वज परम्परा के प्रति आदरभाव है। प्रकृति के प्रति प्रीति है। प्रकृति रहस्यों के प्रति ज्ञान अभीप्सु दृष्टि भी है। जल माताएं हैं, नदियां माताएं हैं, पृथ्वी माता है, आकाश पिता है। ढेर सारे गण हैं, गणों से बड़े समूह जन हैं। ‘वैदिक एज’ (पृष्ठ 250) में पुसाल्कर ने बताया है “ऋग्वेद में उल्लिखित जन उत्तर पश्चिम में गांधारि, पक्थ, अलिन, भलानस और विषाणिन हैं। सिंध और पंजाब में शिव, पर्शु कैकेय, वृचीवन्त्, यदु, अनु, तुर्वस, द्रुह्यु थे। पूरब में मध्यदेश की ओर तृत्सु, भरत, पुरू अैर श्रृंजय थे।” ऐसे सभी जनों, नदियों और बड़े भूभाग में रहने वाले मनुष्यों की एक संवेदनशील संस्कृति है सो वे एक राष्ट्र हैं। ऋग्वेद में राष्ट्र सम्वर्द्धन की स्तुतियां हैं। यजुर्वेद और अथर्ववेद में राष्ट्र के समग्र वैभव की प्रार्थनाएं हैं। ऋग्वेद (1.32.12 व 1.34.8 व 8.24.27) में सप्त सिंधु सात नदियों का विशेष उल्लेख है। ‘वैदिक इंडेक्स’ के (खण्ड 2 पृष्ठ 424) में मैक्डनल और कीथ ने “इसे एक सुनिश्चित देश” माना है। ऋग्वेद में गण है, गण से मिलकर बने ‘जन’ है। यहां पांच जनों की ‘पांचजन्य’ विशेष चर्चा है- “अश्विनी कुमारो ने पांचजन्य कल्याण में प्रवृत्त अत्रि को सहयोगियों सहित मुक्त करवाया।” पांच जनों के देश में 7 मुख्य नदियां हैं। ऋग्वेद में सप्तसिंधु और पंचजन बार-बार आते हैं। सिन्धु मुख्य नदी है पर सरस्वती की प्रार्थनाएं ज्यादा हैं। सरस्वती भी पांचजनों को समृद्धि देती हैं (6.61.12) यहां के निवासी पांच जन आदि धरती को मां और आकाश को पिता कहते हैं। जल धाराएं उनके लिए ‘आपः मातरम्’ हैं। एक विशेष प्रकार की संस्कृति है, सामूहिक चित्त है और सत्य अभीप्सु जीवनशैली है। धरती माता है। आकाश पिता हैं। भरी-पूरी भू सांस्कृतिक निष्ठा है। यह राष्ट्र ऋग्वेद से भी पुराना है। ऋग्वेद में इन्द्र और वरुण आराध्य देव हैं। ऋषि दोनों से राष्ट्र आराधना करते हैं “आपका द्युलोक जैसा राष्ट्र सबको आनंदित करता है।” (7.84) ऋग्वेद के वरुण श्रेष्ठ शासक हैं, वे ‘राष्ट्राणां’ शासनकत्र्ता है।” (7.34.11) ऋग्वेद के इक्ष्वाकु ऐतिहासिक हैं लेकिन इन्द्र, अग्नि, वरुण देवता हैं। सभी देवों से प्रार्थना है कि “वे राष्ट्र को मजबूती दें- इन्द्रः च अग्निः च ते राष्ट्रं धु्रवं धारयातम्।” (10.173.3) ऋग्वेद में वरुण का शासक रूप है। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर आया ‘राष्ट्र’ एक सुनिश्चित भू-प्रदेश, एक विराट जन और एक प्रवाहमान जीवंत संस्कृति की सूचना है। यहां एक सुदीर्घ प्राचीन परम्परा के साक्ष्य हैं। इस राष्ट्र को सनातन कहना ही ठीक होगा। राष्ट्र भू-सांस्कृतिक प्रतीति और अनुभूति है। इस अनुभूति का एक प्राचीन प्रवाह है। ऋग्वेद से लेकर अथर्ववेद तक राष्ट्रभाव की अनुभति लगातार गाढ़ी हुई है। अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त मातृभूमि की आराधना है। यही अनुभूति आधुनिक काल तक व्यापक और विस्तृत हुई है। बंकिमचंद्र का वंदेमातरम् इसी प्रवाह का विस्तार है। भारतीय जागरण और यूरोपीय पुनर्जागरण (रिनेशाँ) में अंतर करना चाहिए। भारत में ऋग्वेद और उसका दर्शन प्रथम जागरण काल है। लेकिन ऋग्वेद के पहले कोई अंधकार काल नहीं। उपनिषदों का दर्शन ऋग्वैदिक काल का ही प्रवाह है। इसी तरह भारत के सभी परवर्ती दर्शन इसी धारा का विकास हैं। यूरोपीय पुनर्जागरण बहुत बाद का है। इसके सैकड़ों वर्ष पहले भारत में ज्ञान विज्ञान उच्चतर तर्क-वितर्क और दर्शन की शुरुआत हो चुकी थी। कृषि सम्मुनत थी। कृषि, पशुपालन और बढ़ईगीरी, लोहारी आदि हुनर विकसित हो चुके थे। इनके खास जानकार- विषय विशेषज्ञ भी विकसित हो रहे थे। सभा समितियां भी ऋग्वैदिक काल में ही अपना काम कर रही थीं। ऐसा जागरण यूरोप में 15वीं सदी तक भी नहीं हो पाया। यूरोपीय समाज में अंधकार था। भारत में तब तक तीसरे पुनर्जागरण ‘भक्ति प्रवाह’ का दौर था। मार्क्सवादी विचारकों ने इसे ‘भक्ति आन्दोलन’ कहा है। उनके अनुसार यह वर्ण व्यवस्था आदि की प्रतिक्रिया थी लेकिन वास्तव में यह उच्चस्तरीय वेदान्त का लोकप्रवाह था। भक्ति ने वेदान्त के सीमित प्रवाह को असीमित विस्तार दिया और एक ही परम सत्य का सगुण प्रवाह समूचे लोक में छा गया। भारतीय राष्ट्रभाव दुनिया के अन्य देशों से भिन्न है। राष्ट्र का विकास यहां राजनैतिक कार्रवाई नहीं है और न ही राष्ट्र राजनैतिक इकाई है। मनुष्य-मनुष्य की प्रीति से संगठित मानव समूह/समाज बनते हैं। इसी से मानव समूह की साझी आचार संहिता विकसित होती है। इससे साझा रस, जीवन, छन्द औरसामूहिक आनंद मिलता है। सामूहिकता से जुड़े ऐसे सभी रचनात्मक कर्म ‘संस्कृति’ कहलाते हैं। कृषि आवास और सामूहिक अनुभूति से यह समूह अपनी भूमि से स्वाभाविक प्रेम करने लगता है। भूमि, जन और संस्कृति की त्रयी मिलती है। तीनों में से कोई एक बेकार हैं। निर्जन भूमि बेमतलब है। बिना भूमि वाले जन असहाय होते हैं। संस्कृति विहीन मनुष्य पशु से भी बदतर होते है। भूमि, जन और संस्कृति की त्रयी मिलकर एकात्म राष्ट्र बनाती है। भारतीय राष्ट्रभाव का स्वाभाविक विकास हुआ है। अथर्ववेद के एक मंत्र (19.41) में ‘राष्ट्र के जन्म’ का इतिहास है। कहते है “भद्रमिच्छन्त ऋषयः - ऋषियों ने सबके कल्याण की इच्छा की। उन्होंने आत्मज्ञान का विकास किया। कठोर तप किया।” यहां कठोर तप कठोर कर्म है। फिर कहते हैं “दीक्षा आदि नियमों का पालन किया। उनके आत्मज्ञान, तप और दीक्षा से “ततो राष्ट्रं बलम् ओजस् जातं - राष्ट्र बल और ओज का जन्म हुआ। दिव्य लोग इस (राष्ट्र) की उपासना करें।” ‘परिचय’ असाधारण कार्रवाई है। नाम स्थान पूछ लेना या अपना नाम स्थान बता देना काफी नहीं है। धर्म, मत, मजहब और पंथ भी परिचय के हिस्से हैं लेकिन ‘राष्ट्रीयता’ इन सबसे बड़ी है। यह अतिमहत्वपूर्ण है। भारत में इसका बोध पुनर्बोध कराने की प्राचीन परम्परा है। जन्मोत्सव, विवाह, गृहप्रवेश सहित सभी प्रीतिकर अनुष्ठानों में संकल्प लेते समय पूरा परिचय दोहराया जाता है- जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते सहित नगर गांव दोहराकर प्राचीन राष्ट्रीय अनुभूति बताते हैं। फिर युग और मन्वन्तर वर्ष संवत्सर, माह, दिन, तिथि बताकर काल के प्रवाह का परिचय देते हैं। फिर नाम, पिता का नाम, प्राचीन गोत्र वंश दोहराकर पूर्वज/ऋषि परम्परा से जोड़ते हैं और तब सम्बन्धित कार्य का संकल्प लेते हैं। पूरे परिचय को दोहराने की यह परम्परा राष्ट्रबोध जगाती थी। भारत प्राचीन राष्ट्र था और है। (लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।)
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हृदयनारायण दीक्षित सारी प्राचीनता गर्व करने योग्य नहीं होती लेकिन प्राचीनता का बड़ा भाग प्रेरक और गर्व करने योग्य ही होता है। अंग्रेजों ने प्रचारित किया कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। अंग्रेजी सभ्यता प्रभावित विद्वानों ने मान लिया कि हम कभी राष्ट्र नहीं थे। अंग्रेजों ने ही भारत को राष्ट्र बनाया है। लेकिन 20वीं सदी के सबसे बड़े आदमी महात्मा गांधी ने चुनौती दी। उन्होंने 1909 में हिन्द स्वराज में लिखा, “आपको अंग्रेजों ने बताया है कि भारत एक राष्ट्र नहीं था कि अंग्रेजों ने ही यह राष्ट्र बनाया है लेकिन यह सरासर झूठ है। भारत अंग्रेजों के यहां आने के पहले भी एक राष्ट्र था।” गांधीजी ने भारत को प्राचीन राष्ट्र बताया। प्राचीन भारत राष्ट्र के साथ-साथ एक राज्य रूप में भी था। मौर्यकाल इसकी सबसे बड़ी ऐतिहासिक गवाही है। तब यूरोप सहित दुनिया के अधिकांश भूभागों के पास राष्ट्र की कल्पना भी नहीं थी। विश्व के अन्य देशों में राष्ट्र जैसी कल्पना भी 11वीं सदी के पहले नहीं मिलती। भारतीय राष्ट्र हजारों बरस पुराना है। ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ज्ञान संकलन है। ऋग्वेद जैसा प्रीतिपूर्ण, ज्ञान विज्ञान युक्त काव्य अचानक नहीं उग सकता। इसके पहले एक विशेष प्रकार की संस्कृति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला दर्शन भी रहा होगा। ऋग्वेद में ज्ञान, विज्ञान है, अप्रतिम सौन्दर्यबोध है, इतिहासबोध है- पूर्वज परम्परा के प्रति आदरभाव है। प्रकृति के प्रति प्रीति है। प्रकृति रहस्यों के प्रति ज्ञान अभीप्सु दृष्टि भी है। जल माताएं हैं, नदियां माताएं हैं, पृथ्वी माता है, आकाश पिता है। ढेर सारे गण हैं, गणों से बड़े समूह जन हैं। ‘वैदिक एज’ (पृष्ठ 250) में पुसाल्कर ने बताया है “ऋग्वेद में उल्लिखित जन उत्तर पश्चिम में गांधारि, पक्थ, अलिन, भलानस और विषाणिन हैं। सिंध और पंजाब में शिव, पर्शु कैकेय, वृचीवन्त्, यदु, अनु, तुर्वस, द्रुह्यु थे। पूरब में मध्यदेश की ओर तृत्सु, भरत, पुरू अैर श्रृंजय थे।” ऐसे सभी जनों, नदियों और बड़े भूभाग में रहने वाले मनुष्यों की एक संवेदनशील संस्कृति है सो वे एक राष्ट्र हैं। ऋग्वेद में राष्ट्र सम्वर्द्धन की स्तुतियां हैं। यजुर्वेद और अथर्ववेद में राष्ट्र के समग्र वैभव की प्रार्थनाएं हैं। ऋग्वेद (1.32.12 व 1.34.8 व 8.24.27) में सप्त सिंधु सात नदियों का विशेष उल्लेख है। ‘वैदिक इंडेक्स’ के (खण्ड 2 पृष्ठ 424) में मैक्डनल और कीथ ने “इसे एक सुनिश्चित देश” माना है। ऋग्वेद में गण है, गण से मिलकर बने ‘जन’ है। यहां पांच जनों की ‘पांचजन्य’ विशेष चर्चा है- “अश्विनी कुमारो ने पांचजन्य कल्याण में प्रवृत्त अत्रि को सहयोगियों सहित मुक्त करवाया।” पांच जनों के देश में 7 मुख्य नदियां हैं। ऋग्वेद में सप्तसिंधु और पंचजन बार-बार आते हैं। सिन्धु मुख्य नदी है पर सरस्वती की प्रार्थनाएं ज्यादा हैं। सरस्वती भी पांचजनों को समृद्धि देती हैं (6.61.12) यहां के निवासी पांच जन आदि धरती को मां और आकाश को पिता कहते हैं। जल धाराएं उनके लिए ‘आपः मातरम्’ हैं। एक विशेष प्रकार की संस्कृति है, सामूहिक चित्त है और सत्य अभीप्सु जीवनशैली है। धरती माता है। आकाश पिता हैं। भरी-पूरी भू सांस्कृतिक निष्ठा है। यह राष्ट्र ऋग्वेद से भी पुराना है। ऋग्वेद में इन्द्र और वरुण आराध्य देव हैं। ऋषि दोनों से राष्ट्र आराधना करते हैं “आपका द्युलोक जैसा राष्ट्र सबको आनंदित करता है।” (7.84) ऋग्वेद के वरुण श्रेष्ठ शासक हैं, वे ‘राष्ट्राणां’ शासनकत्र्ता है।” (7.34.11) ऋग्वेद के इक्ष्वाकु ऐतिहासिक हैं लेकिन इन्द्र, अग्नि, वरुण देवता हैं। सभी देवों से प्रार्थना है कि “वे राष्ट्र को मजबूती दें- इन्द्रः च अग्निः च ते राष्ट्रं धु्रवं धारयातम्।” (10.173.3) ऋग्वेद में वरुण का शासक रूप है। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर आया ‘राष्ट्र’ एक सुनिश्चित भू-प्रदेश, एक विराट जन और एक प्रवाहमान जीवंत संस्कृति की सूचना है। यहां एक सुदीर्घ प्राचीन परम्परा के साक्ष्य हैं। इस राष्ट्र को सनातन कहना ही ठीक होगा। राष्ट्र भू-सांस्कृतिक प्रतीति और अनुभूति है। इस अनुभूति का एक प्राचीन प्रवाह है। ऋग्वेद से लेकर अथर्ववेद तक राष्ट्रभाव की अनुभति लगातार गाढ़ी हुई है। अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त मातृभूमि की आराधना है। यही अनुभूति आधुनिक काल तक व्यापक और विस्तृत हुई है। बंकिमचंद्र का वंदेमातरम् इसी प्रवाह का विस्तार है। भारतीय जागरण और यूरोपीय पुनर्जागरण (रिनेशाँ) में अंतर करना चाहिए। भारत में ऋग्वेद और उसका दर्शन प्रथम जागरण काल है। लेकिन ऋग्वेद के पहले कोई अंधकार काल नहीं। उपनिषदों का दर्शन ऋग्वैदिक काल का ही प्रवाह है। इसी तरह भारत के सभी परवर्ती दर्शन इसी धारा का विकास हैं। यूरोपीय पुनर्जागरण बहुत बाद का है। इसके सैकड़ों वर्ष पहले भारत में ज्ञान विज्ञान उच्चतर तर्क-वितर्क और दर्शन की शुरुआत हो चुकी थी। कृषि सम्मुनत थी। कृषि, पशुपालन और बढ़ईगीरी, लोहारी आदि हुनर विकसित हो चुके थे। इनके खास जानकार- विषय विशेषज्ञ भी विकसित हो रहे थे। सभा समितियां भी ऋग्वैदिक काल में ही अपना काम कर रही थीं। ऐसा जागरण यूरोप में 15वीं सदी तक भी नहीं हो पाया। यूरोपीय समाज में अंधकार था। भारत में तब तक तीसरे पुनर्जागरण ‘भक्ति प्रवाह’ का दौर था। मार्क्सवादी विचारकों ने इसे ‘भक्ति आन्दोलन’ कहा है। उनके अनुसार यह वर्ण व्यवस्था आदि की प्रतिक्रिया थी लेकिन वास्तव में यह उच्चस्तरीय वेदान्त का लोकप्रवाह था। भक्ति ने वेदान्त के सीमित प्रवाह को असीमित विस्तार दिया और एक ही परम सत्य का सगुण प्रवाह समूचे लोक में छा गया। भारतीय राष्ट्रभाव दुनिया के अन्य देशों से भिन्न है। राष्ट्र का विकास यहां राजनैतिक कार्रवाई नहीं है और न ही राष्ट्र राजनैतिक इकाई है। मनुष्य-मनुष्य की प्रीति से संगठित मानव समूह/समाज बनते हैं। इसी से मानव समूह की साझी आचार संहिता विकसित होती है। इससे साझा रस, जीवन, छन्द औरसामूहिक आनंद मिलता है। सामूहिकता से जुड़े ऐसे सभी रचनात्मक कर्म ‘संस्कृति’ कहलाते हैं। कृषि आवास और सामूहिक अनुभूति से यह समूह अपनी भूमि से स्वाभाविक प्रेम करने लगता है। भूमि, जन और संस्कृति की त्रयी मिलती है। तीनों में से कोई एक बेकार हैं। निर्जन भूमि बेमतलब है। बिना भूमि वाले जन असहाय होते हैं। संस्कृति विहीन मनुष्य पशु से भी बदतर होते है। भूमि, जन और संस्कृति की त्रयी मिलकर एकात्म राष्ट्र बनाती है। भारतीय राष्ट्रभाव का स्वाभाविक विकास हुआ है। अथर्ववेद के एक मंत्र (19.41) में ‘राष्ट्र के जन्म’ का इतिहास है। कहते है “भद्रमिच्छन्त ऋषयः - ऋषियों ने सबके कल्याण की इच्छा की। उन्होंने आत्मज्ञान का विकास किया। कठोर तप किया।” यहां कठोर तप कठोर कर्म है। फिर कहते हैं “दीक्षा आदि नियमों का पालन किया। उनके आत्मज्ञान, तप और दीक्षा से “ततो राष्ट्रं बलम् ओजस् जातं - राष्ट्र बल और ओज का जन्म हुआ। दिव्य लोग इस (राष्ट्र) की उपासना करें।” ‘परिचय’ असाधारण कार्रवाई है। नाम स्थान पूछ लेना या अपना नाम स्थान बता देना काफी नहीं है। धर्म, मत, मजहब और पंथ भी परिचय के हिस्से हैं लेकिन ‘राष्ट्रीयता’ इन सबसे बड़ी है। यह अतिमहत्वपूर्ण है। भारत में इसका बोध पुनर्बोध कराने की प्राचीन परम्परा है। जन्मोत्सव, विवाह, गृहप्रवेश सहित सभी प्रीतिकर अनुष्ठानों में संकल्प लेते समय पूरा परिचय दोहराया जाता है- जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते सहित नगर गांव दोहराकर प्राचीन राष्ट्रीय अनुभूति बताते हैं। फिर युग और मन्वन्तर वर्ष संवत्सर, माह, दिन, तिथि बताकर काल के प्रवाह का परिचय देते हैं। फिर नाम, पिता का नाम, प्राचीन गोत्र वंश दोहराकर पूर्वज/ऋषि परम्परा से जोड़ते हैं और तब सम्बन्धित कार्य का संकल्प लेते हैं। पूरे परिचय को दोहराने की यह परम्परा राष्ट्रबोध जगाती थी। भारत प्राचीन राष्ट्र था और है। (लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।)
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आर.के. सिन्हा कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी दादी श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा सन 1975 में लगाई गई इमरजेंसी को अंततः गलत बताया है। पर उन्हें तो कांग्रेस के और नेहरू-गाँधी खानदान के न जाने और भी कितने गुनाहों के लिए देश की जनता से माफी मांगनी होगी। काश,राहुल गांधी ने इमरजेंसी के साथ ही स्वर्ण मंदिर में टैंक चलाने की कार्रवाई को भी गलत करार दिया होता। तब देश की प्रधानमंत्री उनकी दादी श्रीमती इंदिरा गांधी ही थीं। उन्होंने 5 जून 1984 को बेहद खतरनाक फैसला लिया। उनके फैसले से देश के राष्ट्रभक्त सिख समाज का एक बड़ा भाग हमेशा के लिए देश की मुख्यधारा से अलग हो गया। उन्होंने देश-दुनिया के करोड़ों सिखों की भावनाओं को आहत किया। उस मनहूस दिन भारतीय सेना अमृतसर के स्वर्ण मंदिर परिसर में भेजी गई। वहां सेना के टैंक चलने लगे। उस एक्शन को ऑपरेशन ब्लूस्टार कहा गया। इस एक्शन से पूरा देश सन्न था। इंदिरा गांधी की जिद से सिख समाज को देश का शत्रु मान लिया गया था। उस एक्शन के दूरगामी नतीजे सामने आए। देशभर में हजारों सिख भाईयों, बहनों, बच्चों तक को दौड़ा-दौड़ाकर कत्लेआम किया गया। सिख इंदिरा गांधी से नाराज हो गए क्योंकि उन्होंने सैन्य कार्रवाई के आदेश दिए थे। क्या स्वर्ण मंदिर में सैन्य कार्रवाई के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था? मुझे याद है, जब मैंने आकाशवाणी से महान समाचार वाचक देवकीनंदन पांडे को सुना कि भारतीय सेना स्वर्ण मंदिर में घुस गई है, तब ही मन में तरह-तरह के बुरे विचार आने लगे थे। वे आगे चलकर सही साबित हुए। क्या राहुल गांधी कभी कहेंगे-मानेंगे कि उनकी दादी ने स्वर्ण मंदिर में सेना को भेजकर गलत किया था। भारतीय सेना के पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल तत्कालीन वाइस चीफ एस.के.सिन्हा ने एकबार कहा था, "काश ! मैडम गांधी ने मेरी बात को मान लिया होता तो स्वर्ण मंदिर में सेना की कार्रवाई की जरूरत नहीं पड़ती।" उन्होंने कहा था " श्रीमती गांधी ने सैनिक कार्रवाई से पहले उन्हें घर पर बुलाया और कहा कि भिंडरावाले का उत्पात बढ़ गया है। शांत करना ही होगा। वे गुस्से में थीं। वे अपनी योजनायें बताती गईं और मैं सुनता गया। कुछ मिनट बाद उन्होंने मेरी तरफ देखकर पूछा कि कुछ सुना आपने या नहीं? मैंने कहा कि सबकुछ सुन लिया लेकिन आप यह बताइए कि आप चाहती क्या हैं? भिंडरावाले को ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ना या सिखों की आस्था के केन्द्र अकाल तख़्त को ध्वस्त करना? उन्होंने कहा, कि मैं जो कह रही हूँ वही करिए चौबीस घंटे के अन्दर। मैंने कहा कि चौबीस घंटे तो नहीं एक सप्ताह दें तो मैं बिना अकाल तख़्त को क्षतिग्रस्त किये यह कार्य एक सप्ताह में सम्पन्न करवा दूँगा। वह कैसे? मैंने कहा कि भिंडरावाले के गिरोह के पास खाने-पीने का पर्याप्त सामान नहीं है। शौच के लिये भी वे बाहर के शौचालयों का प्रयोग करते हैं। यदि हम चारों तरफ़ से अकाल तख़्त को घेरकर बिजली-पानी बंद कर देंगें तो वे किसी भी हालात में एक सप्ताह से ज़्यादा टिक नहीं पायेंगे और बिना किसी ज़्यादा ख़ून-खराबा के सभी समर्पण कर देंगे।" जनरल सिन्हा की बात सुनकर उन्होंने कहा, "आप जा सकते हैं।" सबको पता है कि उसके बाद उन्होंने जनरल वैद्य की निगरानी में ऑपरेशन करवाया और प्रतिक्रिया में जो कुछ भी हुआ उसमें श्रीमती गांधी और जनरल वैद्य दोनों की ही जान गई। क्या राहुल गांधी अपनी दादी के गुनाह के लिए भी देश से कभी माफी मांगेंगे? अफसोस कि उस एक्शन के बाद इंदिरा गांधी की 31 अक्तूबर 1984 को हत्या हुई। उससे अगर देश स्तब्ध था तो देश ने यह भी देखा था कि कांग्रेस के गुंडे-मवाली किस तरह इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों को मार या मरवा रहे हैं। राहुल गांधी जिस कांग्रेस के नेता हैं उसी कांग्रेस के कई असरदार नेताओं की देखरेख में हजारों सिखों का कत्लेआम हुआ। दिल्ली में सज्जन कुमार, एच.के.एल भगत, धर्मदास शास्त्री, कमलनाथ सरीखे नेता सिख विरोधी दंगों को खुल्लमखुल्ला भड़का रहे थे। अब तो सज्जन कुमार दिल्ली की मंडोली जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं। राहुल गांधी बीच-बीच में भारत की विदेश नीति में मीनमेख निकालते हैं। वे बता दें कि क्या उनके पिता राजीव गांधी को देश के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए भारतीय सेना को श्रीलंका में भेजना चाहिए था? क्या भारत का अपने किसी पड़ोसी देश में सेना भेजना सही माना जा सकता है? श्रीलंका में शांति की बहाली के लिए भेजी गई भारतीय सेना ने अपने मिशन में 1,157 जवान खोए थे। ये सभी वीर राजीव गांधी की लचर विदेश नीति का शिकार हुए। उस मिशन के बाद भारत और श्रीलंका के तमिल भी राजीव गांधी के दुश्मन हो गए। इसी के चलते राजीव गांधी की 1991 में हत्या हुई। गुप्तचर रिपोर्ट थी कि राजीव गांधी को सलाह दी गई थी कि वे तमिलनाडु न जायें। उनपर आत्मघाती हमला हो सकता है। तमिलनाडु के तत्कालीन राज्यपाल डॉ. भीष्मनारायण सिंह जी ने स्वयं राजीव गाँधी जी को फोनकर कहा था कि वे तमिलनाडू न आएं। लेकिन, उनकी जिद उन्हें मौत के करीब ले गई। यही है राहुल जी के परिवार का चरित्र और इतिहास। राहुल जी, अभी तो बात शुरू हुई है। क्या आपको पता है कि 2-3 दिसंबर 1984 की रात को भोपाल में यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री में जहरीली गैस के रिसने के कारण हजारों मासूम लोग मारे गए थे। हजारों लोग हमेशा के लिए अपंग हो गए थे। उस समय केन्द्र और मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकारें थीं। क्या आपको पता है कि यूनियन कार्बाइड के चेयरमेन वारेन एंडरसन 7 दिसंबर 1984 को भोपाल आए थे। उन्हें गिरफ्तार करने की जगह उन्हें देश से बाहर भेज दिया गया। यह काम मध्य प्रदेश के तब के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और केन्द्रीय गृहमंत्री पी.वी. नरसिंह राव की मिलीभगत से राजीव गाँधी के स्पष्ट निर्देश पर ही हुआ होगा। इतनी त्रासद घटना के बाद भी पीड़ितों को दशकों गुजर जाने के बाद भी तारीखों पर तारीखें मिलती रही थीं कोर्ट से। तो यह है आपकी कांग्रेस के कुछ पाप। हैं तो सैकड़ों पर नेहरू के कारनामों पर तो पूरी पुस्तक ही लिखी जा सकती है। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक अमेरिका के बाइडन-प्रशासन ने दो-टूक शब्दों में घोषणा की है कि वह कश्मीर पर ट्रंप-प्रशासन की नीति को जारी रखेगा। अपनी घोषणा में वह ट्रंप का नाम नहीं लेता तो बेहतर रहता, क्योंकि ट्रंप का कुछ भरोसा नहीं था कि वह कब क्या बोल पड़ेंगे और अपनी ही नीति को कब उलट देंगे। ट्रंप ने कई बार पाकिस्तान की तगड़ी खिंचाई की और उसके साथ-साथ कश्मीर पर मध्यस्थता की बांग भी लगा दी, जिसे भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों ने दरकिनार कर दिया। ट्रंप तो अफगानिस्तान से अपना पिंड छुड़ाने पर आमादा थे। इसीलिए वे कभी पाकिस्तान पर बरस पड़ते थे और कभी उसकी चिरौरी करने पर उतर आते थे लेकिन बाइडन-प्रशासन काफी संयम और संतुलन के साथ पेश आ रहा है, हालांकि उनकी 'रिपब्लिकन पार्टी' के कुछ भारतवंशी नेताओं ने कश्मीर को लेकर भारत के विरुद्ध काफी आक्रामक रवैया अपनाया था। उस समय रिपब्लिकन पार्टी विपक्ष में थी। उसे वैसा करना उस वक्त जरूरी लग रहा था लेकिन बाइडन-प्रशासन चाहे तो कश्मीर-समस्या को हल करने में महत्वपूर्ण रोल अदा कर सकता है। उसने अपने अधिकारिक बयान में कश्मीर के आंतरिक हालात पर वर्तमान भारतीय नीति का समर्थन किया है लेकिन साथ में यह भी कहा है कि दोनों देशों को आपसी बातचीत के द्वारा इस समस्या को हल करना चाहिए। गृहमंत्री अमित शाह ने स्वयं संसद में कहा है कि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दुबारा शीघ्र ही मिल सकता है, बशर्ते कि वहां से आतंकवाद खत्म हो। बाइडन-प्रशासन से मैं उम्मीद करता था कि वह कश्मीर में चल रही आतंकी गतिविधियों के विरुद्ध ज़रा कड़ा रूख अपनाएगा। इस समय पाकिस्तान की आर्थिक हालत काफी खस्ता है और उसकी राजनीति भी डांवाडोल हो रही है। इस हालत का फायदा चीन को यदि नहीं उठाने देना है तो बाइडन-प्रशासन को आगे आना होगा और पाकिस्तान को भारत से बातचीत के लिए प्रेरित करना होगा। चीन के प्रति अमेरिका की कठोरता तभी सफल होगी, जब वह प्रशांत-क्षेत्र के अलावा दक्षिण एशिया में भी चीन पर लगाम लगाने की कोशिश करेगा। बाइडन चाहें तो आज दक्षिण एशिया में वही रोल अदा कर सकते हैं, जो 75-80 साल पहले यूरोपीय 'दुश्मन-राष्ट्रों' को 'नाटो' में बदलने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमेन और आइजनहावर ने अदा किया था। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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अशोक कुमार सिन्हा नेपाल का प्राचीन नाम देवघर था जो अखण्ड भारत का हिस्सा था। भगवान राम की पत्नी सीता माता का जन्मस्थल जनकपुर, मिथिला नेपाल में है। भगवान बुद्ध का जन्म भी लुम्बिनी नेपाल में है। 1500 ईसापूर्व से ही हिन्दू आर्य लोगों का यहां शासन रहा है। 250 ईसा पूर्व यह मौर्यवंश साम्राज्य का एक हिस्सा रहा। चौथी शताब्दी में गुप्तवंश का यह एक जनपद था। तत्पश्चात मल्लवंश फिर गोरखाओं ने यहां राज किया। सन 1768 में गोरखा राजा पृथ्वी नारायण शाह ने 46 छोटे-बड़े राज्यों को संगठित कर स्वतन्त्र नेपाल राज्य की स्थापना की। 1904 में बिहार के सुगौली नामक स्थान पर उस समय के पहाड़ी राजाओं के नरेश से सन्धि कर नेपाल को आजाद देश का दर्जा देकर अपना एक रेजीडेट कमिश्नर बैठा दिया था। 1940 के दशक में नेपाल में लोकतन्त्र समर्थक आन्दोलन की शुरुआत हुई। 1991 में पहली बहुदलीय संसद का गठन हुआ। दुनिया का यह एकमात्र हिन्दू राष्ट्र था लेकिन वर्तमान में वामपंथी वर्चस्व के कारण अब यह एक धर्मनिरपेक्ष देश है। नेपाल और भारत के राजवंशियों का गहरा आपसी रिश्ता है। भारत और नेपाल के मध्य लम्बे समय से द्विपक्षीय सम्बन्ध हैं। 1950 में भारत-नेपाल के मध्य व्यापार एवं वाणिज्यिक संधि तथा शान्ति और मित्रता की 2 संधियां हुईं। दोनों देशों के नागरिक विशेषाधिकार के अन्तर्गत निर्बाध एक देश से दूसरे देश में आते हैं तथा दोनों देशों के मध्य रोटी और बेटी के सम्बन्ध हैं। 2008 में नेपाल में राजतन्त्र समाप्त होने के बाद राजनैतिक रिक्तता का लाभ उठाकर चीन भारत के प्रभाव को क्षीण करने का प्रयास कर रहा है। चीन तिब्बत हड़पने के बाद से ही सुरक्षा कारणों से नेपाल पर सदैव ध्यान देता रहा। चीन नेपाल से लगभग 1414 कि. मीटर लम्बी अंतरराष्ट्रीय सीमा साझा करता है। चीन ने 1988 में नेपाल के साथ कई समझौते किये जिसमें भारत के सुरक्षा हितों की उपेक्षा हुई। चीन ने सड़कें, हवाईअड्डे, रेलमार्गों और अस्पतालों का निर्माण नेपाल में तेज किया। चीन नेपाल राजमार्ग द्वारा ल्हासा को नेपाल से जोड़ने का कार्य हुआ। किंगहाई तिब्बत रेलमार्ग से नेपाल को जोड़ने का कार्य चीन ने ही प्रारम्भ किया। जब से नेपाल में माओवादी शासन आया है तब से भारत की नेपाल में सक्रिय भूमिका को संतुलित करने के लिये चीन को खुला आमंत्रण दिया गया है। यदि भारत-नेपाल और नेपाल-चीन दोनो के सम्बन्धों की समीक्षा की जाय तो नेपाल और भारत के बीच सांस्कृतिक धार्मिक, ऐतिहासिक और नृवंश विज्ञान की अद्भुत समानतायें हैं जो चीन और नेपाल के मध्य नहीं हैं। प्रसिद्ध काठमान्डू पशुपतिनाथ मंदिर सम्पूर्ण भारतीयों के आस्था का केन्द्र है। समस्त नेपाल वंशी काशी विश्वनाथ को उसी श्रद्धा से पूजते हैं। चीन की शघांई कन्स्ट्रक्शन कम्पनी काठमान्डू के चारों ओर रिंगरोड बनाने सहित अन्य चीनी कम्पनियों का नेपाल में भारी आर्थिक निवेश हो रहा है। भारत की नेपाल के प्रति ढीली नीतियों तथा नेपाल में वामपंथी शासन के कारण चीन नेपाल में काफी अन्दर तक आर्थिक रूप से प्रवेश कर गया है। विशेषज्ञों के अनुसार विगत 20 वर्षों में चीन के मुकाबले भारत का प्रभाव नेपाल पर घटा है। नेपाल में चीन का एफडीआई तेजी से बढ़ा है तथा चीन नेपाल की मजबूरी का फायदा उठाकर नेपाल की सीमा में घुसकर निर्माण कर रहा है। चीन सार्क में प्रवेश पाने का प्रयास कर रहा है और नेपाल ने क्षेत्रीय समूह में चीन के प्रवेश का खुला समर्थन किया है। नेपाल और तिब्बत का भाषाई, सांस्कृतिक, वैवाहिक और जातीय सम्बन्ध है। नेपाली राजकुमारी भृकुटी का विवाह तिब्बत के सम्राट सोंत्सपन गम्पो से 600-650 ई. सन में हुआ था। नेपाल की राजकुमारी ने दहेज के रूप में बौद्ध अवशेष और यंगका तिब्बत लाई थी तब से बौद्ध तिब्बत का राजसी धर्म हो गया था। अब तिब्बत चीन का हिस्सा है और चीन इस रिश्ते का फायदा भारत के मुकाबले उठाना चाहता है। नेपाल में राजशाही का अंत भी चीन की योजनानुसार ही हुआ जिसका लाभ चीन को भरपूर मिला। नेपाल ने भारत की भांति तिब्बत के चीन में विलय को मान्यता दी। चीन के इशारे पर ही नेपाल ने भारत के तीन गावों को अपने नक्शे में दिखाया तथा नक्शा संयुक्त राष्ट्रसंघ में स्वीकृति हेतु भेजा। नेपाली संसद में नक्शा पारित भी चीन के इशारे पर किया गया। वैसे तो चीन का प्रभाव दक्षिण एशिया के देशों जैसे लंका, पाकिस्तान व बंग्लादेश में लगातार बढ़ रहा है। चीन ने 2017 में नेपाल से बेल्ट एण्ड रोड परियोजना की द्वीपक्षीय समझौता किया है। नेपाल के कई स्कूलों में चीनी भाषा मन्दारिन को पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया है। इस भाषा के शिक्षकों का वेतन चीन दे रहा है। नेपाल के प्रधानमंत्री ओली के अनुसार नेपाल की तरफ से उन प्रयासों को रोका जायेगा जो चीन को उसके नजदीक आने में रुकवाटे पैदा करेंगी। भारत की आपत्ति पर नेपाल ने उत्तर दिया कि नेपाल किसी भी देश के पास सैन्य गठजोड़ न करने की नीति पर कायम है। नेपाल तटस्थ रहने का नारा तो लगाता है परन्तु उसका अनुराग चीन की ओर बढ़ रहा है ओर इसका कारण आर्थिक लाभ तथा वामपंथी सरकार का होना है। ओली कभी भारत समर्थक हुआ करते थे परन्तु अब उनका रुख परिवर्तित दिखाई पड़ता है। नेपाली सत्तारूढ़ दल में संघर्ष चीनी इशारे पर नेपाल में एक दलीय शासन व्यवस्था लागू करने के लिए संविधान संशोधन कराना है। वामपंथी दलों का एकीकरण चीन की योजना है। नेपाल में चीन 'साइलेन्ट डिप्लोमेसी' चला रहा है। चीन पहले पाकिस्तानी खुफिया एजेन्सी आई.एस.आई. के जरिये यह काम कर रहा था अब उसके कमजोर पड़ने पर चीन खुलकर सामने आ गया है। 'विम्सटेक' सम्मेलन में घोषणा के बाद भी भारत में विम्सटेक देशों के संयुक्त सैन्याभ्यास में नेपाली सेना दूर रही, दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर बीबीआईएन (बंग्लादेश, भूटान, इण्डिया, नेपाल) के क्षेत्रीय मुक्त व्यापार परिवहन को बढ़ावा देने पर नेपाल ने असहयोग किया। भगवान राम के जन्मस्थान पर विवादित बयान, कोरोना की आड़ में खुली सीमा को बन्द करने का प्रयास, पशुपतिनाथ मन्दिर के मूल भट्ट को बदलने का फैसला, नेपाल में ब्याही जाने वाली भारतीय बेटियों की नागरिकता के अधिकार से वंचित रखने का कानून चीनी रणनीति के नेपाल में बढ़ते प्रभाव के कारण हो रहा है। नेपाली जनता भारत के साथ है अत: नेपाल में वर्तमान सरकार पर दबाव बढ़ रहा है, जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। ओली ने इस्तीफा देकर वहां की संसद भंग करने की सिफारिश की है जिसे न्यायपालिका ने अमान्य करार दे दिया है। भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को नेपाल भेजकर स्थिति सुधारने का प्रयास किया। भारतीय सेना प्रमुख एम.एम. नरवाणे ने नेपाल जाकर परम्परा का निवर्हन किया। भारतीय विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने भी जाकर बैठक की। अब नेपाल सरकार जनता के दबाव में है। अब ओली कह रहे हैं कि एक-एक आरोपों का जवाब दिया जायेगा। पाकिस्तान के बाद चीन अब नेपाल को पूरी तरह कर्ज में डुबोने की योजना बना चुका है परन्तु भारत भी सतर्क है तथा निवेश, रोजगार, सांस्कृतिक सम्बन्ध बढ़ाकर वह चीन के प्रभाव को कम करने का पूरा प्रयास कर रहा है। निश्चित ही भारत इसमें सफल होगा। नेपाल-भारत अभिन्न है, अभिन्न रहेंगे। मोदी है तो सबकुछ मुमकिन है। (लेखक, पूर्व वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं।)
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आर.के. सिन्हा दिल्ली विश्वविद्यालय के हालिया संपन्न 97वें दीक्षांत समारोह में 670 डॉक्टरेट की डिग्रियां दी गईं। मतलब यह कि ये सभी पीएचडी धारी अब अपने नाम के आगे "डॉ." लिख सकेंगे। क्या इन सभी का शोध पहले से स्थापित तथ्यों से कुछ हटकर था? बेशक, उच्च शिक्षा में शोध का स्तर अहम होता है। इसी से यह तय किया जाता है कि पीएचडी देने वाले विश्वविद्यालय का स्तर किस तरह का है। अगर अमेरिका के मैसाचुसेट्स इंस्टीच्यूट ऑफ टेक्नालॉजी (एमआईटी), कोलोरोडा विश्वविद्यालय, ब्रिटेन के कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों का लोहा सारी दुनिया मानती है तो कोई तो बात होगी ही न? यह सिर्फ अखबारों में विज्ञापन देकर दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय नहीं बने हैं। इन विश्वविद्यालयों का नाम उनके विद्यार्थियों द्वारा किये गये मौलिक शोध के कारण ही हैI बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारे यहां हर साल जो थोक के भाव से पीएचडी की डिग्रियां दी जाती हैं, उनका आगे चलकर समाज या देश को किसी रूप में लाभ भी होता है? सिर्फ दिल्ली विश्वविद्यालय ने एक वर्ष में 670 पीएचडी की डिग्रियां दे दीं। अगर देश के सभी विश्वविद्यालयों से अलग-अलग विषयों में शोध करने वाले रिसर्चर को मिलने वाली पीएचडी की डिग्री की बात करें तो यह आंकड़ा हर साल हजारों में पहुंचेगा। मतलब हरेक दस साल के दौरान देश में लाखों नए पीएचडी प्राप्त करने वाले पैदा हो ही जाते हैं। क्या इनका शोध मौलिक होता है? क्या उसमें कोई इस तरह की स्थापना की गई होती है जो नई होती है? यह सवाल पूछना इसलिये जरूरी है क्योंकि हर साल केन्द्र और राज्य सरकारें बहुत मोटी राशि पीएचडी के लिए शोध करने वाले शोधार्थियों पर व्यय करती हैं। इन्हें शोध के दौरान ठीक-ठाक राशि दी जाती है ताकि इनके शोध कार्य में किसी तरह का व्यवधान या अड़चन न आए और इनका जीवन यापन भी चलता रहे। निश्चय ही उच्च कोटि के शोध से ही शिक्षण संस्थानों की पहचान बनती है। जो संस्थान अपने शोध और उसकी क्वालिटी पर ध्यान नहीं देते, उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता। देश में सबसे अधिक पीएचडी की डिग्रियां तमिलनाडू, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में दी जाती है। मानव संसाधन मंत्रालय की 2018 में जारी एक रिपोर्ट पर यकीन करें तो उस साल तमिलनाडू में 5,844 शोधार्थियों को पीएचडी दी गई। कर्नाटक में पांच हजार से कुछ अधिक शोधार्थी पीएचडी की डिग्री लेने में सफल रहे। उत्तर प्रदेश में 3,396 शोधार्थियों को यह डिग्री मिली। बाकी राज्य भी पीएचडी देने में कोई बहुत पीछे नहीं हैं। भारत में साल 2018 में 40.813 नए पीएचडीधारी सामने आए। आखिर इतने शोध होने का लाभ किसे मिल रहा है? शोध पूरा होने और डिग्री लेने के बाद उस शोध का होता क्या है? क्या इनमें से एकाध प्रतिशत शोधों को प्रकाशित करने के लिए कोई प्रकाशक तैयार होता है? कोई प्रतिष्ठित अखबार की नजर उन शोधों पर जाती है? क्या हमारे यहां शोध का स्तर सच में स्तरीय या विश्वस्तरीय होता है? यह बहुत जरूरी सवाल हैं। इन पर गंभीरता से बात होनी भी जरूरी है। जो भी कहिए हमारे यहां शोध को लेकर कोई भी सरकार या विश्वविद्यालय बहुत गंभीरता का भाव नहीं रखता। भारत में जब उच्च शिक्षा संस्थानों की शुरुआत हुई थी तभी क्वालिटी रिसर्च को बहुत महत्व नहीं दिया गया। निराश करने वाली बात यह है कि हमने शोध पर कायदे से कभी फोकस ही नहीं किया। अगर हर साल हजारों शोधार्थियों को पीएचडी की डिग्री मिल रही है तो फिर इन्हें विश्व स्तर पर सम्मान क्यों नहीं मिलता। माफ करें हमारी आईआईटी संस्थानों की चर्चा भी बहुत होती है। यहां पर भी हर साल बहुत से विद्यार्थियों को पीएचडी मिलती है। क्या हमारे किसी आईआईटी या इंजीनियरिंग कॉलेज के किसी छात्र को उसके मूल शोध के लिए नोबेल पुरस्कार के लायक माना गया? नहीं न। अगर आप अकादमिक दुनिया से जुड़े हैं तो आप जानते ही होंगे कि हमारे यहां पर शोध का मतलब होता है पहले से प्रकाशित सामग्री के आधार पर ही अपना रिसर्च पेपर लिख देना। आपका काम खत्म। यही वजह है कि शोध में नएपन का घोर अभाव दिखाई देता है। यह सच में घोर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हमारे यहां शोध के प्रति हर स्तर पर उदासीनता का भाव है। शोध इसलिए किया जाता है ताकि पीएचडी मिल जाए और फिर एक अदद नौकरी। आप अमेरिका का उदाहरण लें। वहां के विश्वविद्यालयों में मूल शोध पर जोर दिया जाता है। इसी के चलते वहां के शोधार्थी लगातार नोबेल पुरस्कार जीत पाने में सफल रहते हैं। इस बहस को जरा और व्यापक कर लेते हैं। हमारी फार्मा कंपनियों को ही लें। ये नई दवाओं को ईजाद करने के लिए होने वाले रिसर्च पर कितना निवेश करती है? यह मुनाफे के अनुपात में बहुत कम राशि शोध पर लगाती हैं। यही हालत हमारे स्वास्थ्य क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की रही हैं। इंडियन ड्रग्स एंड फार्मास्युटिकल लिमिटेड (आईडीपीएल) की ही बात कर लें। इसकी स्थापना 1961 में की गई थी, जिसका प्राथमिक उद्देश्य आवश्यक जीवनरक्षक दवाओं में आत्मनिर्भरता हासिल करना था। पर इसे करप्शन के कारण घाटा पर घाटा हुआ। यहाँ भी कभी कोई महत्वपूर्ण शोध नहीं हुआ। अब देखिए कि भारत में शोध के लिए सुविधाएं तो बहुत बढ़ी हैं, इंटरनेट की सुविधा सभी शोधार्थियों को आसानी से उपलब्ध है, प्रयोगशालाओं का स्तर भी सुधरा है, सरकार शोध करनेवालों की आर्थिक मदद भी करती है। इसके बावजूद हमारे यहां शोध के स्तर घटिया ही रहे हैं। तो फिर हम क्यों इतनी सारी पीएचडी की डिग्रियों को बांटते जा रहे हैं? आखिर हम साबित क्या करना चाहते हैं? मैं इस तरह के अनेक शोधार्थियों को जानता हूं जिन्होंने कुछ सालों तक अपने विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने के नाम पर पैसा लिया और वहां के छात्रावास का भी भरपूर इस्तेमाल किया। उसके बाद वे बिना शोध पूरा किए अपने विश्वविद्यालय को छोड़ गए या वहीं बैठकर राजनीति करने लगे। एक बात समझ लें कि हमें शोध की गुणवत्ता पर बहुत ध्यान देना होगा। उन शोधार्थियों से बचना होगा जो दायें-बायें से कापी-कट और पेस्ट कर अपना शोध थमा देते हैं। इस मानसिकता पर तत्काल रोक लगनी चाहिए। शोध का विषय तय करने का एकमात्र मापदंड यही हो कि इससे भविष्य में देश और समाज को क्या लाभ होगा? शोधार्थियों के गाइड्स पर भी नजर रखी जाए कि वे किस तरह से अपने शोधार्थी को सहयोग कर रहे हैं। बीच-बीच में शिकायतें मिलती रहती हैं कि कुछ गाइड्स अपने शोधार्थियों को प्रताड़ित करते रहते हैं। इन सब बिन्दुओं पर भी ध्यान दिया जाए। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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रेणु जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष मुरली मनोहर श्रीवास्तव ग्रामीण परिवेश और देसज भाषा की बात करें तो हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद के बाद फणीश्वरनाथ रेणु का नाम ही जेहन में आता है। रेणु जी की रचनाएं शब्दचित्र सरीखी होती थीं, इसीलिए भारतीय साहित्य जगत उनका खास स्थान है। बिहार के अररिया जिले के फारबिसगंज के निकट औराही हिंगना ग्राम में 4 मार्च, 1921 को फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म हुआ था। उस समय फारबिसगंज भी पूर्णिया जिले का ही हिस्सा हुआ करता था। रेणु जी की प्रारंभिक शिक्षा फॉरबिसगंज तथा अररिया में हुई। आगे की पढ़ाई के लिए नेपाल के विराटनगर आदर्श विद्यालय में दाखिला लिया और वहीं से मैट्रिक की परीक्षा पास की। इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित काशी हिंदू विश्वविद्यालय पास की। 1942 में गांधीजी के आह्वान पर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। भारत-छोड़ो आंदोलन में रेणु की शिरकत ने उनमें सियासत की समझ जगाई। 1950 में उन्होंने नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन में भी हिस्सा लिया जिसके परिणामस्वरूप नेपाल में जनतंत्र की स्थापना हुई। रेणु के जीवन में साहित्य व सियासत दोनों साथ-साथ चलते रहे। रेणु जी ने आजीवन शोषण और दमन के विरुद्ध संघर्ष किया। वर्ष 1936 के आसपास फणीश्वरनाथ रेणु ने कहानी लेखन की शुरुआत की। उस समय कुछ कहानियां प्रकाशित भी हुई थीं, किंतु वे किशोर रेणु की अपरिपक्व कहानियां थी। 1942 के आंदोलन में गिरफ़्तार होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने 'बटबाबा' नामक गंभीर कहानी का लेखन किया। 'बटबाबा' कहानी 'साप्ताहिक विश्वमित्र' के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की दूसरी कहानी 'पहलवान की ढोलक' 11 दिसम्बर 1944 को 'साप्ताहिक विश्वमित्र' में छ्पी। 1972 में रेणु ने अपनी अंतिम कहानी 'भित्तिचित्र की मयूरी' लिखी। उनकी अबतक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है। तब किसे पता था कि साधारण लेखनी करने वाले रेणु की कृतियां ही एक दिन गंभीर लेखनी का रूप लेंगी और उस लेखनी पर फिल्म बनायी जाएगी। 'मारे गए गुलफ़ाम' पर फ़िल्म 'तीसरी क़सम' बनी रेणु की लेखनी पर शुरुआती दौर में किसी को भरोसा नहीं हो रहा था कि इनकी लेखनी भी एक दिन मिल का पत्थर साबित होगी। मगर जैसे-जैसे लेखन के प्रति रुझान बढ़ता गया, इनकी लेखनी जमीनी स्तर से जुड़कर उभरने लगी। उसी का नतीजा रहा कि उनकी लिखी कहानी 'मारे गए गुलफ़ाम' पर फ़िल्म 'तीसरी क़सम' बनी, जिससे रेणु को काफी प्रसिद्धि मिली। इस फ़िल्म में राजकपूर और वहीदा रहमान ने मुख्य भूमिका निभाई। 'तीसरी क़सम' को बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था और निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र थे। उपन्यास मैला आंचल से मिली प्रसिद्धि हालांकि रेणु को जितनी ख्याति हिंदी साहित्य में 1954 के उनके उपन्यास मैला आंचल से मिली, उसकी मिसाल दुर्लभ है। इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातों-रात हिंदी के एक बड़े कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। कुछ आलोचकों ने इसे गोदान के बाद हिंदी का दूसरा सर्वश्रेष्ठ उपन्यास घोषित करने में भी देर नहीं की। हालांकि विवाद भी कम नहीं खड़े किये उनकी प्रसिद्धि से जलनेवालों ने, इसे सतीनाथ भादुरी के बंगला उपन्यास 'धोधाई चरित मानस' की नकल तक कह डाला। पर वक्त के साथ रेणु की लेखनी ने अपनी विद्वता और संवेदनशीलता को साबित कर दिया। हिंदी में आंचलिक कथा का विस्तार रेणु के रचनाकर्म की खास बात उनकी लेखन-शैली की वर्णनात्मक थी। इसीलिए इनके कथानकों के पात्र और पृष्ठभूमि दोनों सिनेमा देखने जैसा एहसास कराते थे। आंचलिकता को प्राथमिकता ने उन्हें ऊंचा मुकाम दिया। उनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटना प्रधान होती थी। कोसी की बालूचर भूमि की पगडंडी वाले इलाके में बोली जाने वाली ठेठ गांव-जवार वाली भाषा को शब्दों में पिरोकर हिन्दी साहित्य में आंचलिक विधा के सृजनकर्ता रेणु का नाम हिन्दी साहित्य के पुरोधा मुंशी प्रेमचन्द के साथ लिया जाता है। रेणु को अंग्रेजी साहित्य के कथाकार विलियम वर्ड्सवर्थ की लेखनी के समतुल्य माना जाता है। रेणुजी ने हिंदी में आंचलिक कथा का विस्तार किया, जिसकी नींव मुंशी प्रेमचंद ने रखी थी। रेणु जी ने जयप्रकाश आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की और सत्ता द्वारा दमन के विरोध में पद्मश्री का त्याग कर दिया था। हिंदी साहित्य में आंचलिकता के इस अनूठे चितेरे ने 11 अप्रैल, 1977 को अनंत यात्रा पर निकल गए। मगर उनकी लेखनी आज भी उनके होने का एहसास कराती है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा कोरोना की मार का असर अब शिक्षा व्यवस्था पर भी साफ दिखाई देने लगा है। वर्ल्ड बैंक की हालिया रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि दुनिया के अधिकांश देशों की सरकारों ने शिक्षा के बजट में कटौती की है। खासतौर से शिक्षा बजट में कमी निम्न व निम्न मध्यम आय वाले देशों ने की है तो उच्च व मध्यम उच्च आय वाले देशों में से कई देश भी शिक्षा बजट में कटौती करने में पीछे नहीं रहे हैं। रिपोर्ट में 65 प्रतिशत देशों द्वारा महामारी के बाद शिक्षा के बजट में कमी की बात की गई है। हो सकता है इसमें अतिश्योक्ति हो पर यह साफ है कि कोरोना महामारी का असर शिक्षा के क्षेत्र में दिखाई दे रहा है। देखा जाए तो कोरोना के कारण सभी क्षेत्र प्रभावित हुए हैं। जहां एक ओर आज भी सबकुछ थमा-थमा सा लग रहा है, वहीं कोरोना की दूसरी लहर और अधिक चिंता का कारण बनती जा रही है। कोरोना वैक्सीन आने के बाद यह समझा जा रहा था कि अब कोरोना पर काबू पा लिया जाएगा पर कोरोना की लगभग एक साल की यात्रा के बाद स्थिति में वापस बदलाव आने लगा है। जिस तरह कोरोना पाॅजिटिव केसों में कमी आने लगी थी उसपर विराम लगने के साथ ही नए केस आने लगे हैं। हालांकि समग्र प्रयासों से दुनिया के देशों में उद्योग-धंधें पटरी पर आने लगे हैं, अर्थव्यवस्था में सुधार भी दिखाई देने लगा है पर अभी भी कुछ गतिविधियां ऐसी है जो कोरोना के कारण अधिक ही प्रभावित हो रही है। इसमें से शिक्षा व्यवस्था प्रमुख है। भारत सहित कई देशों में स्कूल खुलने लगे हैं तो उनमें बड़ी कक्षा के बच्चों ने आना भी शुरू किया है पर अभीतक पूरी तरह से शिक्षा व्यवस्था के पटरी पर आने का काम दूर की कौड़ी दिख रही है। लगभग एक साल से शिक्षा व्यवस्था ठप-सी हो गई है। प्राइमरी से उच्च शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाना सरकारों के सामने बड़ी चुनौती है। क्योंकि कोरोना के दौर में ऑनलाइन शिक्षा के भले ही कितने ही दावे किए गए हों पर उन्हें किसी भी स्थिति में कारगर नहीं माना जा सकता। इसका एक बड़ा कारण दुनिया के अधिकांश देशों में सभी नागरिकों के पास ऑनलाइन शिक्षा की सुविधा नहीं है। इंटरनेट सुविधा और फिर इसके लिए आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता लगभग नहीं के बराबर है। इसके साथ ही स्कूल-काॅलेज खोलना किसी चुनौती से कम नहीं है। कोरोना प्रोटोकाल की पालना अपने आप में चुनौती है, ऐसे में आवश्यकता तो शिक्षा बजट को बढ़ाने की है पर उसके स्थान पर शिक्षा बजट में कटौती शिक्षा के क्षेत्र में देश-दुनिया को पीछे ले जाना ही है। आवश्यकता तो यह थी कि कोरोना प्रोटोकाल की पालना सुनिश्चित कराने पर जोर देते हुए शिक्षण संस्थाओं को खोलने की बात की जाती। इसके लिए कक्षाओं में एक सीमा से अधिक विद्यार्थियों के बैठने की व्यवस्था ना होने, थर्मल स्केनिंग की व्यवस्था, सैनेटाइजरों की उपलब्धता और अन्य सावधानियां सुनिश्चित करने की व्यवस्था, अतिरिक्त बजट देकर की जानी चाहिए थी। इसी तरह से अन्य आधारभूत सुविधाओं के विस्तार पर जोर दिया जाना चाहिए था क्योंकि ऑनलाइन क्लासों के कारण बच्चों में सुनाई देने में परेशानी जैसे साइड इफेक्ट सामने आने लगे हैं। ऑनलाइन पढ़ाई की गुणवत्ता और उसके परिणाम भी अधिक उत्साहवर्द्धक नहीं है। अपितु बच्चों में मोबाइल व लैपटॉप के दुष्परिणाम आने लगे हैं। कोरोना के कारण येन केन प्रकारेण बच्चों को प्रमोट करने के विकल्प से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। इसके लिए औपचारिक शिक्षा की व्यवस्था करनी ही होगी। दुनिया के देशों की सरकारों को इस दिशा में गंभीर विचार करना होगा। गैरसरकारी संस्थाओं को भी इसके लिए आगे आना होगा क्योंकि यह भावी पीढ़ी के भविष्य का सवाल है तो दूसरी ओर स्वास्थ्य मानकों की पालना भी जरूरी है। केवल और केवल फीस लेने या नहीं लेने से इस समस्या का समाधान नहीं होने वाला है। इसमें दो राय नहीं कि निम्न व निम्न मध्यम आय वाले देशों या यों कहें कि अविकसित, अल्प विकसित, विकासशील देश ही नहीं अपितु विकसित देशों के सामने भी कोरोना नई चुनौती लेकर आया है। सभी देशों में बच्चों की शिक्षा प्रभावित हुई है। परिजनों की अभी भी बच्चों को स्कूल भेजने की हिम्मत नहीं हो रही है। आधारभूत सुविधाएं व संसाधन होने के बावजूद विकसित देशों में भी शिक्षा को पटरी पर नहीं लाया जा सका है। कोरोना प्रोटोकाल के अनुसार मास्क, सेनेटाइजर, थर्मल स्केनिंग और दूरी वाली ऐसी स्थितियां हैं जिसके लिए अतिरिक्त बजट प्रावधान की आवश्यकता है। सभी आधारभूत व्यवस्थाएं व संसाधन उपलब्ध कराना मुश्किल भरा काम है तो दूसरी और शिक्षण संस्थाओं द्वारा यह अपने संसाधनों से जुटाना आसान नहीं है। अभिभावकों से इसी राशि को वसूलना भी कोरोना महामारी से टूटे हुए लोगों पर अतिरिक्त प्रेशर बनाना ही होगा। आम आदमी वैसे ही मुश्किलों के दौर से गुजर रहा है। नौकरियों के अवसर कम हुए हैं तो वेतन कटौती का दंश भुगत चुके हैं। अनेक लोग बेरोजगार हो गए हैं। ऐसे में शिक्षा को बचाना बड़ा दायित्व हो जाता है। इसके लिए दुनिया के देशों की सरकारों को कहीं ना कहीं से व्यवस्थाएं करनी ही होगी। संयुक्त राष्ट्र संघ को भी इसके लिए आगे आना होगा। शिक्षा को बचाना हम सबका दायित्व है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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रंजना मिश्रा आधुनिक नारियों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, एक तो वह जो गृहणी हैं, दूसरी नौकरीपेशा या बिजनेसमैन। आजकल नौकरी या बिजनेस करने वाली महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और एक गृहणी जो केवल घर संभालती है, उसे बहुत ही साधारण दृष्टि से। किसी गृहणी से जब कोई पूछता है कि क्या करती हो? उस महिला को ये बताने में भी बड़ा संकोच होता है कि वह एक गृहणी है, लगता है कि सामने वाला यही सोचेगा कि उसमें कोई योग्यता नहीं होगी, तभी तो वह केवल गृहणी बनकर रह गई। वास्तव में एक गृहणी होना कितना कठिन है, इसका अंदाजा कोई नहीं लगा पाता। कठिनाइयां और संघर्ष तो हर स्त्री के भाग्य में लिखे होते हैं, चाहे वह गृहणी हो या नौकरीपेशा। नौकरी करने वाली स्त्रियों को भी घर और ऑफिस दोनों को ही संभालना पड़ता है, बहुत भागदौड़ करनी पड़ती है, अपने परिवार के साथ समय बिताने का भी समय नहीं होता उनके पास। फिर भी एक संतोष होता है, अपने सपने को पूरा कर पाने का, अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेने का और इसलिए वह घर-बाहर दोनों जगह जूझती हैं, अपनी कमाई का पैसा जब उनके हाथों में आता है तो उनके चेहरे पर आत्मसंतोष और आत्मविश्वास की एक अलग ही चमक होती है। उन्हें अपने खर्चों के लिए किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता। पति या सास-ससुर की जली-कटी नहीं सुननी पड़ती, वे अपनी मर्जी से अपने ऊपर खर्च कर सकती हैं व अपने शौक पूरे कर सकती हैं। किंतु गृहणी! वह बेचारी क्या करे? वह तो अपना पूरा समय अपने परिवार को संभालने में ही लगा देती है, फिर भी सराहना का एक शब्द नहीं मिलता। अपने खर्चे के लिए भी उसे अपने पति या सास-ससुर पर ही आश्रित रहना पड़ता है, वो जो दे दें उसी में उसे संतोष करना पड़ता है। एक पढ़ी-लिखी स्त्री को जब विवाह के बाद नौकरी करने से मना कर दिया जाता है और उसे यह समझाया जाता है कि अब घर संभालना ही उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है, तब कई बार अपने सपनों को बलिदान कर स्त्रियां घर परिवार की जिम्मेदारी संभालने को ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लेती हैं। घर को सजाना-संवारना, परिवार के सदस्यों के लिए पौष्टिक एवं स्वादिष्ट भोजन बनाना, घर को साफ-सुथरा रखना, घर के प्रत्येक सदस्य का ख्याल रखना, छोटे बजट में भी घर को सुचारू रूप से चला लेना, ये सब एक कुशल गृहणी के गुण होते हैं। किंतु नौकरीपेशा महिलाओं के पास घर को व्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर अधिक ध्यान देने के लिए समय ही नहीं होता, इसलिए अधिकांशतः ऐसी कामकाजी स्त्रियों का घर अस्त-व्यस्त ही पाया जाता है और बच्चे भी अपनी मां से दूरी का अनुभव करते हैं। एक पढ़ी-लिखी सुशिक्षित गृहणी केवल अपने घर को ही सुव्यवस्थित ढंग से नहीं चलाती बल्कि अपने बच्चों को भी अच्छे संस्कार और शिक्षा देती है। इसलिए प्राचीन समय में जब स्त्रियां बहुधा घर में ही रहती थीं तो अपने बच्चों को रामायण, महाभारत आदि धर्म ग्रंथों में बताई गई अच्छी बातों की शिक्षा देती थीं। इसीलिए हमारे देश में मां को ही प्रथम गुरु माना गया है। आजकल की पढ़ी-लिखी सुशिक्षित गृहणियां घर की जिम्मेदारी के साथ-साथ अपने बच्चों की शिक्षा पर भी पूरा ध्यान देती हैं। रात में जब घर के बाकी सदस्य गहरी नींद ले रहे होते हैं, उस समय ये स्त्रियां घर के सारे काम निपटाकर अपने बच्चों को पढ़ा रही होती हैं। जिन गृहणियों को बहुत ही साधारण समझा जाता है, उनमें कुछ उच्च शिक्षित गृहणियां भले ही बाहर कोई उच्च शिक्षिका न बन पाई हों या समाज के किसी प्रतिष्ठित पद पर आसीन होकर धन और प्रतिष्ठा न कमा पाई हों, पर वे घर में अपने बच्चों को ऊंची कक्षाओं की गणित और विज्ञान जैसे कठिन विषयों की भी पढ़ाई कराती हुई दिखती हैं। उनकी आंखों में एक सपना होता है कि जो वो नहीं कर पाईं, उनके बच्चे बड़े होकर कर पाएं। उच्च से उच्च शिक्षा प्राप्त कर देश के प्रतिष्ठित पदों पर आसीन हो सकें और अपने देश, समाज और परिवार का नाम रोशन करें। इसके लिए वे दिन-रात एक कर देती हैं, अपने दिन का चैन और रात की नींदें भी कुर्बान कर देती हैं। किंतु वही बच्चे जब बड़े होकर योग्य बन जाते हैं तो शायद कुछ ही अपनी मां के इस बलिदान को याद रख पाते हैं, वरना या तो वह स्वयं भूल जाते हैं या उन्हें भुलवा दिया जाता है। इतना ही नहीं पति की सफलता में भी पत्नी के त्याग और समर्पण का बहुत बड़ा हाथ होता है, किंतु अधिकांश पुरुष इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं होते, उन्हें लगता है कि उनकी सफलता केवल और केवल उनकी मेहनत का फल है, क्योंकि पुरुषों का अहम् कभी यह स्वीकार ही नहीं कर पाता कि वह स्त्री को उसके कार्यों का उचित पारितोषिक प्रदान करें, उसकी सराहना करें, अपने और अपने बच्चों की सफलता में दिए गए उसके बहुमूल्य योगदान को स्वीकार करें। कोई श्रेय न मिलने पर भी एक पत्नी और मां की भूमिका अदा करने वाली स्त्री यह सोचकर सबकुछ सहज ही स्वीकार कर लेती है कि उसने तो अपने कर्तव्यों का पालन किया है और वह अपने परिवार के सदस्यों की सफलता और उन्नति में ही खुश रहती है। एक पढ़ी-लिखी और कुछ बनने का सपना देखने वाली महिला जब मात्र गृहणी बनकर रह जाती हैं तो उसके मन में कहीं न कहीं एक टीस कुलबुलाती रहती है कि वह जीवन में कुछ नहीं कर पाई और बच्चों के बड़ा होने पर जब वह अपने सपनों को साकार करना चाहती है, अपने शौकों को पूरा करना चाहती है या अपनी प्रतिभा के द्वारा नाम कमाना चाहती है, तो भी परिवार के सदस्य उसमें रोड़े अटकाते हैं। उन्हें तो आदत पड़ी होती है उसके पूरे समय पर, उसके तन-मन पर अधिकार जताने की। हां! स्वयं पर कभी उसके अधिकार को महसूस करने की जहमत नहीं उठाते। यदि एक गृहणी अपने जीवन का कुछ समय अपनी पहचान बनाने में खर्च करना चाहे तो भी परिवार के स्वार्थी सदस्यों को बहुत नागवार गुजरता है। खुद तो उन्हें सपोर्ट करते नहीं और यदि वह अपने दम पर कुछ करे तो उसे हतोत्साहित ही करते रहते हैं। सभी ऐसे नहीं हैं पर बहुत कम ही पुरुष ऐसे होंगे जो अपनी पत्नी को पूरा सपोर्ट देते हों। आज की महिलाएं जागरूक हो गई हैं। यदि वे विवाह के बाद एक परिपक्व समझदारी के साथ यह फैसला ले सकती हैं कि परिवार और बच्चों की देखभाल ही उनका प्रमुख उत्तरदायित्व है, तो बच्चों के बड़े होने के बाद अपने खाली समय का सदुपयोग करना भी उनको भली प्रकार आता है। समय और मौका मिलने पर वो अपनी छुपी हुई प्रतिभा को बाहर निकाल कर, उम्र के आखिरी पड़ाव में भी दुनिया को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा सकती हैं। एक स्त्री अगर पूरे परिवार को संभाल सकती है तो वह कुछ भी कर सकती है। बस उसे अपने अंदर छुपी हुई प्रतिभा को जगाने और पहचानने की जरूरत है। समय और सही अवसर मिलने पर, किसी की रोक-टोक पर ध्यान न देते हुए एक नारी को अपने जीवन में अपने लिए भी कुछ करना चाहिए, समाज में अपनी पहचान बनानी चाहिए। उन्हें केवल परिवार तक सिमटकर नहीं रह जाना चाहिए, क्योंकि योग्य और प्रतिभाशाली नारियों से ही भारतीय समाज मजबूत बनेगा। भारत की नारियां भारत का गौरव हैं। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक कांग्रेस पार्टी आजकल वैचारिक अधःपतन की मिसाल बनती जा रही है। नेहरू की जिस कांग्रेस ने पंथ-निरपेक्षता का झंडा देश में पहराया था, उसी कांग्रेस के हाथ में आज डंडा तो पंथ-निरपेक्षता का है लेकिन उसपर झंडा सांप्रदायिकता का लहरा रहा है। सांप्रदायिकता भी कैसी? हर प्रकार की। उल्टी भी, सीधी भी। जिससे भी वोट खिंच सकें, उसी तरह की। कांग्रेस को लगा कि भाजपा देश में इसलिए दनदना रही है कि वह हिंदू सांप्रदायिकता को हवा दे रही है तो उन्होंने भी हिंदू मंदिरों, तीर्थों, पवित्र नदियों और साधु-संन्यासियों के आश्रमों के चक्कर लगाने शुरू कर दिए लेकिन उसका भी जब कोई ठोस असर नहीं दिखा तो अब उन्होंने बंगाल, असम और केरल की मुस्लिम पार्टियां से हाथ मिलाना शुरू कर दिया। बंगाल में अब्बास सिद्दिकी के 'इंडियन सेक्युलर फ्रंट', असम में बदरूद्दीन अजमल के 'ऑल इंडिया यूनाइटेड फ्रंट' और केरल में 'वेलफेयर पार्टी' से कांग्रेस ने गठबंधन किसलिए किया है, इसीलिए कि जहां इन पार्टियों के उम्मीदवार न हों, वहां मुस्लिम वोट कांग्रेस को सेंत-मेंत में मिल जाएं। क्या इन वोटों से कांग्रेस चुनाव जीत सकती है? नहीं, बिल्कुल नहीं। लेकिन फिर ऐसे सिद्धांतविरोधी समझौते कांग्रेस ने क्यों किए हैं? इसीलिए कि इन सभी राज्यों में उसका जनाधार खिसक चुका है। अतः जो भी वोट, वह जैसे भी कबाड़ सके, वही गनीमत है। इन पार्टियों के साथ हुए कांग्रेसी गठबंधन को मैंने ठग-बंधन का नाम दिया है, क्योंकि ऐसा करके कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं को तो ठग ही रही है, वह इन मुस्लिम वोटरों को भी ठगने का काम कर रही है। कांग्रेस को वोट देकर इन प्रदेशों के मुस्लिम मतदाता सत्ता से काफी दूर छिटक जाएंगे। कांग्रेस की हार सुनिश्चित है। यदि ये ही मुस्लिम मतदाता अन्य गैर-भाजपा पार्टियां के साथ टिके रहते तो या तो वे किसी सत्तारूढ़ पार्टी के साथ होते या उसी प्रदेश की प्रभावशाली विरोधी पार्टी का संरक्षण उन्हें मिलता। कांग्रेस के इस पैंतरे का विरोध आनंद शर्मा जैसे वरिष्ठ नेता ने दो-टूक शब्दों में किया है। कांग्रेस यों तो अखिल भारतीय पार्टी है लेकिन उसकी नीतियों में अखिल भारतीयता कहां है? वह बंगाल में जिस कम्युनिस्ट पार्टी के साथ है, केरल में उसी के खिलाफ लड़ रही है। महाराष्ट्र में वह घनघोर हिंदूवादी शिवसेना के साथ सरकार में है और तीनों प्रांतों में वह मुस्लिम संस्थाओं के साथ गठबंधन में है। दूसरे शब्दों में कांग्रेस किसी भी कीमत पर अपनी जान बचाने में लगी हुई है। मरता, क्या नहीं करता? (लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार हैं।)
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रंजना मिश्रा पेट्रोलियम ईंधन के लगातार महंगे होने और इससे होने वाले प्रदूषण को देखते हुए हरित व नवीकरणीय ऊर्जा के प्रयोग को बढ़ावा देना देश के लिए बहुत जरूरी हो गया है, इसीलिए आज हाइड्रोजन को ईंधन के तौर पर इस्तेमाल करने के विकल्प ढूंढ़े जा रहे हैं। हाइड्रोजन ब्रह्मांड में प्रचुर मात्रा में मौजूद है, इससे बहुत ज्यादा ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है, यह हल्का है और पेट्रोल दहन से लगभग 2 से 3 गुना ज्यादा प्रभावकारी है। हाइड्रोजन जब जीवाश्म ईंधनों की जगह लेगा तो इससे पर्यावरण प्रदूषण और पेट्रोल की कीमतें प्रभावित होंगी। अभी भारत की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से जीवाश्म ईंधनों के आयात पर निर्भर है, ऐसे में जब हाइड्रोजन ऊर्जा का प्रयोग एक विकल्प के रूप में शुरू होगा तो भारत को आयात की जरूरतों में कमी आएगी। 2021 के बजट भाषण के दौरान वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने नेशनल हाइड्रोजन एनर्जी मिशन की घोषणा की थी। उन्होंने बताया था कि भारत 2021-22 में नेशनल हाइड्रोजन एनर्जी मिशन लॉन्च करने वाला है। इस मिशन के अंतर्गत ग्रीन हाइड्रोजन पर विशेष ध्यान दिया जाएगा और हाइड्रोजन को ऊर्जा स्रोत के रूप में उपयोग करने के लिए एक रोडमैप तैयार किया जाएगा कि किस प्रकार हाइड्रोजन ऊर्जा का उपयोग करना है? कैसे इसकी उपलब्धता को बढ़ाना है और सभी लोगों तक इसका डिस्ट्रीब्यूशन किस प्रकार करना है? हाइड्रोजन ऊर्जा मिशन इस्पात और सीमेंट जैसे उद्योगों को कार्बन मुक्त करने के लिए भी जरूरी है। किंतु इस मिशन को सफल बनाने के लिए हाइड्रोजन उत्पादन के साथ-साथ हाइड्रोजन ऊर्जा से चलने वाले वाहन भी बनाने होंगे, उनके लिए फ्यूल स्टेशन बनाने होंगे और सुरक्षित प्रौद्योगिकी को तैयार करना पड़ेगा। वाहन, ईंधन और प्रौद्योगिकी कंपनियां मिलकर इस मिशन को सफल बना सकती हैं। इस मिशन में भारत की बढ़ती अक्षय ऊर्जा क्षमता के साथ हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था की संभावनाओं को तलाशा जाएगा कि एक फ्यूल इकोनॉमी, जो जीवाश्म ईंधनों और पेट्रोलियम ईंधनों के प्रयोग पर ही ज्यादातर निर्भर है, जब हाइड्रोजन इकोनॉमी में परिवर्तित की जाएगी तो ये किस प्रकार लाभकारी सिद्ध हो सकेगी? इसका फोकस मुख्यतः परिवहन क्षेत्र पर होगा क्योंकि परिवहन क्षेत्र ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में एक तिहाई भूमिका अदा करता है। यदि हमें पर्यावरण से कार्बन और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना है या रोकना है तो सबसे पहले परिवहन के स्तर पर शुद्ध ऊर्जा का उपयोग करना शुरू करना होगा। अनुमान लगाया जा रहा है कि पारंपरिक इलेक्ट्रिक वाहनों के मुकाबले हाइड्रोजन ऊर्जा से चलने वाले वाहन ज्यादा लाभकारी साबित होंगे। भारत में पेरिस जलवायु समझौते के अंतर्गत 2050 तक कार्बन उत्सर्जन और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य रखा गया है। 2022 तक 175 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा क्षमता प्राप्त करना भारत का उद्देश्य है, इन उद्देश्यों की पूर्ति हाइड्रोजन ऊर्जा का उपयोग करके संभव हो सकती है।हाइड्रोजन ईंधन तीन प्रकार के होते हैं- ग्रे हाइड्रोजन, ब्लू हाइड्रोजन और ग्रीन हाइड्रोजन। भारत में सबसे ज्यादा ग्रे हाइड्रोजन का उपयोग होता है। ग्रे हाइड्रोजन का उत्पादन हाइड्रोकार्बन जैसे फॉसिल फ्यूल्स और नेचुरल गैसों से किया जाता है जिससे अपशिष्ट के तौर पर कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। ब्लू हाइड्रोजन और ग्रे हाइड्रोजन में ज्यादा फर्क नहीं है, ब्लू हाइड्रोजन का निष्कर्षण भी फॉसिल फ्यूल्स से होता है, इससे निकलने वाले अपशिष्ट कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड हैं, किंतु ब्लू हाइड्रोजन और ग्रे हाइड्रोजन में यह फर्क है कि ब्लू हाइड्रोजन से निकलने वाले बाय प्रोडक्ट्स को स्टोर करने की सुविधा होगी, ऐसे में ब्लू हाइड्रोजन पर्यावरण के लिए ज्यादा हितकारी होगा। ग्रीन हाइड्रोजन रिन्यूएबल एनर्जी जैसे पवन ऊर्जा या अन्य उर्जा से प्राप्त होती है। विद्युत क्षमता के जरिए पानी से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को अलग-अलग करके उनका उपयोग किया जाता है। ग्रीन हाइड्रोजन से बाय प्रोडक्ट के रूप में पानी या भाप निकलती है। इसलिए ग्रीन हाइड्रोजन बाकी दोनों प्रकार की हाइड्रोजन से ज्यादा किफायती और पर्यावरण फ्रेंडली साबित होगी। हाइड्रोजन ईंधन स्वच्छ ईंधन है, इससे कार्बन मोनोऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन और पार्टिकुलेट मैटर का उत्सर्जन बहुत कम मात्रा में या ना के बराबर होता है। हाइड्रोजन ईंधन के उपयोग से अपशिष्ट के रूप में जल का उत्सर्जन होगा जिसे रेगिस्तानी या बंजर जगहों में इस्तेमाल किया जा सकेगा। बायोमास से हाइड्रोजन का उत्पादन करने पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में वृद्धि की संभावना है। हाइड्रोजन ईंधन का उपयोग अंतरिक्ष वाहनों तथा बड़े वाहनों को चलाने में किया जा सकेगा अर्थात इससे बड़े मालवाहक ट्रक, शिप्स आदि को भी चलाया जा सकेगा। हाइड्रोजन ऊर्जा का उपयोग करने में कुछ चुनौतियों का सामना भी करना पड़ सकता है। हाइड्रोजन फ्यूल सेल आधारित वाहन अभी बहुत महंगे हैं, एक गाड़ी की कीमत लगभग 34-35 लाख रुपए तक है। हाइड्रोजन आधारित ईंधन अत्यधिक ज्वलनशील होते हैं, ये बहुत तेजी से प्रतिक्रिया करते हैं, इसलिए इनका उत्पादन, स्टोर करना, एक जगह से दूसरी जगह ले जाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। एचएफसी वाहनों का अंतर्राष्ट्रीय बाजार भी ज्यादा बड़ा नहीं है, ऐसे में निवेश में नुकसान होने की अधिक संभावना है। इन चुनौतियों का सामना किस प्रकार करना है, इस पर शोध हो रहा है और उम्मीद है कि जल्द ही इस तकनीक का लाभ उठाया जा सकेगा। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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सियाराम पांडेय 'शांत' भारत को आत्मनिर्भर बनाना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संकल्प है। अपने इस संकल्प को पूरा करने के लिए वे नित्य प्रति कुछ अलहदा करने की कोशिश करते हैं। उनका मानना है कि विकास चहुंमुखी होना चाहिए। नदी अपने प्रवाह की बदौलत ही स्वच्छ रह पाती है। प्रवाह अवरुद्ध होने पर जल सड़ने लगता है। चतुर्मुखी विकास के लिए दृष्टि जरूरी होती है। नीर-क्षीर विवेक जरूरी होता है। विकास का सिलसिला एक जगह भी रुका तो देश के व्यापक हित में नहीं होगा। वे हर व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। प्रधानमंत्री जल-थल और नभ तीनों ही क्षेत्रों में विकास को गति दे रहे हैं। हाल ही में अंतरिक्ष में 19 उपग्रहों का प्रक्षेपण कर उन्होंने पूरी दुनिया को इस बात का अहसास तो करा ही दिया है कि भारत के लिए असंभव कुछ भी नहीं है। पोत परिवहन एवं जल मार्ग मंत्रालय द्वारा आयोजित तीन दिवसीय 'मैरीटाइम इंडिया शिखर सम्मेलन-2021' का वर्चुअली उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समुद्री क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने का न केवल आह्वान किया बल्कि समुद्री उत्पादन क्षेत्र में विकास की असीम संभावनाओं पर भी उन्होंने देश का ध्यान आकृष्ट किया। 50 देशों के एक लाख से ज्यादा प्रतिभागियों ने इस समिट के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मानना है कि भारतीय सभ्यताओं का विकास देश के विशाल समुद्री तटों पर हुआ है। भारत का समृद्ध समुद्री इतिहास ही है जिसने इस देश को हजारों सालों से दुनिया से जोड़े रखा है। इसलिए इस परंपरा को अब पूरी ताकत के साथ और अधिक समृद्ध बनाना जरूरी हो गया है। उन्होंने विश्वास दिलाया है कि केंद्र सरकार समुद्री उत्पादों का न केवल भरपूर इस्तेमाल कर रही है बल्कि इस माध्यम से देश को आत्मनिर्भर भी बना रही है। इस निमित्त समुद्री क्षेत्रों का तेजी से विकास भी किया जा रहा है। इस क्रम में सागर माला परियोजना 2016 में आरंभ की गयी थी जिनके माध्यम से बंदरगाहों का तेजी से विकास हो रहा है। समुद्री क्षेत्र में और भी कई योजनाओं पर काम चल रहा है। गौरतलब है कि 25 मार्च 2015 को कैबिनेट ने भारत के 12 बंदरगाहों और 1208 द्वीप समूह को विकसित करने के लिए सागर माला परियोजना को मंजूरी दी थी। यह परियोजना 31 जुलाई 2015 को कर्नाटक में नौवहन मंत्रालय द्वारा होटल ताज वेस्ट एंड, बैंगलोर में शुरू की गई थी। कार्यक्रम का उद्देश्य भारत के 7,500 किलोमीटर लंबे समुद्र तट, 14,500 किलोमीटर के संभावित जलमार्ग और प्रमुख अंतरराष्ट्रीय समुद्री मार्गों पर रणनीतिक स्थान का उपयोग कर देश में बंदरगाह के विकास को बढ़ावा देना है। सागरमाला के लिए आंध्र प्रदेश सरकार ने 36 परियोजना प्रस्तावित की हैं। भारतीय तटीय क्षेत्र को तटीय आर्थिक क्षेत्र के रूप में विकसित किया जाना है। 20 जुलाई 2016 को भारतीय मंत्रिमंडल ने एक हजार करोड़ रूपए की प्रारंभिक प्राधिकृत शेयर पूंजी और 90 करोड़ रुपये की साझा पूंजी के साथ सागरमाला डेवलपमेंट कंपनी को मंजूरी प्रदान की थी, जिससे पोर्ट-डिमांड के विकास को बढ़ावा मिला। एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि सागरमाला परियोजना के तहत बंदरगाह के विकास के लिए सरकार की महत्वाकांक्षी गति से 2025 तक रसद लागत में 40 हजार करोड़ रुपये की बचत होगी। सागरमाला कार्यक्रम के अंतर्गत 2015 से 2035 के बीच करीब 7.98500 लाख करोड़ अनुमानित निवेश पर 415 परियोजनाओं को पूर्ण किया जाएगा। इन परियोजनाओं में बंदरगाहों का आधुनिकीकरण और नए बंदरगाह का विकास, बंदरगाह की कनेक्टिविटी बढ़ाने, बंदरगाह से जुड़े औद्योगीकरण और चरणवार कार्यान्वयन के लिए तटीय सामुदायिक विकास जैसे काम होने हैं। डेनमार्क मैरिटाइम शिखर सम्मेलन का सहयोगी देश है। सम्मेलन में 115 समुद्री क्षेत्रों के विशेषज्ञ अंतरराष्ट्रीय वक्ता हिस्सा ले रहे हैं। जाहिर है इस सम्मेलन में जो विचार मंथन होगा, उससे जो नवनीत निकलेगा, वह समुद्री क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा देने और देश को समुद्री उत्पादन क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने में सहायक सिद्ध होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि सरकार न सिर्फ समुद्री उत्पादों का भरपूर इस्तेमाल करने पर जोर दे रही है बल्कि समुद्री तटों के विकास के साथ ही रोजगार की संभावनाओं को भी तलाश रही है। जल परिवहन पर भी ध्यान दे रही है। 2030 तक 23 जलमार्गों का विकास कर लेने का हमारा लक्ष्य है। प्रधानमंत्री मानते हैं कि जलमार्ग से यातायात सस्ता भी है और पर्यावरण के अनुकूल भी है। जलमार्ग बंगलादेश, म्यामार जैसे पड़ोसी देशों के साथ व्यापार को बढ़ावा देने में सहायक हो सकते हैं। सी प्लेन जैसी योजनाएं आसानी से यहां लोगों की आवाजाही में मददगार बन सकती हैं। देश के कई स्थानों पर सी प्लेन योजना को संचालित करने की तैयारी चल रही है। सरकार जहाजों के निर्माण और उनकी मरम्मत के काम पर भी ध्यान दे रही है। बंदरगाहों को आधुनिक बनाया जा रहा है और इससे जहाजों के आवाजाही के समय की बचत हो रही है। उन्होंने यकीन जताया है कि यह शिखर सम्मेलन समुद्री क्षेत्र के प्रमुख हितधारकों को एक साथ लाएगा और भारत की समुद्री अर्थव्यवस्था के विकास को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाएगा। उन्होंने विदेशी निवेशकों को भारत में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया। भारत सरकार घरेलू शिप बिल्डिंग और शिप रिपेयर मार्केट पर भी ध्यान दे रही है। डोमेस्टिक शिप प्रोडक्शन को प्रोत्साहित करने के लिए हमने भारतीय शिपयार्ड के लिए जहाज निर्माण वित्तीय सहायता नीति को मंजूरी दी। 78 पोर्ट के बगल में पर्यटन विकसित किया जा रहा है। इसका उद्देश्य मौजूदा प्रकाश स्तंभों और इसके आसपास के क्षेत्रों को अद्वितीय समुद्री पर्यटन स्थलों में विकसित करना है। भारतीय बंदरगाहों ने इनबाउंड और आउटबाउंड कार्गो के लिए वेटिंग टाइमिंग घटा दी है। पोर्ट और प्ले-एंड-प्ले इन्फ्रास्ट्रक्चर में स्टोरेज की क्षमता बढ़ाने के लिए काफी निवेश हुआ है। इससे उद्योगों को पोर्ट लैंड के लिए आकर्षित किया जा सकेगा। बकौल प्रधानमंत्री, 2014 में प्रमुख बंदरगाहों की क्षमता जो लगभग 870 मिलियन टन प्रति वर्ष थी, जो अब बढ़कर लगभग 1550 मिलियन टन वार्षिक हो गई है। इस उत्पादकता लाभ से न केवल हमारे बंदरगाहों को बल्कि समग्र अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा मिलता है। केंद्रीय मंत्री मनसुख मंडाविया की मानें तो समिट समुद्री क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण साबित होगी। देश में बंदरगाहों का आधुनिकीकरण हो रहा है। भारत सरकार ने इस क्षेत्र में निवेश को बढ़ावा देने के लिए मैरीटाइम विजन तैयार किया है। भारतीय समुद्री क्षेत्र में आधुन