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विधायक ने किया भूमि पूजन सिंगरौली में विधायक राम लल्लू वैश्य ने पुल निर्माण का भूमि पूजन किया इस मौके पर लल्लू वैश्य ने कहा की पल निर्माण होने से लोगों को आने जाने में सुविधा होगी लोगों को कई समस्याओं से निजात मिल सकेगी मोरवा के चटका पहुंच मार्ग में पुल का निर्माण किया जाएगा जिसका भूमि पूजन सिंगरौली विधायक राम लल्लू वैश्य ने विधि विधान से पूजा अर्चना कर किया भूमिपूजन के दौरान मंडल महामंत्री आलोक यादव सहित भाजपा के पदाधिकारी और कार्यकर्ता के साथ नगर निगम के अधिकारी कर्मचारी मौजूद रहेइस अवसर पर विधायक राम लल्लू वैश्य ने कहा कि 13 लाख 8 हजार की लागत से पुल निर्माण किया जा रहा है पुल निर्माण हो जाने से वहां के रहवासियों के लिए आने-जाने में काफी सुविधा मिलेगी
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एक युवक गंभीर रूप से हुआ घायल रीवा में बदमाशों के हौसले बुलंद हैं टोल प्लाज़ा पर तीन युवकों पर बदमाशों ने हमला कर दिया बदमाशों ने पिस्टल से एक युवक को गोली मार दी वहीं दूसरे युवक के साथ मारपीट की गई पूरा मामला अवैध शराब से जुड़ा बताया जा रहा हैघटना रीवा के रायपुर कर्चुलियान थाना क्षेत्र के जोगनहाई टोल प्लाजा के पास की है जहां तीन युवकों के ऊपर कार सवार आधा दर्जन सेज्यादा बदमाशों ने हमला कर दिया बदमाशों ने राहुल सेन की पीठ में गोली मारी जबकि शुभम तिवारी के सिर पर कट्टे की बट से हमला किया वहीं तीसरा युवक अखंड दिवेदी मौके से भाग निकला घटना की जानकारी मिलने के बाद मौके पर पहुंची पुलिस ने घायलों को इलाज के लिए अस्पताल भेजा जानकारी अनुसार राहुल सेन शराब की दुकान में काम करता है जबकि हमलावर शराब पैकार है राहुल सेन ने कुछ माह पूर्व इन्हें शराब की पैकारी करते हुए पुलिस से पकड़ाया था जिससे आरोपियों को जेल हो गई थी जेल से छूटने के बाद अपराधियों ने बदला लेने के लिए इन पर जानलेवा हमला किया फिलहाल पुलिस मामले की जांच में जुटी है
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सड़क दुर्घटना में पंचायत सचिव की मौत छतरपुर में अज्ञात वाहन ने पंचायत सचिव और रोजगार सहायक को टक्कर मार दी जिससे सचिव की मौत हो गई और रोजगार सहायक गंभीर रूप से घायल हो गया बताया जा रहा है की दोनों मोटरसाइकिल से मीटिंग के लिए जा रहे थे तभी यह हादसा हुआ है मामला लवकुशनगर थाना क्षेत्र का है जहां पंचायत सचिव और रोजगार सहायक मीटिंग के लिए छतरपुर जा रहे थे तभी एक अज्ञात वाहन ने उन्हें टक्कर मार दी जिसमे पड़वार पंचायत सचिव दिनेश शिवहरे की मौत हो गई तो वही गहावरा पंचायत के रोजगार सहायक राम राजा शुक्ला गम्भीर रूप से घायल हो गये जिन्हे इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया है घटना की सूचना मिलते ही पुलिस मौके पर पहुंची लेकिन तब तक वहां मौजूद लोगों ने घायलों को अस्पताल ले जाने की जहमत नहीं कीलोग तमाशा देखते रहे वहीं 108 वाहन ने भी अस्पताल ले जाने में कानूनी अड़चन बताईटीआई की सख्ती के बाद एम्बुलेंस से उसे अस्पताल लाया गया बताया जा रहा है की अवकाश होने के बावजूद मीटिंग रखी गई थी जिसमे शामिल होने दोनों छतरपुर जिला पंचायत कार्यालय जा रहे थे पुलिस ने मामले की जांच शुरू कर दी है |
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swasthya mantri दो सूत्रीय मांगों को लेकर स्वास्थ्य मंत्री का घेराव ANM कर्मचारियों ने कोरोना में दी थी सेवाएं सरकार की बेरुखी प्रदेश के एएनएम कर्मचारियों पर भारी पड़ रही है कोरोना के समय अपनी जिंदगी दांव पर लगाकर सेवा देने वाले ये कर्मचारीअब सरकार से खुद के लिए गुहार लगा रहे हैं दो सूत्रीय मांगों को लेकर एक बार फिर एएनएम कर्मचारियों ने सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया और स्वास्थ्य मंत्री प्रभुराम चौधरी के बंगले का घेराव कियाएएनएम कर्मचारी मांगों को लेकर एक बार फिर लामबंद हुए स्वास्थ्य मंत्री प्रभु राम चौधरी के बंगले पर इन कर्मचारियों ने प्रदर्शन किया अपनी दो सूत्री मांगों को लेकर ये कर्मचारी लंबे समय से सरकार से गुहार लगा रहे हैं शनिवार को एक बार फिर कर्मचारियों ने प्रदर्शन कर अपनी मांग रखी प्रदर्शनकारियों की मांग है कि इन्हें 90% वेतनमान के साथ नियमितीकरण किया जाएगौरतलब है की प्रदेश में लगभग 5 हजार संविदा एएनएम कर्मचारी हैं कोरोना काल में जरूरत के समय सरकार ने इन कर्मचारियों का भरपूर लाभ उठाया इन कर्मचारियों ने अपनी जान की परवाह ना करते हुए स्वास्थ्य विभाग में अपनी सेवाएं दी लेकिन सरकार की बेरुखी के चलते इन्हें अपने परिवार के पालन पोषण के लिए आर्थिक परेशानियों से गुजरना पड़ रहा है इन कर्मचारियों का कहना है कि यदि उनकी मांगों को पूरा नहीं किया गया तो वे हड़ताल करने के लिए विवश होंगे |
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उपेन्द्र नाथ राय कश्मीर के चंदूरा तहसील के कर्मचारी राहुल भट्ट की हत्या से पूरा माहौल गमगीन है। हत्या के बाद पूरी घाटी आक्रोश की आग में उबल पड़ी है। चारों तरफ धरना- प्रदर्शन हो रहे हैं। आफिस में ही आतंकियों द्वारा तड़ातड़ गोलियों से किसी पंडित की हत्या कर देना नि:संदेह सरकार के लिए चुनौती है, लेकिन लोगों का सड़कों पर उससे ज्यादा एक बड़ा संदेश यह भी है कि लोगों में दशकों बाद आत्मबल देखने को मिला। किसी कश्मीरी ब्राह्मण की हत्या पर लोग सड़कों पर उतरे और घाटी में इतना बड़ा प्रदर्शन होना, नई पीढ़ी के लिए तो इतिहास की बात हो गयी थी। हां, आतंकवादियों के मारे जाने पर घाटी में जरूर पत्थर चलते देखा गया। उनके शव पर लोगों द्वारा एके-47 लहराते हुए जरूर देखा जाता रहा। इस बार किसी कश्मीरी पंडित की नृशंस हत्या पर यह आक्रोश देखने को मिला है। हम इसे सरकार द्वारा लोगों में आत्मबल पैदा करने का परिणाम ही मानते हैं। इस दुखद समय के बीच एक चिंगारी दिख रही है, जिसमें भविष्य में घाटी का सुधार दिख रहा है। पिछले कुछ वर्षों से सरकार द्वारा कश्मीरी पंडितों को घाटी में बसाने का काम किया जा रहा है। इस बीच सरकार ने उन्हें तमाम सुविधाएं भी प्रदान की है। इससे कश्मीरी पंडितों में एक आत्मबल पैदा हुआ है। उन्हें ऐसा लगने लगा है कि सरकार उनकी है। उनकी आवाज सरकार तक पहुंचती है और वे उसके समर्थन में या खिलाफ में आवाज बुलंद करने की क्षमता रखते हैं। पहले यही नहीं था। कश्मीरी पंडितों को आजादी के बाद से कभी एहसास ही नहीं हुआ कि सरकार उनकी भी है। कहीं सुनवाई उनकी भी होगी, इस कारण अपनों की मौत को भी खुद खून का घूंट पीकर रह जाने को मजबूर थे। कभी उनकी आवाज नहीं सुनाई दी और वे अपनों को गंवाने के बाद खुद की जान बचाने के लिए देश के अन्य जगहों की ओर खिसक लिये। यदि हम देश में पनप रहे आतंक व माओवाद की तुलनात्मक रूप से देखें तो सरकार को बस्तर, झारखंड, तेलंगाना के माओवाद क्षेत्रों में भी वही करने की जरूरत है, जो कश्मीर में कर रही है अर्थात वहां के स्थानीय लोगों में आत्मबल पैदा करना। जिस दिन सरकार वहां के स्थानीय लोगों में माओवादियों से लड़ने, उनके खिलाफ आवाज उठाने के लिए आत्मबल पैदा करने में सफल हो गयी, उस दिन माओवाद का खात्मा होना तय है। मैंने खुद उत्तर बस्तर जिले में रहकर देखा है, वहां के माओवाद पनपने का मुख्य कारण है, वहां के लोगों में आत्मबल का न होना है। माओवादियों से प्रताड़ित होते हुए भी लोग उनके खिलाफ आवाज नहीं उठाने को मजबूर हैं। यदि आप बाहर से गये हैं, कहीं भी माओवादियों द्वारा लोग प्रताड़ित हुए हैं, आप लाख कोशिश करते रहिए लेकिन कोई उनके खिलाफ मुंह खोलने को नहीं मिलेगा। इसका कारण है, मुंह खोलने का मतलब माओवादियों द्वारा हमेशा के लिए मुंह बंद कर दिया जाएगा। इस कारण लोग मजबूर हैं, खून का घूंट पीकर, आंखों में आंसू लेकर यही कहते हैं भैया, हमें कहीं कोई माओवादी प्रताड़ित नहीं करता। एक उदाहरण के तौर पर बता रहा हूं, कांकेर जिले के ही जिला मुख्यालय से लगभग 160 किमी दूर सीतरम इलाका है। वहां जाने के लिए नदी को पार करना होता है। जब 2016 में हम उस इलाके में गये। नदी पार करते ही माओवादियों के गेट और उनके स्मारकों ने स्वागत किया। जब फोटो खींच रहे थे, तो आसपास लोग संदेह भरी निगाहों से देख रहे थे, फिर जब उनसे बात करने की कोशिश की तो उनका यही कहना था कि भैया, यहां कोई माओवादी तंग नहीं करता। जबकि हकीकत है, उस इलाके में आज भी माओवादियों की पंचायत लगती है। उसी हिसाब से लोगों को रहना पड़ता है। पुलिस वहां के विवाद का फैसला नहीं करती। वहां के विवादों का फैसला माओवादी पंचायतों में होता है। इसका कारण है, पुलिस जब तक लोगों की सुरक्षा में पहुंचेगी तब तक माओवादियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों के प्राण पखेरू उड़ चुके होंगे। यदि यही लोगों को विश्वास हो जाए कि उनकी आवाज सरकार तक पहुंचेगी। सरकार उनको संपूर्ण सुरक्षा देगी, माओवादी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। उस दिन से माओवादियों के खिलाफ आवाज उठनी शुरू हो जाएगी और जिस दिन माओवादियों के खिलाफ मुंह खुलने लगे, उस दिन से उनका सफाया होना सुनिश्चित हो जाएगा। ऐसा कुछ इलाकों में धीरे-धीरे हो भी रहा है, लेकिन सरकार द्वारा आत्मबल देने की गतिविधियां धीमी है। इस कारण माओवादियों क्षेत्रों के समाप्त होने की प्रक्रिया भी धीमी है। जरूरत है, लोगों में आत्मबल पैदा करने की।
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आर.के. सिन्हा किसी भी सरकार का जनमानस में सम्मान तब ही होता है, जब उसके कर्मचारी पूरी निष्ठा, मेहनत और ईमानदारी से अपने दायित्वों का निर्वाह करते हैं। देखिए सरकार को चलाने वाले नेता तो एक विजन के साथ सत्ता पर काबिज होते हैं। फिर उनके विजन को सरकारी बाबू अमली जमा पहनाकर जमीन पर उतारते हैं। मतलब वे ही वस्तुतः समस्त सरकारी योजनाओं-परियोजनाओं को जमीं पर लागू करते हैं। लेकिन अगर वे ही काहिली और करप्शन के जाल में फंस जाएं तो फिर सरकार और देश का क्या होगा, यह भलीभांति सोचा जा सकता है। दुर्भाग्यवश हमारे यहां अब भी बड़ी तादाद में सरकारी बाबू कायदे से मन लगाकर काम करने के लिए तैयार नहीं हैं। यही नहीं, वे तो करप्शन करने से तनिक भी बाज नहीं आ रहे। वे चंद सिक्कों में अपना जमीर और देश को बेचने से भी पीछे नहीं हटते। अब कुछ ताजा मामलों को ही देख लीजिए। केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने हाल ही में अपने चार अफसरों को डिसमिस करने के बाद गिरफ्तार कर लिया। इन पर चंडीगढ़ के एक बिजनेसमैन से एक करोड़ रुपए की उगाही के आरोप सिद्ध होने के बाद यह एक्शन लिया गया। सरकार की जीरो टोलरेंस पॉलिसी के तहत यह एक्शन हुआ है। अब जरा सोचिए कि सीबीआई का काम बड़े घोटाले और दूसरे आपराधिक मामलों की जांच करने का है। इससे जुड़े मुलाजिमों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने काम को सही से अंजाम देंगे। लेकिन, यहां पर सही की बात बहुत दूर है, इनके कुछ कर्मी भी करप्शन में बुरी तरह ही लिप्त हैं। वे खुलेआम घूस ले रहे हैं। बहरहाल, ये मानना होगा कि सीबीआई ने अपने इन शातिर अफसरों को डिसमिस करके सबको कड़ा संदेश तो दे ही दिया। सरकार का अब कोई भी महकमा पहले की तरह से भ्रष्टाचार का अड्डा बनकर नहीं चल सकता। पहले तो सरकारी बाबू अपने को सरकार का दामाद समझ कर ही दफ्तर आते थे और अपना रुआब झाड़ कर वापस घर चले जाते थे। कुछ सरकारी बाबुओं ने तो अपने को वक्त के साथ बदल लिया। वे अब सही से काम भी करते हैं। लेकिन, कई अब भी बाज नहीं आ रहे। वे करप्शन के किसी भी मौके को नहीं छोड़ते। उन पर तो चाबुक चलाने की सख्त जरूरत है। सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद सरकारी कर्मियों की सैलरी में भी तगड़ा उछाल आया है। अब छोटे से छोटे पदों पर काम करने वाले सरकारी बाबू भी ठीक-ठाक ही पगार उठाते हैं। लेकिन, लालच का कोई इलाज नहीं है। महात्मा गांधी बहुत पहले ही कह गए हैं कि मनुष्य की आवश्यकताओं को तो भरसक पूरा किया जा सकता है, लेकिन लालच को नहीं। रोटी, कपड़ा और मकान आदमी की बुनियादी जरूरतें हैं। फिर भी देख लीजिए, जीवनशैली कैसी होती जा रही है। पृथ्वी से हमें जो कुछ मिलता है, वह हमारी आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। लेकिन, लालच को पूरा नहीं किया जा सकता है। हमलोग पर्यावरण के साथ अन्याय कर रहे हैं। दिन-प्रतिदिन नई-नई टेक्नोलॉजी हमें घेर रही है। लेकिन, इसके प्रतिकूल प्रभावों पर कोई चर्चा तक नहीं होती। आज घरों से गोरैया लुप्त हो गई है। पर्यावरण से छेड़छाड़ के कारण गंगा की अविरलता बाधित हो रही है। यही हाल रहा तो पृथ्वी को बचाना मुश्किल हो जाएगा। अब वक्त आ गया है कि करप्शन में लिप्त सरकारी बाबुओं को किसी भी सूरत में न छोड़ा जाए। जब सीबीआई के कर्मियों पर एक्शन हुआ, लगभग तब ही झारखंड सरकार की खनन सचिव व आईएएस अफसर पूजा सिंघल को मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में निलंबित कर दिया है। करीब 20 करोड़ रुपए से अधिक का कैश पूजा सिंघल के करीबियों के ठिकानों से जब्त किया गया है। पूजा सिंघल को खूंटी में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना निधि के गबन और अन्य संदिग्ध वित्तीय लेन देन के मामले में गिरफ्तार किया था। इसके बाद पूजा सिंघल को कोर्ट के समक्ष पेश किया गया था। अब जरा सोचिए कि मेरठ के सोफिया स्कूल की छात्रा रही पूजा सिंघल ने 21 साल की उम्र में आईएएस की परीक्षा को क्रैक कर लिया था। यानी वह मेधावी तो थी ही लेकिन वह रास्ते से भटक गई और उसने अपनी खुद ही इज्जत तार-तार कर ली। मोदी सरकार अब निकम्मों और भ्रष्ट अफसरों के पीछे पड़ गई है। अब तो वही सरकारी नौकरी में रहेगा जो काम करेगा। बेकार-कामचोर बाबुओं के लिए अब कोई जगह नहीं बची है। इस बीच, रेलवे ने भी हाल ही में अपने 19 आला अफसरों को एक ही दिन में जबरन रिटायर कर दिया। उन्हें स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वीआरएस) दी गई है। कामकाज की समीक्षा के बाद इनमें से कई अफसरों को कार्य में अक्षम पाया गया था और उन्हें बार-बार चेतावनी भी दी जा रही थी। रेलवे इससे पहले भी 75 अफसरों को वीआरएस दे चुका है। जिन्हें वीआरएस दी गई है, उनमें इलेक्ट्रिकल, पर्सनल, मैकेनिकल, स्टोर, सिविल इंजीनियर, सिग्नल इंजीनियर एवं ट्रैफिक सर्विस के वरिष्ठ अधिकारी हैं। इसमें रेलवे बोर्ड के दो सचिव स्तर के अधिकारियों सहित एक जोनल रेलवे के महाप्रबंधक भी शामिल हैं। इसके अलावा वेस्टर्न रेलवे, सेंट्रल रेलवे, ईस्टर्न रेलवे, नॉदर्न सेंट्रल रेलवे, नॉदर्न रेलवे सहित रेलवे उपक्रमों रेल कोच फैक्टरी कपूरथला, मॉडर्न कोच फैक्टरी रायबरेली, डीजल लोकोमोटिव वर्क्स वाराणसी और आरडीएसओ-लखनऊ आदि के वरिष्ठ अधिकारी शामिल हैं। भारतीय रेलवे में अधिकारियों को वीआरएस देने का सिलसिला जुलाई, 2021 से शुरू हो गया था। यानी काहिल अफसरों की तो अब शामत आ गई है। इन्हें अब तबीयत से कसा जा रहा है। देखिए सख्ती होने लगी तो रेलवे के कामकाज में सुधार साफ तौर पर दिखाई दे रहा है। मैं हाल ही में आगरा गया था। इस दौरान नई दिल्ली, हज़रत निज़ामुद्दीन और आगरा कैंट रेलवे स्टेशनों को देखा। सबको देखकर दिल प्रसन्न हो गया। वहां पहले वाली अराजकता और अव्यवस्था कहीं नजर नहीं आई। इन रेलवे स्टेशनों में रेलवे कर्मियों का व्यवहार भी सहयोगपूर्ण मिला। तो क्या माना जाए कि हम सख्ती के बाद ही काम करने लगते हैं? ये सख्ती सभी भ्रष्ट तथा निकम्मे सरकारी बाबुओं पर लगातार जारी रहनी चाहिए। हां, सरकार को ईमानदार तथा मेहनती सरकारी अफसरों तथा कर्मियों को पुरस्कृत भी करते रहना चाहिए ताकि यह मैसेज जाता रहे कि सरकार अपने सच्चे अफसरों को हर तरह से सम्मानित और पुरस्कृत करती रहेगी। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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विश्व परिवार दिवस (15 मई) पर विशेष प्रो.संजय द्विवेदी भारत में ऐसा क्या है जो उसे खास बनाता है? वह कौन-सी बात है जिसने सदियों से उसे दुनिया की नजरों में आदर का पात्र बनाया और मूल्यों को सहेजकर रखने के लिए उसे सराहा। निश्चय ही हमारी परिवार व्यवस्था वह मूल तत्व है, जिसने भारत को भारत बनाया। हमारे सारे नायक परिवार की इसी शक्ति को पहचानते हैं। रिश्तों में हमारे प्राण बसते हैं, उनसे ही हम पूर्ण होते हैं। आज कोरोना की महामारी ने जब हमारे सामने गहरे संकट खड़े किए हैं तो हमें सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संबल हमारे परिवार ही दे रहे हैं। व्यक्ति कितना भी बड़ा हो जाए उसका गांव, घर, गली, मोहल्ला, रिश्ते-नाते और दोस्त उसकी स्मृतियां का स्थायी संसार बनाते हैं। कहा जाता है जिस समाज स्मृति जितनी सघन होती है, जितनी लंबी होती है, वह उतना ही श्रेष्ठ समाज होता है। परिवार नाम की संस्था दुनिया के हर समाज में मौजूद है। किंतु परिवार जब मूल्यों की स्थापना, बीजारोपण का केंद्र बनता है, तो वह संस्कारशाला हो जाता है। खास हो जाता है। अपने मूल्यों, परंपराओं को निभाकर समूचे समाज को साझेदार मानकर ही भारतीय परिवारों ने अपनी विरासत बनाई है। पारिवारिक मूल्यों को आदर देकर ही श्रीराम इस देश के सबसे लाडले पुत्र बन जाते हैं। उन्हें यह आदर शायद इसलिए मिल पाया, क्योंकि उन्होंने हर रिश्ते को मान दिया, धैर्य से संबंध निभाए। वे रावण की तरह प्रकांड विद्वान और विविध कलाओं के ज्ञाता होने का दावा नहीं करते, किंतु मूल्य आधारित जीवन के नाते वे सबके पूज्य बन जाते हैं, एक परंपरा बनाते हैं। अगर हम अपनी परिवार परंपरा को निभा पाते तो आज के भारत में वृद्धाश्रम न बन रहे होते। पहले बच्चे अनाथ होते थे, आज के दौर में माता-पिता भी अनाथ होने लगे हैं। यह बिखरती भारतीयता है, बिखरता मूल्यबोध है। जिसने हमारी आंखों से प्रेम, संवेदना, रिश्तों की महक कम कर भौतिकतावादी मूल्यों को आगे किया है। न बढ़ाएं फासले, रहिए कनेक्ट आज के भारत की चुनौतियां बहुत अलग हैं। अब भारत के संयुक्त परिवार आर्थिक, सामाजिक कारणों से एकल परिवारों में बदल रहे हैं। एकल परिवार अपने आप में कई संकट लेकर आते हैं। जैसा कि हम देख रहे हैं कि इन दिनों कई दंपती कोरोना से ग्रस्त हैं, तो उनके बच्चे एकांत भोगने के साथ गहरी असुरक्षा के शिकार हैं। इनमें माता या पिता या दोनों की मृत्यु होने पर अलग तरह के सामाजिक संकट खड़े हो रहे हैं। संयुक्त परिवार हमें इस तरह के संकटों से सुरक्षा देता था और ऐसे संकटों को आसानी से झेल जाता था। बावजूद इसके समय के चक्र को पीछे नहीं घुमाया जा सकता। ऐसे में यह जरूरी है कि हम अपने परिजनों से निरंतर संपर्क में रहें। उनसे आभासी माध्यमों, फोन आदि से संवाद करते रहें, क्योंकि सही मायने में परिवार ही हमारा सुरक्षा कवच है। आमतौर सोशल मीडिया के आने के बाद हम और ‘अनसोशल’ हो गए हैं। संवाद के बजाए कुछ ट्वीट करके ही बधाई दे देते हैं। होना यह चाहिए कि हम फोन उठाएं और कानोंकान बात करें। उससे जो खुशी और स्पंदन होगा, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। परिजन और मित्र इससे बहुत प्रसन्न अनुभव करेंगे और सारा दिन आपको भी सकारात्मकता का अनुभव होगा। संपर्क बनाए रखना और एक-दूसरे के काम आना हमें अतिरिक्त उर्जा से भर देता है। संचार के आधुनिक साधनों ने संपर्क, संवाद बहुत आसान कर दिया है। हम पूरे परिवार की आनलाईन मीटिंग कर सकते हैं, जिसमें दुनिया के किसी भी हिस्से से परिजन हिस्सा ले सकते हैं। दिल में चाह हो तो राहें निकल ही आती हैं। प्राथमिकताए तय करें तो व्यस्तता के बहाने भी कम होते नजर आते हैं। जरूरी है एकजुटता और सकारात्मकता सबसे जरूरी है कि हम सकारात्मक रहें और एकजुट रहें। एक-दूसरे के बारे में भ्रम पैदा न होने दें। गलतफहमियां पैदा होने से पहले उनका आमने-सामने बैठकर या फोन पर ही निदान कर लें। क्योंकि दूरियां धीरे-धीरे बढ़ती हैं और एक दिन सब खत्म हो जाता है। खून के रिश्तों का इस तरह बिखरना खतरनाक है क्योंकि रिश्ते टूटने के बाद जुड़ते जरूर हैं, लेकिन उनमें गांठ पड़ जाती है। सामान्य दिनों में तो सारा कुछ ठीक लगता है। आप जीवन की दौड़ में आगे बढ़ते जाते हैं, आर्थिक समृद्धि हासिल करते जाते हैं। लेकिन अपने पीछे छूटते जाते हैं। किसी दिन आप अस्पताल में होते हैं, तो आसपास देखते हैं कि कोई अपना आपकी चिंता करने वाला नहीं है। यह छोटा सा उदाहरण बताता है कि हम कितने कमजोर और अकेले हैं। देखा जाए तो यह एकांत हमने खुद रचा है और इसके जिम्मेदार हम ही हैं। संयुक्त परिवारों की परिपाटी लौटाई नहीं जा सकती, किंतु रिश्ते बचाए और बनाए रखने से हमें पीछे नहीं हटना चाहिए। इसके साथ ही सकारात्मक सोच बहुत जरूरी है। जरा-जरा सी बातों पर धीरज खोना ठीक नहीं है। हमें क्षमा करना और भूल जाना आना ही चाहिए। तुरंत प्रतिक्रिया कई बार घातक होती है। इसलिए आवश्यक है कि हम धीरज रखें। देश का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसे ही पारिवारिक मूल्यों की जागृति के कुटुंब प्रबोधन के कार्यक्रम चलाता है। पूर्व आईएएस अधिकारी विवेक अत्रे भी लोगों को पारिवारिक मूल्यों से जुड़े रहने प्रेरित कर रहे हैं। वे साफ कहते हैं ‘भारत में परिवार ही समाज को संभालता है।’ जुड़ने के खोजिए बहाने हमें संवाद और एकजुटता के अवसर बनाते रहने चाहिए। बात से बात निकलती है और रिश्तों में जमी बर्फ पिधल जाती है। परिवार के मायने सिर्फ परिवार ही नहीं हैं, रिश्तेदार ही नहीं हैं। वे सब हैं जो हमारी जिंदगी में शामिल हैं। उसमें हमें सुबह अखबार पहुंचाने वाले हाकर से लेकर, दूध लाकर हमें देने वाले, हमारे कपड़े प्रेस करने वाले, हमारे घरों और सोसायटी की सुरक्षा, सफाई करने वाले और हमारी जिंदगी में मदद देने वाला हर व्यक्ति शामिल है। अपने सुख-दुख में इस महापरिवार को शामिल करना जरूरी है। इससे हमारा भावनात्मक आधार मजबूत होता है और हम कभी भी अपने आपको अकेला महसूस नहीं करते। कोरोना के संकट ने हमें सोचने के लिए आधार दिया है, एक मौका दिया है। हम सबने खुद के जीवन और परिवार में न सही, किंतु पूरे समाज में मृत्यु को निकट से देखा है। आदमी की लाचारगी और बेबसी के ऐसे दिन शायद कभी देखे गए हों। इससे सबक लेकर हमें न सिर्फ सकारात्मकता के साथ जीना सीखना है बल्कि लोगों की मदद के लिए हाथ बढ़ाना है। बड़ों का आदर और अपने से छोटों का सम्मान करते हुए सबको भावनात्मक रिश्तों की डोर में बांधना है। एक- दूसरे को प्रोत्साहित करना, घर के कामों में हाथ बांटना, गुस्सा कम करना जरूरी आदतें हैं, जो डालनी होंगी। एक बेहतर दुनिया रिश्तों में ताजगी, गर्माहट,दिनायतदारी और भावनात्मक संस्पर्श से ही बनती है। क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं? (लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नयी दिल्ली के महानिदेशक हैं।)
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अब पुलिस कर रही है मामले की जांच सिंगरौली में एक मासूम की निर्मम हत्या कर दी गईबताया जा रहा है की मासूम बारात देखने गया था जिसके बाद वह घर नहीं लौटा पुलिस मामले की जाँच कर रही हैसिंगरौली में अपराधियों के हौसले बुलंद हैं घूरीताल में एक दस वर्षीय मासूम अभय साहू की निर्मम हत्या कर दी गई सूचना मिलने पर पुलिस प्रशासन मौके पर पहुंचा और जांच शुरू की बताया जा रहा है की मासूम बालक बारात देखने की बात कहकर गया था लेकिन सुबह तक जब मासूम वापस नहीं लौटा तो परिजनों ने उसकी तलाश शुरू की सुबह उसका शव घर से कुछ दूरी पर क्षत विक्षत अवस्था में मिला पुलिस ने इस मामले में कुछ लोगों को पकड़ा है |
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डॉ. रीना रवि मालपानी जीवन सदैव नियति के विधान से चलता है पर समाज के सीसीटीवी के अनोखे विश्लेषण है। यह मानता है कि बेटी विवाह के बाद माता-पिता के घर नहीं रुक सकती। माता-पिता को रखना केवल बेटों की जिम्मेदारी है। लड़की की कमाई से माता-पिता का जीवनयापन करना ठीक नहीं। आप किसी अनाथ को गोद लेकर उसका लालन-पालन करोगे तो वह खून के रिश्ते की तरह वफादार नहीं होगा। ऐसे अनेकों प्रश्न हैं जिन पर समाज सदैव अपना सीसीटीवी लगाए रखता है। विश्लेषण और मूल्यांकन समाज करता है। मगर अपेक्षित सहयोग समाज नहीं करता। समाज के सीसीटीवी में बहू की कमाई से घर चलाना ठीक नहीं है। कन्या संतति से वंश का आगे उद्धार नहीं हो सकता। यदि आपने परिस्थिति या मन के अनुरूप निर्णय लिए हैं तो वहां उनका अतिरिक्त मूल्यांकन होने लगता है। कई माता-पिता को समाज के इस सीसीटीवी के डर से बेटी का विवाह शीघ्र करना होता है। फिर भले ही उसकी क्षमताओं को मारा जाए। वह घर उसके अनुरूप उचित हो या न हो। बाद में वह लड़की भले ही घुट-घुट कर अपना दम तोड़ती रहे। कई बार अपनों और रिश्तेदारों के कहने में आकर खर्च करते-करते हम स्वयं पूरी तरह रंक बन जाते हैं और दुख की अवस्था में हमारा कोई सहयोगी नहीं होता। यदि कोई भी स्त्री भक्ति का मार्ग चुन ले और वह अपना अत्यधिक समय ईश भक्ति में लगा दे तो यही समाज उस पर उंगली उठाने लगेगा। इस समाज की घटिया सोच के कारण ही स्त्री शादी के बाद मायके में स्वयं को बोझ समझने लगती है। क्यों समाज की सोच जीवन में उलझनों को जन्म देती है और सुलझने का मार्ग क्यों नहीं सुझाती। समाज के दिखावे के चलते लोग महंगी-महंगी पार्टी करते हैं। शादी, बर्थडे पार्टी और सेलिब्रेशन में अनाप-शनाप रुपया खर्च किया जाता है। यह रुपया हम समाज में लोगों के इलाज, शिक्षा और उनके दुख को कम करने में नहीं लगाते। यह समाज दोहरा चरित्र निभाता है। कुछ समय झूठी तारीफ कर पुनः मीन-मेख निकालने लग जाता है। इस समाज के सीसीटीवी में आदर्श बेटे-बहू की संकल्पना है पर उन आदर्शों के साथ गृहस्थी का बोझ भी ढोना है। अत्यधिक अच्छाई की कीमत कभी-कभी आत्महत्या, घुटन, संत्रास, उत्पीड़न, अवसाद और खुद को रंक बनाकर भी अदा की जाती है। यह समाज आपके विवाह न करने, देरी से विवाह करने, प्रेम विवाह करने यानी हर स्थिति पर आपसे स्पष्टीकरण चाहता है। वह आपके परिस्थिति अनुरूप स्वतंत्र निर्णय का समर्थन नहीं करेगा पर कैमरे की चौकसी जरूर बढ़ाएगा। और उल्टे-सीधे विश्लेषण से सत्य से गुमराह करने में सहयोगी बनेगा। क्यों हमारा समाज लोगों के अतिरिक्त मूल्यांकन के पहले उनकी यथार्थ स्थिति को समझने का प्रयत्न नहीं करता। क्यों उनके उन्नति के सोपानों में सहयोगी नहीं होता। समय के अनुरूप निर्णय का भी स्वागत होना चाहिए। जीवन सदैव वैसा नहीं होता जैसा आप अपने सीसीटीवी में देखते है। हर व्यक्ति की अपनी परिस्थितियां, अपने भविष्य के लिए विचार या अपने स्वतंत्र निर्णय हो सकते हैं। समाज को समृद्धि, खुशहाली और सकारात्मक सोच में सहयोगी होना चाहिए, क्योंकि आप भी इसी समाज का अंग हैं। परिवर्तन संसार का नियम है, जिस कसौटी पर आज आप लोगों को तौल रहे हैं कल शायद उस तराजू में आपको भी खड़ा होना हो सकता है। समाज के सीसीटीवी से बुराई, आलोचना, नकारात्मकता और अतिरिक्त मूल्यांकन की धुंध समाप्त होनी चाहिए। (लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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योगेश कुमार गोयल रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) द्वारा हवा में मार करने वाली मध्यम दूरी की दो मिसाइलों ‘एमआरएसएएम’ (मीडियम रेंज सरफेस टू एयर मिसाइल) का पिछले दिनों सतह से सफल परीक्षण किया गया। सेना के लिए तैयार इन मिसाइलों को उड़ीसा के चांदीपुर स्थित एकीकृत परीक्षण रेंज (आईटीआर) से दागा गया और दोनों ही मिसाइलों ने लक्ष्यों को रास्ते में ही रोककर पूरी तरह से नष्ट कर दिया। ‘आईटीआर’ डीआरडीओ की ही भारतीय रक्षा प्रयोगशाला है, जो रॉकेट, मिसाइलों तथा हवाई हथियार प्रणालियों के लांच के लिए सुरक्षित सुविधाएं प्रदान करती है। आईटीआर से किए गए परीक्षण के दौरान पहली एमआरएसएएम मिसाइल ने मध्यम ऊंचाई पर लंबी दूरी के लक्ष्य को निशाना बनाया जबकि दूसरी मिसाइल ने कम ऊंचाई पर कम दूरी के लक्ष्य को निशाना बनाकर नष्ट किया। एमआरएसएएम के इन परीक्षणों के दौरान बालासोर जिला प्रशासन द्वारा एहतियात के तौर पर आईटीआर के निकट बसे तीन गांवों से करीब सात हजार लोगों को अस्थायी तौर पर सुरक्षित जगहों पर पहुंचा दिया गया था। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के मुताबिक एमआरएसएएम के दोनों सफल परीक्षण अहम रेंज पर लक्ष्यों को भेदने की हथियार प्रणाली की क्षमता को दिखाते हैं। डीआरडीओ के अनुसार यह उड़ान परीक्षण उच्च गति वाले हवाई लक्ष्य के खिलाफ लाइव फायरिंग ट्रायलों का हिस्सा थी और बढ़ी हुई रेंज की इस मिसाइल ने बहुत दूर से लक्ष्य पर सीधा प्रहार करते हुए लक्ष्य को पूरी सटीकता से नष्ट कर दिया। पिछले साल दिसम्बर में एमआरएसएएम के आर्मी वर्जन का पहला परीक्षण किया गया था। एमआरएसएएम के सफल परीक्षण से ठीक चार दिन पहले भी डीआरडीओ द्वारा निर्मित सतह से सतह पर मार करने वाली ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल का अंडमान और निकोबार में सफल परीक्षण किया गया था। उस परीक्षण के दौरान ब्रह्मोस मिसाइल ने सटीकता के साथ अपने लक्ष्य को मार गिराया था। जहां तक सतह से हवा में मार करने वाली एमआरएसएएम संस्करण वाली मिसाइल की विशेषताओं की बात है तो डीआरडीओ द्वारा इस मिसाइल को डीआरडीएल हैदराबाद और इजरायल की कम्पनी ‘इजरायल एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज’ (आईएआई) के साथ मिलकर बनाया गया है और आधा किलोमीटर से 100 किलोमीटर तक रेंज वाली एमआरएसएएम सैन्य हथियार प्रणाली में मल्टीफंक्शन रडार, मोबाइल लांचर प्रणाली तथा अन्य व्हीकल शामिल हैं। इजरायल से भारत को मिली बराक मिसाइल भी एमआरएसएएम ही है। सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल आर्मी वेपन सिस्टम में कमांड पोस्ट, मल्टी फंक्शन राडार, मोबाइल लांचर सिस्टम होता है। आईएआई के सहयोग से डीआरडीओ द्वारा बनाई गई एमआरएसएएम इजरायल की खतरनाक मिसाइल ‘बराक-8’ पर ही आधारित है। बराक मिसाइलें एमआरएसएएम का ही बेहतरीन नमूना मानी जाती हैं और भारत की इजरायल से बराक-1 मिसाइल से लेकर बराक-8 तथा बराक-8ईआर मिसाइल की डील चल रही है। भारत ने इजरायल से एमआरएसएएम मिसाइल के पांच रेजिमेंट (40 लांचर्स तथा 200 मिसाइल) खरीदने के लिए करीब 17 हजार करोड़ रुपये के सौदे को लेकर बात की है। आईएनएस विशाखापट्टनम में 100 किलोमीटर रेंज वाली 32 एंटी-एयर बराक मिसाइलें या 150 किलोमीटर रेंज वाली बराक 8ईआर मिसाइलें तैनात हो सकती हैं। इसके अलावा 16 एंटी-शिप या लैंड अटैक ब्रह्मोस मिसाइलें भी लगाई जा सकती हैं। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि इन घातक मिसाइलों से लैस होने के बाद यह युद्धपोत दुश्मन के जहाजों और विमानों पर कहर बनकर टूट पड़ने में सक्षम हो जाएगा। हाल ही में डीआरडीओ द्वारा जिस एमआरएसएएम मिसाइल का सफल परीक्षण किया गया है, वह एक वायु और मिसाइल रक्षा प्रणाली है, जो भारतीय नौसेना के लिए लंबी दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल (एलआरएसएएम) का लैंड बेस्ड वर्जन है। इस मिसाइल को खासतौर से भारतीय सेना के इस्तेमाल के लिए ही बनाया गया है। एमआरएसएएम मिसाइल बैलिस्टिक मिसाइलों, लड़ाकू जेट विमानों, विमानों, ड्रोन, निगरानी विमानों तथा एयरबोर्न वार्निंग एंड कंट्रोल सिस्टम विमानों को मार गिराने में सक्षम है और एक बार छोड़े जाने के बाद यह आसमान में सीधे 16 किलोमीटर तक के लक्ष्य को गिरा सकती है। इसकी रेंज में आने के बाद किसी यान, विमान, ड्रोन अथवा मिसाइल का इसकी जबरदस्त मार से बच पाना लगभग नामुमकिन हो जाता है। मध्यम रेंज की सतह से हवा में मार करने वाली इस मिसाइल की बहुत तीव्र गति भी इसे दुश्मन के लिए बेहद घातक बनाती है। इसकी गति 680 मीटर प्रति सेकेंड अर्थात् 2448 किलोमीटर प्रतिघंटा है। इस मिसाइल की सबसे विशेष बात है ‘रेडियो फ्रिक्वेंसी सीकर’ अर्थात् यदि दुश्मन का यान चकमा देने के लिए केवल रेडियो का उपयोग कर रहा है तो भी यह उसे मार गिराएगी। यह मिसाइल 70 किलोमीटर के दायरे में आने वाली दुश्मन की किसी भी मिसाइल, हेलीकॉप्टर, लड़ाकू विमान इत्यादि को मार गिराने में पूरी तरह से सक्षम है। डीआरडीओ के मुताबिक सेना की वायु रक्षा के लिए एमआरएसएएम एक उन्नत ऑल वेदर, 360 डिग्री मोबाइल लैंड बेस्ड थिएटर एयर डिफेंस सिस्टम है, जो एक युद्ध क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के खतरों के खिलाफ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में वायु रक्षा प्रदान करने में सक्षम है। इस मिसाइल प्रणाली में एडवांस रडार, मोबाइल लांचर के साथ कमांड एंड कंट्रोल सहित इंटरसेप्टर भी मौजूद है। करीब 275 किलोग्राम वजनी, 4.5 मीटर लंबी और 0.45 मीटर व्यास वाली एमआरएसएएम मिसाइल की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह जमीन से आसमान तक लंबी दूरी तक किसी भी दुश्मन के हवाई हमले को नाकाम कर सकती है और केवल एक वार में अपने लक्ष्य को नेस्तनाबूत कर सकती है। यह दो स्टेज की मिसाइल है, जो लांच किए जाने पर कम धुआं छोड़ती है और इस पर 60 किलोग्राम वॉरहेड अर्थात् हथियार लोड किए जा सकते हैं। दुश्मन की सटीक जानकारी देने के लिए इसमें कॉम्बैट मैनेजमेंट सिस्टम, रडार सिस्टम, मोबाइल लांचर सिस्टम, एडवांस्ड लांग रेंज रडार, रीलोडर व्हीकल, फील्ड सर्विस व्हीकल इत्यादि शामिल हैं। बहरहाल, माना जा रहा है कि इजरायल से मिलने वाली एमआरएसएएम मिसाइल रेजिमेंट के अलावा डीआरडीओ और इजरायल द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित एमआरएसएएम की तैनाती 2023 तक की जा सकती है। ये मिसाइलें भारत को वायु सुरक्षा कवच बनाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. रमेश ठाकुर रानिल विक्रमसिंघे पांचवीं बार श्रीलंका के प्रधानमंत्री बन गए हैं। कांटों से भरे इस ताज के साथ विक्रमसिंघे के समक्ष कठिनाइयों और चुनौतियों का अंबार है। सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे स्वतः बीते एकाध दिनों से लगातार ऐसे फैसले ले रहे हैं जिससे देश की बिगड़ी अर्थव्यवस्था किसी भी तरह से सुधारी जा सके। इसलिए नए प्रधानमंत्री रानिल के कंधों पर उम्मीदों का बड़ा भार है। हालांकि अनमने मन से उन्होंने प्रधानमंत्री का पद संभाला जरूर है, लेकिन भय उनके भीतर भी है। लेकिन विपक्षी दलों ने उनसे साफ कहा है, उनके किसी फैसले का विरोध नहीं करेंगे, बस देश को सुधार दो। कोर्ट, प्रशासन, राजनीति, जनता, तमाम तंत्र उनके साथ चलने को राजी है। जिस बुरे दौर से श्रीलंका गुजर रहा है, ऐसी कल्पना श्रीलंकाइयों ने सपनों में भी नहीं की होगी। नए प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे युनाइटेड नेशनल पार्टी यानी यूएनपी के प्रमुख नेता हैं। उन्हें श्रीलंका का सबसे अच्छा प्रशासक और ताकतवर देशों का समर्थक माना जाता है। भारत के अलावा अमेरिका के साथ उनके संबंध अच्छे रहे हैं। पर, समस्याएं इस वक्त विकट हैं, इससे पहले भी वे चार बार देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। हालांकि तब की परिस्थितियों से आज के हालात की तुलना नहीं की जा सकती। इस वक्त समूचा श्रीलंका तबाह हुआ पड़ा है। लोग खाने-पीने की चीजों के साथ अन्य जरूरी चीजों के मोहताज हैं। काम-धंधे, व्यापार, नौकरियां, स्कूल-कॉलेज सब पर ताले हैं। जनजीवन थम गया है। पर्यटकों ने आना बंद कर दिया है। ये ऐसा क्षेत्र है जो देश की अर्थव्यवस्था में मजबूती देता है। राजनीतिक उठापठक के बीच आर्थिक संकट के समुद्र में भी श्रीलंका गोता खा रहा है, उससे देश को बाहर निकालना रानिल विक्रमसिंघे की सबसे बड़ी चुनौती है। प्रधानमंत्री पद की कमान भले उन्होंने संभाल ली, पर जिन चुनौतियों से उन्हें अगले कुछ महीनों में लड़ना है, उसमें वह कितना सफल होते हैं, ये कहना अभी बहुत जल्दबाजी होगी। कुल मिलाकर, श्रीलंका को एक अनुभवी प्रशासक चाहिए था। शायद रानिल के मिलने से यह खोज पूरी होगी। वे बेदाग नेता हैं। बिना लाग-लपेट और साफगोई से अपनी बात कहते हैं। निर्णय लेने में वह ज्यादा देरी नहीं करते। सबको साथ लेकर चलने में उन्हें महारथ हासिल है। रानिल के प्रधानमंत्री बनने पर भारत ने भी खुशी जाहिर की है। रानिल के राजनीतिक करियर को देखें तो ऐसा लगता है कि श्रीलंका को ऐसे ही नेता की इस वक्त जरूरत थी। वह अपनी पार्टी युनाइटेड नेशनल पार्टी के 1994 से सर्वमान्य के नेता हैं। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने 7 मई 1993 से 18 अगस्त 1994, 8 दिसंबर 2001 से 6 अप्रैल 2004, 9 जनवरी 2015 से 26 अक्टूबर 2018 और 15 दिसंबर 2018 से 21 नवंबर 2019 तक देश की बागडोर संभाली। इसके अलावा वे सदन में दो बार नेता विपक्ष भी रहे। वह श्रीलंका में ही नहीं, बल्कि संसार भर में राजनीतिक पटल पर जाने पहचाने नेता हैं। श्रीलंका की स्थिति इस वक्त ऐसी है जिसे राजनीतिक-प्रशासनिक गठजोड़ ही उबार पाएगा। बिगड़ी अर्थव्यवस्था में अगर रानिल कुछ महीनों में तीस-चालीस फीसदी भी सुधार कर पाते हैं तब भी उनकी बड़ी उपलब्धि होगी। उनकी नियुक्ति इसलिए अहम मानी जा रही है, क्योंकि श्रीलंका की अवाम को उनसे बड़ी उम्मीदें हैं। वह इकलौते ऐसे नेता हैं जिसपर जनता विश्वास करती है। वे देश को राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक संकट और हिंसा से बाहर निकाल पाएंगे, ऐसी उम्मीद वहां के लोग लगाए बैठे हैं। श्रीलंका में बीते डेढ़ महीने से कानून-व्यवस्था चौपट हो चुकी है, उसे दुरूस्त करना होगा। सुरक्षा दृष्टि से इस पड़ोसी मुल्क को हमेशा से शांत प्रिय कहा जाता है। लिट्टे के आतंक से मुक्ति के बाद देश में अमन-चैन लौटा था। लेकिन अचानक उगता सूरज डूब गया, अर्थव्यवस्था धड़ाम हो गई। इन सभी समस्याओं से रानिल विक्रमसिंघे को जूझ कर समाधान निकालना होगा। बहुत जल्द कुछ ऐसा करना होगा, जिससे आम जीवन कुछ सामान्य हो सके। जैसे भारत ने आर्थिक मदद, पेट्रोल, खाद्य सामग्री भेजी है, श्रीलंका की मदद के लिए कुछ और देशों को आगे आना होगा। इसके लिए प्रधानमंत्री रानिल को कुछ देशों से सहयोग की अपील करनी होगी। बहरहाल, श्रीलंका में इस वक्त आपातकाल लगा है। सबसे पहले प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को इसे हटाना होगा, जिससे आम जनजीवन सामान्य हो पाएगा। संकट के इस दौर में समूचा विपक्ष एकजुट है और होना भी चाहिए। विपक्षी दलों ने संकटकाल में सामूहिकता प्रकट कर अच्छी तस्वीरें पेश की है। 225 सदस्यों वाली श्रीलंकाई संसद में रानिल विक्रमसिंघे की पार्टी यूनाइटेड नेशनल पार्टी के एक ही सीट है। बावजूद इसके सत्तारूढ़ श्रीलंका पोदुजाना पेरामुना, विपक्षी समगी जन बालावेगाया के एक धड़े और अन्य कई दलों ने संसद में विक्रमसिंघे को अपना बहुमत देकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर इस उम्मीद से बैठाया है कि वे अपने अनुभवों से देश को फिर पटरी पर ला पाएंगे। भारत भी उम्मीद करता है कि नए प्रधानमंत्री जल्द से जल्द श्रीलंका को संकट से बाहर निकालें। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. नितिन सहारिया भारतवर्ष को स्वतंत्र हुए 75 वर्ष हो चुके हैं। हमें 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता तो प्राप्त हुई किंतु अभी भी हम अंग्रेजीयत / इस्लामियत को धारण किए हुए हैं। न्यायालय में अंग्रेजी-उर्दू का प्रयोग, वही अंग्रेजी जमाने के गुलामी के कानून आईपीसी, सीआरपीसी की धाराएं और भी अनेकों विदेशी चीजों से हमने आज भी मुक्ति नहीं पाई है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 'स्व' का तंत्र बनाना चाहिए था। किंतु ऐसा नहीं हो सका। हमने उन्हीं का गुणगान किया जिन्होंने हमें पराधीन (गुलाम) बनाया था। ऐसा लगता है हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता के पश्चात सत्ता गलत लोगों के हाथों में चली गई थी। तभी तो भारत आजतक अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया है। एक तरफ आंशिक रूप से हमने कुछ सुधार अवश्य किए थे। गुलामी के चिह्न जॉर्ज पंचम की मूर्ति को इंडिया गेट से हटाया, मिंटो ब्रिज को शिवाजी ब्रिज, विक्टोरिया पार्क को महात्मा गांधी पार्क किया। कोलकाता, मद्रास, बॉम्बे को हमने कोलकाता-चेन्नई -मुंबई किया। किन्तु अभी भी देश में बड़े सुधार की आवश्यकता है। भारत के संविधान की पूरी समीक्षा हो व वर्तमान की देश की प्रासंगिकता/ आवश्यकता के अनुरूप उसका स्वरूप का निर्धारण हो। ज्यादा लचीलेपन के कारण देश में भ्रष्टाचार बढ़ा है। आज भी भारत के न्याय के मंदिर में विदेशी अंग्रेजी भाषा का बोलबाला है। उच्च शिक्षा इंजीनियरिंग, तकनीकी, भारतीय प्रशासनिक सेवा इत्यादि में अंग्रेजीयत की पैठ/ दबदबा है। आजादी के 75 वर्षों बाद भी गुलामी के अवशेष अभी भी देश में बाकी हैं। जरा विचार कीजिए जापान में शिक्षा जापानी भाषा में होती है। जर्मनी में जर्मन भाषा में, फ्रांस में फ्रेंच भाषा में, इंग्लैंड में अंग्रेजी में, रूस में रशियन भाषा में तो फिर भारत में शिक्षा हिंदी में क्यों नहीं? भारत की राजधानी दिल्ली का अद्भुत नजारा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। कभी दिल्ली जाकर देखिए आपको ऐसा लगेगा कि आप पाकिस्तान की राजधानी में आ गए हैं। अकबर रोड, तुगलक रोड, हुमायूं रोड, औरंगजेब-जहांगीर -शाहजहां रोड, सराय काले खां बस स्टॉप, हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन, मुगल गार्डन, मंगोलपुरी, जहांगीरपुरी, आसफ अली रोड। क्या है ये सब? भारत आजाद हुआ है कि नहीं? अथवा देश की स्वतंत्रता के नाम पर छलावा हुआ है? यदि छलावा नहीं तो फिर यह दृश्य क्या है? यह देश में चल क्या रहा है? इसके विपरीत पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में तो कहीं लेशमात्र भी भारत की झलक/ झांकी नहीं दिखलाई देती, फिर भारत में यह सब क्यों? यही सबसे बड़ा प्रश्न है। कुछ प्रश्नों पर जरा हम विचार करें - लुटेरों (आतताइयों के) नाम पर देश की राजधानी के मार्गों के नाम क्यों? लुटेरों के नाम पर देश की राजधानी के मार्गों का नामकरण आखिर किसने किया? क्यों किया? दिल्ली भारत की राजधानी है या पाकिस्तान की? देश में आजादी के 75 वर्ष बाद भी गुलामी के अवशेष शेष क्यों? कौन देशद्रोहियों से प्रेम कर रहा /किसे है? खगोलीय वेधशाला का नाम बदलकर आखिर कुतुब मीनार किसने करवाया? किसने तेजो महालय (शिव मंदिर) को ताजमहल लिखवाया इतिहास की पुस्तकों में? वाराणसी में ज्ञानवापी जब मंदिर है तो फिर मस्जिद किसने बनाई? किसने इतिहास की पुस्तकों में उसे झूठा ज्ञानवापी मस्जिद लिखवाया? किसने इतिहास में इतने झूठे/मिथक गढ़े/ लिखवाए? ताजमहल के बंद कमरों की वीडियोग्राफी की जाए। आखिर ज्ञानवापी की वीडियोग्राफी से मुस्लिम समाज को ऐतराज/ घबराहट क्यों? क्या कुतुब मीनार का एएसआई द्वारा सर्वे/ वीडियोग्राफी /अनुसंधान नहीं किया जाना चाहिए? देश में 95 प्रतिशत मस्जिदें मंदिर ध्वस्त करके उसके ऊपर ही बनाई गई हैं, अतः सभी की जांच /अनुसंधान एएसआई द्वारा किया जाए ; अब मुगल काल बीत चुका है। भारत में दिल्ली चांदनी चौक का नाम 'गुरु तेग बहादुर शहीदी स्थल' किया जाना चाहिए, अकबर रोड -महाराणा प्रताप मार्ग, तुगलक रोड -जनरल बिपिन रावत मार्ग, हुमायूं रोड- भगत सिंह मार्ग किया जाना चाहिए। इतिहासकारों का बयान है कि दिल्ली की जामा मस्जिद कभी बड़ा भव्य मंदिर हुआ करता था।आखिर मथुरा की वास्तविक श्रीकृष्ण जन्मस्थली पर 75 वर्षों से मस्जिद क्यों बनी हुई है? कौन इसे संरक्षण दे रहा है? आखिर कौन इन लुटेरों की वकालत कर रहा है ? क्या वह भारतीय नहीं? क्या उसे देश ( भारत) से प्रेम नहीं ? भारत को 15 अगस्त 1947 को 'स्वतंत्रता' तो मिली किंतु 'स्वाधीनता' नहीं। स्व के जागरण से ही स्वाधीनता की प्राप्ति होगी। सृष्टि का यही अटल नियम है की -"अंत में सब दूध का दूध और पानी का पानी होता है।" अंत में सत्य ही विजित होता है। हर रात की सुबह होती है । स्वामी विवेकानंद ने कहा था - To be good and to do good that is the whole of religion ." जो जैसा करता है, वह वैसा ही पाता है यही धर्म का सार है।" अब एक झटके में गुलामी के अवशेषों से मुक्ति पानी होगी तभी हम 'स्व ' से 'स्वाधीनता' के पथ पर अग्रसर होंगे। अत: सत्य, धर्म व नैतिकता का मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ है। किसी वस्तु को शक्ति/डंडे के बल पर कुछ देर तक ही दबाया जा सकता है किंतु यह भी परम सत्य है कि शक्ति से ही धर्म /सत्य की प्रतिष्ठा होती है। शक्ति से ही शांति आती है। संतुलन बनता है अतः शक्ति का संचय, आराधना करनी चाहिए तभी तो स्व भी पुष्ट होगा व भविष्य उज्ज्वल होगा। जितनी जल्दी हम गुलामी के अवशेषों से मुक्ति प्राप्त करेंगे उतनी ही जल्दी हमें स्वाधीनता प्राप्त होगी। राष्ट्र का भविष्य उज्जवल होगा। (लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार हैं।)
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गिरीश जोशी भगवान बुद्ध और बौद्ध पंथ के विषय में अनेक विमर्शों के माध्यम से सनातन और बौद्ध दर्शन के बीच मतभिन्नता का अस्तित्व खड़ा किया गया है। इस विमर्श से हटकर एक अलग दृष्टिकोण से भगवान बुद्ध और सनातन दर्शन के अन्तर्सम्बन्धों को देखने का प्रयास करते हैं। भारत देश की विशेषता है, जब-जब समाज धर्माचरण के मार्ग से विचलित हो जाता है, सनातन के शाश्वत सिद्धांतों की समाज को विस्मृति हो जाती है, समय काल परिस्थितिवश सामाजिक व्यवस्था में धर्म का त्रुटिपूर्ण विवेचन होने लगता है इस कारण से विभिन्न प्रकार की जटिल समस्याएँ सामाजिक जीवन में व्याप्त हो जाती है, तब-तब इन व्यवस्थाओं को ठीक करने के लिए उच्चस्तर की चेतना का धरती पर अवतरण होता है। इस प्रकार अवतरित हुई चेतनाओं को ही अपने यहां अवतार कहा गया है। सृष्टि परिचालन की व्यवस्था के बारे में सनातन दृष्टि में ब्रह्मा- सृजन, शिव-विसर्जन और विष्णु पालन का काम करते हैं। जिसके पास व्यवस्थाओं के संचालन का काम होता है उसे ही व्यवस्थाओं में आने वाली गड़बड़ी को ठीक करने का भी दायित्व वहन करना पड़ता है। इसलिए जब भी व्यवस्था तंत्र में किसी प्रकार के सुधार की आवश्यकता होती है उस समस्या की प्रकृति के अनुसार उसे ठीक करने के लिए भगवान विष्णु एक अलग अवतार में विलक्षण दृष्टिकोण के साथ हमारे मध्य उपस्थित होते हैं। भगवान बुद्ध की मूल चेतना को आद्य शंकराचार्यजी ने पहचाना था। इसलिए उन्होंने भगवान बुद्ध को दशावतार में एक अवतार माना है। भगवान बुद्ध की उच्चस्तरीय चेतना को आचार्य शंकर ही पहचान सकते थे। यहाँ हम बौद्ध दर्शन और सनातन परंपराओं के बीच किस प्रकार का संबंध है, उसका विचार करेंगे। भगवान बुद्ध द्वारा प्रवर्तित मार्ग में त्रिरत्न बुद्ध, धर्म और संघ, दिए गए हैं। सनातन में भी तीन योगों का प्रावधान है- कर्म योग, भक्ति योग एवं ज्ञान योग। बुद्ध दर्शन में चार आर्य सत्य हैं। आर्य सनातन परंपरा का गुणवाचक विशेषण है। सनातन में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं। बुद्ध दर्शन में पंचशील है-1.झूठ न बोलना 2. हिंसा न करना 3. चोरी न करना 4. व्यभिचार न करना 5. नशा न करना। सनातन परंपरा में पाँच यम है- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह। भगवान बुद्ध ने अष्टांग मार्ग सम्यक्दृष्टि, सम्यक्, सम्यक्वचन, सम्यक्कर्म, सम्यक्आजीविका, सम्यक्व्यायाम, सम्यक्स्मृति और सम्यक्समाधि का प्रवर्तन किया । सनातन परंपरा में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि अष्टांग योग के माध्यम से सत्य को जानने का मार्ग बतलाया गया है। दोनों मार्गों का लक्ष्य समाधि ही है। सनातन परंपरा में साधना के लिए चार साधन चतुष्टय- नित्यानित्यवस्तुविवेक,वैराग्य, षट्सम्पत्ति का अर्जन तथा मुमुक्षता और छः संपत्ति -शम,दम,श्रद्धा,समाधान,उपरति और तितिक्षा कुल दस बातों का साधक में होना जरूरी बताया गया है तो बौद्ध दर्शन में दस परिमिताएं - दान,शील,नैष्क्रम्य, प्रज्ञा, वीर्य, शांति, सत्य, अधिष्ठान, मैत्री और उपेक्षा को आवश्यक बताया गया है। भगवान बुद्ध ने अपने जीवनकाल में कभी वेदों का विरोध नहीं किया लेकिन उस समय वे लोग जो वेदों का त्रुटिपूर्ण प्रतिपादन कर मनमाने कर्म जैसे हिंसा तथा पशुबलि जैसी कुप्रथा मे लिप्त हो गए थे उनका विरोध किया था। भगवान बुद्ध की संकलित वाणी सुत्तनपात 292 में लिखा- ”विद्वा च वेदेहि समेच्च च धम्मं, न उच्चावचं गच्छति भूपरिपञ्ञे। ”इसका अर्थ पं. धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड अपने ग्रन्थ “वेदों का यथार्थ स्वरूप” में करते हैं- ”जो विद्वान् वेदों द्वारा धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है। उसकी ऐसी डांवाडोल अवस्था नहीं होती।” “धम्मपीति सुखं सेति विप्पसन्नेन चेतसा। अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पण्डितो।।“ (धम्मपद पृ. 114-15) अर्थात् धर्म में आनन्द मानने वाला पुरुष अत्यन्त प्रसन्नचित्त से सुखपूर्वक सोता है। पण्डितजन सदा आर्योपदिष्ट धर्म में रत रहते हैं। न जटाहि न गोत्तेन न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो।। (धम्मपद पृ. 140-141) अर्थात् न जन्म के कारण, न गोत्र के कारण, न जटा धारण के कारण ही कोई ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य है, जिसमें धर्म है, वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है। भगवान बुद्ध ने विपश्यना नामक साधना की तकनीक को वेदों से ही प्राप्त कर पुनः प्रतिस्थापित किया और उसके माध्यम से साधना कर बुद्धत्व को प्राप्त हुए। अखिल सृष्टि के सत्य स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं-"सब्बो पज्जलितो लोको,सब्बो लोको पकंपितो" अर्थात मुझे सृष्टि का माया से अनावृत सत्य स्वरूप ये दिखा की सारा लोक ‘पज्जलित’ यानी प्रकाश के स्वरूप में है और सर्वत्र मात्र ‘पकंपन’ यानि केवल तरंगे ही तरंगे है। इस सृष्टि का वास्तविक स्वरूप प्रकाश और तरंगे मात्र है। हमें दृश्यमान स्वरूप में जो जगत दिखाई पड़ता है वो उस प्रकाश तथा तरंगों की घनीभूत अभिव्यक्ति है,वह वास्तविक नहीं है। इसी बात को आदि गुरु शंकराचार्य ने कहा था-"ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या जीवोब्रमैहव नापरह।" भगवान बुद्ध ने अपने अनुभव के आधार पर कहा- “अत्ताहि अत्तनो नथो को हि नाथो परो सिया अत्तनां व सुदन्तेन,नाथं लभति दुल्लभं।“ अर्थात मैं स्वयं अपना स्वामी हूँ। सुयोग्य पद्धति से जानने के प्रयास करने पर ‘नाथं लभति दुल्ल्भं’ से दुर्लभ नाथ (ब्रम्ह) पद प्राप्त होता है। इसी बात को आदि गुरु शंकराचार्य ने महावाक्य में अभिव्यक्त किया- "अहम् ब्रह्मास्मि।" दोनों का गंतव्य एक ही था केवल मार्ग अलग था। भगवान बुद्ध के मन में दु:खों के कारण का निवारण विचार था। भगवान बुद्ध के अनुसार हमारे दु:खों का कारण हमारा इस जगत के व्यक्ति, वस्तु, स्थान, कार्य, विचार आदि के प्रति अनुराग या द्वेष होता है। बुद्ध के अनुसार ये सारी चीजें अनित्य हैं जो पल-प्रतिपल समाप्त ही हो रही है, प्रिय के प्रति अनुराग और अप्रिय के प्रति द्वेष हमारे दु:खों का कारण बनता है। इसलिए बुद्ध ने इस संसार की हर बात को अनित्य प्रकृति का होने के कारण उस पर सकारात्मक अथवा नकारात्मक किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया ना कर अस्तित्व को “शून्य” के रूप में स्वीकार कर तटस्थता के मार्ग का अनुसरण किया और सत्य तक पहुंचे। इस संबंध में आदि गुरु शंकराचार्य के दृष्टिकोण को देखें तो इस विश्वप्रपंच को देखकर उनके मन में प्रश्न उठे- “कस्तवम कोSहम कुतः अयात, को में जननी को में तात:” यानि में कहाँ और क्यों आया हूँ? मेरे वास्तविक माता-पिता कौन है? मेरे यहाँ आने का उद्देश्य क्या है? इस सृष्टि का रहस्य क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए वे भी वेदों में वर्णित “अनंत” की साधना का अनुसरण कर सत्य तक पहुंचे। सामान्य व्यक्ति की दृष्टि में ‘शून्य’ और ‘अनंत’ के बीच भारी अंतर है जिसे कभी पाटा नहीं जा सकता। लेकिन सृष्टा जो कि अनादि और अनंत है उसकी दृष्टि से देखें तो उसके लिए शून्य और अनंत एक ही रस्सी के दो छोर जैसे ही हैं। गणित के विद्यार्थियों को शून्य और अनंत का संबंध बड़ी आसानी से समझ में आता है। यदि किसी भी संख्या को शून्य से भाग दिया जाए तो परिणाम अनंत प्राप्त होता है और यदि किसी संख्या को अनंत से भाग दिया जाए तो परिणाम में शून्य प्राप्त होता है। इसका अर्थ है अर्थ है यदि हम शून्य का विचार लेकर चलें या अनंत की परिकल्पना को लेकर आगे बढ़े अंततोगत्वा इस सत्यान्वेषण की प्रमेय का हल “परमसत्य” के रूप में ही प्राप्त होगा। इसी देश के सत्यान्वेषी मनीषियों ने अपने अनुभवों के आधार पर कहा है- “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।“ भगवान बुद्ध इस देश में अवतरित हुए “विप्र” श्रेणी के सर्वश्रेष्ठ महात्माओं में से एक हैं जिन्होंने उसी सनातन सत्य को एक अलग मार्ग से खोज कर दुनिया के सामने रखा है। (लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक कुलसचिव हैं।)
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आर.के. सिन्हा जरा एक बात पर गौर करें कि सूचना के अधिकार की आड़ में भारतीय सेना की तैयारियों को लेकर कुछ खास तत्वों में उत्सुकता किसलिए हो सकती है? क्या सेना के कामकाज की जानकारियां सार्वजनिक करनी चाहिए? सेना से संबंधित जानकारियां सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत सेना की विभिन्न इकाइयों, एजेंसियों तथा छावनियों से मांगने वाले कौन लोग हैं? ये तमाम सवाल इसलिए अहम हो जाते हैं क्योंकि इधर देखने में आ रहा है कि कुछ तत्व सेना की अति संवेदनशील एवं महत्वपूर्ण जानकारियों को हासिल करने में भी दिलचस्पी लेने लगे हैं। इन सब वजहों से सेना का तंत्र भी चौकन्ना हो गया। वह सारी स्थिति पर नजर रख रहा है। उसकी तरफ से हाल ही में यह भी मांग हुई है कि सेना को आरटीआई कानून से बाहर रखा जाए। ये मांग सच में बहुत ही सार्थक है तथा संकेत दे रही कि मामला कितना गंभीर है। पिछली 28 अप्रैल को केन्द्रीय कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में हुई एक बैठक में इस बात पर गंभीर चिंता जताई गई कि आरटीआई के नाम पर सेना की अहम जानकारियां मांगी जा रही हैं। यह बैठक सेनाध्यक्ष मनोज मुकुंद नरवणे के रिटायर होने से दो दिन पहले हुई थी। सेना की तरफ से उपर्युक्त मांग को लेकर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। इस पर सरकार को देश की आंतरिक सुरक्षा तथा सेना के कामकाज को गुप्त रखने के अधिकार के आलोक में निर्णय लेना होगा। निश्चय ही देश के नागरिकों को आरटीआई कानून के तहत सूचना पाने के अधिकारों की सीमाएं हैं। सूचना अधिकार के द्वारा राष्ट्र अपने नागरिकों को, अपने कार्य को और शासन प्रणाली को सार्वजनिक करता है। लोकतंत्र में देश की जनता अपनी चुनी हुए व्यक्ति को शासन करने का अवसर प्रदान करती है और यह अपेक्षा करती है कि सरकार पूरी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ अपने दायित्वों का पालन करेगी। लेकिन जनता को यह अधिकार तो कतई नहीं दिया जा सकता कि वह देश की सुरक्षा और शत्रु का मुकाबला के लिए की जा रही तैयारियों की ही जानकारियां मांगने लगे। जाहिर है, ये सब वे शातिर लोग करते हैं जिनके इरादे नेक नहीं होते। ये कौन नहीं जानता कि हमारे यहां सेना की जासूसी करने वाले जयचंद और मीर जाफर भी जगह-जगह मौजूद हैं। इनमें सेना के अंदर ही छिपे कुछ गद्दारों से लेकर कुछ तथाकथित पत्रकार आदि शामिल हैं। ये आरटीआई के माध्यम से धीरे-धीरे सूचनाएं निकालने की जुगाड़ में लगे रहते हैं। इन्हें अपने आकाओं से मोटा पैसा जो मिलता है। इसलिए ये अपनी मातृभूमि का भी सौदा करने से पीछे नहीं हटते। इनका जमीर मर चुका है। इसलिए यह जायज मांग तो ये भी हो रही है कि इंटेलिजेंस ब्यूरों, रॉ, नेशनल सिक्युरिटी गार्ड्स (एनएसजी), सीमा सुरक्षा बल, केन्द्रीय सुरक्षा बल पुलिस जैसे कुछ और सरकारी विभागों को आरटीआई के दायरे से बाहर कर दिया जाए या फिर यहां से सूचनाएं प्राप्त करने की सीमा तय कर दी जायें। मतलब सिर्फ इन विभागों से जुड़े रहे मुलाजिम इनसे अपनी पेंशन और नौकरी संबंधी जानकारियां आदि ले लें। आपको याद ही होगा कि पिछले साल चीन के लिए जासूसी करने के आरोप में राजधानी के एक कथित वरिष्ठ पत्रकार राजीव शर्मा को पकड़ लिया गया था। राजीव शर्मा के बारे में पता चला था कि वह आरटीआई से जानकारियां निकाल कर चीन को सप्लाई करता था। उसे ‘ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट’ (ओएसएस) के तहत गिरफ्तार किया गया था। उसने सेना से जुड़े कई राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील सूचनाओं वाले दस्तावेज चीन को दिए थे। चीन को संवेदनशील सूचनाएं उपलब्ध कराने की एवज में उसे मोटी रकम मिलती थी। दरअसल एक बेहद शानदार कानून का कुछ शातिर तत्व दुरुपयोग करने लगे हैं। इसलिए ही देश के उच्चतम न्यायालय ने दिसंबर, 2019 को कहा था कि “आरटीआई का दुरुपयोग रोकने और इसके माध्यम से ‘आपराधिक धमकी’ पर रोकथाम के लिए सूचना का अधिकार कानून के लिए दिशा-निर्देश बनाने की जरूरत है।” तब प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे और न्यायमूर्ति बीआर गवई तथा न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने कहा था, ‘‘हम आरटीआई कानून के खिलाफ नहीं हैं लेकिन हमें लगता है कि इसके नियमन के लिए किसी प्रकार के दिशा-निर्देश बनाना जरूरी है।’’ पीठ ने कहा, ‘‘कुछ लोग आरटीआई दाखिल करने के विषय से किसी तरह संबंधित नहीं होते। यह कई बार आपराधिक धमकी की तरह होता है, जिसे ब्लैकमेल भी कहा जा सकता है।’’ देखिए, यह सरकार को तो पता ही है कि आरटीआई के तहत आवेदकों की बाढ़-सी आ गई है। बहुत से लोग अनाप-शनाप सवाल भी पूछते रहते हैं। इसलिए यह सुनिश्चित करना होगा कि इस अधिकार का गलत इस्तेमाल न हो। मुझे केन्द्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय के एक अधिकारी बता रहे थे कि उनके विभाग से हर साल दर्जनों आरटीआई में यही पूछा जाता है कि गांधीजी को सबसे पहले महात्मा किसने बोला? संस्कृति मंत्रालय के अधीन ही काम करता है गांधी स्मृति और दर्शन समिति। यानी फिजूल की आरटीआई के तहत पूछे गए सवालों के जवाब देने में सरकारी बाबुओं का बहुत-सा वक्त गुजर जाता है। यहां पर मामला सेना और उन सरकारी विभागों से जुड़ा है जिनके ऊपर देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी है। ये देश के अति संवेदनशील तथा जरूरी विभाग हैं। भारत के अंदर तथा बाहर शत्रुओं की कोई कमी नहीं है। भारत को लगातार चीन तथा पाकिस्तान का मुकाबला करना पड़ता है। भारतीय सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे ने कहा कि भारतीय सैनिक चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर डटे हुए हैं। जनरल ने कहा कि सीमा विवाद को लेकर चीन की मंशा स्पष्ट नहीं है। अब उसी भारत के दुश्मन नंबर एक चीन के लिए कुछ जयचंद भी हमारे देश के अन्दर काम करते हैं। उनका भी देश को कायदे से इलाज करना होगा। इसके साथ ही सरकार को सेना से जुड़ी कोई भी जानकारी आरटीआई के माध्यम से देने से पहले सोचना होगा कि कहीं देश की सुरक्षा से संबंधित जानकारी तो किसी राष्ट्र विरोधी तत्व को नहीं दी जा रही है। इस तरह के आरटीआई पूछने वालों के व्यक्तिगत चरित्र और पृष्ठभूमि की भी जांच जरूरी है। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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डॉ. दिलीप अग्निहोत्री समाज कल्याण के व्यापक आयाम होते हैँ। लोक कल्याणकारी सरकार से इन सभी पर एक साथ प्रयास करने की अपेक्षा रहती है। इस आधार पर सरकार के कार्यों का आकलन किया जाता है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार ने इस दायित्व का बखूबी निर्वाह किया। यही कारण है कि ईज ऑफ लिविंग में उत्तर प्रदेश का ग्राफ बहुत ऊपर हुआ है। विगत पांच वर्षों के दौरान समाज कल्याण के सभी मोर्चों पर एक साथ प्रभावी कार्य किया गया। इस दौरान दो वर्ष तक कोरोना महामारी का प्रकोप रहा। आपदा की इस अवधि में समाज कल्याण के कार्यों की सर्वाधिक आवश्यकता थी। केंद्र व प्रदेश की सरकारों ने गरीबों के भरण-पोषण हेतु विश्व की सबसे बड़ी निःशुल्क राशन योजना लागू की। योगी आदित्यनाथ ने अपनी दूसरी पारी इस योजना की समय सीमा बढ़ाने के साथ की। उत्तर प्रदेश में विगत पांच वर्षों के दौरान व्यवस्था बदलाव के प्रभावी प्रयास किये गए। इसके चलते ईज ऑफ डूइंग बिजनेस से लेकर ईज ऑफ लिविंग की रैंकिंग में अभूतपूर्व मुकाम हासिल हुआ है। इसके पहले उत्तर प्रदेश का इस क्षेत्र में पिछड़ा माना जाता था। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सर्वप्रथम प्रदेश की व्यवस्था को बदलने का कार्य किया। इसका सकारात्मक प्रभाव अनेक क्षेत्रों में दिखाई दे रहा है। ईज ऑफ लिविंग अभियान के अंतर्गत योगी आदित्यनाथ ने लोक भवन सभागार में ई पेंशन पोर्टल का शुभारंभ किया। पेंशनधारकों को यह सुविधा उपलब्ध कराने वाला यूपी देश का पहला राज्य है। सात वर्ष पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डिजिटल इंडिया अभियान शुरू किया था। इसके अंतर्गत देश में चालीस करोड़ जन-धन खाते खोले गए। व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के तकनीकी प्रयास किये गए। इससे जरूरतमंदों को सीधा व शत-प्रतिशत लाभ मिलना सुनिश्चित हुआ। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने भी व्यापक सुधार किए। इसके अनुरूप प्रदेश सरकार के वित्त विभाग ने ई-पेंशन पोर्टल का विकास किया। इससे पेंशन व्यवस्था को सुगम व पारदर्शी बनाया गया है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत पेंशनर को सेवानिवृत्त होने के छह माह पहले ही पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन और आवेदन करना है। रजिस्ट्रेशन करने के बाद आहरण एवं वितरण अधिकारी द्वारा पेंशनर के आवेदन की जांच कर 30 दिनों के अन्दर पेंशन पेमेण्ट ऑर्डर जारी करने वाले अधिकारी को अग्रसारित कर दिया जाएगा। पीपीओ जारी करने वाले अधिकारी द्वारा 30 दिनों के अन्दर पीपीओ जारी कर दिया जाएगा। पूरी प्रक्रिया सेवानिवृत्ति से तीन महीने पहले पूर्ण कर ली जाएगी। यहां से पेंशन के कागजात पूर्ण होने का संदेश आवेदनकर्ता के पास आ जाएगा। नियत तिथि को कोषागार द्वारा पेंशनर के खाते में पेंशन का ऑनलाइन भुगतान हो जाएगा। यह पोर्टल कॉन्टैक्टलेस है। कहीं जाने की आवश्यकता नहीं रहेगी। ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करना है। शेष प्रक्रिया ऑनलाइन होगी। यह पेपरलेस तथा कैशलेस है। पूरी प्रक्रिया सेवानिवृत्ति के छह माह पूर्व से शुरु होकर अपने आप पूरी हो जाएगी। यह सुविधा अनेक उपलब्धियों से भरी है। पेंशन के लिए किसी को भटकना नहीं पड़ेगा। इसी प्रकार दिव्यांग कल्याण के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किये गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विकलांग की जगह दिव्यांग संबोधन का प्रयोग किया था। उनका कहना था कि शारीरिक रूप से अक्षम लोगों में कोई न कोई दिव्य प्रतिभा अवश्य होती है। अवसर मिलने से उनकी प्रतिभा में निखार आता है। जिससे वह समाज व के सामने अपनी क्षमता को प्रमाणित भी करते है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी इस विचार को आगे बढाते रहे हैं। इन प्रयासों से विकलांगों के प्रति समाज की धारणा बदल रही है। दिव्यांग शब्द में एक सम्मान का भाव है। अब यह शब्द प्रचलन में आ गया है। योगी आदित्यनाथ ने भारत की ऋषि परम्परा में ऋषि अष्टावक्र व महाकवि सूरदास का उल्लेख किया। कहा कि इन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा से समाज को नई दिशा प्रदान की। उनकी भक्ति, विचार व साहित्य शाश्वत रूप में प्रासंगिक रहेंगे। भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंस ने भी दिव्यांग शब्द को चरितार्थ किया है। उनकी दिव्य प्रतिभा को भी लोगों ने देखा व स्वीकार किया है। उन्होंने ब्रह्माण्ड के रहस्य पर महत्वपूर्ण शोध किया। मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ न कुछ क्षमता अवश्य है। ‘अयोग्यः पुरुषो नास्तिः।’ कुछ भी अयोग्य नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर कुछ न कुछ गुण अवश्य होता है। इसके लिये उनको अवसर उपलब्ध कराना आवश्यक है। सरकार इस दिशा में कार्य कर रही है। योगी आदित्यनाथ डॉ शकुन्तला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय के अटल प्रेक्षागृह में आयोजित विभिन्न कार्याें के शिलान्यास एवं टैबलेट वितरण कार्यक्रम में सहभागी हुए। उन्होंने कहा है कि व्यक्ति के विवेक,साहस,विचार और बुद्धिमत्ता से उसकी पहचान बनती है। इनका स्थूल रूप में मूल्यांकन नहीं हो सकता। शारीरिक रूप में कठिनाई का सामना करते हुए भी लोग जीवन में सफल हो सकते है। यह विश्वविद्यालय दिव्यांगजनों के पुनर्वास में योगदान कर रहा है। यहां के आधे विद्यार्थी दिव्यांग व आधे सामान्य हैं। इनका परस्पर समन्वय, संवाद व सहयोग सार्थक हो रहा है। यहां अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी संकाय स्थापित होने जा रहा है। डिजिटल इंडिया अभियान को मजबूत बनाने के लिए शासन ने प्रदेश के एक करोड़ बच्चों को टैबलेट एवं स्मार्टफोन उपलब्ध कराने का निर्णय लिया है। इसमें हर प्रकार के पाठ्यक्रम टैग होंगे। इसका विद्यार्थियों को सीधा लाभ मिलेगा। प्रदेश सरकार द्वारा आईटी एवं इलेक्ट्रॉनिक्स तथा औद्योगिक विकास विभाग के समन्वय से नए नए प्रोग्राम के साथ इन बच्चों को जोड़ने का कार्य किया जाएगा। इससे ऑनलाइन एजुकेशन के साथ-साथ इन विद्यार्थियों को किसी परीक्षा की ऑनलाइन तैयारी के लिए भी सुविधा उपलब्ध हो सकेगी। वर्तमान सरकार ने दिव्यांगों की सुविधा हेतु अभूतपूर्व कार्य किये हैं। दिव्यांगजन पेंशन राशि तीन सौ रुपये प्रतिमाह से बढ़ाकर एक हजार रुपये प्रतिमाह कर दी गई है। दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग के वार्षिक बजट को लगभग दोगुना किया गया। इसी प्रकार पेंशन प्राप्त करने वालों की संख्या व उपकरण हेतु दी जाने वाली धनराशि में उल्लेखनीय वृद्धि की गई है। दिव्यांगजनों को परिवहन निगम की बसों में निःशुल्क यात्रा की सुविधा भी दी गयी है। दिव्यांगजनों के प्रोत्साहन के लिए राज्यस्तरीय पुरस्कार की श्रेणी में चार गुना वृद्धि की गई। तीस उप श्रेणी बनाई गई। पुरस्कार राशि पांच गुना वृद्धि की गई है। राज्य सरकार ने श्रमिकों के कल्याण के लिए अनेक कार्यक्रम संचालित किये हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रत्येक निवासी व प्रवासी श्रमिक को दो लाख रुपये की सामाजिक सुरक्षा कोरोना काल के दौरान उपलब्ध करायी है। प्रदेश सरकार प्रत्येक श्रमिक को पांच लाख रुपये तक का स्वास्थ्य बीमा कवर प्रदान करने की कार्यवाही कर रही है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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प्रमोद भार्गव ऐसा पहली बार देखने में आया है कि सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमणा ने न्यायालयों में बढ़ते मामलों के मूल कारणों में जजों की कमी के साथ राजस्व न्यायालयों को भी दोषी ठहराया है। रमणा ने न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की शक्तियों और क्षेत्राधिकार के विभाजन की संवैधानिक व्यवस्था का हवाला देते हुए कहा कि कर्तव्यों का पालन करते समय हम सभी को लक्ष्मण रेखा की मर्यादा ध्यान में रखनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो न्यायपालिका कभी भी शासन के रास्ते में आड़े नहीं आएगी। आज जो न्यायपालिका में मुकदमों का ढेर लगा है, उसके लिए जिम्मेदार प्रमुख प्राधिकरणों द्वारा अपना काम ठीक से नहीं करना है। इसलिए सबसे बड़ी मुकदमेबाज सरकारें हैं। न्यायालयों में 66 प्रतिशत मामले राजस्व विभाग से संबंधित हैं। राजस्व न्यायालय एक तो भूमि संबंधी प्रकरणों का निराकरण नहीं करती, दूसरे न्यायालय निराकरण कर भी देती है तो उस पर वर्षों अमल नहीं होता। नतीजतन, अवमानना के मुकदमे बढ़ने की भी एक नई श्रेणी तैयार हो रही है। अदालत के आदेश के बावजूद उसका क्रियान्वयन नहीं करना लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। रमणा ने मामलों का बोझ बढ़ने का कारण गिनाते हुए कहा कि तहसीलदार यदि भूमि के नामांतरण और बंटवारे समय पर कर दें तो किसान अदालत क्यों जाएगा? यदि नगर निगम, नगरपालिकाएं और ग्राम पंचायतें ठीक से काम करें तो नागरिक न्यायालय का रुख क्यों करेगा? यदि राजस्व विभाग परियोजनाओं के लिए जमीन का अधिग्रहण विधि सम्मत करे तो लोग अदालत के दरवाजे पर दस्तक क्यों देंगे? ऐसे मामलों की संख्या 66 प्रतिशत है। उन्होंने कहा कि जब हम सब संवैधानिक पदाधिकारी हैं और इस व्यवस्था का पालन करने के लिए जिम्मेदार हैं और हमारे क्षेत्राधिकार भी स्पष्ट हैं, तब समन्वय के साथ दायित्व का पालन करते हुए राष्ट्र की लोकतांत्रिक नींव मजबूत करने की जरूरत है। रमणा ने यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा आहूत मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में कही। अदालतों में मुकदमों की संख्या बढ़ाने में राज्य सरकारें निश्चित रूप से जिम्मेवार हैं। वेतन विसंगतियों को लेकर एक ही प्रकृति के कई मामले ऊपर की अदालतों में विचाराधीन हैं। इनमें से अनेक तो ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें सरकारें आदर्श व पारदर्शी नियोक्ता की शर्तें पूरी नहीं करती हैं। नतीजतन जो वास्तविक हकदार हैं, उन्हें अदालत की शरण में जाना पड़ता है। कई कर्मचारी सेवानिवृति के बाद भी बकाए के भुगतान के लिए अदालतों में जाते हैं। जबकि इन मामलों को कार्यपालिका अपने स्तर पर निपटा सकती है। हालांकि कर्मचारियों से जुड़े मामलों का सीधा संबंध विचाराधीन कैदियों की तादाद बढ़ाने से नहीं है, लेकिन अदालतों में प्रकरणों की संख्या और काम का बोझ बढ़ाने का काम तो ये मामले करते ही हैं। इसी तरह पंचायत पदाधिकारियों और राजस्व मामलों का निराकरण राजस्व न्यायालयों में न होने के कारण न्यायालयों में प्रकरणों की संख्या बढ़ रही है। जीवन बीमा, दुर्घटना बीमा और बिजली बिलों का विभाग स्तर पर नहीं निपटना भी अदालतों पर बोझ बढ़ा रहे हैं। कई प्रांतों के भू-राजस्व कानून विसंगतिपूर्ण हैं। इनमें नाजायज कब्जे को वैध ठहराने के उपाय हैं। जबकि जिस व्यक्ति के पास दस्तावेजी साक्ष्य है, वह भटकता रहता है। इन विसंगतिपूर्ण धाराओं का विलोपीकरण करके अवैध कब्जों से संबंधित मामलों से निजात पाई जा सकती है। लेकिन नौकरशाही ऐसे कानूनों का वजूद बने रहने देना चाहती है, क्योंकि इनके बने रहने पर ही इनका रौब-रुतबा है। हमारे यहां संख्या के आदर्श अनुपात में कर्मचारियों की कमी का रोना अक्सर रोया जाता है। ऐसा केवल अदालत में हो,ऐसा नहीं है। पुलिस, शिक्षा और स्वास्थ्य विभागों में भी गुणवत्तापूर्ण सेवाएं उपलब्ध न कराने का यही बहाना है। कोरोना काल में स्वास्थ्य विभाग चिकित्सकों एवं उनके सहायक कर्मचारियों की कमी बड़ी संख्या में देखने में आई थी। इसकी पूर्ति आउट सोर्स के माध्यम से चिकित्सक एवं कर्मचारी तैनात करके तत्काल तो कर ली गई, किंतु कोरोना संकट खत्म होते ही उन्हें हटा दिया गया। नतीजतन कमी यथावत है। जजों की कमी कोई नई बात नहीं है। 1987 में विधि आयोग ने हर 10 लाख की आबादी पर जजों की संख्या 10 से बढ़ाकर 50 करने की सिफारिश की थी। फिलहाल यह संख्या 17 कर दी गई है। जबकि विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक यह आंकड़ा आस्ट्रेलिया में 58, कनाडा में 75, फ्रांस में 80 और ब्रिटेन में 100 है। हमारे यहां जिला एवं सत्र न्यायालय में 21 हजार की तुलना में 40 हजार न्यायाधीशों की जरूरत है। मार्च 2016 तक देश के 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 1056 पद स्वीकृत हैं, जिनमें से 434 पद खाली हैं। हालांकि हमारे यहां अभी भी 14,000 अदालतों में 17,945 न्यायाधीश काम कर रहे हैं। अदालतों का संस्थागत ढांचा भी बढ़ाया गया है। उपभोक्ता, परिवार और किशोर न्यायालय अलग से अस्तित्व में आ गए हैं। फिर भी काम संतोषजनक नहीं है। उपभोक्ता अदालतें अपनी कार्य संस्कृति के चलते बोझ साबित होने लगी हैं। बावजूद औद्योगिक घरानों के वादियों के लिए पृथक से वाणिज्य न्यायालय बनाने की पैरवी की जा रही है। अलबत्ता आज भी ब्रिटिश परंपरा के अनुसार अनेक न्यायाधीश ग्रीष्म ऋतु में छुट्टियों पर चले जाते हैं। सरकारी नौकरियों में जब से महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान हुआ है, तब से हरेक विभाग में महिलाकर्मियों की संख्या बढ़ी है। इन महिलाओं को 26 माह के प्रसूति अवकाश के साथ दो बच्चों की 18 साल की उम्र तक के लिए दो वर्ष का ‘बाल सुरक्षा अवकाश‘ भी दिया जाता है। अदालत से लेकर अन्य सरकारी विभागों में मामलों के लंबित होने में ये अवकाश एक बड़ा कारण बन रहे हैं। इधर कुछ समय से लोगों के मन में यह भ्रम भी पैठ कर गया है कि न्यायपालिका से डंडा चलवाकर विधायिका और कार्यपालिका से छोटे से छोटा काम भी कराया जा सकता है। इस कारण न्यायालयों में जनहित याचिकाएं बढ़ रही हैं, जो न्यायालय के बुनियादी कामों को प्रभावित कर रही हैं। जबकि प्रदूषण, यातायात, पर्यावरण और पानी जैसे मुद्दों पर अदालतों के दखल के बावजूद इन क्षेत्रों में बेहतर स्थिति नहीं बनी है। न्यायिक सिद्धांत का तकाजा तो यही है कि एक तो सजा मिलने से पहले किसी को अपराधी न माना जाए, दूसरे आरोप का सामना कर रहे व्यक्ति का फैसला तय समय-सीमा में हो जाए। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा संभव नहीं हो पाता। इसकी एक वजह न्यायालय और न्यायाधीशों की कमी जरूर है, लेकिन यह आंशिक सत्य है। मुकदमों के लंबा खिंचने की एक वजह अदालतों की कार्य-संस्कृति भी है। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायमूर्ति राजेंद्रमल लोढ़ा ने कहा भी था ‘न्यायाधीश भले ही निर्धारित दिन ही काम करें, लेकिन यदि वे कभी छुट्टी पर जाएं तो पूर्व सूचना अवश्य दें। ताकि उनकी जगह वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।‘ इस तथ्य से यह बात सिद्ध होती है कि सभी अदालतों के न्यायाधीश बिना किसी पूर्व सूचना के आकस्मिक अवकाश पर चले जाते हैं। गोया, मामले की तारीख आगे बढ़ानी पड़ती है। इन्हीं न्यायमूर्ति ने कहा था कि ‘जब अस्पताल 365 दिन चल सकते हैं तो अदालतें क्यों नहीं ?‘ यह बेहद सटीक सवाल था। हमारे यहां अस्पताल ही नहीं, राजस्व और पुलिस विभाग के लोग भी लगभग 365 दिन काम करते हैं। किसी आपदा के समय इनका काम और बढ़ जाता है। इनके कामों में विधायिका और खबरपालिका के साथ समाज का दबाव भी रहता है। बावजूद ये लोग दिन-रात कानून के पालन के प्रति सजग रहते हैं। जबकि अदालतों पर कोई अप्रत्यक्ष दबाव नहीं होता है। यही प्रकृति वकीलों में भी देखने में आती है। हालांकि वकील अपने कनिष्ठ वकील से अक्सर इस कमी की वैकल्पिक पूर्ति कर लेते हैं। लेकिन वकील जब प्रकरण का ठीक से अध्ययन नहीं कर पाते अथवा मामले को मजबूती देने के लिए किसी दस्तावेजी साक्ष्य को तलाश रहे होते हैं तो वे बिना किसी ठोस कारण के तारीख आगे खिसकाने की अर्जी लगा देते हैं। विडंबना है कि बिना ठोस पड़ताल किए न्यायाधीश इसे स्वीकार भी कर लेते हैं। तारीख बढ़ने का आधार बेवजह की हड़तालें और न्यायाधीशों व अधिवक्ताओं के परिजनों की मौतें भी हैं। ऐसे में श्रद्धांजलि सभा कर अदालतें कामकाज को स्थगित कर देती हैं। न्यायमूर्ति लोढ़ा ने इस तरह के स्थगन और हड़तालों से बचने की सलाह दी थी। लेकिन जिनका स्वार्थ मुकदमों को लंबा चलाने में अंतर्निहित है, वहां ऐसी नसीहतें व्यर्थ हैं। लिहाजा, कड़ाई बरतते हुए कठोर नियम बनाने की जरूरत है। अगली तारीख का अधिकतम अंतराल 15 दिन से ज्यादा का न हो, दूसरे अगर किसी मामले का निराकरण समय-सीमा में नहीं हो पा रहा है तो ऐसे मामलों को विशेष प्रकरण की श्रेणी में लाकर उसका निराकरण त्वरित और लगातार सुनवाई की प्रक्रिया के अंतर्गत हो। ऐसा होता है तो मामलों को निपटाने में तेजी आ सकती है। बहरहाल प्रधान न्यायाधीश ने जो खरी-खरी बातें कहीं हैं, उन पर राजस्व अदालतों को अमल करने की जरूरत है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंद्र राजपक्ष को मजबूरन इस्तीफा देना पड़ गया। उनके छोटे भाई गोटबाया राजपक्ष अभी भी श्रीलंका के राष्ट्रपति पद पर डटे हुए हैं। श्रीलंका में आम-जनता के बीच इतना भयंकर असंतोष फैल गया है कि इस राजपक्ष सरकार को कई बार कर्फ्यू लगाना पड़ गया। इस राजपक्ष सरकार के मंत्रिमंडल में राजपक्ष-परिवार के लगभग आधा दर्जन सदस्य कुर्सी पर जमे हुए थे। जब आम जनता का गुस्सा बेकाबू हो गया तो मंत्रिमंडल को भंग कर दिया गया। लोगों के दिलों में यह प्रभाव जमाया गया कि राजपक्ष परिवार को कोई पद-लिप्सा नहीं है। राष्ट्रपति गोटबाया ने सारे विपक्षी दलों से निवेदन किया कि वे आएं और मिलकर नई संयुक्त सरकार बनाएं लेकिन विपक्ष के नेता सजित प्रेमदास ने इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया। अब भी राष्ट्रपति का कहना है कि विपक्ष अपना प्रधानमंत्री खुद चुन ले और श्रीलंका को इस भयंकर संकट से बचाने के लिए मिली-जुली सरकार बनाए लेकिन विपक्ष के नेता इस प्रस्ताव पर अमल के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हैं। वे सारे श्रीलंकाइयों से एक ही नारा लगवा रहे हैं- ‘गोटा गो’ याने राष्ट्रपति भी इस्तीफा दें। श्रीलंका के विपक्षी नेताओं की यह मांग ऊपरी तौर पर स्वाभाविक लगती है लेकिन समझ नहीं आता कि नए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की नियुक्ति क्या चुटकी बजाते हो जाएगी? उनका चुनाव होते-होते श्रीलंका की हालत और भी बदतर हो जाएगी। नये राष्ट्रपति और नई सरकार खाली हुए राजकोष को तुरंत कैसे भर सकेगी? श्रीलंका का विपक्ष भी एकजुट नहीं है। स्पष्ट बहुमत के अभाव में वह सरकार कैसे बनाएगा? वह सर्वशक्ति संपन्न राष्ट्रपति को कैसे बर्दाश्त करेगा? यदि श्रीलंका का विपक्ष देशभक्त है तो उसका पहला लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह मंहगाई, बेरोजगारी और अराजकता पर काबू करे। गोटबाया सरकार जैसी भी है, फिलहाल उसके साथ सहयोग करके देश को चौपट होने से बचाए। भारत, चीन और अमेरिका जैसे देशों से प्रचुर सहायता का अनुरोध करे और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष से भी आपात राशि की मांग करे। अभी तो लोग दंगों और हमलों से मर रहे हैं लेकिन जब भुखमरी और बेरोजगारी से मरेंगे तो वे किसी भी नेता को नहीं बख्शेंगे, वह चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का! श्रीलंका की वर्तमान दुर्दशा से पड़ोसी देशों को महत्वपूर्ण सबक भी मिल रहा है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार हैं।)
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अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस/ फ्लोरेंस नाइटिंगेल की जयंती (12 मई) पर विशेष योगेश कुमार गोयल कोरोना काल में दुनिया भर में लाखों लोगों की मौत हुई लेकिन करोड़ों लोगों के प्राण बचाने में भी सफलता मिली। इसका श्रेय जाता है नर्सिंग कर्मियों को, जो स्वयं के संक्रमित होने के खतरे के बावजूद अपनी जान की परवाह किए बिना ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान बचाने में जुटे रहे। 12 मई को मनाए जा रहे अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस पर नर्सों के इसी योगदान को नमन करना जरूरी है। यह दिवस दया और सेवा की प्रतिमूर्ति फ्लोरेंस नाइटिंगेल की स्मृति में मनाया जाता है, जिन्हें ‘आधुनिक नर्सिंग की जन्मदाता’ माना जाता है। ‘लेडी विद द लैंप’ (दीपक वाली महिला) के नाम से विख्यात नाइटिंगेल का जन्म 12 मई 1820 को इटली के फ्लोरेंस शहर में हुआ था। भारत सरकार ने वर्ष 1973 में नर्सों के अनुकरणीय कार्यों को सम्मानित करने के लिए उन्हीं के नाम से ‘फ्लोरेंस नाइटिंगेल पुरस्कार’ की स्थापना की, जो नर्स दिवस के अवसर पर प्रदान किए जाते हैं। फ्लोरेंस कहती थी कि रोगी का बुद्धिमान और मानवीय प्रबंधन ही संक्रमण के खिलाफ सबसे अच्छा बचाव है। फ्लोरेंस नाइटिंगेल का जन्म इटली में रह रहे एक समृद्ध और उच्चवर्गीय ब्रिटिश परिवार में हुआ था लेकिन वह इंग्लैंड में पली-बढ़ी। वह बेहद खूबसूरत, पढ़ी-लिखी और समझदार युवती थी। उन्होंने अंग्रेजी, इटेलियन, लैटिन, जर्मनी, फ्रैंच, इतिहास और दर्शन शास्त्र सीखा तथा अपनी बहन और माता-पिता के साथ कई देशों की यात्रा की। 16 वर्ष की आयु में ही उन्हें अहसास हो गया कि उनका जन्म सेवा कार्यों के लिए ही हुआ है। 1837 में नाइटिंगेल परिवार अपनी बेटियों को यूरोप के सफर पर ले गया, जो उस समय बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए जरूरी माना जाता था। उसी सफर के दौरान फ्लोरेंस ने माता-पिता से कहा था कि ईश्वर ने उसे मानवता की सेवा का आदेश दिया है लेकिन यह नहीं बताया कि सेवा किस तरह से करनी है। यह सुनकर माता-पिता बेहद परेशान हो गए थे। फ्लोरेंस ने माता-पिता को बताया कि वह एक ऐसी नर्स बनना चाहती है, जो अपने मरीजों की अच्छी तरह सेवा और देखभाल कर सके। इस पर माता-पिता बेहद नाराज हुए थे क्योंकि विक्टोरिया काल में ब्रिटेन में अमीर घरानों की महिलाएं कोई काम नहीं करती थी। उस दौर में नर्सिंग को एक सम्मानित व्यवसाय भी नहीं माना जाता था, इसलिए भी माता-पिता का मानना था कि धनी परिवार की लड़की के लिए वह पेशा बिल्कुल सही नहीं है। वह ऐसा समय था, जब अस्पताल बेहद गंदी जगह पर होते थे और वहां बीमार लोगों की मौत के बाद काफी भयावह माहौल हो जाता था। परिवार के पुरजोर विरोध और गुस्से के बाद भी फ्लोरेंस अपनी जिद पर अड़ गई और वर्ष 1845 में अभावग्रस्त लोगों की सेवा का प्रण लिया। वर्ष 1849 में उन्होंने शादी करने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया और परिजनों से दृढ़तापूर्वक कहा कि वह ईश्वर के आदेश का पालन करेगी तथा एक नर्स ही बनेगी। वर्ष 1850 में उन्होंने जर्मनी में प्रोटेस्टेंट डेकोनेसिस संस्थान में दो सप्ताह की अवधि में एक नर्स के रूप में अपना प्रारंभिक प्रशिक्षण पूरा किया। मरीजों, गरीबों और पीडि़तों के प्रति उनके सेवाभाव को देखते हुए आखिरकार उनके माता-पिता द्वारा वर्ष 1851 में उन्हें नर्सिंग की आगे की पढ़ाई के लिए अनुमति दे दी गई, जिसके बाद उन्होंने जर्मनी में महिलाओं के लिए एक क्रिश्चियन स्कूल में नर्सिंग की पढ़ाई शुरू की, जहां उन्होंने मरीजों की देखभाल के तरीकों और अस्पतालों को साफ रखने के महत्व के बारे में जाना। वर्ष 1853 में उन्होंने लंदन में महिलाओं के लिए एक अस्पताल ‘इंस्टीच्यूट फॉर द केयर ऑफ सिंक जेंटलवुमेन’ खोला, जहां उन्होंने मरीजों की देखभाल के लिए बहुत सारी बेहतरीन सुविधाएं उपलब्ध कराई और नर्सों के लिए कार्य करने की स्थिति में भी सुधार किया। नर्सिंग के क्षेत्र में पहली बार उनका अहम योगदान वर्ष 1854 में क्रीमिया युद्ध के दौरान देखा गया। युद्ध के दौरान सैनिकों के जख्मी होने, ठंड, भूख तथा बीमारी से मरने की खबरें आई। युद्ध के समय वहां उनकी देखभाल के लिए कोई उपलब्ध नहीं था। ऐसे में ब्रिटिश सरकार द्वारा फ्लोरेंस के नेतृत्व में अक्तूबर 1854 में 38 नर्सों का एक दल घायल सैनिकों की सेवा के लिए तुर्की भेजा गया। फ्लोरेंस ने वहां पहुंचकर देखा कि किस प्रकार वहां अस्पताल घायल सैनिकों से खचाखच भरे हुए थे, जहां गंदगी, दुर्गंध, दवाओं तथा उपकरणों की कमी, दूषित पेयजल इत्यादि के कारण असुविधाओं के बीच संक्रमण से सैनिकों की बड़ी संख्या में मौतें हो रही थी। फ्लोरेंस ने अस्पताल की हालत सुधारने के अलावा घायल और बीमार सैनिकों की देखभाल में दिन-रात एक कर दिया, जिससे सैनिकों की स्थिति में काफी सुधार हुआ। उनकी अथक मेहनत के परिणामस्वरूप ही अस्पताल में सैनिकों की मृत्यु दर में बहुत ज्यादा कमी आई। उस समय किए गए उनके सेवा कार्यों के लिए ही सभी सैनिक उन्हें आदर और प्यार से ‘लेडी विद द लैंप’ कहने लगे थे। दरअसल जब चिकित्सक अपनी ड्यूटी पूरी करके चले जाते, तब भी वह रात के गहन अंधेरे में हाथ में लालटेन लेकर घायलों की सेवा के लिए उपस्थित रहती थी। रात में अस्पताल में जब घायल सैनिक सो रहे होते, तब वह स्वयं उनके पास जाकर देखती कि किसी को कोई तकलीफ तो नहीं है। वर्ष 1856 में युद्ध की समाप्ति के बाद जब वह वापस लौटी, तब नायिका के तौर पर उभरी फ्लोरेंस के बारे में अखबारों में बहुत कुछ छपा और उसके बाद उनका नाम ‘लेडी विद द लैंप’ काफी प्रसिद्ध हो गया। स्वयं महारानी विक्टोरिया ने पत्र लिखकर उनका धन्यवाद किया था। सितम्बर 1856 में रानी विक्टोरिया से उनकी मुलाकात हुई, जिसके बाद उनके सुझावों के आधार पर ही वहां सैन्य चिकित्सा प्रणाली में बड़े पैमाने पर सुधार संभव हुआ और वर्ष 1858 में रॉयल कमीशन की स्थापना हुई। उसके बाद ही अस्पतालों की सफाई व्यवस्था पर ध्यान देना, सैनिकों को बेहतर खाना, कपड़े और देखभाल की सुविधा मुहैया कराना तथा सेना द्वारा डॉक्टरों को प्रशिक्षण देने जैसे कार्यों की शुरूआत हुई। फ्लोरेंस के प्रयासों से वर्ष 1860 में लंदन के सेंट थॉमस हॉस्पिटल में ‘नाइटिंगेल ट्रेनिंग स्कूल फॉर नर्सेज’ खोला गया, जहां नर्सों को बेहतर प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था। सेवाभाव से किए गए फ्लोरेंस के कार्यों ने नर्सिंग व्यवसाय का चेहरा ही बदल दिया, जिसके लिए उन्हें रेडक्रॉस की अंतरराष्ट्रीय समिति द्वारा सम्मानित किया गया। यही समिति फ्लोरेंस नाइटिंगेल के नाम से नर्सिंग में उत्कृष्ट सेवाओं के लिए पुरस्कार देती है। वर्ष 1869 में उन्हें महारानी विक्टोरिया ने ‘रॉयल रेड क्रॉस’ से सम्मानित किया था। मरीजों, गरीबों और पीडि़तों के प्रति फ्लोरेंस की सेवा भावना को देखते हुए ही नर्सिंग को उसके बाद महिलाओं के लिए सम्मानजनक पेशा माना जाने लगा और उनकी प्रेरणा से ही नर्सिंग क्षेत्र में महिलाओं को आने की प्रेरणा मिली। फ्लोरेंस के अथक प्रयासों के कारण रोगियों की देखभाल तथा अस्पताल में स्वच्छता के मानकों में अपेक्षित सुधार हुए। 90 वर्ष की आयु में 13 अगस्त 1910 को फ्लोरेंस नाइटिंगेल का निधन हो गया। स्वच्छता तथा स्वास्थ्य सेवा को लेकर फ्लोरेंस के विचार सही मायनों में आधुनिक चिकित्सा जगत में भी 19वीं सदी जितने ही प्रासंगिक हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. दिलीप अग्निहोत्री अयोध्या प्राचीन काल से भव्य नगरी के रूप में प्रतिष्ठित रही है। प्रभु श्रीराम के यहां अवतार लेने से पहले यह चक्रवर्ती सम्राटों की वैभवशाली राजधानी थी। प्रभु के अवतार ने इसे आध्यात्मिक रूप से भी दिव्य बना दिया था। किंतु मध्यकाल में इसे विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण झेलने पड़े। पांच सौ वर्षों बाद यहां जीर्णोद्धार प्रारंभ हुआ है। भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण कार्य प्रगति पर है। किंतु अयोध्या का विकास यहीं तक सीमित नहीं है। इसको विश्वस्तरीय पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। हजारों करोड़ रुपये की विकास योजनाओं का क्रियान्वयन चल रहा है। इसमें मूलभूत सुविधाओं का विकास, ढांचागत निर्माण कार्य, शिक्षा स्वास्थ्य, सड़क कनेक्टिविटी आदि सभी क्षेत्र शामिल है। योगी आदित्यनाथ स्वयं इन कार्यों का जायजा लेने अयोध्या पहुंचते हैं। दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद वह दो बार अयोध्या की यात्रा कर चुके हैं। इस दौरान उन्होंने श्रीराम लला के दर्शन पूजन के अलावा मंदिर निर्माण कार्य का निरीक्षण किया। उन्होंने अन्य निर्माण कार्यों की समीक्षा की। वह एक स्कूल का भी निरीक्षण करने गए। कुछ देर के लिए वह एक शिक्षक के रूप में बच्चों को पढ़ाते दिखाई दिए। वस्तुतः उनके कार्य करने का अपना अंदाज है। वे एक यात्रा में एक साथ अनेक उद्देश्य पूरा करते हैं। इन सभी का संबंध प्रदेश व समाज के हित से जुड़ा होता है। अयोध्या गए तो वहां श्रीराम लला विराजमान का दर्शन पूजन किया। यहां बन रहे मंदिर निर्माण कार्य का निरीक्षण किया। अनेक विकास योजनाओं की समीक्षा की। दलित परिवार में भोजन कर समरसता का संदेश दिया। उनके घर जा रहे थे तो पता चला कि कुछ मीटर दूरी पर बेसिक स्कूल है। बेसिक शिक्षा में ऑपरेशन कायाकल्प के माध्यम से विगत पांच वर्षों में अभूतपूर्व सुधार किए गए हैं। योगी अक्सर इन विद्यालयों में निरीक्षण के लिए जाते रहते हैं। उस समय स्कूल खुला हुआ था तो वह कुछ पल के लिए शिक्षक की भूमिका में आ जाते हैं। बच्चों के लिए यह यादगार लम्हा बन जाता है। दरअसल, योगी दलित महिला बसंती के बेगमपुरा स्थित आवास में भोजन हेतु जा रहे थे। उनका काफिला आवास से कुछ आगे बढ़ गया। इंतजार कर रहे लोगों को हैरत हुआ। यहां से कुछ मीटर दूरी पर उनका काफिला रुका। योगी आदित्यनाथ वाहन से उतर कर पूर्व माध्यमिक विद्यालय कटरा पहुंच गये। विद्यालय में सुविधाओं का निरीक्षण किया। सरकार द्वारा बच्चों को उपलब्ध कराई जा रही यूनिफॉर्म की जानकारी प्राप्त की। इसके बाद वह कई क्लास रूम में मुख्यमंत्री नहीं बल्कि शिक्षक के रूप में गए। बच्चों से सहजता से संवाद किया। ब्लैक बोर्ड पर जो लिखा था उसके बारे में उनसे सवाल किए। जो किताब खुली थी या कॉपी पर बच्चों ने जो लिखा था, उसके विषय में पूछा। जो गलती थी, उसे सही कराया। बच्चों से किताब पढ़वाई। हिंदी के शब्द और अर्थ के विषय में पूछा। अयोध्या मास्टर प्लान में सभी विकास परियोजनाओं को शामिल किया गया है। इसमें पुरातत्व महत्व के मंदिरों और परिसरों का जीर्णोद्धार व सौंदर्यीकरण शामिल है। बीस हजार करोड़ रुपए के इन प्रोजेक्ट में क्रूज पर्यटन परियोजना, राम की पैड़ी परियोजना, रामायण आध्यात्मिक वन, सरयू नदी आइकॉनिक ब्रिज, प्रतिष्ठित संरचना का विकास पर्यटन सर्किट का विकास, ब्रांडिंग अयोध्या, चौरासी कोसी परिक्रमा के भीतर दो सौ आठ विरासत परिसरों का जीर्णोद्धार, सरयू उत्तर किनारे का विकास आदि शामिल हैं। इसके साथ ही अयोध्या को आधुनिक स्मार्ट सिटी के तौर पर विकसित किया जा रहा है। सरकार ने सैकड़ों पर्यटकों के सुझाव के बाद एक विजन डॉक्यूमेंट भी तैयार किया है। अयोध्या के विकास की परिकल्पना एक आध्यात्मिक केंद्र, वैश्विक पर्यटन हब और एक स्थायी स्मार्ट सिटी के रूप में की जा रही है। कनेक्टिविटी में सुधार के प्रयास जारी है। इनमें एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन के विस्तार, बस स्टेशन, सड़कों और राजमार्गों व ढांचा परियोजनाओं का निर्माण शामिल है। ग्रीनफील्ड टाउनशिप भी प्रस्तावित है। इसमें तीर्थ यात्रियों के ठहरने की सुविधा, आश्रमों के लिए जगह, मठ, होटल, विभिन्न राज्यों के भवन आदि शामिल हैं। अयोध्या में पर्यटक सुविधा केंद्र व विश्व स्तरीय संग्रहालय बेजोड़ होगा। सरयू के घाटों के आसपास बुनियादी ढांचा सुविधाओं का विकास हो रहा है। ग्रीनफील्ड सिटी योजना, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, सरयू तट पट विकास, पैंसठ किमी लंबी रिंग रोड, पर्यटन केंद्र, पंचकोसी परिक्रमा मार्ग विकास आदि से अयोध्या की तस्वीर बदल जाएगी। अयोध्या को स्मार्ट व विश्व स्तरीय नगर बनाने का कार्य प्रगति पर है। योगी आदित्यनाथ ने कहा कि अयोध्या आने वाले समय में वैश्विक मानचित्र में एक नया स्थान बनाने जा रहा है। अयोध्या विश्वस्तरीय पर्यटन केन्द्र के साथ साथ शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं का भी एक बड़ा केन्द्र बनाया जाएगा। अयोध्या के आस-पास संचालित लगभग दो हजार करोड़ रुपए की परियोजनाओं कार्य चल रहा है। योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या में इसकी समीक्षा की। उन्होंने अयोध्या के विजन डॉक्युमेण्ट ‘अयोध्या विजन तथा आगामी सौ दिनों में किए जाने वाले कार्यों के सम्बन्ध में प्रस्तुतिकरण का अवलोकन भी किया। अयोध्या के विकास कार्यों की समीक्षा के लिए आवास एवं शहरी नियोजन विभाग को नोडल विभाग बनाया गया है। अयोध्या विजन के विभिन्न विभागों की दो सौ से ज्यादा परियोजनाओं की नियमित निगरानी के लिए डैशबोर्ड तैयार किया गया है। इसकी नियमित समीक्षा भी होती रहेगी। अयोध्या के आगामी विकास में तीन प्रमुख पथ निर्धारित किए गए हैं। पहला पथ राम पथ- सहादतगंज से नयाघाट, दूसरा पथ- श्रीराम जन्मभूमि पथ-सुग्रीव किला मार्ग से श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर, तीसरा पथ- भक्ति पथ-श्रृंगार हाट से रामजन्मभूमि मन्दिर तक हैं। योगी ने अयोध्या में हर घर नल कनेक्शन की व्यवस्था को बेहतर बनाने, विद्युत आपूर्ति को बेहतर करने के निर्देश दिए। दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या में श्री रामलला के दर्शन की अपनी परंपरा का निर्वाह किया था। पांच वर्ष पूर्व भी उन्होंने ऐसा किया था। तब श्री रामजन्मभूमि पर यथास्थिति थी। योगी ने अपनी योजना के अनुरूप यहां पर्यटन विकास संबंधी कार्य शुरू कर दिए थे। फिर वह समय भी आया जिसकी पांच सदियों से प्रतीक्षा थी। मंदिर निर्माण के लिए भूमिपूजन हुआ। इस बार योगी जब अयोध्या पहुंचे तो स्थिति अलग रही। भव्य मंदिर निर्माण का कार्य प्रगति पर है। श्री रामलला को अस्थाई मंदिर में योगी आदित्यनाथ द्वारा ही प्रतिष्ठित किया गया था। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक भारत में सरकारी अस्पतालों को देखकर हमारे स्वास्थ्य मंत्रियों को शर्म क्यों नहीं आती? ऐसा नहीं है कि उन्हें इन अस्पतालों की हालत का पता नहीं है। उन्हें अगर पता नहीं है तो वे ‘राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5’ की ताजा रपट जरा देख लें। उसके मुताबिक बिहार के 80 प्रतिशत मरीज अपने इलाज के लिए गैर सरकारी अस्पतालों में जाते हैं। उन्हें पता है कि इन निजी अस्पतालों में जबर्दस्त ठगी होती है लेकिन जान बचाने की खातिर वे उसे बर्दाश्त करते हैं। वे पैसे उधार लेते हैं, दोस्तों और रिश्तेदारों के कृपा-पात्र बनते हैं और मजबूरी में मंहगा इलाज करवाते हैं। ये लोग कौन हैं? निजी अस्पतालों में क्या कोई मजदूर या किसान जाने की हिम्मत कर सकता है? क्या तीसरे-चौथे दर्जे का कोई कर्मचारी अपने इलाज पर हजारों-लाखों रु. खर्च कर सकता है? इन अस्पतालों में इलाज करवाने लोग या तो मालदार होते हैं या मध्यम वर्ग के लोग होते हैं। ये ही ज्यादा बीमार पड़ते हैं। जो मेहनतकश लोग हैं, वे बीमार कम पड़ते हैं लेकिन जब पड़ते हैं तो उनके इलाज का ठीक-ठाक इंतजाम किसी भी राज्य में नहीं होता। उत्तर प्रदेश में भी 70 प्रतिशत मरीज निजी अस्पतालों में जाते हैं। सरकारी अस्पतालों में भयंकर भीड़ होती है। दिल्ली के प्रसिद्ध मेडिकल इंस्टीटयूट में अगर आप जाएं तो आपको लगेगा कि किसी दमघोंटू हाॅल में मेले-ठेले की तरह आप धक्के खाने को आ गए हैं। देश के कस्बों और गांवों के लोगों को लंबी-लंबी यात्रा करनी पड़ती है, सरकारी अस्पताल खोजने के लिए! करोड़ों लोग तो ऐसे हैं, जिन्हें अपने गंभीर रोगों के बारे में बरसों कुछ जानकारी ही नहीं होती, क्योंकि भारत में जांच और चिकित्सा बहुत मंहगी है। होना तो यह चाहिए कि देश में चिकित्सा बिल्कुल मुफ्त हो। सरकार ने अभी पांच लाख रु. के स्वास्थ्य बीमे की जो व्यवस्था बनाई है, उससे लोगों को कुछ राहत जरूर मिलेगी लेकिन इससे क्या सरकारी अस्पतालों की दशा सुधरेगी? सरकारी अस्पतालों की दशा सुधारने का पक्का उपाय मैंने कुछ वर्ष पहले एक लेख में सुझाया था। उस सुझाव पर इलाहाबाद न्यायालय ने मुहर लगा दी थी लेकिन उत्तर प्रदेश की अखिलेश या योगी-सरकार ने उस पर अभी तक अमल नहीं किया है। सुझाव यह था कि राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक और सांसद से लेकर पार्षद तक सभी के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वे अपना इलाज सरकारी अस्पतालों में ही करवाएं। यदि ऐसा नियम बन जाए तो देखिए कि सरकारी अस्पतालों की दशा रातों-रात ठीक हो जाती है या नहीं? इसके अलावा यदि आयुर्वेद, होमियोपेथी, यूनानी और प्राकृतिक चिकित्सा को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया जाए और उनमें अनुसंधान बढ़ाया जाए तो भारत की चिकित्सा पद्धति दुनिया की सबसे सस्ती, सुगम और सुघड़ चिकित्सा पद्धति बन सकती है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार हैं।)
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शहनाज हुसैन गर्मियों में त्वचा पर धूप का असर दिखने लगता है और हाथ भी इससे अछूते नहीं रह सकते। चिलचिलाती धूप हाथों की रंगत बिगाड़ देती है। शरीर के बाकी हिस्सों के मुकाबले सूर्य की किरणों का हाथों पर ज्यादा असर पड़ता है और हाथों में टैनिंग की समस्या खड़ी हो जाती है। गर्मियों में आधे बाजू के कपड़े पहनने, घर से बाहर निकलने और स्कूटर,बाइक आदि चलाने से हाथ काले पड़ जाते हैं । गर्मियों में अधिकांश महिलाएं टैनिंग से परेशान रहती हैं लेकिन उनका ध्यान चेहरे की टैनिंग में ज्यादा रहता है जबकि हाथों का ध्यान रखना भी उतना ही जरूरी होता है क्योंकि हाथों पर लोगों का ध्यान उतना ही जाता है जितना चेहरे पर। हाथों की टैनिंग को आप घरेलू उपायों से काफी हद तक दूर कर सकते हैं। 1- एक कटोरी में दही लें और इसमें एक चम्मच हल्दी मिलाकर बने पेस्ट को हाथों पर लगा लें तथा इसे प्रकृतिक तौर पर सूखने दें। इसके बाद हाथों को साफ ताजे पानी से धो डालें। इससे आपकी त्वचा को नमी मिलेगी और यह स्किन टैनिंग को कम करने में मदद करेगा। 2-एक चम्मच दही, एक चम्मच नींबू का रस और एक चम्मच चावल का पाउडर मिलाकर इसका मिश्रण तैयार कर लें । इस लेप को हाथों पर लगा कर आधे घंटे बाद साफ ताजे पानी से धो डालें । इसे आप रोजाना कर सकती हैं और कुछ दिनों बाद हाथों की टैनिंग कम होने लगेगी । 3 -हाथों की रंगत को निखारने में कॉफी का स्क्रब काफी मददगार साबित होता है । एक चम्मच कॉफी, आधा चम्मच शहद और आधा चम्मच दूध लेकर कांच के बाउल में मिश्रण बना लें । इस मिश्रण से हाथों को स्क्रब करें । 4-खीरे के रस में कुछ बूंदे नींबू की मिलाकर बने पेस्ट को हाथों पर लगाने के 15-20 मिनट बाद ताजे पानी से धो डालिये । इसे आप रोजाना लगा सकती हैं । खीरे को कद्दू कस करके इसमें दो चम्मच कच्चा दूध तथा कुछ बूंदें नींबू की मिला लीजिए । इस पेस्ट को हाथों पर लगाने के आधे घंटे बाद सामान्य पानी से धो डालिये ।इसे आप सप्ताह में दो बार उपयोग कर सकती हैं । 5-हाथों की टैनिंग कम करने में एलोबेरा जेल काफी मददगार साबित होता है । रात को सोने से पहले हाथों पर इस जेल को लगाने के बाद सुबह ताजे पानी से धो डालिये । 6 -तीन चार नींबू का रस निकालकर इसे गर्म पानी में मिला लें । नींबू रस युक्त गर्म पानी में अपने हाथों को 15 -20 मिनट तक डुबो कर रखें और इसके बाद ठंडे पानी से धो डालें । इसे आप हफ्ते में दोबार आजमा सकती हैं और एक महीने में यह अपना असर दिखाना शुरू कर देगा । (लेखिका, अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सौंदर्य विशेषज्ञ हैं।)
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उमाशंकर पाण्डेय जल में ही सारी सिद्धियां हैं। जल में ही शक्ति है। जल में समृद्धि है। उत्तर प्रदेश के बांदा जिले का अभावग्रस्त जखनी गांव यह सिद्ध कर चुका है। यहां वर्षा जल बूंदों को रोकने की पुरखों की मेड़बंदी विधि को अपनाकर समृद्धि लाई गई है। अब देश ने मेड़बंदी का महत्व समझा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जखनी के सामुदायिक प्रयास के इस अभियान को जन अभियान बना दिया है। जल शक्ति मंत्रालय और नीति आयोग के सहयोग से हजारों गांव परंपरागत समुदाय आधारित जल संरक्षण के गुण जखनी के किसानों से बगैर पैसे के सीख रहे हैं। जखनी ने जल संरक्षण के मंत्र खेत पर मेड़ और मेड़ पर पेड़ को अपनाकर देश-दुनिया को नया रास्ता दिखाया है। सूखा और अकाल के लिए मशहूर रहे बुंदेलखंड में पानीदार बने इस गांव की कहानी पर वैज्ञानिक अध्ययन कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मेड़बंदी के माध्यम से भू-जल रोकने के लिए देशभर के प्रधानों को पत्र लिख चुके हैं। इसलिए पानी जहां गिरे, उसे वहीं रोका जाए। जिस खेत में जितना पानी होगा, वह उतना अधिक उपजाऊ होगा। मेड़ खेत को पानी देती है। खेत पानी पीकर पड़ोसी खेत को देता है। फिर खेत तालाब को पानी देता है। तालाब से कुआं, कुआं से गांव, गांव से नाली, नाली से बड़े नाला, इस नाले से नदी, नदी से समुद्र, समुद्र से सूर्य, सूर्य से बादल और बादल से खेत को पानी मिलने की यह प्राकृतिक प्रक्रिया है। मानव जीवन की सभी आवश्यकताएं जल पर निर्भर हैं। तभी जल को जीवन कहा गया है। मौसम के परंपरागत वैज्ञानिक लोककवि घाघ ने पानी रोकने के लिए मेड़बंदी को उपयुक्त माना है। मेड़बंदी से खेत में वर्षा का जल रुकता है। भू-जल संचय होता है। भू-जलस्तर बढ़ता है। विश्व में हमारी आबादी 16 प्रतिशत और जल संसाधन मात्र दो फीसदी है। देश में बड़ी संख्या में नहर, तालाब, कुओं, निजी ट्यूबवेल और सिंचाई संसाधन होने के बावजूद कई करोड़ हेक्टर भूमि की खेती वर्षा जल पर निर्भर है। 1801 से 2016 तक 47 बार सूखा पड़ चुका है। मेड़बंदी आसान तकनीक है। खेत पर तीन फीट चौड़ी और तीन फीट ऊंची मेड़ बनानी होती है। मेड़ पर औषधीय पेड़ लगाकर इस प्रक्रिया को पूरा किया जा सकता है। मेड़बंदी से जल रोकने का उल्लेख मत्स्य पुराण, जल संहिता, आदित्य स्त्रोत के अलावा ऋग्वेद में भी है। जल क्रांति के लिए मेड़बंदी आवश्यक है। सौराष्ट्र के कच्छ क्षेत्र में 1205 फीट गहराई तक पानी नहीं है। राजस्थान के कई जिलों में मालगाड़ी से पानी जाता है। खेत में पानी रोकने से गांवों का भू-जलस्तर बढ़ेगा। यह प्रयोग बुंदेलखंड के कई जिलों में सफल रहा है। ग्रामीण विकास मंत्रालय और जल शक्ति मंत्रालय पूरे देश के सूखा प्रभावित गांवों को खेतों में मेड़ बनाओ। हर गांव को जलग्राम बनाने का संदेश दे चुके हैं। अनपढ़ बालक, वृद्ध नौजवान अपने खेत में मेड़बंदी कर सकते हैं। एक व्यक्ति को जीवन में 70 हजार लीटर पीने का पानी लगता है। संपूर्ण शरीर में लगभग 80 फीसदी पानी होता है। पानी से बिजली बनती है। पानी से अमृत। पानी में देवताओं का वास है। जन्म से मृत्यु तक जल ही असली साथी है। इसलिए जल बचाएं। पानी बनाया नहीं, केवल बचाया जा सकता है। भारतीय संस्कृति पूजा प्रधान है। पूजा पवित्रता के लिए जल आवश्यक है। जल में आध्यात्मिक शक्तियां होती हैं। दुनिया की सभी पुरानी सभ्यताओं का जन्म जल के समीप अर्थात नदियों के किनारे हुआ है। दुनिया के जितने पुराने नगर हैं वे सब नदियों किनारे बसे हैं। दुनिया के सामने जल संकट है। इस समस्या से कैसे निपटा जाए। क्या रणनीति बने। सबको सोचना होगा। दुनिया में 200 करोड़ लोगों के सामने पेयजल संकट है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार जितने लोगों के पास मोबाइल फोन है उतने लीटर पानी उपलब्ध नहीं है। भारत में 1959 में अमेरिकी सरकार की मदद से भू-जल की खोज शुरू की गई थी। आज के युग का सर्वाधिक चर्चित शब्द जल है। जल राष्ट्रीय संपदा है। पानी हमें प्रकृति ने निशुल्क उपहार के रूप में दिया है। पानी के बिना सब सून है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहा है- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, पांच तत्व मिल रचा शरीरा। इसलिए जखनी के जलमंत्र मेड़बंदी को अपनाना समय की जरूरत है। सरकार के आग्रह को कर्तव्य समझकर मानने की जरूरत है। (लेखक, जलग्राम जखनी बुंदेलखंड के संयोजक और जल शक्ति मंत्रालय के पहले जलयोद्धा सम्मान से अलंकृत हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक यूक्रेन के मामले में भारत मौका चूक गया। पिछले ढाई महीने से मैं बराबर लिख रहा था कि यूक्रेन-विवाद शांत करने के लिए भारत की पहल सबसे ज्यादा सार्थक हो सकती है। जो पहल हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को करनी थी, वह संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटरेस ने कर दी और वे काफी हद तक सफल भी हो गए। गुटरेस खुद जाकर पुतिन और जेलेंस्की से मिले। उन्होंने दोनों खेमों को समझाने-बुझाने की कोशिश की। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद, महासभा और मानव अधिकार परिषद में रूस के खिलाफ जब भी कोई प्रस्ताव रखा गया तो ज्यादातर सदस्यों ने उसका डटकर समर्थन किया। बहुत कम राष्ट्रों ने उसका विरोध किया लेकिन भारत हर प्रस्ताव पर तटस्थ रहा। उसने उसके पक्ष या विपक्ष में वोट नहीं दिया। भारत के प्रधानमंत्री पिछले हफ्ते जब यूरोप के सात देशों के नेताओं से मिले तो हर नेता ने कोशिश की कि भारत रूस की भर्त्सना करे लेकिन भारत का रवैया यह रहा कि भर्त्सना से क्या फायदा होगा? क्या युद्ध बंद हो जाएगा? इतने पश्चिमी राष्ट्रों ने कई बार रूस की भर्त्सना कर ली, उसके खिलाफ प्रस्ताव पारित कर लिए और उस पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा दिए, फिर भी यूक्रेन युद्ध की ज्वाला लगातार भभकती जा रही है। भारत की नीति यह थी कि रूस का विरोध या समर्थन करने की बजाय हमें अपनी ताकत युद्ध को बंद करवाने में लगानी चाहिए। अभी युद्ध तो बंद नहीं हुआ है लेकिन गुटरेस के प्रयत्नों से एक कमाल का काम यह हुआ है कि सुरक्षा परिषद में सर्वसम्मति से यूक्रेन पर एक प्रस्ताव पारित कर दिया है। उसके समर्थन में नाटो देशों और भारत जैसे सदस्यों ने तो हाथ ऊंचा किया ही है, रूस ने भी उसके समर्थन में वोट डाला है। सुरक्षा परिषद का एक भी स्थायी सदस्य किसी प्रस्ताव का विरोध करे तो वह पारित नहीं हो सकता। रूस ने वीटो नहीं किया। क्यों नहीं किया? क्योंकि इस प्रस्ताव में रूसी हमले के लिए ‘युद्ध’, ‘आक्रमण’ या ‘अतिक्रमण’ जैसे शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। उसे सिर्फ ‘विवाद’ कहा गया है। इस ‘विवाद’ को बातचीत से हल करने की पेशकश की गई है। यही बात भारत हमेशा कहता रहा है। इस प्रस्ताव को नार्वे और मेक्सिको ने पेश किया था। यह प्रस्ताव तब पास हुआ है, जब सुरक्षा परिषद का आजकल अमेरिका अध्यक्ष है। वास्तव में इसे हम भारत के दृष्टिकोण को मिली विश्व-स्वीकृति भी कह सकते हैं। यदि हमारे नेताओं में आत्मविश्वास होता तो इसका श्रेय भारत को मिल सकता था और इससे सुरक्षा-परिषद की स्थायी सदस्यता मिलने में भी भारत की स्थिति मजबूत हो जाती। इस प्रस्ताव के बावजूद यूक्रेन-युद्ध अभी बंद नहीं हुआ है। भारत के लिए अभी भी मौका है। रूस और नाटो राष्ट्र, दोनों ही भारत से घनिष्टता बढ़ाना चाहते हैं और दोनों ही भारत का सम्मान करते हैं। यदि प्रधानमंत्री मोदी अब भी पहल करें तो यूक्रेन-युद्ध तुरंत बंद हो सकता है। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा कोविड के बाद पटरी से उतरी देश की आर्थिक व्यवस्था में निरंतर सुधार देखने को मिल रहा है पर जीडीपी की तुलना में अभी भी रोजगार के अवसर कम ही बढ़ रहे हैं। आज की अर्थव्यवस्था में सर्विस सेक्टर की प्रमुख भूमिका हो गई है और अब यह मानने में कोई संकोच नहीं किया जा सकता कि सर्विस सेक्टर लगभग पटरी पर आ गया है। देश में सर्वाधिक रोजगार के अवसर भी कृषि, एमएसएमई सेक्टर के बाद सर्विस सेक्टर में ही उपलब्ध होते हैं और इसमें कोई दो राय नहीं कि कोरोना में सबसे अधिक प्रभावित सर्विस सेक्टर ही हुआ है। सबकुछ बंद हो जाने से रोजगार के अवसर प्रभावित हुए और हुआ यह कि या तो रोजगार ही चला गया या फिर वेतन आदि में कटौती हो गई। इससे लोगों में निराशा आई पर ज्यों-ज्यों हालात सामान्य होने लगे हैं यह माना जाने लगा है कि अर्थव्यवस्था में तेजी के साथ-साथ रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। कोविड के कारण बड़ी संख्या में असंगठित श्रमिकों का गांवों की और पलायन हुआ है और कोरोना की नित नई लहरों की आशंकाओं के चलते अब उतनी संख्या में श्रमिक शहरों की और नहीं गए हैं जितनी संख्या में शहरों से गांवों की ओर पलायन रहा है। ऐसे में अब नई चुनौती गांवों में रोजगार के अवसर विकसित करने की हो जाती है। हालांकि मनरेगा के माध्यम से लोगों को निश्चित अवधि का रोजगार उपलब्ध कराने के प्रयास जारी है पर इसे यदि उत्पादकता से जोड़ दिया जाए तो परिणाम अधिक सकारात्मक हो सकते हैं। दरअसल कोरोना का डर अभी भी लोगों में बना हुआ है। यह दूसरी बात है कि कोरोना के प्रोटोकाल को पूरी तरह से नकार दिया गया है और अब तो भूले भटके ही लोग मास्क लगाए हुए दिखाई देते है। हालांकि जिस तरह के हालात चीन में इन दिनों चल रहे हैं और करोड़ों चीनी नागरिक लॉकडाउन भुगत रहे हैं उसे देखते हुए डरना भी जरूरी हो जाता है। पर सवाल यही है कि दो जून की रोटी का बंदोबस्त जरूरी है। रोजगार की सच्ची तस्वीर तो यह है कि बड़े उद्योगों में बहुत कम लोगों को रोजगार के बावजूद बेहतर वेतन और सुविधाएं मिलती है तो दूसरी और एमएसएमई सेक्टर या सर्विस सेक्टर में रोजगार के अवसर कम होने के साथ ही वेतन भत्ते भी प्रभावित हुए हैं। सर्विस सेक्टर में भी हालात ऐसे ही हैं। ऐसे में इस तरह के उपाय खोजने होंगे कि अर्थ व्यवस्था में सुधार के साथ साथ रोजगार के अवसर भी बढ़े और लोगों को बेहतर रोजगार मिले। इसके साथ ही कार्मिक के मनोविज्ञान को समझना होगा। कोरोना के बाद एक नई सोच विकसित हुई है जो चिंतनीय होने के साथ ही आने वाले समय के लिए गंभीर चुनौती भी है। हो यह रहा है कि कोरोना के बाद सेवा प्रदाताओं ने अपने सालों से सेवा दे रहे कार्मिकों के लिए इस तरह के हालात पैदा किए गए हैं और किए जा रहे हैं ताकि वे वहां नौकरी नहीं कर सके। इसके पीछे बढ़ती बेरोजगारों की फौज का होना है। दरअसल, पुराने कर्मचारी को अधिक पैसा देना पड़ता है जबकि नए कर्मचारी को या तो सर्विस प्रोवाइडर के माध्यम से रखा जा सकेगा या फिर कम वेतन में काम करने को तैयार होने से कम पैसा देना पड़ेगा। पर वह दिन दूर नहीं जब इसके साइड इफेक्ट सामने आने लगेंगे। पहला तो यह कि कर्मचारी का जो कमिटमेंट होता है वह नहीं मिल पाएगा। नया या तो सर्विस प्रोवाइडर के प्रति निष्ठावान होगा या फिर उसे अंदर से यह भय सताता रहेगा कि जैसा पहले वालों के साथ हुआ है वैसा उसके साथ भी हो सकता है ऐसे में लायल्टी की संभावनाएं लगभग नगण्य ही देखने को मिलेगी। यह अपने आप में ऐसा संकेत है जो आगे चलकर व्यवस्था को चरमराने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। इसलिए अभी से भावी संकेतों को समझना होगा। दूसरा यह कि कोरोना ने सबसे अधिक व लंबे समय तक प्रभावित किया है शिक्षा क्षेत्र को या फिर हॅस्पिलिटी सेक्टर को। विदेशी पर्यटकों की संख्या तो अभी भी नाम मात्र की ही रह गई है। देशी पर्यटक अवश्य कुछ बढ़ने लगे हैं और उसका कारण भी कोरोना का सबक ही है। स्कूल-कॉलेज संकट के दौर से आज भी गुजर रहे हैं। इनमें काम करने वाले शिक्षकों व अन्य स्टाफ को वेतन आदि की समस्या बरकरार है। सर्विस सेक्टर सहित अभी सभी क्षेत्रों में यह सोच विकसित हो गई है कि कम से कम मेनपॉवर का उपयोग करते हुए उससे अधिक से अधिक काम लिया जाए। पर यह हालात अधिक दिन तक नहीं चलने वाले हैं। ऐसे में अर्थशास्त्रियों व श्रम विशेषज्ञों को समय रहते इसका कोई हल खोजना होगा। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब सारी व्यवस्था एक साथ धराशायी हो जाए। इसके लिए अब मोटे पैकेजों के स्थान पर निष्ठावान कार्मिक ढूंढने होंगे तो कार्मिकों का विश्वास जीतने के प्रयास करने होंगे। एक समय था जब कार्मिक अपने प्रतिष्ठान के प्रति पूरी तरह से लायल होता था पर अब जो हालात बन रहे हैं उससे संस्थान कुछ पैसा व मानव संसाधन तो बचाने में सफल हो जाएंगे पर संस्थान के प्रति जी-जान लगाने वाले कार्मिक नहीं मिल सकेंगे। ऐसे में नई सोच के साइड इफेक्ट अभी से समझना होगा नहीं तो परिणाम अति गंभीर होने में देर नहीं लगेगी। कार्मिकों के मनोविज्ञान को समझते हुए निर्णय करना होगा। कार्मिकों में अपने रोजगार के प्रति सुरक्षा की भावना रहेगी तो वह निश्चित रूप से अच्छे परिणाम देगा अधिक निष्ठा से सेवाएं देगा और इसके लाभ प्रतिष्ठान को मिलेगा। इसलिए संस्थान और कार्मिक के बीच परस्पर समन्वय, विश्वास और समझ का माहौल बनाना होगा। नियोक्ता को कार्मिक का मनोविज्ञान समझना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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महाराणा प्रताप के जन्मदिवस ( 9 मई) पर विशेष मृत्युंजय दीक्षित भारत माता की कोख से एक से बढ़कर एक महान सपूतों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने सर्वस्व सुखों का त्याग कर पूरे मनोयोग से मातृभूमि की रक्षा की। ऐसे ही महान सपूतों की श्रेणी में नाम आता है महाराणा प्रताप का। भारत के इतिहास में महाराणा प्रताप का नाम साहस, शौर्य, त्याग एवं बलिदान का मूर्तरूप है। मेवात के सिसौदिया वंश में बप्पा रावल, राणा हमीर, राणा सांगा ऐसे एक से बढ़कर एक महान प्रतापी शूरवीर हुए जिन्होंने आक्रमणकारियों से लोहा लेकर उनको धूल चटाई, वे सभी राणा के नाम से जाने जाते हैं परन्तु “महाराणा” का गौरवयुक्त संबोधन केवल प्रताप सिंह को ही मिला। जिससे उनका पूरा नाम महाराणा प्रताप हो गया। मुगल सम्राट अकबर के द्वारा दिये गये झूठे आश्वासन, उच्च स्थान, पदाधिकार आदि प्रलोभनों के वशीभूत होकर कई राजपूत राजाओं ने उसका प्रभुत्व मान लिया था जबकि अन्य वीर राजपूत अपना गौरव खो चुके थे ऐसा प्रतीत होता था कि मानों पूरा राजस्थान ही अपना आत्मगौरव खो चुका हो निराशा के ऐसे कठिन समय में मेवाड़ के महाराणा प्रताप का मातृभूमि की रक्षा के लिए राजनैतिक क्षेत्र में प्रवेश हुआ। महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था। महाराणा प्रताप की मां का नाम जयन्ती बाई तथा पिता का नाम उदय सिंह थ। अपने माता-पिता की सबसे बड़ी संतान प्रताप बहुत ही स्वाभिमानी तथा सद्गुणी थे। बचपन से ही युद्ध़ कला उनकी रुचि का विषय था। जिस समय प्रताप का राज्याभिषेक हुआ उस समय भारत में अकबर का शासन था। अकबर बहुत ही कुटिल प्रवृत्ति का शासक था। वह हिन्दुओं के बल से ही हिन्दुओं को अपने अधीन करता था । तत्कालीन हिंदू राजाओं की मूर्खता का अकबर ने भरपूर लाभ उठाया। हिन्दू स्वाभिमान को कुचलने के लिए अकबर ने सभी प्रकार के उपाय और लगभग सभी राजपूत राजाओं को अपने अधीन करने में सफल रहा। इस विपरीत कालखंड में भी मेवाड़, बूंदी तथा सिरोही वंश के राजा अंत तक अकबर से संघर्ष करते रहे। मेवाड़ के राणा उदयसिंह का स्वतंत्र रहना अकबर के लिए असहनीय था। चूँकि मेवाड़ के राजा उदय सिंह विलासी प्रवृत्ति के थे इसलिए अकबर ने मेवाड़ विजय के लिए भारी-भरकम सेना के साथ मेवाड़ पर हमला बोल दिया। विलासी उदय सिंह का मनोबल बहुत ही गिरा हुआ था इसलिए वह मैदान छोड़ कर भाग गया और अरावली की पहाड़ियों पर छुप गया। वहीं पर उसने उदयपुर नामक नगर बसाया और राजधानी भी बनायी। उदय सिंह ने अपनी मृत्यु के पूर्व अपनी कनिष्ठ पत्नी के पुत्र जगमल्ल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया लेकिन उसके अन्य सरदारों ने जगमल्ल के खिलाफ विद्रोह कर दिया और महाराणा प्रताप को अपना राजा घोषित कर दिया। राजा घोषित होते ही प्रताप को विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। उनके भाई शक्ति सिंह और जगमल्ल जाकर मुगलों से मिल गये। शत्रुओं का मुकाबला करने के लिए मजबूत सैन्य शक्ति की महती आवश्यकता थी। राणा प्रताप सदैव इसी चिंता में लगे रहते थे कि अपनी मातृभूमि को मुगलों से किस प्रकार मुक्त कराया जाये। परम पवित्र चितौड़ का विनाश उनके लिए बेहद असहनीय था। एक दिन राणा प्रताप ने दरबार लगाकर अपनी ओजस्वी वाणी में सरदारों का स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए आह्वान करके उनमें नया जोश भरा तथा युद्ध की प्रेरणा प्रदान दी। एक बार शीतल नामक भाट उनके दरबार आ पहुंचा और शौर्य तथा वीरता की कविताएँ सुनायीं। अप्रतिम वीरता का सन्देश देने वाली कविता सुनकर महाराणा ने अपनी पगड़ी उतारकर भाट को दे दी। जिसे पाकर वह बेहद प्रसन्न हुआ और महाराणा की प्रशंसा करके वापस चला गया। महाराणा प्रताप ने अकबर के साथ युद्ध करने के लिए नई योजनायें बनाईं, उन्होंने संकरी घाटियों में अकबर की सेना से लोहा लेने का निर्णय लिया। महाराणा प्रताप अपनी सत्ता व राज्य की स्वतंत्रता के लिए सतत संघर्षशील रहे। महाराणा प्रताप को अपने अधीन करने के लिए अकबर ने चार बार दूत भेजे लेकिन वे सभी प्रयास विफल रहे। अकबर ने महाराणा प्रताप को मनाने के लिए जिन चार दूतों को भेजा उनमें जलाल खान, मान सिंह, भगवानदास और टोडरमल के नाम इतिहास में मिलते हैं। महाराणा प्रताप बहुत ही स्वाभिमानी प्रवृत्ति के नायक थे। जब राणा प्रताप को अपने वश में करने के अकबर के सभी प्रयास विफल रहे तब हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ। अकबर बहुत ही धूर्त था इसलिए उसने अपनी दो लाख सेना का नेतृत्व सलीम व मान सिंह को सौंपा। यह युद्ध बहुत ही भयंकर था। महाराणा प्रताप ने पूरी सजगता और अप्रतिम वीरता के साथ युद्ध लड़ा लेकिन यह निर्णायक नहीं रहा। इस युद्ध में महाराणा का प्रिय चेतक बलिदान हो गया। महाराणा प्रताप की लड़ाई जीवनपर्यंत चलती रही। इस संघर्ष में दानवीर भामाशाह ने अपनी सपत्ति दान करके अतुलनीय योगदान दिया। महाराणा प्रताप ने इस आर्थिक सहायता के बल पर अपनी खोई हुई सैन्य ताकत को फिर से खड़ा करने का प्रयास किया। इस समय प्रताप के शत्रु समझ रहे थे कि वह अपना प्रदेश छोड़ कर भाग गये हैं तथा अपने अंतिम दिन कंदराओं में बितायेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मुगल सेनापति शहबाज खान ने हलबीर नामक एक स्थान पर अपना डेरा डाल रखा था। महाराणा प्रताप ने अचानक उस पर धावा बोल दिया। अचानक हमले से सभी मुगल सैनिक भाग खडे़ हुये। इसी प्रकार महाराणा ने कई अन्य किले भी अपने अधीन कर लिये। बाद में उदयपुर भी राणाप्रताप के कब्जे में आ गया। इस प्रकार महाराणा प्रताप एक के बाद एक किले जीतते चले गये। महाराणा प्रताप की वीरता की बातें सुनकर अकबर शांत रह गया और उसने अपना सारा ध्यान दक्षिण की ओर लगा दिया। लगातार युद्ध करते रहने और संकटों को झेलने के कारण महाराणा का शरीर लगातार कमजोर होता जा रहा था। 19 जनवरी 1597 को उन्होंने अंतिम सांस ली। महाराणा प्रताप स्वाधीनता की रक्षा करने वाले मेवाड़ के स्वनामधन्य वीरों की मणिमाला में सुर्कीतिमान हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हृदयनारायण दीक्षित शंकराचार्य का व्यक्तित्व विस्मयकारी है। उन्होंने 32 वर्ष का जीवन पाया। अल्प समय में ही उन्होंने भारत का भ्रमण किया। 11 उपनिषदों का भाष्य किया। अन्य तमाम पुस्तकें लिखी। गीता का आश्चर्यजनक भाष्य लिखा और ब्रह्म सूत्र का भी। अद्वैत दर्शन का सार समझाया। अल्पजीवन में ढेर सारा काम आश्चर्यजनक है। 32 वर्ष के जीवन में लगभग 20 वर्ष अध्ययन में लगे होंगे। उन्होंने संपूर्ण वैदिक साहित्य पढ़ा। चार मठ धाम बनाए। सैकड़ों स्थानों पर विद्वानों से शास्त्रार्थ हुआ। तब यात्रा के साधन नहीं थे, लेकिन उन्होंने भारत का भ्रमण किया। वे अद्वैत वेदांत के प्रवक्ता व्याख्याता बने। डाॅ. रामधारी सिंह लिखित ”संस्कृति के चार अध्याय” (पृष्ठ 332) में ’शंकराचार्य और इस्लाम‘ शीर्षक से एक मजेदार निष्कर्ष है, ’’शंकर ने एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया है। इस्लाम, आरम्भ से ही, एक ईश्वर में विश्वास करता था। इतनी सी बात पर डाॅ. ताराचन्द ने यह अनुमान निकाल लिया कि शंकर का उद्भव इस्लामी प्रभावों के कारण हुआ। शंकर केरल में जन्मे थे ओर केरल में तब तक मुसलमान आ चुके थे। अर्थात मुसलमान केरल में आए नहीं कि हिन्दुओं ने उनके एकेश्वरवाद को देखकर उसका अनुसरण करना आरम्भ कर दिया। ये नितान्त भ्रमपूर्ण बातें हैं।’’ शंकराचार्य द्वारा इस्लाम से प्रेरणा लेने की बात गलत है। स्वयं दिनकर ने लिखा है, ”इस मत के विरुद्ध सबसे पहले यह अकाट्य तर्क है कि शंकर का एकेश्वरवाद भारतीय अद्वैतवाद का विकसित रूप है और उसका इस्लामी एकेश्वरवाद से कोई भी मेल नहीं है। इस्लाम एक ईश्वर को जरूर मानता है, किन्तु वह एकेश्वरवादी या अद्वैतवादी नहीं, केवल ईश्वरवादी है। इस्लाम ईश्वर को एक मानता है, किन्तु वह यह भी समझता है कि ईश्वर ने सृष्टि बनाई, वह सातवें आकाश पर बसता है। उसके हृदय में भक्तों के लिए प्रेम और दुष्टों के लिए घृणा का वास है। संसार असत्य है अथवा जो कुछ हम देखते हैं वह ‘कुछ नहीं में कुछ का आभास है।’ यह बातें इस्लाम में न पहले थीं, न अब हैं। इस्लाम का ईश्वरवाद शंकराचार्य के अद्वैतवाद से भिन्न है। फिर भी डाॅ. ताराचन्द ने गलत निष्कर्ष निकाले। दिनकर ने लिखा है, ”शंकराचार्य भारतीय चिंतनधारा में आकस्मिक घटना की तरह नहीं आए। उनकी परम्परा की लकीर उपनिषदों से आगे ऋग्वेद के नासदीय-सूक्त तक पहुँचती है। नासदीय सूक्त ने जीवन और सृष्टि के विषय में जो मौलिक प्रश्न उठाए थे, उन्हीं के प्रश्नों का समाधान खोजते-खोजते पहले उपनिषद्, फिर बौद्ध दर्शन और सबके अन्त में, शंकराचार्य का सिद्धान्त प्रकट हुआ।” ऐसे विद्वानों की मानें तो ”भारत की प्राचीनता का तर्कपूर्ण ज्ञान भारत में नहीं था। भारत की प्राचीनता को गौरव यूरोप ने दिया। ऐसे ही एक विद्वान वेबर ने लिखा था कि आध्यात्मिक मुक्ति के लिए भक्ति को साधन मानने की प्रथा भारत में नहीं थी। यह चीज भारतवासियों ने ईसाइयत से ली होगी। अब के पक्षपाती लोग दुनिया को यह समझा रहे हैं कि हिन्दुओं ने भक्ति और अद्वैतवाद के सिद्धान्त इस्लाम से ग्रहण किए थे।” भारत की अपनी सभ्यता और संस्कृति थी और अपना मौलिक चिंतन। सिंध में मोहम्मद बिन कासिम के हमले के समय भारत ज्ञान समृद्ध था। कई धाराओं में चिंतन का विकास हो चुका था। उपनिषद् लिखे जा चुके थे। इस्लाम के जन्म के पहले ही भारतवासी सृष्टि के मूल कारण को जानने के लिए सक्रिय थे। तब भारतवर्ष मंदिरों और मूर्तियों से भरा हुआ था। मोहम्मद बिन कासिम ने भी मूर्तियों का उल्लेख किया है। बौद्धों ने शून्यवाद की स्थापना की थी। बौद्धों का शून्यवाद शंकराचार्य के मत का मायावाद था। बौद्धों से आगे बढ़कर शंकराचार्य ने एक तटस्थ ब्रह्म को स्थान दिया। यह तटस्थ ब्रह्म भी नया नहीं था। उपनिषदों का ब्रह्म पहले से था। शून्यवाद को मायावाद के नाम से अपनाने के कारण ही कुछ लोग शंकराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे। शंकराचार्य ने अपने तत्व ज्ञान से सांस्कृतिक भारत का मैलिक चित्र उपस्थित किया। उन्होंने हिन्दुत्व को पौराणिक कल्पनाशीलता से दर्शन की ओर उन्मुख किया। भारतीय चेतना को उपनिषदों की ओर मोड़ा। उपनिषद्ों पर भाष्य के प्रभाव में भारतीय चिंतन की दिशा शोधपूर्ण हो गई। दर्शन में वह अद्वैत के प्रवक्ता बने। साथ ही विष्णु, शिव, शक्ति और सूर्य पर स्तुतियाँ लिखी। वह आध्यात्मिकता और उपासना के समन्वयवादी महापुरुष थे। भारत की सांस्कृतिक और भौगोलिक एकता को मजबूत करने के लिए उन्होंने चारों दिशाओं में चार पीठ भी बनाएं। ये वद्रिकाश्रम, द्वारका, जगन्नाथपुरी और श्रंगेरी में हैं। चारों पीठों के दर्शन भारत की अभिलाषा बने हैं। इस्लाम में दर्शन का प्रवेश सूफियों के माध्यम से आया। सूफियों ने यह ज्ञान सीधे वैदिक ग्रंथों से पाया। प्लाटीनस ने उसे ब्राह्मणों और बौद्धों से प्राप्त किया। इससे अलग शंकराचार्य का दर्शन ब्रह्म, शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य, निराकार और विर्विकार है। दिनकर ने लिखा है, कि उसे ”भक्तों की चिंता नहीं है और न दुष्टों को दण्ड देने की। शंकराचार्य के अनुसार सृष्टि ईश्वर ने नहीं बनाई। आचार्य शंकर ब्रह्म के अतिरिक्त कोई अस्तित्व नहीं मानते । शंकराचार्य का दर्शन शुद्ध अद्वैत विचार है। इस्लाम अद्वैतवाद में विश्वास नहीं करता। उसका विश्वास सिर्फ ईश्वरवाद में है। इस्लामी ईश्वरवाद शंकराचार्य के अद्वैतवाद से भिन्न है। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने शंकराचार्य पर खूबसूरत पुस्तक लिखी है। शंकराचार्य के समय का भारत विचारणीय है। उपाध्याय जी ने लिखा है, ”वैदिक दर्शनों में कणाद भौतिकवाद का कपिल द्वेतवाद का गौतम नीरस तर्क का प्रचार कर रहे थे। श्रीकृष्ण की गीता और महाऋषि वेदव्यास के बताए मार्ग को लोग भूलते जाते थे। ऐसे समय में यहां तीन दर्शनों की रचना हुई। वह है, पंतजलि का योग दर्शन, जेमिनी का मीमांसा और बादरायण का वेदांत दर्शन।“ कपिल का सांख्य दर्शन तर्कपूर्ण है। इन की अपनी विशेषता है। दर्शन व विज्ञान लोकमंगल के लिए ही होते हैं। वह कोरे बुद्धि विलास नहीं हैं। वेदांत इन सबमें प्रमुख है। वेदांत दर्शन का मुख्य ग्रंथ ब्रह्म सूत्र है। इसे बादरायण ने लिखा था। इसे सारी दुनिया में प्रतिष्ठित करने का काम शंकराचार्य ने किया। ऋग्वेद से लेकर उपनिषद तक दर्शन की धारणा एक सत्य की है। उसी एक सत्य को विद्वानों ने अनेक नाम दिए हैं। ब्रह्म सूत्रों में ऐसे सभी नामों को एक अर्थ दिया गया है। शंकराचार्य का ब्रह्म नित्य है। सदा से है। सदा रहता है। संसार अनित्य है। आभास है। मिथ्या है। ब्रह्म सदा से है। सदा रहेगा। ब्रह्म का शाब्दिक अर्थ है सतत् विस्तारवान। यह ब्रह्माण्ड फैल रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार इसका विस्तार अनंत है। यह और फैलने वाला है। ब्रह्म किसी से नहीं जन्मा। वह सृष्टि सृजन के पहले से है और प्रलय के बाद भी रहेगा। शंकराचार्य इसलिए ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या कहते थे। मिथ्या का अर्थ झूठ नहीं है। जगत प्रत्यक्ष है, लेकिन इसका एक-एक अंश प्रतिपल विदा हो रहा है। इसमें नया जुड़ रहा है। नए को भी पुराना होना है। प्रकृति के सभी अंश गतिशील हैं। अनेक अंश विदा भी हो रहे हैं। प्रकृति की सारी कार्यवाही अनित्य है और ब्रह्म नित्य। शंकराचार्य पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में भी शारदा पीठ गये थे। भारत में इनके दर्शन को लेकर तर्क हुए। उन्होंने सभी विद्वानों को वेदांत के लिए सहमत किया। समूचे देश में उनका यश भी नित्य रहने वाला है। (लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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प्रमोद भार्गव आदिवासी असंतोष के प्रतीक ओडिशा के 'पाइक विद्रोह' को भी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का दर्जा प्राप्त है। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की शोषणकारी नीतियों के विरुद्ध ओडिसा में पाइक जनजाति के लोगों ने जबरदस्त सशस्त्र एवं विद्रोह किया था। इससे कुछ समय के लिए पूर्वी भारत में फिरंगी सत्ता की चूलें हिल गईं थीं। पाइक मे पारंपरिक भूमिगत रक्षा सेना के रूप में काम करते थे। 1857 के सैनिक विद्रोह से ठीक 40 साल पहले 1817 में अंग्रेजों के विरुद्ध इन भारतीय नागरिकों ने जबरदस्त सशस्त्र विद्रोह किया था। इसके नायक बख्शी जगबंधु थे। इस संघर्ष को कई इतिहासकार आजादी की पहली लड़ाई मानते हैं। इसको ऐतिहासिक स्वीकार्यता देने के लिए ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने 2017 में केंद्र को पत्र लिखकर मांग की थी कि वास्तविक इतिहास लिखने के क्रम में 2018 के नए सत्र से एनसीआरटी की इतिहास संबंधी पाठ्य पुस्तक में 'पाइक विद्रोह' का पाठ जोड़ा जाए। इस पर तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने साफ किया था- '1817 का पाइक विद्रोह ही प्रथम स्वतंत्रता संग्राम है। 1857 का सिपाही विद्रोह किताबों में यथावत रहेगा। लेकिन देश के लोगों को आजादी का असली इतिहास भी बताना जरूरी है।' वैसे भी यदि घटनाएं और तथ्य प्रामाणिक हैं तो ऐसे पन्नों को इतिहास का हिस्सा बनाना चाहिए, जो बेहद अहम होते हुए भी हाशिए पर है। पाइक विद्रोह के 2017 में 200 साल पूरे होने पर इसके द्विशताब्दी समारोह मनाने के लिए केंद्र ने ओडिशा सरकार को 200 करोड़ रुपये दिए थे। आदिवासियों की जब भी चर्चा होती है तो अक्सर हम ऐसे कल्पना लोक में पहुंच जाते हैं, जो हमारे लिए अपरिचित व विस्मयकारी होता है। इस संयोग के चलते ही उनके प्रति यह धारणा बना ली गई है कि वे एक तो केवल प्रकृति प्रेमी हैं, दूसरे वे आधुनिक सभ्यता और संस्कृति से अछूते हैं। इसी वजह से उनके उस पक्ष को तो ज्यादा उभारा गया, जो 'घोटुल' और 'रोरुंग' जैसे उन्मुक्त रीति-रिवाजों और दैहिक खुलेपन से जुड़े थे, लेकिन उन पक्षों को कमोबेश नजरअंदाज ही किया गया, जो अपनी अस्मिता के लिए आजादी के विकट संघर्श से जुड़े थे ? भारतीय समाजशास्त्रियों और अंग्रेज साम्राज्यवादियों की लगभग यही दोहरी दृष्टि रही है। देश के इतिहासकारों ने भी उनकी स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी लड़ाई को गंभीरता से नहीं लिया। नतीजतन उनके जीवन, संस्कृति और सामाजिक संसार को देश समाज से जुदा रखने के उपाय अंग्रेजों ने किए और उन्हें मानव शास्त्रियों के अध्ययन की वस्तु बना दिया। अंग्रेजों ने सुनियोजित ढंग से आदिवासी क्षेत्रों में मिशनरियों को न केवल उनमें जागरुकता लाने का अवसर दिया, बल्कि इसी बहाने उनके पारंपरिक धर्म में हस्तक्षेप करने की छूट भी दी। एक तरह से आदिवासी इलाकों को 'वर्जित क्षेत्र' बना देने की भूमिका रच दी गई। इसके लिए बहाना बनाया गया कि ऐसा करने से उनकी लोक-संस्कृति और परंपराएं सुरक्षित रहेंगी। जबकि इस हकीकत के मूल में आदिवासियों की बड़ी आबादी का ईसाईकरण करना था। इस कुटिल मकसद में अंग्रेज सफल भी रहे। ये उपाय तब किए गए, जब अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने के लिए पहला आंदोलन 1817 में ओडिशा के कंध आदिवासियों ने किया। दरअसल 1803 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठाओं को पराजित कर ओडिशा को अपने आधिपत्य में ले लिया था। सत्ता हथियाने के बाद अंग्रेजों ने खुर्दा के तत्कालीन राजा मुकुंद देव द्वितीय से पुरी के विश्वविख्यात जगन्नाथ मंदिर की प्रबंधन व्यवस्था छीन ली। मुकुंद देव इस समय अवस्यक थे, इसलिए राज्य संचालन की बागडोर उनके प्रमुख सलाहकार व मंत्री जयी राजगुरु संभाल रहे थे। राजगुरु जहां एकाएक सत्ता हथियाने को लेकर विचलित थे, वहीं मंदिर का प्रबंधन छीन लेने से उनकी धार्मिक भावना भी आहत हुई थी। नतीजतन उन्होंने आत्मनिर्णय लेते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध जंग छेड़ी। कंपनी की कुटिल फौज ने राजगुरु को हिरासत में लिया। विद्रोह के आरोप में बीच चौराहे पर फांसी पर चढ़ा दिया। अंग्रेज सोच रहे थे कि इससे ओडिशा की जनता घरों में दुबक जाएगी। मगर हुआ इसके उलट। घुमसुर के 400 पाइक आदिवासियों ने खुर्दा में जगह-जगह अंग्रेजों पर हमले शुरू कर दिए। ब्रिटिश राज्य के प्रतीकों पर आक्रमण कर पुलिस थाने, प्रशासकीय कार्यालय और राज-कोषालय आग के हवाले कर दिए। घुमसुर वर्तमान में गंजम और कंधमाल जिले का हिस्सा है। पाइक मूल रूप से खुर्दा के राजा के ऐसे खेतिहर सैनिक थे, जो युद्ध के समय शत्रुओं से लड़ते थे और शांति के समय राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने का काम करते थे। इस कार्य के बदले में उन्हें जागीरें मिली हुई थीं। इन जागीरों से राज्य कर वसूली नहीं करता था। शक्ति-बल से सत्ता हथियाने के बाद अंग्रेजों ने इन जागीरों को समाप्त कर दिया। यही नहीं कंपनी ने किसानों पर लगान कई गुना बढ़ा दी। जो लोग खेती से इतर नमक बनाने का काम करते थे, उसके निर्माण पर रोक लगा दी। इतनी बेरहमी बरतने के बावजूद भी न तो अंग्रेजों की दुष्टता थमी और न ही पाइकों का विद्रोह थमा। लिहाजा 1814 में अंग्रेजों ने पाइकों के सरदार बख्शी जगबंधु विद्याधर महापात्र, जो मुकुंद देव द्वितीय के सेनापति थे, उनकी जागीर छीन ली और उन्हें पाई-पाई के लिए मोहताज कर दिया। अंग्रेजों के यह ऐसे जुर्म थे, जिनके विरुद्ध जनता का गुस्सा भड़कना स्वाभाविक था। फलस्वरूप बख्शी जगबंधु के नेतृत्व में पाइकों ने युद्ध का शंखनाद कर दिया। देखते-देखते इस संग्राम में खुर्दा के अलावा पुरी, बाणपुर, पीपली, कटक, कनिका, कुजंग और केउझर के विद्रोही शामिल हो गए। यह संग्राम कालांतर में और व्यापक हो गया। 1817 में अंग्रेजों के अत्याचारों के चलते घुमसुर, गंजम, कंधमाल, पीपली, कटक, नयागढ़, कनिका और बाणपुर के कंध संप्रदाय के राजा और आदिवासी समूह इस संग्राम का हिस्सा बन गए। इन समूहों ने संयुक्त रणनीति एकाएक अंग्रेजों पर आक्रामण कर दिया। तीर-कमानों, तलवारों और लाठी-भालों से किया यह हमला इतना तेज और व्यापक था कि करीब 100 अंग्रेज मारे गए। जो शेष बचे वे शिविरों से दुम दबाकर भग निकले। एक तरह से समूचा खुर्दा कंपनी के सैनिकों से खाली हो गया। जनता ने अंग्रेजी खजाने को लूट लिया। इसके बाद इन स्वतंत्रता सेनानियों को जहां-जहां भी अंग्रेजों के छिपे होने की मुखाबिरों से सूचना मिली, इन्होंने वहां-वहां पहुंचकर अंग्रेजों को पकड़ा और मौत के घाट उतार दिया। इससे तिलमिलाए फिरंगियों की सेना ने पाइक स्वतंत्रता सेनानियों पर तोप और बंदूकों से हमला बोल दिया। अंग्रेजों ने जिस सेनानी को भी जीवित पकड़ा उसे या तो फांसी दे दी अथवा तोप के मुहाने पर बांधकर उड़ा दिया। अंततः इस संग्राम के नायक बख्शी जगबंधु को 1825 में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें कटक के बरावटी किले में बंदी बनाकर रखा गया। 1829 में उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। पाइक विद्रोह के समतुल्य ही अंग्रेजों से 1817 में भील आदिवासियों का संघर्ष हुआ था। भारत में जब अंग्रेज आए तो ज्यादातर सामंत उनके आगे नतमस्तक हो गए। नतीजतन अंग्रेज राजपूत सामंतों के सरंक्षक हो गए। गोया, भीलों ने जब संगठित रूप में सामंतों पर आक्रमण किया तो अंग्रेजों ने राजपूतों की सेना के साथ भीलों से युद्ध कर उन्हें खदेड़ दिया। बाद में यही संघर्ष 'भील बनाम अंग्रेज' संघर्ष में बदल गया। इसलिए इसे 'खानदेश विद्रोह' का नाम दिया गया। इस विद्रोह से प्रेरित होकर भीलों का विद्रोह व्यापक होता चला गया। 1825 में इसने सतारा की सीमाएं लांघी और 1831 तक मध्य प्रदेश के वनांचल झाबुआ क्षेत्र में फैलता हुआ मालवा तक आ गया। 1846 में अंगेज इस भील आंदोलन को नियंत्रित करने में सफल हुए। इसके बाद 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ। लिहाजा 1817 में पाइक विद्रोह के समानांतर जितने भी 1857 के पहले तक अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष हुए हैं, यदि उन्हें जोड़कर 1857 पहले के स्वतंत्रता संग्राम को मान्यता दी जाती है, तो यह इन शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (लेखक,वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक अपने देश में 5 मई दो घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिन्हें लेकर भारत के धर्मध्वजियों और नेताओं को विशेष चिंता करनी चाहिए। पहली घटना हैदराबाद में हुई और दूसरी गुजरात में। हैदराबाद में एक हिंदू नौजवान नागार्जू की हत्या इसलिए कर दी गई कि उसने सुल्ताना नामक एक मुसलमान लड़की से शादी कर ली थी। गुजरात के एक गांव में कुछ हिंदुओं ने दो अन्य हिंदुओं पर इसलिए हमला कर दिया कि वे अपने पूजा-पाठ को लाउडस्पीकर पर गुंजा रहे थे। ध्यान रहे कि यह हमला न तो मुसलमानों पर हिंदुओं का था और न ही हिंदुओं पर मुसलमानों का। उक्त दोनों हमले अलग-अलग कारण से हुए और उनका चरित्र भी अलग-अलग है लेकिन दोनों में बुनियादी समानता भी है। दोनों हमलों में मौतें हुईं और दोनों का मूल कारण एक ही है। वह कारण है-असहिष्णुता! यदि गांव के कुछ लोगों ने अनजाने या जानबूझकर लाउडस्पीकर लगा लिया तो उससे कौन सा आसमान टूट रहा था? उन्हें रोकने के लिए मारपीट और गाली-गुफ्ता करने की क्या जरूरत थी। यदि सचमुच लाउडस्पीकर की आवाज कानफोड़ू थी और उससे आपके काम में कुछ हर्ज हो रहा था तो आप पुलिस थाने में जाकर शिकायत भी कर सकते थे लेकिन किसी की आवाज काबू करने के लिए आप उसकी जान ले लें, यह कहां कि इंसानियत है? इसके पीछे का सूक्ष्म कारण पड़ोसियों का अहंकार भी हो सकता है। किसी कमतर पड़ोसी की यह हिम्मत कैसे पड़ गई कि वह पूजा-पाठ के नाम पर सारे मोहल्ले में अपने नाम के नगाड़े बजवाए? यदि हमलावर लोग कानून-कायदों का दूसरों से इतना सख्त पालन करवाना चाहते हैं तो उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि उन्होंने अपने पड़ोसी की हत्या करके कौन से कानून का पालन किया है? जहां तक एक मुस्लिम लड़की का एक हिंदू लड़के से विवाह का सवाल है, दोनों की दोस्ती लंबी रही है। वह विवाह किसी धर्म-परिवर्तन के अभियान के तहत नहीं किया गया था। वह शुद्ध प्रेम-विवाह था। लेकिन भारत में आज कोई भी बड़ा नेता या बड़ा आंदोलन ऐसा नहीं है, जो अन्तरधार्मिक और अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहित करे। हम लोग अपने मजहबों और जातियों के कड़े सींखचों में अभी तक जकड़े हुए हैं। जो व्यक्ति इन संकीर्ण बंधनों से मुक्त है, वह ही सच्चा धार्मिक है। वही सच्चा ईश्वरभक्त है। यदि ईश्वर एक ही है तो उसकी सारी संतान अलग-अलग कैसे हो सकती है? उनका रंग-रूप, भाषा-भूषा, खान-पान देश और काल के मुताबिक अलग-अलग हो सकता है लेकिन यदि वे एक ही पिता के पुत्र हैं तो आप उनमें भेद-भाव कैसे कर सकते हैं? यदि आप उनमें भेद-भाव करते हैं तो स्पष्ट है कि आप धार्मिक हैं ही नहीं। आप एक नहीं, अनेक ईश्वरों को मानते हैं। इसका एक गंभीर अर्थ यह भी है कि ईश्वर ने आपको नहीं, आपने ईश्वर को बनाया है। हर देश और काल में लोगों ने अपने मनपसंद ईश्वर को गढ़ लिया है। ऐसे लोग वास्तव में ईश्वरद्रोही हैं। उनके व्यवहार को देखकर तर्कशील लोग ईश्वर की सत्ता में अविश्वास करने लगते हैं। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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आर.के. सिन्हा फिलहाल देश में कोयले और बिजली की किल्लत का माहौल बनाया जा रहा है। इस तरह के हालात निर्मित करने की कोशिशें इसलिए हो रही हैं ताकि देश का जनमानस केन्द्र की मोदी सरकार के खिलाफ खड़ा होने लगे। इस माहौल को हवा-पानी मिल रही है उन राज्यों में जहां पर कोयले के सर्वाधिक भंडार हैं। जैसे झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और ओडिशा। गौर कीजिए कि इन सब राज्यों में गैर-भाजपाई सरकारें हैं। अब जरा आगे चलिए। वोट के लालच में फ्री बिजली देने वाले दिल्ली, पंजाब, राजस्थान जैसे राज्य भी गैर- भाजपाई शासित हैं। क्या गर्मियों के मौसम में पहली बार बिजली की खपत बढ़ रही है और बिजली की किल्लत को महसूस किया जा रहा है? नहीं न। दिल्ली में बिजली की कटौती नाम-निहाद हो रही है। पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सियासत करने से पीछे नहीं हट रहे। वे कोयले की कमी को मुद्दा बना रहे हैं और सबको डरा रहे हैं। अब उन्होंने एक और खेल खेलना शुरू कर दिया है। केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली कैबिनेट ने फैसला लिया है कि 01 अक्टूबर, 2022 से दिल्ली में बिजली पर सब्सिडी केवल उन्हीं लोगों को मिलेगी, जो इसे लेना चाहेंगे यानी बिजली पर छूट अब वैकल्पिक होगी। इस योजना के तहत लोगों के पास यह ऑप्शन होगा कि अगर वे चाहे तो अपनी सब्सिडी को त्याग सकते हैं। कोई क्यों छोड़ेगा? उन्होंने इससे मिलती-जुलती बात तब भी कही थी जब डीटीसी की बसों में महिलाओं को मुफ्त सफर करने की घोषणा की गई थी। तब कहा गया था कि जो महिलाएं टिकट लेना चाहें वह ले सकती हैं। डीटीसी बसों में सफर करने वाली किसी महिला से पूछ लीजिए कि क्या वह टिकट लेती है? उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा। महाराष्ट्र में भी बिजली संकट गहराता जा रहा है। भारत की प्रगति का रास्ता महाराष्ट्र से होकर ही गुजरता है। वहां इस प्रकार की स्थिति का होना अफसोसजनक है। महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली तथा पंजाब जैसे राज्यों का बिजली कंपनियों पर लाखों करोड़ बकाया पड़ा है। महाराष्ट्र सरकार तो सुप्रीम कोर्ट में केस तक हार चुकी है और उसे भुगतान करना ही करना है, उसके बाद भी ये राज्य बिजली खर्च कर रहे है और पेमेंट भी नहीं कर रहे हैं। सबको पता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की बिजली उत्पादक कंपनियों (जेनको) के 7,918 करोड़ रुपये के भारी बकाया के कारण कई राज्यों, विशेष रूप से महाराष्ट्र, राजस्थान और पश्चिम बंगाल को कोयले की आपूर्ति कम हुई है। जरा इन राज्यों के नेताओं की बेशर्मी देखिए कि ये कोयले की कमी का रोना तो रो रहे हैं, पर ये नहीं बता रहे कि जेनको का बकाया धन वापस क्यों नहीं कर रहे? जबकि इन्होंने जनेको से बिजली खरीद कर उपभोक्ताओं को कई बार दुगने दाम तक में बेच भी दिया है और ज्यादातर पैसा वसूल भी कर लिया है तो कैसे सुधरेगा बिजली क्षेत्र? कहां से आएगा जेनको के पास अपना काम करने लिए आवश्यक धन? कोयले की कमी की नौटंकी की जानकारी कई माह पहले से थी, आप यकीन नही करेंगे पर ये भी टूलकिट का ही एक पूर्व नियोजित हिस्सा है, सरकार विरोधी माहौल बनाने के लिए। जब सारे पैंतरे आजमाकर हार गए हैं तो कुछ नई योजनाओं पर काम शुरू हुआ है, जिनमें दंगे भड़काना और मूलभूत आवश्यकताओं की कमी कर के ठीकरा सरकार पर फोड़ना। दंगे भड़कने से कोर वोटर भाजपा से दूर होगा, जैसा वोटर का स्वभाव है और मूलभूत आवश्यकताओं की कमी पर नया वोटर जो जुड़ा है वह भी निराश होकर दूर होगा। अब पंजाब की बात करेंगे। मुख्यमंत्री भगवंत मान की हर घर में प्रति माह 300 मुफ्त यूनिट की घोषणा से राज्य सरकार के वार्षिक बिजली सब्सिडी बिल में लगभग 2,000 करोड़ रुपये का इजाफा होगा। उनकी घोषणा के साथ, बिल बढ़कर 6,000 करोड़ रुपये होने की उम्मीद है। कर्ज में डूबी पंजाब स्टेट पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (पीएसपीसीएल) को अपने थर्मल प्लांटों को चलाने के लिए आयातित कोयले की खरीद के लिए और भारी खर्च करना होगा, क्योंकि केंद्रीय बिजली मंत्रालय ने पंजाब और अन्य राज्यों को कोयला आयात करने की सलाह दी है। इतना सब कुछ होने पर भी पंजाब सरकार मुफ्त की बिजली देने से बाज नहीं आ रही। हां, उसका तो एक सूत्रीय कार्यक्रम है मोदी सरकार को घेरना। पंजाब या महाराष्ट्र सरकारें समझ लें कि अब दुनिया बदल गई है। देश जागरूक हो गया है। उसे पता है कि कौन सी सरकार कितनी जिम्मेदारी से अपने राज्य को चला रही है। अब आते हैं कोयले पर। तो यह बात सभी को मालूम है कि गर्मियों में बिजली की खपत काफी बढ़ जाती है, ऐसे में बिजली की कमी होना या कटौती होना कोई बड़ी बात या नई बात नहीं है। आज से कुछेक साल पहले तक हमने राजधानी में रोज कई-कई घंटे बिजली की कटौती देखी है। दिल्ली में बिजली संकट केंद्र में अटल बिहारी सरकार और दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकारों के समय खत्म होने लगा था। इस बीच, बिजली और कोयले के संकट के कोलाहल के बीच कोयले से लदी मालगाड़ी के 13 डिब्बों के पटरी से उतरने की खबर भी वास्तव में बहुत गंभीर है। यह घटना बीती 30 अप्रैल की है। रेलवे के सबसे बिजी मार्गों में से एक दिल्ली-हावड़ा रेल मार्ग पर इटावा जिले में ये हादसा हुआ। रेलवे को इस हादसे की गहराई से छानबीन करनी होगी कि डेडिकेटेड फ्राइट रूट पर कोयले से लदी मालगाड़ी के डिब्बे पटरी से कैसे उतर गए। इस तरह की घटना पहले तो कभी नहीं हुई। इस हादसे के कारण डिब्बों में रखा कोयला पटरियों में बिखर गया और कई पटरियां टूट गईं। याद नहीं आता कि इससे पहले कभी डेडिकेटेड फ्राइट रूट पर इस तरह का हादसा हुआ हो। गौर करें कि रेलवे ने बिजली की बढ़ती खपत और कोयले की कमी को देखते हुए अगले एक महीने तक 670 पैसेंजर ट्रेनों को रद्द कर दिया है। साथ ही कोयला से लदी मालगाड़ियों की औसत संख्या भी बढ़ा दी गई है। तब यह रेल हादसा एक बड़ी साजिश की तरफ भी संकेत करता है। केंद्र सरकार सारे सार्थक प्रयास कर रही है। लेकिन, बोलने वाले तो बोलने से बाज नहीं आएंगे। (लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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आर.के. सिन्हा एक अजीब-सी मानसिकता हमारे देश में बन गई कि हम किसी भी क्षेत्र के कुछेक लोगों की प्रशंसा करके इतिश्री कर लेते हैं। यही स्थिति बिजनेस की दुनिया के लिए भी कही जाएगी। कुछ ज्ञानी और गुणी लोग रतन टाटा, एन. नारायण मूर्ति, अजीम प्रेमजी, मुकेश अंबानी वगैरह की बात करके सोचने लगते हैं कि इससे आगे की चर्चा व्यर्थ है। ये ही हमारे कॉरपोरेट संसार की सबसे श्रेष्ठ हस्तियां हैं। इसी सोच के कारण वे पृथ्वीराज सिंह ओबराय (पीआरएस) का नाम लेना या उनकी चर्चा करना भूल जाते हैं। उन्हें ‘बिक्की ओबेरॉय’ के नाम से भी जाना जाता है। भारत के होटल सेक्टर में लक्जरी लाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। उन्होंने लगभग 93 साल की उम्र में ओबराय होटल ग्रुप के चेयरमैन का पद छोड़ दिया। कहना होगा कि भारत तथा भारत से बाहर विश्वस्तरीय ओबराय होटलों के चलते ही ओबराय तथा भारत की इमेज उजली हुई। किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि आर्थिक उदारीकरण से पहले के दौर में भारत के टाटा, गोदरेज, महिन्द्रा तथा ओबराय जैसे ब्रांड ही देश से बाहर जाने जाते थे। भारत आने वाले विदेशी व्यापारी और पर्यटक मुंबई के ओबराय ट्राइडेंट तथा दिल्ली के ओबराय इंटरकांटिनेंटल पर जान निसार करते हैं। इन दोनों को बिक्की ओबेराय ने अपने हाथों से बनाया था। इसकी योजना बनाने से लेकर इसे शुरू करने तक वे इससे जुड़े रहे थे। वे सारे फैसले खुद लेकर अपने पिता सरदार मोहन सिंह ओबराय को बता भर देते थे। पीआरएस ओबराय के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने पिता को इस बात के लिये तैयार किया था कि वे दिल्ली में भी एक होटल और खोलें। हालांकि तब तक ओबराय ग्रुप का ओबराय मेडिंस होटल चल रहा था। यह 1960 के दशक के शुरू की बातें हैं। तब दिल्ली में लक्जरी होटल के नाम पर अशोक होटल तथा इंपीरियल होटल ही कायदे के होटल थे। ओबराय पिता-पुत्र ने दिल्ली के अपने होटल के लिए जमीन ली ड़ॉ. जाकिर हुसैन रोड पर। यह जगह दिल्ली गोल्फ क्लब से सटी है। पीआरएस ओबराय ने इसके डिजाइन का काम सौंपा पीलू मोदी को। हालांकि उनके पास देश-दुनिया के तमाम आर्किटेक्ट अपने डिजाइन लेकर आए थे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के बाल सखा और टाटा अध्यक्ष रूसी मोदी के बड़े भाई पीलू मोदी सियासी शख्सियत होने के साथ-साथ प्रयोगधर्मी आर्किटेक्ट भी थे। उन्होंने इसका शानदार डिजाइन बनाया। यह 1965 में शुरू हुआ। भारत में लक्जरी होटल की जब भी बात होती है, तो ओबराय इंटरकांटिनेंटल होटल का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। ओबराय इंटरकांटिनेंटल से पहले राजधानी में कायदे का स्तरीय सिर्फ अशोक होटल ही था। यह अक्तूबर,1956 में शुरू हो गया था। इसमें उसी साल यूनिस्को सम्मेलन में भाग लेने आए दुनियाभर के प्रतिनिधियों को ठहराया गया था। गुजरे साढ़े छह दशकों के दौरान अशोक होटल को सैकड़ों राष्ट्राध्यक्षों और नामवर शख्सियतों की मेजबानी का मौका मिला। इसकी भव्यता भी लाजवाब है। पीआरएस ओबराय विश्व नागरिक होने के बावजूद दिल से हिन्दुस्तानी हैं। उनकी इस सोच के चलते सभी ओबराय होटलों में आने वाले गेस्ट का होटल स्टाफ नमस्कार करके ही स्वागत करते हैं। वे मानते रहे हैं कि नमस्कार ही भारत की पहचान है। जब कोई ओबराय होटल में आए तो उसे पता चले कि इस होटल का संबंध भारत से है। देखिए, आपने पीआरएस ओबराय का नाम कभी किसी विवाद में नहीं सुना होगा। यह सामान्य बात नहीं है। बिजनेस की दुनिया में रहते हुए लोग कुछ न कुछ गड़बड़ कर ही देते हैं। टैक्स चोरी के केस तो सामान्य रूप से सामने आ ही जाते हैं। पर ओबराय होटल पर कभी इस तरह के आरोप नहीं लगे। इससे पीआरएस ओबराय यह साबित करते हैं कि आप ईमानदारी से भी आगे बढ़ सकते हैं। पीआरएस ओबराय बहुत आहत हुए थे जब उनके प्रिय ट्राइडेंट होटल को मुंबई में हुए 26/11 के हमलों में तबाह कर दिया गया था। वहां पाकिस्तानी आतंकिय़ों ने दर्जनों बेगुनाहों को मार डाला था। पीआरएस ओबराय दुखी थे पर वे दुनिया को संदेश देना चाहते थे कि वे और भारत राख के ढेर पर से भी उठना जानते हैं। तब उनकी सरपरस्ती में ओबराय ट्राइडेंट होटल का नए सिर से रेनोवेशन हुआ। वे कई महीनों के लिये दिल्ली से मुंबई चले गए थे। उन्होंने दिल खोलकर पैसा लगाय़ा। यानी पीआरएस ओबराय ने इसे राख के ढेर से फिर खड़ा किया। एक बात और जान लें कि भारत में एक से बढ़कर एक सैकड़ों की गिनती में उद्योगपति हैं। पर पीआरएस ओबराय सबसे अलग हैं। वे जानते हैं कि अपने ब्रांड को कैसे बाजार में सम्मान दिलवाया जाता है। वे होटल इंडस्ट्री के भीष्म पितामह हैं। वे 1988 में ओबराय होटल के चेयरमैन बने थे। उनसे पहले उनके पिता मोहन सिंह ने ही ओबराय होटल ग्रुप की कमान संभाल रखी थी। वे अपने पिता के जीवनकाल में ही अपने ग्रुप के लिए अहम फैसले लेने लगे थे। वे भविष्य द्रष्टा किस्म के इंसान हैं। उन्हें ईश्वर ने यह शक्ति दी कि वे जान लें किस शहर या देश में इनवेस्ट करने से लाभ होगा। उन्होंने करीब दस साल पहले गुरुग्राम में अपना होटल खोला। उसमें तगड़ा इनवेस्टमेंट किया। तब कुछ लोग दबी जुबान से कह रहे थे कि उनकी गुरुग्राम की इनवेस्टमेंट का लाभ नहीं होगा। पर वे सब गलत साबित हुए। पिछले दस साल में गुरुग्राम बदल गया है। अब यह शहर आईटी हब बन गया है। यहां हजारों विदेशी रहते हैं और आते-जाते हैं। इनका गुरुग्राम का होटल धड़ल्ले से चल रहा है। दरअसल शिखर पर बैठे शख्स से यही उम्मीद रहती है कि वह भविष्य की संभावनाओं को जान ले। इस लिहाज से पीआरएस ओबराय लाजवाब हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि वयोवृद्ध पीआरएस ओबराय आगे भी भारत के कॉरपोरेट संसार के लिए प्रेरणा बने रहेंगे। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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गिरीश्वर मिश्र आए दिन यह तर्क किसी न किसी कोने से तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग पेश करता रहता है कि भारत की विविधता की अनदेखी हो रही है। वह बड़े निश्चय के साथ अपना सुचिंतित संदेह कुछ इस तरह से व्यक्त करता है मानो ‘भारत’ कोई एकल रचना न थी, न है और न उसे होना चाहिए। इस तरह की सोच की प्रेरणाएँ विभिन्न अवसरों पर उभार लेती रहती हैं और भारत की अंतर्निहित स्वाभाविक एकता को संदिग्ध बना कर उसे प्रश्नांकित करने की चेष्टा करती रहती हैं। भारत की विविधता ही उसका स्वभाव है, ऐसा रेखांकित करते हुए और उसी का बखान करते हुए एकता की समस्या खड़ी की जाती है और उसको पैदा करने की संभावना तलाशी जाती है । इस तरह की स्थापना के लिए भाषा, धर्म, जाति, रंग, वेश-भूषा, खान-पान, क्षेत्र और प्रथा आदि को दिखाया जाता है। नाना प्रकार की विविधताओँ को विशदता से पहचनवाते हुए भारत एक विविधता का नाम है, यह प्रतिपादित करते हैं। यह सच है कि दृश्य जगत में मिलने वाली विविधता की कोई सीमा नहीं है और न हो ही सकती है। हम सभी देखते हैं क़ि प्रत्येक विविधता से कुछ और विविधताएँ भी पैदा होती रहती हैं। विविधताओं का विस्तार हर किसी का प्रत्यक्ष अनुभव है। हम अक्सर पाते हैं कि एक ही माता-पिता की अनेक संतानें होती हैं जो स्वभाव और रंग-रूप आदि विशेषताओं में एक-दूसरे से भिन्न भी होती हैं। यहाँ तक कि जुड़वां बच्चों में भी अंतर पाए जाते हैं पर उस भिन्नता से माता-पिता से उनका निरंतर सम्बन्ध कमतर या असंगत नहीं हो जाता। इस सामान्य अनुभव को किनारे रख भारत की एकता को नक़ली और प्रायोजित घोषित करते हुए विविधता के शास्त्र को बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ाने में हमारे प्रगतिशील विचारक महानुभाव सतही जानकारियों का अम्बार लगाते हुए विविधताओं की नई-नई क़िस्में खड़ी करते नहीं थकते। उनका स्थायी भाव यही रहता है कि विविधता प्राणदायी है और उसकी हर क़ीमत पर रक्षा की जानी चाहिए (विविधता बची रहेगी तो एकता आ ही जायगी!) । विविधता का उत्सव मनाते हुए इन विशेषज्ञों को विविधता ही मूल लगती है इसलिए वे विखंडन में ही भविष्य देखते हैं। वे यह यह भूल जाते हैं कि विविधता भी किसी एकता के सापेक्ष ही हो सकती है और सोची-समझी जा सकती है। यदि मूल का उच्छेदन करते हुए सिर्फ प्रकट विविधता पर ही ध्यान देते रहेंगे तो सत्य का केवल आंशिक और अधूरा परिचय होगा और गलत निष्कर्ष पर पहुंचा जायगा। इस अधकचरे ज्ञान से उपजने वाली विखंडन की प्रक्रिया आत्मघाती हो जाती है। इस तरह की सोच में बिना पूर्वापर का विचार किए किसी एक मूल से पैदा होने वाली हर नई इकाई एक-दूसरे से स्वतंत्र हो जाती है और अन्य इकाइयों से प्रतिस्पर्धा में द्वन्द करती खड़ी होती है। यह बात आसानी से देखी जा सकती है कि इस तरह की विखंडनकारी परियोजनाओं की तार्किक परिणति प्रायः हिंसा में घटित होती दिखाई पड़ती है। यह तो जड़ को काटने या उखाड़ने जैसी बात लगती है जिसके फलस्वरूप पूरे वृक्ष की सभी शाखा-प्रशाखाएँ निर्जीव या परोपजीवी हो जाएँगी। भारत को स्वभावत: बिखरा हुआ और परस्पर असम्बन्धित देखने की प्रवृत्ति भारत के की प्रकृति, इतिहास और संरचना के सत्य को अनदेखी करती है। वास्तविकता यह है कि भारत की विविधताएँ ख़तरे में हैं, इसका नारा देते हुए विविधताओं का उपयोग सिर्फ़ अपने सीमित अहंकार की पुष्टि और तात्कालिक हितों की तुष्टि के लिए ही किया जाता है। इस युक्ति का उपयोग करते समय यह भुला दिया जाता है कि भारत की मौलिक एकता और राष्ट्र के साथ रागात्मक सम्बंध की अनुगूँज ऋग्वेद से आरंभ होकर रामायण, महाभारत, विष्णु पुराण आदि से होते हुए रवि ठाकुर, सुब्रह्मन्य भारती, मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर समेत अन्यान्य रचनाकारों तक विस्तृत होता आ रहा है। सहृदयता के साथ सौमनस्य का स्वीकार और प्रसार का लक्ष्य समरसता और पारस्परिक निकटता की भावना से ही संभव हो पाता है। यह पृथ्वी नाना धर्म वालों और विविध भाषाओं को बोलने वालों का भरण-पोषण करती है । इसी अर्थ में भूमि माता है । देवता और मनुष्य भिन्न होते हुए भी परस्पर एक दूसरे पर निर्भर माने गए हैं , यहाँ तक कि भक्त जितना भगवान पर निर्भर होता है उतना ही भगवान भी भक्त पर निर्भर होते हैं । यही सोच कर यह आकांक्षा बार-बार की जाती रही कि विविधवर्णी समाज में बुद्धि, हृदय और मन सभी समान हों। साथ चलने, साथ बोलने और साथ मन बनाने पर बल दिया जाता रहा। भिन्नता तो है पर भिन्नताओं के बीच पारस्परिकता और परस्पर निर्भरता भी है। भिन्नता है पर उसका अतिक्रमण करते हुए जीना उद्देश्य है। इसीलिए भारतीय मन सारी वसुधा को ही कुटुम्ब मान कर आगे बढ़ता है। जो भारत में जन्मा है उसकी भारतीयता भारत की विविधता को उसकी समृद्धि को बढ़ाती है । यह अकारण नहीं है कि हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख जैसे भारत के सभी धर्म अहिंसा पर बल देते हैं जो दूसरों को मिटा कर नहीं उनसे मन मिला कर साथ रहने के मार्ग ढूढते हैं । इतिहास साक्षी है कि वे अन्य धर्मावलम्बियों की तरह आक्रान्ता कभी नहीं रहे और कभी उपनिवेश नहीं बनाया न किसी समुदाय पर जुल्म ढाए। इस प्रसंग में भारत विद्या के प्रख्यात अध्येता आनंद कुमारस्वामी स्मरण आते हैं जिनके शब्दों में भारत की विश्व को सबसे बड़ी देन उसकी भारतीयता है। फिर भारतीयता की व्याख्या करते हुए वे एक सूत्र बताते हैं कि इस देश की प्रतिज्ञा है कि एक तत्व की प्रधानता और उसकी बहुलता वाली अभिव्यक्ति- एकोहं बहुस्याम और उस एक तत्व तक कई मार्गों से पहुंचा जा सकता है - एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति। एकता से विविधता ज़रूर पैदा होती है पर एकता ही मूल में है। जड़ और चेतन सब में एक तत्व की प्रधानता देखना यहाँ की चिंतन-शैली की प्रमुख विशेषता है। इस एकता की पराकाष्ठा ब्रह्मन की अवधारणा में होती है जो स्वयं अपने से सृष्टि करता है, वैसे ही जैसे मकड़ी स्वयं अपना जाल बुनती-बनाती है। बीज एक होता है और उससे वृक्ष पैदा होता है जिसमें विकसित होने पर अनेक फल लगते हैं । इन फलों में नए बीज पैदा होते हैं और यह क्रम अनवरत चलता है । बीज अपना मूल अस्तित्व खो कर नया रूप पाता है । अक्सर बीज वृक्ष या पौधे की जड़ का रूप ले लेता है जो वृक्ष को धरती से जोड़ कर वृक्ष को जीवन रस देते रहने का काम करता रहता है । कोई खोजे तो बीज का कोई नामों-निशान नहीं पाएगा पर बिना वीज के वृक्ष की कल्पना भी नहीं की जा सकती । बीज अपने रूपान्तर से नए को जन्म देता है और वृक्ष के तने, डालों, पत्तों, फूलों और फलों में रूप बदल कर मौजूद रहता है । रूपांतर नाश नहीं होता है और पृथकता नहीं योग से ही कोई रचना परिपूर्णता को प्राप्त करती है । मैं पृथक नहीं और दूसरा भी मुझसे पृथक नहीं ऐसा विश्वास और अनुभव होना चाहिए। किस तरह भिन्न अवयव मूल की प्रकृति से मिला रहता है यह पहचानना जरूरी है । समष्टि और व्यष्टि कि आँख-मिचौनी कई कई रूपों में चलती रहती है और व्यष्टि की सार्थकता समष्टि के अवयव के रूप में होती है। किसी भी कपड़े में कई-कई धागे मौजूद होते हैं पर अलग-अलग धागों को एक जगह रखने से कपड़ा नहीं बनता। दूसरी ओर एक ही तत्व के विभिन्न गुण पृथकता का अनुभव देते हैं जैसा क़ि हमारे शरीर के सारे अंग प्रत्यंग अलग-अलग कार्य करते हैं और मिल कर एक सत्ता का निर्माण करते हैं । विविधताओं का संजाल परस्पर मिला हुआ है और एक रचना का निर्माण करता है। इस तरह पार्थक्य केंद्रीय नहीं है। उसकी जगह सब मिल कर संयुक्त रूप में जो पूर्णता का अहसास कराते हैं वह महत्वपूर्ण है। आज पूरे देश की बात विस्मृत सी हो रही है जब कि इसके निर्माण पूरे भारत के लोगों ने एक समग्र सत्ता के बोध के साथ जुड़े थे और देश के स्वतंत्रता-संग्राम में बलिदान किया था । स्वतंत्रता के यज्ञ में आहुति देने वाले वीर पूरब, पच्छिम, उत्तर, और दक्षिण हर ओर से आए थे। वे हर धर्म और जाति के थे और देश के साथ उनका लगाव उन्हें जोड़ रहा था। उनके सपनों का भारत एक समग्र रचना है। यह इसलिए भी जरूरी है कि हम उनका भरोसा न तोड़ें और उनकी विरासत को साझा करें। उपनिवेश काल में जो छवि गढ़ी गई छवि से आगे बढ़ते हुए अपने समष्टिगत स्वरूप को पहचानने की जरूरत है। एक स्वायत्त राष्ट्र की चेतना वाला एक भारत ही श्रेष्ठ भारत होगा। (लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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योगेश कुमार सोनी दिल्ली के अधिकतर इलाकों में बहुत गंदा पानी आ रहा है। इसके अलावा पानी जरूरत के हिसाब से भी नहीं मिल रहा। शिकायत करने पर दिल्ली सरकार व विभाग ने हाथ खड़े कर दिये। मामला संज्ञान में आने के बाद दिल्ली सरकार के मंत्री इस मामले पर गंभीरता नहीं दिखा रहे। वहीं दिल्ली जल बोर्ड के अधिकारियों का कहना हम हर स्तर पर जितना बेहतर कर सकते हैं वो कर रहे हैं लेकिन सवाल यह है कि आखिर नलों से पानी के साथ गटर का पानी आ रहा है तो वह कैसे पिया जाए। स्थिति यह है कि पानी को तीन-चार बार फिल्टर करके पीने लायक बनाने का प्रयास किया जा रहा है लेकिन उससे भी बदबू व कालापन नहीं जा रहा है। लोग गंदा पानी पीकर बीमार पड़ रहे हैं। अस्पताल प्रशासन का कहना है कि यह बेहद आश्चर्य की बात है कि एक ही तरह की बीमारी के लोग लगातार आ रहे हैं। इस मामले में विपक्ष का कहना है कि दिल्ली सरकार ने फ्री बिजली व पानी के नाम पर लूटा है और लोगों को पानी के नाम पर जहर दिया जा रहा है। केजरीवाल एंड कंपनी जितनी बड़ी-बड़ी बातें करती है यदि उसका दो प्रतिशत भी काम कर ले तो राजधानी की हालात सुधर सकती है। यदि उन स्लम कॉलोनियों पर गौर करें जहां पाइप लाइन में पानी नहीं आता, वहां टैंक में आता है, वहां पानी पर लोग ऐसे लड़ते हैं मानो खजाना लुट रहा हो चूंकि जितना पानी आता है उससे चालीस प्रतिशत लोगों की ही पूर्ति होती है। बीजेपी विधायक जितेन्द्र महाजन का कहना है कि ‘कई बार व्यक्तिगत तौर पर भी दिल्ली सरकार व दिल्ली जल बोर्ड के चीफ इंजीनियर को अवगत कराने के बावजूद टाल दिया जाता है।‘ आश्चर्य तो इस बात का है कि यह देश की राजधानी की स्थिति है। इस मामले पर अब बीजेपी जगह-जगह प्रदर्शन भी कर रही है लेकिन हल निकलता नजर नहीं आ रहा। केजरीवाल सरकार दिल्ली मॉडल के गुणगान ऐसी करती है जैसे पेरिस बना दिया गया हो। पानी जैसी चीज जो जिंदगी की पर्यायवाची है, यदि वो भी न मिले तो ऐसी राजनीति से परहेज करना चाहिये। बच्चे, बूढ़े व गर्भवती महिलाओं को गंदा पानी पीने से बहुत समस्या हो रही है। गंदा पानी पीकर जिस तरह लोग बीमार पड़ रहे हैं, इस मामले पर चिकित्सकों का कहना है यदि कोरोना आ गया तो सबसे पहले इन लोगों को अपनी चपेट में ले लेगा चूंकि पानी इतना गंदा है कि लोगों की आंतरिक शक्ति बहुत कमजोर पड़ रही है। जो पानी कई बार फिल्टर करके भी अपना रंग व स्वाद नहीं बदल रहा तो स्पष्ट तौर पर समझने की बात यह है कि यह जहर के समान ही माना जाएगा। केजरीवाल सरकार इस समय दिल्ली की जनता से खुलेआम खिलवाड़ कर रही है। केजरीवाल अजीब शैली की राजनीति करते हैं। अपनी कमी या गलती कभी नहीं मानते। अच्छा किया तो दिल्ली सरकार ने और बुरा किया तो केन्द्र सरकार ने। कभी भी, कहीं भी बिना किसी तथ्यों के कुछ भी बोल देते हैं। बहरहाल, जनता से जुड़े बुनियादी मामलों का ख्याल रखना होगा अन्यथा यह पब्लिक जैसे सिर पर चढाती, उससे भी बुरी तरह उतार देती है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. दिलीप अग्निहोत्री प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी यूरोप यात्रा के दौरान राष्ट्रीय हितों का संरक्षण-संवर्धन करने में सफल रहे। उनकी यह यात्रा संवेदनशील परिस्थितियों में हुई। यूक्रेन-रूस के बीच युद्ध चल रहा है। अमेरिका और यूरोपीय देशों के साथ नाटो के सदस्य देश रूस के खिलाफ हैं। दूसरी तरफ भारत व रूस के बीच आपसी सहयोग जारी है। यूरोपीय देशों की यात्रा पर रहे नरेन्द्र मोदी के लिए यह स्थिति काफी चुनौतीपूर्ण थी। उनके सामने रूस से संबंध ठीक रखते हुए यूरोपीय देशों से साझेदारी बढ़ाने की मुश्किल चुनौती थी। नरेन्द्र मोदी ने यूरोप यात्रा में अपनी कुशलता का परिचय दिया। बहुत संतुलित तरीके से स्थिति को संभाले रखा। पूरी यात्रा में वह सहज रहे। मोदी ने सभी समस्याओं के समाधान में वार्ता के महत्व को रेखांकित किया। कहा कि युद्ध से किसी समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता। मोदी की कूटनीतिक कुशलता कामयाब रही। जर्मनी व डेनमार्क के साथ कई समझौते हुए। डेनमार्क में मोदी की कई अन्य देशों के साथ द्विपक्षीय व क्षेत्रीय मसलों पर वार्ता हुई। नरेन्द्र मोदी भारत नॉर्डिक शिखर सम्मेलन में सहभागी हुए। उनकी आइसलैंड की प्रधानमंत्री कैटरीन जैकोब्स्दोतिर, नॉर्वे के प्रधानमंत्री जोनास गहर स्टोर, स्वीडन की प्रधानमंत्री मैग्डेलेना एंडरसन और फिनलैंड की प्रधानमंत्री सना मारिन के साथ द्विपक्षीय वार्ता भी हुई। नॉर्वे के प्रधानमंत्री जोनास गहर स्टोर से मुलाकात के दौरान दोनों प्रधानमंत्रियों ने द्विपक्षीय संबंधों में चल रही गतिविधियों की समीक्षा की और आपसी सहयोग बढ़ाने पर सहमति बनी। दोनों नेताओं ने ब्लू इकोनॉमी, नवीकरणीय ऊर्जा, हरित हाइड्रोजन, सौर और पवन परियोजनाओं हरित शिपिंग, मत्स्य पालन, जल प्रबंधन, वर्षा जल संचयन, अंतरिक्ष सहयोग, दीर्घकालिक अवसंरचना निवेश, स्वास्थ्य और संस्कृति जैसे क्षेत्रों में जुड़ाव को मजूबत करने की क्षमता पर चर्चा की। इस दौरान क्षेत्रीय और वैश्विक घटनाक्रम पर भी चर्चा हुई। यूएनएससी के सदस्य के रूप में भारत और नॉर्वे संयुक्त राष्ट्र में पारस्परिक हित के वैश्विक मुद्दों पर एक-दूसरे के साथ जुड़ते रहे हैं। स्वीडन की प्रधानमंत्री मैग्डेलेना एंडरसन से मुलाकात के दौरान दोनों नेताओं ने द्विपक्षीय साझेदारी में हुई प्रगति की समीक्षा की। उन्होंने लीड आईटी पहल द्वारा की गई प्रगति पर भी संतोष व्यक्त किया। यह कम कार्बन अर्थव्यवस्था की ओर दुनिया के सबसे भारी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक उद्योगों का मार्गदर्शन करने में मदद करने के लिए संयुक्त राष्ट्र जलवायु कार्रवाई शिखर सम्मेलन में उद्योग संक्रमण पर एक नेतृत्व समूह लीड आईटी स्थापित करने के लिए भारत-स्वीडन की संयुक्त वैश्विक पहल थी। इसकी सदस्यता अब सोलह देशों और उन्नीस कंपनियों से बढ़कर पैंतीस हो गई है। दोनों नेताओं ने नवाचार, जलवायु प्रौद्योगिकी, जलवायु कार्रवाई, हरित हाइड्रोजन, अंतरिक्ष, रक्षा, नागरिक उड्डयन, आर्कटिक, ध्रुवीय अनुसंधान, सतत खनन और व्यापार और आर्थिक संबंधों जैसे क्षेत्रों में सहयोग को मजबूत करने की संभावनाओं पर भी चर्चा की। आइसलैंड की प्रधानमंत्री कैटरीन जैकोब्स्दोतिर से मुलाकात के दौरान दोनों नेताओं ने विशेष रूप से भूतापीय ऊर्जा, नीली अर्थव्यवस्था, आर्कटिक, नवीकरणीय ऊर्जा, मत्स्य पालन, खाद्य प्रसंस्करण, डिजिटल विश्वविद्यालयों सहित शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्रों में आर्थिक सहयोग और मजबूत करने के तरीकों पर चर्चा की। भूतापीय ऊर्जा, विशेष रूप से, एक ऐसा क्षेत्र है जहां आइसलैंड की खास विशेषज्ञता है और दोनों पक्षों ने इस क्षेत्र में दोनों देशों के विश्वविद्यालयों के बीच सहयोग पर जोर दिया। प्रधानमंत्री ने लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए प्रधानमंत्री जैकोब्स्दोतिर के व्यक्तिगत प्रयासों की सराहना की और उन्हें इस संबंध में भारत की प्रगति के बारे में जानकारी दी। क्षेत्रीय और वैश्विक विकास पर भी चर्चा हुई। फिनलैंड की प्रधानमंत्री सना मारिन के साथ बातचीत में दोनों नेताओं ने व्यापार, निवेश, प्रौद्योगिकी और ऐसे अन्य क्षेत्रों में इस साझेदारी को और मजबूत करने के तरीकों पर चर्चा की। भारत और फिनलैंड के बीच विकासात्मक साझेदारी तेजी से बढ़ रही है। दूसरी तरफ भारत व रूस का सहयोग भी आगे बढ़ा है। यूक्रेन से युद्ध के बीच रूस ने भारतीय वायु सेना को अत्याधुनिक एस-400 मिसाइल डिफेन्स सिस्टम की तीसरी खेप अगले महीने देने का निर्णय लिया। रूस ने यूक्रेन संघर्ष के बीच पिछले माह इसकी दूसरी खेप दी थी। रूस से मिला पहला मिसाइल डिफेन्स सिस्टम पंजाब सेक्टर में तैनात किया गया है। भारत के रक्षा बेड़े में शामिल हो रहे इस रूसी मिसाइल डिफेन्स सिस्टम से पूरी दुनिया खौफ खाती है। सतह से हवा में लंबी दूरी तक मार करने वाले इस मिसाइल डिफेंस सिस्टम की भारत को आपूर्ति होने से चीन और पाकिस्तान की परेशानी बढ़ गई है। भारतीय वायुसेना को एस-400 ट्रायम्फ मिसाइल की कुल पांच रेजिमेंट आगामी वर्ष तक मिलनी हैं। इसके अलावा मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत के तहत स्वदेशी हथियारों के निर्माण में लगने वाले उपकरणों और हथियारों की आपूर्ति में कोई कठिनाई नहीं होगी। भारतीय वायुसेना को अगले महीने रूस से तीसरा एस-400 स्क्वाड्रन हासिल होने वाला है। यह मिसाइल सिस्टम एक साथ मल्टी टारगेट को निशाना बनाकर दुश्मन के लड़ाकू विमान, हेलीकॉप्टर और यूएवी को नष्ट कर सकते हैं। इस मिसाइल सिस्टम की दूरी करीब चार सौ किलोमीटर है। यह एंटी बैलिस्टिक मिसाइल आवाज की गति से भी तेज रफ्तार से हमला कर सकती है। भारत-नॉर्डिक शिखर सम्मेलन में चर्चा तीन विषयों कोविड के बाद बहुपक्षीय सहयोग, जलवायु व सतत विकास और नीली अर्थव्यवस्था तथा नवाचार पर केंद्रित रही। इसके अलावा स्वच्छ और हरित विकास समाधान, नॉर्डिक देशों में कौशल क्षमताओं को भारत की संभावनाओं से जोड़ने और नई अभिनव साझेदारी बनाने की आवश्यकता पर भी चर्चा हुई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत की विकास और आर्थिक विकास की यात्रा के पिछले पचहत्तर वर्षों में नॉर्डिक देशों की विश्वसनीय भागीदारी का सराहना की। उन्होंने कहा कि नॉर्डिक देश और भारत स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक मूल्यों और नियम आधारित व्यवस्था और विभिन्न वैश्विक मामलों पर साझा दृष्टिकोण रखते हैं। उन्होंने कहा कि भारत-नॉर्डिक शिखर सम्मेलन इस क्षेत्र के साथ भारत के संबंधों को बढ़ावा देने में एक लंबा सफर तय करेगा। हमारे देश मिलकर बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं और वैश्विक समृद्धि और सतत विकास में योगदान कर सकते हैं। स्टॉकहोम में आयोजित शिखर सम्मेलन में चार वर्ष पूर्व पहली बार भारत एक मंच पर समूह के रूप में नॉर्डिक देशों के साथ जुड़ा था। यूरोप यात्रा के तीसरे चरण में नरेंद्र मोदी फ्रांस पहुंचे। भारत और फ्रांस के संबंध बहुत मजबूत है। वह भारत के सबसे मजबूत साझेदारों में से एक है। दोनों देश अनेक क्षेत्रों में परस्पर सहयोग कर रहे हैं। फ्रांस में कुछ समय पहले आम चुनाव हुए हैं। इसमें राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों को पुनः बहुमत मिला है। नरेंद्र मोदी और इमेनुएल मैक्रो के बीच बेहतर आपसी समझ है। इससे भी भारत फ्रांस की रणनीतिक साझेदारी आगे बढ़ रही है। इसके पहले नरेन्द्र मोदी जर्मनी और डेनमार्क की यात्रा गए थे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा कोरोना के साइड इफेक्ट के साथ सबसे बड़ा साइड इफेक्ट अब खाने की थाली पर दिखाई देने लगा है। हालांकि देश-दुनिया मेें खाद्यान्नों के उत्पादन में बढ़ोतरी ही हुई है पर कोरोना और उसके बाद दुनिया के देशों में युद्ध और तनाव के हालात ने कोढ़ में खाज का काम किया है। दरअसल कोरोना के कारण सबकुछ थम जाने के बाद दुनिया के देशों ने जिस ओर सबसे अधिक ध्यान दिया है, वह कोरोना के कारण ठप हुई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का प्रयास है। इसे अच्छा प्रयास भी माना जा सकता है क्योंकि आर्थिक गतिविधियों को पटरी पर लाना इसलिए आवश्यक है कि विकास और रोजगार की गति उसी पर निर्भर है। यह दूसरी बात है कि संकट के इस दौर में जहां दुनिया के देशों को अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाते हुए रोजगार बढ़ाने के समन्वित प्रयास करने चाहिए थे वहीं पहले अफगान और अब रूस-यूक्रेन युद्ध की त्रासदी में फंस कर रह गए हैं। दुनिया अभी महामारी की त्रासदी से निपट भी नहीं पाई है कि रूस-यूक्रेन युद्ध दुनिया के देशों को दो खेमों में बांट कर रख दिया है। दुनिया के देश कोरोना के कारण आई समस्याओं से निपटने के स्थान पर एक-दूसरे की टांग खिंचाई में उलझ कर रह गए हैं। देखा जाए तो दुनिया के देशों में तनाव के कारण कच्चे तेल के भावों में जिस तरह से तेजी आई है और इस तेजी को रोकने के लिए जो प्रयास होने चाहिए थे उन्हें नजरअंदाज किया गया है। इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। आपसी खींचतान के चलते कच्चे तेल का उत्पादन और विपणन दोनों प्रभावित हुए हैं। पाम ऑयल का आयात-निर्यात प्रभावित हुआ है। तो युद्ध के कारण दुनिया के देशों में गेहूं-चावल आदि का कारोबार प्रभावित हुआ है। दुनिया के देशों की अर्थव्यवस्था को इन बिगड़े हालात ने हिला कर रख दिया है। यदि हमारे देश की बात करें तो कोरोना के पहले और बाद के हालात में बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है। पिछले कुछ माह से जब भी घरेलू जरूरत के सामान खरीदने जाते हैं तो पैकिंग पर हर बार बदली हुई रेट देखने को मिल रही है। जानकारों के अनुसार पिछले दो साल में खाद्य सामग्री की कीमतों में एक मोटे अनुमान के अनुसार 30 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी देखी जा रही है। खाद्य तेलों के भाव तो सारे रिकॉर्ड तोड़ चुके हैं तो दालों के भाव में भी तेजी देखी गई है। मसालों के भाव भी आसमान की ओर है तो डेयरी उत्पाद के भाव लगातार बढ़ रहे हैं। देखा जाए तो खाद्य तेल, दालें और सब्जियां गरीब की थाली से दूर होती जा रही है। दरअसल, अन्य कारणों के साथ पेट्रोल, डीजल, गैस की कीमतों ने बहुत कुछ बिगाड कर रख दिया है। पेट्रोलियम पदार्थों के भाव भले सरकारों की स्थाई रेवेन्यू का माध्यम हो पर इसका प्रभाव पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। वस्तुओं का परिवहन महंगा हो रहा है तो उसकी वसूली अंततोगत्वा आम आदमी से ही होनी हैै। ऐसे में भावों में बढ़ोतरी का अनवरत दौर जारी है। एक मोटे अनुमान के अनुसार गत दो सालों में खुदरा कीमतों में 6 प्रतिशत से भी अधिक की सालाना बढ़ोतरी रही है। सरकारों ने चाहे वह केन्द्र की हो या राज्यों की पेट्रोल-डीजल को आय का साधन बना लिया है। आए दिन पेट्रोल, डीजल, गैस के भावों में बढ़ोतरी हो रही है और इन पर करों का बोझ सीधे लोगों को प्रभावित कर रही है। यह भी सही है कि सरकार को इनसे निरंतर राजस्व मिल रहा है और अब सरकारों की रेवेन्यू का प्रमुख जरिया यह हो गया है। पर आखिर आम आदमी की दिक्कत और परेशानियों को भी समझना होगा। भारत ही नहीं दुनिया के देशों को समझना होगा कि खाने की थाली पर महंगाई की मार नहीं पड़नी चाहिए। आखिर नागरिकों को भरपेट भोजन नहीं मिलेगा तो एक समय ऐसा आएगा कि दूसरे मुद्दे नेपथ्य में चले जाएंगे। इसलिए समय रहते इस तरह की रणनीति तय करनी होगी। जिस तरह से पानी-बिजली व अन्य वादों को लेकर मुफ्तखोर बनाया जा रहा है उससे अच्छा तो यह हो कि खाद्य वस्तुओं पर राहत दी जाए। होना तो यह चाहिए कि अनाज, तेल, दालें, सब्जियां, गैस आदि पर महंगाई की मार नहीं पड़नी चाहिए। थाली को महंगाई की मार से बचाने की ठोस योजना बनानी होगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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योगेश कुमार गोयल भीषण गर्मी में बिजली की तेजी से बढ़ती मांग के कारण देश के कई राज्यों में बिजली की कमी का संकट गहरा रहा है। बिजली की मांग बढ़ने के साथ ही थर्मल पावर प्लांटों में कोयले की खपत तेजी से बढ़ी है और इसी कारण कुछ राज्यों के बिजली संयंत्रों में कोयले का स्टॉक घट रहा है। दरअसल गर्मी के कारण कई बिजली कंपनियों में बिजली की मांग में वृद्धि हुई है और जैसे-जैसे गर्मी बढ़ रही है, बिजली की मांग में भी उसी तेजी से वृद्धि हो रही है। कोरोना लॉकडाउन के बाद बड़ी मुश्किल से पटरी पर लौट रही औद्योगिक गतिविधियों के कारण उद्योगों में भी बिजली की खपत बढ़ी है, इससे भी बिजली की मांग बढ़ रही है लेकिन मांग के अनुरूप पावर प्लांटों में कोयले का स्टॉक नहीं है। कोयले की कमी के संकट को लेकर कोल इंडिया स्वीकार चुकी है कि गर्मी शुरू होने के साथ ही देश के बिजली संयंत्रों में कोयला भंडार नौ साल के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया था। हालांकि संघीय दिशा-निर्देशों के अनुसार बिजली संयंत्रों में कम से कम 24 दिनों का कोयला स्टॉक होना चाहिए। आंकड़े देखें तो महाराष्ट्र में करीब 28 हजार मेगावाट बिजली की मांग है, जो गत वर्ष के मुकाबले 4 हजार मेगावाट ज्यादा है। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना इत्यादि राज्य भी इस समय कोयले की किल्लत से जूझ रहे हैं, जिस कारण कुछ राज्यों में कुछ पावर प्लांटों में तो बिजली उत्पादन ठप हो गया है तो कुछ प्लांटों में बिजली उत्पादन अपेक्षाकृत कम हो पा रहा है। केन्द्रीय बिजली प्राधिकरण (सीईए) के मुताबिक देश में 173 बिजली संयंत्रों में से 155 गैर-पिथेड बिजली संयंत्र हैं, जहां पास में कोई कोयला खदान नहीं है और इनमें औसतन कोयले का करीब 28 फीसदी स्टॉक है जबकि कोयला खदानों के पास स्थित 18 पिथेड संयंत्रों का औसत स्टॉक सामान्य मांग का 81 फीसदी है। पिछले साल अक्तूबर माह में भी बिजली की मांग करीब एक फीसदी बढ़ जाने के कारण कोयला संकट के चलते बिजली संकट गहराया था और तब यह भी स्पष्ट हुआ था कि बिजली संयंत्रों को कोयले की वांछित आपूर्ति नहीं होने के अलावा कई नीतिगत खामियां भी बिजली संकट का प्रमुख कारण हैं। कोरोना काल से पहले अगस्त 2019 में देश में बिजली की खपत 106 बिलियन यूनिट थी, जो करीब 18 फीसदी बढ़ोतरी के साथ अगस्त 2021 में 124 बिलियन यूनिट दर्ज की गई। विशेषज्ञों का मानना है कि मार्च 2023 तक देश में बिजली की मांग में 15.2 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है, जिसे पूरा करने के लिए कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को उत्पादन में 17.6 फीसदी वृद्धि करनी होगी। देशभर में कुल बिजली उत्पादन का 70-75 फीसदी कोयला आधारित संयंत्रों से ही होता है और कोल इंडिया द्वारा रिकॉर्ड कोयला उत्पादन भी किया जा रहा है लेकिन फिर भी मांग और आपूर्ति का अंतर कम नहीं हो पा रहा है। देश में करीब 80 फीसदी कोयले का उत्पादन कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) द्वारा किया जाता है और उसने इस वित्त वर्ष में कोयला आपूर्ति को 4.6 फीसदी बढ़ाकर 565 मिलियन टन करने का लक्ष्य रखा है। कोल इंडिया का कहना है कि वैश्विक कोयले की कीमतों और माल ढुलाई लागत में वृद्धि से आयात होने वाले कोयले से बनने वाली बिजली में कमी आई है। केन्द्रीय कोयला मंत्री प्रहलाद जोशी के मुताबिक 2012-22 में देश में कुल कोयला उत्पादन 8.5 फीसदी बढ़कर 77.72 करोड़ टन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि यदि वाकई कोयले का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है तो फिर बिजली संयंत्र कोयले की भारी कमी से क्यों जूझ रहे हैं और यदि कोयले की कमी नहीं है तो बिजली उत्पादन में गिरावट क्यों आ रही है? बिजली संयंत्रों तक कोयला पहुंचाने के लिए रेलगाड़ियों की कमी भी बिजली संकट गहराने का कारण बनी है। कोयला खदानों से पावर प्लांटों तक कोयला पहुंचाने के लिए रेलवे में रैक (डिब्बों) की कमी एक अहम कारण रहा है। एक बड़ी समस्या यह भी है कि कोरोना महामारी के कारण कई राज्यों की वित्तीय स्थिति खस्ता हुई है, जिससे उनके स्वामित्व वाली बिजली वितरण कम्पनियां (डिस्कॉम) बिजली उत्पादन कम्पनियों को बकाया चुकाने की स्थिति में नहीं हैं। माना जा रहा है कि केन्द्र तथा कोयला बहुल गैर-भाजपा शासित सरकारों के बीच भुगतान को लेकर तनातनी और बिजली उत्पादन कम्पनियों द्वारा सीआईएल को अदायगी में देरी भी कोयला खनन में ठहराव आने का प्रमुख कारण है। विदेशों से कोयले का आयात बंद करने से भी समस्या गहराई है। दरअसल अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमतें काफी बढ़ी हैं और बिजली संयंत्रों द्वारा कोयले का आयात इसीलिए बंद या बहुत कम किया जा रहा है क्योंकि इससे उनकी उत्पादन लागत में काफी वृद्धि हो रही है। कोयले की बढ़ती मांग के कारण बिजली मंत्रालय द्वारा कोयले का आयात बढ़ाकर 36 मिलियन टन करने को कहा गया है। बहरहाल, कोयले की कमी से बार-बार उपजते बिजली संकट से निजात पाने के लिए बिजली कम्पनियों को भी कड़े कदम उठाने की दरकार है। दरअसल बिजली वितरण में तकनीकी गड़बडि़यों के कारण कुछ बिजली नष्ट हो जाती है। वितरण प्रणाली को दुरूस्त करके बेवजह नष्ट होने वाली इस बिजली को बचाया जा सकता है। इसके अलावा लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर चोरी की जाने वाली बिजली के मामले में भी सख्ती बरतते हुए निगरानी तंत्र विकसित करते हुए बिजली की चोरी पर अंकुश लगाना होगा। बिजली संकट से स्थायी राहत के लिए अब आवश्यकता इस बात की भी महसूस होने लगी है कि देश में कोयला आधारित बिजली संयंत्रों के बजाय प्रदूषण रहित सौर ऊर्जा परियोजनाओं, पनबिजली परियोजनाओं तथा परमाणु बिजली परियोजनाओं को बढ़ावा दिया जाए। इस वर्ष तक सौर ऊर्जा के जरिये 100 गीगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था लेकिन इस लक्ष्य को हासिल नहीं किए जा सकने के कारण भी बिजली की कमी का संकट बना है। सौर ऊर्जा क्षमता के मामले में भारत फिलहाल चीन, अमेरिका, जापान तथा जर्मनी के बाद दुनियाभर में पांचवें स्थान पर है और बिजली के समय-समय पर गहराते संकट से देश को निजात तभी मिलेगी, जब सौर ऊर्जा परियोजनाओं के जरिये लक्ष्यों को समय से हासिल किया जाए। घरों पर सौर ऊर्जा पैनल लगाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने हेतु आसान शर्तों पर ऋण तथा सब्सिडी देने की योजना के जरिये भी बिजली की मांग कुछ हद तक कम करने में मदद मिल सकती है। ऊर्जा की कमी को विश्व बैंक द्वारा किए गए एक अध्ययन में आर्थिक विकास में बाधक बताया जा चुका है। दरअसल बिजली के समय-समय पर गहराते संकट के कारण विभिन्न राज्यों में आम नागरिकों की ही परेशानियां नहीं बढ़ती बल्कि बिजली की कमी से देश की अर्थव्यवस्था पर भी काफी बुरा असर पड़ता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. रमेश ठाकुर बीते ढाई महीनों में यूरोप के कई प्रमुख नेताओं का भारत आना और उनका हमारे प्रधानमंत्री को अपने यहां आने का आमंत्रण देकर बुलवाना, बताता है कि भारत की विश्व बिरादरी में अब क्या अहमियत है। ग्लोबल मार्केट पर भारत आज क्या मायने रखता है, शायद बताने की जरूरत नहीं। इसलिए कोरोना संकट के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यूरोप यात्रा बहुराष्ट्रीय फलक पर बेहद लाभदायक कही जा रही है। दो मायनों में कुछ ज्यादा ही खास है। अव्वल, रूस-यूक्रेन युद्ध से बिलबिला उठे यूरोपीय देश फ्रांस, डेनमार्क, स्वीडन, नार्वे, आइसलैंड, फिनलैंड व अन्य भारत से बड़ी आस लगाए बैठे हैं। ये देश भारत से उम्मीद करते हैं कि वह रूस-यूक्रेन विवाद में मध्यस्थता कर मामले को जल्द से जल्द सुलझवाए। इसके अलावा यूरोपीय राष्ट्र ये भी चाहते हैं कि भारत यूक्रेन के प्रति अपनी उदारता दिखाते हुए विश्व स्तर पर रूस की भर्त्सना करे। जबकि, इसे लेकर भारत शुरू से तटस्थ रहा है। बात भी ठीक है, भला कोई किसी के चलते अपने संबंध क्यों किसी से बिगाड़े? पूरी दुनिया इस बात से वाकिफ है कि भारत हमेशा से शांति का पक्षधर रहा है। कुछ दिनों पहले यूरोपीय आयोग की अध्यक्षा 'उर्सला वॉन डेर लेयेन' ने भी भारत का दौरा किया था। उन्होंने भी मोदी को मनाने की पूरी कोशिश की। उस वक्त भी प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कर दिया कि उनका देश रूसी हमले का समर्थन बिल्कुल नहीं करता। खैर, यात्रा के दूसरे मायने को समझें तो भारत पर इस बात को लेकर यूरोपीय देशों का जबरदस्त दबाव है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, रूसी राष्ट्रपति से युद्ध रुकवाने को लेकर खुलकर बात करें। हालांकि ऐसी कोशिशें भारत ने जानबूझकर अभी तक नहीं की, अगर करते तो रूस से रिश्ते खराब हो जाते। इसके बाद यूरोपीय देशों का नजरिया भारत के प्रति कैसा है, उसे मोदी अपनी यात्रा के दौरान अच्छे से भांप रहे हैं। हालांकि जिस गर्मजोशी से उनका भव्य स्वागत हुआ, उससे लगता नहीं यूरोपीय देशों का नजरिया भारत के विरुद्ध है। ये सच है कि यूरोपियन देश खासकर फ्रांस, डेनमार्क, स्वीडन, नार्वे, आइसलैंड व फिनलैंड की कमर रूस-यूक्रेन युद्ध से टूट चुकी है। यहां से उबरना उनके लिए भविष्य में मुश्किल होगा। क्योंकि इन दोनों देशों पर यूरोपीय देशों की निर्भरता बहुत है। युद्ध अगर और लंबा खिंचा तो इनके लिए समस्याएं और बढ़ेंगी। अगर कायदे से देखें तो मोदी की मौजूदा यात्रा भारत से ज्यादा यूरोपीय देशों के लिए ही खास है। यूरोप के दो बड़े मुल्क जर्मनी-फ्रांस, दोनों ही यूक्रेन के तेल-गैस व अन्य जरूरी सामानों पर निर्भर हैं। इनके लिए एक-एक दिन काटना भारी पड़ रहा है। मोदी की यूरोप यात्रा पहले से प्रस्तावित नहीं थी, तत्काल शिड्यूल बना। यात्रा से पूर्व करीब नौ देशों ने मिलकर बैठकें की जिसमें प्रधानमंत्री को अपने यहां आमंत्रित किया। आमंत्रण का मकसद भी पानी की तरह साफ है। युद्ध अगर और लंबा चला तो इन देशों की हालत बेहद खराब हो सकती है। तेल-गैस की आपूर्ति यूक्रेन से ही होती है, जो बीते पौने दो महीनों से नहीं हुई है। वैकल्पिक आपूर्ति भी इनके यहां अब खत्म होने के कगार पर है। जर्मनी के साथ हमारे समझौते तो कई हुए हैं, लेकिन प्रमुख बात जो है वो सभी जानते हैं। लेकिन ये भी सच है, भारत को रूस-यूक्रेन युद्ध को रोकने के जो प्रयास करने थे, पहले ही किया जा चुका है। जिसे पुतिन ने अनसुना किया। युद्ध बदस्तूर जारी है, उनको जो करना है करते जा रहे हैं। पुतिन किसी की भी नहीं सुन रहे। अपनी यात्रा को प्रधानमंत्री मोदी ने बड़ी समझदारी से आगे बढ़ाया है। दरअसल सबसे पहले अपना हित देखना होता है। कमोबेश उसी नजरिए से मोदी वहां के नेताओं से मिले भी। व्यापार की दृष्टि से हमें सचेत रहने की जरूरत है। यूरोप के साथ हमारा व्यापारिक इतिहास अभी तक उतना अच्छा नहीं रहा। संबंध भी उतने अच्छे नहीं रहे, इन देशों के साथ हमारी विदेश नीति भी ज्यादा अच्छी नहीं रही थी। बीते कुछ ही वर्षों में गर्माहट आई है। तभी वहां के नेता मोदी को बुलाने को इतने उतावले हुए। यूरोपीय राष्ट्र हमारे साथ सालाना करीब दो-तीन प्रतिशत साझा व्यापार करते हैं, जो कच्चे माल पर निर्भर होता है। बीते कुछ दशकों में प्रमुख यूरोपीय राष्ट्रों ने भारत के कच्चे माल से अरबों-खरबों डॉलर कमाए हैं। इसमें और गति आए, उसे लेकर प्रधानमंत्री का ज्यादा फोकस रहा। एक बात और है अगर यूरोपीय देश हमारे साथ राजनीतिक और सामरिक सहयोग बढ़ाते हैं तो उसका एक जबरदस्त मुनाफा ये भी होगा, उससे चीन-अमेरिका का रुतबा भी कम होगा। मोदी की यात्रा पर चीन, अमेरिका और पाकिस्तान की नजरें भी टिकी हुई हैं। यूरोप यात्रा की प्रमुख बातों पर चर्चा करें तो शुरुआती दो दिनों में मोदी कई प्रमुख नेताओं से मिले, ताबड़तोड़ कई समझौते किए, हरित उर्जा समझौता जिसमें प्रमुख रहा। इसमें कुछ 25 कार्यक्रम प्रमुख हैं. जिनमें उन्होंने शिरकत की। सबसे खास तो भारत-नार्डिक शिखर सम्मेलन रहा जिसमें कोरोना महामारी के बाद आर्थिक सुधार, जलवायु परिवर्तन, नवीकरणनीय ऊर्जा जैसे विषयों पर चर्चा हुई, ये चर्चाएं 2019 से छूटी हुईं थीं जिसे अब बल दिया गया। प्रधानमंत्री अपनी अल्प यात्रा के दौरान आठ-दस प्रमुख नेताओं से मिले हैं, उनके साथ द्विपक्षीय और बहुपक्षीय बातचीत को आगे बढ़ाया। साथ ही सबसे प्रमुख मुलाकातें उनकी दुनिया के उन पचास प्रमुख कारोबारियों से रही जो भारत आकर निवेश रूपी व्यापार करने के इच्छुक हैं, उन्हें प्रधानमंत्री ने न्योता दिया है। उम्मीद है अगले कुछ समय बाद मोदी की यूरोप यात्रा के सुखद तस्वीरें दिखाई देने लगेगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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योगेश कुमार गोयल पिछले दिनों मंगोलिया में आयोजित एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप में भारतीय पहलवानों ने कुल 17 पदक जीते। चैंपियनशिप में अपनी-अपनी श्रेणियों में बजरंग पूनिया ने रजत पदक, गौरव बालियान ने रजत पदक, नवीन तथा सत्यव्रत कादियान ने कांस्य पदक जीते लेकिन सबसे बड़ा कारनामा किया टोक्यो ओलम्पिक में रजत पदक जीतने के बाद भारतीय पहलवान रवि कुमार दहिया ने। रवि ने एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप में लगातार तीसरी बार स्वर्ण पदक जीतकर एक बार फिर साबित कर दिया कि उनके इरादों में कितना दम है। रवि ने शारीरिक क्षमता और रणनीतिक श्रेष्ठता के बूते कजाकिस्तान के रखत कालजान के खिलाफ शानदार प्रदर्शन करते हुए एशियाई चैंपियनशिप में जीत दर्ज कर स्वर्ण पदक अपने नाम किया। तकनीकी श्रेष्ठता का परिचय देते हुए रवि ने पहले पुरुषों के 57 किलोग्राम फ्रीस्टाइल में जापान के रिकुतो अराई को हराया और उसके बाद मंगोलिया के जानाबाजार जंदनबुड पर 12-5 से शानदार जीत दर्ज करते हुए फाइनल में जगह बनाई। हालांकि रवि ने अपने सभी मुकाबलों में शुरूआत में बढ़त गंवा दी थी लेकिन शानदार तरीके से वापसी करते हुए पुरुष फ्रीस्टाइल स्पर्धा में सभी प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ दिया। फाइनल मुकाबले में रखत कालजान ने उन्हें काफी समय तक कोई अंक नहीं लेने दिया था लेकिन अपनी चिर-परिचित शैली के अनुरूप रवि ने मुकाबले पर दबदबा बनाना शुरू कर दिया और लगातार 6 ‘टू-प्वाइंटर’ हासिल किए, साथ ही स्वयं को ‘लेफ्ट-लेग अटैक’ से भी बचाया, जिससे मुकाबला दूसरे पीरियड के शुरू में ही समाप्त हो गया और भारत ने 2022 की एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप के टूर्नामेंट का पहला स्वर्ण पदक रखत कालजान को 12-2 से हराते हुए अपने नाम किया। गौरतलब है कि रवि ने इससे पहले 2020 में दिल्ली और 2021 में अलमाटी में भी एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता था और इस चैंपियनशिप में इस बार उन्होंने लगातार तीसरी बार स्वर्ण पदक भारत के नाम किया है। कोई भी भारतीय फ्री स्टाइल पहलवान अभी तक ऐसा कारनामा नहीं कर सका है और रवि लगातार तीसरी खिताबी जीत दर्ज कराने वाले पहले भारतीय पहलवान बन गए हैं। इस साल फरवरी में डान कोलोव स्पर्धा में रजत पदक जीतने के बाद रवि का इस सीजन का यह दूसरा फाइनल था। इससे पहले 5 अगस्त 2021 को टोक्यो में ‘खेलों के महाकुंभ’ में शानदार प्रदर्शन करते हुए रवि रजत पदक जीतने में सफल रहे थे। हालांकि रवि को ओलम्पिक के फाइनल में स्वर्ण पदक जीतने की उम्मीद थी लेकिन 57 किलोग्राम फ्रीस्टाइल वर्ग के फाइनल में 2018 और 2019 के विश्व चैम्पियनशिप रह चुके रूस ओलम्पिक समिति के पहलवान जावुर युगुऐव से 7-4 से हारने के बाद उनका वह सपना चकनाचूर हो गया था। अभी तक कुश्ती में कोई भारतीय पहलवान ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने में सफल नहीं हुआ है। हालांकि ओलम्पिक के रेसलिंग मुकाबलों में रवि का रजत पदक भी इसीलिए बहुत महत्वपूर्ण माना गया क्योंकि ओलम्पिक खेलों के इतिहास में पदक जीतने वाले वे पांचवें पहलवान बने थे और रेसलिंग में भारत का वह केवल छठा पदक था। पहलवान सुशील कुमार ने ओलम्पिक में लगातार दो बार पदक जीते थे। भारत को सबसे पहले 1952 में हेलसिंकी ओलम्पिक में पहलवान केडी जाधव ने कांस्य पदक दिलाया था। उसके बाद रेसलिंग में पदक के लिए 56 वर्षों का लंबा इंतजार करना पड़ा था। उस लंबे सूखे को 2008 में सुशील कुमार ने बीजिंग ओलम्पिक में कांस्य पदक जीतकर खत्म किया था। उसके बाद 2012 के लंदन ओलम्पिक में दो भारतीय पहलवानों ने जीत का परचम लहराया। सुशील कुमार रजत और योगेश्वर दत्त कांस्य पदक जीतने में सफल रहे। 2016 के रियो ओलम्पिक में साक्षी मलिक ने कांस्य पदक हासिल किया था। सुशील कुमार के बाद ओलम्पिक में रजत पदक जीतने वाले रवि दूसरे भारतीय पहलवान बने थे। ओलम्पिक के सेमीफाइनल मुकाबले में जब रवि ने मैच के आखिरी मिनट में कजाक पहलवान को अपनी मजबूत भुजाओं में जकड़ लिया था, तब उसने रवि की पकड़ से छूटने के लिए खेल भावना के विपरीत उनकी बांह पर दांतों से काटना शुरू कर दिया था लेकिन रवि ने अपने दबंग इरादों का परिचय देते हुए अपनी मजबूत पकड़ ढीली नहीं होने दी और उसे चित्त करते हुए मुकाबला अपने नाम किया था। 12 दिसम्बर 1997 को हरियाणा के सोनीपत जिले के नाहरी गांव में जन्मे रवि कुमार दहिया ने केवल छह वर्ष की आयु में गांव के हंसराज ब्रह्मचारी अखाड़े में कुश्ती शुरू कर दी थी। दरअसल यह गांव पहलवानों का गांव माना जाता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां का लगभग हर बच्चा कुश्ती में हाथ आजमाता है। कुछ समय बाद वह उत्तरी दिल्ली के उस छत्रसाल स्टेडियम में चले गए, जहां से दो ओलम्पिक पदक विजेता सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त निकले हैं। वहां 1982 के एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक विजेता रहे सतपाल सिंह ने उन्हें दस वर्ष की आयु में ही ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी थी। रवि के पिता राकेश भूमिहीन किसान थे, जो बंटाई की जमीन पर खेती किया करते थे। उनकी दिली तमन्ना थी कि उनका बेटा पूरी दुनिया में देश का नाम रोशन करे और अपनी इसी ख्वाहिश को पूरा करने के लिए उन्होंने आर्थिक संकट के बावजूद बेटे की ट्रेनिंग में कोई कमी नहीं आने दी। वह प्रतिदिन बेटे तक फल-दूध पहुंचाने के लिए नाहरी गांव से 40 किलोमीटर दूर छत्रसाल स्टेडियम तक जाया करते थे। 2019 की विश्व चैंपियनशिप में रवि ने कांस्य पदक जीता था लेकिन उस समय उनके पिता उनका वह यादगार मैच नहीं देख सके थे क्योंकि वे काम पर गए हुए थे। रवि ने 2015 में 55 किलोग्राम फ्रीस्टाइल वर्ग में सल्वाडोर डी बाहिया में विश्व जूनियर कुश्ती चैम्पियनशिप में रजत पदक जीता था। 2017 में लगी चोट के बाद वह करीब एक साल तक कुश्ती से दूर रहे थे और उसके बाद 2018 में बुखारेस्ट में विश्व अंडर-23 कुश्ती चैम्पियनशिप में 57 किलोग्राम वर्ग में रजत पदक जीतकर धमाकेदार वापसी करने में सफल हुए थे। उस चैम्पियनशिप में वह भारत का एकमात्र पदक था। बहरहाल, टोक्यो ओलम्पिक में रवि भले स्वर्ण पदक जीतने में सफल नहीं हुए लेकिन उन्होंने भारत को अपने दमदार प्रदर्शन से रजत जीतकर निराश नहीं किया और अब एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप में लगातार तीसरी बार स्वर्ण पदक जीतकर उन्होंने साबित कर दिया है कि उनके इरादों में कितना दम है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. जगदीश गाँधी विज्ञान व धर्म मिलकर समाज की बेहतर सेवा कर सकते हैं। विज्ञान और धर्म अलग नहीं, बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह धारणा गलत है कि विज्ञान व धर्म साथ-साथ नहीं चल सकते। विज्ञान प्रत्यक्षवाद और धर्म परोक्षवाद पर विश्वास करता है। प्रत्यक्ष व परोक्ष मिलकर एक होते हैं। दुर्भाग्य यह है कि वैज्ञानिकों को धर्म व धर्म से जुड़े लोगों को विज्ञान की जानकारी नहीं है। ऐसे में दोनों को मिलाने की जरूरत है। विज्ञान जड़ पदार्थों से जुड़ा है और धर्म चेतन जगत से संबंध रखता है। पहले धर्म का उद्देश्य मानव समाज को जोड़ना था लेकिन आज इसे समाज को तोड़ने का हथियार बना दिया गया है। विज्ञान और धर्म दोनों ही मनुष्य के जीवन को समान रूप से प्रभावित करते हैं। एक ओर जहां विज्ञान तथ्यों व प्रयोगों पर आधारित है वहीं धर्म, आस्था और विश्वास पर। दोनों ही मनुष्य की अपार शक्ति का स्रोत हैं। मनुष्य कभी उड़ते हुए पक्षियों की उड़ान को देखकर परिकल्पना किया करता था कि क्या वह भी इन पक्षियों की भाँति उड़ान भर सकता है। उसकी यह परिकल्पना ही अनेक प्रयोगों का आधार थी। आज अंतरिक्ष की ऊँचाई को नापते हुए वायुयान उन्हीं परिकल्पनाओं के प्रतिफल हैं। इस प्रकार विज्ञान स्वयं में अनंत शक्तियों का भंडार है। विज्ञान के अंतर्गत वह अपनी कल्पनाओं को अपने प्रयोगों के माध्यम से साकार रूप देता है। वह प्रकृति में छिपे गूढ़तम रहस्यों को ढूँढ़ निकालता है। एक रहस्य के उजागर होने पर वह दूसरे रहस्य को खोलने व उसे जानने हेतु प्रयत्नशील हो जाता है। धर्म भी विज्ञान की भाँति अनंत शक्तियों का स्रोत है परंतु धर्म प्रयोगों व तथ्यों पर नहीं अपितु अनुभवों, विश्वासों व आस्थाओं पर आधारित है। मनुष्य की धार्मिक आस्था उसे आत्मबल प्रदान करती है। मनुष्य की समस्त धार्मिक मान्यताएँ किसी अज्ञात शक्ति पर केंद्रित रहती हैं। इस शक्ति का आधार मनुष्य की आस्था व विश्वास होता है। धर्म मनुष्य के चारित्रिक विकास में सहायक होता है। धर्म के मार्ग पर चलकर वह उन समस्त जीवन मूल्यों को आत्मसात करता है जो उसके चारित्रिक विकास में सहायक होते हैं। सद्गुणों को अपनाना अथवा सन्मार्ग पर चलना ही धर्म है। वे सभी सत्य जो मानवता के विरूद्ध हैं वे अधर्म हैं। दूसरों का हित करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है तथा दूसरों का अहित करने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अनेक रूपों में विज्ञान धर्म का ही एक रूप है। धर्म और विज्ञान दोनों के परस्पर समान गुणों के कारण ही एक-दूसरे का पूरक माना गया है। विज्ञान और धर्म दोनों ही मनुष्य की असीमित शक्ति का स्रोत हैं। विज्ञान जहाँ मनुष्य को भौतिक गुण प्रदान करता है वहीं धर्म उसे आत्मिक सुख की ओर ले जाता है। दोनों के परस्पर समन्वय से ही मनुष्य पूर्ण आत्मिक सुख, सफलता तथा समृद्धि की प्राप्ति कर सकता है। धर्मरहित विज्ञान मनुष्य को सुख तो प्रदान कर सकता है परंतु यह उसे कभी-कभी विनाश के कगार पर भी ला खड़ा करता है। विज्ञान के वरदान से जहाँ मनुष्य चंद्रमा पर अपनी विजय पताका फहरा चुका है वहीं दूसरी ओर उसने परमाणु बम जैसे हथियार विकसित कर लिए हैं जिसने उसे विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। धर्म और विज्ञान का समन्वय ही मानवमात्र में संतुलन स्थापित कर सकता है, उसे पतन की ओर जाने से रोक सकता है। यह समन्वय आज की प्रमुख आवश्यकता है। धर्म प्रायः मनुष्य की आस्था व विश्वास पर आधारित है परंतु यह भी सत्य है कि कभी-कभी हमारी आस्थाएँ निराधार होती हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार लोग चंद्रमा को ईश्वर का रूप मानते थे परंतु विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि यह मिथ्या है। चंद्रमा, पृथ्वी की भांति ही है। यह एक उपग्रह है। इस प्रकार हमारी धार्मिक मान्यताएँ समय-समय पर विज्ञान द्वारा खंडित होती रही हैं। विज्ञान के प्रयोगों व नित नए अनुसंधानों ने प्रकृति के अनेक गूढ़ रहस्यों को उजागर किया है परंतु अभी भी ऐसे अनगिनत रहस्य हैं जो विज्ञान की परिधि से बाहर हैं। विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि एक ऐसी परम शक्ति अवश्य है जो समस्त शक्तियों का केंद्र है। अतः जब मनुष्य के लिए सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तब वह उन परम शक्तियों का स्मरण करता है। अतः विज्ञान और धर्म का परस्पर समन्वय ही उसे प्रगति के उत्कर्ष तक ले जा सकता है। जब विज्ञान का सहारा लेकर मनुष्य कुमार्ग पर चल पड़ता है तब धर्म का संबल प्राप्त करना अनिवार्य हो जाता है। धर्म इस स्थिति में मनुष्य का तारणहार बन जाता है। दूसरी ओर जब धर्म की छत्रछाया में अधार्मिक व्यक्तियों का समूह आम लोगों को ठगने का प्रयास करते हैं तब विज्ञान का आलोक उन्हें सीधे रास्ते पर लाने की चेष्टा करता है। बच्चों की शिक्षा के द्वारा हम बालक का वैज्ञानिक, मानवीय तथा विश्वव्यापी दृष्टिकोण विकसित कर रहे हैं। बच्चों को बाल्यावस्था से ही घर में माता-पिता तथा स्कूल में शिक्षक द्वारा बताया जाना चाहिए कि ईश्वर एक है, उसका धर्म एक है तथा सारी मानव जाति एक है। मानव जाति के पास मानव सभ्यता का जो इतिहास उपलब्ध है उसके अनुसार परमपिता परमात्मा की ओर से युग-युग में भेजे गये महान अवतारों राम (7500 वर्ष पूर्व), कृष्ण (5000 वर्ष पूर्व), बुद्ध (2500 वर्ष पूर्व), ईसा मसीह (2000 वर्ष पूर्व), मोहम्मद साहब (1400 वर्ष पूर्व), गुरू नानक देव (500 वर्ष पूर्व) तथा बहाउल्लाह (200 वर्ष पूर्व) धरती पर अवतरित हुए हैं। स्कूलों के माध्यम से संसार के प्रत्येक बालक को राम की मर्यादा, कृष्ण का न्याय, बुद्ध का सम्यक ज्ञान, ईशु की करूणा, मोहम्मद साहेब का भाईचारा, गुरू नानक का त्याग और बहाल्लाह की हृदय की एकता की शिक्षाओं का ज्ञान कराया जाना चाहिए। एक ही परमपिता परमात्मा की ओर से युग-युग में अपने संदेशवाहकों के द्वारा भेजे गये पवित्र ग्रन्थों- गीता, त्रिपटक, बाईबिल, कुरान शरीफ, गुरू ग्रन्थ साहिब, किताबे अकदस में संकलित परमात्मा की एक जैसी मूल शिक्षाओं का ज्ञान प्रत्येक बालक को स्कूल के माध्यम से कराया जाना चाहिए तथा परमात्मा की शिक्षाओं को जानकर उसके अनुसार अपना जीवन जीना चाहिए। आज आधुनिक विद्यालयों द्वारा बच्चों को एकांकी शिक्षा अर्थात केवल भौतिक शिक्षा दी जा रही है, जबकि मनुष्य की तीन वास्तविकताएं होती हैं। पहला- मनुष्य एक भौतिक प्राणी है, दूसरा- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा तीसरा मनुष्य- एक आध्यात्मिक प्राणी है। इस प्रकार मनुष्य के जीवन में भौतिकता, सामाजिकता तथा आध्यात्मिकता का संतुलन जरूरी है। युद्ध के विचार सबसे पहले मनुष्य के मस्तिष्क में पैदा होते हैं अतः दुनियाँ से युद्धों को समाप्त करने के लिये मनुष्य के मस्तिष्क में ही शान्ति के विचार उत्पन्न करने होंगे। शान्ति के विचार देने के लिए मनुष्य की सबसे श्रेष्ठ अवस्था बचपन है। स्कूल चार दीवारों वाला ऐसा भवन है जिसमें कल का भविष्य छिपा है। मनुष्य तथा मानव जाति का भाग्य क्लास रूम में गढ़ा जाता है। शिक्षकों को पूरे मनोयोग से विद्यालय को लघु विश्व का मॉडल तथा बच्चों को विश्व नागरिक बनाना चाहिए। चरित्र निर्माण एवं विश्व एकता की शिक्षा इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। अभिभावकों को भी विद्यालय में मिल रहे इन विचारों के अनुकूल घरों में ये विचार अपने बच्चों को बाल्यावस्था से देना चाहिए। विद्यालय तथा घर ही सबसे बड़े तीर्थधाम हैं। पारिवारिक एकता के द्वारा विश्व एकता की शिक्षा इस युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है। (लेखक जाने-माने शिक्षाविद् हैं।)
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डॉ. नितिन सहारिया प्राचीन वैदिक सनातन हिंदू धर्म के मतानुसार हम सभी पृथ्वी वासी/ मानव उस आदिपुरुष/ प्रथमपुरुष मनु -शतरूपा के ही वंशज/ संतान हैं। पृथ्वी पर आदिपुरुष का जन्म भारतवर्ष के हिमालय पर्वत- मानसरोवर क्षेत्र में हुआ। उन्हीं के वंशज सप्तऋषि हैं। कालांतर में चंद्रवंश-सूर्यवंश यानी ऋण व धनात्मक कुल परंपरा चली। पुरातात्विक साक्ष्य व आर्कलॉजिकल सोर्सेस भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि आदि मानव का उद्भव उत्तरी ध्रुव हिमालय क्षेत्र में हुआ। विश्व में मूल रूप से चार प्रकार के मनुष्य पाए जाते हैं। श्वेत (काकेशस). पीले (मंगोलियन), काले (नीग्रो ) और लाल (रेड इंडियन )। इन चारों के अलावा 5 वीं प्रजाति भारतीयों की है जिसमें यह सभी चारों मिश्रित हैं। तब प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह चारों भारत से संपूर्ण वसुधा पर गए (फैले) अथवा संपूर्ण पृथ्वी से होकर भारत में आए? इस प्रश्न के उत्तर में साहित्यिक स्रोत व पुरातात्विक स्रोत दोनों ही इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि यह भारत से ही विश्व में गए /प्रसार हुआ। आदिमानव के अवशेष हिमालय क्षेत्र में जीव विज्ञानियों को मिले हैं। अभी कुछ वर्ष पूर्व अमेरिकी विज्ञान संस्थान नासा ने भारत के हिमालय क्षेत्र से एक 80 फिट लंबा नरकंकाल प्राप्त किया। जिस पर नासा में वैज्ञानिक रिसर्च करके यह पता लगाने में जुटे हुए हैं कि त्रेता व सतयुग के मनुष्य /आदिमानव का उद्गम भारत है और वास्तव में ये इतने लंबे होते थे। भारतवर्ष के पुराणों में वर्णित सत्य व तथ्य की पुन: पुष्टि होना ही मात्र शेष है। भारतवर्ष के साहित्यिक पौराणिक ग्रंथों में वर्णित एक-एक बात /तथ्य सत्य है। जिसे उथली बुद्धि वाले नहीं समझ सकते हैं। इसे समझने के लिए परिष्कृत प्रज्ञा/ ऋषि प्रज्ञा की आवश्यकता है। जो साधना व सुपात्र बनने से प्राप्त होती है। यह तो वही बात हुई कि- ऊग कर सूरज, भला फिर क्या करेगा। आंख पर पट्टी, मनुज यदि बांध बैठे ।। भारतवर्ष में 40000 वर्ष पूर्व से हम सभी भारतवासियों का डीएन एक है। हमारे पूर्वज एक हैं। वर्तमान में भारतवर्ष की आबादी लगभग 135 करोड़ के आसपास है। इसमें 4693 समुदाय, 4500 सजातीय समूह, 325 प्रचलित बोलियां और 25 लिपियां हैं। इनके अलावा इस देश की विशेषताओं में चार प्रमुख जातियां और सैकड़ों उपजातियां भी सम्मिलित हैं। विश्व के वैज्ञानिक यह जानना चाहते हैं कि- इस विशाल भारत का आदि स्रोत क्या है? इसके मूल में वह कौन-सा जीन है, जो विकास के बाद इतना विराट रूप धारण कर चुका है। वे जानना चाहते हैं कि भारतीय वास्तव में कैसे भारतीय बने? अनुवांशिक विशेषज्ञों के अनुसार इस सृष्टि का प्रथम मानव कौन-सा है? उसी प्रथम मानव का जीन ही प्रकारांतर से अनुवांशिक गुणों का वाहक बना और अब तक लंबी यात्रा को पार कर वर्तमान विराट विभिन्नता तक पहुंचा। पौराणिक आख्यान है कि मध्य हिमालय मानव जाति का उत्पत्ति स्थल है और आर्य संस्कृति का आदि स्रोत है। यही आर्यों का आदिदेश है। सृष्टि के प्रथम मानव को ' मनु' माना जाता है। मनु की उत्पत्ति स्थल भी यही है। पौराणिक मतानुसार मनु एवं शतरूपा की उत्पत्ति सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के दाहिने भाग तथा बाएं भाग से हुई। शक्ति साधना के पश्चात स्वयंभू मनु पृथ्वी पर रहकर सृष्टिकर्म करने लगे। पहले उनके प्रियव्रत व उत्तानपाद नामक दो तेजस्वी पुत्र एवं आकृति, देवहूति व प्रसूति नामक 3 कन्याएं हुई। उत्तानपाद से ध्रुव जैसे भगवत भक्त प्रकट हुए। देवहूति से स्वयं भगवान ने कपिल रूप में अवतार ग्रहण किया। और इस संसार में मानव वंश का प्रारंभ हुआ। चूंकि इसका प्रारंभ मनु से हुआ इसलिए इसकी संतान को मानव कहा जाता है। मनु का कार्यक्षेत्र हिमालय को माना जाता है। इस संदर्भ में फ्रांसीसी विद्वान क्रूजर अपनी सहमति प्रकट करते हैं। 'इंडिया टुडे' -पत्रिका (23 सितंबर 2009 पृ.13 ) में अनेक आंकड़ों व निष्कर्षों का हवाला देते हुए लिखती है कि "विश्व भर में जितने विविध प्रकार के मनुष्य हैं, जिनमें सभी संभावित अनुवांशिक संरचना विद्यमान हैं, उन सबका मूल है उनका भारतीय होना एवं अनुवांशिक विविधता का उद्गम इसी उपमहाद्वीप में मूल रूप से हुआ, न कि यह तथाकथित आर्यों की घुसपैठ का परिणाम था; जैसा कि अबतक कुछ इतिहासकारों ने भ्रम फैलाया था।" स्वामी विद्यानंद सरस्वती के अनुसार, "मानव जाति का प्रादुर्भाव हिमालय क्षेत्र में ही हुआ है।" हिमालय को आदिमानव का मूल स्थान बनाने के लिए सात कसौटियाँ स्पष्ट की गई हैं- 1. वह स्थान संसार भर में सबसे ऊंचा और पुराना हो। 2. उस स्थान में सर्दी और गर्मी जुड़ती हो। 3. उस स्थान में मनुष्य की प्रारंभिक खुराक फल एवं अन्य उपलब्ध हो। 4. उस जगह पर अब भी मूल पुरुषों के रंग-रूप के मनुष्य बसते हों। 5. उस स्थान के आसपास ही सब रूप-रंगों के विकास और विस्तार की परिस्थितियां हों। 6. उस स्थान का नाम सभी मनुष्य जातियों को स्मरण हो। 7. वह स्थान उच्चकोटि के देसी और विदेशी विद्वानों के अनुमान के बहुत विरुद्ध न हो। उपयुक्त साथ कसौटियों में से पांच वैज्ञानिक तथ्य हैं, जो उस स्थान के लक्षण हैं और दो ऐतिहासिक तथ्य हैं; जो उक्त पांचों की पुष्टि करते हैं। इतिहासकारों के अनुसार यह समस्त लक्षण एवं प्रमाण हिमालय पर ही घटते हैं। अतः हिमालय ही मानव का मूल स्थान है। वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि यह वही स्थान हो सकता है, जहां मानव जीन का संपूर्ण विकास हुआ हो क्योंकि जेनेटिक अनुसंधान के लिए जिन परिस्थितियों की आवश्यकता पड़ती है, वे सारे तत्व हिमालय के भू-भाग में विद्यमान हैं। अतः हिमालय को आदिमानव /प्रथम पुरुष का आंचल माना जाता है। एशियावाद के समर्थक 'जान वैषम' भी 'इंडिया हॉट इट कैन टीच अस ' में कहते हैं कि "आर्यावर्त (हिमालय) ही मानव की मूल जाति का उत्पत्ति स्थान है और आर्य ही आदिमानव हैं।" इसका समर्थन मैकडोनाल्ड ,नृतत्व विज्ञानी नेसफील्ड आदि ने भी किया है। मैक्समूलर ने अपने अंतिम दिनों में यह स्वीकार किया था कि "आर्यों का मूल निवास स्थल एशिया में संभवत है भारत में हो सकता है।" यूनेस्को ने 1997 में कजाकिस्तान की राजधानी ' दुशांबे 'में "ईसा पूर्व एक सहस्त्र वर्ष में जातियों का संचार" विषय पर एक 'अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी' हुई। जिसमें 90 देशों के विद्वानों ने भाग लिया। भारत सरकार ने बी.बी. लाल के नेतृत्व में 7 सदस्यों वाली टीम भेजी थी। वहां इन विद्वानों ने आर्यों के बाहर से आने संबंधी सिद्धांत का खंडन किया। अत: मनुस्मृति ,बाल्मीकि रामायण, पुराणों में भारत की श्रेष्ठ संतति को आर्य श्रेष्ठ, ( धर्त्मात्मा ) गुण बोधक शब्द से संबोधित किया गया है एवं भारतवर्ष ही आर्यावर्त है। अब किसी को भी इसमें रंच मात्र भी संदेह, शंका नहीं होना चाहिए। अतः हमें भारतीय/ हिंदू/ आर्य/ सनातनी होने पर गर्व करना चाहिए। भारतवर्ष में यह उद्घोष किया जाता है - मानव मात्र एक समान। एक पिता की सब संतान। एवं 'वसुधैव कुटुंबकम।' जब सारे विश्व में हमारे ही वंशज/बंधु -बांधव/ मानव बसे हुए हैं। तब कोई भी हमारे लिए पराया नहीं अतः संपूर्ण विश्व एक हमारा विराट परिवार है । इस सत्य के समझने व प्रज्ञा/ ज्ञान जगने पर कोई भी फिर पराया नहीं रह जाता है। तब फिर सारे संसार के प्रति अपनी दृष्टि ही बदल जाती है। भारत का चिंतन /विचार - विराट/ उदात्त / अनंत है। इसे समझना हर किसी के बस की बात नहीं। 'जैसी दृष्टि- वैसी सृष्टि' का सिद्धांत है। जैसा हमारा नजरिया दृष्टिकोण होगा हमें सबकुछ वैसा ही नजर आता है। भारतवर्ष के विचारों, संस्कारों में श्रेष्ठता, मानवता, 'वसुधैव कुटुंबकम', सर्वे भवंतु सुखिन: का संस्कार समाया हुआ है। भारतवासी सरल/भोला है। जिसे पश्चिमी व विश्व के अन्य लोगों ने हल्के में लिया अथवा सज्जनता को ठगा है। किंतु वह भूल गए कि भारतवासी महाकाल अनादि शिवशंकर भोला- भाला के उपासक हैं । समय आने पर दोनों ही रूप प्रकट होते हैं हम बंसीधारी व चक्र सुदर्शन धारी कृष्ण दोनों के उपासक हैं। हमें -'विनाशाय च दुष्कृताम्' के उपदेश पर भी चलना आता है । कोई हमारी सज्जनता को हमारी कमजोरी न समझे। समय आने पर हम माला व भाला (रौद्र) रूप भी धारण कर लेते हैं। जब सारे तथ्यों व सत्यों के अन्वेषण से, इतिहास की गहराइयों में जाकर यह सत्य प्रकट होता है कि मूल में, जड़ में हम सभी एक हैं, एकात्मता है। एक पिता की संतान हैं। हमारे पुरखे/ पूर्वज एक थे। तब हमें अपने मूल सत्य सनातन हिंदू धर्म में वापसी करने में गर्व होना चाहिए ना की हिचकिचाहट। कहावत है कि - "सुबह का भूला, यदि शाम को लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते हैं।" पश्चिमी व दुनिया में बहुत से लोग शनै -शनै इस तथ्य से परिचित होते जा रहे हैं। अतः वह सभी भारत व भारतीय संस्कृति के नजदीक आ रहे हैं। भारतीय संस्कृति को अपना रहे हैं। अपने जीवन को धन्य बना रहे हैं । अभी एक- दो दशक से तो पश्चिम का रुख पूर्व (भारत )की ओर सैलाब की तरह से बढ़ा है। भारत में भी तो अज्ञानता या परिस्थिति बस किसी अन्य पंथ, मजहब, विचारधारा में जो चले गए थे वह अब वापस हिंदू धर्म/ मूल में आ रहे हैं। यह उनके लिए घर वापसी एक सुखद अहसास,अनुभव है। बेटा जब थक, परेशान हो जाता है तब वह अपने मूल/ मां की गोदी में ही लौटकर शांति पाता है। हिंदू धर्म है ही महान, गंगा की तरह जो सभी को पचा लेता है। अपने में समाहित कर के पवित्र बना देता है, श्रेष्ठ बना देता है । यह लोहे को सोना बना देने वाला पारस है हिंदू धर्म। तभी तो स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि "मुझे अपने आप को हिंदू कहलाने में गर्व होता है।" (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं समीक्षक हैं।)
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आर.के. सिन्हा किसी भी स्कूल, कॉलेज या यूनिवर्सिटी की पहचान होती है उसमें शिक्षित हुए विद्यार्थियों तथा शिक्षकों से। इस मोर्चे पर अपने 100 साल का सफर पूरा कर रही दिल्ली यूनिवर्सिटी (डीयू) जितना भी चाहे गर्व कर सकती है। डीयू की स्थापना 1922 में हुई थी और इसका पहला दीक्षांत समारोह 26 मार्च, 1923 को हुआ था। उस समय तक डीयू में सिर्फ सेंट स्टीफंस कॉलेज, हिन्दू कॉलेज, रामजस कॉलेज और दिल्ली कॉलेज ( अब जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज) ही थे। ये उन दिनों की बातें हैं जब डीयू में सिर्फ साइंस और आर्ट्स की ही फैकल्टी हुआ करती थीं। अब जब डीयू में 70 से अधिक कॉलेज हैं, महत्वपूर्ण बिन्दु यह भी है कि डीयू में राजधानी के दो अन्य विश्वविद्यालयों क्रमश: जामिया मिल्लिया इस्लामिया तथा जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के विपरीत शांति तथा सौहार्द बना रहता है। यहां पढ़ने-पढ़ाने पर फोकस रहता है सबका। क्या यह बात जेएनयू या जामिया के लिए भी कही जा सकती है। इन दोनों में तो लगातार आंदोलन, प्रदर्शन तथा मारपीट होती ही रहती है। अगर डीयू के इतिहास के पन्नों को खंगालें तो इसका रजत जयंती दीक्षांत समारोह 1947 में ही होना चाहिए था। उसी साल देश आजाद भी हुआ था। इसलिए इसका आयोजन 1948 में डीयू की मेन बिल्डिंग में हुआ था। इस समारोह में देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, भारत के वायसराय लार्ड माउंटबेटन, उनकी पत्नी, शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद और महान वैज्ञानिक डॉ. शांति स्वरूप भटनागर भी मौजूद थे। तबतक इंद्रप्रस्थ कॉलेज और मिरांडा हाउस भी डीयू का हिस्सा बन चुके थे। डीयू में दिल्ली से बाहर से आने वाले विद्यार्थियों के लिए ग्वायर हाल नाम से छात्रावास का निर्माण भी कर लिया गया था। यह सर मौरिस ग्वायर के नाम पर बना था। ग्वायर साहब डीयू के उप कुलपति भी रहे। उन्होंने इसके विस्तार में अहम रोल निभाया था। डीयू का स्वर्ण जयंती दीक्षांत समारोह 1973 में हुआ था। उसमें देश की तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, पंजाबी की लेखिका अमृता प्रीतम और गायिका एम एस सुब्बालक्ष्मी भी शामिल हुये थे। देखिए जब डीयू का जिक्र आता है तो सबसे पहले दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (डी स्कूल) की छवि जेहन में आती है। इसकी स्थापना 1949 में हुई। यहाँ टाटा उद्योग समूह के सहयोग से रतन टाटा लाइब्रेरी स्थापित की गई। डी स्कूल को अर्थशास्त्र और संबंधित विषयों में अध्ययन और अनुसंधान के लिए एशिया का सबसे बेहतर संस्थान माना जाता है। डी स्कूल की स्थापना में प्रोफेसर वी.के.आर.वी. राव की निर्णायक भूमिका रही। वे डी स्कूल के पहले निदेशक थे। इसी डी स्कूल में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. अर्मत्य सेन, प्रो. सुखमय चक्रवर्ती, डॉ. मृणाल दत्ता चौधरी डॉ. ए.एल नागर जैसे अर्थशास्त्रियों ने पढ़ाया। डीयू के इतिहास पुरुष डीयू के इतिहास विभाग में लंबे समय से इस तरह के विद्वान गुरु रहे जिनसे पढ़ने के लिए बिहार, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा तक के नौजवान यहां दाखिला लेते रहे। उनमें डॉ. डी.एन.झा भी थे। वे इतिहासकार ही नहीं थे बल्कि इतिहास रचयिता भी थे। या यूं कहें कि वे ख़ुद भी इतिहास के निर्माताओं सा ही जीवन जिये। विद्यार्थी कभी उनके लेक्चर मिस नहीं करते थे। वे वैदिक काल के विद्वान थे। डीयू में ही आर.एस.शर्मा, सुमित सरकार, मुशीर उल हसन, के.एम. श्रीमाली जैसे नामवर इतिहासकार भी शिक्षक रहे। इनके अलावा यहां पिता-पुत्र मोहम्मद अमीन और शाहिद अमीन की जोड़ी भी पढ़ाती रही। इतिहास का कोई भी संजीदा विद्यार्थी उनके योगदान का ऋणी रहेगा। दिल्ली यूनिवर्सिटी में इस तरह के अनेकों प्रोफेसर रहे है, जो पढ़ाते तो इंग्लिश, गणित या जंतु विज्ञान (ज़ोआलॉजी) रहे हैं, पर उनका खेलों की तरफ भी गहरा झुकाव रहा। प्रोफेसर रवि चतुर्वेदी ने करीब सौ क्रिकेट टेस्ट मैचों की कमेंट्री की। उन्होंने दो दर्जन किताबें भी क्रिकेट पर लिखीं। गणित के प्रोफेसर रंजीत भाटिया ने 1960 के रोम ओलंपिक खेलों की मैराथन दौड़ में भाग लिया था। सेंट स्टीफंस कॉलेज और हिन्दू कॉलेज को बांटने वाली सड़क का नाम सुधीर बोस मार्ग है। वे सेंट स्टीफंस कॉलेज में 1937-63 तक फिलॉसफी पढ़ाते रहे। वे दिल्ली जिला क्रिकेट संघ यानी डीडीसीए के संस्थापक सदस्यों में से थे। फुटबॉल कमेंटेटर और लेखक नोवी कपाड़िया तो अपने आप में फुटबॉल के चलते-फिरते विश्वकोष हैं। इस बीच, कॉमर्स में करियर बनाने वाले या रुचि रखने वाले नौजवानों के लिए डीयू के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स (एसआरसीसी) में पढ़ना किसी सपने की तरह रहा। इधर डॉ. केपीएम सुंदरम ने लगभग चालीस सालों तक पढ़ाया। वे पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरुण जेटली तथा सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एके सीकरी के भी शिक्षक थे। शायद ही इस देश में कोई इकोनॉमिक्स का छात्र हो जिसने केपीएम सुंदरम की किताब, प्रिंसिपल ऑफ इकोनॉमिक्स न पढ़ी हो। सुंदरम साहब अपने जीवनकाल में ही लीजैंड बन गए थे। अफ्रीकी देश मलावी के 2004-2012 तक राष्ट्रपति रहे बिंगु वा मुथारिका 1961 से 1964 तक श्रीराम कालेज ऑफ कॉमर्स में पढ़े। वे भी सुंदरम साहब के छात्र थे। दिल्ली यूनिवर्सिटी को समृद्ध करने में विदेशी अध्यापक भी सक्रिय रहे। इस लिहाज से सबसे पहले दीनबंधु सी.एफ.एंड्रयूज का नाम लेना होगा। वे गांधीजी के मित्र थे। वे इंग्लिश पढ़ाते थे। उन्हीं के प्रयासों से गांधीजी पहली बार 12 अप्रैल-15 अप्रैल, 1915 को दिल्ली आए और दिल्ली यूनिवर्सिटी कैंपस में रूके। एन्ड्रयूज ने ब्रिटिश नागरिक होते हुए भी जलियांवाला बाग कांड के लिए ब्रिटिश सरकार को जिम्मेदार माना था। वे गुरुदेव टैगोर के भी करीबी रहे। शांति निकेतन में 'हिंदी भवन' की स्थापना उनके आश्रम में हुई थी। उन्होंने 16 जनवरी 1938 को शांति निकेतन में 'हिंदी भवन' की नींव रखी। गुरुदेव की कूची से बना एन्ड्रयूज का एक चित्र सेंट स्टीफंस कॉलेज के प्रिंसिपल के कक्ष में लगा हुआ है। उनकी परम्परा को डीय़ू में आगे लेकर गए इतिहासकार पर्सिवल स्पियर। वे इधर 1924-1940 तक पढ़ाते रहे। स्पियर साहब ने भारत के इतिहास पर अनेक महत्वपूर्ण किताबें लिखीं। वे विशुद्ध अध्यापक और रिसर्चर थे। वे भारत के स्वाधीनता आंदोलन को करीब से देख रहे थे। पर वे उसके साथ या विरोध में खड़े नहीं थे। उन्होंने भारत छोड़ने के बाद इंडिया, पाकिस्तान एंड दि वेस्ट (1949), ट्वाइलाइट आफ दि मुगल्स (1951), दि हिस्ट्री आफ इंडिया (1966) समेत कई महत्वपूर्ण किताबें लिखीं। इन सबका अब भी महत्व बना हुआ है और आगे भी रहेगा। पिछली लगभग आधी सदी से डीयू में सारे देश के नौजवान आते हैं पढ़ने के लिए। यानी देश के नौजवानों का इस पर भरोसा बना हुआ है। उन्हें लगता है कि यहां आकर उनका वक्त आंदोलनों तथा देश विरोधी गतिविधियों में बर्बाद नहीं होगा और वे एक योग्य नागरिक बन पाएंगे। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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अक्षय तृतीया (3 मई) पर विशेष योगेश कुमार गोयल हिन्दू पंचांग के अनुसार अक्षय तृतीया पर्व प्रतिवर्ष वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है। हिन्दू धर्म में मांगलिक कार्यों के लिए यह दिन बेहद शुभ माना गया है। विभिन्न शास्त्रों के अनुसार इस दिन हवन, जप, दान, स्वाध्याय, तर्पण इत्यादि जो भी कर्म किए जाते हैं, वे सब अक्षय हो जाते हैं। मान्यता है कि द्वापर युग इसी तिथि को समाप्त हुआ था जबकि त्रेता, सतयुग और कलियुग का आरंभ इसी तिथि को हुआ था, इसीलिए इसे कृतयुगादि तृतीया भी कहा जाता है। भारत में कई स्थानों पर अक्षय तृतीया को ‘आखा तीज’ के नाम से भी जाना जाता है। इस तिथि की अधिष्ठात्री देवी पार्वती मानी गई हैं और इस दिन मां लक्ष्मी की भी विधिवत पूजा की जाती है। भगवान शिव-मां पार्वती तथा भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा करने से इनकी कृपा बरसती है, समृद्धि आती है, जीवन धन-धन्य से भरपूर होता है और संतान भी अक्षय बनी रहती है। अक्षय तृतीया पर अबूझ मुहूर्त के साथ इस बार खरीदारी के लिए तीन राजयोग भी बन रहे हैं। मान्यता है कि यदि अक्षय तृतीया रोहिणी नक्षत्र को आए तो इस दिवस की महत्ता हजारों गुणा बढ़ जाती है और धर्म के जानकारों के अनुसार अक्षय तृतीया पर्व पर इस बार रोहिणी नक्षत्र के कारण मंगल रोहिणी योग बन रहा है, जो तैतिल करण और वृषभ राशि के चंद्रमा के साथ आ रहा है और यह शोभन योग अक्षय तृतीया को शुभ बना रहा है। 30 साल पश्चात् अक्षय तृतीया पर बनने वाला शुभ योग इस वर्ष इस दिन का महत्व बढ़ा रहा है और 50 वर्षों के बाद ग्रहों के विशेष योग से भी अद्भुत संयोग बन रहा है। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार 50 वर्ष लंबे अंतराल के बाद ऐसा संयोग बनेगा, जब दो ग्रह उच्च राशि में और दो प्रमुख ग्रह स्वराशि में स्थित होंगे। इन ग्रहों की युति से बने अद्भुत योग में दान करना बहुत पुण्य का कार्य होगा। इस दिन चार ग्रहों का अनुकूल स्थिति में होना अक्षय तृतीया पर्व को इस बार और भी खास बना रहा है। वैसे यह भी माना जाता है कि अक्षय तृतीया यदि रविवार के दिन हो तो वह सर्वाधिक शुभ तथा पुण्यदायी होने के साथ-साथ अक्षय प्रभाव रखने वाली भी हो जाती है। मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन माता पार्वती ने अमोघ फल देने की सामर्थ्य का आशीर्वाद दिया था, जिसके प्रभाव से अक्षय तृतीया के दिन किया गया कोई भी कार्य निष्फल नहीं होता। अक्षय तृतीया के दिन स्वयं सिद्ध योग होते हैं और इस दिन बिना मुहूर्त निकलवाए कोई भी शुभ कार्य सम्पन्न किया जा सकता है, इसीलिए लोग बिना पंचांग देखे अक्षय तृतीया के दिन विवाह, गृह प्रवेश, नया व्यापार, धार्मिक अनुष्ठान, पूजा-पाठ, घर, भूखंड या नए वाहन आदि की खरीदारी इत्यादि विभिन्न शुभ कार्य करते हैं। पुराणों के अनुसार इस दिन सूर्योदय से पहले उठकर स्नान, दान, जप, स्वाध्याय इत्यादि करना शुभ फलदायी होता है। सतयुग, द्वापर युग और त्रेता युग के प्रारंभ की गणना भी इसी दिन से होती है और भगवान विष्णु के चरणों से गंगा भी इसी दिन धरती पर अवतरित हुई थी। अक्षय तृतीया को वसंत ऋतु के अंत और ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ का दिन भी माना जाता है। इस पर्व को लेकर लोक धारणा है कि इस तिथि को यदि चंद्रमा के अस्त होते समय रोहिणी आगे होगी तो फसल अच्छी होगी लेकिन यदि रोहिणी पीछे होगी तो फसल अच्छी नहीं होगी। कहा जाता है कि अक्षय तृतीया के दिन खरीदी गई वस्तुएं लंबे समय तक चलती हैं और शुभ फल देती हैं। वैसे इस दिन सोना-चांदी खरीदना बहुत शुभ माना जाता है लेकिन सोना-चांदी खरीदने में असमर्थ हों तो कुछ सस्ती चीजें भी खरीदी जा सकती हैं, जिन्हें खरीदने से घर में सुख-समृद्धि आती है। इसके पीछे धार्मिक मान्यता है कि इस दिन प्राप्त धन-सम्पत्ति एवं पुण्य फल अक्षय रहते हैं और खरीदी गई चीजें मां लक्ष्मी और धन के देवता कुबेर की कृपा दिलाती हैं। शास्त्रों के अनुसार इस दिन दान-पुण्य करने वाला व्यक्ति सूर्य लोक जाता है और अक्षय तृतीया के दिन उपवास करने वाला व्यक्ति रिद्धि-सिद्धि और श्री से सम्पन्न हो जाता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक अभी-अभी कुछ संकेत ऐसे मिले हैं, जिनसे लगता है कि पाकिस्तान की विदेश नीति में बड़े बुनियादी परिवर्तन हो सकते हैं। इन परिवर्तनों का लाभ उठाकर भारत और पाकिस्तान अपने आपसी संबंध काफी सुधार सकते हैं। जिस चीन से पाकिस्तान अपनी ‘इस्पाती दोस्ती’ का दावा करता रहा है, वह इस्पात अब पिघलता दिखाई पड़ रहा है। जो चीन 5 लाख करोड़ रु. खर्च करके पाकिस्तान में तरह-तरह के निर्माण-कार्य कर रहा था, उस प्रायोजना का भविष्य खटाई में पड़ गया है। चीन अपने शिनच्यांग प्रांत से पाकिस्तान के ग्वादर नामक बंदरगाह तक 1153 किमी लंबी सड़क बना रहा था ताकि अरब और अफ्रीकी देशों तक पहुंचने का उसे सस्ता और सुगम मार्ग मिल जाए लेकिन अब शाहबाज शरीफ की नई सरकार ने इस पाक-चीन गलियारे की योजना को क्रियान्वित करनेवाले प्राधिकरण को भंग कर दिया है। इसे भंग करने के कई कारण बताए जा रहे हैं। एक तो बलूचिस्तान में से इस गलियारे की लंबाई 870 किमी है, जो कि सबसे ज्यादा है। बलूच लोग इसके बिल्कुल खिलाफ हैं। उन्होंने दर्जनों चीनी कामगारों को मार डाला है। दूसरा, इसने बहुत वक्त खींच लिया है। इसके कई काम अधूरे पड़े हुए हैं। तीसरा कारण यह भी है कि पाकिस्तान अपने हिस्से का पैसा लगाने में बेहद हीले-हवाले कर रहा है। उसने 2000 मेगावाट के बिजलीघर में लगने वाले 30 हजार करोड़ रु. का भुगतान चीनी कंपनी को नहीं किया है। इसी तरह शिनच्यांग से ग्वादर तक रेलवे लाइन डालने का 55 हजार करोड़ रु. की प्रायोजना भी खटाई में पड़ गई है। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि वह कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों और मालदार मुस्लिम राष्ट्रों के आगे अपनी झोली फैलाने के लिए मजबूर है। ऐसी स्थिति में वह चीन से अगर विमुख होता है तो उसके पास अमेरिका की शरण में जाने के अलावा कोई चारा नहीं है। इस वक्त तो रूस और चीन दोनों की ही दाल पतली हो रही है। एक की यूक्रेन के कारण और दूसरे की कोरोना के कारण ! अमेरिका तो पाकिस्तान का सबसे बड़ा मददगार रहा है। यदि शाहबाज शरीफ थोड़ी हिम्मत दिखाएं और नई पहल करें तो पाकिस्तान का उद्धार हो सकता है। यदि अमेरिका से उसके संबंध बेहतर होंगे तो भारत के साथ वे अपने आप सुधरेंगे। अमेरिका इस वक्त चीन से बेहद खफा है। उसके इस्पाती दोस्त पाकिस्तान को वह अपनी हथेली पर उठा लेगा। शाहबाज चाहें तो भारत के साथ बंद हुए सभी रास्तों को खोलने की भी कोशिश कर सकते हैं। अमेरिका अपने आप उसके लिए अपनी भुजाएं फैला देगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार हैं।)
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विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस (3 मई) पर विशेष योगेश कुमार गोयल प्रेस को सदैव लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की संज्ञा दी जाती रही है क्योंकि लोकतंत्र की मजबूती में इसकी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यही कारण है कि स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र के लिए प्रेस की स्वतंत्रता को बहुत अहम माना गया है लेकिन विडंबना है कि विगत कुछ वर्षों से प्रेस स्वतंत्रता के मामले में लगातार कमी देखी जा रही है। प्रेस की स्वतंत्रता को सम्मान देने और उसके महत्व को रेखांकित करने के लिए ही 3 मई को ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ मनाया जाता है। यूनेस्को वर्ष 1997 से प्रतिवर्ष इसी दिन विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। प्रेस का सदैव यही दायित्व रहा है कि वह प्रत्येक जानकारी को बिल्कुल सटीक और सही तरीके से लोगों तक पहुंचाए ताकि लोगों को उसके बारे में उतना ही सच पता चल सके, जितना वास्तविक रूप से उस खबर में है लेकिन इसके लिए प्रेस की स्वतंत्रता बेहद जरूरी है ताकि वह निडर-निर्भीक रहते हुए इस कार्य को बखूबी कर सके। अंग्रेजी शब्द PRESS का शाब्दिक अर्थ समझना भी आवश्यक है। अंग्रेजी वर्णमाला के इन पांच अक्षरों का काफी गहरा अर्थ है। पी-पब्लिक, आर-रिलेटेड, ई-इमरजेंसी, एस-सोशल, एस-सर्विस अर्थात् जनता से संबंधित आपातकालीन सामाजिक सेवा। भारत में प्रेस की भूमिका और उसकी ताकत को रेखांकित करते हुए अकबर इलाहाबादी ने एक बार कहा था, ‘‘न खींचो कमान, न तलवार निकालो, जब तोप हो मुकाबिल, तब अखबार निकालो।’’ इसका आशय यही था कि कलम, तोप व तलवार तथा अन्य किसी भी हथियार से ज्यादा ताकतवर है। दरअसल कलम को तलवार से भी ज्यादा ताकतवर और तलवार की धार से भी ज्यादा प्रभावी इसलिए माना गया है क्योंकि इसी की सजगता के कारण न केवल भारत में बल्कि अनेक देशों में पिछले कुछ दशकों के भीतर बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश हो सका, जिसके चलते बड़े-बड़े उद्योगपतियों, नेताओं तथा विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गजों को एक ही झटके में अर्श से फर्श पर आना पड़ा। अमेरिका के मशहूर ‘वाटरगेट’ कांड का भंडाफोड़ 1970 के दशक में हुआ था, जिसके चलते अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को पद छोड़ना पड़ा था। भारत में भी मुख्यमंत्री और मंत्री जैसे पदों पर रहे कुछ आला दर्जे के नेता प्रेस की सजगता के ही कारण भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों में आज भी जेल की हवा खा रहे हैं। संभवतः यही कारण है कि समय-समय पर कलम रूपी इस हथियार को भोथरा बनाने या तोड़ने के कुचक्र होते रहे हैं और विभिन्न अवसरों पर न केवल भारत में बल्कि दुनियाभर में सच की कीमत कुछ पत्रकारों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। 3 दिसम्बर 1950 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपने सम्बोधन में कहा था, ‘‘मैं प्रेस पर प्रतिबंध लगाने के बजाय, उसकी स्वतंत्रता के बेजा इस्तेमाल के तमाम खतरों के बावजूद पूरी तरह स्वतंत्र प्रेस रखना चाहूंगा क्योंकि प्रेस की स्वतंत्रता एक नारा भर नहीं है बल्कि लोकतंत्र का एक अभिन्न अंग है।’’ हालांकि पिछले दशकों में प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में स्थितियां काफी बदली हैं। आज दुनियाभर में पत्रकारों पर राजनीतिक, अपराधिक और आतंकी समूहों का सर्वाधिक खतरा है और भारत भी इस मामले में अछूता नहीं है। विड़म्बना है कि दुनियाभर के न्यूज रूम्स में सरकारी तथा निजी समूहों के कारण भय और तनाव में वृद्धि हुई है। विश्वभर के पत्रकारों पर हमलों का दस्तावेजीकरण करने और मुकाबला करने के लिए कार्यरत पेरिस स्थित ‘रिपोर्टर्स सैन्स फ्रंटियर्स’ (आरएसएफ) अथवा ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ नामक एक गैर-लाभकारी संगठन प्रतिवर्ष 180 देशों और क्षेत्रों में प्रेस की स्वतंत्रता की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक’ नामक वार्षिक रिपोर्ट पेश करता है। दुनियाभर के देशों में प्रेस की स्वतंत्रता की स्थिति की विवेचना करते हुए यह संगठन स्पष्ट करता रहा है कि किस प्रकार विश्वभर में पत्रकारों के खिलाफ घृणा हिंसा में बदल गई है, जिससे दुनियाभर में पत्रकारों में डर बढ़ा है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2021 रिपोर्ट में कहा गया था कि दुनिया के 73 देशों में प्रेस की स्थिति बहुत बुरी है जबकि 59 देशों में बुरी स्थिति में है और बाकी देश कुछ बेहतर हैं लेकिन उनकी स्थिति भी समस्याग्रस्त ही है। 2019 की रिपोर्ट में भारत 140वें स्थान पर था, जो 2021 की रिपोर्ट में 46.56 स्कोर के साथ 142वें स्थान पर पहुंच गया। संस्था की वर्ष 2009 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत प्रेस की आजादी के मामले में 109वें पायदान पर था लेकिन 2021 तक 33 पायदान लुढ़ककर 142वें स्थान पर पहुंच गया। हालांकि भारत सरकार विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए उसे मानने से इनकार करती रही है। केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर तो ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ की रिपोर्ट को मानने से इनकार करते हुए संसद में लिखित जवाब में कह चुके हैं कि विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक का प्रकाशन एक विदेशी गैर सरकारी संगठन द्वारा किया जाता है और सरकार इसके विचारों तथा देश की रैंकिंग को नहीं मानती। उनका कहना था कि इस संगठन द्वारा निकाले गए निष्कर्षों से सरकार विभिन्न कारणों से सहमत नहीं है, जिसमें नमूने का छोटा आकार, लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को बहुत कम या कोई महत्व नहीं देना, एक ऐसी कार्यप्रणाली को अपनाना, जो संदिग्ध और गैर पारदर्शी हो, प्रेस की स्वतंत्रता की स्पष्ट परिभाषा का अभाव आदि शामिल हैं। अनुराग ठाकुर का कहना था कि केन्द्र सरकार पत्रकारों सहित देश के प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा और रक्षा को सर्वाेच्च महत्व देती है। पत्रकारों की सुरक्षा पर विशेष रूप से 20 अक्तूबर 2017 को राज्यों को एक एडवाजरी जारी की गई थी, जिसमें पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानून को सख्ती से लागू करने के लिए कहा गया था। सरकार विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक रिपोर्ट को माने या न माने किन्तु आए दिन पत्रकारों पर होने वाले हमले और थानों में बेवजह दर्ज होने वाली एफआईआर और पत्रकारों की गिरफ्तारियों की खबरें आती रहती हैं। ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट’ (सीपीजे) द्वारा 2021 की वार्षिक रिपोर्ट में बताया गया है कि इस वर्ष विश्वभर में 293 पत्रकारों को उनकी पत्रकारिता को लेकर जेल में डाला गया जबकि 24 पत्रकारों की मौत हुई और यदि भारत की बात की जाए तो यहां कुल पांच पत्रकारों की हत्या उनके काम की वजह से हुई। प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में यह गिरावट स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। प्रेस की स्वतंत्रता में कमी आने का सीधा और स्पष्ट संकेत है, लोकतंत्र की मूल भावना में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो अधिकार निहित है, उसमें धीरे-धीरे कमी आ रही है। भारतीय संविधान में प्रेस को अलग से स्वतंत्रता प्रदान नहीं की गई है बल्कि उसकी स्वतंत्रता भी नागरिकों की अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता में ही निहित है और देश की एकता तथा अखण्डता खतरे में पड़ने की स्थिति में इस स्वतंत्रता को बाधित भी किया जा सकता है किन्तु ऐसी कोई स्थिति निर्मित नहीं होने पर भी देश में पत्रकारिता का चुनौतीपूर्ण बनते जाना लोकतंत्र के हित में कदापि नहीं है। यदि प्रेस की स्वतंत्रता पर इसी प्रकार प्रश्नचिन्ह लगते रहे तो पत्रकारों से सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे उठाने की कल्पना कैसे की जा सकेगी? (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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सुरेश हिंदुस्थानी किसी भी देश के शक्तिशाली होने के अपने निहितार्थ हैं। इन निहितार्थों का मन, वाणी और कर्म से अध्ययन किया जाए तो जो प्राकट्य होता है, वह यही कि सबके भाव राष्ट्रीय हों, सबके अंदर एक-दूसरे के प्रति सामंजस्य भाव की प्रधानता हो, लेकिन वर्तमान में समाज के बीच सामंजस्य के प्रयास कम और समाज के बीच भेद पैदा के प्रयास ज्यादा हो रहे हैं। जिसके चलते हमारी राष्ट्रीय अवधारणाएं तार-तार हो रही हैं। कौन नहीं जानता कि भारतीय समाज की इसी फूट के कारण भारत ने गुलामी के दंश को भोगा था। अंग्रेजों की नीति का अनुसरण करने वाले राजनीतिक दल निश्चित ही भारत के समाज में एकात्म भाव को स्थापित करने के प्रयासों को रोकने का उपक्रम कर रहे हैं। समाज को ऐसे षड्यंत्रों को समझने का प्रयास करना चाहिए। लम्बे समय से भारत में इस धारणा को समाज में संप्रेषित करने का योजनाबद्ध प्रयास किया गया कि मुस्लिम तुष्टिकरण ही धर्मनिरपेक्षता है। इसी कारण गंगा-जमुना तहजीब की अपेक्षा केवल हिन्दू समाज से ही की जाती रही है। भारत का हिन्दू समाज पुरातन समय से इस संस्कृति को आत्मसात किए हुए है। तभी तो इस देश में सभी संप्रदाय के व्यक्तियों को पर्याप्त सम्मान दिया गया। यह सभी जानते हैं कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी अपने आपको धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल मानती है और इन्हीं दलों ने मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति की। इसके कारण देश में जिस प्रकार से वर्ग भेद की खाई पैदा हुई, उससे आज का वातावरण पूरी तरह से प्रदूषित हो रहा है। अभी हाल ही में जिस प्रकार रामनवमी और हनुमान जन्मोत्सव की शोभायात्राओं पर पत्थरबाजी की गई, वह देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप की परिभाषा के दायरे में बिलकुल नहीं आता। धर्मनिरपेक्षता की सही परिभाषा यही है कि देश में धर्मों को समान दृष्टि से देखा जाए, लेकिन क्या देश में समाज के द्वारा सभी धर्मों को समान रूप से देखने की मानसिकता विकसित हुई है। अगर नहीं तो फिर धर्मनिरपेक्षता का कोई मतलब नहीं है। वस्तुत: धर्मनिरपेक्षता शब्द समाज में समन्वय स्थापित करने में नाकाम साबित हो रहा है, इसके बजाय वर्ग भेद बढ़ाने में ही बहुत ज्यादा सहायक हो रहा है। हालांकि यह शब्द भारत के मूल संविधान का हिस्सा नहीं था। इसे इंदिरा गांधी के शासनकाल में आपातकाल के दौरान जोड़ा गया। इस शब्द के आने के बाद ही देश में तुष्टिकरण की राजनीतिक भावना ज्यादा जोर मारने लगी। यहां हम हिन्दू और मुस्लिम वर्ग को अलग-अलग देखने को प्रमुखता नहीं दे रहे हैं। और न ही ऐसा दृश्य दिखाने का प्रयास ही करना चाहिए। बात देश के समाज की है, जिसमें हिन्दू भी आता है और मुस्लिम भी। जब हम समाज के तौर पर चिंतन करेंगे तो स्वाभाविक रूप से हमें वह सब दिखाई देगा, जो एक निरपेक्ष व्यक्ति से कल्पना की जा सकती है। लेकिन इसके बजाय हम पूर्वाग्रह रखते हुए किसी बात का चिंतन करेंगे तो हम असली बातों से बहुत दूर हो जाएंगे। आज देश में यही हो रहा है। आज का मीडिया अखलाक और तबरेज की घटना को भगवा आतंक के रूप में दिखाने का साहस करता दिखता है, लेकिन इन घटनाओं के पीछे का सच जानने का प्रयास नहीं किया जाता। संक्षिप्त रूप में कहा जाए तो इन दोनों की अनुचित क्रिया की ही समाज ने प्रतिक्रिया की थी, जो समाज की जाग्रत अवस्था कही जा सकती है। यही मीडिया उस समय अपनी आंखों पर पट्टी बांध लेता है, जब किसी गांव से हिन्दुओं के पलायन की खबरें आती हैं। जब महाराष्ट्र के पालघर में दो संतों की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है। इसी प्रकार महाराष्ट्र में हनुमान चालीसा पढ़ने की कवायद पर सांसद नवनीत राणा और उनके पति रवि राणा पर राष्ट्रद्रोह का प्रकरण दर्ज हुआ है। हो सकता है कि राणा दंपत्ति का तरीका गलत हो, लेकिन कम से कम भारत में हनुमान चालीसा पढ़ने को गलत तो नहीं ठहराया जा सकता। जब हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं तो हिन्दू समाज के व्यक्तियों की ओर से की गई जायज कार्यवाही को इस दायरे से बाहर क्यों रखा जाता है। अब फिर से हम अपने मूल विषय पर आते हैं। आज कई लोग और राजनेता यह सवाल उठाते हैं कि हिन्दू उनके क्षेत्र से यात्रा क्यों निकालता है? यह सवाल इसलिए भी जायज नहीं कहा जा सकता है कि जब देश में सभी धर्मों के धार्मिक समारोह बिना किसी रोकटोक के किसी भी स्थान से निकाले जा सकते हैं, तब हिन्दू समाज की धर्म यात्राएं क्यों नहीं निकाली जा सकती। आज अगर वे अपने मोहल्ले से रोक रहे हैं, तब कल यह भी हो सकता है कि पूरे नगर में पत्थरबाजी करके रोकने का प्रयास करें। हो सकता है कि यह घटनाएं अभी छोटे रूप में प्रयोग के तौर पर हो रही हों, लेकिन कल के दिन जब इस प्रकार की घटनाएं बड़ा रूप लेंगी, तब स्थिति हाथ से निकल जाएगी। इसलिए समाज के बीच लकीर खींचने वाले ऐसे किसी भी प्रयास का किसी भी वर्ग को समर्थन नहीं करना चाहिए। आज ऐसे प्रयासों की आवश्यकता है, जिससे समाज के बीच सामंजस्य स्थापित हो सके। इसके लिए सारे समाज को अपनी ओर से प्रयास करने चाहिए। आज हमें धर्मनिरपेक्षता के असली मायनों को समझने की आवश्यकता है। भारतीय समाज के सभी नागरिकों को एक-दूसरे की खुशियों में शामिल होकर ऐसा भाव प्रदर्शित करना चाहिए, जो एकता की भावना को पुष्ट कर सके। इसके लिए सबसे पहले हमारे राजनीतिक दलों के नेताओं की ओर से प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। हालांकि आज जिस प्रकार से राजनीति की जा रही है, उसको देखते हुए यह उम्मीद बहुत कम है। इसलिए यह प्रयास मुस्लिम और हिन्दू समाज की ओर से ही प्रारंभ किए जाएं, यह समय की मांग है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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सियाराम पांडेय ‘शांत’ दिल्ली के विज्ञान भवन में छह साल बाद मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों का सम्मेलन हुआ। इसमें अदालतों में न्यायाधीशों की कमी का मुद्दा तो उठा ही, भारतीय भाषाओं में कामकाज पर भी जोर दिया गया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि बड़ी अदालतों में अगर स्थानीय भाषाओं में कार्य हो तो न्याय प्रणाली में आमजन का विश्वास बढ़ेगा। वे इससे अधिक जुड़ाव महसूस करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने भी कहा है कि अब न्यायालयों में स्थानीय भाषाओं में काम करने का वक्त आ गया है लेकिन अदालतों में स्थानीय भाषाओं के प्रयोग के लिए एक कानूनी व्यवस्था की जरूरत है। यह काम तो आजादी के कुछ समय बाद या यों कहें कि संविधान लागू किए जाने के दिन ही हो जाना चाहिए था, अगर उसे करने की जरूरत आजादी के 75 वें साल में महसूस की जा रही है तो इसे न्यायिक विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा? खैर जब जागे तभी सवेरा लेकिन कानूनी व्यवस्था बनाने और लक्ष्मण रेखा के बहाने इसे और अधिक खींचा नहीं जाना चाहिए। शुभस्य शीघ्रं। वैसे भी यह देश 1774 से ही सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेजी का प्रभाव देख और झेल रहा है। यह गुलाम भारत की विवशता हो सकती थी लेकिन आजाद भारत में तो निज भाषा उन्नति अहै वाली रीति-नीति अपनाई जा सकती थी। हमें भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर के नेतृत्व वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ के उस निर्णय को भी याद करना चाहिए जिसमें कहा गया था कि सुप्रीम कोर्ट की भाषा अंग्रेजी ही है और इसकी जगह हिन्दी को लाने के लिए वह केंद्र सरकार या संसद को कानून बनाने के लिए नहीं कह सकते क्योंकि ऐसा करना विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल देना होगा। इसके बाद भी तत्कालीन सरकार की सेहत पर असर नहीं पड़ा था। जिस अंग्रेजी को वादकारी जानता ही नहीं, उसमें वकील क्या बहस कर हा है और जज क्या फैसला दे रहे हैं, यह वादी-प्रतिवादी को पता ही नहीं चलता। संविधान की धारा 384 में संशोधन और बड़ी अदालतों में भारतीय भाषाओं में कामकाज शुरू करने के लिए एकात्म मानववाद के प्रणेता पं. दीन दयाल उपाध्याय के न्यायविद प्रपौत्र पं. चंद्रशेखर उपाध्याय हिंदी न्याय आंदोलन चला रहे हैं। उन्होंने इस दिशा में व्यापक प्रयास भी किए हैं। हिंदी से एलएलएम करने वाले वे भारतीय छात्र हैं और हिंदी से एलएलएम करने में उन्हें अपने कई साल गंवाने पड़े। अदालत के चक्कर काटने पड़े। अगर सरकार ने उनके प्रयासों पर भी गौर किया होता तो आज बड़ी अदालतों में लोगों को अपनी बोली-बानी में न्याय मिल रहा होता। वाराणसी के जिला एवं सत्र न्यायालय में पंडित श्याम जी उपाध्याय वर्षों से संस्कृत में वाद दायर करते और बहस करते आ रहे हैं। मूल भावना भाषा नहीं, न्याय है। इसमें संदेह नहीं कि हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के पक्षधर लंबे समय से यह मांग उठाते आ रहे हैं कि अदालतों के कामकाज की भाषा ऐसी हो जिसे आम आदमी भी समझ सके और वह हर बात के लिए वकीलों पर निर्भर न रहे। भारत एक आजाद और लोकतांत्रिक देश है और यहां अदालती कामकाज की भाषा आज भी अंग्रेजी है। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति भला और क्या हो सकती है? वह अंग्रेजी जिसे हटाने की मांग अगर समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया करते रहे तो संघ और भाजपा के नेता भी। हिंदी, हिन्दू और हिंदुस्तान के नारे के साथ सत्ता में आई भाजपा के बड़े नेता, मौजूदा रक्षा मंत्री और तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की मांग की थी लेकिन केंद्र सरकार बड़ी अदालतों में हिन्दी को न्याय की भाषा आज तक नहीं बना पाई है। हमें 1967 के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन को भी नहीं भूलना चाहिए। मौजूदा समय यह सोचने का है तो आखिर वे कौन लोग हैं जो बड़ी अदालतों में अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं और सरल, सहज व सस्ते न्याय की भारतीय अवधारणा को पलीता लगा रहे हैं। गौरतलब है कि संविधान की धारा 348 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के कामकाज की भाषा अंग्रेजी होगी लेकिन यदि संसद चाहे तो इस स्थिति को बदलने के लिए कानून बना सकती है। इसी तरह हाईकोर्ट के कामकाज की भाषा भी अंग्रेजी है लेकिन राष्ट्रपति की पूवार्नुमति लेकर राज्यपाल अपने राज्य में स्थित हाईकोर्ट को हिन्दी या उस राज्य की सरकारी भाषा में कामकाज करने के लिए कह सकते हैं, लेकिन ऐसे हाईकोर्ट भी अपने आदेश, निर्देश और फैसले अंग्रेजी में ही देंगे। ऐसा तो है नहीं कि संसद में संविधान संशोधन नहीं हुए। इतने संशोधन हुए कि मूल संविधान तलाश पाना किसी के लिए भी कठिन हो सकता है। ऐसे में एक संशोधन यह भी हो जाता। इसकी संभावना तलाशने के लिए अलग से समूह गठित करने या अधिकरण बनाने की जरूरत ही नहीं थी लेकिन इस पूरे प्रकरण को जिस तरह जलेबी पेंच बनाया गया, वह समझ से परे है। अब भी समय है कि सरकार एक संविधान संशोधन कर दे कि आज से बड़ी-छोटी सभी अदालतों में कामकाज भारतीय भाषाओं में होंगे। समस्या चाहे जितनी बड़ी क्यों न हो लेकिन उसका समाधान बहुत छोटा होता है, इस देश के हुक्मरानों को इस बाबत सोचना होगा । अगर हम सात साल पीछे जाएं तो सोचने पर विवश होना पड़ेगा कि क्या सरकार इस मुद्दे पर वाकई गंभीर है। जनवरी 2015 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल कर संविधान में संशोधन कर हिन्दी को सुप्रीम कोर्ट एवं सभी 24 हाईकोर्ट के कामकाज की भाषा बनाए जाने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। यह शपथपत्र उसी जनहित याचिका के जवाब में दाखिल किया गया था जिसे टीएस ठाकुर के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने खारिज किया था। केंद्रीय गृह मंत्रालय का हलफनामा 2008 में विधि आयोग द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट पर आधारित था जिसमें आयोग ने विचार व्यक्त किया था कि सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में हिन्दी का प्रयोग अनिवार्य करने का प्रस्ताव व्यावहारिक नहीं है और लोगों के किसी भी हिस्से पर कोई भी भाषा जबर्दस्ती नहीं लादी जा सकती। इसके पीछे तर्क यह दिया गया था कि हाईकोर्ट के न्यायाधीशों का अक्सर एक राज्य से दूसरे राज्य में तबादला होता रहता है, इसलिए उनके लिए यह संभव नहीं है कि वे अपने न्यायिक कर्तव्यों को अलग-अलग भाषाओं में पूरा कर सके। यह तर्क कुछ हद तक सहज हो सकता है लेकिन मौजूदा समय में अनुवाद की सुविधा है। टेली प्रॉम्प्टर की सुविधा है। उसका इस्तेमाल तो किया ही जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के समक्ष अंग्रेजी के साथ ही भारतीय भाषाओं में भी न्याय देने की बात कही है,वह सुखद भी है और भारतीय हितों के अनुरूप भी लेकिन अब न चूक चौहान वाले सिद्धांतों पर अमल करते हुए उसे गंभीरता से लिया जाए।बतौर प्रधानमंत्री दुनिया के तमाम देश इस व्यवस्था पर काम कर रहे हैं तो भारत में भी इस तरह के न्यायिक सुधार होने ही चाहिए। भारतीय धर्मग्रंथों में भी न्याय को सुशासन का आधार कहा गया है। इस वजह से न्याय की भाषा ऐसी होनी चाहिए जो सबकी समझ में आ सके। का संबंध आम लोगों से होना चाहिए और इसे उनकी भाषा में होना चाहिए। न्याय और शासकीय आदेश अगर न्याय की भाषा की वजह से एक जैसे लगें तो इस दोष का निवारण तो होना ही चाहिए। जिस देश में 3.5 लाख से अधिक विचाराधीन कैदी जेलों में बंद हों, वहां भाषागत, व्यवस्थागत चिंता लाजिमी हो जाती है। प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों से न्याय प्रदान करने को आसान बनाने के लिए पुराने कानूनों को निरस्त करने की भी अपील की है। यह भी कहा है कि उनकी सरकार ने वर्ष 2015 में, लगभग 1800 कानूनों की पहचान की, जो अप्रासंगिक हो चुके थे। इनमें से 1450 कानूनों को समाप्त कर दिया गया। लेकिन, राज्यों ने केवल 75 ऐसे कानूनों को समाप्त किया है। प्रधानमंत्री ने एक ऐसी न्यायिक प्रणाली के निर्माण पर जोर देने की बात कही है जहां न्याय आसानी से , जल्दी से और सभी के लिए उपलब्ध हो सके। उन्होंने कहा है कि न्यायपालिका की भूमिका संविधान के संरक्षक की है, वहीं विधायिका नागरिकों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। मेरा मानना है कि इन दोनों का संगम एक प्रभावी व समयबद्ध न्यायिक प्रणाली के लिए रोडमैप तैयार करेगा। प्रधान न्यायाधीश ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के स्वीकृत 1104 पदों में से 388 के रिक्त होने का हवाला दिया। यह भी बताने और जताने के प्रयास किया कि न्यायाधीशों के पद भरने के लिए उन्होंने 180 सिफारिशें की हैं। इनमें से 126 नियुक्तियां की गई हैं। हालांकि, 50 प्रस्तावों को अभी भी भारत सरकार के अनुमोदन की प्रतीक्षा है। उच्च न्यायालयों ने भारत सरकार को लगभग 100 नाम भेजे हैं। वे अभी तक हम तक नहीं पहुंचे हैं। स्वीकृत संख्या के अनुसार, हमारे पास प्रति 10 लाख जनसंख्या पर लगभग 20 न्यायाधीश हैं, जो बेहद से कम हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि बुनियाद मजबूत न हो तो ढांचा मजबूत नहीं हो सकता। प्रधान न्यायाधीश रमण की यह बात ढांढस बंधाती है कि संवैधानिक अदालतों के समक्ष वकालत किसी व्यक्ति के कानून की जानकारी और समझ पर आधारित होनी चाहिए न कि भाषाई निपुणता पर। न्याय व्यवस्था और हमारे लोकतंत्र के अन्य सभी संस्थानों में देश की सामाजिक और भौगोलिक विविधता परिलक्षित होनी चाहिए। लगता है कि अब समय आ गया है कि इस मांग पर फिर से विचार किया जाए और इसे तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचाया जाए। प्रधानमंत्री भी सहमत हैं और मुख्य न्यायाधीश भी तो फिर देर किस बात की? सरकार पहल करे और न्यायपालिका अमल। कोई भी देश अपनी भाषा में ही बेहतर कार्य निष्पादन कर सकता है। इसलिए यही उचित समय है।इसका सम्यक उपयोग किया जाए।
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डॉ. प्रभात ओझा अभी पिछले ही महीने की 14 तारीख को वे हमसे विदा हुए। इस अर्थ में उन्हें भूलने का कोई मतलब ही नहीं है। फिर भी मजदूर दिवस आया तो उनके जुझारू जीवन को रखना स्वाभाविक है। एशिया की सबसे बड़ी एल्यूमिनियम कंपनी हिंडाल्को की कहानी उसके प्रथम मजदूर नेता रामदेव सिंह के बिना पूरी नहीं होती। प्रथम इसलिए कि कंपनी शुरू हुई और उसी के साथ उसमें काम करने वाले मजदूरों की मजबूरियां भी। ऐसे में उनके लिए रामदेव बाबू ने आवाज उठायी। वह आवाज उनकी जिद और दृढ़ संकल्प की कहानियों से भरी है। रेणूकूट हिंडालको जब शुरू हुआ, आसपास वीरान था। मजदूरों ने काम शुरू किया तो बाहर जीवन की सामान्य सुविधाओं का मिलना भी मुश्किल था। सबसे बड़ी मुश्किल कार्य क्षेत्र में भी दिखने लगी। चिमनियों के बीच काम करने वालों को लिए सामान्य उपकरण तो छोड़िए, हेलमेट और धातु वाले अन्य शरीर-रक्षक उपकरण तक नहीं थे। इन साधनों के साथ बाहर बाजार की शुरुआत आसान नहीं थी। आज के कारखाने और व्यवस्थित बाजार को देखते हुए तब के कष्ट की कल्पना नहीं की जा सकती। यह सब सुलभ कराने में रामदेव बाबू के संघर्ष की कथा लंबी हो सकती है। फिर भी एक तथ्य पूरी कहानी का सार है कि वे 14 साल तक नौकरी से बाहर रखे गये। इन 14 वर्षों को राम की तरह इसे रामदेव का भी बनवास कहा जा सकता है। उन्होंने इस दौरान ट्रेड यूनियन और उसकी गतिविधि जारी रखने के लिए मजदूर विरोधी राक्षसों से संघर्ष किया। मजदूरों के बीच रोशनी लाने वाले और बिजली बत्तियों से चमचमाता बाजार बसाने वाले रामदेव सिंह का जीवन टीन शेड में ही गुजरा। वह कभी छप्पर वाला मकान भी नहीं बना पाए। जिनके बारे में मशहूर है कि हिंडाल्को में सैकड़ों योग्य लोगों की नौकरी उनके एक बार कह देने से लग गई, अपने तीन बेटे और बेटी की नौकरी वह नहीं लगवा पाए। बिहार के सिवान जिले के कौंसड़ गाँव में जन्मे रामदेव सिंह एक सामान्य किसान के बेटे थे। 18 वर्ष की वय में परिवार का सहयोग करने के लिये नौकरी ढूंढते हुए वह गोरखपुर चले आए। एक कंपनी में सुपरवाइजर का काम मिला, जिसमें उन्हें 70 रुपये तनख्वाह के मिलने लगे। वह अधिक कमाई के लिये झरिया के शिवपुर कोइलरी में आ गए। जब उनकी मां को पता चला कि कोलफील्ड में काम करने के लिए जान जोखिम में डालना पड़ता है, तो उन्हें वहाँ से नौकरी छोड़ने को कहा। फिर जेके नगर होते हुए उनका रुख रेनूकूट की ओर हुआ। वर्ष 1961-62 के बीच उनकी नौकरी हिंडाल्को कारखाने के पॉट रूम में लगी, जहां आग उगलती भट्ठियाँ और उबलते बॉयलर्स होते थे। ऊपर से तनख्वाह और सुविधाएं नाम मात्र की थीं। अधिकारियों की डाँट-फटकार से भी वहाँ के मजदूर त्रस्त थे। आवास के नाम पर एक टीन शेड के नीचे 30-30 मजदूर भेड़-बकरियों के जैसे रहा करते थे। यह सब देख उबलते बॉयलर्स की तरह युवा रामदेव के अंदर का क्रांतिकारी उबल पड़ा। वह सीधे फोरमैन से जाकर मजदूरों की समस्या के लिये भिड़ गए। उन लोगों ने नौकरी से निकालने की धमकी दी तो वह और तन गए। उनके खिलाफ वार्निंग लेटर आया, जिसे उन्होंने अधिकारियों के सामने सुलगते सिगरेट से जला दिया। यह सब साथी मजदूरों के लिये टॉनिक की घूंट थी, कई अमरीकी कर्मचारी भी उनके समर्थन में आए। कुछ हफ्तों में रामदेव सिंह ‘नेता रामदेव’ बन गए थे। मैनेजमेंट ने एक दिन उन्हें नौकरी से निकाल दिया। जब वह अगले दिन गेट पर आए तो बीसियों सिक्योरिटी गार्ड उनका रास्ता रोकने को खड़े थे। मजदूरों की भीड़ गेट पर ही धरने पर बैठ गई। रामदेव सिंह जिंदाबाद के नारे लगे। मजदूरों की मांग थी कि रामदेव अगर नौकरी नहीं करेंगे तो हम भी काम नहीं करेंगे। मैनेजमेंट झुक गया और चेतावनी देकर उन्हें वापस काम पर रख लिया। हालांकि उन्होंने इतने बड़े समर्थन के बाद मजदूरों की लड़ाई और तेज कर दी। इस तरह हिंडाल्को के मजदूरों को अपना पहला मजदूर नेता मिल गया था। कुछ महीनों बाद ही उन्हें नौकरी से फिर निकाल दिया गया। उनको जान से मारने की कई बार साजिश हुई। उनके सहयोगियों को भी एक-एक कर झूठे मामलों में फंसा कर जेल भेजा जाने लगा। रामदेव सिंह को भी कई बार जेल जाना पड़ा। वह हिंडाल्को से बाहर थे लेकिन वहाँ के मजदूरों के लिये लड़ते रहे। उनके पीछे गुप्तचरों की टीम लगी रहती थी, इसलिए उन्हें देश की आजादी के क्रांतिकारियों की तरह ठिकाना बदल-बदल कर योजनाएं बनानी पड़ती थीं। हड़ताल पर हड़ताल होते गए, नेता रामदेव सिंह का नाम पहले राज्य के राजनीति में फिर केंद्र की राजनीतिक गलियारों तक पहुँच गया। प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह से रामदेव सिंह ने कई बार मीटिंग की। केन्द्रीय मंत्री रहे राजनारायण और प्रभुनारायण तो उनके संघर्ष के साथी रहे। उनका भरपूर समर्थन हमेशा मिलता रहा। वे हिंडालको मजदूरों और स्थानीय लोगों में इतने लोकप्रिय हो चुके थे कि लोग उन्हें राम और हिंडालको प्रबंधन को रावण की संज्ञा देती रही। वे वहां के भोजपुरी क्षेत्र और लोक जीवन में “आदमी में नउवा, पंछिन में कौआ और नेतन में रामदेउवा” (आदमियों में नाऊ, पंक्षियों में कौआ और नेताओं में रामदेव) के रूप में याद किए जाते रहे। वह हिंडाल्को में पॉट रूम में काम करने के दौरान मजदूरों की दयनीय हालत को देखकर मैनेजमेंट पर हमेशा करारा प्रहार किया करते थे। उन्होंने ‘राष्ट्रीय श्रमिक संघ’ की स्थापना की, जो आज भी सक्रिय है। उस समय रेनूकूट के सड़क के दोनों किनारों पर एक भी झोपड़ी नहीं थी, एक भी दुकानदार नहीं था...सिर्फ बेहया (जंगली झाड़ी) के जंगल थे। रामदेव सिंह ने झोपड़ियाँ बनवाईं, दुकानें खुलवाईं और व्यापार मण्डल के अध्यक्ष बने। उन्होंने बिड़ला मैनेजमेंट के खिलाफ संघर्ष किया, जिसके कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। रामदेव सिंह ने जीवन का पहला आंदोलन साल 1963 में एक रात 11 बजे शुरू किया जब उन्होंने हिंडाल्को में तीन दिन की हड़ताल करा दी। फिर दूसरी हड़ताल 12 अगस्त 1966 में हुई। उसका असर ये हुआ कि रामदेव बाबू समेत 318 लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया। उन्हें बहुत प्रलोभन दिया गया लेकिन उनके जमीर का कोई मोल नहीं लगा सका। साल 1977 में उनके साथी और प्रसिद्ध राजनेता रहे राजनारायण ने उन्हें पुनः हिंडाल्को जॉइन कराया। इस दरम्यान उनका परिवार, उनके बच्चे सब मुफलिसी में जीवन काटते रहे। फिर नौकरी करते हुए भी हिंडाल्को के प्रेसिडेंट को ललकारते रहते थे। हिंडाल्को की मर्जी के खिलाफ रामदेव सिंह ने रेनूकूट के असहाय दुकानदारों को भी बसाया। इस तरह बाबू रामदेव सिंह मजदूरों के साथ-साथ, व्यापारियों और जनता के भी नेता थे। रेनुकूट से सटे पिपरी पुलिस स्टेशन के पास रामदेव सिंह का निवास स्थान था, जहां अक्सर भारतीय राजनीति के बड़े राजनेता राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, राजनारायण, चौधरी चरण सिंह, जॉर्ज फर्नांडीज़, विश्वनाथ प्रताप सिंह चंद्रशेखर, लालू प्रसाद यादव और वर्तमान केन्द्रीय मंत्री राजनाथ सिंह आदि का आना-जाना हुआ करता था। यहीं राजनीतिक विश्लेषण होते। जेपी आंदोलन में भी सक्रिय रामदेव बाबू का राजनीतिक जीवन हमेशा उन्हें परिवार से दूर ही रखे रहा। एक बार की बात है बुजुर्ग हो रहे रामदेव सिंह की तबीयत गंभीर हुई तो उनके बेटे उन्हें लखनऊ के अस्पताल लेकर गए। इसकी सूचना यूपी के मुख्यमंत्री रहे रामनरेश यादव को मिली। वह आनन-फानन उनसे मिलने आए। वह रामदेव बाबू को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। उनका लगाव रामदेव सिंह से आजीवन रहा। ये सारे परिचय मजदूरों और आम लोगों के हित में लगाने का गजब का उनका हुनर था। उनका निधन 87 वर्ष की उम्र में हुआ और जीवन के बड़े हिस्से को उन्होंने इसी लोकहित में लगा दिया। (लेखक, स्वतंत्र पत्रकार और इंदिरा गांधी कला केंद्र के मीडिया सेंटर से भी जुड़े हैं।)
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गिरीश्वर मिश्र साहित्य की दुनिया में गोष्ठी, व्याख्यान और विमर्श नई बात नहीं है। वह निरंतर चलते रहते हैं । आलोचना और समीक्षा के दौर साहित्यकारों के जीवन के प्राणभूत हैं । साहित्य विधाओं में भी अनेक प्रयोग होते रहे हैं और बौद्धिक 'वादों' के पुरोधा अक्सर विवाद के इर्द-गिर्द उपस्थित रहते हैं । अब रचना की जगह मत की पुष्टि या विरोध और रचनाकार के प्रति आग्रह तथा दुराग्रह के उत्सव सोशल मीडिया में भी खूब मनाए जा रहे हैं । इन सब के बीच साहित्य का समकालीन सरोकार घोरतर रूप में तात्कालिक होता जा रहा है । यह भी है कि अब सभ्यता, समाज और संस्कृति के व्यापक सरोकार यदि उठाए जाते हैं तो वे बाजार में स्थित उपभोक्ता व्यक्ति के मनोजगत की परिधि में ही जीवित होते हैं । साहित्य यथार्थ का आईना बन कर ऊबड़- खाबड़ जिंदगी का अक्स हाजिर कर कृतार्थ हो रहा है और यह यथार्थप्रियता उसकी उल्लेखनीय और विशिष्ट उपलब्धि है । परंतु साहित्य का यह आंशिक पक्ष ही है और बहुत हद तक साहित्यिक आलोचना की पश्चिमी दृष्टि की देन है । भारतीय साहित्य दृष्टि में समग्रता , संवाद और पुरुषार्थ की दिशा में प्रेरणा देना मुख्य उद्देश्य है । साहित्य शब्द ही स्वयं में 'सहित' अर्थात साथ लेना और हित के साथ चलने की ओर उद्यत करता है । काव्य प्रयोजनों की चर्चा में भी 'शिव' यानी कल्याणकारी की प्रतिष्ठा एक प्रमुख प्रयोजन के रूप में परिगणित है । इसी अर्थ में नायक पर विस्तृत चर्चा मिलती है और काव्य रचना में धीरोदात्त नायक को आदर्श रूप में पहचाना गया है । समूह और समाज केंद्रित दृष्टि वाली संस्कृति में नायक की ओर सभी की निगाह होती है और उस श्रेष्ठ व्यक्ति के पद-चिह्न सामान्य जन के लिए मार्गदर्शक बन जाते हैं । इसीलिए आधुनिक साहित्य में भी ऐसी युगांतरकारी प्रतिभाओं को लेकर औपन्यासिक रचनाएं हुई हैं और पाठकों में लोकप्रिय भी हुई हैं । इस तरह के प्रयास भारत की लगभग सभी भाषाओं के साहित्य में मिलते हैं । यद्यपि ये समाज की मानसिकता और मूल्यबोध को दिशा देते हैं तथापि साहित्य-संस्कृति की वर्तमान प्रथा की धारा अति यथार्थ की ओर इस तरह आकृष्ट दिखती है कि उदात्त सामाजिक - सांस्कृतिक रचनाशीलता पृष्ठभूमि में चली जाती है । विगत वर्षों में अनेक नगरों में साहित्य उत्सव या लिटरेरी फेस्टिवल ( संक्षेप में लिट फेस्ट !) के आयोजन की प्रथा चल पड़ी है जिसके अपने आशय और लाभ हैं । दिल्ली की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी का भी आयोजन प्रतिवर्ष होता है । ऐसी स्थिति में कदाचित प्रचलित धारा के विपरीत जाते हुए वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय द्वारा एक अद्भुत कार्य हुआ। यहां समाज के महानायकों पर रचित विभिन्न भाषाओं के उपन्यासों पर रचना केंद्रित विमर्श आयोजित किया गया । वर्धा साहित्य महोत्सव की यह संकल्पना कुलपति प्रोफेसर रजनीश कुमार शुक्ल की अभिनव और सार्थक पहल कगी । प्रोफेसर कृष्ण कुमार सिंह के संयोजकत्व में एक प्रकार के अंतर भारती संवाद को आधार बनाते हुए 'साहित्य में समाज के महानायक' विषय पर एकाग्र त्रिदिवसीय विमर्श का 28 अप्रैल को समापन हो गया । विश्वविद्यालय के अमृतलाल नागर सृजन पीठ के तत्वावधान में 'वर्धा साहित्य महोत्सव' शीर्षक इस आयोजन में हिंदी , संस्कृत , मराठी , उड़िया , मलयालम , गुजराती , कन्नड़ , बांग्ला समेत आठ भारतीय भाषाओं के साहित्य के 21 महत्वपूर्ण उपन्यासों पर गहन चर्चा हुई । जिन लेखकों की रचनाएं सम्मिलित की गईं उनमें रांगेय राघव , प्रतिभा राय , विष्णु पण्ड्या , एसी विजय कुमार , अभिराज राजेंद्र मिश्र , विश्वास पाटील, नरेंद्र कोहली , अमृतलाल नागर, मनु शर्मा, एनएस इनामदार, वृन्दावन लाल वर्मा , श्यामल गंगोपाध्याय, दिनकर जोशी, गंगाधर गड़गिल , शिवाजी सावंत, वीरेंद्र कुमार जैन, गिरिराज किशोर, राजेन्द्र भटनागर, भगवान सिंह, सुधाकर अदीब, मोहन दास नेमिशारण्य उल्लेख्य हैं । संस्कृति, सृजनधर्मिता, भाषा, शिल्प, कथ्य , मूल्यवत्ता आदि विविध आयामों पर हुआ यह अखिल भारतीय संवाद साहित्य और समाज के पारस्परिक सम्बन्धों को बौद्धिक जगत में देखने पहचानने की एक नई संस्कृति का संकेत है । यह एक सुखद आश्चर्य रहा कि विविध प्रकार के दबावों से जूझती दुनिया में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, दाराशिकोह, मीरा बाई, आदि शंकर, सरदार पटेल, बाबा साहब अम्बेडकर, कस्तूरबा, विवेकानंद, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, रानी लक्ष्मीबाई, कश्मीर की रानी कोटा, भारतेंदु हरिश्चन्द्र आदि अनेक सांस्कृतिक चरित्रों की गाथा कहने वाली कथा- रचनाओं का आलोचनात्मक पाठ और सजग विमर्श किया गया । इस आयोजन का एक महत्व पूर्ण पक्ष यह भी रहा कि विमर्श में अनेक रचनाओं के मूल लेखक भी उपस्थित रहे और व्याख्या करने वाले सहृदय अध्येता कई पीढ़ियों के थे । यह अनुभव और भी आश्वस्त करने वाला है कि चर्चा मुंहदेखी स्तुति या प्रशस्ति न होकर प्रश्नाकुलता और बौद्धिक साहस पर केंद्रित रही । इस परिचर्चा में कई वरिष्ठ लेखक और विचारक भी सम्मिलित हुए। उनमें उल्लेखनीय हैं गोविंद मिश्र, प्रणव पण्ड्या, अभिराज राजेंद्र मिश्र , केसी अजय कुमार, प्रेमशंकर त्रिपाठी, दामोदर खड़से, रामजी तिवारी, अग्नि शेखर, श्रीराम परिहार, टीवी कट्टीमनी, रमेश पोखरियाल निशंक, नीरजा गुप्त, योगेन्द्र शर्मा ‘अरुण’, बलवंत शांतिलाल जानी और प्रकाश बरतूनिया। विश्वविद्यालय के अनेक प्राध्यापकों ने भी विमर्श में सक्रिय रूप से भाग लिया और करोना पश्चात विश्वविद्यालय की शैक्षिक जीवंतता को प्रमाणित किया। पूरा आयोजन यू ट्यूब पर प्रसारित रहने से दूरस्थ लोगों के लिए भी उपलब्ध रहा । समाज के लिए आलोक स्तंभ सदृश चरित्र स्मरण में रहने से राह सूझती है और आत्मविश्वास भी बढ़ता है । इस तरह के आयोजन यह भी स्थापित करते हैं कि साहित्य का संस्कृति और संस्कार के साथ भी गहन रिश्ता है । राष्ट्र की जीवंतता और आत्मनिर्भरता का यह साहित्य राग अनेक संभावनाओं वाला है जिधर कम ही ध्यान जाता है पर अच्छे मनुष्य के निर्माण के लिए साहित्य का कोई विकल्प नहीं है । भाषा और संस्कृति से जुड़े विश्वविद्यालय की साहित्य को लोक से जोड़ने की यह पहल स्तुत्य प्रयास है। इस साहित्य उत्सव की उपलब्धि के रूप में विमर्शों को पुस्तकाकार प्रकाशित करना समीचीन होगा। (लेखक, साहित्यकार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक भारतीय राजनीति का यह अनिवार्य चरित्र बन गया है कि लोकहितकारी मुद्दों को भी सांप्रदायिक रंगों में रंग दिया जाता है। जैसे अवैध मकानों को गिराना और धर्मस्थलों की कानफोड़ू आवाज को रोकना अपने आप में सर्वहितकारी कार्य हैं, लेकिन इन्हें ही लेकर आजकल देश में विभिन्न संप्रदायों के नेता और राजनीतिक दल आपस में दंगल पर उतारू हो गए है। मुंबई में अब महाराष्ट्र नव निर्माण सेना ने धमकी दी है कि 3 मई (ईद के दिन) तक यदि महाराष्ट्र सरकार ने मस्जिदों से लाउडस्पीकर नहीं हटाए तो वह मस्जिदों के सामने हनुमानचालीसा का पाठ करेंगे। यदि यह सेना सभी धर्मस्थलों- मस्जिदों, मंदिरों, गिरजाघरों, गुरुद्वारों आदि के लिए इस तरह के प्रतिबंधों की मांग करती तो वह जायज होती लेकिन सिर्फ मस्जिदों को निशाना बनाना तो शुद्ध सांप्रदायिकता है या यों कहें कि थोक वोट की राजनीति है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने इस कानफोड़ू आवाज के खिलाफ अभियान शुरू किया तो उसने किसी भी धर्मस्थल को नहीं बख्शा। उसने मंदिरों और मस्जिदों पर ही नहीं, जुलूसों पर भी तरह-तरह की मर्यादाएं लागू कर दी हैं। इसी तरह बुलडोजर मामा की तरह प्रसिद्ध हुए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने पिछले दिनों अवैध मकान ढहाने में कोई भेदभाव नहीं किया। उनके बुलडोजरों ने मुसलमानों के जितने मकान ढहाए, उससे कहीं ज्यादा हिंदुओं के ढहा दिए। अवैध मकानों को ढहाना तो ठीक है लेकिन सिर्फ दंगाइयों के ही क्यों, सभी अवैध मकानों को ढहाने का एकसार अभियान क्यों नहीं चलाया जाता? ढहाने के पहले उन्हें सूचित किया जाना भी जरूरी है। इसके अलावा जो गलत ढंग से ढहाए गए हैं, उन मकानों को फिर तुरंत बना देना और उनका पर्याप्त हर्जाना भरना भी जरूरी है। अवैध मकानों को ढहाने का मामला हो या कानफोड़ू आवाज को काबू करना हो, कोई भी भेदभाव करना अनैतिक और अवैधानिक है। जहां तक मस्जिदों से उठनेवाली अजान की आवाजों या मंदिर की भजन-मंडलियों के बजनेवाले भोंपुओं का सवाल है, दुनिया के कई देशों में इन पर कड़े प्रतिबंध हैं। हमारे मुसलमान जरा सउदी अरब और इंडोनेशिया की तरफ देखें। इस्लाम की दृष्टि से एक सबसे महत्वपूर्ण और दूसरा, सबसे बड़ा देश है। सउदी अरब की मस्जिदों में लाउडस्पीकर हैं लेकिन वे उनकी 1/3 आवाज से ज्यादा नहीं चला सकते। इंडोनेशिया में इस तरह के प्रतिबंध और भी बारीकी से लगाए गए हैं। नाइजीरिया ने तो कानफोड़ू आवाज के चलते 70 गिरजों और 20 मस्जिदों को बंद कर दिया है। होटलों और दारूखानों को भी बंद किया गया है। कारों के भोंपुओं की आवाज भी सीमित की गई है। अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस में भी मजहबियों को शोर मचाने की छूट नहीं है। यूरोप के लगभग दो दर्जन देशों ने मजहबी प्रतीक चिह्न लगाकर बाहर घूमने पर भी प्रतिबंध लगा रखा है। लेकिन ये देश इन प्रतिबंधों को लगाते वक्त इस्लाम और ईसाइयत में फर्क नहीं करते। जब प्रतिबंध सबके लिए समान रूप से लगाए जाएं, तभी वे निरापद कहलाते हैं। धर्म के नाम पर चल रहे निरंकुश पाखंड और दिखावों को रोकने में भी इन प्रतिबंधों का उत्तम योगदान होगा। (लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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(01 मई मजदूर दिवस पर विशेष) रमेश सर्राफ धमोरा मजदूर एक ऐसा शब्द है जिसके बोलने में ही मजबूरी झलकती है। सबसे अधिक मेहनत करने वाला मजदूर आज भी सबसे अधिक बदहाल स्थिति में है। दुनिया में एक भी ऐसा देश नहीं है जहां मजदूरों की स्थिति में सुधार हो पाया हो। दुनिया के सभी देशों की सरकारें मजदूरों के हित के लिए बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करती हैं मगर जब उनकी भलाई के लिए कुछ करने का समय आता है तो सभी पीछे हट जाती हैं। इसीलिए मजदूरों की स्थिति में सुधार नहीं हो पाता है। भारत में भी मजदूरों की स्थिति बेहतर नहीं है। हमारी सरकार भी मजदूर हितों के लिए बहुत बातें करती है, बहुत सी योजनाएं व कानून बनाती है। मगर जब उनको अमलीजामा पहनाने का समय आता है तो सब इधर-उधर ताकने लग जाते हैं। मजदूर फिर बेचारा मजबूर बनकर रह जाता है। भारत सहित दुनिया के सभी देशों में 01 मई को मजदूर दिवस मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य मजदूरों की भलाई के लिए काम करने व मजदूरों में उनके अधिकारों के प्रति जागृति लाना होता है। मगर आज तक ऐसा हो नहीं पाया है। कोरोना महामारी की मार सबसे ज्यादा मजदूर वर्ग पर पड़ी है। किसी भी राष्ट्र की प्रगति करने का प्रमुख भार मजदूर वर्ग के कंधों पर ही होता है। मजदूर वर्ग की कड़ी मेहनत के बल पर ही राष्ट्र तरक्की करता है। मगर भारत का श्रमिक वर्ग श्रम कल्याण सुविधाओं के लिए आज भी तरस रहा है। देश में मजदूरों का शोषण भी जारी है। समय बीतने के साथ मजदूर दिवस को लेकर श्रमिक तबके में अब कोई खास उत्साह नहीं रह गया है। बढ़ती महंगाई और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने भी मजदूरों के उत्साह का कम कर दिया है। अब मजदूर दिवस इनके लिए सिर्फ कागजी रस्म बनकर रह गया है। देश का मजदूर वर्ग आज भी अत्यंत ही दयनीय स्थिति में रह रहा है। उनको न तो किए गए कार्य की पूरी मजदूरी दी जाती है और न ही अन्य वांछित सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाती हैं। गांव में खेती के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है। इस कारण बड़ी संख्या में लोग मजदूरी करने के लिए शहरों की तरफ पलायन कर जाते हैं, जहां न उनके रहने की कोई सही व्यवस्था होती है ही उनको कोई ढंग का काम मिल पाता है। जैसे तैसे कर वह गुजर-बसर करते हैं। बड़े शहरों में झोपड़पट्टी बस्तियों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। यहां रहने वाले लोगों को कैसी विषम परिस्थितियों का सामना करता है। इसको देखने की न तो सरकार को फुर्सत है न ही नेताओं को। यहां मजदूरों को शौचालय जाने के लिए भी घंटों लाइन में खड़ा रहना पड़ता है। झोपड़ पट्टी बस्तियों में न रोशनी की सुविधा रहती है। न पीने को साफ पानी मिलता है और न ही स्वच्छ वातावरण। शहर के किसी गंदे नाले के आसपास बसने वाली झोपड़ पट्टियों में रहने वाले गरीब तबके के मजदूर कैसा नारकीय जीवन गुजारते हैं। उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। मगर इसको अपनी नियति मान कर पूरी मेहनत से अपने मालिकों के यहां काम करने वाले मजदूरों के प्रति मालिकों के मन में जरा भी सहानुभूति के भाव नहीं रहते हैं। उनसे 12-12 घंटे लगातार काम करवाया जाता है। घंटों धूप में खडे़ रहकर बड़ी-बड़ी कोठियां बनाने वाले मजदूरों को एक छप्पर तक नसीब नही हो पाता है। कोरोना के कहर के चलते आज सब से ज्यादा परेशान देश के करोड़ों मजदूर हो रहे हैं। उनका काम धंधा एकदम चैपट हो गया है। परिवार के समक्ष गुजर-बसर करने की समस्या पैदा हो रही है। हालांकि सरकार ने देश के गरीब लोगों को कुछ राहत देने की घोषणा की है। मगर सरकार द्वारा प्रदान की जा रही सहायता भी मजदूरों तक सही ढंग से नहीं पहुंच पा रही है। उद्योगपतियों व ठेकेदारों के यहां अस्थाई रूप से काम करने वाले श्रमिको को न तो उनका मालिक कुछ दे रहा है नाही ठेकेदार। इस विकट परिस्थिति में श्रमिक अन्य कहीं काम भी नहीं कर सकते हैं। उनकी आय के सभी रास्ते बंद हो रहे हैं। इन मजदूरों की सुनने वाला देश में कोई नहीं हैं। कारखानों में काम करने वाले मजदूरों पर हर वक्त इस बात की तलवार लटकती रहती है कि न जाने कब छंटनी कर दी जाए। कारखानों में मजदूरों से निर्धारित समय से अधिक काम लिया जाता है विरोध करने पर काम से हटाने की धमकी दी जाती है। कारखानों में श्रम विभाग के मानदण्डों के अनुसार किसी भी तरह की कोई सुविधा नहीं दी जाती है। कई कारखानों में तो मजदूरों से खतरनाक काम करवाया जाता है। इस कारण उनको कई प्रकार की बीमारियां लग जाती हैं। कारखानों में पर्याप्त चिकित्सा सुविधा, पीने का साफ पानी, विश्राम की सुविधा तक उपलब्ध नहीं करवायी जाती है। मजदूर संगठन भी मजदूरों के बजाय मालिकों की ज्यादा चिंता करते हैं। हालांकि कुछ मजदूर यूनियन अपना फर्ज भी निभाती हैं मगर उनकी संख्या बहुत कम है। देश में मजदूरों की स्थिति सबसे भयावह होती जा रही है। देश का मजदूर दिन प्रतिदिन और अधिक गरीब होता जा रहा है। दिन रात रोजी-रोटी के जुगाड़ के लिए जद्दोजहद करने वाले मजदूर को अगर दो जून की रोटी मिल जाए तो मानों सब कुछ मिल गया। आजादी के इतने सालो में भले ही देश में बहुत कुछ बदल गया होगा, लेकिन मजदूरों के हालात नहीं बदले हैं।
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सियाराम पांडेय ‘शांत’ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्य डीजल-पेट्रोल पर वैट घटाएं जिससे जनता को राहत मिले। उन्होंने कहा कि केंद्र द्वारा नवम्बर में जो डीजल-पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क कम किया गया था तो सभी राज्यों को इसकी सलाह दी गई थी कि वे वैट घटाकर आम जन को राहत दें। वे किसी की आलोचना नहीं कर रहे हैं, केवल उनके राज्य के भले के लिए उनसे निवेदन कर रहे हैं कि वे डीजल-पेट्रोल पर मूल्य संवर्धित कर घटाएं। वैसे यह काम नवम्बर में ही हो जाना चाहिए था लेकिन वे तब न सही, अब बिना किसी विलंब के जनता के हित में प्रभावी निर्णय लें। प्रधानमंत्री बेहद स्पष्टवादिता के साथ अपनी बात कहते और विपक्षी दलों को वास्तविकता का आईना दिखाते रहे हैं। यह बात विपक्ष को हमेशा सालती है। जिस तरह कांग्रेस प्रवक्ताओं ने उनकी अपील की आलोचना की है, उससे लगता नहीं कि कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारें आम जन को राहत देने को मूड में हैं। इस देश ने कोरोना की लंबी मार झेली है। इस दौरान जीएसटी और अन्य कर राजस्व बहुत घट गया था, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। ऐसे में केंद्र सरकार ने राज्यों की उधार सीमा बढ़ा कर न केवल उनकी मदद की बल्कि केन्द्रीय राजस्व में भारी कमी के बाद भी जीएसटी हानि की भरपाई की। राज्यों को जीएसटी से मिलने वाला हिस्सा भी दिया। इसके बाद भी विपक्षी दल अगर उस पर जीएसटी राशि न देने के आरोप लगा रहे हैं तो इसे क्या कहा जाएगा? जब वैश्विक स्तर पर क्रूड ऑयल के दाम कम हो गए थे, तब भी कुछ राज्य राजस्व घाटे का वास्ता देकर डीजल-पेट्रोल पर भारी-भरकम वैट वसूलते रहे और महंगाई के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराते रहे। आज भी उनके इस स्वभाव में कहीं कोई बदलाव नहीं आया है। इसमें शक नहीं कि डीजल-पेट्रोल के बढ़ते दाम हर भारतीय के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। महंगाई की मार से पहले ही उसकी कमर टूटी पड़ी है, उस पर महंगाई की और लाठियां बरसाना कितना उचित है। विपक्ष का तर्क है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के विभिन्न राज्यों के साथ बैठक तो कोरोना मुद्दे पर आहूत की लेकिन राजनीतिक ढंग से उसमें डीजल-पेट्रोल पर वैट के मामले को शामिल कर लिया। कोरोना और महंगाई का चोली-दामन का रिश्ता है। उसी तरह महंगाई को घटाने-बढ़ाने में डीजल-पेट्रोल की कीमतें भी अहम भूमिका निभाती हैं। विपक्ष के कुछ नेता केंद्र सरकार को बिजली संकट और बढ़ती महंगाई के लिए तो जिम्मेदार ठहराते हैं लेकिन जिन राज्यों में उनके अपने दल की सरकारें हैं, वहां वे जनता को महंगाई से राहत देने के धरातल पर क्या कुछ कर रही हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। राष्ट्रहित और सहकारी संघ वाद की भावना से काम करने की बजाय राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेल रहे हैं। प्रधानमंत्री ने कोविड की चुनौतियों को लेकर मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की। कोरोना के हालात और उससे निपटने की तैयारियों पर चर्चा की। उन्हें आगाह किया कि कोरोना का संकट अभी टला नहीं है। इस नाते इसे हल्के में लेने की जरूरत नहीं है। लगे हाथ उन्होंने पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों पर भी चर्चा की और गैर भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से पेट्रोलियम उत्पादों से मूल्य वर्धित कर यानी वैट घटाने और आम आदमी को राहत देने की अपील की। यह भी कहा कि गत वर्ष नवंबर में केंद्र सरकार द्वारा पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क में कटौती की थी लेकिन महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल, झारखंड और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने पेट्रोल-डीजल पर वैट कम न कर वहां की जनता के साथ अन्याय किया है। उन्होंने रूस-यूक्रेन संघर्ष का जिक्र तो किया ही, मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों में भारत की अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए आर्थिक निर्णयों में केंद्र और राज्य सरकारों का तालमेल और उनके बीच सामंजस्य बनाने पर जोर दिया। वैश्विक परिस्थितियों की वजह से आपूर्ति श्रृंखला प्रभावित होने का हवाला दिया। दिनों-दिन बढ़ती चुनौतियों पर चिंता जताई। वैट के जरिए हजारों करोड़ जुटा लेना बुरा नहीं है लेकिन आम भारतीय के हितों की भी चिंता की जानी चाहिए। प्रधानमंत्री की मानें तो भारत सरकार के पास जो राजस्व आता है, उसका 42 प्रतिशत तो राज्यों के ही पास चला जाता है। यह और बात है कि कांग्रेस राज्यों के पास 32 प्रतिशत ही जाने की बात कर रही है। इस भ्रम को केंद्र और राज्यों को मिल बैठकर सुलझाना चाहिए। कांग्रेस का तर्क है कि जब केंद्र में उसकी सरकार थी तो डीजल-पेट्रोल की कीमतें कम थीं। उस पर वैट कम था लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके दौर में कोरोना जैसी महामारी नहीं थी। रूस-यूक्रेन जैसा युध्द नहीं था। इन सबके बीच मोदी सरकार ने लोगों को मुफ्त खाद्यान्न वितरण, किसानों-मजदूरों की आर्थिक मदद का सिलसिला निर्बाध जारी रखा है। विपक्ष तो मोदी सरकार को किसान विरोधी ठहराने की हरसंभव कवायद करता रहा लेकिन फास्फेट और पोटाश पर 60939 करोड़ की सब्सिडी देकर मोदी सरकार ने एक बार फिर साबित कर दिया कि उसके लिए किसानों का हित सर्वोपरि है।प्रधानमंत्री स्ट्रीट वेंडर्स आत्मनिर्भर निधि को बढ़ाकर 8100 करोड़ करने और शहरी भारत के 1.2 करोड़ लोगों को लाभान्वित करने की इस योजना में भला किसे राग-द्वेष और घृणा के दीदार हो सकते हैं। दाम बढ़ने के अनेक कारक होते हैं। उर्वरकों के मामले में भारत दुनिया के कई देशों पर निर्भर है। ऐसा नहीं कि विपक्ष को इसका अंदाजा नहीं है लेकिन सरकार के विरोध के लिए उसके पास इससे बड़ा मुद्दा भला और क्या हो सकता है। ईंधन की कीमतों में वृद्धि के लिए विपक्ष अक्सर केंद्र सरकार को दोषी ठहराता है जबकि सरकार इसके लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों को दोष देती रही है। वैट में कटौती न करने के लिए वह विपक्ष शासित राज्यों पर भी ठीकरा फोड़ती रही है। यह अपनी जगह सच भी हो सकता है लेकिन देश सबका है इसलिए सभी को इसकी समस्याओं के समाधान तलाशने होंगे। ब्रिक्स देशों ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का संगठन की मुद्राओं की विनिमय की दर से रुपये की तुलना की जाए तो पेट्रोल व डीजल की सबसे कम कीमत के मामले में भारत इन देशों में दूसरे स्थान पर है। रूस में कीमत सबसे कम है और वह कच्चे तेल का उत्पादन करता है। आसियान देशों (भारत, थाइलैंड, इंडोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार, वियतनाम, फिलिपींस, ब्रुनेई, कंबोडिया और लाओस) में पेट्रोल के मामले में भारत पांचवां ऐसा देश है जहां कीमतें सबसे कम हैं और डीजल के मामले में चौथा देश है जहां कीमतें सबसे कम है। भाजपा और उसके सहयोगी जनता दल युनाइटेड के शासन वाले बिहार और भाजपा शासित मध्य प्रदेश उन 10 राज्यों में शुमार है जहां पेट्रोल और डीजल की कीमतें सर्वाधिक हैं। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र , तेलंगाना, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल और झारखंड ऐसे राज्य हैं, जिन्होंने केंद्र द्वारा उत्पाद कर में कटौती किए जाने के बाद वैट में कमी नहीं की। मौजूदा समय आलोचना-प्रत्यालोचना का नहीं, अपितु यह सोचने का है कि अपने स्तर पर राज्य की जनता की परेशानियां कितनी घटा सकते हैं। उनके सुख-सुविधाओं में कितनी वृद्धि कर सकते हैं। विरोध और आत्मप्रशंसा तो कभी भी-कहीं भी हो सकती है लेकिन जनता ही अगर दुखी रही तो यह जनसेवा किस तरह की? इसलिए समय है कि राजनीतिक दल देश की जनता के लिए कुछ खास करें। नसीहतें अक्सर अच्छी नहीं लगती लेकिन इसके लिए मुखिया अपने परिजनों को समझाना तो नहीं छोड़ देता।
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दादा साहेब फाल्के की जयंती (30 अप्रैल) पर विशेष योगेश कुमार गोयल 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र में नासिक के निकट त्रयंबकेश्वर में जन्मे दादा साहेब फाल्के को भारतीय सिनेमा का जनक माना जाता है, जो केवल फिल्म निर्देशक ही नहीं बल्कि जाने-माने प्रोड्यूसर और स्क्रीन राइटर भी थे। नासिक के एक संस्कृत विद्वान के घर जन्मे धुन्धी राज गोविन्द फाल्के, जिन्हें बाद में दादा साहेब फाल्के के नाम से जाना गया, उनकी पहली फिल्म थी ‘राजा हरिश्चन्द्र’, जिसे भारत की पहली फुल लेंथ फीचर फिल्म का दर्जा हासिल है। उस दौर में फाल्के साहब की फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ का बजट 15 हजार रुपये था। 3 मई 1913 को रिलीज हुई यह फिल्म भारतीय दर्शकों में बहुत लोकप्रिय हुई और उसकी सफलता के बाद से ही दादा साहेब फाल्के को भारतीय सिनेमा का जनक कहा जाने लगा। ‘राजा हरिश्चन्द्र’ की जबरदस्त सफलता के बाद फाल्के साहेब का हौसला इतना बढ़ा कि उन्होंने अपने 19 वर्ष लंबे कैरियर में एक के बाद एक 100 से भी ज्यादा फिल्मों का निर्माण किया, जिनमें 95 फीचर फिल्में और 27 लघु फिल्में शामिल थीं। उनकी बनाई धार्मिक फिल्में तो दर्शकों द्वारा बेहद पसंद की गई। दादा साहेब की जिंदगी में वह दिन उनके कैरियर का टर्निंग प्वाइंट माना जाता है, जब उन्होंने ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ नामक एक मूक फिल्म देखी थी, जिसे देखने के बाद उनके मन में कई विचार आए। उसे देखने के पश्चात् उन्होंने दो महीने तक शहर में प्रदर्शित सारी फिल्में देखी और तय किया कि वे फिल्में ही बनाएंगे। आखिरकार उन्होंने पत्नी से कुछ पैसे उधार लेकर पहली मूक फिल्म बनाई। दादा साहेब फाल्के अक्सर कहा करते थे कि फिल्में मनोरंजन का सबसे उत्तम माध्यम हैं, साथ ही ज्ञानवर्द्धन के लिए भी बेहतरीन माध्यम है। उनका मानना था कि मनोरंजन और ज्ञानवर्द्धन पर ही कोई भी फिल्म टिकी होती है। उनकी इसी सोच ने उन्हें एक ऊंचे दर्जे के फिल्मकार के रूप में स्थापित किया। उनकी फिल्में निर्माण व तकनीकी दृष्टि से बेहतरीन थी, जिसकी वजह यही थी कि फिल्मों की पटकथा, लेखन, चित्रांकन, कला निर्देशन, सम्पादन, प्रोसेसिंग, डवलपिंग, प्रिंटिंग इत्यादि सभी काम वे स्वयं देखते थे और कलाकारों की वेशभूषा का चयन भी अपने हिसाब से ही किया करते थे। फिल्म निर्माण के बाद फिल्मों के वितरण और प्रदर्शन की व्यवस्था भी वे स्वयं संभालते थे। उन्होंने अपनी कुछ फिल्मों में महिलाओं को भी कार्य करने का अवसर दिया। उनकी एक फिल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में दुर्गा और कमला नामक दो अभिनेत्रियों ने कार्य किया था। दादा साहेब की आखिरी मूक फिल्म ‘सेतुबंधन’ थी और उन्होंने कोल्हापुर नरेश के आग्रह पर 1937 में अपनी पहली और अंतिम बोलती फिल्म ‘गंगावतरण’ बनाई थी। दादा साहेब द्वारा बनाई गई फिल्मों में राजा हरिश्चंद्र, मोहिनी भस्मासुर, सत्यवान सावित्री, लंका दहन, श्रीकृष्ण जन्म, कालिया मर्दन, बुद्धदेव, बालाजी निम्बारकर, भक्त प्रहलाद, भक्त सुदामा, रूक्मिणी हरण, रुक्मांगदा मोहिनी, द्रौपदी वस्त्रहरण, हनुमान जन्म, नल दमयंती, भक्त दामाजी, परशुराम, श्रीकृष्ण शिष्टई, काचा देवयानी, चन्द्रहास, मालती माधव, मालविकाग्निमित्र, वसंत सेना, बोलती तपेली, संत मीराबाई, कबीर कमल, सेतु बंधन, गंगावतरण इत्यादि प्रमुख थी। 16 फरवरी 1944 को इस महान शख्सियत ने दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन उन्होंने भारतीय सिनेमा को शानदार फिल्मों की ऐसी सौगात सौंपी, जिसकी महत्ता आने वाली सदियों में भी कम नहीं होगी। 1971 में भारतीय डाक विभाग ने दादा फाल्के के सम्मान में डाक टिकट जारी किया था। फिल्मों में उनके अविस्मरणीय योगदान के मद्देनजर उनकी स्मृति को जीवंत बनाए रखने के उद्देश्य से भारत सरकार द्वारा उनके जन्म शताब्दी वर्ष 1969 में ‘दादा साहेब फाल्के पुरस्कार’ की स्थापना की गई और तभी से प्रतिवर्ष भारतीय सिनेमा के विकास में आजीवन उत्कृष्ट योगदान देने वाली किसी एक शख्सियत को इस पुरस्कार से सम्मानित किया जाता रहा है। यह पुरस्कार फिल्म इंडस्ट्री के तमाम फिल्मकारों, निर्देशकों और कलाकारों की आजीवन उपलब्धियों का समग्र मूल्यांकन करने के पश्चात् किसी एक फिल्मकार, निर्देशक अथवा कलाकार को प्रदान किया जाता है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा स्थापित ‘फिल्म महोत्सव निदेशालय’ द्वारा राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में प्रतिवर्ष दादा साहेब फाल्के के नाम पर यह पुरस्कार भारतीय सिनेमा और उसके विकास में उत्कृष्ट योगदान देने वाले व्यक्तियों को वर्ष 1969 से नियमित प्रदान किया जा रहा है, जिसे भारतीय सिने जगत के सर्वोच्च पुरस्कार का दर्जा प्राप्त है। वर्तमान में इस पुरस्कार से सम्मानित होने वाली शख्सियत को 10 लाख रुपये नकद, स्वर्ण कमल पदक एवं शाल प्रदान की जाती है। अब तक यह प्रतिष्ठित सम्मान अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, मनोज कुमार, पृथ्वीराज कपूर, बी आर चोपड़ा, श्याम बेनेगल, देवानंद, शशि कपूर, लता मंगेशकर, मन्ना डे, गुलजार, रजनीकांत, प्राण सहित कई नामी कलाकारों को मिल चुका है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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आर.के. सिन्हा यकीन मानिए, कभी-कभी अफसोस होता कि मुसलमानों को उनके रहनुमाओं ने हिजाब, बुर्का, उर्दू जैसे खतरे के वहम में फंसा कर रखा हुआ है। यह बात उत्तर भारत के मुसलमानों को लेकर विशेष रूप से कही जा सकती है। मुसलमानों के कथित नेता यही चाहते हैं कि इनकी कौम अंधकार के युग में ही बनी रहे। वहां से कभी निकले ही नहीं। इसलिए आज के दिन उत्तर भारत के मुसलमानों में जीवन में आगे बढ़ने को लेकर उस तरह का कोई जज्बा दिखाई नहीं देता जैसा हम गैर-हिन्दी भाषी राज्यों के मुसलमानों में देखते हैं। उत्तर भारत के मुसलमान अब भी सिर्फ नौकरी करने के बारे में सोचते हैं। जो कायदे से शिक्षित नहीं हैं, वे कारपेंटर, पेंटर, वेल्डर या मोटर मैकनिक बनकर खुश हो जाते हैं। शिक्षित मुसलमान अजीम प्रेमजी (विप्रो), हबील खुराकीवाला (वॉक फार्ड) या युसूफ हामिद (सिप्ला) बनने के संबंध में क्यों नहीं सोचते? यह सच में बड़ा सवाल है। महाराष्ट्र, गुजरात, बैंगलुरू यानी कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना आदि का मुसलमान बिजनेस में भी अब लंबी छलांगें लगा रहा है। उसे सफलता भी मिल रही है। आप दिल्ली के इंडिया इस्लामिक सेंटर और मुंबई के इस्लाम जिमखाना के माहौल में जमीन-आसमान का अंतर देखेंगे। जहां इस्लामिक सेंटर में कव्वाली के नियमित कार्यक्रम होते हैं, वहीं इस्लाम जिमखाना के सदस्य बिजनेस की चर्चा में मशगूल मिलते हैं। दोनों की प्राथमिकताएं ही भिन्न हैं। इन दोनों के माहौल को देखकर ही पलक झपकते समझ आ जाता है कि देश के अलग-अलग भागों के मुसलमानों की सोच में कितना फर्क है। जहां विप्रो आईटी सेक्टर की कंपनी है, वहीं वॉककार्ड तथा सिप्ला फार्मा कंपनियां हैं। इन सबमें हजारों पेशेवर काम करते हैं और इनका सालाना मुनाफा भी हजारों करोड़ रुपए का है। आपको गैर-हिन्दी भाषी राज्यों में दर्जनों उत्साही मुस्लिम कारोबारी तथा आंत्रप्योनर मिल जाएंगे। पर आपको दिल्ली और उत्तर भारत में कोई बहुत बड़ी नामवर कंपनी नहीं मिलेगी, जिसका प्रबंधन मुसलमानों के पास हो। राजधानी दिल्ली में कुछ दशक पहले तक देहलवी परिवार शमां प्रकाशन चलाता था। इसकी शमां, सुषमा, बानो समेत बहुत-सी लोकप्रिय पत्रिकाएं होती थीं। फिल्मी पत्रकारिता में इनका एक मुकाम होता था। शमीम देहलवी के बाद कुछ सालों तक इन पत्रिकाओं को देहलवी परिवार की सदस्य सादिया देहलवी ने भी देखा। पर ये अपने को वक्त के साथ बदल नहीं सके। नतीजा ये हुआ कि शमां प्रकाशन बंद हो गया। अब राजधानी के कनॉट प्लेस में चल रहे मरीना होटल की बात कर लेते हैं। इसका स्वामित्व भी एक मुस्लिम परिवार के पास है। लेकिन इसके मालिकों ने इसे रेंट पर किसी अन्य कंपनी को दिया हुआ। यानी जिनका होटल है वे रेंट लेकर ही खुश हैं। जबकि किराएदार हर साल मोटा मुनाफा कमाता है। रुह अफजा शर्बत बनाने वली कंपनी हमदर्द ने भी अपने को समय के साथ नहीं बदला। इनके दिल्ली के आसफ अली रोड के दफ्तर में जाकर लगता है कि ये आधुनिक बनने के लिए तैयार नहीं है। इसे बुलंदियों पर पहुंचाया था हकीम अब्दुल हामिद ने। उनके निधन के बाद उनका कारोबार बिखरता-सा जा रहा है। ये स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। काश. हमदर्द मैनेजमेंट ने सिप्ला लिमिटेड से कुछ सीखा होता। सिप्ला भारत की बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी है। सिप्ला हृदय रोग, गठिया, मधुमेह आदि के इलाज के लिए नामी दवाएं विकसित और निर्माण करती है। इसकी स्थापना ख्वाजा अब्दुल हमीद ने 1935 में मुंबई में की थी। इसकी एक फैक्ट्री में महात्मा गांधी 1940 के दशक में आए थे। हमीद साहब राष्ट्रवादी विचार के मुसलमान थे। जहां तक विप्रो लिमिटेड की बात है तो यह भारत की तीसरी सबसे बड़ी सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) कंपनी है। आज इसका टर्न ओवर कोई 600 अरब रुपये प्रतिवर्ष है और मुनाफ़ा कोई 70 अरब रुपये। दरअसल 1977 में जनता सरकार के समय विदेशी कंपनियों के भारत छोड़ने के आदेश के बाद विप्रो के व्यवसाय में असरदार इजाफ़ा हुआ था। आज यह एक बहु व्यवसाय तथा बहु स्थान कंपनी के रूप में उभरी है। आप उत्तर भारत के आबादी के लिहाज से दो बड़े राज्यों-उत्तर प्रदेश तथा बिहार पर भी नजर डालिए। यकीन मानिए कि हिमालय ड्रग्स के अलावा कोई बड़ी कंपनी नहीं मिलेगी जिसका नाम हो और जिसका मैनेजमेंट किसी मुसलमान व्यवसायी के पास हो। आप जब इस विषय पर किसी मुस्लिम बुद्धिजीवी से बात करते हैं तो वह आमतौर पर एक घिसा-पिटा उत्तर देता है कि देश की आजादी के समय उत्तर भारत का एलीट सरहद के उस तरफ चला गया था। उस समय का असर अब भी दिखाई देता है। कहना न होगा कि इस तर्क को आजादी के 75 सालों के बाद भी मानना असंभव है। इस दौरान देश-दुनिया बदल गई। पर कुछ लोग अब भी 1947 में ही जी रहे हैं। वे आगे बढ़ने या सोचने के लिए तैयार नहीं हैं। मुस्लिम समाज के चिंतकों, शिक्षकों, संस्थानों को अपने समाज के नौजवानों को प्रेरित करना होगा कि वे नौकरी या छोटा-मोटा काम करके जिंदगी गुजारने की सोच से बाहर निकलें। ये नौकरी करने से अधिक नौकरी देने का वक्त है। इसलिए पढ़े-लिखे मुसलमान युवक-युवतियों को किसी नए आइडिया के साथ कोई नया काम करने के बारे में सोचना होगा। उन्हें समझना होगा कि जब उन्हीं के समाज के नौजवान देश के अन्य भागों में अपने लिए बिजनेस की दुनिया में प्रतिष्ठित जगह बना रहे हैं तो वे भी किसी से कम नहीं हैं। वे भी सफल हो सकते हैं। नया काम-धंधा शुरू करने वालों को लोन मिलने में भी अब कोई दिक्कत नहीं है। उन्हें बैंकों तथा वित्तीय संस्थानों से सस्ते ब्याज दरों पर लोन भी मिल रहा है। अब गेंद मुस्लिम नौजवानों के पाले में है कि वे आगे आएं और देश की ताकत बनें। उनके पास दोनों विकल्प मौजूद हैं। वे छोटी-मोटी नौकरी करके भी जिंदगी गुजार सकते हैं। अगर वे चाहें तो कुछ बड़ा भी कर सकते हैं। उन्हें रिस्क लेने से भागना या घबराना नहीं चाहिए। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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विश्व मेनिनजाइटिस दिवस (24 अप्रैल) पर विशेष योगेश कुमार गोयल मेनिनजाइटिस एक ऐसी बीमारी है, जिसे आम भाषा में दिमागी बुखार भी कहा जाता हैं। मेनिनजाइटिस को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 24 अप्रैल को ‘विश्व मेनिनजाइटिस दिवस’ मनाया जाता है। दरअसल यह बीमारी इतनी खतरनाक है कि कुछ मामलों में लक्षण दिखने के कुछ घंटे में मरीज की जान ले सकती है। दिमागी बुखार वायरस, बैक्टीरिया और फंगस के जरिये फैलता है। यही कारण है कि दिमागी बुखार होने पर इसका तुरंत इलाज बेहद जरूरी है अन्यथा मामला गंभीर हो सकता है और मरीज की मौत भी हो सकती है। यह एक वायरल संक्रामक रोग है लेकिन यह जीवाणु अथवा फंगल संक्रमण के कारण भी हो सकता है, जो लोगों के एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में रहने से फैलता है। यह बीमारी मरीज के खांसने, छींकने और खाने के माध्यम से आसानी से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैल सकती है और किसी भी आयु के व्यक्ति को हो सकती है। इसीलिए मेनिनजाइटिस दिवस के अवसर पर टीकाकरण पर विशेष जोर दिया जाता है। मेनिनजाइटिस बीमारी एक प्रकार का संक्रमण है, जो मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी की रक्षा करने वाले मेम्ब्रेन में सूजन पैदा कर देता है। इसीलिए इस बीमारी को मेम्ब्रेन मेनिन्जेस भी कहते हैं। यह बीमारी सबसे ज्यादा छोटे बच्चों को ही होती है। मेनिनजाइटिस ब्रेन में मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी के आसपास की सुरक्षात्मक झिल्लियों (मेनिन्जेस) की सूजन का कारण बनती है। मेनिनजाइटिस बीमारी में मृत्यु दर करीब दस फीसदी है अर्थात् प्रत्येक 100 में से 10 मरीजों की मौत हो जाती है। हालांकि स्पेनिश बाल चिकित्सा एसोसिएशन का मानना है कि 30 फीसदी से भी ज्यादा लोग नहीं जानते कि मेनिनजाइटिस को रोका जा सकता है। मेनिनजाइटिस को खतरनाक रोग माना जाता है क्योंकि शरीर पर इसके कई हानिकारक प्रभाव देखने को मिलते हैं लेकिन बीमारी के लक्षणों को शुरूआत में ही पहचान कर इसका इलाज करा लेने से मेनिनजाइटिस के रोगी को ठीक किया जा सकता है। इस बीमारी से बचाव के लिए जरूरी है कि बुखार अथवा शरीर दर्द जैसे लक्षणों को सामान्य समस्या समझकर नजरअंदाज करने के बजाय अपने चिकित्सक से सम्पर्क कर आवश्यक जांच कराएं। इसके अलावा घर में छोटे बच्चों सहित सभी सदस्यों को मेनिनजाइटिस का टीका अवश्य लगवाएं। मेनिनजाइटिस ऐसी बीमारी है, जिसके विकसित किए गए टीके इसके जीवाणु को रोकते हैं। वैसे भी संक्रामक रोगों को रोकने के लिए टीकाकरण अभी भी सबसे प्रभावकारी तरीका है। इसीलिए इस बीमारी से बचाव के लिए बच्चों को बचपन में ही मेनिनजाइटिस के टीके लगाए जाते हैं। मेनिन्जाइटिस के टीके इस बीमारी के मुख्य जीवाणुओं हीमोफिलस इन्फ्लुएंजा टाइप बी, मेनिंगोकॉकस और न्यूमोकॉकस को रोक सकते हैं। हालांकि टीके से बैक्टीरियल मेनिनजाइटिस की रोकथाम होती है, जो ज्यादा खतरनाक होता है। वायरल मेनिनजाइटिस, बैक्टीरियल मेनिनजाइटिस की तुलना में कम गंभीर होता है। सामान्य प्रतिरक्षा प्रणाली वाले अधिकांश व्यक्ति, जो वायरल मेनिनजाइटिस से पीडि़त हैं, प्रायः इलाज के बिना भी ठीक हो सकते हैं जबकि फंगल मेनिनजाइटिस संक्रमण केवल कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली वाले लोगों को प्रभावित करता है। मेनिनजाइटिस को खतरनाक रोग इसलिए भी माना जाता है क्योंकि इससे शिशु का दिमाग अविकसित या अल्पविकसित हो सकता है, छोटे बच्चों को सीखने में परेशानी हो सकती है। रोगी की याद करने की क्षमता खत्म हो सकती है और सुनने की क्षमता भी सदा के लिए जा सकती है। इस बीमारी में किडनी फेल होने का भी खतरा रहता है और कुछ मामलों में व्यक्ति की मौत भी हो जाती है। गर्भावस्था के दौरान मेनिनजाइटिस से बचाव के लिए महिलाओं को ज्यादा सावधान रहने की जरूरत होती है। विशेष रूप से बैक्टीरियल मेनिनजाइटिस काफी गंभीर किस्म की बीमारी है, जो बहुत घातक हो सकती है। इसका इलाज यदि समय से नहीं कराया जाए तो इससे मस्तिष्क की क्षति के अलावा कुछ मामलों में मरीज की मृत्यु की संभावना भी रहती है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक चीन के राष्ट्रपति शी चिन फिंग यूक्रेन के सवाल पर अब भी रूस का साथ दिए जा रहे हैं। वे रूस के हमले को हमला नहीं कह रहे हैं। उसे वे विवाद कहते हैं। यूक्रेन में हजारों लोग मारे गए और लाखों लोग देश छोड़कर भाग खड़े हुए लेकिन रूसी हमले को रोकने की कोशिश कोई राष्ट्र नहीं कर रहा है। चीन यदि भारत की तरह तटस्थ रहता तो भी माना-जाता कि वह अपने राष्ट्रहितों की रक्षा कर रहा है लेकिन उसने अब खुलेआम उन प्रतिबंधों की भी आलोचना शुरू कर दी है, जो नाटो देशों और अमेरिका ने रूस के विरुद्ध लगाए हैं। चीनी नेता शी ने कहा है कि ये प्रतिबंध फिजूल हैं। सारा मामला बातचीत से हल किया जाना चाहिए। यह बात तो तर्कसंगत है लेकिन चीन चुप क्यों है? वह पुतिन और बाइडेन से बात क्यों नहीं करता? क्या वह इस लायक नहीं है कि वह मध्यस्थता कर सके? वह तमाशबीन क्यों बना हुआ है? उसका कारण यह भी हो सकता है कि यूक्रेन-हमले से चीन का फायदा ही फायदा है। रूस जितना ज्यादा कमजोर होगा, वह चीन की तरफ झुकता चला जाएगा। चीन आगे-आगे रहेगा और रूस पीछे-पीछे ! रूस की अर्थव्यवस्था इतनी कमजोर हो जाएगी कि मध्य एशिया और सुदूर एशिया में भी रूस का स्थान चीन ले लेगा। शीतयुद्ध के जमाने में अमेरिका के विरुद्ध सोवियत संघ की जो हैसियत थी, वह अब चीन की हो जाएगी। चीन ने संयुक्तराष्ट्र संघ और अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रूस के पक्ष में वोट देकर पुतिन के हाथ मजबूत किए हैं ताकि इस मजबूती के भ्रमजाल में फंसकर पुतिन गल्तियों पर गल्तियां करते चले जाएं। चीन ने यूक्रेन में हो रहे अत्याचारों को भी पश्चिमी प्रचारतंत्र की मनगढ़ंत कहानियां कहकर रद्द कर दिया है। पुतिन का साथ देने में शी ने सभी सीमाएं लांघ दी हैं। वे एक पत्थर से दो शिकार कर रहे हैं। एक तरफ वे अमेरिका को सबक सिखा रहे हैं और दूसरी तरफ वे रूस को अपने मुकाबले दोयम दर्जे पर उतार रहे हैं। हो सकता है कि पुतिन ने जो यूक्रेन के साथ किया है, वैसा ही ताइवान के साथ करने का चीन का इरादा हो। अमेरिका ने जैसे झेलेंस्की को धोखा दे दिया, वैसे ही वह ताइवान को भी अधर में लटका सकता है। यदि अंतरराष्ट्रीय राजनीति इसी पगडंडी पर चलती रही तो विश्व के शक्ति-संतुलन में नए अध्याय का सूत्रपात हो जाएगा। द्वितीय महायुद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय राजनीति का जो ढांचा बन गया था, उसे पहले सोवियत-विघटन ने प्रभावित किया और अब यूक्रेन पर यह रूसी हमला उसे एकदम नए स्वरूप में ढाल देगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार हैं।)
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राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की पुण्यतिथि (24 अप्रैल) पर विशेष सुरेन्द्र किशोरी 24 अप्रैल 1974 की वह मनहूस शाम न केवल गंगा की गोद में उत्पन्न दिनकर के अस्ताचल जाने की शाम थी, बल्कि हिंदी साहित्य के लिए भी मनहूस साबित हुई। उस रात भारतीय साहित्य के सूर्य राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर सदा के लिए इस नश्वर शरीर को त्याग कर स्वर्ग लोक की ओर चले गए थे। उस समय संचार के इतने साधन तो थे नहीं, धीरे-धीरे जब लोगों को पता चला कि तिरुपति बालाजी के दर्शन करने के बाद दिनकर जी ने इस शरीर को हमेशा के लिए त्याग दिया, दिनकर अब नहीं रहे, सहसा किसी को विश्वास नहीं हुआ कि ओजस्वी वाणी और भव्य स्वरूप का सम्मिश्रण भारतीय हिंदी साहित्य के तेज पुंज अब हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन यह सत्य था, देश ही नहीं विदेशों के भी साहित्य जगत में शोक की लहर फैल गई। मद्रास से लेकर दिल्ली तक, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के साहित्य जगत और हिन्दी पट्टी में शोक की लहर फैल गई। गृह जनपद बेगूसराय का हर घर रो उठा, तो वहीं इंदिरा गांधी भी सदमे में आ गई थी। इंदिरा गांधी ने कहा था दिनकर जी के निधन से देश ने एक प्रतिभाशाली सृजनशील लेखक को खो दिया। जो हमारी जनता की धरोहर और आकांक्षाओं के प्रतीक थे। दिनकर हमारी संस्कृति पर अपनी छाप छोड़ गए हैं, उन्हें उनकी रचनाओं के माध्यम से याद किया जाएगा। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था दिनकर जी अब नहीं रहे, विश्वास करने को जी नहीं चाहता पर यही सत्य है। वह सही अर्थों में दिनकर थे तेज पुंज, भगवान ने उन्हें जैसी वाणी की संपत्ति दी थी, वैसा ही चारुदर्शन भव्य रूप दिया था, वह ओजस्वी वाणी और भव्य रूप इस नश्वर जगत से हमेशा के लिए चला गया। 2018 में सिमरिया में गंगा तट पर आयोजित साहित्य महाकुंभ में रामकथा वाचक मोरारी बापू ने कहा था देशवासियों के रग- रग में राष्ट्रवाद की चेतना भरने वाले रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्रकवि ही नहीं, अपने आप में एक कुंभ थे। उनकी कविता में मार्क्सवाद और साम्यवाद का मिश्रण झलकता था, उनकी कविता में गांधीजी भी दिखते थे। संस्कृति के चार अध्याय ने दुनिया को एक अद्भुत ग्रंथ दिया। रश्मिरथी, उर्वशी साहित्य के रूप में ऐसे विचार हैं, जिनकी हर समय चर्चा होनी चाहिए। तभी तो हम भी उनकी प्रेरणा से साहित्य महाकुंभ और रामकथा कर रहे हैं। दिनकर के विचार बहुत ही प्रासंगिक हैं, जिसे पढ़कर चरितार्थ ही नहीं विचार का भी बीज बोया जा सकता है। प्रत्येक कवि, लेखक, चित्रकार के जीवन के अंतिम दिन अत्यंत ही आश्चर्यजनक और लोमहर्षक होते हैं। ऐसा ही दिनकर जी के साथ भी हुआ, तिरुपति बालाजी का दर्शन करने गए उन्हें जब वहीं दिल का दौरा पड़ा तो मद्रास तक रास्ते में हे राम-मेरे राम को याद करते रहे। बालाजी के सामने उन्होंने प्रार्थना की थी- हे भगवान तुमसे तो उऋण हो गया, अब मेरी उम्र आप जयप्रकाश नारायण को दे दो। अपने मृत्यु के दिन ही दिनकर जी ने हरिवंश राय बच्चन को भी एक पत्र लिखा था। जिसमें उन्होंने कहा था ''लॉजिक गलत, पुरुषार्थ झूठा, केवल राम की इच्छा ठीक।'' समय की आने वाली पदचाप का स्पष्ट आभास रखने वाले राष्ट्रकवि दिनकर की कविताओं में भाषा और भावों के ओज का अद्भुत संयोजन था। वह न तो उनके समकालीनों में था और न ही बाद की हिंदी कविता में देखने को मिलता है। अपनी कविता से राष्ट्र प्रेमियों को प्रेरणा देकर, उनके दिल और दिमाग को उद्वेलित कर झंकृत करने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म मिथिला के पावन भूमि सिमरिया में हुआ था। तत्कालीन मुंगेर (अब बेगूसराय) जिले की सुरसरि तटवर्तिनी सिमरिया के एक अत्यंत ही सामान्य किसान के घर में 23 सितंबर 2008 को जब अचानक सोहर के रस भरे छंद गूंजने लगे तब किसे पता था कि मनरूप देवी एवं रवि सिंह का यह द्वितीय पुत्र कभी राष्ट्रीय फलक पर ध्रुवतारा-सा चमकेगा। पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज पटना से 1932 में इतिहास से प्रतिष्ठा की डिग्री हासिल कर 1933 में बरबीघा उच्च विद्यालय के प्रधानाध्यापक पद पर तैनात हुए। अगले साल ही उन्हें निबंधन विभाग के अवर निबंधक के रूप में नियुक्त कर दिया गया। इस दौरान कविता का शौक जोर पकड़ चुका था, दिनकर उपनाम को ''हिमालय'' और ''नई दिल्ली'' से ख्याति भी मिलने लगी। लेकिन इस ख्याति का पुरस्कार मिला कि पांच साल की नौकरी में 22 बार तबादला हुआ। दिनकर ब्रिटिश शासन काल में सरकारी नौकर थे, लेकिन नौकरी उनकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति में कभी बाधक नहीं बनी। वह उस समय भी अन्याय के विरुद्ध बोलने की शक्ति रखते थे और बाद में स्वाधीनता के समय भी सरकारी नौकरी करते समय हमेशा अनुचित बातों का डटकर विरोध करते रहे। 1943 से 1945 तक संगीत प्रचार अधिकारी तथा 1947 से 1950 तक बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में निदेशक के पद पर कार्यरत रहे। संविधान सभा बनने के बाद जब संविधान सभा का प्रथम निर्वाचन हुआ तो दिनकर जी को तेजस्वी वाणी, प्रेरक कविता एवं राष्ट्र प्रेरक कविता की धारणा के कारण कांग्रेस द्वारा राज्यसभा सदस्य मनोनीत कर दिया गया। पहली बार 1952 से 58 तथा 1958 में फिर राज्यसभा सदस्य बनाए गए, लेकिन ललित नारायण मिश्र के अनुरोध पर उन्होंने 1963 में इस्तीफा दे दिया। 1963 से 1965 तक बेमन से ही सही लेकिन भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति रहे तथा 1965 से 1972 तक भारत सरकार के हिंदी विभाग में सलाहकार का दायित्व निर्वहन करना पड़ा। राष्ट्रकवि दिनकर की कविता की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वह महाभारत के संजय की तरह दिव्यदृष्टि से प्रत्यक्षदर्शी के रूप में वेदना, संवेदना एवं अनुभूति के साक्षी बनकर काव्यात्मक लेखनी को कागजों पर मर्मस्पर्शी तरीके से उतारा करते थे। राष्ट्रकवि दिनकर की साहित्य रचना का प्रारंभ विजय संदेश से हुआ था, उसके बाद प्रणभंग तथा सबसे अंतिम कविता संग्रह 1971 में हारे को हरि नाम। कविता के धरातल पर बाल्मीकि, कालिदास, कबीर, इकबाल और नजरुल इस्लाम की गहरी प्रेरणा से राष्ट्र भक्त कवि बने। उन्हें राष्ट्रीयता का उद्घोषक और क्रांति के नेता सभी ने माना। रेणुका, हुंकार, सामधेनी आदि कविता स्वतंत्रता सेनानियों के लिए बड़ा ही प्रेरक प्रेरक सिद्ध हुआ था। कोमल भावना की जो धरा रेणुका में प्रकट हुई थी, रसवंती में उन्हें सुविकसित उर्वशी के रूप में भुवन मोहिनी सिद्धि हुई। कहा जाता है कि दिनकर की उर्वशी हिंदी साहित्य का गौरव ग्रंथ है, धूप छांव, बापू, नील कुसुम, रश्मिरथी का भी जोर नहीं। राष्ट्रप्रेम एवं राष्ट्रीय भावना का ज्वलंत स्वरूप परशुराम की प्रतीक्षा में युद्ध और शांति का द्वंद कुरुक्षेत्र में व्यक्त हो गया। संस्कृति के चार अध्याय जैसे विशाल ग्रंथ में भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम दर्शाया। जो उनकी विलक्षण प्रतिभाओं का सजीव प्रमाण है। संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखकर अपने को गौरवान्वित महसूस किया था। 1972 के ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान समारोह में उन्होंने कहा था कि ''मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं। इसलिए उजाले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है''। यानी निश्चित रूप से वह बनने वाला रंग है केसरिया। दिनकर सच्चे अर्थों में मां सरस्वती के उपासक और वरदपुत्र थे। उन्होंने उर्वशी में कहा है ''मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं, उर्वशी अपने समय का सूर्य हूं मैं''।दिनकर ने रुढ़िवादी जाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए अपने खंड-काव्य परशुराम की प्रतीक्षा में लिखा है ''घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है, लेकिन कमरे में गलत हुक्म लिखता है, जिस पापी को गुण नहीं-गोत्र प्यारा है, समझो, उसने ही हमें यहां मारा है।'' दिनकर की प्रासंगिकता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उनका साम्राज्यवाद विरोध है। हिमालय में लिखते हैं ''रे रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्गधीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर''। क्योंकि दिनकर को शांति का समर्थक अर्जुन चाहिए था। रेणुका में लिखते हैं ''श्रृण शोधन के लिए दूध बेच बेच धन जोड़ेंगे, बूंद बूंद बेचेंगे अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे, शिशु मचलेंगे, दूध देख जननी उनको बहलाएगी''। हाहाकार के शीर्षक में ही है ''हटो व्योम के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं, दूध-दूध वो वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं''। परशुराम की प्रतीक्षा का एनार्की 1962 के चीनी आक्रमण के बाद की भारतीय लोकतंत्र वास्तविकता को उजागर करते हुए कहती है ''दोस्ती ही है देख के डरो नहीं, कम्युनिस्ट कहते हैं चीन से लड़ो नहीं, चिंतन में सोशलिस्ट गर्क है, कम्युनिस्ट और कांग्रेस में क्या फर्क है, दीनदयाल की जनसंघी शुद्ध हैं, इसलिए आज भगवान महावीर बड़े क्रुद्ध हैं''। आजादी की वर्षगांठ पर भी 1950 में दिनकर जी ने राजनीति के दोमुंहेपन, जनविरोधी चेतना और भ्रष्टाचार की पोल खोल दिया था ''नेता का अब नाम नहीं ले, अंधेपन से काम नहीं ले, मंदिर का देवता, चोरबाजारी में पकड़ा जाता है''। रश्मिरथी से समाज को ललकारा है ''जाति जाति रटते वे ही, जिनकी पूंजी केवल पाखंड है। कुरुक्षेत्र में समतामूलक समाज के उपासक के रूप में लिखते हैं ''न्याय नहीं तब तक जबतक, सुख भाग न नर का समहो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।'' दिनकर जी की रचनाओं के अनुवाद विभिन्न भारतीय भाषाओं में तो व्यापक रूप से आए ही हैं। विदेशी भाषाओं में भी उनके अनुवाद हुए हैं। एक कविता संग्रह रूसी भाषा में अनुदित होकर मास्को से प्रकाशित हुआ तो दूसरा स्पेनी भाषा में दक्षिण अमेरिका के चाइल्ड में। कुरुक्षेत्र का तो कई अनुवाद कई भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होता रहा। दिनकर आजीवन संघर्षरत रहे, साहित्य और राजनीति दोनों के बीच उनका मन रमता था। ज्ञानपीठ पुरस्कार दिनकर जी के जीवन में एक नई आशा का संचार लाया। लेकिन 24 अप्रैल 1974 की शाम गंगा की गोद में उत्पन्न सूर्य रुपी दिनकर अस्ताचल चले गए। राष्ट्रकवि दिनकर जी की जन्मभूमि को नमन करने के लिए आने वाले देश भर के कवि और साहित्यकार आज भी कहते हैं हमारे देश का हर युग, युवा पीढ़ी राष्ट्रकवि को सदा श्रद्धा एवं सम्मान सहित याद करती रहेगी।
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गुरू अर्जुन देव के प्रकाश पर्व पर विशेष योगेश कुमार गोयल सिख धर्म में पांचवें गुरू श्री अर्जुन देव के बलिदान को सबसे महान् माना जाता है, जो सिख धर्म के पहले शहीद थे। उन्हें ‘शहीदों के सिरताज’ भी कहा जाता है। अमृतसर के गोइंदवाल साहिब में जन्मे गुरु अर्जुन देव के मन में सभी धर्मों के प्रति अथाह सम्मान था, जो दिन-रात संगत की सेवा में लगे रहते थे। धर्म रक्षक और मानवता के सच्चे सेवक श्री अर्जुन देव के पिता गुरू रामदास सिखों के चौथे तथा नाना गुरू अमरदास सिखों के तीसरे गुरू थे और गुरु अर्जुन देव के पुत्र हरगोविंद सिंह सिखों के छठे गुरू बने। वर्ष 1581 में 18 वर्ष की आयु में पिता गुरू रामदास जी द्वारा अर्जुन देव को सिखों का पांचवां गुरू बनाया गया था। गुरू अर्जुन देव को उनकी विनम्रता के लिए भी स्मरण किया जाता है। दरअसल उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में कभी किसी को कोई दुर्वचन नहीं कहा। शांत व गंभीर स्वभाव के स्वामी तथा धर्म के रक्षक गुरू अर्जुन देव जी को अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक का दर्जा प्राप्त है, जिनमें निर्मल प्रवृत्ति, सहृदयता, कर्त्तव्यनिष्ठता, धार्मिक एवं मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पण भावना जैसे गुण कूट-कूटकर समाये थे। ब्रह्मज्ञानी माने जाने वाले गुरू अर्जुन देव को आध्यात्मिक जगत में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, जो शहीदों के सरताज और शांतिपुंज माने जाते हैं। वह आध्यात्मिक चिंतक और उपदेशक के साथ ही समाज सुधारक भी थे, जो सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ डटकर खड़े रहे तथा अपने 43 वर्षों के जीवनकाल में उन्होंने जीवन पर्यन्त धर्म के नाम पर आडम्बरों तथा अंधविश्वासों पर कड़ा प्रहार किया। प्रतिदिन प्रातःकाल लाखों लोग शांति हासिल करने के लिए ‘सुखमनी साहिब’ का पाठ करते हैं, जो गुरू अर्जुनदेव जी की अमर-वाणी है, जिसमें 24 अष्टपदी हैं। सुखमनी अर्थात् सुखों की मणि यानी मन को सुख देने वाली वाणी, जो मानसिक तनाव की अवस्था का शुद्धिकरण भी करती है। यह सूत्रात्मक शैली की राग गाउडी में रची गई उत्कृष्ट रचना मानी जाती है, जिसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा, त्याग, मानसिक सुख-दुख तथा मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख है, जिनकी प्राप्ति कर मानव अपार सुखों की प्राप्ति कर सकता है। गुरू अर्जुन देव ने ही सभी गुरूओं की बानी के अलावा अन्य धर्मों के प्रमुख संतों के भजनों को संकलित कर एक ग्रंथ ‘श्रीगुरू ग्रंथ साहिब’ बनाया, जो मानव जाति को सबसे बड़ी देन मानी गई है। सम्पूर्ण मानवता में धार्मिक सौहार्द पैदा करने के लिए श्री गुरू ग्रंथ साहिब में कुल 36 महान् संतों और गुरूओं की वाणी का संकलन किया गया। इसमें कुल 5894 शब्द हैं, जिनमें से कुल 30 रागों में 2216 शब्द श्री गुरू अर्जुन देव जी के हैं जबकि अन्य शब्द महान् संत कबीर, संत रविदास, संत नामदेव, संत रामानंद, बाबा फरीद, भाई मरदाना, भक्त धन्ना, भक्त पीपा, भक्त सैन, भक्त भीखन, भक्त परमांनद, बाबा सुंदर इत्यादि के हैं। श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का सम्पादन गुरू अर्जुनदेव ने भाई गुरदास की सहायता से किया था, जिसमें रागों के आधार पर संकलित वाणियों का इस प्रकार वर्गीकरण किया गया, जिसे देखते हुए इसे मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में बेहद दुर्लभ माना जाता है। श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य वर्ष 1603 में शुरू हुआ और 1604 में सम्पन्न हो गया था, जिसका प्रथम प्रकाश पर्व श्री हरिमंदिर साहिब में 30 अगस्त 1604 को आयोजित किया गया था और इसके मुख्य ग्रंथी की जिम्मेदारी बाबा बुड्ढ़ा जी को सौंपी गई, जिन्होंने बचपन में गुरू अमरदास के साथ मिलकर अर्जुन देव का पालन-पोषण किया था। वर्ष 1705 में दमदमा साहिब में दशमेश पिता गुरू गोविंद सिंह जी ने गुरू तेगबहादुर जी के 116 शब्द जोड़कर श्री गुरू ग्रंथ साहिब को पूर्ण किया, जिसमें कुल 1430 पृष्ठ हैं। श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का कार्य तथा गुरू अर्जुनदेव जी का सेवाभाव कुछ असामाजिक तत्वों को रास नहीं आया, जिन्होंने इसके खिलाफ बादशाह अकबर के दरबार में शिकायत कर डाली कि ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ काफी गलत बातें लिखी गई हैं लेकिन जब अकबर को ग्रंथ में संकलित गुरूवाणियों की महानता का आभास हुआ तो उसने 51 मोहरें भेंट कर खेद प्रकट किया। अकबर के देहांत के बाद दिल्ली का शासक बना निर्दयी और कट्टरपंथी जहांगीर, जिसे गुरू अर्जुनदेव जी के धार्मिक और सामाजिक कार्य फूटी आंख नहीं सुहाते थे। जहांगीर ने 28 अप्रैल 1606 को उन्हें सपरिवार पकड़ने का फरमान जारी कर दिया। आखिरकार लाहौर में गुरूजी को बंदी बना लिया गया और उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। क्रूर शासक के फरमान पर 30 मई 1606 को गुरू अर्जुन देव को लाहौर में भीषण गर्मी के दौरान लोहे के बुरी तरह तपते तवे पर बिठाकर शहीद कर दिया गया। तपते तवे और तपती रेत से भी गुरूजी जरा भी विचलित नहीं हुए और हंसते-हंसते असहनीय कष्ट झेलते हुए भी उन्होंने सभी की भलाई के लिए ही अरदास की। जब उनके शीश पर आग-सी तपती रेत डालने पर उनका शरीर बुरी तरह जल गया तो उन्हें जंजीरों से बांधकर रावी नदी में फेंक दिया गया लेकिन उनका शरीर रावी में विलुप्त हो गया। रावी नदी में जिस स्थान पर गुरूजी का शरीर विलुप्त हुआ, वहां गुरूद्वारा डेरा साहिब का निर्माण किया गया, जो अब पाकिस्तान में है। सिख धर्म में पहले शहीद गुरू अर्जुन देव ने मानवता और जीवन मूल्यों के लिए अपनी शहादत देकर समस्त मानव जाति को यही संदेश दिया कि अपने धर्म और राष्ट्र के गौरव तथा महान जीवन मूल्यों के लिए आत्म-बलिदान देने को सदैव तत्पर रहना चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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ऋतुपर्ण दवे महंगाई वह सार्वभौमिक सत्य है जिसे लेकर शायद ही कभी ऐसा दौर रहा हो और सरकार किसी की भी हो, निशाने पर न आई हो। मौजूदा समय में बेशक महंगाई का सबसे बड़ा खामियाजा वो मध्यम वर्ग ही झेल रहा है जिसके पास सिवाय सीमित आय से गुजारा करने के और कोई चारा नहीं है। इस सच को भी स्वीकारना होगा कि तमाम वायदों, प्रलोभनों और राजनीतिक दांव-पेंच के बीच कभी सस्ता तो कभी मुफ्त का अनाज, कभी गरीबों को मदद पहुंचाने की होड़ में छूटता और पिसता मध्यम वर्ग ही है जो अपनी सीमित आय और तमाम सरकारी औपचारिकताओं को पूरा कर हमेशा पिसता रहा है। पहले गरीब महंगाई का शिकार होते थे जब सरकारी योजनाओं का सीधा-सीधा लाभ नहीं मिल पाता था। अब चाहे बात इनकम टैक्स की हो या मकान भाड़ा, वाहन का भाड़ा हो या बच्चों को योग्यता के हिसाब से पढ़ाने या रहन-सहन में खर्च या फिर इज्जत के साथ परिवार के दो जून की रोटी की कवायद। इसमें सबसे ज्यादा प्रभावित मध्यम वर्ग ही हुआ है। मौजूदा महंगाई को पहले कोविड की नजर लगी, अभी रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते ग्लोबल इकॉनामी की दुहाई। जिंस और वित्तीय बाजारों में जैसे उतार-चढ़ाव दिख रहे हैं, वह ठीक नहीं हैं। अब ज्यादा सतर्कता के साथ वित्तीय कदम उठाए जाने चाहिए जिससे भारत में मुद्रास्फीति और वित्तीय स्थिति पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर से निपटने में मदद मिल सके। इसी 11 अप्रैल को सरकार द्वारा जारी किए गए डेटा बताते हैं कि मार्च-2022 में खुदरा महंगाई दर फरवरी-2022 की तुलना में इतनी बढ़ी कि 16 महीनों के उच्चतम स्तर 6.95 प्रतिशत पर पहुंच गई। फरवरी-2022 में यही दर 6.07 प्रतिशत थी। इसी महंगाई दर या वृध्दि की तुलना बीते साल के मार्च से करें तो और भी चौंकाने वाला आंकड़ा सामने है। मार्च में खाने-पीने के सामान के दामों में 7.68 प्रतिशत की वृध्दि हुई जो फरवरी में केवल 5.85 प्रतिशत थी। अंतर और आंकड़े खुद ही कहानी कह रहे हैं। वहीं यदि इसी फरवरी-2022 के आंकड़ों पर नजर डालें तो तस्वीर बदलती दिखने लगती है। पेट्रोल-डीजल के मूल्य में 10-10 रूपए की वृद्धि का असर माल भाड़े पर भी पड़ा और भाड़ा 15 से 20 तक तक बढ़ा। इन कारकों और कारणों से खुदरा और थोक दोनों बाजारों में अनाज, फल, दूध और सब्जियों के दाम किस तरह से बढ़े, सबको पता है। मार्च महीने में खाने-पीने की वस्तुओं के दामों में 7.68 प्रतिशत की तेजी आई है जबकि यही खुदरा महंगाई दर फरवरी में 5.85 प्रतिशत पर थी। हालांकि 48 अर्थशास्त्रियों के बीच एक पोल के जरिए पहले ही यह अनुमान लगा लिया गया था कि खुदरा महंगाई दर बढ़ गई है जो 16 महीनों के अधिकतम स्तर पर पहुंच चुकी है। बाद में यही सच निकला। सर्वेक्षण 4 से 8 अप्रैल के बीच किया गया था और सरकारी आंकड़े 11 अप्रैल को आए। फरवरी-2022 में थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई दर 13.11 प्रतिशत रही जो 4 महीनों का उच्चत्तम स्तर था। वहीं जनवरी-2022 में दर 12.96 प्रतिशत थी जो मार्च-2022 में 14.55 प्रतिशत पहुंच गई। जबकि मार्च 2021 में यही थोक आधारित महंगाई दर केवल 7.89 प्रतिशत थी जिसका दहाई के अंकों तक पहुंचना चिन्ताजनक है। 137 दिनों के अंतराल के बाद भारत में पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में इजाफा का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जिसने कई दिनों तक थमने का नाम नहीं लिया। जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम गिर चुके थे। भारत में पेट्रोल-डीजल के दामों में बीते 22 मार्च से इसी 6 अप्रैल तक कई बार वृध्दि हुई जो दिवाली के वक्त से नहीं बढ़े थे। वैश्विक स्तर पर क्रूड ऑयल की कीमतों में बढ़ोतरी का असर शुरू में भारत में नहीं दिखा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 15 मार्च 2022 से पहले लगातार तीन सप्ताह तक 130 डॉलर प्रति बैरल तक उछला तेल भी टूटकर 100 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गया। भारत में पेट्रोलियम पदार्थों के दामों उछाल दुनिया में तेल के दाम गिरने के बाद शुरू हुए। हालांकि छह अप्रैल से कीमत नहीं बढ़ी है। लेकिन तब तक पेट्रोल-डीजल की कीमतों में 10-10 रुपए का इजाफा हो चुका था। इसी तरह एलपीजी, पीएनजी, सीएनजी के दाम भी बढ़ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल बाजार में कीमतों में गिरावट जारी है। 3 अप्रैल को इंडियन बास्केट की कीमत गिरकर 97 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई जो मार्च की औसत कीमत से लगभग 13 प्रतिशत सस्ती है। महंगाई का सबसे ज्यादा असर थाली पर पड़ता है। नींबू तक ने दामों में ऐसी ऐतिहासिक छलांग मारी कि नजर उतारने के बजाए खुद नजरिया गया। यही हाल आसमान छूते सब्जियों के दामों, दूध, फल और अन्य खाद्य सामग्रियों पर भी पड़ा। लोहे के सरियों की कीमतें जबरदस्त उछलीं। सीमेण्ट भी प्रति बोरी 15 से 25 रुपए बढ़ गई। ईंट तक के दाम खूब उछाल पर हैं। कुछ समय पहले तक दो कमरे, एक रसोई, एक बाथरूम यानी औसत 111 गज का मकान 10 लाख रुपए में आसानी से बन जाता था अब वहीं 12-13 लाख रुपयों से भी ज्यादा हो गई है। इधर, आम दवाइयां जैसे बुखार, दर्द निवारक से लेकर एंटीबायोटिक तक की कीमतें भी दस प्रतिशत तक बढ़ीं। एक तरफ हम 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना देख रहे हैं। दूसरी तरफ लॉकडाउन ने करोड़ों रोजगार खत्म कर दिए। अनगिनत व्यापार-व्यवसाय चौपट हुए। देखते ही देखते बड़ी संख्या में लोग एकाएक गरीब हो गए। रही-सही कसर दो साल में कोरोना ने पूरी कर दी। अब रूस-यूक्रेन युध्द की विभीषिका के नाम पर अर्थव्यवस्था पर भारी असर डाला है। वैसे तो मंहगाई का सब पर असर पड़ता है। लेकिन खाली जेब आम आदमी कैसे जाएगा बाजार? सवाल फिर वही कि महंगाई को काबू में कैसे रखा जाए? जाहिर है महंगाई वो बेलगाम घोड़ा है जिसे रोका तो नहीं जा सकता पर काबू जरूर किया जा सकता है। हां, इसे काबू में रखना ही होगा वरना जीवन और कठिन हो जाएगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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आर.के. सिन्हा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने भारत के साथ दोस्ती तथा सौहार्दपूर्ण संबंधों की इच्छा जताई है। यह सुखद है। वर्ना पाकिस्तानी सेना के साए में रहने वाली वहां की सरकारों के लिए भारत से संबंधों को मधुर तथा मजबूत बनाने के बारे में सोचने से पहले रावलपिंडी के आर्मी हाउस से हरी झंडी लेनी पड़ती है। अब दोनों देशों को बिना देर किए कम से कम आपसी व्यापार तथा सरहद के आरपार रहने वाली जनता को एक-दूसरे से मिलने-जुलने की इजाजत देने में देरी नहीं करनी चाहिए। शाहबाज शरीफ के नेतृत्व वाली सरकार में भारत से पाकिस्तान जाकर बसे मुसलमानों के हितों के लिए लड़ने वाली राजनीतिक पार्टी मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) भी है। इसके नेता अल्ताफ हुसैन की यही मुख्य मांग रही कि मुहाजिर परिवारों को अपने बच्चों के निकाह उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली वगैरह के परिवारों में करने की इजाजत मिले। यह सच है कि दोनों मुल्कों के रिश्तों में तल्खी के कारण बंटवारे के वक्त बंटे परिवार हमेशा के लिए एक-दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। खैर, शरीफ तथा भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के बीच हाल के दिनों में हुए संदेशों के आदान-प्रदान से यह उम्मीद बंधी है कि सरहद के आरपार रहने वाले परिवार फिर से करीब आएंगे। ये आपस में निकाह करके ऱिश्तों की डोर को बांधे हुए थे। कुछ दशक पहले तक हर साल सैकड़ों निकाह होते थे, जब दूल्हा पाकिस्तानी होता था और दुल्हन हिन्दुस्तानी। इसी तरह से सैकड़ों शादियों में दुल्हन पाकिस्तानी होती थी और दूल्हा हिन्दुस्तानी। नवाब मंसूर अली खान पटौदी के रिश्ते के भाई तथा पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष शहरयार खान ने चंदेक साल पहले अपने पुत्र के लिए भोपाल की कन्या को अपनी बहू बनाया था। उनके फैसले पर पाकिस्तान में कट्टरपंथियों ने शहरयार पर हल्ला बोलते हुए कहा था “शर्म की बात है कि शहरयार खान को अपनी बहू भारत में ही मिली।” जवाब में शहरयार खान ने कहा, “भोपाल मेरा शहर है। मैं वहां से बहू नहीं लाऊंगा तो कहां से लाऊंगा।” आप पाकिस्तान के चोटी के अखबारों में छपे वैवाहिक विज्ञापनों को देख लीजिए। आपको समझ आ जाएगा कि वहां पर मुहाजिर किस तरह पुरखों की जड़ों से जुड़े हुए हैं। आपको तमाम विज्ञापनों में ये लिखा मिल जाएगा, वर (वधू) यूपी से हों या यूपी से संबंध रखते हैं। यूपी का मतलब ही मुहाजिर से है। उधर यूपी में वे सब लोग शामिल हो जाते हैं, जो भारत से जाकर बसे थे। तिजारती रिश्ते शुरू हों भारत की यह भी चाहत है कि कश्मीर मसला हल होने से पहले ही दोनों पड़ोसी मुल्क अपने व्यापारिक संबंधों को एक्टिव कर लें। चूंकि शाहबाज शरीफ और उनकी पार्टी के नेता तथा पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का संबंध एक बिजनेस करने वाले परिवार से है, इसलिए वे भारत की चाहत का सम्मान करेंगे। जानने वाले जानते हैं कि शरीफ परिवार की स्टील कंपनी ‘इत्तेफाक’ का भारत की चोटी की स्टील कंपनी जिंदल साउथ वेस्ट (जेएसडब्ल्यू) से कारोबारी संबंध हैं। जेएसडब्ल्यू के चेयरमैन सज्जन जिंदल के शरीफ परिवार से निजी संबंध हैं। इस बात को कभी शरीफ परिवार ने छिपाया नहीं है। शरीफ सीखें चीन से पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री तथा सरकार को भारत-चीन संबंधों से सीखना होगा। भारत-चीन के बीच जवाहर लाल नेहरू के ज़माने से ही जटिल सीमा विवाद है, पर इसके साथ दोनों देशों के बीच तिजारती रिश्ते भी लगातार मजबूत हो रहे हैं। फिलहाल दोनों देशों का दिवपक्षीय व्यापार 100 अरब डॉलर के करीब पहुंच रहा है। साफ है कि भारत-चीन आपसी व्यापार बढ़ता ही रहेगा। तो चीनी उत्पादों का बहिष्कार करने के नारों का कोई बहुत ज्यादा असर नहीं हुआ। हकीकत यह है कि भारत चीन से इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादों तथा मोबाइल फोन कंपोनेंट्स का बहुत बड़े स्तर पर आयात करता है। हमारी फार्मा कंपनियों की भी चीन पर निर्भरता तो खासी अधिक है। इस निर्भरता को हम कुछ महीनों में या नारेबाजी मात्र से तो खत्म नहीं कर सकते। जब तक हम आत्मनिर्भर नहीं हो जाते तब तक हमें चीन से विभिन्न उत्पादों का आयात करना होगा। बहरहाल, अब भारत-पाकिस्तान के आपसी व्यापार की हालत जान लेते हैं। भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) मानता है कि अगर दोनों देशों की सरकारों की तरफ से आपसी व्यापार को गति देने की पहल हो तो 2.7 अरब ड़ॉलर का आंकड़ा 10 अरब ड़ॉलर तक पहुंच सकता है। पाकिस्तान की धूल में जाती अर्थव्यवस्था को पंख लगाने की शाहबाज शरीफ को कसकर कोशिशें करनी होगी। फिलहाल उनका देश की अर्थव्यवस्था भारी संकट में है। पाकिस्तानी रुपया डॉलर के मुकाबले बेहद कमजोर हो चुका है। पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो रहा है। इमरान खान प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने से पहले पाकिस्तान की मुश्किलें और बढ़ा गए हैं। वे कहते रहे कि अमेरिका उन्हें हटाना चाहता है। इस कारण अमेरिका पाकिस्तान से नाराज है। हालांकि अमेरिका ने पाकिस्तान को बार-बार संकट से निकाला है। पाकिस्तान की धूर्त और भ्रष्ट सेना को भी यह समझना होगा कि भारत के साथ शांति के रास्ते पर चलकर ही उनका मुल्क विकास कर सकेगा। उसका एक पक्ष व्यापारिक संबंध मजबूत करना भी है। पाकिस्तानी सेना ने देश की प्राथमिकताएं बदली हैं। पाकिस्तान में शिक्षा बजट से सात गुना अधिक है रक्षा बजट। इस सोच के कारण पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी है। शरीफ को लेकर की जा रही इन तमाम उम्मीद भरी बातों के बीच अभी उन्हें साबित करना होगा कि वे सच में अपने मुल्क का भला चाहते हुए अपनी एक असल में शरीफ प्रधानमंत्री की इमेज को दुनिया के सामने लाना चाहते हैं। शाहबाज शरीफ के साथ बड़ी चुनौती यह भी रहेगी कि पाकिस्तान का सबसे बड़ा सूबा पंजाब घनघोर रूप से भारत विरोधी रहा है। क्या वह अब बदलेगा, यह भी देखना होगा। इसके लिए शाहबाज शरीफ को पंजाब में भारतीय विरोधी माहौल को खत्म करना होगा। यह संभव है क्योंकि उनका और उनकी पार्टी का पंजाब में गजब का असर है। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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योगेश कुमार गोयल भारत का अचूक ब्रह्मास्त्र मानी जाने वाली ‘ब्रह्मोस’ सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल एक के बाद एक सफलता के नए पड़ाव पार करते हुए अपनी क्षमताओं और ताकत से पूरी दुनिया को हतप्रभ कर रही है। ब्रह्मोस मिसाइल जब करीब तीन हजार किलोमीटर प्रति घंटे की गति से आगे बढ़ती है तो किसी भी देश की वायु रक्षा प्रणाली के लिए इसे रोक पाना लगभग नामुमकिन हो जाता है। 19 अप्रैल को सफलता का एक और पड़ाव पार करते हुए ब्रह्मोस ने एक ही लक्ष्य के खिलाफ दो सफल वार किए। पहला परीक्षण भारतीय नौसेना के युद्धपोत आईएनएस दिल्ली द्वारा देश के पूर्वी समुद्र तट पर एक जहाज को निशाना बनाते हुए किया गया और बिना वारहेड वाली ब्रह्मोस मिसाइल ने इस जहाज में एक बड़ा सुराख बना दिया। इस सफल परीक्षण के बाद ब्रह्मोस मिसाइल के एयर-लांच संस्करण से लैस भारतीय वायुसेना के सुखोई-30 एमकेआई विमान ने एयरबेस से उड़ान भरते हुए उसी जहाज पर पुनः वार किया और ब्रह्मोस के वारहेड से सीधे टकराने के बाद जहाज पानी में डूब गया। इन परीक्षणों के लिए भारतीय वायुसेना तथा नौसेना द्वारा एक-दूसरे के साथ समन्वय किया गया था। भारत और रूस के संयुक्त प्रयासों से बनाई गई सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल ‘ब्रह्मोस’ के अलग-अलग संस्करणों के अभी तक कई परीक्षण किए जा चुके हैं। सभी परीक्षणों में ब्रह्मोस ने अपनी जो ताकत दुनिया को दिखाई है, उससे यह हिन्द की बाहुबली और रण की बॉस साबित हुई है। रक्षा अधिकारियों का कहना है कि निकट भविष्य में ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल के अभी और भी प्रक्षेपण होने जा रहे हैं। वैसे, पहले से बनी इन शक्तिशाली मिसाइलों को और ज्यादा शक्तिशाली बनाते हुए भारत पूरी दुनिया को अपनी स्वदेशी ताकत का अहसास कराने का भी सफल प्रयास कर रहा है। ब्रह्मोस अपनी श्रेणी में दुनिया की सबसे तेज परिचालन प्रणाली है और डीआरडीओ द्वारा इस मिसाइल प्रणाली की सीमा को 290 किलोमीटर से बढ़ाकर करीब 450 किलोमीटर तक किया जा चुका है। लंबी दूरी पर मौजूद लक्ष्यों पर अचूक प्रहार करने की अपनी क्षमता को विभिन्न परीक्षणों में बखूबी प्रदर्शित कर चुकी ब्रह्मोस की ताकत को इसी से समझा जा सकता है कि इसकी रफ्तार ध्वनि की गति से करीब तीन गुना ज्यादा है। ब्रह्मोस अब न केवल भारत के तीनों सशस्त्र बलों के लिए बेहद शक्तिशाली हथियार बन गई है बल्कि गर्व का विषय यह है कि अभी तक जहां भारत अमेरिका, फ्रांस, रूस इत्यादि दूसरे देशों से मिसाइलें व अन्य सैन्य साजोसामान खरीदता रहा है, वहीं भारत अपनी इस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल को दूसरे देशों को निर्यात करने की दिशा में अब तेजी से आगे बढ़ रहा है। ब्रह्मोस मिसाइल को पनडुब्बियों, विमानों और जमीन से अर्थात् तीनों ही स्थानों से सफलतापूर्वक लांच किया जा सकता है, जो भारतीय वायुसेना को समुद्र अथवा जमीन के किसी भी लक्ष्य पर हर मौसम में सटीक हमला करने के लिए सक्षम बनाती है। बेहद ताकतवर ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइलें भारतीय वायुसेना के 40 से भी अधिक सुखोई लड़ाकू विमानों पर लगाई जा चुकी हैं, जिससे सुखोई लड़ाकू विमान पहले से कई गुना ज्यादा खतरनाक हो गए हैं। सुखोई विमान की दूर तक पहुंच के कारण ही इस विमान को ‘हिंद महासागर क्षेत्र का शासक’ भी कहा जाता है और ब्रह्मोस से लैस सुखोई अब दुश्मनों के लिए बेहद घातक हो गए हैं। ब्रह्मोस मिसाइल मध्यम रेंज की रेमजेट सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल है, जिसे पनडुब्बियों, युद्धपोतों, लड़ाकू विमानों और जमीन से दागा जा सकता है। यह दस मीटर की ऊंचाई पर भी उड़ान भर सकती है और रडार के अलावा किसी भी अन्य मिसाइल पहचान प्रणाली को धोखा देने में भी सक्षम है, इसीलिए इसे मार गिराना लगभग असंभव माना जाता रहा है। इस मिसाइल का नाम भारत की ब्रह्मपुत्र नदी तथा रूस की मस्कवा नदी को मिलाकर रखा गया है और इसका 12 जून 2001 को पहली बार सफल लांच किया गया था। यह मिसाइल दुनिया में किसी भी वायुसेना के लिए गेमचेंजर साबित हो सकती है। मिसाइलें प्रमुख रूप से दो प्रकार की होती हैं, क्रूज मिसाइल और बैलिस्टिक मिसाइल। क्रूज और बैलिस्टिक मिसाइलों में अंतर यही है कि क्रूज मिसाइल बहुत छोटी होती हैं, जिन पर ले जाने वाले बम का वजन भी ज्यादा नहीं होता और अपने छोटे आकार के कारण उन्हें छोड़े जाने से पहले बहुत आसानी से छिपाया जा सकता है जबकि बैलिस्टिक मिसाइलों का आकार काफी बड़ा होता है और वे काफी भारी वजन के बम ले जाने में सक्षम होती हैं। बैलिस्टिक मिसाइलों को छिपाया नहीं जा सकता, इसलिए उन्हें छोड़े जाने से पहले दुश्मन द्वारा नष्ट किया जा सकता है। क्रूज मिसाइल वे मिसाइलें होती हैं, जो कम ऊंचाई पर तेजी से उड़ान भरती हैं और रडार की आंखों से भी आसानी से बच जाती हैं। बैलिस्टिक मिसाइल उर्ध्वाकार मार्ग से लक्ष्य की ओर बढ़ती हैं जबकि क्रूज मिसाइल पृथ्वी के समानांतर अपना मार्ग चुनती हैं। छोड़े जाने के बाद बैलिस्टिक मिसाइल के लक्ष्य पर नियंत्रण नहीं रहता जबकि क्रूज मिसाइल का निशाना एकदम सटीक होता है। डीआरडीओ अब रूस के सहयोग से ब्रह्मोस मिसाइल की मारक दूरी को और भी ज्यादा बढ़ाने के साथ इन्हें हाइपरसोनिक गति पर उड़ाने पर भी कार्य कर रहा है। दरअसल सुपरसोनिक मिसाइलों की गति ध्वनि की रफ्तार से तीन गुना अर्थात् तीन मैक तक होती है और इनके लिए रैमजेट इंजन का प्रयोग किया जाता है, जबकि हाइपरसोनिक मिसाइलों की रफ्तार ध्वनि की गति से पांच गुना से भी ज्यादा होती है और इनके लिए स्क्रैमजेट यानी छह मैक स्तर के इंजन का प्रयोग किया जाता है। फिलहाल ब्रह्मोस के जो संस्करण उपलब्ध हैं, वे सुपरसोनिक क्रूज मिसाइलें ही हैं, जो ध्वनि के वेग से करीब तीन गुना अधिक 2.8 मैक गति से अपने लक्ष्य पर जबरदस्त प्रहार करती हैं। यह दुनिया में अपनी तरह की ऐसी एकमात्र क्रूज मिसाइल है, जिसे सुपरसॉनिक स्पीड से दागा जा सकता है। दुनिया की सबसे तेज सुपरसोनिक मिसाइल ब्रह्मोस अपने लक्ष्य के करीब पहुंचने से मात्र बीस किलोमीटर पहले भी अपना रास्ता बदल सकने वाली तकनीक से लैस है और यह केवल दो सैकेंड में चौदह किलोमीटर तक की ऊंचाई हासिल कर सकती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इसके दागे जाने के बाद दुश्मन को संभलने का मौका नहीं मिलता और यह पलक झपकते ही दुश्मन के ठिकाने को नष्ट कर देती है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा पूरी दुनिया को अन्न देने की भारत की पेशकश, कोई बड़बोलापन या हवाई नहीं है। देश के अन्नदाताओं की मेहनत और सरकारी नीतियों का परिणाम है कि आज देश के गोदाम अन्न-धन से भरे हैं। दुनिया का बड़ा गेहूं उत्पादक देश होने के बावजूद गेहूं के निर्यात में चार साल पहले तक भारत की हिस्सेदारी नगण्य के बराबर रही है। पर पिछले चार साल में ही भारत गेहूं के निर्यात में लंबी छलांग लगाने की स्थिति में आ गया है। युद्ध और कोरोना जैसी महामारी के चलते दुनिया के देशोें के सामने खाद्यान्न का संकट आ गया है। वहीं, आबादी के हिसाब से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश होने के बावजूद खाद्यान्न के मामले मेें आज भारत पूरी तरह आत्मनिर्भर होने के साथ दुनिया के देशों को खाद्यान्न उपलब्ध कराने की स्थिति में आ गया है। केवल चार साल में भारत ने गेहूूं निर्यात में नए आयाम स्थापित किए हैं। आज भारत दो लाख टन से सौ लाख टन, वो भी केवल चार साल में गेहूं के निर्यात के आंकड़े को छूने जा रहा है। यह सफलता किसी ऊंची उड़ान से कम नहीं। हालांकि गेहूं के निर्यात में भारत की हिस्सेदारी एक प्रतिशत से भी कम है। 2016 में 0.14 प्रतिशत की गेहूं निर्यात की हिस्सेदारी 2020 तक बढ़कर 0.54 प्रतिशत तक ही पहुंची है यानी की एक प्रतिशत से भी कम है पर हालात तेजी से बदल रहे हैं। पहले कोरोना और अब यूक्रेेन-रुस युद्ध ने दुनिया के सामने सारी तस्वीर बदल कर रख दी है। रूस और यूक्रेन पर पूरी तरह से निर्भर मिस्र जैसे अनेक देश आज भारत की ओर देख रहे हैं। पिछले दिनोें ही मिस्र ने भारत से गेहूं आयात करने को लेकर मंजूरी दी है। भारत ने भी मिस्र को शुरुआती दौर में 30 लाख टन गेहूं निर्यात का लक्ष्य तय किया है। देखा जाए तो भारत के पास गेहूं के भण्डार भरे हैं। इस साल भी गेहूं का रेकार्ड उत्पादन होने का अनुमान लगाया जा रहा है। मण्डियों में नए गेहूं की आवक शुरू हो गई है। हालांकि इस बार सरकारी खरीद का आंकड़ा छूने मेें परेशानी आ रही है और इसका कारण दूसरे अर्थों में सकारात्मक संकेत भी माना जाना चाहिए। क्योंकि इस साल मण्डियों में या यों कहें कि बाजार में गेहूं के भाव सरकार द्वारा घोषित एमएसपी से कहीं ज्यादा चल रहे हैं। यही कारण है कि पंजाब-हरियाणा तक में किसान सरकारी खरीद केन्द्रों के स्थान पर गेहूं सीधे बेचने या भण्डारित करने पर जोर दे रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि अभी तो एमएसपी से अधिक भाव चल ही रहे हैं पर रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते आने वाले समय में गेहूं के भावों में और तेजी आने के कयास लगाए जा रहे हैं। माना जा रहा है कि गेहूं की विदेशों में मांग और अधिक बढ़ेगी और अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं के भाव बढ़ने का लाभ किसानों को भी मिलेगा। अमेरिकी विशेषज्ञों की मानें तो देश में 12 मिलियन टन गेहूं निर्यात के लिए मौजूद है। एक समय था जब अमेरिका जैसे देशों के सामने गेहूं के लिए हाथ फैलाना पड़ता था। पुरानी पीढ़़ी को आज भी याद है कि घटिया किस्म का गेहूं भारत आता था। लाल बहादुर शास्त्री जी को तो देशवासियों से एक दिन उपवास खासतौर से सोमवार को व्रत रखने का संदेश देना पड़ा था। आज भी शास्त्री जी के कोल को देखते हुए लोग सोमवार को उपवास रखते आ रहे हैं। खैर, किसानों की मेहनत, कृषि विशेषज्ञों के प्रयास और केन्द्र व राज्य सरकारों की नीतियों का ही परिणाम है कि आज भारत दुनिया के कई देशों की भूख मिटाने की स्थिति में आ गया है। यह तो आंकड़े बता रहे हैं। कोरोना के कारण देश के 80 करोड़ लोगों तक आज भी अन्न पहुंचाया जा रहा है तो कोविड की विपरीत परिस्थितियों में खाद्यान्न की कहीं भी कमी नहीं आने दी गई। यह सब अन्नदाता की मेहनत का परिणाम है। जहां तक गेहूं के निर्यात का प्रश्न है मिस्र द्वारा भारत से गेहूं मंगाने पर सहमति के बाद हालात और अधिक तेजी से बदलेंगे। देश में 2019 में 2 लाख टन गेहूं का निर्यात हुआ था जो 2020 में 21 लाख टन और 2021 में 70 टन पहुंच गया और इस साल सौ लाख टन यानी एक करोड़ टन गेहूं के निर्यात का लक्ष्य रखते हुए कार्ययोजना को अमली जामा पहनाया जा रहा है। भारत द्वारा गेहूं निर्यात के लिए नए देशों से संपर्क साधा जा रहा है। खासतौर से 9 देशों से संपर्क बनाया जा रहा है। इनमें मोरक्को, ट्यूनीशिया, इंडोनेशिया, फिलीपींस, थाईलैण्ड, टर्की, अल्जीरिया और लेबनान प्रमुख है। मिस्र से तो निर्यात पर सहमति भी हो गई है और करीब 30 लाख टन गेहूं निर्यात का लक्ष्य रखा गया है। इससे पहले गेहूं का सर्वाधिक निर्यात बांग्लादेश को किया जा रहा है। बांग्लादेश के अलावा संयुक्त अरब अमीरात, मलेशिया, श्रीलंका, कतर और ओमान को गेहूं का निर्यात पहले से किया जा रहा है। खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता और निर्यात का सारा श्रेय अन्नदाता को जाता है तो कृषि विज्ञानियों और केन्द्र व राज्य सरकारों की नीतियों को भी कम नहीं आंका जा सकता। देश के 135 करोड़ से भी अधिक देशवासियों की जरूरत को पूरा कर विदेशों में निर्यात की स्थिति में लाना बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है। केवल चार साल में ही दो लाख टन से 100 लाख टन का आंकड़ा छूना किसी अजूबे से कम नहीं है। इससे निश्चित रूप से भारतीय कृषि को वैश्विक पहचान मिलने के साथ विदेशी आय के नए रास्ते खुुले हैं। आज यह कहने की स्थिति में आना कि भारत पूरी दुनिया को अन्न देने को तैयार है, यह देश के लिए गर्व की बात है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. दिलीप अग्निहोत्री रक्षा तैयारियों की दृष्टि से वर्तमान सरकार का कार्यकाल अभूतपूर्व रहा है। इस दौरान अनेक मोर्चों पर एक साथ कार्य किया गया। वर्षों से लंबित रक्षा समझौतों को पूरा किया गया। राफेल जैसे लड़ाकू विमान भारतीय वायुसेना में शामिल हुए। रूस के साथ रक्षा समझौते का क्रियान्वयन शुरू हुआ। इसके साथ ही रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत अभियान को प्रभावी रूप में आगे बढ़ाया गया। भारत अब रक्षा उत्पाद का प्रमुख निर्यातक बन रहा है। पचहत्तर देशों को भारत द्वारा रक्षा उत्पाद निर्यात किये जा रहे है। सीमा क्षेत्र पर व्यापक निर्माण कार्य किये गए। इस क्रम में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की अमेरिका यात्रा उपयोगी रही। उनकी यात्रा ऐसे समय में हुई जब रूस-यूक्रेन युद्ध चर्चा में है। इसमें नाटो देश भी लाचार नजर आ रहे हैं। भारत से ही सर्वाधिक अपेक्षा की जा रही है। रूस व यूक्रेन के राष्ट्रपति, भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से वार्ता कर चुके हैं। रूस के विदेश मंत्री कुछ दिन पहले नई दिल्ली आए थे। अमेरिका भी भारत के महत्व को समझ रहा है। राजनाथ सिंह की पेंटागन में अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन के साथ इसी माहौल में मुलाकात हुई। इसमें द्विपक्षीय रक्षा सहयोग के सभी पहलुओं और क्षेत्रीय सुरक्षा स्थिति पर विचार-विमर्श किया गया। इसके अलावा राजनाथ सिंह ने व्हाइट हाउस में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से मुलाकात की। उन्होंने भारत-अमेरिका के वर्चुअल शिखर सम्मेलन में भाग लिया। जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति ने संबोधित किया। राजनाथ सिंह और ऑस्टिन वार्ता के बाद साझा बयान जारी किया गया। इसमें कहा गया कि दोनों देश रक्षा साझेदारी को मजबूत करने और द्विपक्षीय रक्षा सहयोग में गुणवत्ता और दायरे को आगे बढ़ाने के लिए मिलकर काम करेंगे। सैन्य संबंध सूचना साझाकरण, उन्नत रसद सहयोग और संगत संचार व्यवस्था के तहत सशस्त्र बलों की क्षमता पर विचार किया गया। विशेष ऑपरेशन संबंधी सहयोग बढ़ाया जाएगा। दोनों देशों के रक्षा उद्योगों के बीच सहयोग भी मजबूत होगा। भारत और अमेरिकी कंपनियों के बीच सह विकास, सह उत्पादन की आवश्यकता है। रक्षा उपकरणों के निर्माण और रखरखाव के लिए अमेरिकी कंपनियों को भारत में आमंत्रित किया गया। द्विपक्षीय रक्षा सहयोग और क्षेत्रीय सुरक्षा स्थिति के सभी पहलुओं की समीक्षा की गई। हिंद प्रशांत और व्यापक हिंद महासागर क्षेत्र में शांति, स्थिरता और समृद्धि के लिए भारत-अमेरिका रक्षा साझेदारी के महत्व को स्वीकार किया। भारत अमेरिका के बीच टू प्लस टू मंत्री स्तरीय वार्ता हुई। राजनाथ सिंह व एस जयशंकर ने अमेरिकी समकक्षों के साथ टू प्लस टू वार्ता में हिस्सा लिया। दोनों देशों के बीच पिछली टू प्लस टू मंत्री स्तरीय वार्ता दो वर्ष पूर्व नई दिल्ली में आयोजित की गई थी। भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका ने पिछले साल सितंबर में वाशिंगटन में द्विपक्षीय टू प्लस टू अंतर-सत्रीय बैठक की और दक्षिण एशिया, भारत-प्रशांत क्षेत्र और पश्चिमी हिंद महासागर में विकास पर आकलन का आदान-प्रदान किया था। इसी क्रम में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अमेरिकी वाणिज्य सचिव रैमोंडो से वार्ता की। दोनों देशों के बीच आर्थिक साझेदारी को आगे बढ़ाने पर चर्चा की गई। हमारा लक्ष्य आपूर्ति परिवर्तन के लचीलेपन और विश्वसनीयता और व्यापार में विश्वास और पारदर्शिता को बढ़ाना है। जयशंकर ने व्यापार मामलों की राजदूत कैथरीन से भी मुलाकात की। इसमें द्विपक्षीय व्यापार पर चर्चा और वैश्विक स्थिति पर विचार किया गया। इस दौरान राष्ट्रपति बाइडेन और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वुर्चअल बैठक भी महत्वपूर्ण रही। इस बैठक पर दुनिया की निगाहें थीं। इसमें रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस जयशंकर भी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ शामिल हुए थे। चार चरणों में हुई वार्ता द्विपक्षीय संबंधों की दृष्टि से उपयोगी रही। अमेरिका ने भारत को आश्वस्त किया कि चीन के बढ़ते आक्रामक रुख के विरुद्ध सहायता देगा। बाइडेन ने यूक्रेन के लोगों को भारत की ओर से भेजी गई मानवीय सहायता का स्वागत किया। अमेरिकी विदेश विभाग ने अपने आधिकारिक बयान में कहा है कि संयुक्त राज्य अमेरिका भारत प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा और कानून के शासन को बढ़ावा देने के लिए भारत और क्वाड भागीदारों के साथ काम करना जारी रखेगा। आर्थिक सुधार और जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए भारत और क्वाड भागीदारों के साथ काम करता रहेगा। अमेरिका इस बात से अवगत है कि भारत और रूस स्वाभाविक सहयोगी हैं। भारत किसी तीसरे देश के साथ अपने संबंधों को राष्ट्रीय हितों को देखते हुए प्रतिकूल प्रभाव डालने की अनुमति नहीं देगा। राजनाथ सिंह ने भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा तैयारियों पर यूक्रेन में जारी युद्ध की वजह से पड़ने वाले किसी भी प्रभाव से इनकार किया। हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कोई समस्या होगी। भारत के पास यह सुनिश्चित करने की क्षमता है कि अगर कोई समस्या आती है तो वह उससे निपट सकता है। राजनाथ सिंह को अमेरिका के रक्षा विभाग के मुख्यालय पेंटागन में विशिष्ट सम्मान दिया गया। विशिष्ट सम्मान बेहद खास अतिथियों को ही दिया जाता है। सामान्य सम्मान के तहत अतिथियों का पेंटागन की सीढ़ियों पर सम्मान किया जाता है। हाथ मिलाकर उनका स्वागत किया जाता है। विशिष्ट सम्मान के तहत दोनों देशों के राष्ट्रगान बजाए जाते हैं। राजनाथ सिंह ने कहा कि दोनों देशों के संबंधों में स्थिरता और निरंतरता है। इसे बनाए रखने में दोनों देशों की अहम भूमिका रही है। राजनाथ सिंह ने चीन को भी कड़ा संदेश दिया। कहा कि अगर हमें नुकसान पहुंचा तो भारत किसी को नहीं छोड़ेगा। राजनाथ सिंह ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत एक शक्तिशाली देश के रूप में उभरा है और हम दुनिया की शीर्ष तीन अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं। किसी देश के साथ हमारे संबंध किसी अन्य देश के साथ संबंधों की कीमत पर नहीं हो सकते। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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विश्व पृथ्वी दिवस (22 अप्रैल) पर विशेष योगेश कुमार गोयल इस साल मार्च महीने से ही भीषण गर्मी का जो कहर देखा जा रहा है, उसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। न केवल मार्च बल्कि अप्रैल मध्य तक तापमान प्रायः सामान्य ही रहता था लेकिन इस बार तापमान जिस तरह के रिकॉर्ड तोड़ रहा है, ऐसे में पूरी संभावना जताई जा रही है कि आने वाले दिनों में पृथ्वी और ज्यादा तीव्रता के साथ तपेगी और भारत में लोगों को लू का भयानक कहर झेलना पड़ सकता है। वैसे न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी तथा मौसम का बिगड़ता मिजाज गंभीर चिंता का विषय बना है। पर्यावरण के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने तथा पृथ्वी को संरक्षण प्रदान करने के साथ दुनिया के समस्त देशों से इस कार्य में सहयोग व समर्थन हासिल करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को ‘विश्व पृथ्वी दिवस’ मनाया जाता है। ‘पृथ्वी दिवस’ पहली बार बड़े स्तर पर 22 अप्रैल 1970 को मनाया गया था और तभी से केवल इसी दिन यह दिवस मनाए जाने का निर्णय लिया गया। उस समय अमेरिकी सीनेटर गेलार्ड नेल्सन द्वारा पृथ्वी को संरक्षण प्रदान करने के लिए इस महत्वपूर्ण दिवस की स्थापना पर्यावरण शिक्षा के रूप में की गई थी, जिसे अब दुनिया के कई देशों में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। दरअसल, धरती की सेहत बिगाड़ने और इसके सौन्दर्य को ग्रहण लगाने में समस्त मानव जाति जिम्मेदार है। आधुनिक युग में सुविधाओं के विस्तार ने पर्यावरण को सर्वाधिक क्षति पहुंचाई है और निरन्तर हो रहा जलवायु परिवर्तन इसी की देन है। हालांकि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विगत वर्षों में दुनियाभर में बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन होते रहे हैं और वर्ष 2015 में पेरिस सम्मेलन में 197 देशों ने सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए अपने-अपने देश में कार्बन उत्सर्जन कम करने और 2030 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री तक सीमित करने का संकल्प लिया था। इसके बावजूद इस दिशा में अभी तक कोई ठोस कदम उठते नहीं देखे गए हैं। हालांकि प्रकृति पिछले कुछ वर्षों से लगातार भयानक आंधियों, तूफान और ओलावृष्टि के रूप में स्थिति की गंभीरता का संकेत देती रही है कि विकास के नाम पर प्रकृति से भयानक खिलवाड़ के खतरनाक नतीजे होंगे लेकिन अपेक्षित कदम अबतक नहीं उठाए गए। जलवायु परिवर्तन से निपटने के नाम पर वैश्विक चिंता व्यक्त करने से आगे हम शायद कुछ करना ही नहीं चाहते। हम यह समझना नहीं चाहते कि पहाड़ों का सीना चीरकर हरे-भरे जंगलों को तबाह कर हम जो कंक्रीट के जंगल विकसित कर रहे हैं, वह वास्तव में विकास नहीं बल्कि अपने विनाश का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। पृथ्वी का तापमान यदि इसी प्रकार बढ़ता रहा तो आने वाले वर्षों में हमें इसके बेहद गंभीर परिणाम भुगतने को तैयार रहना होगा। हमें यह बखूबी समझ लेना होगा कि जो प्रकृति हमें उपहार स्वरूप शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, शुद्ध मिट्टी तथा ढेरों जनोपयोगी चीजें दे रही है, अगर मानवीय क्रियाकलापों द्वारा पैदा किए जा रहे पर्यावरण संकट के चलते प्रकृति कुपित होती है तो उसे सब कुछ नष्ट कर डालने में पलभर की भी देर नहीं लगेगी। करीब दो दशक पहले देश के कई राज्यों में जहां अप्रैल माह में अधिकतम तापमान औसतन 32-33 डिग्री रहता था, अब वह मार्च महीने में ही 40 के पार रहने लगा है। यदि पृथ्वी का तापमान इसी प्रकार बढ़ता रहा तो इससे एक ओर जहां जंगलों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि होगी, वहीं पृथ्वी का करीब 20-30 प्रतिशत हिस्सा सूखे की चपेट में आ जाएगा। इसके साथ एक चौथाई हिस्सा रेगिस्तान बन जाएगा, जिसके दायरे में भारत सहित दक्षिण पूर्व एशिया, मध्य अमेरिका, दक्षिण आस्ट्रेलिया, दक्षिण यूरोप इत्यादि आएंगे। पृथ्वी का तापमान बढ़ते जाने का प्रमुख कारण ग्लोबल वार्मिंग है, जो तमाम तरह की सुख-सुविधाएं व संसाधन जुटाने के लिए किए जाने वाले मानवीय क्रियाकलापों की देन है। पेट्रोल, डीजल से उत्पन्न होने वाले धुएं ने वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड तथा ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि वातावरण में पहले की अपेक्षा 30 फीसदी ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड मौजूद है, जिसकी मौसम का मिजाज बिगाड़ने में अहम भूमिका है। पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर पर्यावरण संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में वन-क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर कंक्रीट के जंगलों में तब्दील किया जाता रहा है। एक और अहम कारण है जनसंख्या वृद्धि। जहां 20वीं सदी में वैश्विक जनसंख्या करीब 1.7 अरब थी, अब बढ़कर 7.9 अरब हो चुकी है। अब विचारणीय तथ्य यही है कि धरती का क्षेत्रफल तो उतना ही रहेगा, इसलिए कई गुना बढ़ी आबादी के रहने और उसकी जरूरतें पूरी करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बड़े पैमाने पर दोहन किया जा रहा है, इससे पर्यावरण की सेहत पर जो जबरदस्त प्रहार हुआ है, उसी का परिणाम है कि धरती बुरी तरह धधक रही है। पृथ्वी का तापमान बढ़ते जाने का ही दुष्परिणाम है कि ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ पिघल रही है, जिससे समुद्रों का जलस्तर बढ़ने के कारण दुनिया के कई शहरों के जलमग्न होने की आशंका जताई जाने लगी है। यदि प्रकृति से खिलवाड़ कर पर्यावरण को क्षति पहुंचाकर हम स्वयं इन समस्याओं का कारण बने हैं और हम वाकई गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं को लेकर चिंतित हैं तो इन समस्याओं का निवारण भी हमें ही करना होगा। ताकि हम प्रकृति के प्रकोप का भाजन होने से बच सकें अन्यथा प्रकृति से जिस बड़े पैमाने पर खिलवाड़ हो रहा है, उसका खामियाजा समस्त मानव जाति को अपने विनाश से चुकाना पड़ेगा। अब हमें ही तय करना है कि हम किस युग में जीना चाहते हैं? एक ऐसे युग में जहां सांस लेने के लिए प्रदूषित वायु होगी। पीने के लिए प्रदूषित और रसायनयुक्त पानी तथा ढेर सारी खतरनाक बीमारियों की सौगात। या फिर ऐसे युग में जहां हम स्वच्छंद रूप से शुद्ध हवा और शुद्ध पानी का आनंद लेकर एक स्वस्थ सुखी जीवन व्यतीत कर सकें। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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आर.के. सिन्हा इंदिरा गांधी ने 1975 में देश में इमरजेंसी लगाई तो उस दौर में राजधानी दिल्ली में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले हजारों लाखों लोगों को उनके घरों से उजाड़कर अलग-अलग जगहों में बसाया गया था। उसमें उत्तर-पश्चिम दिल्ली का जहांगीरपुरी नाम का इलाका भी था। उसे इन अभागे लोगों के लिए ही बसाया गया। इधर, मुख्य रूप से नई दिल्ली तथा साउथ दिल्ली की मलिन बस्तियों में रहने वालों को उठाकर ले जाया गया था। ये अधिकतर वाल्मिकी या धोबी समाज से थे। वक्त बदला तो जहांगीरपुरी में आबादी का चरित्र बदलने लगा। यहां पर ज्यादातर आ गए बांग्लादेशी मुसलमान। ये यहां पर कच्ची शराब बनाने से लेकर सट्टेबाजी के धंधे में लग गए। इन्होंने कभी शांत समझे जाने वाले जहांगीरपुरी में छोटे-मोटे अपराध करने भी शुरू कर दिए। जहांगीरपुरी में रोज क्लेश होने लगा। इनकी आबादी तेजी से बढ़ने लगी। दिल्ली के लोकप्रिय नेता मदन लाल खुराना भी राजधानी में बांग्लादेशियों की बढ़ती जनसंख्या से डरे-सहमे रहते थे। वे बार-बार कहते थे कि इनको दोनों देशों की सीमा पार करके यहां आने की इजाजत नहीं मिले। पर यह हो न सका। खुराना जी तो संसार से चल गए और बांग्लादेशी दिल्ली और देश के दूसरे भागों में आते रहे। खैर, जहांगीरपुरी की आबादी का चरित्र किस हद तक बदला, इसका पता चला जब हनुमान जन्मोत्सव के मौके पर निकली शोभायात्रा के वक्त इन बांग्लादेशियों ने कसकर बवाल काटा। वैसे ये अपने को पश्चिमी बंगाल का ही नागरिक बताते हैं। हालांकि जन्नत की हकीकत कुछ और है। इन्होंने हनुमान जन्मोत्सव मना रहे एक जुलूस पर ताबड़तोड़ हमला करने के बाद यहाँ तक झूठे आरोप मढ़े कि शोभायात्रा में शामिल लोगों ने एक मस्जिद पर अपना झंडा लगाने की कोशिश की थी। हालांकि दिल्ली पुलिस के कमिश्नर राकेश अस्थाना ने इस आरोप को सिरे से खारिज कर दिया है। उन्होंने कहा है कि पुलिस की तफ्तीश से यह साफ हो गया है कि मस्जिद पर झंडा लगाने की कोई कोशिश नहीं हुई। जहांगीरपुर में हुई हिंसा के लिए जिन लोगों को हिरासत में लिया गया है, वे लगभग सब बांग्लादेशी मुसलमान हैं। अब जरा गौर करें कि इन देश विरोधी तत्वों को कुछ कथित नामवर बुद्धिजीवी का भी साथ मिल रहा है। इनमें पत्रकार राणा अयूब भी हैं। दरअसल जहांगीरपुरी में हुई हिंसा के बाद एक वीडियो पर राणा अयूब ने ट्वीट किया तो जानी-मानी पूर्व अमेरिकी टेनिस खिलाड़ी और कोच मार्टिना नवरातिलोवा ने भी उनका समर्थन किया। राणा ने ट्वीट किया था कि, ‘राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। इस वीडियो को देखें। हिंदू कट्टरपंथी पिस्टल और हथियार लहराते हुए एक मस्जिद के आगे से गुजर रहे हैं। और क्या होता है? 14 मुसलमानों को गिरफ्तार करके आरोपी बनाया गया है। यह सब नरेंद्र मोदी के निवास से सिर्फ कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर हो रहा है।’ यह वही राणा अयूब हैं जिन पर हाल ही में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने आरोप लगाया था कि वह एक करोड़ रुपये से अधिक की राशि को लेकर गंभीर अपराध में संलिप्त हैं। यह केस फिलहाल कोर्ट में है। राणा को पिछली 29 मार्च को मुंबई एयरपोर्ट पर हिरासत में लिया गया था। वह 29 मार्च को लंदन जाने के लिए मुंबई के छत्रपति शिवाजी महाराज अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पहुंची थीं। लंदन में वह महिला पत्रकारों पर साइबर हमलों की वैश्विक समस्या पर कार्यक्रम में शामिल होने वाली थीं। अब गौर करें कि इतनी संदिग्ध छवि वाली राणा अनाप-शनाप ट्वीट कर रही हैं। उसपर एक महान टेनिस खिलाड़ी प्रतिक्रिया दे रही है। यानी जहांगीरपुरी की शोभायात्रा में हुए बवाल का अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया गया। देश की इज्जत तार-तार हो गई। राणा के प्रति सम्मान का भाव तो तब जागता अगर वह जहांगीरपुरी में बांग्लादेशी मुसलमानों की करतूतों पर भी ट्वीट करती। लेकिन वह यह क्यों करेंगी। जहांगीरपुरी में हुई हिंसा में बांग्लादेशियों का रोल धीरे-धीरे सामने आ रहा है। बेशक, उस दिन की हिंसा में जो शामिल हैं उन्हें कठोर दंड मिले। देखिए राजधानी दिल्ली में एक अनुमान के अनुसार, बांग्लादेशियों की आबादी 5 लाख तक हो गई है। ये लगातार आपराधिक घटनाओं में संलिप्त रहते हैं। याद करें जब कुछ साल पहले राजधानी के विकासपुरी में बांग्लादेशी गुंडों ने डॉ. पंकज नारंग का कत्ल कर दिया था। डॉ. पंकज नारंग की हत्या से सारी दिल्ली सहम गई थी। जिन्दगी बचाने वाले डॉक्टर की सरेआम हत्या कर दी गई, पर तब राणा अयूब या कोई अन्य 'सद्बुद्धिजीवी' नहीं बोला था। तब कहां गई थी असहिष्णुता? जहांगीरपुरी की घटना पर केन्द्र सरकार तथा पुलिस की निंदा करने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल डॉ. पंकज नारंग के घर जाने की जरूरत नहीं समझी थी। क्या किसी सेक्युलरवादी ने उनकी पत्नी, बेटे और विधवा मां से पूछा कि उनकी जिंदगी किस तरह से गुजर रही है? उस अभागे डॉक्टर का कसूर इतना ही था कि उन्होंने कुछ युवकों को तेज मोटरसाइकिल चलाने से रोका था। बस इतनी-सी बात के बाद बांग्लादेशी युवकों ने डॉ.पंकज नारंग का कत्ल कर दिया था। देखिए, सरकार को बांग्लादेशी तथा रोहिंग्या घुसपैठियों के मसले पर गौर करना होगा। इस पर सिर्फ चिंता जाहिर करना पर्याप्त नहीं होगा। मुझे नहीं लगता कि इन्हें इनके मुल्क में वापस भेजा जा सकता है। पर इनकी हरकतों पर लगाम तो लगाई ही जा सकती है ताकि भविष्य में फिर से जहांगीरपुरी जैसी घटनाएं न हों। कुछ सियासी दल बांग्लादेशियों के खिलाफ राजनीतिक लाभ या कहें कि वोटबैंक की राजनीति के चलते सामने नहीं आते। इसलिए सरकार को अब सियासत और वोटबैंक की परवाह किए बिना इन घुसपैठी बांग्लादेशियों को तो कसना ही होगा। यही नहीं भारत-बांग्लादेश की सीमा को सील भी करना होगा ताकि ये भारत में घुस न पाएं। इस लिहाज से अब और ढील नहीं दी जा सकती है। एक और अहम बात यह है कि उन तत्वों को भी न छोड़ा जाए जो बिना पुलिस की अनुमति के शोभायात्रा निकालने लगते हैं। कानून सबके लिये समान है और समान रूप से ही लागू होना चाहिये। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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गुरू तेग बहादुर के प्रकाश पर्व (21 अप्रैल) पर विशेष योगेश कुमार गोयल सिखों के नवें गुरू तेग बहादुर सदैव सिख धर्म मानने वाले और सच्चाई की राह पर चलने वाले लोगों के बीच रहा करते थे, जिन्होंने न केवल धर्म की रक्षा की बल्कि देश में धार्मिक आजादी का मार्ग भी प्रशस्त किया। सिखों के 8वें गुरू हरिकृष्ण राय की अकाल मृत्यु के बाद तेग बहादुर को नौवां गुरू बनाया गया था, जिनके जीवन का प्रथम दर्शन ही यही था कि धर्म का मार्ग सत्य और विजय का मार्ग है। माता नानकी की कोख से जन्मे तेग बहादुर ने धर्म और आदर्शों की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्यौछावार कर दिए थे। धार्मिक स्वतंत्रता के पक्षधर रहे गुरू तेग बहादुर का प्रकाश पर्व इस वर्ष 21 अप्रैल को मनाया जा रहा है। सिख गुरु तेग बहादुर के प्रकाश पर्व के अवसर पर 21 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करेंगे और इस अवसर पर एक डाक टिकट तथा एक सिक्का भी जारी करेंगे। गुरु तेग बहादुर के बलिदान की गाथा को जन-जन तक पहुंचाने के लिए भारत सरकार यह आयोजन कर रही है। 14 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने अपने पिता के साथ मुगलों के हमले के खिलाफ हुए युद्ध में वीरता का परिचय दिया था और उनकी इस वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने ही उनका नाम ‘तेग बहादुर’ अर्थात् तलवार का धनी रखा था। गुरू तेग बहादुर ने हिन्दुओं तथा कश्मीरी पंडितों की मदद कर उनके धर्म की रक्षा करते हुए अपने प्राण गंवाए थे। क्रूर मुगल शासक औरंगजेब ने उन्हें हिन्दुओं की मदद करने और इस्लाम नहीं अपनाने के कारण मौत की सजा सुनाई थी और उनका सिर कलम करा दिया था। उस आततायी और धर्मान्ध मुगल शासक की धर्म विरोधी तथा वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरूद्ध गुरू तेग बहादुर का बलिदान एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांतों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालों में गुरू तेग बहादुर का स्थान अद्वितीय है और एक धर्म रक्षक के रूप में उनके महान् बलिदानों को समूचा विश्व कदापि नहीं भूल सकता। उस समय औरंगजेब ने आदेश पारित किया था कि राजकीय कार्यों में किसी भी उच्च पद पर किसी हिन्दू की नियुक्ति नहीं की जाए और हिन्दुओं पर ‘जजिया’ (कर) लगा दिया जाए। उसके बाद हिन्दुओं पर हर तरफ अत्याचार का बोलबाला हो गया। अनेक मंदिरों को तोड़कर वहां मस्जिदें बनवा दी गई और मंदिरों के पुजारियों, साधु-संतों की हत्याएं की गई। लगातार बढ़ते अत्याचारों और भारी-भरकम नए-नए कर लाद दिए जाने से भयभीत बहुत सारे हिन्दुओं ने उस दौर में धर्म परिवर्तन कराकर मजबूरन इस्लाम धर्म अपना लिया। औरंगजेब के अत्याचारों के उस दौर में कश्मीर के कुछ पंडित गुरू तेग बहादुर के पास पहुंचे और उन्हें अपने ऊपर हो रहे जुल्मों की दास्तान सुनाई। गुरू जी ने उनकी पीड़ा सुनने के बाद मुस्कराते हुए कहा कि तुम लोग बादशाह से जाकर कहो कि हमारा पीर तेगबहादुर है, अगर वह मुसलमान हो जाए तो हम सभी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। कश्मीरी पंडितों ने कश्मीर के सूबेदार शेर अफगन के मार्फत यह संदेश औरंगजेब तक पहुंचाया तो औरंगजेब बिफर उठा। उसने गुरू तेगबहादुर को दिल्ली बुलाकर उनके परम प्रिय शिष्यों मतिदास, दयालदास और सतीदास के साथ बंदी बना लिया और तीनों शिष्यों से कहा कि अगर तुम लोग इस्लाम धर्म कबूल नहीं करोगे तो कत्ल कर दिए जाओगे। भाई मतिदास ने जवाब दिया कि शरीर तो नश्वर है और आत्मा का कभी कत्ल नहीं हो सकता। यह सुनकर औरंगजेब ने मतिदास को जिंदा ही आरे से चीर देने का हुक्म दिया। औरंगजेब के फरमान पर जल्लादों ने भाई मतिदास को दो तख्तों के बीच एक शिकंजे में बांधकर उनके सिर पर आरा रखकर आरे से चीर दिया और उनकी बोटी-बोटी काट दी लेकिन जब भाई मतिदास को आरे से चीरा जाने लगा, तब भी वे भयभीत हुए बिना ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ करते रहे। अगली बारी थी भाई दयालदास की लेकिन उन्होंने भी जब दो टूक लहजे में इस्लाम धर्म कबूल करने से इनकार कर दिया तो औरंगजेब ने उन्हें गर्म तेल के कड़ाह में डालकर उबालने का हुक्म दिया। सैनिकों ने उसके हुक्म पर उनके हाथ-पैर बांधकर उबलते हुए तेल के कड़ाह में डालकर उन्हें बड़ी दर्दनाक मौत दी लेकिन भाई दयालदास भी अपने अंतिम श्वांस तक ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ करते रहे। अगली बारी थी भाई सतीदास की लेकिन उन्होंने भी दृढ़ता से औरंगजेब का इस्लाम धर्म अपनाने का फरमान ठुकरा दिया तो उस आततायी क्रूर मुगल शासक ने दरिंदगी की सारी हदें पार करते हुए उन्हें कपास से लपेटकर जिंदा जला देने का हुक्म दिया। भाई सतीदास का शरीर धू-धूकर जलने लगा लेकिन वे भी निरंतर ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ करते रहे। औरंगजेब के आदेश पर 22 नवम्बर 1675 के दिन काजी ने गुरू तेग बहादुर से कहा कि हिन्दुओं के पीर! तुम्हारे सामने तीन ही रास्ते हैं, पहला, इस्लाम कबूल कर लो, दूसरा, करामात दिखाओ और तीसरा, मरने के लिए तैयार हो जाओ। इन तीनों में से तुम्हें कोई एक रास्ता चुनना है। अन्याय और अत्याचार के समक्ष झुके बिना धर्म और आदर्शों की रक्षा करते हुए गुरू तेग बहादुर ने तीसरे रास्ते का चयन किया। जालिम औरंगजेब को यह सब भला कहां बर्दाश्त होने वाला था। उसने गुरू तेग बहादुर का सिर कलम करने का हुक्म सुना दिया। 24 नवम्बर के दिन चांदनी चौक के खुले मैदान में एक विशाल वृक्ष के नीचे गुरू तेग बहादुर समाधि में लीन थे, वहीं औरंगजेब का जल्लाद जलालुद्दीन नंगी तलवार लेकर खड़ा था। अंततः काजी के इशारे पर जल्लाद ने गुरू तेग बहादुर का सिर धड़ से अलग कर दिया गया, जिसके बाद चारों ओर कोहराम मच गया। इस प्रकार अपने धर्म में अडिग रहने और दूसरों को धर्मान्तरण से बचाने के लिए गुरू तेग बहादुर और उनके तीनों परम प्रिय शिष्यों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहूति दे दी। धन्य हैं भारत की पावन भूमि पर जन्म लेने वाले और दूसरों की सेवा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले उदार चित्त, बहादुर व निर्भीक ऐसे महापुरूष। हिन्दुस्तान तथा हिन्दू धर्म की रक्षा करते हुए शहीद हुए गुरू तेग बहादुर को उसके बाद से ही ‘हिन्द की चादर गुरू तेग बहादुर’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपनी कुर्बानी दी, इसीलिए उन्हें ‘हिन्द की चादर’ कहा जाता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. दिलीप अग्निहोत्री मीडिया का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक के साथ अब सोशल मीडिया की भी बाढ़ है। लेकिन यह सब तभी तक सार्थक है, जब तक इनके सामाजिक सरोकार भी है। इसके निर्वाह के लिए भारतीय संस्कृति के प्रति आग्रह आवश्यक है। भारत में देवर्षि नारद ने ही पत्रकारिता का प्रादुर्भाव किया था। उनके चौरासी सूत्र आधुनिक पत्रकारिता के संदर्भ में भी प्रासंगिक हैं। उनकी सभी बात आज की मीडिया पर न केवल लागू होती है, बल्कि उनपर अमल से मीडिया को आदर्श रूप दिया जा सकता है। लेकिन आधुनिक वामपंथी खेमे पत्रकारों ने भारतीय संस्कृति की घोर अवहेलना की। उदारीकरण और वैश्वीकरण ने नया संकट पैदा किया है। ऐसे में राष्ट्रवादी पत्रकारिता के महत्व को बनाये रखने की चुनौती है। इसमें धीरे धीरे सफलता भी मिल रही है। देश इस समय आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। यह संयोग है कि इस दौरान राष्ट्रवादी विचार से प्रेरित अनेक संगठन व संस्थान भी अपना अमृत वर्ष मना रहे हैं। कुछ दिन पहले विद्यार्थी परिषद द्वारा अपनी स्थापना के सात दशक होने पर ध्येय यात्रा पुस्तक का लोकार्पण नई दिल्ली में किया गया। इधर लखनऊ में हिन्दुस्थान समाचार बहुभाषी संवाद एजेंसी ने अमृत पर्व प्रवेश समारंभ-2022 का आयोजन किया। इसमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य सुरेश जोशी भैयाजी, संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आम्बेकर सहित बड़ी संख्या में पत्रकार व अन्य लोग सहभागी हुए। योगी आदित्यनाथ ने हिन्दुस्थान समाचार के संस्थापक बाबा साहेब आप्टे, एजेंसी को नई उंचाइयों पर ले जाने वाले बालेश्वर अग्रवाल और एजेंसी को दोबारा प्रारंभ करने वाले श्रीकांत जोशी का आदरपूर्वक स्मरण किया। कहा कि उन्हें भी हिन्दुस्थान समाचार की पत्रिकाओं नवोत्थान और युगवार्ता से जुड़ने का अवसर मिला है। राष्ट्र भाव की पत्रकारिता के अनुरूप कार्य करते हुए हिन्दुस्थान समाचार ने यह यात्रा तय की है। वह अब अपने अमृत काल में प्रवेश कर रहा है। उन्होंने आशा व्यक्त की कि आने वाले समय में भी न्यूज एजेंसी भविष्य की चुनौतियों का समाना करते हुए लोगों तक गुणवत्तापूर्ण समाचार पहुंचाती रहेगी। हिन्दुस्थान समाचार ने आजादी के बाद भारतीयता को विशेष महत्व देते हुए सत्य, संवाद और सेवा को अपना ध्येय माना। वर्तमान समय में पत्रकारिता कई चुनौतियों का समाना कर रही है। प्रिंट, विजुअल और डिजिटल मीडिया के साथ ही लोगों का दृष्टिकोण बदला है। योगी आदित्यनाथ ने विश्वास व्यक्त किया कि है इन चुनौतियों का सामना करते हुए हिन्दुस्थान समाचार आगे बढ़ेगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य सुरेश जोशी भैयाजी जोशी ने कहा कि पत्रकारिता के क्षेत्र में पचहत्तर वर्ष पूर्ण करना आसान नहीं है। पत्रकारिता को धर्म मानकर काम करने वाले ही सफल होते है। हिन्दुस्थान समाचार ने इसी विचार के अनुरूप कार्य किया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में आदर्श अपेक्षित हैं। उनके पालन से ही समाज व राष्ट्र का हित सुनिश्चित होता है। इन आदर्शों की अवहेलना नहीं होनी चाहिए। समाचार सम्प्रेषण में स्पष्टता व गुणवत्ता रहनी चाहिए। इससे प्रामाणिकता कायम होती है। साथ ही समाज का भी कल्याण होता है। उसी के आधार पर देश का लोकतंत्र स्वस्थ बना रहेगा। देश के लोकतंत्र का स्वस्थ बने रहना समग्र विकास के लिए आवश्यक शर्त है। समाज जागरूक होकर सही दिशा में चलता है तभी लोकतंत्र सफल होता है। हिन्दुस्थान समाचार अपने स्थापना के समय से ही लेकर आज तक इसी धारणा से कार्य कर रहा है। आज ऐसी ही ध्येयवादी पत्रकारिता की आवश्यकता है। संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आम्बेकर ने कहा कि हिन्दुस्थान समाचार ने देश की आजादी के बाद भारतीय भाषाओं में समाचार देने में बड़ी भूमिका निभाई थी। एक एजेंसी की सबसे बड़ी भूमिका यथास्थिति और स्पष्ट तथा पुष्ट जानकारी देना होता है। आज के समय में यह भूमिका और भी अधिक बड़ी हो जाती है। हिन्दुस्थान समाचार को आने वाले समय में भारत का सटीक और सही चित्रण विश्व पटल में रखने की बड़ी भूमिका निभानी होगी। वस्तुतः भारतीय पत्रकारिता का वामपंथी विचारों ने नुकसान किया है। इसके लिए वामपंथियों ने अपना स्वरूप भी बदला है। कार्ल मार्क्स ने आर्थिक आधार समाज की व्याख्या की थी। उसने समाज को दो वर्गों में बांटा था। पहला पूंजीपति और दूसरा सर्वहारा। पूंजीपति सदैव सर्वहारा का शोषण करता है। दोनों में संघर्ष चलता रहता है। यह वामपंथियों, मार्क्सवादियों, माओवादियों, नक्सलियों का मूल चिंतन रहा है। इसमें अनेक बदलाव भी होते रहे। भारत के वामपंथियों ने मीडिया में अपना सांस्कृतिक विचार चलाया है। इसमें मार्क्स का आर्थिक चिंतन बहुत पीछे छूट गया। पूंजीपति और सर्वहारा की बात बन्द हो गई। उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों की बात करना शुरू कर दिया। लेकिन वर्ग संघर्ष के चिंतन को बनाये रखा। ये कथित प्रगतिशील पत्रकार हिन्दू और मुसलमानों के संघर्ष की रचना करने लगे। इन्होंने यह मान लिया इनका वर्ग संघर्ष चलता रहेगा। वामपंथी रुझान वाले यहीं तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने सवर्ण और दलित के बीच भी वर्ग को हवा देना शुरू किया। वामपंथी रूझान की पत्रकारिता ने हिंदुओं के विरोध को अपना पैशन बना लिया। वर्ग संघर्ष के सिद्धांत पर उन्होंने यह विचार फैलाया की हिन्दू शोषक और मुसलमान शोषित है। इसीलिए पश्चिम बंगाल और केरल की राजनीतिक हिंसा उन्हें दिखाई नहीं देती। किंतु कुछ लोग मजहब के आधार पर समाज विरोधी कार्य करें, यह कानून को अपने हाथ में लेने की कोशिश करें, तो इसे भगवा आतंकवाद के रूप में प्रसारित किया जाता है। स्वतंत्रता के बाद से ही वामपंथी विचारकों को लेखन के लिए प्रोत्साहित किया गया। उनके द्वारा बनाये गए पाठ्यक्रम को शिक्षा में चलाया गया। इसमें भारत के प्रति हीन भावना का विचार था। प्राचीन भारतीय विरासत को खारिज किया गया। यह पढ़ाया गया कि विदेशी शासन ने भारत को सभ्य बनाया। जबकि वह स्वयं सभ्यताओं के संघर्ष करने वाले लोग थे। भारत तो सबके कल्याण की कामना करने वाला देश रहा है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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आर.के. सिन्हा पिछले साल अप्रैल में आई कोरोना वायरस की भीषण लहर ने देश में प्रलय मचा कर रख दी थी। उन दिनों को याद करके भी घबराहट होने लगती है। एक साल बाद फिर से कोरोना की चौथी लहर का खतरा सामने है। कोरोना के नये केस सामने आ रहे हैं। इनकी संख्या में लगातार वृद्धि भी हो रही है। इससे पहले कोरोना के ओमिक्रान वैरियंट के लगभग बेअसर रहने के बाद यह उम्मीद बंधी थी कि कोरोना का अब नाश हो गया है। लेकिन, कहते ही हैं कि वायरस कभी खत्म नहीं होता। हां, उसका असर कमजोर पड़ने लगता है। तो ओमिक्रान के बाद आने और चले जाने के बाद यही लग रहा है कि अगर चौथी लहर आई भी तो वह भी समुद्री लहर की तरह सागर किनारे आकर वापस चली जाएगी। यानी वह घातक नहीं होगी। पर यह सब पक्के से तो नहीं कहा जा सकता है। देखिए कोरोना के नए-नए वेरिएंट्स अपने साथ नए-नए लक्षण साथ लेकर आने लगे हैं। एक बात पर आपने गौर किया होगा कि जैसे ही कोरोना के नियमों में ढील दी जाने लगी, लगभग तब ही कोरोना फिर से सामने आ गया। इसने लोगों को अपनी चपेट में लेना चालू कर दिया। स्कूल-कॉलेज खुले तो छात्रों में कोरोना फैलना शुरू हो गया है। तो बहुत साफ है कि कोरोना का असर कम भी होने पर मास्क लगाना ही होगा तथा सामाजिक दूरी अपनानी ही होगी। हाल ही में आईआईटी-कानपुर ने अपने एक शोध के बाद दावा किया है कि भारत में जून में कोरोना की चौथी लहर आ सकती है। यह कहना होगा कि जिस प्रकार से कोरोना के नए मामले बढ़ रहे हैं, उसे देखकर लगता है आईआईटी का दावा सही हो सकता है। पर क्या यह दूसरी लहर जितनी घातक होगी? इस सवाल का जवाब देने की स्थिति में अभी कोई नहीं है। बहरहाल, जिस किसी ने कोरोना की दोनों डोज ले ली है, वे काफी हद तक सुरक्षित हो गए हैं। उन पर कोरोना के नए-नए वेरियंट का असर कम होगा। अब कहा जा रहा है कि 18 से 59 साल तक की उम्र के लोगों को भी ऐहतियातन बूस्टर लगवा लेनी चाहिए। लेकिन, यह जानना आवश्यक है कि टीका लगवाने के बाद जो ऐंटीबॉडी बनती है, वह ज्यादातर मामलों में 8 महीनों तक ही रहती है। एक बात और कि फिलहाल तीसरी डोज उन लोगों को लगवा लेनी चाहिए जिनकी इम्यूनिटी कमजोर है। इसे अस्पतालों, पुलिस तथा बैंकों कर्मियों को लगवा लेनी चाहिए। कैंसर, लिवर, किडनी, हार्ट, लंग्स खासकर टीबी की बीमारी के रोगी भी इसे लगवा लें। देखिए कोरोना के नए-नए वेरिएंट्स अपने साथ पहले से अलग नए लक्षण लेकर आ रहे हैं। जैसे कि कंपकंपी के साथ बुखार होना या थकान महसूस करना, शरीर में दर्द होना, गले में खराश, नाक का बहना या बंद होना आदि। खैर, यह तो सब मानते हैं कि अब हमें कोरोना के नए-नए वेरिएंट के साथ ही जिंदा रहना सीखना होगा। पर इसके लिए जरूरी है कि अगर हमने अभी तक भी दोनों टीके नहीं लगवाए तो हम अब देर न करें। हमारे देश में अभी तक 65 प्रतिशत लोगों ने ही दोनों टीके लगवाए हैं। एक तिहाई जनता को एक ही टीका लगा है। बच्चों को टीके पूरे नहीं लगे। यह जान लें कि यदि टीका लग गया है तो कोरोना का वायरस कमजोर पड़ेगा। यह अफसोस की बात है कि तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद अब भी बहुत से लोग टीका नहीं लगवा रहे हैं। वे अब भी इसको लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं। मेरे अपने सर्किल में कुछ लोग समझाने पर भी नहीं मान रहे हैं। इस तरह के लोग अपने को खतरे में डाल रहे हैं। अब वे लोग फिर से मास्क पहन लें जो इसे उतार चुके थे। निश्चित रूप से मास्क कोरोना के नया वेरिएंट के विरूद्ध खड़ा तो होता ही है। हालांकि अभी कोरोना की चौथी लहर ने अपना असर दिखाना शुरू ही किया है, इसलिए केन्द्र तथा राज्य सरकारों को किसी भी आपातकालीन स्थिति का सामना करने के लिए अपनी तैयारी पूरी कर लेनी चाहिए। जैसे कि कोरोना रोगियों के लिए अलग से वॉर्ड तथा बिस्तरों की व्यवस्था करना, पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीज़न सप्लाई सुनिश्चित करना तथा एम्बुलेंस सेवा को तैयार करना। यह सब जानते हैं कि किसी भी राज्य में स्वास्थ्य व्यवस्था का काम राज्य सरकार देखती है। हमने देखा था कि स्वास्थ्य मंत्रालय की गाइडलाइन पर चलते हुए सभी राज्य और केंद्र शासित राज्य कोरोना की दूसरी लहर के वक्त इससे होने वाली मौतों की जानकारी स्वास्थ्य मंत्रालय को दे रहे थे। हालांकि तब तमाम राज्यों और केंद्र शासित राज्यों में ऑक्सीजन की कमी से बहुत से लोग मारे भी गए थे। लेकिन, सरकारें नहीं मानती कि ऑक्सीज़न की कमी के कारण लोग जान से हाथ धो बैठे थे। लेकिन, जरा उनसे भी तो पूछिए जिनके परिजन ऑक्सीजन की कमी के कारण संसार से विदा हो गए। मुझे नहीं पता कि सरकारी दावों का क्या आधार है कि कोरोना की दूसरी लहर के समय ऑक्सीज़न की कमी के कारण किसी की जान नहीं गई। हालांकि सच इससे बहुत अलग तथा बहुत कठोर है। तब ऑक्सीजन की किल्लत के कारण लाखों लोग कितने बेबस और बेहाल थे, यह सबको पता है। मुझे याद है तब इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व अध्यक्ष डॉ. विनय अग्रवाल तब हालात से इतने खिन्न हो गए थे कि उन्होंने यहां तक कह दिया था कि यदि सरकारों ने ऑक्सीजन की सप्लाई को बेहतर न बनाया तो वे खुदखुशी कर लेंगे। जरा सोचिए कि देश के डॉक्टरों की सर्वोच्च संस्था का नेता कितना असहाय था तब। डॉ. अग्रवाल ने इस तरह की चेतावनी इसलिए दे डाली थी क्योंकि उनका कहना था कि ऑक्सीजन की कमी के कारण डॉक्टर रोगियों का सही से इलाज नहीं कर पा रहे हैं। इस विकट स्थिति से सैकड़ों डॉक्टर गुजरे। भगवान न करें कि अब वही स्थिति फिर कभी आए। तब सारा देश घरों में दुबका हुआ था और सड़कों पर सिर्फ एंबुलेंसों के सायरन बजने की आवाजें आती थीं। सारे माहौल में भय और डर था। ऐसे माहौल को फिर से कभी आने नहीं देना है। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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विकास सक्सेना उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव नतीजे के बाद से सपा मुखिया अखिलेश यादव नित नए राजनैतिक संकट से घिरते जा रहे हैं। पार्टी की कमान संभालने के बाद हुए एक लोकसभा और दो विधानसभा चुनावों में पार्टी के शर्मनाक प्रदर्शन ने उनकी नेतृत्व क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं। अब सैफई परिवार से लेकर पार्टी संगठन तक में उनके खिलाफ विरोध के स्वर मुखर होने लगे हैं। लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में असंतोष के कारण नेतृत्व के फैसलों में ही दिखाई देते हैं। दरअसल समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर विधायक बने चाचा शिवपाल सिंह यादव को ‘बाहरी’ मानते हुए पार्टी विधायकों की बैठक में न बुलाकर अखिलेश यादव ने अपनी मंशा जाहिर कर दी थी। इसी तरह समाजवादी पार्टी के कद्दावर मुस्लिम नेता मोहम्मद आजम खां कई साल से जेल की सलाखों के भीतर हैं लेकिन पार्टी ने इसके खिलाफ कभी आवाज बुलंद नहीं की। पार्टी के भीतर खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे तमाम कद्दावर नेता और उनके समर्थक अखिलेश यादव के नेतृत्व और उनकी नीतियों के खिलाफ बोलने लगे हैं। जिसके चलते भाजपा जैसे शक्तिशाली राजनैतिक विरोधी का सामना करने की रणनीति खोजने में जुटे अखिलेश यादव को अब कुनबा बचाने की चुनौती से भी जूझना पड़ रहा है। समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के कंधे से कंधा मिलाकर पार्टी को विकसित करने वाले शिवपाल यादव और आजम खान जैसे नेता अखिलेश के नेतृत्व में खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। विधानसभा चुनाव 2012 में समाजवादी पार्टी की शानदार जीत के बाद मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अखिलेश यादव को बैठा दिया था। पिता की विरासत के तौर पर अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी तो हासिल हो गई लेकिन पार्टी संगठन और सरकार पर वह अपना प्रभाव स्थापित नहीं कर सके। इसी के चलते उनकी सरकार साढ़े चार मुख्यमंत्रियों की सरकार कहलाती थी। इसमें चार मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव, प्रो. रामगोपाल यादव और आजम खान माने जाते थे जबकि खुद अखिलेश यादव की हैसियत आधे मुख्यमंत्री की समझी जाती थी। खुद को मजबूत साबित करने के लिए उन्होंने जनवरी 2017 में मुलायम सिंह यादव को हटाकर पार्टी के अध्यक्ष पद पर कब्जा कर लिया और चाचा शिवपाल यादव को पार्टी से बाहर कर दिया। इसके बाद शिवपाल यादव ने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बना ली। सरकार और संगठन पर एकछत्र राज स्थापित करने के बाद अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह यादव के समय महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अधिकांश नेताओं के पर कतर दिए। लगभग पूरे प्रदेश में नए सिरे से पार्टी संगठन तैयार किया गया। विधानसभा चुनाव 2017 में उन्होंने कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन किया। लेकिन अखिलेश और राहुल गांधी की जोड़ी के भरसक प्रयास के बावजूद समाजवादी पार्टी महज 47 सीटों पर सिमट कर रह गई। इसके बाद लोकसभा चुनाव 2019 में सारी राजनैतिक कटुता को भुलाकर उन्होंने बसपा सुप्रीमो मायावती से चुनावी गठबंधन किया। मतभेद खत्म होने का संदेश देने के लिए उन्होंने अपनी पत्नी डिम्पल यादव से मंच पर मायावती का चरण वंदन भी करवाया लेकिन राजनैतिक नजरिए से इतने बड़े गठबंधन का भी समाजवादी पार्टी को कोई लाभ नहीं मिला। लोकसभा चुनाव 2014 का प्रदर्शन दोहराते हुए एकबार फिर सपा सिर्फ पांच सीटों पर सिमट कर रह गई। खास बात यह रही कि इन चुनावों में उनकी पत्नी डिम्पल यादव, चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव और उनके सबसे बड़े सलाहकार रामगोपाल यादव के पुत्र अक्षय यादव तक चुनाव हार गए। विधानसभा चुनाव 2022 को लेकर अखिलेश यादव और उनकी पार्टी खासी उत्साहित थी। नागरिकता संशोधन कानून और कृषि कानूनों के विरोध में हुए कथित किसान आंदोलन ने भी उन्हें नई ऊर्जा दी। इस बार पिछली ‘गलतियों’ से सबक लेते हुए उन्होंने ऐलान किया कि वह किसी भी बड़े दल से गठबंधन नहीं करेंगे। उन्होंने जाटों में प्रभाव वाले रालोद समेत विभिन्न जातीय प्रभाव वाले राजनैतिक दलों का गठबंधन तैयार किया। लेकिन लगातार सपा से गठबंधन का प्रस्ताव देने वाले चाचा शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी से चुनावी समझौता नामांकन शुरू होने के चंद रोज पहले ही हो सका। समझौते से पहले तक अपने साथियों के सम्मान की बात कहने वाले शिवपाल यादव ने अखिलेश यादव के किसी भी फैसले पर सवाल खड़े नहीं किए। समाजवादी पार्टी से समझौता करते समय शिवपाल सिंह यादव ने अखिलेश यादव को अपनी पार्टी के नेताओं की सूची सौंपते हुए कहा था कि वह मजबूत और जिताऊ प्रत्याशी के चयन के लिए जमीनी हकीकत का सर्वेक्षण कराते समय इन नेताओं के नाम पर भी विचार कर लें और जो बेहतर स्थिति में हो उन्हें टिकट देकर चुनाव मैदान में उतारा जाए। लेकिन अखिलेश यादव ने सिर्फ शिवपाल यादव को सपा का उम्मीदवार बनाया। उनके बेटे आदित्य यादव को भी टिकट नहीं दिया गया। इतना ही नहीं प्रसपा में नंबर दो की हैसियत रखने वाले पार्टी के राष्ट्रीय प्रमुख महासचिव वीरपाल सिंह यादव को भी टिकट नहीं दिया गया। जबकि वीरपाल यादव सपा के राज्यसभा सांसद रह चुके हैं। लम्बे समय तक जिलाध्यक्ष रहते हुए उन्होंने बरेली क्षेत्र में सपा को मजबूत स्थिति में पहुंचाया था। वह विधानसभा चुनाव 2017 में 76886 वोट हासिल करके दूसरे स्थान पर रहे थे। पूरे रूहेलखण्ड परिक्षेत्र के यादवों में खास प्रभाव रखने वाले वीरपाल सिंह यादव के अनुभव और प्रभाव का चुनाव में इस्तेमाल करने के बजाय महज एक विधानसभा क्षेत्र का प्रभारी बनाकर उन्हें चिढ़ाने का प्रयास किया गया। पार्टी के सबसे कद्दावर मुस्लिम नेता आजम खान को लेकर अखिलेश यादव कोई स्पष्ट नीति नहीं बना सके हैं। वे उनसे नजदीकी जाहिर नहीं करना चाहते लेकिन मुस्लिम वोटों के छिटकने के डर से वह उनसे दूरी भी नहीं बना पा रहे हैं। जेल में बंद होने के बावजूद आजम खान को रामपुर और उनके बेटे अब्दुल्ला आजम को स्वार सीट से चुनाव लड़ाया गया। लेकिन वह यह स्पष्ट तौर पर कहने को तैयार नहीं हैं कि आजम खान पर लगाए गए आरोप सही हैं या फिर उन्हें राजनैतिक बदले की भावना से जेल में डाला गया है। क्योंकि इस सवाल का जवाब देते ही उनसे पूछा जाएगा कि अगर वह आरोप सही हैं तो उन्हें पार्टी ने टिकट क्यों दिया और अगर आरोप झूठे हैं तो अपने नेता के बचाव के लिए पार्टी ने सड़कों पर उतर कर संघर्ष क्यों नहीं किया। इसके अलावा भोजीपुरा से विधायक शहजिल इस्लाम और कैराना से विधायक नाहिद हसन के परिवार की सम्पत्तियों पर बाबा का बुलडोजर चलने के बावजूद अखिलेश यादव की खामोशी से मुस्लिम समाज में बेचैनी है। विधानसभा चुनाव में इस बार अधिकांश बूथों पर सपा को 90 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम वोट हासिल हुए हैं। ऐसे में इस समुदाय को उम्मीद थी कि वह खुलकर उनके पक्ष में खड़े होंगे। लेकिन विधान परिषद की 36 सीटों पर हुए चुनाव में महज चार मुसलमानों को टिकट देकर सपा ने अपनी नीति स्पष्ट कर दी है। इसके बाद से संभल से सपा सांसद शफीकुर्रहमान वर्क और आजम खान के मीडिया प्रभारी फसाहत अली खान उर्फ शानू ने पार्टी पर निशाना साध कर सियासी हलचल के संकेत दे दिए हैं। इसी तरह शिवपाल यादव की भाजपा से बढ़ती नजदीकियों के बाद समान नागरिक संहिता की उनकी मांग सपा के लिए मुसीबत बनने वाली है। शिवपाल यादव के साथ अगर थोड़ा भी यादव वोट भाजपा की ओर सरक गया तो मुस्लिम वोट भी उनके पाले में नहीं ठहरेगा। ऐसे में अखिलेश यादव को सपा की सबसे बड़ी ताकत एमवाई समीकरण बचाना अत्यंत दुश्कर हो जाएगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. रमेश ठाकुर बुनियादी सवाल यही है कि दिल्ली हिंसा सुनियोजित थी? यह ट्रेलर मात्र है, पिक्चर अभी शेष है? या इसकी नींव राजनीतिक स्वार्थ को ध्यान में रखकर राजनीतिक शास्त्र ने रखी। घटना के बाद ऐसे कुछ सवाल उठ रहे हैं। सवाल उठने भी चाहिए, आखिर ऐसा क्या है जो किस्तों में कुछ अंतराल के बाद राजधानी में ऐसे फसाद होते रहते हैं। तब तो और जब चुनावों की सुगबुगाहट होने लगती हैं। कुछ समय बाद दिल्ली में एमसीडी चुनाव होने हैं। इसलिए कड़ियां आपस में काफी हद तक मेल खाती हैं। राजधानी की हिंसा सुनियोजित थी या नहीं? ये सवाल पुलिस पर छोड़ देते हैं। पर, दूसरे सवाल का जवाब हम खुद खोजेंगे। आखिर कौन सौहार्द्रपूर्ण माहौल में जहर घोल रहा है। 16 अप्रैल की शाम को जब दिल्ली में हिंसा हो रही थी, उसी वक्त सोशल मीडिया पर दो बेहद खूबसूरत तस्वीरें हम सबको दिख रही थीं, जिसमें हनुमान जन्मोत्सव के दौरान मुस्लिम समुदाय के लोग रैली में शामिल लोगों पर फूल बरसा रहे थे, कोल्ड ड्रिंक और पानी की बोतलों का वितरण कर रहे थे। ये तस्वीरें उत्तर प्रदेश के शामली और नोएडा की हैं। शामली में हिंदू-मुस्लिम भाईचारा काफी समय बाद दिखा। घटना वाला इलाका जहांगीरपुरी दिल्ली का ऐसा आवासीय क्षेत्र है जहां बेहद गरीब तबके लोग रहते हैं, दिहाड़ी-मजदूरी करके अपना पेट पालते हैं, उन्हें राजनीति, दंगा-फसादों से कोई मतलब नहीं। लेकिन हनुमान जन्मोत्सव के दिन लोगों ने उन्हें उकसा कर इसे अंजाम दिलाया। जहां हिंसा हुई, वहां दोनों तरफ आमने-सामने मंदिर और मस्जिद हैं, हिंदु-मुसलमान मिलजुल कर रहते आए हैं। किसी तरह की दिक्कत आजतक नहीं हुई। घटना कैसे हुई, इसे वहां के लोग समझ नहीं पाए हैं। हिंसक घटना के बाद से समूचा इलाका भयभीत है। हर तरह के काम-धंधे बंद हैं। सुरक्षा की दृष्टि से इलाके को छावनी में तब्दील कर धारा 144 लगा दी गयी है। गलियों के गेट पर ताला जड़ दिया है। स्कूल, प्रतिष्ठान, दुकानें, बाजार सब बंद हैं। हिंसा को लेकर जमकर सियासत होनी शुरू गई है। पक्ष-विपक्ष की ओर से आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल पड़ा है। जबकि, इस वक्त सिर्फ और सिर्फ समाधान की बात होनी चाहिए। पर, लोग अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने की फिराक में हैं। कोई एक दल नहीं, बल्कि सभी पार्टियां मौके का फायदा उठाना चाहती हैं। लेकिन अंदरखाने राजधानी के हालात अच्छे नहीं हैं। इसके बाद भी कुछ अंदेशे ऐसे दिखते हैं जो सुखद नहीं। ये तय है कि जो हिंसा हुई, वह अचानक होने वाली घटना नहीं थी। इलाके के कई लोग तो खुलेआम बोल रहे हैं कि अगर पुलिस सतर्क होती तो घटना नहीं होती। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं जब लोग हिंसक हो रहे थे, तब पुलिसकर्मी तमाशबीन बने हुए थे। लोगों के हाथों में धारदार हथियार थे, पत्थर थे। दोनों तरफ से जब पथराव शुरू हुआ तो सबसे पहले लोगों ने पुलिसकर्मियों को ही निशाना बनाया, जिसमें कई पुलिसकर्मी और स्थानीय लोग घायल हुए। घायलों का इलाज पास के बाबू जगजीवन राम अस्पताल में हो रहा है। फिलहाल पुलिस ने पूरे मामले पर एफआईआर दर्ज की हैं जिसमें मुस्लिम समुदाय के 14 लोगों को नामजद किया गया है जिसमें प्रमुख नाम मोहम्मद अंसार है, जिसने सबसे पहले विरोध शुरू किया था। पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया है। अंसार इलाके का कुख्यात है, कई मुकदमे दर्ज हैं, गैंगस्टर के तहत चार बार जेल जा चुका है। समय का तकाजा यही है कि घटना की निष्पक्ष जांच हो, दोषी पर सख्त से सख्त कार्रवाई हो। हिंसा को लेकर केंद्र सरकार की नजर बनी हुई है, क्योंकि दिल्ली की सुरक्षा का जिम्मा उन्हीं के कंधों पर है। घटना की जानकारी के लिए गृहमंत्री अमित शाह ने पुलिस कमिश्नर तलब कर जरूरी कदम उठाने के निर्देश दिए। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी एलजी से बात करके दंगाईयों पर सख्त कार्रवाई की मांग की। गृह मंत्रालय में घटना को लेकर बड़ी बैठक भी हुई। हालांकि ऐसा हर घटना के बाद होता ही है। पर, इस बार सिर्फ मामला शांत होने का इंतजार नहीं किया जाए, फसाद की तह तक जाने की जरूरत है। घटना की जांच में तीन टुकड़ियां लगी हैं। ड्रोन कैमरे भी लगे हैं जिन घरों से पथराव शुरू हुआ, उनकी जांच हो। हर एंगल से जांच की जाए। ईमानदारी और राजनीतिक चश्मे के बिना कड़ाई से जांच होगी, तभी प्रत्येक वर्ष होने वाले दंगों से राजधानी मुक्त हो पाएगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. दिलीप अग्निहोत्री भारत ने अपनी संवैधानिक यात्रा में अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। इस अवधि में प्रजातंत्र की जड़ें यहां गहरी हुई है। प्रमुख लोकतांत्रिक देशों में भारत प्रमुख रूप से शामिल है। यहां संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप सरकारों की रचना होती है। संविधान की प्रस्तावना 'हम भारत के लोग' शब्दावली से शुरू होती है। भारत के लोग ही चुनाव के माध्यम से जनादेश देते हैं। भारत से अलग होकर निर्मित पाकिस्तान को आज तक संवैधानिक व्यवस्था पर चलने का सलीका नहीं आया। वहां निर्वाचित सरकार भी सेना के नियंत्रण में रहती है। सैन्य कमांडर की नजर तिरछी होने के बाद निर्वाचित प्रधानमंत्री को भी कुर्सी छोड़नी पड़ती है। यह स्थिति तब रहती है जब सेना का सीधे सत्ता पर नियंत्रण नहीं रहता है। लगभग आधे समय तक वहां की सत्ता पर सेना के जनरल का नियंत्रण रहा है। भारत ने प्रजातंत्र के उच्च प्रतिमान स्थापित किये हैं। सभी प्रधानमंत्रियों ने अपने-अपने तरीके से कार्य किया। कई बार नेकनीयत से किये गए कार्यों के भी बेहतर परिणाम नहीं मिलते हैं। भारत की संवैधानिक व्यवस्था में भी ऐसे तथ्य दिखाई देते है। यहां लोकप्रियता के शिखर पर रहे जवाहर लाल नेहर, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी व नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने। इनमें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी को पराजय भी देखनी पड़ी। जबकि जवाहर लाल नेहरू और अभी तक नरेन्द्र मोदी अपराजित रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता पीछे रहने वाले भी प्रधानमंत्री बने। लाल बहादुर शास्त्री को अल्प समय में प्रतिष्ठा मिली। मनमोहन सिंह का उदाहरण सबसे अलग है। वह कभी ग्राम प्रधान या पार्षद का चुनाव नहीं जीते, लेकिन दस वर्षों तक देश के प्रधानमंत्री रहे। अटल बिहारी वाजपेयी ने करीब दो दर्जन दलों के सहयोग से बेहतरीन सरकार चलाई। इसके पहले एक मत से उनकी सरकार लोकसभा में पराजित हो गई थी। तब उड़ीसा के मुख्यमंत्री ने लोकसभा में बैठकर सरकार के विरुद्ध मतदान किया था। उस समय तक लोकसभा की सदस्यता से उन्होंने त्यागपत्र नहीं दिया था। तकनीकी रूप से उनका मतदान करना भले ठीक रहा हो, लेकिन यह संविधान की भावना के विरुद्ध था। संविधान निर्माता यह नहीं चाहते थे कि कोई नेता विधानसभा व लोकसभा की कार्यवाही में एक साथ सम्मिलित हो। चरण सिंह, वीपी सिंह, चन्द्रशेखर, देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल राजनीतिक जोड़तोड़ के चलते प्रधानमंत्री बने थे। उनकी ताजपोशी संसदीय व्यवस्था के संख्या फैक्टर से संभव हुई थी। इन सभी प्रधानमंत्रियों की चर्चा चलेगी तब अनेक दिलचस्प तथ्य भी उजागर होंगे। इनके बाद नरेन्द्र मोदी ने अपना अलग मुकाम बनाया है। उनके कार्यकाल में ऐतिहासिक समस्याओं का समाधान हुआ। अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण, श्री विश्वनाथ धाम निर्माण, अनुच्छेद 370 व 35 ए, तीन तलाक की समाप्ति हुई। गरीबों को अनेक योजनाओं का अभूतपूर्व लाभ मिला। 40-60 वर्ष से लंबित योजनाओं को पूरा किया गया। यह संयोग है कि नरेन्द्र मोदी ने ही प्रधानमंत्रियों से जुड़े संग्रहालय का लोकार्पण किया। यह लोकार्पण डॉ. आंबेडकर की जन्म जयंती पर किया गया। वह संविधान के शिल्पी थे। उनकी प्रतिष्ठा में सर्वाधिक कार्य नरेन्द्र मोदी सरकार ने किए हैं। इसमें उनके जीवन से संबंधित स्थलों का भव्य निर्माण किया गया। इसके साथ ही दलित वर्ग के लोगों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने के लिए योजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है। कल्याणकारी योजनाओं का पूरा लाभ वंचित वर्ग को तक पहुंच रहा है। नरेंद्र मोदी ने डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर के जीवन से जुड़े पांच स्थानों को भव्य स्मारक का रूप प्रदान किया। इसमें लंदन स्थित आवास, उनके जनस्थान, दीक्षा स्थल, इंदुमिल मुम्बई और नई दिल्ली का अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थान शामिल हैं। यह अपने ढंग का अद्भुत संस्थान है, जिसमें एक ही छत के नीचे डॉ. आंबेडकर के जीवन को आधुनिक तकनीक के माध्यम से देखा-समझा जा सकता है। पिछले दिनों मोदी ने यह संस्थान राष्ट्र को समर्पित किया था। संयोग देखिये, इसकी कल्पना अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी और इसे पूरा नरेन्द्र मोदी ने किया। प्रधानमंत्री संग्रहालय में देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक सभी प्रधानमंत्रियों के योगदान उल्लेखित हैं। पं. जवाहर लाल नेहरू का चित्रण संस्थान निर्माता के रूप में किया गया है। यह पहले नेहरू म्यूजियम था। इसे नया स्वरूप दिया गया है। यहां देश के सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों से जुड़ी स्मृतियों व योगदान को दर्शाया गया है। इसके अलावा कई लोकतांत्रिक मूल्यों की भी चर्चा की गई। जवाहर लाल नेहरू, गुलजारी लाल नंदा, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, पीवी नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, एच डी देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल, मनमोहन सिंह शामिल हैं। राष्ट्र निर्माण में इन सभी के योगदान की सराहना की गई। यह उनकी विचारधारा और कार्यकाल को अप्रतिम श्रद्धांजलि है। इसकी कल्पना नरेन्द्र मोदी ने ही की। वर्तमान पीढ़ी को सभी प्रधानमंत्रियों के कार्यों और उपलब्धियों के बारे में जानकारी मिलेगी। प्रधानमंत्री संग्रहालय ब्लॉक एक के रूप में नामित तत्कालीन तीन मूर्ति भवन को ब्लाक दो के रूप में नामित नवनिर्मित भवन के साथ एकीकृत किया गया है। संग्रहालय के लिए कोई पेड़ नहीं काटे गए। यह भी नरेन्द्र मोदी का ही विजन है। वह प्रकृति संरक्षण की सदैव प्रेरणा देते हैं। इसी क्रम में ऊर्जा संरक्षण व्यवस्था को शामिल किया गया है। गहन शोध और अध्ययन के बाद प्रधानमंत्री संग्रहालय का निर्माण किया गया है। सूचना प्रसार भारती, दूरदर्शन, फिल्म प्रभाग, संसद टीवी, रक्षा मंत्रालय, देश-विदेश के मीडिया हाउस समाचार एजेंसियों आदि जैसे संस्थानों के माध्यम से सामग्री का संग्रह किया गया। सभी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत वस्तुएं, उपहार और यादगार वस्तुएं, उनके भाषण व जीवन के विभिन्न पहलू यहां दिखाई देंगे। नरेन्द्र मोदी ने कहा कि देश के हर प्रधानमंत्री ने संविधान सम्मत लोकतंत्र के लक्ष्यों की पूर्ति में भरसक योगदान दिया है। देश के विकास में स्वतंत्र भारत के बाद बनी प्रत्येक सरकार का योगदान है। संग्रहालय प्रत्येक सरकार की साझा विरासत का जीवंत प्रतिबिंब है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामान्य परिवार में जन्म लेने वाला व्यक्ति भी शीर्षतम पदों पर पहुंच सकता है। ज्यादातर प्रधानमंत्री बहुत ही साधारण परिवार से रहे हैं। सुदूर देहात के एकदम गरीब, किसान परिवार से आकर भी प्रधानमंत्री पद पर पहुंचना भारतीय लोकतंत्र की महान परंपराओं के प्रति विश्वास को दृढ़ करता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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गिरीश्वर मिश्र भारत में शिक्षा का आयोजन किस प्रकार हो ? यह समाज और सरकार दोनों के लिए केंद्रीय सरोकार है। ज्ञान की अभिवृद्धि, समाज के मानस-निर्माण, कुशलता, उत्पादकता तथा सांस्कृतिक और सर्जनात्मक उन्मेष आदि अनेक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शिक्षा महत्व निर्विवाद है। यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि आज के युग में सामान्यतः औपचारिक शिक्षा की प्रक्रिया से गुजर कर ही प्रौढ़ जीवन में सार्थक प्रवेश मिल पाता है। जो शिक्षा और उसकी कसौटी पर खरे उतरते हैं वे जीविका की दौड़ में आगे बढ़ जाते हैं और जीवन में कामयाबी हासिल करते हैं। इसलिए शिक्षा को लेकर विद्यार्थी, अध्यापक और अभिभावक सभी के मन में आशाएं पलती रहती हैं। भारत की जनसंख्या में युवा-वर्ग के अनुपात में वृद्धि के साथ शिक्षा व्यवस्था पर दबाव बढ़ता जा रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ‘सर्वोदय’ की भावना भी है और हमारी अपेक्षा है कि असमानता को दूर करने और सामाजिक-आर्थिक खाई को पाटने के लिए शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का कारगर उपाय साबित होगी। इन सारी महत्वाकांक्षाओं के मद्देनजर गौर करें तो शिक्षा की जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती दिखती है। शिक्षा से जुड़े लोगों का विचार है कि स्वतंत्रता मिलने के बाद शिक्षितों और शिक्षा केन्द्रों की संख्या तो जरूर बढ़ी है पर शिक्षा-तंत्र कई तरह के विकारों से अधिकाधिक ग्रस्त भी होता गया है जिसके चलते शिक्षा वह सब कर पाने में पिछड़ रही है जिसकी उससे अपेक्षा थी। शिक्षा से जुड़े बहुत से सवाल मसलन- शिक्षा किसलिए दी जाय ? शिक्षा कैसे दी जाय ? शिक्षा का भारतीय संस्कृति और वैश्विक क्षितिज पर उभरते ज्ञान-परिदृश्य से क्या सम्बन्ध हो ? शिक्षा की विषयवस्तु क्या और कितनी हो ? उठाए जाते रहे हैं और सरकारी नीति के मुताबिक समय-समय पर टुकड़े-टुकड़े कुछ-कुछ किया जाता रहा। मुख्य परिवर्तन की बात करें तो स्कूली अध्यापकों के लिए प्रशिक्षण (बीएड) बड़े पैमाने पर शुरू हुआ, एनसीआरटी ने राष्ट्रीय स्तर पर मानक पाठ्यक्रम की रूपरेखा और पाठ्य पुस्तकें तैयार कीं, छात्रों के लिए शिक्षा-काल की अवधि में इजाफा हुआ, सेमेस्टर प्रणाली चली, बहु विकल्प वाले वातुनिष्ठ (आब्जेक्टिव) प्रश्न का परीक्षा में उपयोग होने लगा , अध्यापकों के लिए पुनश्चर्या कार्यक्रम शुरू हुए और अध्यापकों के प्रोन्नति के लिए अकादमिक निष्पादन सूचक (ए पी आई) लागू किये जाने जैसे ‘सुधारों’ का जिक्र किया जा सकता है। इन सबसे कई तरह के बदलाव आए हैं जिनके मिश्रित परिणाम हुए हैं। इस बीच शिक्षा का परिप्रेक्ष्य भी बदला है और शिक्षा व्यवस्था में कई तरह की विविधताएँ भी आई हैं। खासतौर पर व्यावसायिक परिदृश्य की जटिलताओं के साथ शिक्षा ने कई दिशाओं में कदम बढ़ाया है। बाजार की जरूरत के हिसाब से कई बदलाव आए हैं और सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में शिक्षा के निजी क्षेत्र का तीव्र और बड़ा विस्तार हुआ है। शिक्षा के परिदृश्य का यह पहलू इस बात से भी जुड़ा हुआ कि सरकार की ओर से न पर्याप्त निवेश हो सका और न व्यवस्था ही कारगर हो सकी। इसका एक ही उदाहरण काफी होगा। दिल्ली जैसे प्रतिष्ठित केन्द्रीय विश्वविद्यालय और ऐसे ही अनेक संस्थानों में अध्यापकों के हजारों पद वर्षों से खाली पड़े हैं और ‘तदर्थ’ /‘अतिथि’ (एडहाक / गेस्ट) अध्यापकों के जरिए जैसे-तैसे काम निपटाया रहा है। ऐसे ही एनसीआर ट , जो स्कूली शिक्षा का प्रमुख राष्ट्रीय केंद्र और शिक्षा नीति को लागू करने वाली संस्था है, पिछले कई वर्षों से लगभग आधे से भी कम कर्मियों के सहारे घिसट रहा है। देश में सरकारी स्कूलों कि स्थिति में जरूरी सुधार नहीं हो पा रहा है। अध्यापकों और जरूरी सुविधाओं से वे लगातार जूझ रहे हैं। इन सब पर समग्रता में विचार करते हुए भारत सरकार ने 2014 में देश के लिए नई शिक्षानीति बनाने का बीड़ा उठाया और लगभग छह वर्ष में नीति का एक महत्वाकांक्षी मसौदा 2020 में प्रस्तुत किया है। उसे लेकर पिछले एक वर्ष से पूरे देश में चर्चाओं का दौर चला है। उस पर अमल करते हुए कई कदम उठाए गए हैं जिनमें पाठ्यक्रम की रूप रेखा (एन सी ऍफ़) का निर्माण प्रमुख है। अनुमान किया जाता है कि बन रहे पाठ्यक्रम से ज्ञान, कौशल और मूल्य को संस्कृति और पर्यावरण के अनुकूल ढालने का उद्यम हो रहा है । उससे अपेक्षा है कि नए पाठ्यक्रम नौकरी, नागरिकता और निसर्ग सभी के लिए उपयोगी होगा । वह भारत केन्द्रित होने के साथ-साथ वैश्विक दृष्टि से भी प्रासंगिक होगा। मातृभाषा को माध्यम के रूप में और भारतीय ज्ञान परम्परा को अध्ययन विषय के रूप में स्थान मिलेगा। यह सब कैसे और कब होगा यह प्रकट नहीं तो भविष्य के गर्भ में है, पर कुछ कदम जरूर उठाए गए हैं जैसे अध्यापकों का ‘निष्ठा’ नामक प्रशिक्षण चला। कहा जा रहा नई शिक्षा नीति के कार्यान्वयन के अंतर्गत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सभी विश्वविद्यालयों के लिए एक प्रवेश-परीक्षा लेने का प्रस्ताव रखा है। इस उपाय को प्रवेश की चुनौतियों से निबटने के लिए एक क्रांतिकारी कदम के रूप में सोचा गया है। शिक्षा के लिए उमड़ते विद्यार्थियों के हुजूम के लिए इस समाधान के क्या सुफल होंगे यह जानना आवश्यक है क्योंकि हम यह मान रहे हैं कि यह शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए सुझाया जा रहा है । यह नया स्पीड ब्रेकर क्या गुल खिलाएगा और उसके क्या परिणाम हो सकते हैं इस पर गौर करना ज़रूरी है । साथ ही विविधता में एकता लाने का यह प्रयास समाज के बौद्धिक स्तर के संवर्धन में कितना लाभकारी होगा यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए । सबका अनुभव है कि उच्च शिक्षा के अवसरों की उपलब्धता, खास तौर पर अच्छे संस्थानों और शिक्षा केन्द्रों पर, बेहद अपर्याप्त रही है और उसमें कोई ज्यादा वृद्धि नहीं हुई है। इसके चलते प्रतिस्पर्धा में सफलता पाने के लिए बारहवीं की परीक्षा के प्राप्तांकों को ही आधार बनाया गया । मेडिकल , इंजीनियरिंग और प्रबंधन जैसे व्यावसायिक शिक्षा में प्रवेश के लिए परीक्षा द्वारा प्रवेश की व्यवस्था पहले से ही लागू है। अब उसे सामान्य शिक्षा के क्षेत्र में भी लागू किया जा रहा है। औपचारिक शिक्षा वाली परीक्षा में सामान्य अंकों को उपार्जित करने पर अतिरिक्त जोर पड़ा और उसमें सही गलत किसी भी तरह से बढ़त पाने की इच्छा का परिणाम कई समस्याओं को पैदा करता रहा है। मसलन पिछले सत्र में एक प्रदेश के बोर्ड में अप्रत्याशित रूप से शत-प्रतिशत अंक पाने वाले बड़ी संख्या में छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश को प्रस्तुत हुए और छा गए। शेष छात्र मुँह देखते रहे। प्रस्तावित प्रवेश परीक्षा के साथ पहले वाली औपचारिक परीक्षा भी बनी रहेगी पर उससे अधिक महत्त्व की होगी क्योंकि प्रवेश अंतत: नई परीक्षा के परिणाम द्वारा ही निर्धारित होगा। अर्थात अब छात्रों और अभिभावकों पर एक नहीं दो-दो परीक्षाओं का भूत सवार होगा ! एक परीक्षा की समस्या को दूर करने के लिए एक और परीक्षा लादी जा रही है। आज का घोर सत्य यही है कि शिक्षा प्रवेश और परीक्षा की दो चक्कियों के बीच पिस रही है और इससे पिस कर निकल सकने वाले को ही मोक्ष मिल पा रहा है। शिक्षा की यह त्रासदी दिन-प्रतिदिन जटिल होती जा रही है। इसके अवांछित प्रवाह को रोकने के लिए गति अवरोधक खड़े किए जाते रहे हैं। दरअसल प्रवेश परीक्षा अभिक्षमता या ऐप्टिट्यूड का मापन करने के लिए होती है ताकि शिक्षा या प्रशिक्षण का लाभ उठा सकने वाले अभ्यर्थियों को चुना जा सके। पर हमने उसे एक सीढ़ी ऊपर उठाकर उपलब्धि या अचीवमेंट का मापक बना दिया और फिर वही सब होने लगा जो पहले की परीक्षा में होता था। परिणाम यह है कि विद्यालय की पढ़ाई से विद्यालय की परीक्षा की तैयारी और कोचिंग की पढ़ाई से व्यावसायिक परीक्षा की तैयारी, यह आज अभिभावक और विद्यार्थी के मन में एक स्पष्ट समीकरण बन गया है। इसी के अनुसार जीवन में आगे बढ़ने की कवायद चल रही है। सभी देख रहे हैं कि इस प्रक्रिया में विद्यालय की पढ़ाई गौण होती जा रही है और व्यावसायिक प्रवेश परीक्षा की पढ़ाई निहायत गुरु-गम्भीर और सीरियस मानी जाती है। इसकी इंतहा तो तब होती है जब कोचिंग संस्थान खुद ही विद्यालय वाली इंटर की परीक्षा का जिम्मा ले लेते हैं और विद्यार्थी विद्यालय भी नहीं जाता सिर्फ ‘परीक्षा फार्म‘ भरता है और यथासमय उसकी परीक्षा में शामिल हो जाता है। शिक्षा की अधोगति की यह अद्भुत कथा एक सार्वजनिक सत्य है। आज अधिकांश इंटर कॉलेज विद्यार्थी शून्य होते जा रहे हैं। मेधावी बच्चे विद्यालय छोड़ कोचिंग की ओर रुख करते दिख रहे हैं। विद्यालयी शिक्षा के प्रति सरकार, समाज, विद्यार्थी सबका एक स्वर से समवेत घोर अविश्वास चिंताजनक हो रहा है। कहाँ तो इसकी रोकथाम की जानी चाहिए थी परंतु इस बात पर बिना विचार किए प्रस्तावित साझा प्रवेश परीक्षा इस अविश्वास की ही पुष्टि करती है और घोषित करती है कि विद्यालय की पढ़ाई जैसे हो रही थी, होती रहेगी यदि आगे पढ़ने-पढ़ाने की इच्छा है तो विद्यालयी परीक्षा के अतिरिक्त इस नई परीक्षा को अनिवार्य रूप से पास करना होगा। एक परीक्षा की जगह दूसरी परीक्षा को महत्व देने से विद्यालयी शिक्षा के स्तर में गिरावट ही होगी। परीक्षा देवी की महिमा की जय हो। विद्या को विमुक्ति का माध्यम कहते हैं परन्तु पर हम सब उसे जकड़बंद करने पर तुले हैं।
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हृदयनारायण दीक्षित आनंद सबकी अभिलाषा है। प्रसन्नता मापने का मानक तय करना कठिन है। लेकिन पिछले 10 वर्ष से आनंद या हैप्पीनेस की मात्रा जानने का काम जारी है। इसकी शुरुआत वर्ष 2012 में हुई थी। लगभग 150 देशों को इस रैंकिंग में शामिल किया जाता है। वैसे, व्यक्ति-व्यक्ति की प्रसन्नता के मानक अलग-अलग होते हैं। कोई सुन्दर किताब पढ़कर आनंदित होता है। कोई अपने मन का वातावरण पाकर प्रसन्न होता है। कोई झगड़ालू है। उसे कलह में सुख मिलता है। प्रसन्नता मापना आसान काम नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक सूचकांक की वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट 2022 आयी है। प्रसन्न और अप्रसन्न देशों की रैंकिंग बतायी गयी है। मूल्यांकन के आधार विचारणीय हैं। इसमें प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद एक मानक है। जीवन चुनने की स्वतंत्रता और उदारता भी मानक हैं। सामाजिक समर्थन को भी प्रसन्नता का मानक कहा गया है। इस रिपोर्ट में फिनलैण्ड पहले स्थान पर आया है। फिनलैण्ड विशाल जंगलों और सुन्दर झीलों का देश है। प्रति व्यक्ति आय, सामाजिक विश्वास, उदारता और जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय लेने की स्वतंत्रता है। प्रसन्नता के लिए डेनमार्क दूसरे स्थान पर है। तीसरे स्थान पर आइसलैण्ड है, चौथे स्थान पर स्विटजरलैण्ड और पांचवें स्थान पर नीदरलैण्ड है। अमेरिका 16वें स्थान पर है। चीन 72वाॅं है। ब्रिटेन 17वाॅं है। अपना भारत प्रसन्नता के इस मानक में 136वाॅं है। पाकिस्तान 121वाॅं है। अफगानिस्तान की रैंकिंग सबसे निचले स्थान पर है। प्रसन्नता मापने के यह मानक संयुक्त राष्ट्र के हैं। भारत में प्रसन्नता के मानक भिन्न हैं। यहां प्रसन्नता विधायी मूल्य हैं। किसी के प्रसन्न होने या न होने के मानक जीडीपी आदि से तय नहीं हो सकते। प्रसन्नता आंतरिक होती है। भारत प्राचीनकाल से ही प्रसन्न राष्ट्र रहा है। ऋग्वेद में सोमदेव से प्रसन्नता प्राप्ति की कामना हैं, ‘‘हे सोमदेव मुझे ऐसे स्थान पर रखो जहाॅं प्रचुर अन्न हो। जहाँ सदा नीरा नदियाॅं हों, मुद, मोद, प्रमोद हों, मुझे वहाँ स्थान दो। जहाँ विवस्वान का पुत्र राजा है वहाॅं स्थान दो।’’ इसमें मुद, मोद, प्रमोद तीन शब्द आते हैं। तीनों प्रसन्नता बोधक हैं। नदियों का सुन्दर प्रवाह, प्रचुर अन्न सुन्दर राज्य व्यवस्था प्रसन्नता के घटक हैं। तैत्तरीय उपनिषद् उत्तर वैदिककाल की रचना है। ऋषि कहते हैं कि ”हम आनंद की मीमांसा करते हैं, “मनुष्य स्वस्थ हो सदाचारी हो, सांस्कृतिक स्वभाव वाला हो। सदाचार की शिक्षा देने में समर्थ हो। शरीर रोग रहित हो। वह धन सम्पन्न हो। यह सब मनुष्य के बड़े सुख हैं।’’ लेकिन ऐसे आनंद से मानव गंधर्वों का आनंद 100 गुना ज्यादा है। यह आनंद अकामहत व्यक्ति को स्वभाव से ही प्राप्त है। मनुष्य गंधर्व की अपेक्षा देवगंधर्व आनंद 100 गुना अधिक बताया गया है। अकामहत व्यक्ति को यह आनंद भी स्वाभाविक रूप से प्राप्त है।’’ आगे कहते हैं देव गंधर्व आनंद से पीतरों का आनंद 100 गुना ज्यादा है। यह भी भोगों के प्रति निष्काम व्यक्ति को स्वभाव रूप से प्राप्त है। इसी तरह पितरों के आनंद से ‘आजानज‘ नामक देवों का आनंद 100 गुना ज्यादा है। उच्च लोकों में रहने वाले हमारे पितरों के आनंद से ‘आजानज‘ आनंद 100 गुना है। लेकिन भोगों के प्रति निष्काम अकामहत व्यक्ति को यह आनंद सहज ही प्राप्त हैै। आजानज आनंद से कर्मदेवानाम आनंद 100 गुना ज्यादा है। यह आनंद भी भोगों से कामना रहित को स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। देवताओं के आनंद से 100 गुना ज्यादा इन्द्र का आनंद हैै। भोगों से दूर रहने वाले लोगों को यह आनंद भी स्वतः प्राप्त होता है। इसी तरह इन्द्र के आनंद से वृहस्पति का आनंद 100 गुना है। यह आनंद भी भोगों से विरक्त वेदवेत्ता को प्राप्त है। वृहस्पति के आनंद से 100 गुना ज्यादा आनंद प्रजापति का आनंद है। भोगों से विरक्त अकामहत व्यक्ति को यह आनंद भी स्वतः प्राप्त है। प्रजापति के आनंद से 100 गुना ब्रम्ह का आनंद है। यह भी भोगों से विरक्त अकामहत व्यक्ति को प्राप्त है। आनंद सबकी अभिलाषा है। सभी प्राणी आनंद के प्यासे हैं। भारतीय चिन्तन में आनंद की गहन मीमांसा की गयी है। सामान्यतया लोगों को उपयोगी वस्तुओं की प्राप्ति में आनंद दिखायी पड़ता है। यह वास्तव में आनंद नहीं है। अभाव का अभाव है। अल्पकालिक अभाव दूर होने पर अल्पकालिक सुख मिलता है। आनंद इससे भिन्न है। जीवन यापन के लिए जरूरी उपाय करना व्यक्ति और राज्य व्यवस्था का कर्तव्य है। लेकिन इनसे आनंद नहीं मिलता। अन्तःकरण में अपूर्णता बनी रहती है। छान्दोग्य उपनिषद में सनत् कुमार ने नारद को बताया कि अल्प में दुख है। पूर्णता में सुख है। उपनिषद में पूर्णता को ‘‘भूमा’’ कहा गया है। जहाँ पूर्णता है वहाॅं आनंद है। आनंद आखिरकार है क्या? प्रसन्न/अप्रसन्न दर्शन विज्ञान की चुनौती हैं। क्या सुन्दर वाहन, महंगे घर और इस तरह की अन्य वस्तुऐं आनंद का सृजन कर सकती हैं। यश भी आनंद है। प्रसन्नता में आनंद लोभ है ? लेकिन इसमें भी अप्रसन्नता रहती है। तैत्तरीय उपनिषद में ऋषि भ्रगु ने पिता की आज्ञानुसार यह निश्चय किया कि विज्ञानस्वरूप चेतना जीव आत्मा है। ब्रम्ह है। उन्होंने आनंद का ज्ञान दिया। ब्रम्ह तत्व समझाया और आनंद को ब्रम्ह बताया। भृगु ने संयमपूर्वक तप किया और निष्कर्ष निकाला कि आनंद ही ब्रह्म है। आनंद से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं। आनंद से ही जीवित रहते हैं और जीवन के अन्त में आनंद में ही लौट जाते हैं। आनंदमय परम तत्व अन्नमय है। स्थूल रूप है। ब्रह्म के लक्षण आनंद में ही प्राप्त होते हैं। आनंद ब्रह्म है। ब्रह और आनंद पर्यायवाची हैं। समूचे विश्व में सारे कर्म आनंद के लिए ही सम्पन्न होते हैं। मुझे लगता है कि आनंद का स्थूल रूप अस्तित्व है। स्थूल विश्व का सूक्ष्म रूप, लेकिन सबको प्रभावित करने के लिए आनंद ही है। वायु आनंद प्राप्ति के लिए आनंदित होकर बहती है। वर्षा आनंद में प्रवाहित होती है। जल आनंद गोत्री है। जीवन के सभी कार्य व्यापार आनंद में ही सम्पन्न होते हैं और आनंद का सृजन करते हैं। आनंद के उपकरण भौतिक हैं। आनंद का आनंद अध्यात्मिक है। ईश्वर आनंद है। आनंद दाता है। आनंद का सृजनकर्ता है। अस्तित्व को आनंद से परिपूरित करता है। ज्ञान की यह परंपरा वैदिककाल के पहले से अब तक यथावत है और निरंतरता में भी है। पूर्वजों ने शरीर में पाँच मुख्य कोष बताएं हैं। पहला अन्नमय कोष है। शरीर की यह पर्त अन्न से बनती है। दूसरा कोष प्राणमय है। प्राण महत्वपूर्ण है। प्राण से प्राणी है। तीसरा मनोमय कोष है। यह मन प्रभाहित है। मनोमय शरीर की विशिष्ट महिमा है। इसके बाद विज्ञानमय कोष है। विज्ञानमय कोष ज्ञानकोष है। उसके बाद पाँचवां कोष आनंदमय है। आनंद से भरापूरा है। वस्तुतः आनंद है। शरीर में बाहर की ओर से भीतर की ओर यात्रा में आनंदमय कोष अंतिम है। भीतर से बाहर की यात्रा में आनंदमय कोष प्रथमा है। ज्ञान का परिणाम आनंद है। आनंद का परिणाम सर्वोच्च ज्ञान है। (लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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डॉ. विश्वास चौहान भारत में अंतरराष्ट्रीय कारणों से खनिज तेल यानी पेट्रोल-डीजल मंहगा हो रहा है। वैसे तो यह स्थिति पूरे विश्व में है। भारत के अलावा यदि दुनिया की बात करें तो भारतीय मुद्रा के हिसाब से हांगकांग में पेट्रोल 218.85 रुपये लीटर बिक रहा है। वहीं, नीदरलैंड में 191.34 रुपये प्रति लीटर तक पहुंच गया है। इसके अलावा मोनाको में 189 रुपये, नार्वे में 186.50 रुपये और फिनलैंड में 179.14 रुपये प्रति लीटर की कीमत पर पेट्रोल मिल रहा है। भारत में पेट्रोल की वर्तमान कीमतों के लिए यूपीए सरकार की गलत खनिज तेल नीतियां और व्यापारिक समझौते जिम्मेदार हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने 29 मार्च 2022 को राज्यसभा में कहा कि 'मैं इस सदन को याद दिला दूं कि आज के सत्यनिष्ठ करदाता उस (कच्चे तेल की) सब्सिडी का भुगतान कर रहे हैं जो उपभोक्ताओं को एक दशक से अधिक समय पहले तेल बांड (उधारी) के नाम पर दिया गया था और वे अगले पांच वर्षों तक भुगतान करना जारी रखेंगे क्योंकि बांड (उधारी) का पेमेंट 2026 तक जारी रहेगा। इसलिए, दस साल पहले उठाए गए तेल बांड (उधारी) के माध्यम से तेल की कम कीमतों का वह बोझ अब भी हम पर है। इसलिए, मैं इसे रिकॉर्ड पर रखना चाहूंगी। 2 लाख करोड़ रुपये से अधिक की उधारी जो यूपीए के तेल बांड के दौरान जुटाए गए थे जिसका भुगतान हम अभी भी कर रहे हैं। इसलिए अधिक कीमत पर तेल की उधारी का भुगतान करना एक ईमानदार तरीका है, न कि ऐसा तरीका जिससे आप इसे किसी और पर उधारी उठा लेते हैं और कोई अन्य सरकार इसके लिए भुगतान करती रहती है।' निर्मला सीतारमण के स्पष्टीकरण से साफ है कि देश में पेट्रोल-डीजल की बढ़ी हुई कीमतों के लिए यूपीए सरकार भी जिम्मेदार है। वास्तव में तेल की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में 82 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर 140 डॉलर प्रति बैरल तक जा पहुंची है। भारत में जिस गति से देश के विकास में संसाधन जुटाए जा रहे हैं, उसकी कीमत का आकलन विश्व को है लेकिन हममें से कुछ भारतीय अभी भी अज्ञानी बने हुए हैं। लोग यह समझना नहीं चाहते कि राष्ट्रीय और जान-माल की सुरक्षा की एक कीमत होती है। दूसरी तरफ 75-80 करोड़ महिलाएं-बच्चे और पुरुष खुले में शौच को जाते थे। 43 करोड़ लोगों के पास बैंक अकाउंट नहीं थे। 11 करोड़ लोगों के पास गैस नहीं थी। 16 करोड़ घरों में नल से जल नहीं आता था। केवल 60 प्रतिशत घरों में बिजली कनेक्शन था। मालगाड़ियां एवं यात्री ट्रेन एक ही लाइन पर चलती थी। बर्फ गिरने से लद्दाख सड़क मार्ग से कट जाता था। चुंगी पर ट्रक घंटों ईंधन फूंकते रहते थे। लगभग 31 प्रकार के अप्रत्यक्ष टैक्स हुआ करते थे। भूतपूर्व सैनिकों को वन रैंक वन पेंशन देने से अर्थ विशेषज्ञ डॉ. मनमोहन सिंह ने मना कर दिया था। यूपीए की सरकार ने उधारी पर तेल खरीदकर आने वाली पीढ़ियों पर उसका भार छोड़ दिया था। इसलिए सरकार पर भरोसा बनाये, आने वाला समय हम भारतीयों का ही रहना वाला है। (लेखक विधि प्राध्यापक हैं।)
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हनुमान जयंती (16 अप्रैल) पर विशेष प्रमोद भार्गव कुछ समय पूर्व दिलचस्प खबर, उड़ने वाला ‘विंगसूट‘ पहनकर इंसान के उड़ने की आई। इन्हें पंख-वस्त्र या उड़ान-परिधान कह सकते हैं। कार निर्माता कंपनी बीएमडब्ल्यू ने इस विद्युत उपकरण का निर्माण कराया है। इसकी परिकल्पना पीटर सैल्जमैन ने की थी। पीटर पेशे से विंगसूट पायलट और पैराग्लाइडिंग प्रशिक्षण हैं। बीएमडब्ल्यू आई और डिजाइन वर्कर्स ने इसे मिलकर तैयार किया है। इसका पहला परीक्षण पीटर ने ऑस्ट्रिया के पहाड़ी क्षेत्र में एक हेलीकाॅप्टर से 9,800 फीट की ऊंचाई से कूदकर किया। आमतौर से एक इलेक्ट्रिक उड़ान-वस्त्र की सामान्य गति 100 किमी प्रति घंटे होती है, किंतु इसे इस तरह डिजाइन किया गया है कि इसकी गति 300 किमी प्रति घंटे से भी अधिक है। हाॅवरक्राॅफ्ट नाम के यंत्र से इसी प्रकार न्यूजीलैंड के ग्लेन मार्टिन ने 100 किमी प्रतिघंटे की रफ्तार से सौ घंटों तक आसमान में उड़कर दिखाया था। उनके इस प्रयोग को देश-दुनिया के समाचार चैनलों ने 3 सितंबर 2010 को प्रसारित किया था। इन व्यक्तिगत उड़ानों से तय होता है कि अकेला मानव आसमान में उड़ान भर सकता है। अब बात रामभक्त हनुमान की जो समुद्र के ऊपर उड़ान भरकर लंका पहुंचे। डाॅ. ओंकारनाथ श्रीवास्तव ने अनेक पाश्चात्य अनुसंधानों के मतों के आधार पर निश्चित किया था कि रामायण व अन्यान्य राम कथाओं में उल्लेखित हनुमान की वायु-यात्राएं ऐसे ही आकाशगामी यानों से की यात्राएं थीं। हनुमान उड़ान-वस्त्र और राॅकेट बेल्ट बांधकर आकाशगमन करते थे। आज के अंतरिक्ष यात्री भी यही यंत्र धारण करते हैं। हनुमान व रावण-पुत्र मेघनाद में हुआ युद्ध भी हाॅवरक्राॅफ्ट से मिलता-जुलता है। अब यह भी प्रमाणित हुआ है कि लंका की पहाड़ियों पर जो चौकस मैदान हैं, वे उस कालखंड के हवाई-अड्डे हैं। दक्षिण-भारत के मंदिरों और कुछ गुफा-चित्रों में वायुयान, आकाशचारी मानव और अंतरिक्ष वेशभूषा से युक्त व्यक्तियों के चित्रों की पत्थरों पर उत्कीर्ण मूर्तियां मिलती हैं। मिस्र में दुनिया का ऐसा मानचित्र मिला है, जिस पर अंकित रेखांकन आकाश में उड़ान सुविधा की पुष्टि करता है। रावण के ससुर मयासुर ने विश्वकर्मा से वैमानिकी विद्या सीखी और पुष्पक विमान बनाया, जो कालांतर में विष्णु की कृपा से कुबेर को प्राप्त हुआ और फिर रावण के पास आया। महर्षि भारद्वाज द्वारा रचित ‘यंत्र सर्वेश्वयं‘ में विमान निर्माण से लेकर संचालन के तरीकों तक का विवरण है। ये वर्णन कोरी कल्पनाएं न होकर उस समय के उड़ान तकनीक से जुड़े विज्ञान सम्मत आविष्कार हैं, जो प्रलय जैसी प्राकृतिक आपदाओं और रामायण एवं महाभारत में दर्शाए वैश्विक युद्धों के चलते तकनीकी ज्ञान सहित नष्ट हो गए। सीता हरण के बाद जामवंत के नेतृत्व में सीता की खोज में लगा वानर-दल समुद्र के किनारे स्थित गंधमादन पर्वत पर पहुंचता है। यहां जामवंत की मुलाकात संपाती से होती है। जटायु संपाती का ही बड़ा भाई था। जटायु, संपाती और संपाती-पुत्र सुपाष्र्व बड़े जानकार थे। उन्होंने गिद्ध नगरी में रहते हुए लघु और मंझोले किस्म के वायुयानों और पंख-वस्त्रों (विंगसूट) का निर्माण किया था। जटायु ने रावण से सीता के मुक्ति के लिए जो युद्ध किया था, तब वह यही वस्त्र पहने हुए थे। जामवंत ने ही संपाती को बताया था कि जटायु की रावण ने हत्या कर दी है। इससे संपाती में प्रतिशोध की भावना उग्र हो उठी। संपाती ने रावण को एक स्त्री का अपहरण कर ले जाते हुए भी देखा था। यहीं से संपाती ने एक शक्तिशाली दूरबीन के जरिए लंका और अशोक वाटिका हनुमान को दिखाई थी। इसी गंधमादन पर्वत से हनुमान ने संपाती-पुत्र सुपाष्र्व के साथ पंख-वस्त्र धारण करके लंका की ओर कूच किया था। मदन मोहन शर्मा ‘शाही‘ के शोधपूर्ण उपन्यास ‘लंकेश्वर‘ में इस यात्रा को लघु-विमान से पंख-वस्त्र पहनकर किया जाना बताया गया है। तय है, हनुमान ने समुद्र को यांत्रिक उड़ान-वस्त्र पहनकर पार किया और सीता की खोज की। किंवदंती यह भी है कि भगवान गौतम बुद्ध ने वायु यान द्वारा तीन बार लंका की यात्रा की थी। ऐरिक फाॅन डाॅनिकेन की पुस्तक ‘चैरियट्स ऑफ गाॅड्स‘ में तो भारत समेत कई प्राचीन देशों से प्रमाण एकत्र करके वायु यानों की तत्कालीन उपस्थित की पुष्टि की गई है। वाल्मीकि रामायण एवं अन्य रामायणों तथा अन्य ग्रंथों में पुष्पक विमान के उपयोग में लाने के विवरण हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उस युग में राक्षस व देवता न केवल विमान शास्त्र के ज्ञाता थे, बल्कि सुविधायुक्त आकाशगामी साधनों के रूप में वाहन उपलब्ध थे। रामायण के अनुसार पुष्पक विमान के निर्माता ब्रह्मा थे। ब्रह्मा ने यह विमान कुबेर को भेंट किया था। कुबेर से इसे रावण से छीन लिया। रावण की मृत्यु के बाद विभीषण इसका अधिपति बना और उसने फिर से इसे कुबेर को दे दिया। लंका पर विजय के बाद भगवान राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान इसी विमान में बैठकर अयोध्या आए थे। राम-रावण युद्ध में प्रयोग में लाई गईं शक्तियों को मायावी या दैवीय शक्ति कहकर उनके वास्तविक महत्व, आविष्कार के ज्ञान व सामर्थ्य को सर्वथा नकारने की अवैज्ञानिक कोशिशें पूर्व में होती रही हैं। लेकिन अब इन्हें विज्ञान-सम्मत ज्ञान के सूत्र मानकर इनकी सच्चाइयों को खंगालने के उपक्रम में वैज्ञानिक व विज्ञान संस्थान आगे बढ़ रहे हैं। दुनिया अब मान रही है कि वास्तव में यह विध्वंसकारी परमाणु अस्त्र-शस्त्र एवं अद्भुत भौतिक यंत्र थे। इनकी सूक्ष्म और यथार्थ विवेचना के लिए इनके रहस्यों को जानना समझना अवश्यक है। अतएव विश्वविद्यालयों में प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में उल्लेखित अंशों को पाठ के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। इससे विद्यार्थियों में प्राचीन भारतीय विज्ञान को जानने की जिज्ञासा जन्म लेगी और छात्र उस मिथक को तोड़ेगे, जिसे कवि की कपोल-कल्पना कहकर उपेक्षा की जाती रही है। इस सिलसिले में हनुमान की उड़ान को भी विज्ञान-सम्मत दृष्टि से देखने की जरूरत है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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हनुमान जन्मोत्सव (16 अप्रैल) पर विशेष योगेश कुमार गोयल हिन्दू पंचांग के अनुसार हनुमान जन्मोत्सव चैत्र मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है और इस वर्ष यह 16 अप्रैल को मनाया जा रहा है। हालांकि देश के कुछ हिस्सों में इसे कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को भी मनाया जाता है। वैसे हनुमान जन्मोत्सव साल में दो बार मनाया जाता है। पहला हिन्दू कैलेंडर के अनुसार चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को और दूसरा कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी अर्थात नरक चतुर्दशी को। कुछ मान्यताओं के अनुसार चैत्र पूर्णिमा को प्रातःकाल में एक गुफा में हनुमानजी का जन्म हुआ था जबकि वाल्मिकी रचित रामायण के अनुसार हनुमानजी का जन्म कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को हुआ था। मान्यता है कि चैत्र पूर्णिमा के दिन हनुमानजी सूर्य को फल समझकर खाने के लिए दौड़ पड़े थे और एक ही छलांग में उन्होंने सूर्यदेव के पास पहुंचकर उन्हें पकड़ कर अपने मुंह में रख लिया था। जैसे ही नटखट हनुमान ने सूर्य को मुंह में रखा, तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। इसी तिथि को विजय अभिनन्दन महोत्सव के रूप में भी मनाया है। एक मान्यता के अनुसार कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन हनुमानजी की भक्ति और समर्पण से प्रसन्न होकर माता सीता ने उन्हें अमरता का वरदान दिया था। आजन्म ब्रह्मचारी हनुमानजी को भगवान महादेव का 11वां अवतार अर्थात् रूद्रावतार भी माना जाता है और हिन्दू धर्म में हनुमान जन्मोत्सव का विशेष महत्व है। महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण में उन्हें विशिष्ट पंडित, राजनीति में धुरंधर और वीर-शिरोमणि कहा है। बजरंग बली हनुमान को कलियुग में कलियुग के राजा की उपाधि प्राप्त है। भक्तजन हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए पूरे विधि-विधान से उनकी पूजा-अर्चना करते हुए व्रत भी रखते हैं, जगह-जगह भव्य शोभायात्राएं भी निकाली जाती हैं। इस अवसर पर हनुमान चालीसा, सुंदरकांड तथा हनुमान आरती का पाठ करना शुभ माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन जो भक्तजन हनुमानजी की भक्ति और दर्शन करते हुए व्रत रखते हैं, उन्हें हनुमानजी का आशीष प्राप्त होता है और उनके जीवन में किसी तरह का कोई संकट नहीं आता। दरअसल समस्त ब्रह्मांड में एकमात्र हनुमानजी ही ऐसे देवता माने जाते हैं, जिनकी भक्ति से हर प्रकार के संकट तुरंत हल हो जाते हैं और इसीलिए हनुमानजी को संकटमोचक भी कहा गया है। यह भी मान्यता है कि हनुमानजी की पूजा जीवन में मंगल लेकर आती है, इसीलिए उन्हें मंगलकारी कहा गया है। शक्ति, तेज और साहस के प्रतीक देवता माने गए हनुमानजी को सभी देवताओं ने वरदान दिए थे, जिससे वह परम शक्तिशाली बने थे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार बचपन में हनुमान ने जब सूर्यदेव को फल समझकर अपने मुंह में रख लिया था तो पूरी सृष्टि में हाहाकार मच गया। तब घबराकर देवराज इंद्र ने पवनपुत्र हनुमान पर अपने वज्र से प्रहार किया, जिसके बाद हनुमान बेहोश हो गए। यह देख पवनदेव ने क्रोधित होकर समस्त संसार में वायु का प्रवाह रोक दिया, जिससे संसार में हाहाकार मच गया। तब परमपिता ब्रह्मा हनुमान की बेहोशी दूर कर उन्हें होश में लाए। उसके बाद सभी देवताओं ने दिल खोलकर उन्हें वरदान दिए। सूर्यदेव ने उन्हें अपने प्रचण्ड तेज का सौवां भाग देते हुए कहा कि जब इस बालक में शास्त्र अध्ययन करने की शक्ति आएगी, तब मैं ही इसे शास्त्रों का ज्ञान दूंगा, जिससे यह अच्छा वक्ता होगा और शास्त्रज्ञान में इसकी बराबरी करने वाला कोई नहीं होगा। परमपिता ब्रह्मा ने उन्हें दीर्घायु, महात्मा और सभी प्रकार के ब्रह्मदण्डों से अवध्य होने, इच्छानुसार रूप धारण करने, जहां चाहे वहां जा सकने, अपनी गति को अपनी इच्छानुसार तीव्र या मंद करने का वरदान दिया। देवराज इंद्र ने कहा कि यह बालक मेरे वज्र द्वारा भी अवध्य रहेगा और देव शिल्पी विश्वकर्मा ने भी उन्हें चिंरजीवी तथा अपने बनाए सभी शस्त्रों से अवध्य रहने का वर प्रदान किया। ऐसे ही वरदान उन्हें भगवान शिव, कुबेर, जलदेवता वरूण, यमराज इत्यादि ने भी दिए। इन्द्र का वज्र बालक मारुति की हनु (ठोडी) पर लगा था, जिससे उनकी ठोडी टूट गई थी, इसीलिए उन्हें हनुमान कहा जाने लगा। जिस प्रकार भगवान शिव के शिवालय नंदी के बगैर अपूर्ण माने जाते हैं, उसी प्रकार हनुमानजी की उपस्थिति के बिना रामदरबार अपूर्ण रहता है। परम रामभक्त हनुमानजी के करीब 108 नाम बताए जाते हैं, जिनमें से कुछ काफी प्रचलित हैं और माना जाता है कि इन नामों को जपने से हर तरह के संकट दूर हो जाते हैं। हनुमानजी का बचपन का नाम मारूति था, जो उनका वास्तविक नाम माना जाता है। उनकी माता का नाम अंजना तथा पिता का केसरी था, इसलिए उन्हें अंजनी पुत्र या आंजनेय तथा केसरीनंदन भी कहा जाता है। उन्हें वायु देवता का पुत्र भी माना जाता है, इसीलिए इनका नाम पवन पुत्र तथा मारुति नंदन भी हुआ। उन्हें भगवान शंकर का पुत्र अर्थात् रुद्रावतार भी माना जाता है, इसलिए एक नाम शंकरसुवन भी है। वज्र धारण करने और वज्र के समान कठोर और बलशाली होने के कारण उन्हें बजरंगबली कहा जाने लगा। पातल लोक में अहिरावण की कैद से राम, लक्ष्मण को मुक्त कराने तथा अहिरावण का वध करने के लिए हनुमानजी ने पंचमुखी रूप धारण किया, इसलिए उन्हें पंचमुखी हनुमान भी कहा जाता है। दरअसल अहिरावण ने मां भवानी के लिए पांच दिशाओं में पांच जगहों पर पांच दीपक जलाए थे। उसे वरदान मिला था कि इन पांचों दीपकों को एक साथ बुझाने पर ही उसका वध हो सकेगा। इसीलिए हनुमानजी ने उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख धारण कर पंचमुखी मुख से पांचों दीप एक साथ बुझाकर अहिरावण का वध किया था। वे भगवान श्रीराम का हर कार्य करने वाले दूत की भूमिका निभाने के कारण रामदूत भी कहलाए। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार उनके ऐसे ही 12 नामों हनुमान, अंजनीसूत, पवनपुत्र, महाबल, रामेष्ट, सीताशोकविनाशन, लक्ष्मणप्राणदाता, दशग्रीवदर्पहा, उदधिक्रमण, अमितविक्रम, पिंगाक्ष, फाल्गुनसख का निरंतर जप करने वाले व्यक्ति की हनुमानजी दसों दिशाओं एवं आकाश-पाताल से रक्षा करते हैं। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार धर्म की स्थापना और रक्षा का कार्य चार लोगों के हाथों में है, दुर्गा, भैरव, हनुमान और कृष्ण। मान्यता है कि हनुमानजी को धर्म की रक्षा के लिए अमरता का वरदान मिला था और इसी वरदान के कारण आज भी हनुमानजी जीवित हैं तथा प्रभु श्रीराम के भक्तों तथा धर्म की रक्षा में लगे हैं। वे आज भी धरती पर विचरण करते हैं और कलियुग के अंत तक अपने शरीर में ही रहेंगे। हनुमानजी अपार बलशाली और वीर हैं, उनका कोई सानी नहीं है। हनुमान चालीसा में उनका गुणगान करते हुए कहा गया है कि चारों युगों में हनुमानजी के प्रताप से ही सम्पूर्ण जगत में उजियारा है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा आखिरकार पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के भाई और पीएमएलएन के नेता शहबाज शरीफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बन गए। पिछले कुछ समय से पाकिस्तान में जो घटनाक्रम चल रहे थे उससे साफ हो गया था कि अब इमरान सरकार अंतिम सांसें ले रही है और इसका भी हस्र पाकिस्तान के अब तक के इतिहास के अनुसार ही होगा। यह सही है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। खासतौर से पाकिस्तान के मामले में यह साफ है। धर्म के आधार पर पाकिस्तान का गठन हमसे ठीक एक दिन पहले 14 अगस्त, 1947 को हुआ और इसे दुर्भाग्यजनक ही कहा जाएगा कि धर्म और संप्रदाय पर बना पाकिस्तान 75 साल में ऐसा प्रधानमंत्री नहीं दे सका जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया हो। किसी ना किसी प्रकार से उसे अपने कार्यकाल के बीच में ही सत्ता गंवानी पड़ी। यह भी साफ हो जाना चाहिए कि शहबाज शरीफ की कुर्सी भी दूर-दूर तक सुरक्षित नहीं लगती है। जैसी की संभावना थी और जो सही भी हो गई कि शहबाज शरीफ को शपथ दिलाने से पहले ही राष्ट्रपति अल्बी की तबीयत बिगड़ गई। यह कोई नई बात नहीं है बल्कि राजनीतिक विश्लेषक पहले से ही अंदाज लगा रहे थे कि इमरान अपनी हारी बाजी में अंतिम प्रयास राष्ट्र्पति को हथियार के रूप में करेंगे और किया भी पर सत्ता गंवानी पड़ी। आखिर क्या कारण है कि आजादी के 75 साल में भारत में लोकतंत्र दिन-प्रतिदिन मजबूत होता जा रहा है। लोकतांत्रिक मूल्यों की कदर है। लोगों का लोकतंत्र में लगातार विश्वास बढ़ता गया। दो कदम आगे बढ़कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर असहिष्णुता और सरकार का लाख विरोध करने वालों की मुखरता में भी कोई कमी नहीं आई है। यहां रहकर हिन्दुस्तान के टुकड़े होने के नारे सरेआम लगाते हैं, पर यहां की माटी का कमाल है कि लोकतंत्र यहां आज भी हरा-भरा है। ठीक इसके विपरीत मुस्लिम राष्ट्र होने के बावजूद पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से लेकर 19 वें प्रधानमंत्री इमरान खान तक एक भी तो ऐसा उदाहरण नहीं मिलता कि किसी प्रधानमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा किया हो। चाहे सेना द्वारा चाहे कोर्ट द्वारा या हाल ही में अविश्वास प्रस्ताव द्वारा पाकिस्तान में प्रधानमंत्रियों को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया जाता रहा है। सत्ता लोलुपता ही ऐसी है कि भले आज शहबाज शरीफ प्रधानमंत्री बन गए हों पर लोग उनकी कुंडली खंगालने लगे हैं। यही कुंडली उन्हें मौका मिलते ही बाहर का रास्ता दिखाने के काम में आएगी। आखिर सत्ता संघर्ष का ही परिणाम है कि 75 साल में पाकिस्तान एक से दो राष्ट्र यानी कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में बदल चुका है। सवाल यह है कि पाकिस्तान में 75 सालों में एक भी प्रधानमंत्री बाइज्जत अपना कार्यकाल पूरा क्यों नहीं कर पाया। क्या पाकिस्तान में लोकतांत्रिक व्यवस्था केवल दिखावा मात्र है और राष्ट्र्पति या सेनाध्यक्ष जिसको भी जब मौका मिलता है येन केन प्रकारेण सत्ता संघर्ष को हवा देकर प्रधानमंत्री की कुर्सी को डांवाडोल कर देता है। इमरान ने आखिरी दम तक राजनीति के साम, दाम, दंड भेद अपनाने के प्रयास किए। यहां तक कि बाहरी ताकतों का हवाला देकर विपक्षियों को नाकाम करने की कोशिश की पर आखिर मेें सब हथियार भोथरे साबित हुए। उन्हें रातोंरात इस्तीफा देने के साथ अपना सरकारी बंगला खाली करना पड़ा। यह कोई इमरान खान के साथ ही हुआ हो ऐसा नहीं है, यह पाकिस्तान का 75 साल का इतिहास है जो थोड़े-थोड़े अंतराल में अपने को दोहरा रहा है। पाकिस्तानी नेताओं को एक बात साफ हो जानी चाहिए कि कश्मीर का राग अलापने से सत्ता में बने रहेंगे, यह कोई गारन्टी नहीं है। नए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने भी सत्ता संभालते ही कश्मीर राग अलापना शुरु कर दिया। कश्मीर राग अलापने या कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों को प्रोत्साहित कर अधिक दिनों तक राजनीतिक लाभ नहीं ले सकते। बल्कि देखा जाए तो कश्मीर राग अलाप कर पाकिस्तानी नेता सेना को ही सशक्त करते हैं और इसका खामियाजा उन्हें देर सबेर भुगतना पड़ता है। आज तो कश्मीर के हालात काफी बदल गए हैं। अलगाववादियों की हिम्मत जवाब दे गई है तो अब पाकिस्तान को पीओके की चिंता सताने लगी है। कश्मीर में धारा 170 हटाने और हालात में तेजी से सुधार का प्रयास ही है कि लाख विरोध के बावजूद पाकिस्तान को दुनिया के देशों में भारत के खिलाफ समर्थन देने वाला नहीं मिला। यह दुनिया के देशों में भारत की मजबूत उपस्थिति को भी दर्शाती है। कश्मीर राग अलापने या भारत विरोध से सरकारें चलने वाली नहीं है, यह पाकिस्तान के सत्ताधीशों को समझना होगा। नए प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने भी शपथ लेते ही यह गलती की है। पिछले सालों में जिस तरह से पाकिस्तान हर मोर्चे पर विफल रहा है और आतंकवादी गतिविधियों के कारण दुनिया के देशों से अलग-थलग होकर आर्थिक बदहाली से गुजर रहा है, ऐसे में पाकिस्तान के नुमांइदों को अपने घर को सुधारने की ओर ध्यान देना होगा। अन्यथा पाकिस्तान का भविष्य अंधकारमय रहेगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक यूक्रेन के बारे में भारत पर अमेरिका का दबाव बढ़ता ही चला जा रहा था और ऐसा लग रहा था कि हमारे रक्षा और विदेश मंत्रियों की इस वाशिंगटन-यात्रा के दौरान कुछ न कुछ अप्रिय प्रसंग उठ खड़े होंगे लेकिन हमारे दोनों मंत्रियों ने अमेरिकी सरकार को भारत के पक्ष में झुका लिया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण वह संयुक्त विज्ञप्ति है, जिसमें यूक्रेन की दुर्दशा पर खुलकर बोला गया लेकिन रूस का नाम तक नहीं लिया गया। उस विज्ञप्ति को आप ध्यान से पढ़ें तो आपको नहीं लगेगा कि यह भारत और अमेरिका की संयुक्त विज्ञप्ति है बल्कि यह भारत का एकल बयान है। भारत ने अमेरिका का अनुकरण करने की बजाय अमेरिका से भारत की हां में हां मिलवा ली। अमेरिका ने भी वे ही शब्द दोहराए, जो यूक्रेन के बारे में भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कहता रहा है। दोनों राष्ट्रों ने न तो रूस की भर्त्सना की और न ही रूस पर प्रतिबंधों की मांग की। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने यह मांग जरूर की कि दुनिया के सारे लोकतांत्रिक देशों को यूक्रेन के हमले की भर्त्सना करनी चाहिए। भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने यूक्रेन की जनता को दी जा रही भारतीय सहायता का भी जिक्र किया और रूस के साथ अपने पारंपरिक संबंधों का भी! ब्लिंकन ने भारत-रूस संबंधों की गहराई को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी किया। भारत प्रशांत-क्षेत्र में अमेरिकी चौगुटे के साथ अपने संबंध घनिष्ठ बना रहा है। इस यात्रा के दौरान दोनों मंत्रियों ने अंतरिक्ष में सहयोग के नए आयाम खोले, अब अमेरिकी जहाजों की मरम्मत का ठेका भी भारत को मिल गया है और अब भारत बहरीन में स्थित अमेरिकी सामुद्रिक कमांड का सदस्य भी बन गया है। इस यात्रा के दौरान अमेरिकी पक्ष ने भारत में मानव अधिकारों के हनन का सवाल भी उठाया। जयशंकर ने उसका भी करारा जवाब दिया। उन्होंने पूछा कि पहले बताइए कि आपके देश में ही मानव अधिकारों का क्या हाल है? अमेरिका के काले और अल्पसंख्यक लोग जिस दरिद्रता और असमानता को बर्दाश्त करते रहते हैं, उसे जयशंकर ने बेहिचक रेखांकित कर दिया। जयशंकर का अभिप्राय था कि अमेरिका की नीति ‘पर उपदेशकुशल बहुतेरे’ की नीति है। जहां तक रूसी एस-400 प्रक्षेपास्त्रों की खरीद का सवाल है, उस विवादास्पद मुद्दे पर भी जयशंकर ने दो-टूक जवाब दिया। उन्होंने कहा कि यह पाबंदी का अमेरिकी कानून है। इसकी चिंता अमेरिका करे कि वह किसी खरीददार पर पाबंदियां लगाएगा या नहीं? यह हमारी चिंता का विषय नहीं है। जयशंकर पहले अमेरिका में भारत के राजदूत रह चुके हैं। उन्हें उसकी विदेश नीति की बारीकियों का पता है। इसीलिए उन्होंने भारत का पक्ष प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने में कोई कोताही नहीं बरती।। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार हैं।)
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आर.के. सिन्हा डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 27 सितंबर 1951 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की केन्द्रीय कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया। दोनों में हिन्दू कोड बिल पर गहरे मतभेद उभर आए थे। बाबा साहेब ने अपने इस्तीफे की जानकारी संसद में दिए अपने भाषण में दी। वे दिन में तीन-चार बजे अपने सरकारी आवास वापस आए। इस्तीफे के अगले ही दिन 22 पृथ्वीराज रोड के अपने आवास को छोड़कर वे 26 अलीपुर रोड में शिफ्ट कर गए। कैबिनेट से बाहर होने के बाद बाबा साहेब का सारा वक्त अध्ययन और लेखन में गुजरने लगा। उन्होंने 26 अलीपुर रोड में रहते हुए ही ‘'द बुद्धा ऐण्ड हिज़ धम्मा' नाम से अपनी अंतिम पुस्तक लिखी। इसमें डॉ. अंबेडकर ने भगवान बुद्ध के विचारों की व्याख्या की है। इसका हिन्दी, गुजराती, तेलुगु, तमिल, मराठी, मलयालम, कन्नड़, जापानी सहित और कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है। बाबा साहेब की 26 अलीपुर रोड में ही दिसम्बर 1956 में मृत्यु हुई। दरअसल, 1951 से लेकर जीवन के अंतिम समय तक उनके करीबी सहयोगियों-शिष्यों में तीन-चार लोग ही रहे। उन सबकी बाबा साहेब के प्रति उनके विचारों को लेकर आस्था अटूट थी। भगवान दास भी उनमें से एक थे। बाबा साहेब के विचारों को आमजन के बीच में ले जाने में भगवान दास का योगदान अतुलनीय रहा। वे बाबा साहेब से उनके 26 अलीपुर रोड स्थित आवास में मिला करते थे। शिमला में 1927 में जन्मे भगवान दास एकबार बाबा साहेब से मिलने दिल्ली आए तो यहीं के होकर रह गए। उन्होंने बाबा साहेब की रचनाओं और भाषणों का सम्पादन किया और उन पर पुस्तकें लिखीं। उनका "दस स्पोक अंबेडकर" शीर्षक से चार खण्डों में प्रकाशित ग्रन्थ देश और विदेश में अकेला दस्तावेज़ है, जिनके जरिये बाबा साहेब के विचार सामान्य लोगों और विद्वानों तक पहुंचे। उन्हें दलितों की एकता में रूचि थी और उन्होंने बहुत-सी जातियों मसलन धानुक, खटीक, बाल्मीकि, हेला, कोली आदि को अम्बेडकरवादी आन्दोलन में लेने के प्रयास किये। जमीनी स्तर पर काम करते हुए भी उन्होंने दलितों के विभिन्न मुद्दों पर लेख लिखे जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। भगवान दास ने सफाई कर्मचारियों पर चार पुस्तकें और धोबियों पर एक छोटी पुस्तक लिखी। उनकी बहुचर्चित पुस्तक "मैं भंगी हूँ" अनेक भारतीय भाषाओं में अनुदित हो चुकी है और वह दलित जातियों के इतिहास का दस्तावेज है। एकबार दलित चिंतक एस.एस दारापुरी बता रहे थे कि भगवान दास जी दबे-कुचले लोगों के हितों के प्रति जीवन भर समर्पित रहे। उन्होंने कुल 23 पुस्तकें लिखीं। भगवान दास ने भारत में दलितों के प्रति छुआछूत और भेदभाव के मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने का ऐतिहासिक काम किया। भगवान दास का 83 साल की उम्र में 2010 में निधन हो गया। बाबा साहेब की निजी लाइब्रेरी में हजारों किताबें थीं। उन्हें अपनी लाइब्रेरी बहुत प्रिय थी। उस लाइब्रेरी को देखते थे देवी दयाल। वे बाबा साहेब से 1943 में जुड़े। बाबा साहेब जहां कुछ भी बोलते देवी दयाल उसे प्रवचन मानकर नोट कर लिया करते थे। कहना कठिन है कि उन्हें यह प्रेरणा कहां से मिली थी। वे बाबा साहेब के पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले लेखों और बयानों आदि की कतरनों को भी रख लेते थे। बाबा साहेब के सानिध्य का लाभ देवी दयाल को यह हुआ कि वे भी खूब पढ़ने लगे। वे बाबा साहेब के बेहद प्रिय सहयोगी बन गए। उन्होंने आगे चलकर ‘डॉ. अंबेडकर की दिनचर्या’ नाम से एक महत्वपूर्ण किताब ही लिखी। उसमें अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां हैं। मसलन कि 30 जनवरी, 1948 को बापू की हत्या के बाद बाबा साहेब की क्या प्रतिक्रिया थी? बापू की हत्या का समाचार सुनकर बाबा साहेब स्तब्ध हो जाते हैं। वे पांचेक मिनट तक सामान्य नहीं हो पाते। फिर कुछ संभलते हुए बाबा साहब कहते हैं कि ‘बापू का इतना हिंसक अंत नहीं होना चाहिए था।” देवी दयाल को इस किताब को लिखने में उनकी पत्नी उर्मिला जी ने बहुत सहयोग दिया था क्योंकि पति की सेहत खराब होने के बाद वही पुरानी डायरी के पन्नों को सफाई से लिखती थीं। देवी दयाल का 1987 में निधन हो गया। नानक चंद रतू भी बाबा साहेब के साथ छाया की तरह रहा करते थे। बाबा साहेब 1942 में वायसराय की कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में दिल्ली आ गए थे। उन्हें 22 प़ृथ्वीराज रोड पर सरकारी आवास मिला। बस तब ही लगभग 20 साल के रत्तू उनके साथ जुड़ गए। वे टाइपिंग भी जानते थे। रत्तू को बाबा साहेब के समाज के कमजोर वर्गों के लिए कार्यों और संघर्षों की जानकारी थी। बाबा साहेब ने उत्साही और उर्जा से लबरेज रत्तू को अपने पास रख लिया। उस दौर में बड़े नेताओं और आम जनता के बीच दूरियां नहीं हुआ करती थी। रत्तू पंजाब के होशियारपुर से थे। उसके बाद तो वे बाबा साहेब की छाया की तरह रहे। बाबा साहेब जो भी मैटर उन्हें डिक्टेट करते वह उसकी एक कॉर्बन कॉपी अवश्य रख लेते। वे नौकरी करने के साथ पढ़ भी रहे थे। बाबा साहेब ने 1951 में नेहरू जी की कैबिनेट को छोड़ा तब बाबा साहेब ने रत्तू जी को अपने पास बुलाकर कहा कि वे चाहते हैं कि सरकारी आवास अगले दिन तक खाली कर दिया जाए। ये अभूतपूर्व स्थिति थी। रत्तू नए घर की तलाश में जुट गए। संयोग से बाबा साहेब के एक मित्र ने उन्हें 26 अलीपुर रोड के अपने घर में शिफ्ट होने का प्रस्ताव रख दिया। बाबा साहेब ने हामी भर दी। रतू जी ने अगले ही दिन बाबा साहेब को नए घर में शिफ्ट करवा दिया। मतलब उनमें प्रबंधन के गुण थे। बाबा साहेब की 1956 में सेहत बिगड़ने लगी। रत्तू जी उनकी दिन-रात सेवा करते। वे तब दिन-रात उनके साथ रहते। बाबा साहेब के निधन के बाद रतू जी सारे देश में जाने लगे बाबा साहेब के विचारों को पहुंचाने के लिए। 2002 में मृत्यु से पहले उन्होंने बाबा साहब के जीवन के अंतिम वर्षों पर एक किताब भी लिखी। बाबा साहेब के इन सभी सहयोगियों को भी याद रखा जाना चाहिए। ये सब उनके साथ निःस्वार्थ भाव से जुड़ गए थे। अब कहां मिलेंगे इस तरह के फरिश्ते। (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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डॉ. अंबेडकर जयंती (14 अप्रैल) पर विशेष डॉ. राघवेंद्र शर्मा आज जब भारतीय जनता पार्टी डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती के उपलक्ष्य में सामाजिक न्याय पखवाड़ा मना रही है, तब मन में विचार आता है कि सामाजिक न्याय के मामले में भारतीय जनमानस की अवधारणा क्या है। इस विषय पर यदि गहरी दृष्टि डाली जाए तो हम तय कर पाएंगे कि भारत को अथवा भारत सरकार को या फिर यहां के जनमानस को सामाजिक न्याय पखवाड़ा मनाने का नैतिक अधिकार है भी या नहीं। इसकी वास्तविकता जानने के लिए हमें डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और उनके अभिन्न मित्र रहे जोगेंद्र नाथ मंडल के जीवन प्रसंग से जुड़े पहलुओं को बारीकी से देखना होगा। बहुत कम लोग जानते हैं कि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और जोगेंद्र नाथ मंडल के बीच विचारों का सामंजस्य काफी गहरे तक स्थापित था। उदाहरण के लिए- यह दोनों नेता ऐसा मानते रहे कि दलितों का भला तभी हो सकता है जब अंग्रेजों और कांग्रेस को इनके मामलों में दखलअंदाजी करने से वर्जित कर दिया जाए। शायद यही वजह रही कि वर्ष 1940 में अनुसूचित जाति संघ की स्थापना अविभाजित बंगाल में हुई, तब उसके संस्थापक अंबेडकर और मंडल ही बने। इस घटना के बाद से इन दोनों नेताओं के जीवन प्रसंगों में इतने नाटकीय मोड़ आए, जिनसे यह साबित हो गया कि सामाजिक न्याय के मामले में भारतीय जनमानस बेहद स्पष्ट और सकारात्मक सोच रखता है। आगे देखें- जब देश का विभाजन हुआ तब जोगेंद्र नाथ मंडल को लगा कि कांग्रेस शासित भारत में दलितों का शायद ही भला हो पाए। इसी सोच के चलते उन्होंने दलितों को इस्लाम आधारित पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा किया और उन्हें भारी लाव-लश्कर के साथ उस ओर ले जाने में सफल रहे। यहां तक कि उन्हीं की कार्यप्रणाली के चलते बंगाल क्षेत्र का बहुत बड़ा भूभाग हिंदू बाहुल्य होते हुए भी दलितों के साथ पाकिस्तान के हिस्से में चला गया। चूंकि जोगेंद्र नाथ मंडल मुस्लिम लीग के संस्थापक और पाकिस्तान के कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना के काफी करीबी थे। इसलिए वे पाकिस्तान सरकार में कानून मंत्री भी बने। यही नहीं, उन्होंने पाकिस्तान के संविधान रचना में भी निर्णायक भूमिका निभाई। लेकिन जल्दी ही उन्हें यह एहसास हो गया कि पाकिस्तान में तो सामाजिक न्याय की अवधारणा सिरे से गायब है। अल्पसंख्यक हिंदुओं से दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाना वहां की सरकार और जन सामान्य के व्यवहार में शामिल है। उन्होंने देखा कि जिन दलितों को वे शेष हिंदू समाज के खिलाफ भड़का कर पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा करने में कामयाब हुए थे, उनका भी पाकिस्तान में बुरा हाल है। मोहम्मद अली जिन्ना के बेहद नजदीक होने के बावजूद और सरकार में काबीना मंत्री रहते हुए भी मंडल उनकी हिफाजत नहीं कर पाए। अंततः उन्होंने वर्ष 1950 में पाकिस्तान सरकार को मंत्री पद से अपना इस्तीफा सौंप दिया और हमेशा के लिए भारत लौट आए। आपको बता दें कि उन्होंने अपनी जिंदगी के अंतिम 18 वर्ष भारत के पश्चिम बंगाल में गुजारे और अंततः यह माना कि सामाजिक न्याय की अवधारणा भारतीय जनमानस की रगों में रक्त बनकर दौड़ रही है। अब हमें सामाजिक न्याय के प्रति भारतीय प्रतिबद्धता की तस्वीर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के जीवन प्रसंगों में भी देखनी होगी। उदाहरण के लिए- यह उल्लेख करना कोई बड़ा रहस्योद्घाटन का विषय नहीं है कि जब 1950 में मंडल भारत लौटे तब हमारे देश का संविधान हमारी स्वतंत्रता को पूर्णता प्रतिपादित कर रहा था। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर संविधान निर्माता समिति के अध्यक्ष बन चुके थे और देश के प्रथम कानून मंत्री के पद को गौरवान्वित कर रहे थे। वह भी तब, जबकि उनके कांग्रेस से काफी गहरे मतभेद रहे। क्योंकि वे ऐसा मानते थे कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार दलितों का उतना ही शोषण करती है, जितना आजादी के पहले अंग्रेज शासक करते रहे। फिर भी उन्होंने जो संविधान इस देश को सौंपा, उसका भारतीय जनमानस में काफी सम्मान है। यही वजह है कि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर केवल दलित नेता ना रहकर इस देश में संविधान निर्माता के रूप में जाने पहचाने जाते हैं। लिखने का आशय यह कि हमारे यहां दलित, अगड़ा, पिछड़ा आदि शब्दों का प्रयोग राजनीतिक लाभ-हानि की दृष्टि से कुछ अवसरवादी दलों और नेताओं द्वारा किया जाता रहता है, इससे किसी को इनकार नहीं। लेकिन जब सामाजिक न्याय की बात आती है तो हम देखते हैं कि हमारे यहां का जनमानस इसके लिए पूरी तरह स्वयं को सक्षम सिद्ध करता आया है। यहां के एक महाकवि कह गए हैं- जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान।। इस रचना को भारतीय जनमानस में उतना ही सम्मान प्राप्त है, जितना एक धार्मिक व्यक्ति गीता, गुरुग्रंथ साहिब, बाईबिल, अथवा कुरान को देता आया है। इस संदर्भ में यही कहना उचित रहेगा कि डॉक्टर भीमराव अंबेडकर या फिर महात्मा ज्योतिबा फुले की स्मृति में यदि इस देश और दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी सामाजिक न्याय पखवाड़ा मनाने का संकल्प ग्रहण करती है तो वह भारतीय जनमानस की इस बाबत गहरे तक स्थापित अवधारणा की सच्चाई को प्रतिपादित ही कर रही है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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सियाराम पांडेय 'शांत' भारतीय जनता पार्टी जीत पर जीत दर्ज कर रही है। उत्तरप्रदेश विधान परिषद के स्थानीय प्राधिकारी चुनाव में उसकी शानदार जीत ने यह साबित कर दिया है कि उत्तर प्रदेश के गांव, ब्लॉक, तहसील और जिला स्तर तक उसकी पकड़ मजबूत हुई है। उसकी नीति, नीयत और कार्य संस्कृति पर जनता का विश्वास बढ़ा है। विधानसभा चुनाव में तो समाजवादी पार्टी को 111 सीटें मिलीं भी थीं लेकिन विधान परिषद चुनाव में वह खाता भी नहीं खोल पाई है। इस पर सपा प्रमुख की जो प्रतिक्रिया आई है, वह उनकी बौखलाहट का ही इजहार करती है। कायदे से तो उन्हें हार पर आत्ममंथन करना चाहिए लेकिन वे भाजपा पर ही लोकतंत्र को कमजोर करने का आरोप लगा रहे है लेकिन जिस तरह उन्हें शिवपाल यादव, आजम खान और बर्क जैसे बड़े नेताओं का विरोध झेलना पड़ रहा है, वह भी उनके राजनीतिक पराभव का एक बड़ा कारण हो सकता है। भारतीय राजनीति का यह दुर्भाग्य रहा है कि यहां पराजय के कारणों पर विचार तो होता नहीं, उस पर पर्दा डालने की कोशिशें जरूर होती रही हैं। विधान परिषद की 36 में से 9 सीटों पर तो भाजपा प्रत्याशी पहले ही निर्विरोध निर्वाचित हो चुके थे लेकिन जिन 27 सीटों पर चुनाव हुए, उनमें भी 24 पर भगवा लहराना बड़ी बात है लेकिन जिस तरह वाराणसी में एक अपराध माफिया की पत्नी भाजपा प्रत्याशी को तीसरे स्थान पर छोड़ते हुए जीती है, उसे क्या कहेंगे। इसमें सुशासन की सुगंध तो आती नहीं। सपा प्रमुख मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के 18 स्वजातीय के विधान परिषद चुनाव जीतने पर तंज भी कस रहे हैं कि यह कैसा सबका साथ, सबका विकास? हर विधान परिषद चुनाव में पराजित दल ने सत्तारूढ़ दल पर कुछ इसी तरह के आरोप लगाए हैं और उनकी फलश्रुति नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह रही है। जब सपा सरकार थी तब सपा के 31 प्रत्याशी जीते थे।मायावती और मुलायम सिंह के कार्यकाल में भी एमएलसी निकाय चुनाव में क्रमशः बसपा को 34 और सपा को 24 सीटें मिली थीं। कांग्रेस सत्ता में थी तो उसके सर्वाधिक विधान पार्षद चुने गए थे। ऐसे में अगर अखिलेश यह आरोप लगा रहे हैं कि योगी सरकार ने गड़बड़ी की है तो क्या उनके भी दौर में चुनावी गड़बड़ी हुई थी। इस सवाल का जवाब तो उन्हें देना ही चाहिए। साथ ही जनता को यह भी बताना चाहिए कि उनका गढ़ कही जाने वाली आजमगढ़ व इटावा-फर्रुखाबाद सीट भी सपा क्यों हारी? क्या शिवपाल यादव के अच्छे दिन का यही इशारा था? क्या यादवों और मुसलमानों के बीच अखिलेश की पकड़ ढीली पड़ रही है। आजम खान अगर नई पार्टी बनाते हैं तो अल्पसंख्यक वर्ग क्या सपा के प्रति इसी तरह प्रतिबद्ध रह पाएगा, यह अपने आप में बड़ा सवाल है जिसका जवाब अगर अखिलेश ने समय रहते न तलाश तो उसकी राजनीतिक जमीन को छिनते देर नहीं लगेगी। चार दशक के उत्तर प्रदेश विधान परिषद के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब वहां किसी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत मिला है। इससे पूर्व 1982 में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश विधान परिषद में पूर्ण बहुमत मिला था। विधान परिषद में बहुमत का आंकड़ा 51 का है। अब भाजपा के 67 एमएलसी हो चुके हैं। यानी बहुमत के आंकड़े से भी 16 ज्यादा। उच्च सदन में अब समाजवादी पार्टी के 17, बसपा के चार, कांग्रेस के एक, अपना दल (सोनेलाल) के एक सदस्य हैं। वर्ष 2018 में 13 सदस्य निर्विरोध ही चुनाव जीत गए थे। इसमें योगी आदित्यनाथ, केशव प्रसाद मौर्य, डॉ. दिनेश शर्मा समेत 10 सदस्य भाजपा के थे। इसके अलावा अपना दल (सोनेलाल) और सपा के एक-एक सदस्य भी चुने गए थे। 2020 में शिक्षक एमएलसी के चुनाव हुए थे। तब छह सीटों में से तीन पर भाजपा, एक पर सपा और दो पर निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीत हासिल की थी। 2020 में ही पांच एमएलसी की सीटों के लिए चुनाव हुए थे। तब तीन पर भाजपा और एक पर समाजवादी पार्टी की जीत हुई थी। 2021 में भाजपा के चार सदस्यों को राज्यपाल ने नामित किया था। राजनीति में हार-जीत सामान्य बात है। लेकिन लगता है कि राजनीति में अब सोच-समझ का तत्व गायब हो रहा है। काश इस पर विचार हो पाता।
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सुरेश हिंदुस्तानी पाकिस्तान में पिछले कई महीनों से चली आ रही राजनीतिक उथल-पुथल भले इमरान खान की सत्ता जाने के बाद समाप्त होती दिखाई दे रही है, लेकिन दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि पाकिस्तान राजनीतिक भंवर से निकलने में सफल हो गया। इसका मूल कारण यही माना जा रहा है कि इमरान को सत्ता से हटाने के लिए पाकिस्तान के विपक्षी राजनीतिक दल जिस प्रकार लामबंद हुए, वह समय के हिसाब से अनुकूल कहे जा सकते हैं लेकिन यह लम्बे समय तक राजनीतिक पिच पर जमे रहेंगे, इसकी संभावना