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14 January 2025ज्यां द्रेज
हम प्रतिस्पर्धा की दुनिया में रहते हैं। छोटी उम्र से ही बच्चे स्कूल में सबसे अच्छे अंक पाने के लिए प्रतिस्पर्धा करना सीखते हैं। लेकिन कुशाग्र बच्चों को पढ़ाई में वंचित बच्चों की मदद करना नहीं सिखाया जाता। उन्हें कक्षा में दूसरे या तीसरे नंबर पर आने के बजाय टॉपर बनना सिखाया जाता है।
वयस्क जीवन में भी यही प्रतिस्पर्धा जारी रहती है। विद्वान दूसरे विद्वानों से, खिलाड़ी दूसरे खिलाड़ियों से, कलाकार दूसरे कलाकारों से, राजनेता दूसरे राजनेताओं से प्रतिस्पर्धा करते रहते हैं। अर्थव्यवस्था भी आखिर प्रतिस्पर्धा पर ही आधारित है।
मजदूर रोजगार के लिए, दुकानदार ग्राहकों के लिए, ठेकेदार ठेके के लिए और मीडिया आपके ध्यान के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। अर्थशास्त्री अक्सर हमें बताते हैं कि यह अच्छी बात है। कि प्रतिस्पर्धा अर्थव्यवस्था को गतिशीलता प्रदान करती है। यह हर किसी को कड़ी मेहनत करने के लिए मजबूर करती है।
हालांकि, प्रतिस्पर्धा से समस्याएं भी पैदा हो सकती हैं। मसलन, अगर खनन कम्पनियां मुनाफे के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगी तो क्या वे पर्यावरण का ख्याल रखेंगी? नहीं, वे खुले स्थानों पर कचरा फेंककर पैसे बचाएंगी। अगर डॉक्टर मरीजों के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे, तो क्या वे किसी ऐसे व्यक्ति- जिसे साधारण सर्दी है- से कहेंगे कि उसे बस आराम और अच्छे भोजन की जरूरत है? नहीं, डॉक्टर एंटीबायोटिक या स्टेरॉयड लिखेंगे, ताकि मरीज तुरंत राहत महसूस करे।
अत्यधिक प्रतिस्पर्धा के नुकसान हमें चारों तरफ दिखते हैं। प्रतिस्पर्धा के दबाव के कारण लोग जीतने के लिए अनुचित साधनों का उपयोग करने लगते हैं। विद्वान आत्मप्रचार के लिए फर्जी पत्रिकाओं में शोध-पत्र छपवाते हैं। राजनेता वोट जीतने के लिए काले धन का उपयोग करते हैं। खिलाड़ी अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए ड्रग्स तक लेते हैं। संगीतकार अपनी रचनात्मकता को छोड़कर वह धुन बजाते हैं, जो बाजार में सबसे अधिक बिकती है।
जबकि अगर सच कहें तो जीवन में कई बेहतरीन चीजें प्रतिस्पर्धा के बजाय सहयोग से आती हैं। पारिवारिक जीवन से लेकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन तक, सहयोग ही काम आया है। और सोचिए, अगर माता-पिता और शिक्षक स्कूल को बेहतर बनाने में परस्पर-सहयोग करें तो बच्चों के जीवन में कितना बदलाव आ सकता है। इसी तरह, जब डॉक्टर और नर्स एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हैं, तब स्वास्थ्य केंद्र और ढंग से काम करने लगता है।
आर्थिक और सामाजिक जीवन में प्रतिस्पर्धा और सहयोग दोनों का अपना स्थान है। लेकिन दुर्भाग्य से, प्रतिस्पर्धा की संस्थाएं जहां अच्छी तरह से विकसित हैं, वहीं सहयोग की संस्थाएं नहीं। प्रतिस्पर्धा और सहयोग एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। जब युवा फुटबॉल मैच खेलते हैं, तो क्या वे प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं या सहयोग? दोनों! वे गोल करने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, लेकिन खेल के नियमों का पालन करने के लिए सहयोग भी करते हैं।
झारखंड में- जहां मैं रहता हूं- आदिवासियों में सहयोग की मजबूत संस्कृति है। वे रोजमर्रा की जिंदगी में आसानी से सहयोग करते हैं। आदिवासी समुदायों में आपसी सहयोग कई अलग-अलग उद्देश्यों के लिए किया जाता है जैसे कि धान की रोपाई, घर बनाना और शादी समारोह का आयोजन करना। सहयोग की यह संस्कृति उनको बहुत मदद करती है।
सहयोग की संस्कृति से हमें बहुत कुछ सीखना है। मैं तो यह भी कहूंगा कि अगर हम वैश्विक स्तर पर सहयोग करना नहीं सीखेंगे, तो मानव प्रजाति शायद ज्यादा समय तक जीवित नहीं रह पाएगी। अभी हम सामूहिक आत्मघात की ओर बढ़ रहे हैं क्योंकि हम जलवायु-परिवर्तन और परमाणु युद्ध जैसे खतरों से बचने के लिए सहयोग करने में विफल रहे हैं।
सहयोग का मुख्य दुश्मन असमानता है। सहयोग समान लोगों के बीच अच्छा काम करता है। यही कारण है कि आदिवासी समुदायों में सहयोग दिखता है, जहां जाति व्यवस्था नहीं है और अधिकांश लोगों के पास थोड़ी जमीन है। लेकिन धन, जाति या शक्ति के हिसाब से असमान लोगों के बीच सहयोग मुश्किल होता है।
प्रतिस्पर्धा शासक-वर्गों और जातियों की विचारधारा है। प्रतिस्पर्धा से उन्हें लाभ होता है, क्योंकि इसमें वही विजयी होते हैं। इसलिए वे प्रतिस्पर्धा की प्रशंसा करते हैं और सहयोग का अवमूल्यन करते हैं। अगर हम सहयोग को बढ़ावा देना चाहते हैं, तो हमें इस विचारधारा का मुकाबला करना होगा और समाज में अधिक समानता भी लानी होगी।
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2 September 2024
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