आनंद ही ब्रह्म है
bhopal, Bliss is Brahman

हृदयनारायण दीक्षित

आनंद सबकी अभिलाषा है। प्रसन्नता मापने का मानक तय करना कठिन है। लेकिन पिछले 10 वर्ष से आनंद या हैप्पीनेस की मात्रा जानने का काम जारी है। इसकी शुरुआत वर्ष 2012 में हुई थी। लगभग 150 देशों को इस रैंकिंग में शामिल किया जाता है। वैसे, व्यक्ति-व्यक्ति की प्रसन्नता के मानक अलग-अलग होते हैं। कोई सुन्दर किताब पढ़कर आनंदित होता है। कोई अपने मन का वातावरण पाकर प्रसन्न होता है। कोई झगड़ालू है। उसे कलह में सुख मिलता है। प्रसन्नता मापना आसान काम नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक सूचकांक की वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट 2022 आयी है। प्रसन्न और अप्रसन्न देशों की रैंकिंग बतायी गयी है। मूल्यांकन के आधार विचारणीय हैं। इसमें प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद एक मानक है। जीवन चुनने की स्वतंत्रता और उदारता भी मानक हैं। सामाजिक समर्थन को भी प्रसन्नता का मानक कहा गया है। इस रिपोर्ट में फिनलैण्ड पहले स्थान पर आया है। फिनलैण्ड विशाल जंगलों और सुन्दर झीलों का देश है। प्रति व्यक्ति आय, सामाजिक विश्वास, उदारता और जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय लेने की स्वतंत्रता है। प्रसन्नता के लिए डेनमार्क दूसरे स्थान पर है। तीसरे स्थान पर आइसलैण्ड है, चौथे स्थान पर स्विटजरलैण्ड और पांचवें स्थान पर नीदरलैण्ड है। अमेरिका 16वें स्थान पर है। चीन 72वाॅं है। ब्रिटेन 17वाॅं है। अपना भारत प्रसन्नता के इस मानक में 136वाॅं है। पाकिस्तान 121वाॅं है। अफगानिस्तान की रैंकिंग सबसे निचले स्थान पर है।

 

प्रसन्नता मापने के यह मानक संयुक्त राष्ट्र के हैं। भारत में प्रसन्नता के मानक भिन्न हैं। यहां प्रसन्नता विधायी मूल्य हैं। किसी के प्रसन्न होने या न होने के मानक जीडीपी आदि से तय नहीं हो सकते। प्रसन्नता आंतरिक होती है। भारत प्राचीनकाल से ही प्रसन्न राष्ट्र रहा है। ऋग्वेद में सोमदेव से प्रसन्नता प्राप्ति की कामना हैं, ‘‘हे सोमदेव मुझे ऐसे स्थान पर रखो जहाॅं प्रचुर अन्न हो। जहाँ सदा नीरा नदियाॅं हों, मुद, मोद, प्रमोद हों, मुझे वहाँ स्थान दो। जहाँ विवस्वान का पुत्र राजा है वहाॅं स्थान दो।’’ इसमें मुद, मोद, प्रमोद तीन शब्द आते हैं। तीनों प्रसन्नता बोधक हैं। नदियों का सुन्दर प्रवाह, प्रचुर अन्न सुन्दर राज्य व्यवस्था प्रसन्नता के घटक हैं।

तैत्तरीय उपनिषद् उत्तर वैदिककाल की रचना है। ऋषि कहते हैं कि ”हम आनंद की मीमांसा करते हैं, “मनुष्य स्वस्थ हो सदाचारी हो, सांस्कृतिक स्वभाव वाला हो। सदाचार की शिक्षा देने में समर्थ हो। शरीर रोग रहित हो। वह धन सम्पन्न हो। यह सब मनुष्य के बड़े सुख हैं।’’ लेकिन ऐसे आनंद से मानव गंधर्वों का आनंद 100 गुना ज्यादा है। यह आनंद अकामहत व्यक्ति को स्वभाव से ही प्राप्त है। मनुष्य गंधर्व की अपेक्षा देवगंधर्व आनंद 100 गुना अधिक बताया गया है। अकामहत व्यक्ति को यह आनंद भी स्वाभाविक रूप से प्राप्त है।’’

आगे कहते हैं देव गंधर्व आनंद से पीतरों का आनंद 100 गुना ज्यादा है। यह भी भोगों के प्रति निष्काम व्यक्ति को स्वभाव रूप से प्राप्त है। इसी तरह पितरों के आनंद से ‘आजानज‘ नामक देवों का आनंद 100 गुना ज्यादा है। उच्च लोकों में रहने वाले हमारे पितरों के आनंद से ‘आजानज‘ आनंद 100 गुना है। लेकिन भोगों के प्रति निष्काम अकामहत व्यक्ति को यह आनंद सहज ही प्राप्त हैै। आजानज आनंद से कर्मदेवानाम आनंद 100 गुना ज्यादा है। यह आनंद भी भोगों से कामना रहित को स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। देवताओं के आनंद से 100 गुना ज्यादा इन्द्र का आनंद हैै। भोगों से दूर रहने वाले लोगों को यह आनंद भी स्वतः प्राप्त होता है। इसी तरह इन्द्र के आनंद से वृहस्पति का आनंद 100 गुना है। यह आनंद भी भोगों से विरक्त वेदवेत्ता को प्राप्त है। वृहस्पति के आनंद से 100 गुना ज्यादा आनंद प्रजापति का आनंद है। भोगों से विरक्त अकामहत व्यक्ति को यह आनंद भी स्वतः प्राप्त है। प्रजापति के आनंद से 100 गुना ब्रम्ह का आनंद है। यह भी भोगों से विरक्त अकामहत व्यक्ति को प्राप्त है।

 

आनंद सबकी अभिलाषा है। सभी प्राणी आनंद के प्यासे हैं। भारतीय चिन्तन में आनंद की गहन मीमांसा की गयी है। सामान्यतया लोगों को उपयोगी वस्तुओं की प्राप्ति में आनंद दिखायी पड़ता है। यह वास्तव में आनंद नहीं है। अभाव का अभाव है। अल्पकालिक अभाव दूर होने पर अल्पकालिक सुख मिलता है। आनंद इससे भिन्न है। जीवन यापन के लिए जरूरी उपाय करना व्यक्ति और राज्य व्यवस्था का कर्तव्य है। लेकिन इनसे आनंद नहीं मिलता। अन्तःकरण में अपूर्णता बनी रहती है। छान्दोग्य उपनिषद में सनत् कुमार ने नारद को बताया कि अल्प में दुख है। पूर्णता में सुख है। उपनिषद में पूर्णता को ‘‘भूमा’’ कहा गया है। जहाँ पूर्णता है वहाॅं आनंद है। आनंद आखिरकार है क्या? प्रसन्न/अप्रसन्न दर्शन विज्ञान की चुनौती हैं। क्या सुन्दर वाहन, महंगे घर और इस तरह की अन्य वस्तुऐं आनंद का सृजन कर सकती हैं। यश भी आनंद है। प्रसन्नता में आनंद लोभ है ? लेकिन इसमें भी अप्रसन्नता रहती है। तैत्तरीय उपनिषद में ऋषि भ्रगु ने पिता की आज्ञानुसार यह निश्चय किया कि विज्ञानस्वरूप चेतना जीव आत्मा है। ब्रम्ह है। उन्होंने आनंद का ज्ञान दिया। ब्रम्ह तत्व समझाया और आनंद को ब्रम्ह बताया।

 

भृगु ने संयमपूर्वक तप किया और निष्कर्ष निकाला कि आनंद ही ब्रह्म है। आनंद से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं। आनंद से ही जीवित रहते हैं और जीवन के अन्त में आनंद में ही लौट जाते हैं। आनंदमय परम तत्व अन्नमय है। स्थूल रूप है। ब्रह्म के लक्षण आनंद में ही प्राप्त होते हैं। आनंद ब्रह्म है। ब्रह और आनंद पर्यायवाची हैं। समूचे विश्व में सारे कर्म आनंद के लिए ही सम्पन्न होते हैं। मुझे लगता है कि आनंद का स्थूल रूप अस्तित्व है। स्थूल विश्व का सूक्ष्म रूप, लेकिन सबको प्रभावित करने के लिए आनंद ही है। वायु आनंद प्राप्ति के लिए आनंदित होकर बहती है। वर्षा आनंद में प्रवाहित होती है। जल आनंद गोत्री है। जीवन के सभी कार्य व्यापार आनंद में ही सम्पन्न होते हैं और आनंद का सृजन करते हैं।

आनंद के उपकरण भौतिक हैं। आनंद का आनंद अध्यात्मिक है। ईश्वर आनंद है। आनंद दाता है। आनंद का सृजनकर्ता है। अस्तित्व को आनंद से परिपूरित करता है। ज्ञान की यह परंपरा वैदिककाल के पहले से अब तक यथावत है और निरंतरता में भी है। पूर्वजों ने शरीर में पाँच मुख्य कोष बताएं हैं। पहला अन्नमय कोष है। शरीर की यह पर्त अन्न से बनती है। दूसरा कोष प्राणमय है। प्राण महत्वपूर्ण है। प्राण से प्राणी है। तीसरा मनोमय कोष है। यह मन प्रभाहित है। मनोमय शरीर की विशिष्ट महिमा है। इसके बाद विज्ञानमय कोष है। विज्ञानमय कोष ज्ञानकोष है। उसके बाद पाँचवां कोष आनंदमय है। आनंद से भरापूरा है। वस्तुतः आनंद है। शरीर में बाहर की ओर से भीतर की ओर यात्रा में आनंदमय कोष अंतिम है। भीतर से बाहर की यात्रा में आनंदमय कोष प्रथमा है। ज्ञान का परिणाम आनंद है। आनंद का परिणाम सर्वोच्च ज्ञान है।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

Dakhal News 17 April 2022

Comments

Be First To Comment....

Video
x
This website is using cookies. More info. Accept
All Rights Reserved © 2024 Dakhal News.