परिश्रम और विनम्रता को अपने जीवन में उतारिए
Bring hard work and humility into your life

 

 

 

पं. विजयशंकर मेहता

तीन ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था यानी छह सिंगापुर, नौ हांगकांग, पंद्रह न्यूजीलैंड या कतर, 30 बहरीन या फिर एक भारत! नाराज प्रकृति ने बीते एक दशक में दुनिया में एक भारत बराबर अर्थव्यवस्था को नेस्तनाबूद कर दिया है। आर्थिक विनाश का यह अब तक का सबसे ताजा हिसाब है, जो कंपनियों की बैलेंस शीट में शामिल हो रहा है। सरकारों के बजट औंधे मुंह पड़े हैं। बैंकों को नए किस्म के डिफॉल्ट का खतरा है। बीमा कंपनियों को समझ नहीं आ रहा कि कैसा बीमा बनाएं। क्योंकि जिन इलाकों में कभी बाढ़ या सूखा नहीं आता था, वहां भी सब कुछ उलट-पुलट गया है। दूसरा विश्व युद्ध अगर नहीं हुआ होता तो नाराज प्रकृति से आर्थिक नुकसानों की गिनती 1930 में अमेरिका के डस्ट बाउल से शुरू होती, जब मिडवेस्ट से उठी हजारों टन धूल पश्चिमी हिस्से में फसल, जीविका और पर्यावरण को निगल गई थी। प्रकृति के इस कोप ने अमेरिका की खेती को हमेशा के लिए बदल दिया। नुकसानों का हिसाब : नाराज प्रकृति से हुए नुकसानों का आर्थिक हिसाब 2003 में यूरोप की भयानक गर्मी से शुरू होता है। 1972 में स्टॉकहोम में पर्यावरण की यूएन की पहली जुटान से लेकर 1985 में ओजोन की पर्त में छेद की तलाश तक बदलती कुदरत के आर्थिक असर समझे जाने लगे थे। 21वीं सदी में इस तरह का पहला संकट था कैटरीना चक्रवात। अगस्त 2005 में मेक्सिको की खाड़ी के तटीय इलाके में आया यह तूफान 125 अरब डॉलर के नुकसान की बलि लेकर गया। बदलती कुदरत बुनियादी ढांचे, बढ़ते शहरों, खेतों और उद्योगों के लिए नई सबसे भयानक चुनौती है। मौसमी आपदाएं हर साल नेपाल जैसी करीब पांच अर्थव्यवस्थाएं खत्म कर रही हैं यानी 100 अरब डॉलर का नुकसान। 2017 से 2021 तक बीमा कंपनियों ने करीब 300 अरब डॉलर के नुकसान का भुगतान किया। 2022 में यह नुकसान करीब तीन गुने हो गए। एसबीआई रिसर्च का आकलन है कि 2022-23 में भारत में बाढ़ से 10 से 15 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। इनमें अधिकांश के लिए कोई बीमा नहीं था। खतरे की पैमाइश : बीते एक साल में प्रत्येक महाद्वीप में बाढ़, बादल फटने, जंगल जलने, भूस्खलन जैसी आपदाओं की झड़ी लगी है। वायनाड से लेकर हिमाचल तक भारत के ताजा दृश्य खौफनाक हैं। सरकारें कर्ज लेकर सड़कें, पुल, बिजलीघर, दूरसंचार नेटवर्क बनाती हैं, मगर मौसम की एक करवट से सब तबाह हो जाता है और क्षेत्रों का विकास कई साल पीछे खिसक जाता है। बुनियादी ढांचे पर सात तरफ से हमला है। समुद्र जल स्तर में बढ़ोतरी, बाढ़, समुद्री चक्रवात, स्थलीय तूफान, हीट वेव और जलते जंगल। मैकेंजी और मार्श एंड मैकमिलन कंपनीज ने दो भिन्न अध्ययनों में पाया कि चार सेवाओं पर कहर टूटा है। सबसे पहले है बिजली। कोयले के आयात के कारण कई हिस्सों में बिजलीघर समुद्र तटीय इलाकों में हैं, जल स्तर बढ़ने से यहां बड़ा खतरा है। कोयले पर आधारित संयंत्रों की औसत आयु करीब 60 साल होती है, जबकि पनबिजली परियोजनाओं की 100 साल। बाढ़ से इन दोनों पर भारी जोखिम है। दूसरा है परिवहन। अप्रत्याशित बारिश से अब कई ऐसे इलाके प्रभावित हो रहे हैं, जहां भारी बरसात का इतिहास नहीं रहा है। रेलवे और हाईवे नेटवर्क इस खतरे को संभाल नहीं पा रहा है। तापमान बढ़ने से विमान परिवहन भी बेजार है। इससे यात्री किराए बढ़ेंगे। इसके बाद हैं पेयजल आपूर्ति और दूरसंचार। बढ़ते तापमान से जल स्रोत सूख रहे हैं और बाढ़ के असर से पेयजल ढांचा ध्वस्त हो रहा है। शहरों के पेयजल ढांचे में बाढ़ के बाद आई गंदगी को संभालने की क्षमता नहीं है। 2015-16 में ब्रिटेन की बाढ़ में दूरसंचार नेटवर्क बह गया। जबकि तूफान इरमा और मारिया के असर से कैरेबियाई इलाकों में करीब 90 फीसदी मोबाइल टावर ध्वस्त हो गए। पुराना हो या नया, कहीं भी बुनियादी ढांचा पर्यावरणीय खतरों को ध्यान में रखकर नहीं बना है। मैकेंजी का आकलन है कि 60 से 80 फीसदी बुनियादी ढांचे को मौसमी बदलावों के हिसाब से ढलना और बदलना होगा। 2050 तक इसकी लागत 150 से 450 अरब डॉलर प्रति वर्ष होगी। बीमा कंपनियों को हर्जाने के लिए नए फंड्स की व्यवस्था करनी होगी। 1990 के बाद से प्राकृतिक आपदा प्रभावित देशों में भारत तीसरे नंबर पर है। 2001 से 2022 के बीच भूस्खलन, तूफान, भूकंप, बाढ़ और सूखे के 361 हमले हुए हैं। यानी औसत तीन आपदाएं प्रति माह। 1900 से 2000 के बीच 100 साल में केवल 401 ऐसी आपदाएं आई थीं, यानी चार प्रति वर्ष!

Dakhal News 9 August 2024

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