पर्व मनाते समय उनमें निहित प्रतीकात्मकता को भी समझें
While celebrating festivals

पवन के. वर्मा 

त्योहारों का मौसम शुरू हो चुका है। लेकिन त्योहारों को मनाते समय क्या हम उनमें निहित गहन दार्शनिक प्रतीकात्मकता के बारे में सोचते हैं? हाल ही में जन्माष्टमी का पर्व मनाया गया। मुझे याद है बचपन में इस दिन हमारा पूरा समय झांकी तैयार करने में बीतता था, गोकुल के घर व वनों के परिवेश को फिर से रचा जाता था। आधी रात के आसपास कृष्ण का जन्म मनाया जाता था- और आज भी मनाया जाता है।

कृष्ण-कथा के बारे में हरिवंश, विष्णु पुराण, भागवत पुराण और कृष्ण भक्ति काव्य में विस्तार से लिखा गया है। कृष्ण भक्ति काव्य की शुरुआत 9वीं शताब्दी में तमिल में अंताल और 12वीं शताब्दी में संस्कृत में जयदेव के गीत गोविंद से हुई।

इन दोनों ने 14वीं से 16वीं शताब्दी के बीच कृष्ण भक्ति लेखन की एक लहर को जन्म दिया, जिसमें विद्यापति, बिहारी, चंडीदास, सूरदास, मीराबाई, चैतन्य और वल्लभाचार्य जैसे मूर्धन्य सम्मिलित थे, और इन सभी ने अपनी मातृभाषा में लिखा।

कृष्ण, विष्णु के आठवें अवतार थे। वे बहुआयामी थे। कृष्ण पर आधारित मेरी पुस्तक में पांच अध्याय हैं : बालक, प्रेमी, योद्धा, उद्धारक और भगवान। कान्हा माखनचोर हैं और गोपियों के साथ रास करते हैं, किंतु वही कृष्ण कौरवों के विरुद्ध युद्ध में पांडवों के मार्गदर्शक और रणनीतिकार भी हैं। वे यमुना के तट पर बांसुरी बजाने वाले प्रियतम हैं, राधा के अटूट-संगी हैं तो भगवद्गीता में मानव जाति के उद्धारक के रूप में रणभूमि में निस्तेज अर्जुन को दिशा भी दिखाते हैं।

हिंदू मानस ने भक्ति के उद्देश्य से विभिन्नताओं के इस समारोह के बजाय दिव्यता के किसी एकरूप चित्रण को क्यों नहीं चुना? इसका उत्तर हिंदू धर्म की उल्लेखनीय जटिलताओं और दिव्यता में निहित अनंतता की झलक प्रदान करने के उसके दुस्साहसिक संकल्प में निहित है।

यदि परम-तत्त्व अपरिभाषेय है, तो इसे सरल और पूर्वानुमानित तरीके से चित्रित नहीं किया जा सकता है। इसके अनंत पहलुओं को नहीं पकड़ा जा सकता। लेकिन इसे असंख्य उपायों से रूपांकित करके अनंतता की एक झलक प्रदान की जा सकती है, जिनमें से प्रत्येक रूप पूर्ण का एक अंश हो।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम उस परम दिव्य की भव्यता का एक पहलू हैं; लीला पुरुषोत्तम कृष्ण उसी सर्वशक्तिमान ब्रह्मांडीय ऊर्जा का एक और आयाम। दोनों ही ईश्वर के निर्बाध वरदान और ब्रह्म की सर्वज्ञता के भिन्न आयामों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

इस विविधता के भीतर भी जटिलताएं हैं। क्या हमने कभी सोचा है कि कृष्ण एक बार वृंदावन छोड़ने के बाद वहां कभी लौटकर क्यों नहीं आते, जबकि वे समीप ही मथुरा में होते हैं? यह संयोग नहीं हो सकता। ऐसा करते हुए कृष्ण हिंदू विश्वदृष्टि के चार पुरुषार्थों को दोहरा रहे थे : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

इस रूपरेखा के भीतर काम या ऐंद्रिकता की वैधता तो है, किंतु वह उसकी अनन्य प्राथमिकता नहीं है। वह दिव्यता का एक झरोखा भर हो सकता है। भौतिक आनंदमय है, किंतु अभौतिक भी आनंदघन है। जब गोपियां कृष्ण के अभौतिक रूप का ध्यान करती हैं, तो उनका विरह आनंद में बदल जाता है।

कुरुक्षेत्र की समरभूमि में सारथी या परामर्शदाता के रूप में, कृष्ण अर्जुन को निष्काम कर्म का सिद्धांत सिखाते हैं। अर्जुन- जो हर साधारण मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता है- क्षणभंगुर संसार में जीवन की निरर्थकता की सहसा हुई अनुभूति से त्रस्त है।

कृष्ण के गीतोपदेश का उद्देश्य अर्जुन और उसके जैसे मनुष्यों के जीवन को प्रयोजन और संदर्भ देना है, और नश्वरजनों को जीवन में बार-बार आने वाले अस्तित्वगत संकट से उबरने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करना है।

किसी खिलते हुए पद्म-पुष्प की तरह, कृष्ण के भी कई भाव और रूप हैं। जन्माष्टमी और उसके जैसे कई अन्य पर्वों को हमें हिंदू धर्म में निहित विचारों की गहराई पर विचार करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।गीतोपदेश का उद्देश्य अर्जुन के जीवन को प्रयोजन और संदर्भ देना है, और जीवन में बार-बार आने वाले अस्तित्वगत संकट से उबरने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करना है। किसी खिलते हुए पद्म-पुष्प की तरह, कृष्ण के भी कई भाव और रूप हैं।

 

Dakhal News 3 September 2024

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