भारत का धर्म प्रकृति के वैज्ञानिक नियमों के अधीन संचालित आचार संहिता
bhopal, Religion of India, Code of Conduct, Scientific Laws of Nature

हृदय नारायण दीक्षित

समाज का गठन संवाद से होता है। संवाद उपयोगी है। संवाद कई तरह का होता है। पहला है, व्यक्ति से व्यक्ति के मध्य। दूसरा, व्यक्ति से समूह या व्यक्ति से राष्ट्र का। ऐसे संवाद सारी दुनिया में प्रतिष्ठित हैं। ये अध्ययन के विषय भी हैं। प्रकृति भी संवादरत दिखाई पड़ती है। आकाश पृथ्वी से संवादरत है। चन्द्रमा तारों से बातें कर रहा है। हम सब नीचे हैं और आकाश ऊपर। ऊपर एक दुधिया गलियारा दिखाई पड़ता है। अंग्रेजी में इसे मिल्की-वे या गैलेक्सी कहते हैं। बचपन में उसकी तरफ देखते-दिखाते हुए अम्मा बताया करती थीं कि ये आकाश में बहती हुई गंगा है।

आकाश गंगा तमाम तारों से संवादरत जान पड़ती है। पूर्वज अनूठे संवादी थे। संवाद शिक्षित तक, प्रशिक्षित और दीक्षित तक सतत् संवाद थे। संवाद सब तरफ प्रवाहमान थे और हैं। आकाश में गंगा बहा देना भारतीय संवाद की ही विशेषता है। यूनान में भी एक आकाश चारी नदी की कल्पना है, यह आकाश में बहती कही जाती है। उसका नाम ओकअनास बताया गया है। मैं अनुमान करता हूं कि आकाश की नदी की बात भारतीय व्यापारियों का पर्यटकों के माध्यम से यूनान पहुंची होगी।

यूनानियों ने सोचा होगा कि भारत के लोग एक नदी आकाश मेें देखते हैं। हम भी एक नदी आकाश में देखें। लेकिन ओकअनास धरती पर नहीं थी। हमारी गंगा धरती पर है। हमारे पूर्वजों ने गंगा से भी संवाद किया है। वैदिक साहित्य में, लोकगीत में, गाँव-गली में उन्हें गंगा माता कहकर पुकारा जाता है। ऐसा संवाद दुनिया के अन्य देशों में कहीं नहीं मिलता। दुनिया के अन्य देशों के विद्वान भी भारतीय संवाद शैली के बारे में जानने को उत्सुक रहे हैं। आखिरकार यह पूरा देश संवादरत क्यों दिखाई पड़ता है? दुनिया का प्राचीनतम ज्ञानकोष ऋग्वेद है। ऋग्वेद में विश्वामित्र और नदी के बीच में सुंदर संवाद है। विश्वामित्र नदी के किनारे खड़े हैं। कहते हैं कि ‘हम पार उतरना चाहते हैं। लेकिन तुम ऊपर बह रही हो। थोड़ा नीचे बहो।’ नदी कहती है कि, ‘ऐसा कहने की क्या आवश्यकता है? हम वैसे ही नीचे हुए जाते हैं, जैसे माता दूध पिलाने के लिए अपने बच्चे पर झुक जाती हैं।’ यह संवाद अनूठा है।

संवाद की शुरूआत ऋग्वेद के भी हजार-दो हजार साल प्राचीन होनी चाहिए। ऋग्वेद जिज्ञासा से भरा पूरा है और यजुर्वेद भी। भारतीय राष्ट्र जीवन में प्रश्नाकुल बेचैनी का दीर्घ इतिहास है। संवादरत रहना भारतीय प्रकृति है। रामायण और महाभारत महाकाव्य है। रामचरितमानस भारत का लोकप्रिय ग्रंथ है। रामायण महाभारत संवाद समृद्ध है। रामचरितमानस भी संवाद से भरी पूरी है। शंकर और पार्वती लगातार बातें करतें जा रहे हैं। पक्षी भी आपस में संवाद करते हैं। काकभुशुण्डि और गरूण के बीच संवाद चला करता है।

यजुर्वेद के ऋषियों ने प्रश्न को देवता कहा था। प्रश्न के कारण जिज्ञासा बढ़ती है। जिज्ञासा से संवाद शुरू हो जाता है। छान्दोग्य उपनिषद भी संवाद से भरापूरा है। छान्दोग्य उपनिषद में ऋषि कहता है कि, ‘‘यह पृथ्वी समस्त भूतों का रस है। ऋषि आगे कहता है कि पृथ्वी का रस जल है।’’ आगे बताता है कि, ’’जल का रस वनस्पतियां हैं। फिर आगे बताता है कि वनस्पतियों का रस यह मनुष्य है। फिर आगे बताता है कि मनुष्य का रस वाक् है। फिर बताता है कि वाणी का रस ऋक है और ऋक का रस साम है।’’ शिव और पार्वती लगातार संवादरत हैं।

संवाद कैसा? जिसमें प्रीति रस घुल जाए। संवाद कैसा? जिसमें आपके हृदय और हमारे हृदय एक साथ स्पंदित हो। आपके और हमारे संवाद में षडंज, ऋषभ, गांधार आदि सारे सुर सा रे गा मा पा धा नि खिलें। हम बिना बोले भी आपको अपनी बात सुना ले जायें। ऐसा संवाद । कुछ कहें और आपको संदेश मिल जाए। ऐसा संवाद। ऐसा प्रीतिपूर्ण संवाद। भारत के राष्ट्र जीवन का संवाद व्यर्थ नहीं रहा। बाद में कुछ लोगों ने वाद-विवाद, संवाद भी कहा है। वाद-विवाद, संवाद की बात करते हुए एक हिन्दी विद्वान ने कहा कि इसमें तीसरी परम्परा की खोज होनी चाहिए। भारतीय परंपरा एक ही है। वही नित्य नवीन होती है। दूसरी, तीसरी नहीं होती।

मैं विधानसभा अध्यक्ष हूँ। विधानसभा भी प्रीतिपूर्ण संवाद का स्थल है। लेकिन मैं दुखःपूर्वक कह सकता हूं कि सदनों में संप्रति प्रीतिपूर्ण संवाद नहीं होता। ऐसी संस्थाएं हमारे राष्ट्र जीवन में अति प्राचीनकाल से रही हैं। ऋग्वेद में सभा है। समिति है। सभा-समिति खूबसूरत प्रीतिपूर्ण संवाद के मंच रहे हैं। उस परम्परा के उत्तराधिकारी होकर भी हम सब प्रगाढ़ संवाद नहीं करते। भारत माता के पुत्र आपस में प्रीतिपूर्ण संवाद क्यों नहीं कर सकते?

यहाँ बहुत अनुभवी, विद्वान तमाम सुयोग्य मित्र बैठे हैं। मुझे आपने मुख्य अतिथि बनाया। राजनैतिक कार्यकर्ता के लिए मंच, माला और माइक यह तीन त्रिशूल हैं। तीन देव हैं। जैसे आयुर्वेद में वात, पित्त, कफ हैं। भारतीय दर्शन में सत्व, रज और तम हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीन देव हैं। ऐसे ही हमारे लिए आनंदवर्धन तत्व हैं-मंच, माला और माइक। इसमें माइक संवाद का उपकरण है।

 

हमारे पूर्वजों ने धरती और आकाश को भी संवाद करते हुए देखा है। पूर्वजों ने व्यष्टि और समष्टि के बीच के संवाद की गुनगुनाहट को ध्यान से सुना है। प्रकृति के प्रत्येक अणु-परमाणु में संवाद की ध्वनियां सुनी हैं। संवाद की प्रगाढ़ता में ऐसी ही सुन्दर अभिव्यक्ति का वातावरण भारत में रहा है। दुनिया का कोई देश अभिव्यक्ति के प्रश्न पर भारत की बराबरी नहीं कर सकता। यहां अभिव्यक्ति की असीम सीमा का प्रयोग करते हुए हमारे पूर्वजों, अग्रजों ने बहुत कुछ भारत की धरती को दिया है। यही हमारा शीलाचार है। यही हमारी परंपरा है।

 

पूर्वजों ने इस प्रकृति में एक अन्तःसंगीत देखा था। प्रकृति एक कविता जैसी छन्दबद्ध है। लयबद्ध है। उसकी एक रिदम है। ऋग्वेद के ऋषियों ने उसे ऋत कहा था। ऋत का व्यवहार कांन्स्टिट्यूशन ऑफ नेचर के अर्थ में हुआ। प्रकृति का संविधान, प्रकृति की लयबद्धता, प्रकृति का प्रवाह ऋत है। प्रकृति प्रतिपल नवसर्जन में व्यस्त रहती है। नया आकाश, नये मेघ, कभी नयी ऊषा, प्रतिदिन नयी कोंपल, नयी तितली, नयी चिड़िया, नया गीत, पूर्वजों ने इसे ऋत कहा । पूर्वजों ने देखा कि प्रकृति के भीतर लयबद्धता है। हमारे अपने जीवन में भी लयबद्धता होनी चाहिए। ऋत का विकास भारत का धर्म है। अर्थात भारत का धर्म प्रकृति के वैज्ञानिक नियमों के अधीन संचालित होने वाली एक आचार संहिता है। अंधविश्वास नहीं।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

Dakhal News 13 March 2022

Comments

Be First To Comment....

Video
x
This website is using cookies. More info. Accept
All Rights Reserved © 2025 Dakhal News.