Dakhal News
4 October 2024शिवांगी सक्सेना
केस-1
'मेरे ऑफिस में ग्रिलिंग का कल्चर था। आपको कम से कम 12 घंटे काम करना ही पड़ता है। ओवरवर्क की वजह से मैं बीमार पड़ने लगी। एक दिन मुझे हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा।' - मेहर सूरी, बेंगलुरु
केस-2
'मैं ऐड कंपनी में काम करता था। इसमें डेडलाइन की बहुत अहमियत होती है। मुझसे तीन लोगों का काम कराते थे। मैं घर भी काम लेकर जाता था। कई बार पूरे दिन खाना नहीं खाया। परेशान होकर मैंने नौकरी छोड़ दी।’ -सुकून, मुंबई
मेहर और सुकून अलग-अलग शहरों में रहते हैं। अलग कंपनियों में काम करते हैं। दोनों के फील्ड अलग हैं, लेकिन परेशानी एक जैसी है। ऑफिस में इतना वर्कलोड है कि खाना-पीना, नींद, आराम सब छूट गया।
मेहर और सुकून की तरह ही एना सेबेस्टियन पेरिइल थीं। 26 साल की एना चार्टर्ड अकाउंटेंट थीं। उन्होंने महाराष्ट्र के पुणे में इसी साल फरवरी में एक कंपनी में नौकरी शुरू की थी। 6 महीने बाद 20 जुलाई को एना को कार्डियक अरेस्ट आया और इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई।
एना की मां अनीता ऑगस्टीन ने सितंबर में कंपनी चेयरमैन राजीव मेमानी को लेटर लिखा। बताया कि कैसे ऑफिस के वर्कलोड की वजह से एना की जान गई।
एना की मां ने लिखा- जरूरत से ज्यादा काम ने बेटी को मार डाला
अनीता ऑगस्टीन ने बेटी की मौत के लिए जरूरत से ज्यादा काम के बोझ को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने लेटर में लिखा कि शॉर्ट डेडलाइन और देर रात तक काम करने की वजह से एना की तबीयत बिगड़ी। चेस्ट पेन के बाद वो जुलाई में डॉक्टर के पास गई थी। डॉक्टर ने उसे वेंट्रिकुलर (सीने में सिकुड़न) के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि पूरी नींद न लेने और देर से खाना खाने की वजह से ऐसी परेशानी आ रही है।
अनीता ऑगस्टीन का लेटर वायरल हुआ, तो भारत में कॉरपोरेट सेक्टर के वर्क-कल्चर पर बहस शुरू हो गई है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में युवा सबसे ज्यादा ओवर वर्क करते हैं। देश की आधी वर्कफोर्स हफ्ते में 49 घंटे से ज्यादा काम करती है। भारत उस लिस्ट में 12वें नंबर पर है, जहां काम करने के घंटे सबसे ज्यादा हैं।
पहली कहानी
मेहर सूरी, 29 साल, बेंगलुरु
सेक्टर: NGO
रोज 12 घंटे काम करके बीमार पड़ी, ऑफिस नहीं जा पाईं तो सैलरी काट ली
मेहर ने करियर की शुरुआत 2020 में की थी। वे रिसर्चर हैं। 2020 के आखिर में मेहर ने एक NGO के साथ काम करना शुरू किया। ये उनकी पहली नौकरी थी। मेहर बताती हैं, 'उस वक्त कोरोना था। तब काम करने के अलग चैलेंज थे। लोग बीमार पड़ रहे थे, आए दिन मौतें हो रही थीं।’
‘इस बीच मेरे ऑफिस ने मुझे अकेले नॉर्थ-ईस्ट के एक गांव में भेज दिया। मैं चली भी गई। वहां जाकर पता चला कि यहां तो उग्रवादियों की एक्टिविटी रहती है। मुझे ये नहीं बताया गया कि यहां फायरिंग होती है। मैंने सीनियर से इस बारे में पूछा तो जवाब मिला कि अगर तुम्हें बता देते तो तुम डर जातीं। इसके बाद भी ऑफिस की तरफ से मेरी सेफ्टी के लिए कुछ नहीं किया गया।'
मेहर आगे बताती हैं, 'ऑफिस में कम से कम 12 घंटे काम करना ही पड़ता था। वर्कलोड की वजह से मैं बीमार पड़ने लगी। एक दिन फील्ड पर साइकोसिस का अटैक आया। मुझे हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा। मेरी परेशानी कोई समझ ही नहीं रहा था। हमारे यहां ऑर्गेनाइजेशंस में मेंटल हेल्थ का कोई कॉन्सेप्ट ही नहीं है। किसी भी ऑफिस में मानसिक तनाव को आसानी से अनदेखा कर दिया जाता है।'
मेहर कहती हैं, 'एक तरफ मेरा ट्रीटमेंट चल रहा था, दूसरी तरफ मैं पार्ट टाइम जॉब ढूंढ रही थी। मुझे दो महीने की सैलरी के बराबर पैसा ऑफिस में देना था। ये अमाउंट करीब 80 हजार रुपए था। मेरे मन में सुसाइड का ख्याल आने लगा। कोई मेरी तकलीफ नहीं समझ रहा था। आखिर मैंने नौकरी छोड़ दी।’
मेहर के अगले ऑफिस में भी कुछ नहीं बदला। वे कहती हैं, 'दूसरी नौकरी में भी वर्क प्रेशर बहुत ज्यादा था। मैं मेंटल ट्रामा से उबर ही रही थी कि ब्रेन में ब्लड क्लॉटिंग का पता चला। मेरी फैमिली मुझे अस्पताल ले गई। मम्मी-पापा ने पूरा ख्याल किया। ऑफिस से कोई सीनियर मुझे देखने तक नहीं आया। कंपनी ने उस महीने की सैलरी तक नहीं दी। कहा गया कि मैं पूरे महीने छुट्टी पर थी।'
'मुझे फैमिली का सपोर्ट मिला, इसलिए मैं इलाज करा सकी। हर किसी के पास इतना पैसा नहीं कि वो हॉस्पिटल का खर्च उठा सके।'
दूसरी कहानी
सुकून, 28 साल, मुंबई
सेक्टर: एडवरटाइजिंग
दिन-रात सिर्फ काम, न खाने का टाइम, न सोने का
28 साल के सुकून मुंबई में रहते हैं। उन्होंने होटल मैनेजमेंट का कोर्स किया है। 2022 में सुकून ने एक होटल में जॉब शुरू की। वे बताते हैं, 'मैं मराठी में बात करता था। ये बात मेरी सुपरवाइजर को पसंद नहीं थी। वो मुझसे चिढ़ने लगती थी। मुझे ये सब अच्छा नहीं लगा। मैंने नौकरी छोड़ी और ऐडवरटाइजिंग फर्म में काम करने लगा। वहां परेशानियां और ज्यादा थीं।'
ऐडवरटाइजिंग कंपनी में अपने अनुभव के बारे में सुकून बताते हैं, 'ऐडवरटाइजिंग की दुनिया बहुत क्रिएटिव है। आइडिया आने का कोई वक्त नहीं होता। ये कहकर कर्मचारियों से पूरा दिन काम करवाया जाता है। मेरे बॉस हर वक्त मुझ पर नजर रखते थे। ऑफिस में किसी से बात करते देख लेते, तो कहते कि तुम्हारा ध्यान काम पर नहीं है।'
सुकून आगे बताते हैं, 'मैं रोज सुबह 9 बजे ऑफिस पहुंच जाता था। रात को 8 बजे घर जाने के लिए उठता, तो पीछे से बॉस की आवाज आती- अभी से घर जा रहे हो। इस तरह के ताने बहुत आम थे।'
सुकून बताते हैं...
जब तक कोई आइडिया न मिल जाए, तब तक हम घर नहीं जा सकते थे। वीकेंड भी काम खत्म करने और क्लाएंट से बात करने में चला जाता था।
एक दिन सुकून ने बॉस को अपने जेंडर के बारे में बताया। इसके बाद उन्हें काम मिलना बंद हो गया। वे बताते हैं, 'मैंने बहुत भरोसे के साथ बॉस को बताया कि मैं जेंडर-फ्लूइड हूं। मेरे प्रोनाउन He/They हैं। इसके बाद से बॉस का रवैया बदल गया।'
'मुझे सबसे हल्का काम मिलने लगा। ऐसा कोई प्रोजेक्ट नहीं मिलता, जहां मैं टैलेंट दिखा सकूं। हद तो तब हो गई जब मुझसे पूछे बिना, उन्होंने ऑफिस में मेरी आइडेंटिटी के बारे में बता दिया। इसका असर मेरे प्रमोशन और इन्क्रिमेंट पर भी दिखा। मैंने परेशान होकर नौकरी छोड़ दी। दो साल से मेरी थैरेपी चल रही है।'
तीसरी कहानी
प्रिया, 28 साल, नोएडा
सेक्टर: मीडिया
काम का वक्त तय नहीं, इलाज के लिए भी छुट्टी नहीं
प्रिया (बदला हुआ नाम) नोएडा में एक मीडिया हाउस में काम करती हैं। उन्होंने भोपाल से जर्नलिज्म की पढ़ाई की है। भोपाल में ही साउथ इंडिया की एक वेबसाइट के लिए काम करने लगीं। जॉब करने के दौरान प्रिया को चेस्ट कंजेशन का पता चला। अगर वक्त पर डॉक्टर के पास न जातीं, तो टीबी हो सकता था।
प्रिया बताती हैं, 'मैं 2018 में जर्नलिज्म के प्रोफेशन में आई। ये मेरी पहली जॉब थी। ये जिंदगी का सबसे बुरा फैसला साबित हुआ। मुझसे पूरा दिन काम करवाया जाता। सुबह मैं रिपोर्टिंग पर जाती और शाम को आने के बाद मुझसे डेस्क का काम करवाते। काम का कोई वक्त ही तय नहीं था।'
'इसी बीच मेरी तबीयत बिगड़ी और खांसी आनी शुरू हुई। मैंने शुरू में इसे नजरअंदाज कर दिया। डॉक्टर को दिखाने का सोचती, तो छुट्टी नहीं मिलती थी। बॉस कहते कि स्टाफ कम है, इसलिए छुट्टी नहीं दे सकते। एक दिन ऑफिस में बैठे-बैठे मेरी खांसी रुक ही नहीं रही थी। डॉक्टर को दिखाया तो पता चला मुझे चेस्ट इन्फेक्शन है।'
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26 September 2024
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