Dakhal News
4 October 2024आरती जेरथ
जाति-जनगणना की विपक्ष की मांग पर आरएसएस का हालिया बयान इस मुद्दे के तूल पकड़ने के साथ ही इसके प्रति निर्मित असहजता की स्थिति को भी दर्शाता है। हालांकि संघ ने जाति-जनगणना के विचार का समर्थन किया है, लेकिन साथ ही आगाह भी किया है कि इस तरह के सर्वेक्षण का इस्तेमाल राजनीतिक या चुनावी उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।
केरल में संघ परिवार के शीर्ष नेताओं के तीन दिवसीय सम्मेलन के बाद प्रवक्ता सुनील आंबेकर ने जोर देकर कहा कि जनगणना से प्राप्त डेटा का इस्तेमाल केवल कल्याणकारी उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए। लेकिन यह एक उलझा हुआ तर्क है, क्योंकि संघ भाजपा और उसके सहयोगियों के अलावा किसी अन्य पार्टी या संगठन से ऐसा आग्रह नहीं कर सकता। जाति-जनगणना की मांग 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान विपक्ष के नैरेटिव का हिस्सा थी और चुनावी सफलता का स्वाद चखने के बाद राहुल गांधी ने इसे अपना मुख्य हथियार बना लिया है।
यह मुद्दा आने वाले महीनों में राजनीतिक लड़ाई की रूपरेखा तय कर सकता है और भाजपा की राजनीति के लिए गंभीर चुनौती बन सकता है। चुनाव के बाद के घटनाक्रमों ने भाजपा की चिंता को और बढ़ा दिया है। एनडीए के प्रमुख सहयोगी जदयू ने एक बयान जारी कर बिहार में नीतीश कुमार सरकार द्वारा किए जाति-सर्वेक्षण की तर्ज पर राष्ट्रव्यापी जाति-जनगणना कराने की मांग की है।
बिहार में ही एक अन्य महत्वपूर्ण सहयोगी- केंद्रीय मंत्री और लोजपा प्रमुख चिराग पासवान ने भी विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि उनकी पार्टी चाहती है जाति-जनगणना जल्द हो। उनकी यह मांग इंडिया टुडे के मूड ऑफ द नेशन पोल के तुरंत बाद आई थी, जिसमें जाति-जनगणना के लिए लोकप्रिय समर्थन में भारी उछाल प्रदर्शित किया गया था। लोकसभा चुनाव से पहले फरवरी में यह 69% था, जो बढ़कर अगस्त में 74% हो गया।
पिछले चार दशकों से जाति और हिंदुत्व के मुद्दों ने ही राजनीतिक प्रतिमानों को तैयार किया है, जिसमें भाजपा, मंडल दलों की पिछड़ी जाति की राजनीति का हिंदू बहुसंख्यकवाद से मुकाबला करती रही है, खासकर उत्तर भारत में।
हालांकि ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण पर मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के वीपी सिंह के फैसले ने जाति की राजनीति को शुरुआती बढ़त दी थी, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं टिकी। ओबीसी आरक्षण के लाभ छिटपुट थे और वे बड़े ओबीसी समूह के भीतर चुनिंदा प्रमुख समुदायों के हितों की ही पूर्ति करते थे।
मंडल पार्टियां जल्द ही अनेक टुकड़ों में टूट गईं, जिससे हिंदुत्व को उभार के लिए स्पेस मिला। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए जातियों के परे हिंदुओं को सफलतापूर्वक लामबंद करने से हिंदुत्व भारतीय राजनीति की धुरी के रूप में स्थापित हो गया।
नरेंद्र मोदी के उदय के रूप में संघ परिवार को मंडल राजनीति का सही जवाब मिला था। वे हिंदू राष्ट्रवादी साख वाले ओबीसी नेता थे, जो इन दोनों प्रतिस्पर्धी ताकतों को एक सूत्र में पिरोते थे। इसी से 2014 और 2019 में एनडीए की बहुमत वाली सरकारें बनीं। लेकिन अब लगता है कि मंडल-कमंडल का पहिया अपना चक्र पूरा करके फिर से यथास्थिति में लौट आया है।
बढ़ती आर्थिक चुनौतियां उन जातियों को भी प्रभावित कर रही हैं, जो हिंदुत्व के प्रभाव में मंडल राजनीति से दूर हो गई थीं। नोटबंदी, बेरोजगारी, महंगाई और गहराता कृषि संकट सामाजिक-आर्थिक सीढ़ी के निचले पायदान पर मौजूद लोगों को नुकसान पहुंचा रहा है, जो मुख्य रूप से दलित, आदिवासी, ओबीसी हैं।
यही वह पृष्ठभूमि है, जिसने विपक्ष की जाति-जनगणना की मांग के लिए हाशिए पर स्थित वर्गों का समर्थन पाया है। हालांकि न तो राहुल गांधी और न ही किसी अन्य विपक्षी नेता ने अभी तक स्पष्ट शब्दों में यह बताया है कि जनगणना से इन वर्गों को क्या लाभ होगा। लेकिन लाभार्थी-वितरणों की तुलना में कल्याणकारी लाभों के न्यायपूर्ण बंटवारे के वादे का अपना आकर्षण है।
यह देखना अभी बाकी है कि जाति की राजनीति वापसी करती है या नहीं। फिलहाल तो ऐसा लग रहा है कि जाति-जनगणना के लिए विपक्ष के आक्रामक अभियान के कारण हिंदुत्व की राजनीति को अपने कदम पीछे खींचना पड़ रहे हैं। दूसरी तरफ राहुल गांधी और उनके इंडिया गठबंधन के सहयोगियों को भी यह समझना होगा कि वे भाजपा को हल्के में न लें और इस बात से संतुष्ट न हो जाएं कि जाति-जनगणना ही उनके तमाम सवालों का रामबाण उत्तर है।
न तो राहुल और न ही किसी अन्य विपक्षी नेता ने यह बताया है कि जाति-जनगणना से पिछड़े वर्गों को क्या लाभ होगा। पर लाभार्थी-रेवड़ियों की तुलना में कल्याणकारी लाभों के न्यायपूर्ण बंटवारे के वादे का अपना आकर्षण है।
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6 September 2024
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