पर्यावरणीय अनुष्ठान है होलिका दहन का पर्व
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डॉ. अनिल मेहता

क्या होलिका दहन एक रिवाज मात्र है? क्या होलिका दहन कुछ लकड़ियों, सूखे पत्तों, टहनियों का जलना मात्र है? क्या होलिका दहन में अक्षत (चावल), नारियल, कुछ नव पके अन्नों व गाय के गोबर को एक साथ अग्नि में समर्पित करना एक धार्मिक अनुष्ठान मात्र है? क्या होलिका दहन का महीना व समय किसी पंचांग का एक निर्देश मात्र है?

ऐसे कई प्रश्न हैं जिन पर आज की युवा पीढ़ी को पूर्ण वैज्ञानिकता के साथ विचार करना चाहिए। भारतीय परम्परा में हरेक पर्व ऋतु चक्र, कृषि चक्र व स्वास्थ्य चक्र पर आधारित हैं। होलिका दहन का पर्व भी इन तीनों चक्रों - ऋतु चक्र, कृषि चक्र व स्वास्थ्य चक्र का एक प्रमुख प्रतिनिधि पर्व है।

हमारे देश में मोटे तौर पर रबी व खरीफ यह दो प्रमुख कृषि चक्र हैं। समाज इन कृषि चक्रों को आत्मसात करते हुए तदनुरूप खेती की तैयारी करे, मौसम, तापमान व जल उपलब्धता का आकलन करते हुए फसलों का निर्धारण करे, उन्हें उपजाए व अन्न प्राप्ति करे, इस दृष्टि से होलिका दहन व अन्य कई सामुदायिक पर्व भारतीय धर्म मान्यताओं, रीति रिवाजों व संस्कृति के अंग बने।

वर्षा काल पश्चात सर्द ऋतु के कम तापमान में गेहूं, चना, मसूर, सरसों इत्यादि रबी फसलों की बुआई होती है व मार्च-अप्रैल में इन फसलों की कटाई होती है। अतएव, होली रबी फसलों की पूर्णता के उल्लास व आगामी कृषि कार्य में पूर्ण उत्साह व नई ताजगी से जुटने का एक सांस्कृतिक अनुष्ठान है।

मौजूदा चिकित्सा सिद्धांतों के प्रतिपादन से बहुत पहले ही हमारे शास्त्र यह घोषित करते आए हैं कि ऋतुओं के संधिकाल में कई प्रकार की व्याधियों की उत्पति होती है। ऋतु चक्र की दृष्टि से होलिका दहन का काल सर्दी की ऋतु से गर्मी की ऋतु के मध्य का एक संक्रमण काल है। यह वह समय है, जब वातावरण में सूक्ष्म कीटों, बैक्टीरिया, वायरस इत्यादि की वृद्धि होती है। बीमारियां बढ़ती हैं। इन बीमारियों के कारकों को नियंत्रित करने के लिए होलिका दहन एक वैज्ञानिक विधि है।

होलिका दहन से पैदा होने वाला तेज (ताप) ऋतु संधिकाल के रोगकारी जीवाणुओं इत्यादि को खत्म कर स्थानीय वातावरण को शुद्ध करता है।

होलिका दहन एक सामुदायिक यज्ञ है। प्राचीन काल में इसे ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ कहा गया। नव अन्न को होलिका की आग में भुनने, समर्पित करने की दृष्टि से ही नहीं, वरन प्रक्रिया में गोबर के कंडों, गूलर की टहनियों, आम इत्यादि वृक्षों की पत्तियों, नारियल के साथ जलने से एक प्रकार से वायु का औषधिकरण भी हो जाता है। अतः होलिका दहन को पर्यावरणीय सुधार की गतिविधि माना जाना चाहिए।

यज्ञों से स्थानीय वायु के शुद्धीकरण पर कई शोध हुए हैं और यज्ञ विधान की वैज्ञानिकता को मान्यता मिली है। होलिका दहन यज्ञ भी परिधि क्षेत्र में तापक्रम की वृद्धि कर सूक्ष्म जीवाणुओं पर नियंत्रण स्थापित करता है तथा उस स्थल की वायु में औषधीय गुणों को विकसित कर देता है।

लेकिन, सौहार्द्र व समरसता को पनपाने वाले व विज्ञान के सिद्धांतों की कसौटी पर जांचे जा सकने वाले होली जैसे पर्व कालांतर में कुछ विकृतियों का शिकार भी हुए हैं। होलिका दहन में गीली लकड़ी सहित विलुप्त हो रहे वृक्षों को जलाने जैसे कार्यों से होलिका दहन की गरिमा व वैज्ञानिकता को आघात पहुंचता है। ऐसी गलतियों से बचना चाहिए।

वहीं, स्थानीय पर्यावरण के सुधार में होलिका दहन की उपयोगिता को वैज्ञानिक शब्दावली में पुनः परिभाषित करने का जिम्मा आज के युवा शोधार्थियों व विज्ञानियों को लेना चाहिए।

(लेखक पर्यावरणविद तथा विद्या भवन पॉलिटेक्निक कॉलेज उदयपुर के प्राचार्य हैं।)

Dakhal News 17 March 2022

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