Dakhal News
14 January 2025देवदत्त पट्टनायक
हम गुरु-शिष्य परंपरा को जानेंगे और समझेंगे कि विश्व की अन्य शिक्षण प्रणालियों से हमारी यह परंपरा कैसे अलग है। बौद्ध धर्म के उभरने के पश्चात प्रवचन व्यापक होने लगे। इनमें ऋषि बहुधा उद्यान में पेड़ के नीचे बैठकर हज़ारों छात्रों को अपना ज्ञान बांटते थे। उससे पहले, उपनिषदों के अनुसार ऋषि और राजा, पति-पत्नी तथा देवता और मनुष्य आपस में वार्तालाप करते थे। और उससे भी पहले ‘ब्राह्मण’ और ‘आरण्यक’ वैदिक ग्रंथों के अनुसार लोग क्रमशः अनुष्ठान करने में व्यस्त रहते थे या वन में एकांत में समय बिताते थे। यह करते हुए वे इन अनुष्ठानों में किए गए उच्चार और अर्पण पर चिंतन करते थे।इस बीच, रामायण और महाभारत के अनुसार छात्र गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करने लगे। गुरुकुल की आधुनिक समझ यह है कि गुरु पेड़ के नीचे बैठकर अपने चारों ओर बैठे छात्रों को प्रवचन देते थे, मानो आज के क्लासरूम जैसे। और यही कारण है जो हम गुरु-शिष्य परंपरा को समझने में भूल कर देते हैं।आधुनिक शिक्षा प्रणाली और प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा में मुख्य अंतर ज्ञान के उद्देश्य को लेकर है। हालांकि सभी को जानकारी एक जैसी मिलती है, लेकिन हर कोई उसे अलग तरह से समझकर ज्ञान भी अलग प्राप्त करता है। समझने के लिए आवश्यक है कि हम दूसरों से मिली जानकारी का विश्लेषण कर उसे पहले से प्राप्त ज्ञान के संदर्भ में समझें। सीखना और ज्ञान प्राप्त करना अत्यधिक जटिल प्रक्रियाएं हैं। प्राचीन भारतीय इसके बारे में अवगत थे।यूरोपीय शिक्षण प्रणालियों की जड़ें तर्क-वितर्क की धारणाओं में थीं। ये धारणाएं यूनान और रोम से आईं। प्राचीन काल के दार्शनिक आपस में तर्क करते थे। फिर या तो एक दार्शनिक की जीत से या सर्वसम्मति से सच स्थापित होता था। यह सच छात्र कक्षाओं में बहुधा रटकर सीखते थे। हालाँकि वे सच को चुनौती दे सकते थे, लेकिन अंतत: उन्हें उसे स्वीकारना ही पड़ता था। आधुनिक शिक्षण प्रणाली भी कुछ इसी तरह की है। छात्रों की परीक्षा लेकर उनकी समझ और उनका विकास परखा जाता है।यूरोपीय शिक्षण का मॉडन मिशनरी स्कूलों तथा उपनिवेशवाद के कारण और पूर्वी-एशियाई शिक्षण का मॉडल ब्रूस ली और जैकी चैन की तथा अन्य चीनी फ़िल्मों के कारण प्रसिद्ध हुआ। इसलिए हम गुरु-शिष्य परंपरा का शिक्षण के यूरोपीय मॉडलों के साथ आंकने का और उसे कुछ हद तक पूर्वी-एशियाई शिक्षण प्रणालियों से भी जोड़ने का प्रयास करते हैं। और यही कारण है कि हम उसे अच्छे से समझ नहीं पाते हैं।भारतभर में मैकेनिक की दुकानों और ढाबों के मालिक युवकों को अपनी निगरानी के नीचे काम पर लगाते हैं। इस उस्ताद-चेला मॉडल को समझकर हम गुरु-शिष्य परंपरा को अच्छे से समझ सकते हैं। उस्ताद सिखाने का कोई सीधा प्रयास नहीं करता है। अपना काम करते-करते वह बातें करता है, टिप्पणी देता है और चेला उसे देख-सुनकर सीखता है।यहां चेले में सीखने की भूख होनी आवश्यक है। जब वह पर्याप्त रूप से सीख लेता है, तो वह बहुधा स्वयं का उद्यम शुरू करता है। उस्ताद-चेले का यह मॉडल अनौपचारिक और असंगठित रूप से चलता है। उसके उद्देश्य भी बहुधा अस्पष्ट होते हैं: क्या चेले को रोज़गार दिया जा रहा है? क्या वह कुछ सीख रहा है? या उसका शोषण हो रहा है? संभवतः कुछ लोगों को इस बात से विस्मय हो सकता है कि उन्नत गुरु-शिष्य परंपरा को सड़क के उस्ताद-चेला नातों से जोड़ा जा रहा है। लेकिन हमें ध्यान में रखना आवश्यक है कि अतीत कई गुरुओं का व्यवहार दमनकारी कहा जा सकता है। कहानियों में कुछ उदाहरण भी हैं। जैसे, ऋषि धौम्य के तीन छात्र थे। पहले छात्र आरुणि ने अपने गुरु के खेत की टूटी मेड़ से बहते पानी को रोकने के लिए अपने शरीर की ही ओट लगा दी थी। दूसरा शिष्य उपमन्यु था। वह अपने गुरु की गायें चराता था, लेकिन उसे उन गायों का दूध पीना मना था। इसलिए उसे विषैले पत्ते खाने पड़े और कुछ समय के लिए उसकी दृष्टि भी चली गई। गुरु ने अपने तीसरे शिष्य वेद से उसके बुढ़ापे तक अपनी सेवा करवाई।
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27 July 2024
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