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आज पानी पाताल में जा रहा है और हम आसमान में। दुनिया पानी-पानी चिल्ला रही है और हम पानी की बरबादी कर रहे हैं। नतीजा सामने है। अब तो गले ही नहीं सूखे, धरती तक प्यासी है। वह चाहे बुंदेलखंड का कोई क्षेत्र हो या महाराष्ट्र का दुर्गम इलाका। बंजर खेत हकीकत बयां कर रहे हैं। एक समय उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड के अधिकांश किसानों के खेत में कुआं होता था। किसान कुओं से सिंचाई करते थे। कुओं में पारंपरिक सिंचाई की विधि रेहट होती थी। इस रेहट को बैल खींचते थे। रेहट से निलकता पानी नालियों के माध्यम से खेतों को सींच देता था। आज अब न तो उस तरह के जीवट किसान रहे और न ही पुराने संसाधन।
करीब चार दशक पहले रेहट में काफी बदलाव किए गए। लकड़ी की जगह लोहे के रेहट बाजार में आ गए। यहीं गच्चा खा गए लोग। सिंचाई के नवीन विज्ञान के ज्ञान ने श्रम की जल शक्ति को यंत्र की शक्ति ने मात दे दी है। पहले के रेहट में एक भी लोहे की कील नहीं लगती थी। मिट्टी के घड़े तथा जामुन की लकड़ी, छिवल (छियूल) की रस्सी का प्रयोग होता था। इसमें एक पैसे का खर्च नहीं था। सब प्राकृतिक था। अफसोस नवीन ज्ञान ने कुआं, तालाब, गांव के सामूहिक परंपरा जल स्रोत खत्म कर दिए। बाकी जो बचे हैं वो भी खत्म होने वाले हैं। अगर हम अभी नहीं चेते तो फिर पछताने के सिवा कुछ नहीं बचेगा।
जल चर्चा, विचार गोष्ठी, पानी की पाठशाला, तालाब पूजन जैसे तमाम उपक्रमों के बावजूद सूखा जैसी विभीषिका का सामना करना चिंतानजक है। दरअसल जलक्रांति बिना जनांदोलन के असंभव है। आम आदमी चिंतित तो है पर वह भी क्या करे। शाम की दाल-रोटी का इंतजाम करने में ही सारा दिन खप जाता है। अगली सुबह यही सब फिर उसकी दिनचर्या का हिस्सा होता है। तीसरा विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की भविष्यवाणी तक हो चुकी है। उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने जल संकट से संभावित जिलों में जल कोष यात्रा शुरू कर नेक काम किया है।
यह सबसे बड़ा अकाट्य सत्य है कि सब कुछ बनाया जा सकता है पर पानी बनाया नहीं जा सकता। उसे केवल बचाया जा सकता है। और हम वही नहीं कर पा रहे। जल के बिना सामाजिक आर्थिक ताना-बाना टूटता नजर आता है। जल का बाजारीकरण जल समस्या का समाधान नहीं है। अन्नदाता किसान ने यदि पानी के अभाव में खेती करना छोड़ दिया तो क्या होगा, यह सोचकर आत्मा रोने लगती है। आत्मनिर्भरता स्वावलंबी बने इस दिशा में जमीनी प्रयास होने चाहिए। सामुदायिक प्रयास भी जरूरी हैं। जिस तरह हम साल भर के लिए अपने घर का बजट बनाते हैं उसी प्रकार पानी का बजट भी बनाएं तो जल संकट से काफी हद तक बचा जा सकता है। जल में सिद्धि होती है। जल में समृद्धि है। जल में अमृत है। जल में ऊर्जा है। नदियों को तप से पृथ्वी पर लाया गया। जलाशय हमारे लिए सदैव पूजनीय हैं। इसलिए जल संरक्षण रचनात्मक और सामाजिक दायित्व है। यह कार्य अकेले नहीं होते। इसमें पूरे समुदाय और समाज का वर्षों का श्रम अनुभव समाहित होता है।
सब कहते हैं जल जीवन का आधार है। जल ही जीवन है। जल अनमोल है। जल विलक्षण है। जल सर्वव्यापी है। जल असाधारण है। जल राष्ट्रीय संपदा है। जल परमेश्वर है। जल शिव है। जल शंकर है। जल अमृत है। जल शक्ति है। जल ऊर्जा है। धर्म के आधार पर केवल पानी ही पवित्र करता है। भारतीय संस्कृति पूजा प्रधान है। पूजा पवित्रता के लिए जल आवश्यक है। जल में आध्यात्मिक शक्तियां होती हैं। दुनिया की सभी पुरानी सभ्यताओं का जन्म जल के समीप अर्थात नदियों के किनारे हुआ है। दुनिया के जितने पुराने नगर हैं वे सब नदियों किनारे बसे हैं। जल पाने के मुख्यतः चार स्रोत हैं नदियां, झीलें, तालाब, कुआं। हर मर्ज की दवा पानी है। दुनिया के सामने जल संकट है। इस समस्या से कैसे निपटा जाए। क्या रणनीति बने। सबको सोचना होगा। मनुष्य को प्रतिदिन तीन लीटर पानी पीने के लिए चाहिए। जीव, जीवन और जल तीनों का आपस में अंतरंग गहरा संबंध है। जल चक्र को बनाए रखने के लिए कोहरे (ओला, बर्फ और पाला) की भूमिका महत्वपूर्ण है। पानी में यदि भाप बनने का गुण ना होता तो दुनिया को पानी ही ना मिलता। पानी को छोड़कर दुनिया की सभी चीजें सर्दी में सिकुड़ती है लेकिन सर्दी में पानी फैलता है। दुनिया के हर चीज का तापमान पानी के तापमान के मानक से नापा जाता है। दुनिया की अर्थव्यवस्था में जल का बहुत बड़ा योगदान है।
पानी सदैव नीचे की ओर बहता है। वह अपना रास्ता बना स्वयं बना लेता है। हमारे वेदों और धर्म शास्त्रों में जल संरक्षण के बारे में पहले ही सचेत किया जा चुका है।
पृथ्वी में जितने भी जीव हैं उनका जीवन जल पर निर्भर है। पेड़ में, फलों में, अनाज में, पत्तों में और जड़ों में जो स्वाद और रस है, वह सब जल के कारण है। यानी पानी के बिना सब सून है।
गोस्वामी तुलसीदास महाराज ने रामचरितमानस में कहा है-क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, पांच तत्व मिल रचा शरीरा।। कबीर ने कहा है- पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात।। रहीम कह गए हैं-रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।। वेदों में कहा गया है कि जल देवता की भक्ति और सेवा से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। प्राचीन काल से हम स्तुति प्रार्थना करते चले आ रहे हैं। जल को स्वच्छ बनाए रखना भी जल देवता की पूजा है। जन्म से लेकर मृत्यु तक पानी का हमारे जीवन में सबसे बड़ा स्थान है। पानी में ही सारे देवता रहते हैं। इसलिए जब कोई धार्मिक अनुष्ठान होता है तब उसमें सबसे पहले कलश की पूजा होती है या कलश यात्रा निकलती है। हमारे पूर्वज, माता-पिता जब चारोंधाम की यात्रा अथवा गंगा-जमुना दर्शन जाते थे तो कुछ लाएं या ना लाएं लेकिन तीर्थ से जल जरूर लाते थे। आज भी ऐसा होता है। अर्थात जल सबसे पवित्र है। पानी को आदर देना होगा। सरकार के साथ हर व्यक्ति को अपने स्तर पर पानी बचाने की कोशिश करनी होगी। पानी को हम चाहे जो मानें मगर वह पानी ही है जिसकी पतली सी लकीर नई आशा की किरण देती है। प्रकृति ने जो पानी हमें मुफ्त में दिया है हमने उसे बाजार में बिक्री की चीज बना दिया है। हमने अपनी जल सभ्यता और जल संस्कृति का सत्यानाश कर दिया है।
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