सब कुछ ठीक नहीं है भारतीय रेल प्रणाली में
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योगेश कुमार गोयल

पिछले करीब तीन महीने से एक के बाद एक होती रेल दुर्घटनाओं से रेलवे के सुरक्षा प्रबंधों पर लगातार सवाल उठ रहे हैं। हालांकि 13 जनवरी को पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के दोमोहानी इलाके में हुई भीषण रेल दुर्घटना के बाद इतनी बड़ी दुर्घटना तो नहीं हुई है लेकिन लगातार हो रही छोटी रेल दुर्घटनाओं की अनदेखी करना भी उचित नहीं होगा क्योंकि ये दुर्घटनाएं भी यह सचेत करने के लिए पर्याप्त हैं कि भारतीय रेल प्रणाली में सब कुछ दुरूस्त नहीं है। ऐसे हर छोटे-बड़े हादसों में रेल तंत्र की लापरवाही स्पष्ट उजागर होती रही है।

अगर हाल की कुछ दुर्घटनाओं पर नजर डालें तो 3 अप्रैल को महाराष्ट्र में नासिक के निकट जयनगर एक्सप्रेस के 11 डिब्बे पटरी से उतरने के कारण एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। उसी दिन जोगबनी से कटिहार जा रही डीएमयू का एक्सल टूट जाने से बड़ी दुर्घटना होते-होते बची। 2 अप्रैल को महाराष्ट्र के दौलताबाद स्टेशन के निकट मालगाड़ी के 8 डिब्बे पटरी से उतर गए। 31 मार्च को एटा से आगरा जा रही रेलगाड़ी बड़ी दुर्घटना का शिकार होते-होते टली, दरअसल आगे पटरी टूटी थी और एक श्रमिक महिला ने रेल पटरी के बीचों-बीच अपनी लाल साड़ी दिखाकर चालक को सचेत किया। 28 मार्च को छत्तीसगढ़ के जामगांव रेलवे स्टेशन के निकट एक ही पटरी पर दो मालगाडि़यां आ जाने से उनकी टक्कर हो गई। 5 मार्च को सहारनपुर से दिल्ली आ रही पैसेंजर ट्रेन में अचानक आग लगने से यात्रियों में हड़कंप मच गया था। उससे पहले बिहार के मधुबनी रेलवे स्टेशन पर खड़ी स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस की कुछ बोगियों में 19 फरवरी की सुबह एकाएक आग लग गई थी।

लापरवाही के चलते लगातार हो रहे ऐसे रेल हादसों की बहुत लंबी फेहरिस्त है लेकिन चिंता की बात यह है कि लगातार होते ऐसे हादसों से कोई सबक नहीं लिए जाते। जब भी बड़ा रेल हादसा होता है तो रेलवे द्वारा भविष्य में ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए कड़े कदम उठाने का रटा-रटाया जवाब सुनने को मिलता है लेकिन थोड़े ही समय बाद जब फिर कोई रेल हादसा सामने आता है तो रेल तंत्र के ऐसे दावों की कलई खुल जाती है। ऐसे रेल हादसों के बाद प्रायः जांच के नाम पर कुछ रेल कर्मचारियों व अधिकारियों पर गाज गिरती है किन्तु समूचा रेल तंत्र उसी पुराने ढर्रे पर रेंगता रहता है।

हर रेल हादसे के बाद कारणों को लेकर तरह-तरह की बातें कही-सुनी जाती हैं। कभी रेलकर्मियों की लापरवाही की बात सामने आती है तो कभी कहा जाता है कि बाहरी ताकतों ने इसे अंजाम दिया। हर दुर्घटना के बाद जांच के आदेश दिए जाते हैं और जांच के लिए उच्चस्तरीय समिति गठित की जाती है किन्तु समिति की रिपोर्ट फाइलों में दबकर रह जाती है। यही कारण है कि किसी भी हादसे में कभी पता नहीं चलता कि हादसे में वास्तविक दोषी कौन था?

रेल दुर्घटनाओं के मामले में भारतीय रेलों की क्या दशा है, इसका अनुमान रेल मंत्रालय के ही इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है कि 2019 से पहले के साढ़े चार वर्षों में 350 से भी अधिक छोटे-बड़े हादसे हुए थे। रिपोर्ट के अनुसार 2014-15 में जहां 135 रेल हादसे हुए, वहीं 2015-16 में 107 और 2016-17 में 104 रेल हादसे सामने आए। तत्कालीन रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने संसद में बताया था कि 2012 से 2017 के बीच पांच वर्षों में देश में 586 रेल हादसे हुए, जिनमें 308 बार ट्रेनें पटरी से उतरी और उन हादसों में 1011 लोग मारे गए, जिनमें पटरी से उतरने वाली ट्रेनों ने ही 347 जानें ली। रेलवे सेफ्टी और यात्री सुरक्षा से जुड़े एक सवाल के जवाब में संसद में बताया गया था कि रेल हादसों की बड़ी वजह रेलवे स्टाफ की नाकामी, सड़क पर चलने वाली गाडि़यां, मशीनों की खराबी और तोड़-फोड़ रही। 2014-15 के 135 रेल हादसों में 60, 2015-16 में हुए 107 हादसों में 55 और 2016-17 में 30 नवम्बर 2016 तक के 85 हादसों में से 56 दुर्घटनाएं रेलवे स्टाफ की नाकामी या लापरवाही के चलते हुई।

तत्कालीन रेलमंत्री सुरेश प्रभु द्वारा 2016-17 के रेल बजट में रेल दुर्घटनाएं रोकने के लिए ‘मिशन जीरो एक्सीडेंट’ नामक एक विशेष अभियान शुरू करने की घोषणा की गई थी, जिसके बाद रेल दुर्घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए त्वरित पटरी नवीनीकरण, अल्ट्रासोनिक रेल पहचान प्रणाली तथा प्राथमिकता के आधार पर मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग खत्म किए जाने जैसे विभिन्न सुरक्षा उपायों पर कार्य शुरू किया गया था किन्तु ये कार्य बहुत धीमी गति से जारी हैं। हालांकि ट्रेनों की आपस में टक्कर से होने वाली दुर्घटनाओं को रोकने के लिए ‘कवच’ नामक सुरक्षा प्रणाली का उपयोग शुरू हो चुका है और धीरे-धीरे इसका दायरा बढ़ाया जा रहा है लेकिन तमाम छोटी-बड़ी रेल दुर्घटनाओं को रोकने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

रेल दुर्घटनाओं पर लगाम नहीं लग पाने का बहुत बड़ा कारण है रेल पटरियों की जर्जर हालत, जिन पर सरपट दौड़ती रेलें कब किस जगह बड़े हादसे का शिकार हो जाएं, कहना मुश्किल है। एक तरफ जहां बूढ़ी हो चुकी जर्जर पटरियों पर जवान ट्रेनें सरपट दौड़ रही हैं, वहीं देशभर में लगभग सभी स्थानों पर पटरियां अपनी क्षमता से कई गुना ज्यादा बोझ ढ़ो रही हैं। रेलवे ट्रैकों पर बोझ लगातार बढ़ रहा है। भारतीय रेलवे के कुल 1219 रेलखंडों में से करीब 40 फीसदी पर ट्रेनों का जरूरत से ज्यादा बोझ है। एक रिपोर्ट के मुताबकि 247 रेलखंडों में से करीब 65 फीसदी तो अपनी क्षमता से 100 फीसदी से भी अधिक बोझ ढ़ोने को मजबूर हैं और कुछ रेलखंडों में पटरियों की कुल क्षमता से 220 फीसदी तक ज्यादा ट्रेनों को चलाया जाता रहा है। इस वजह से भी अनेक वीभत्स हादसे होने के बाद भी रेल तंत्र इस ओर से आंखें मूंदे रहा है।

 

रेलवे की स्थायी समिति द्वारा अपनी सुरक्षा रिपोर्ट में स्पष्ट किया जा चुका है कि वर्ष 1950 से 2016 के बीच दैनिक रेल यात्रियों में जहां 1344 फीसदी की वृद्धि हुई, वहीं माल ढुलाई में 1642 फीसदी की बढ़ोतरी हुई लेकिन इसके विपरीत रेलवे ट्रैक का विस्तार महज 23 फीसदी ही हो सका। वर्ष 2000 से 2016 के बीच दैनिक यात्री ट्रेनों की संख्या में भी करीब 23 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।

यात्री रेलों के अलावा मालगाडि़यों की भी बात करें तो अधिकांश मालगाडि़यां भी ट्रैकों पर उनकी क्षमता से कहीं अधिक भार लिए दौड़ रही हैं। रेल नियमावली के अनुसार मौजूदा ट्रैक पर 4800 से 5000 टन भार की मालगाडि़यां ही चलाई जा सकती हैं लेकिन पिछले कई वर्षों से सभी ट्रैकों पर 5200 से 5500 टन भार के साथ मालगाडि़यां दौड़ रही हैं। हालांकि कैग की एक रिपोर्ट में ओवरलोडेड मालगाडि़यों के परिचालन पर आपत्ति जताते हुए उन पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया था किन्तु कमाई के फेर में रेलवे द्वारा कैग के इन महत्वपूर्ण सुझावों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।

बेहतर होगा, रेल तंत्र पटरियों पर दौड़ती मौत रूपी भारतीय रेल के सफर को सुरक्षित बनाने की दिशा में शीघ्रातिशीघ्र कारगर कदम उठाए और रेलों में यात्रियों की सुरक्षा के भी पुख्ता इंतजाम हों।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

Dakhal News 7 April 2022

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