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शल्यकर्णी, एक दुर्लभ औषधीय पौधा है, जिसका इतिहास महाभारत काल से जुड़ा हुआ है। यह पौधा खास तौर पर युद्ध के दौरान सैनिकों के घावों को जल्दी भरने के लिए उपयोग किया जाता था। इसके पत्तों और छाल का रस घावों पर लगाने से सैनिकों के घाव जल्दी ठीक हो जाते थे। आजकल यह पौधा केवल रीवा क्षेत्र में ही पाया जाता है, और इसके संरक्षण के लिए वन विभाग द्वारा निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं।
आयुर्वेदिक ग्रंथों में शल्यकर्णी का उल्लेख मिलता है। विशेष रूप से चरक संहिता में इसे शल्यक्रिया में सहायक माना गया है। इस पौधे का उपयोग आयुर्वेद में भी औषधि के रूप में किया जाता था। हालांकि, समय के साथ यह पौधा लुप्त हो गया था, लेकिन अब वन विभाग इसके संरक्षण और पुनर्विकास पर काम कर रहा है, ताकि भविष्य में इसे औषधि के रूप में पुनः उपयोग किया जा सके।
वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि शल्यकर्णी की पुन: उपस्थिति न केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए भी लाभकारी हो सकता है। इस पौधे की महत्ता को देखते हुए इसे संरक्षित करने के लिए विशेष प्रयास किए जा रहे हैं।
"शल्यकर्णी का आयुर्वेदिक महत्व बहुत ज्यादा है और इसके संरक्षण से हम पुरानी आयुर्वेदिक पद्धतियों को फिर से जीवन दे सकते हैं। इसके औषधीय गुणों के बारे में विस्तार से अध्ययन किया जा सकता है।"
वन विभाग के निरंतर प्रयासों से यह पौधा न केवल इतिहास को पुनर्जीवित करेगा, बल्कि भविष्य में एक महत्वपूर्ण औषधि स्रोत के रूप में उभर सकता है।
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