सरकारें सटीक डेटा के बिना योजनाएं नहीं बना सकती हैं
Governments cannot make plans

चेतन भगत 

पिछले दशक में भाजपा की बड़ी राजनीतिक उपलब्धियों में से एक हिंदू वोटों को एकजुट करने की उसकी क्षमता रही है। 2014 के बाद ऐसा लगा कि हिंदू आखिरकार एक साथ आ रहे हैं, जबकि यह आजादी के बाद से नहीं हुआ था। इससे निश्चित रूप से भाजपा को वोट-शेयर में बढ़त मिली और चुनाव-दर-चुनाव उनका प्रदर्शन दूसरी पार्टियों के लिए ईर्ष्या का विषय बन गया।

यह शाश्वत सत्य है कि अगर भाजपा के लिए बहुसंख्यक हिंदू-वोट अटूट रहे, तो कांग्रेस और उसके सहयोगी सत्ता में आने की उम्मीद नहीं कर सकते। यही कारण है कि 2024 के चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करने के बाद से ही कांग्रेस और उसके सहयोगी फिर से अपने पुराने फॉर्मूले को अमल में लाने के लिए कमर कस चुके हैं।

जातिगत जनगणना के पक्ष और विपक्ष में बौद्धिक तर्क हो सकते हैं, लेकिन इसमें भला किसे संदेह होगा कि यह मूल रूप से राजनीतिक मुद्दा है। देश में जातिगत परिदृश्य को बेहतर ढंग से समझें तो न केवल यह पता लगाना जरूरी है कि किसी खास जाति के कितने लोग हैं, बल्कि उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में मालूम करना भी उतना ही आवश्यक है।

उदाहरण के लिए, कितने लोगों के पास कारें हैं? कितनों के पास दोपहिया वाहन हैं? वे किस स्तर की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं? वे कहां और कैसे घरों में रहते हैं? उनकी औसत आयु क्या है? ऐसे सवालों के जवाब बेहद मूल्यवान डेटा को सामने लाएंगे। यह डेटा आरक्षण सहित विभिन्न जाति-आधारित कल्याणकारी उपायों में प्रबंधन में मदद करेगा।

भारत अभी भी सीमित संसाधनों वाला एक कम आय वर्ग का देश है। फिर भी, हम जो कुछ भी हमारे पास है, उसी के साथ संसाधनों को वंचित वर्गों में पुनर्वितरित करने और अपनी ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने का प्रयास करते हैं। लेकिन अगर हमारे मौजूदा उपाय पुराने डेटा पर आधारित होंगे, तो बहुत सम्भव है कि हम अपने संसाधनों को बर्बाद कर रहे होंगे, क्योंकि तब हम वांछित समुदायों तक लाभ नहीं पहुंचा पाएंगे।

हम ऐसे समय में रह रहे हैं, जहां डेटा का उपयोग हर चीज को अनुकूलित करने के लिए किया जाता है। ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के लिए भी सटीक डेटा होना बहुत जरूरी है।

जातिगत जनगणना के कुछ नुकसान भी हैं। सबसे बड़ा नुकसान यह है कि ये तमाम कवायदें अंततः जाति-व्यवस्था को जीवित रखती हैं। एक समाज के रूप में हमारा अंतिम लक्ष्य क्या होना चाहिए? अधिकतम आरक्षण प्राप्त करना? या एक ऐसा समाज बनाना, जहां कोई जातियां नहीं होंगी? इन सवालों के जवाब आसान नहीं। लेकिन यह साफ है कि जब तक जाति-आधारित आरक्षण मौजूद है, तब तक जाति-आधारित सामाजिक-आर्थिक डेटा का होना भी जरूरी है।

लेकिन ये सब तो तार्किक बातें हुईं। अंतिम निष्कर्ष में तो यह कवायद राजनीति के लिए ही है। जैसे राम मंदिर और अनुच्छेद 370 के मुद्दों ने हिंदू वोटों को मजबूत करने में मदद की है, उसी तरह जातिगत जनगणना हिंदू वोटों में सेंध लगाने की जुगत है।

जब जातिगत जनगणना के आंकड़े आखिरकार जारी किए जाएंगे, तो विभिन्न जातियों और समुदायों के बारे में पुख्ता जानकारियां सामने आएंगी। कुछ उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं (जो कि होना भी चाहिए, खासकर अगर आरक्षण कारगर रहा हो तो)। वहीं कुछ अन्य का प्रदर्शन खराब हो सकता है।

डेटा हमेशा नीतिगत फेरबदल की ओर इशारा करेगा, जिसका मतलब है कुछ जातियों को फायदा होगा और कुछ को नुकसान। व्यापक स्तर पर, इसका मतलब यह हो सकता है कि हमारे पास और अधिक आरक्षण होगा, जो उच्च जातियों को परेशान करेगा।

या हमें कुछ ऐसी निचली जातियों के बारे में भी पता चल सकता है, जो शायद कुछ उच्च जातियों से बेहतर प्रदर्शन कर रही हों। यह सब चर्चाओं, बहसों, भ्रम को जन्म देगा। लेकिन इसका अंतिम निष्कर्ष हिंदू वोटों का विभाजन ही है और यही कारण है कि भाजपा इससे अचकचा रही है।

जाति-जनगणना पर भाजपा एक चक्रव्यूह में फंस गई है, अब यह उस पर है कि इसे कैसे हैंडल करना है। कांग्रेस को भी बताना होगा कि कर्नाटक में जो जातिगत जनगणना हुई है, उसके डेटा पर उसकी सरकार क्या करने जा रही है।

Dakhal News 14 August 2024

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