Dakhal News
14 January 2025हिमालय के पावनतम शिखरों में से एक केदारनाथ की तराई में ही ऋषि अग्निहोत्र का आश्रम था। वर्षों की अखंड समाधि के बाद ऋषिवर अभी-अभी शिवरात्रि की पुण्य वेला में हिमालय से उतरकर अपने आश्रम को लौटे थे। उनके धवल, उन्नत व सौष्ठव शरीर की कांति देखते ही बनती थी। ऐसा लगता था मानो भूतभावन भगवान भोलेनाथ स्वयं ऋषि रूप में अपने भक्तों पर, शिष्यों पर अपना अनुग्रह बरसाने आए हों। उनके रोम-रोम से एक अजस्त्र ज्योतिधारा बहे जा रही थी और उस धारा में बहे जा रहे थे वे सौभाग्यशाली ऋषि कुमार, शिष्य गण जो लंबी प्रतीक्षा के बाद अपने आराध्य के दर्शन कर रहे थे एवं उनका सान्निध्य पा रहे थे। उनके पद्मनाभ से पद्म की अलौकिक सुगंध पूरे आश्रम परिसर में फैल रही थी। उनके नेत्रों से मानो तप की अग्नि ज्योति बनकर बह रही थी और सभी ऋषि कुमारों को आनंदित, आह्लादित व पुलकित किए जा रही थी। योग शास्त्रों में वर्णित योगसिद्ध, स्थितप्रज्ञ के सारे लक्षण, भाव दशा, देह दशा आज उनमें अभिव्यक्त हो रहे थे। आज सचमुच श्वेताश्वतर उपनिषद् 2/12 के मंत्र ऋषिवर के व्यक्तित्व में दृश्यमान तथा दृष्टिगोचर हो रहे थे।
न तस्य रोगो नजरा न मृत्युः ।
प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् ॥
अर्थात— योगाभ्यास करने वाले योगी के शरीर में न तो रोग होता है, न बुढ़ापा आता है। वह योगरूपी अग्निमय शरीर को प्राप्त करता है। आज उनके अग्निमय शरीर की आभा से शिष्य ही नहीं, बल्कि सारा आश्रम परिसर आह्लादित हो रहा था। उस आभामंडल में मनुष्य की कौन कहे, हिंसक पशु-पक्षी भी अपना वैर-भाव त्यागे जा रहे थे, भूले जा रहे थे और वास्तव में महर्षि पतंजलि के योगसूत्र 2/35 का यह मंत्र चरितार्थ हो रहा था—
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥ अर्थात— जब योगी का अहिंसा भाव पूर्णतया दृढ़स्थिर हो जाता है, तब उसके निकटवर्ती हिंसक जीव भी वैर-भाव से रहित हो जाते हैं।
आज सचमुच गीता—2/54 में अर्जुन द्वारा भगवान श्रीकृष्ण से पूछे गए इस प्रश्न के उत्तर के जीवंत प्रतीक बनकर ऋषिवर प्रस्तुत थे—
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥
अर्थात— हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? आज हर शिष्य एवं ऋषिकुमार के समक्ष इन सभी प्रश्नों के उत्तर के रूप में ऋषिवर दृश्यमान हो रहे थे।
जब व्यक्ति आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट हो जाता है, सभी कामनाओं का त्याग कर देता है, सर्वज्ञ स्नेहरहित हुआ शुभ या अशुभ वस्तु को पाकर भी न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, तब मान लेना चाहिए कि उसकी बुद्धि स्थिर है। समाधि में परमात्मा का दर्शन होते ही उसकी आसक्ति समाप्त हो जाती है। यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है। इसको प्राप्त होकर वह योगी कभी मोहित नहीं होता और सदैव इसी ब्राह्मीभाव में स्थिर होकर ब्रह्मानंद की अनुभूति करता है। आज ऋषिवर की शांत, प्रशांत भावभंगिमा, चेहरे पर बुद्धपुरुषों-सा अपूर्व तेज देखकर हर कोई ब्रह्मपुरुष, बुद्धपुरुष के सान्निध्य की अनुभूति कर रहा था। आज वे अणिमा, लघिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व, ईशित्व आदि अष्टसिद्धियों के स्वामी बने बैठे थे, पर उनमें अहंकार का लेश मात्र भी न था; क्योंकि वे इन सिद्धियों के मोह से परे हो चुके थे, वे तो देह में रहते हुए भी विदेह हो चुके थे। ऋषिवर मौन थे। उनके अधरों पर स्वर्गीय मुस्कान अठखेलियाँ कर रही थी। आज वे मानो मौन रहकर ही अपने शिष्यों पर शक्तिपात कर रहे थे, स्नेह-संचार कर रहे थे। अपार आनंद में डूबे ऋषिकुमारों के मुख से भी आज कोई शब्द नहीं निकल रहे थे। वे चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रहे थे; क्योंकि उस प्रशांत आभामंडल की चिर शांति, प्रशांति ही इतनी प्रगाढ़ थी कि व्यक्त-अव्यक्त सब एक हो चले थे। इस प्रेमवर्षा में शिष्यों, समस्त ऋषिकुमारों के चित्त शुद्ध हुए जा रहे थे। वे गुरुवर के इस मौन रहस्य को खूब समझ रहे थे; क्योंकि वह प्रशांति अब उनके भीतर भी उतरकर उन्हें अपने आगोश में लिए जा रही थी। नेत्रों से आँसुओं की अविरल धारा बहे जा रही थी और उन आँसुओं में बहे जा रहे थे- उनके जन्म-जन्मांतरों के सभी चित्तविकार, संस्कार। चित्त निर्मल होते ही शिष्यों की आनंदानुभूति, ब्रह्मानुभूति गहरी और अधिक गहरी होती जा रही थी। गुरुवर के नेत्रों से निकल रही ब्रह्मज्योति अब शिष्यों के नाभिकमल में प्रवेश कर रही थी। उसके प्रवेश करने की अनुभूति, सिहरन, गुदगुदी एक अपूर्व थिरकन, पुलकन उनके स्थूलशरीर में हो रही थी। उनका नाभिकमल खिल चुका था। स्थूलशरीर के जागरण के साथ ही वह प्रकाशधारा, अग्निधारा, ब्रह्मधारा हृदय चक्र में प्रवेश पा रही थी। सूक्ष्मशरीर के समस्त क्लेशों, विकारों से उन्हें मुक्ति मिल रही थी।
ब्रह्मकमल खिलते ही अब वह ब्रह्मधारा बरसने लगी और सहस्त्रदलकमल खिल उठे। कारणशरीर ब्रह्मज्योति से जगमगा उठा। चित्त की सदा-सर्वदा के लिए श्रद्धा में स्थिति हो गई, बोधत्व की प्राप्ति हो गई।
Dakhal News
22 July 2024
All Rights Reserved © 2025 Dakhal News.
Created By: Medha Innovation & Development
|