प्रवेश और परीक्षा के भँवर में शिक्षा
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गिरीश्वर मिश्र

भारत में शिक्षा का आयोजन किस प्रकार हो ? यह समाज और सरकार दोनों के लिए केंद्रीय सरोकार है। ज्ञान की अभिवृद्धि, समाज के मानस-निर्माण, कुशलता, उत्पादकता तथा सांस्कृतिक और सर्जनात्मक उन्मेष आदि अनेक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शिक्षा महत्व निर्विवाद है। यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि आज के युग में सामान्यतः औपचारिक शिक्षा की प्रक्रिया से गुजर कर ही प्रौढ़ जीवन में सार्थक प्रवेश मिल पाता है। जो शिक्षा और उसकी कसौटी पर खरे उतरते हैं वे जीविका की दौड़ में आगे बढ़ जाते हैं और जीवन में कामयाबी हासिल करते हैं। इसलिए शिक्षा को लेकर विद्यार्थी, अध्यापक और अभिभावक सभी के मन में आशाएं पलती रहती हैं।

भारत की जनसंख्या में युवा-वर्ग के अनुपात में वृद्धि के साथ शिक्षा व्यवस्था पर दबाव बढ़ता जा रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में ‘सर्वोदय’ की भावना भी है और हमारी अपेक्षा है कि असमानता को दूर करने और सामाजिक-आर्थिक खाई को पाटने के लिए शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का कारगर उपाय साबित होगी। इन सारी महत्वाकांक्षाओं के मद्देनजर गौर करें तो शिक्षा की जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती दिखती है। शिक्षा से जुड़े लोगों का विचार है कि स्वतंत्रता मिलने के बाद शिक्षितों और शिक्षा केन्द्रों की संख्या तो जरूर बढ़ी है पर शिक्षा-तंत्र कई तरह के विकारों से अधिकाधिक ग्रस्त भी होता गया है जिसके चलते शिक्षा वह सब कर पाने में पिछड़ रही है जिसकी उससे अपेक्षा थी। शिक्षा से जुड़े बहुत से सवाल मसलन- शिक्षा किसलिए दी जाय ? शिक्षा कैसे दी जाय ? शिक्षा का भारतीय संस्कृति और वैश्विक क्षितिज पर उभरते ज्ञान-परिदृश्य से क्या सम्बन्ध हो ? शिक्षा की विषयवस्तु क्या और कितनी हो ? उठाए जाते रहे हैं और सरकारी नीति के मुताबिक समय-समय पर टुकड़े-टुकड़े कुछ-कुछ किया जाता रहा।

मुख्य परिवर्तन की बात करें तो स्कूली अध्यापकों के लिए प्रशिक्षण (बीएड) बड़े पैमाने पर शुरू हुआ, एनसीआरटी ने राष्ट्रीय स्तर पर मानक पाठ्यक्रम की रूपरेखा और पाठ्य पुस्तकें तैयार कीं, छात्रों के लिए शिक्षा-काल की अवधि में इजाफा हुआ, सेमेस्टर प्रणाली चली, बहु विकल्प वाले वातुनिष्ठ (आब्जेक्टिव) प्रश्न का परीक्षा में उपयोग होने लगा , अध्यापकों के लिए पुनश्चर्या कार्यक्रम शुरू हुए और अध्यापकों के प्रोन्नति के लिए अकादमिक निष्पादन सूचक (ए पी आई) लागू किये जाने जैसे ‘सुधारों’ का जिक्र किया जा सकता है। इन सबसे कई तरह के बदलाव आए हैं जिनके मिश्रित परिणाम हुए हैं।

इस बीच शिक्षा का परिप्रेक्ष्य भी बदला है और शिक्षा व्यवस्था में कई तरह की विविधताएँ भी आई हैं। खासतौर पर व्यावसायिक परिदृश्य की जटिलताओं के साथ शिक्षा ने कई दिशाओं में कदम बढ़ाया है। बाजार की जरूरत के हिसाब से कई बदलाव आए हैं और सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में शिक्षा के निजी क्षेत्र का तीव्र और बड़ा विस्तार हुआ है। शिक्षा के परिदृश्य का यह पहलू इस बात से भी जुड़ा हुआ कि सरकार की ओर से न पर्याप्त निवेश हो सका और न व्यवस्था ही कारगर हो सकी। इसका एक ही उदाहरण काफी होगा। दिल्ली जैसे प्रतिष्ठित केन्द्रीय विश्वविद्यालय और ऐसे ही अनेक संस्थानों में अध्यापकों के हजारों पद वर्षों से खाली पड़े हैं और ‘तदर्थ’ /‘अतिथि’ (एडहाक / गेस्ट) अध्यापकों के जरिए जैसे-तैसे काम निपटाया रहा है। ऐसे ही एनसीआर ट , जो स्कूली शिक्षा का प्रमुख राष्ट्रीय केंद्र और शिक्षा नीति को लागू करने वाली संस्था है, पिछले कई वर्षों से लगभग आधे से भी कम कर्मियों के सहारे घिसट रहा है। देश में सरकारी स्कूलों कि स्थिति में जरूरी सुधार नहीं हो पा रहा है। अध्यापकों और जरूरी सुविधाओं से वे लगातार जूझ रहे हैं।

इन सब पर समग्रता में विचार करते हुए भारत सरकार ने 2014 में देश के लिए नई शिक्षानीति बनाने का बीड़ा उठाया और लगभग छह वर्ष में नीति का एक महत्वाकांक्षी मसौदा 2020 में प्रस्तुत किया है। उसे लेकर पिछले एक वर्ष से पूरे देश में चर्चाओं का दौर चला है। उस पर अमल करते हुए कई कदम उठाए गए हैं जिनमें पाठ्यक्रम की रूप रेखा (एन सी ऍफ़) का निर्माण प्रमुख है। अनुमान किया जाता है कि बन रहे पाठ्यक्रम से ज्ञान, कौशल और मूल्य को संस्कृति और पर्यावरण के अनुकूल ढालने का उद्यम हो रहा है । उससे अपेक्षा है कि नए पाठ्यक्रम नौकरी, नागरिकता और निसर्ग सभी के लिए उपयोगी होगा । वह भारत केन्द्रित होने के साथ-साथ वैश्विक दृष्टि से भी प्रासंगिक होगा। मातृभाषा को माध्यम के रूप में और भारतीय ज्ञान परम्परा को अध्ययन विषय के रूप में स्थान मिलेगा। यह सब कैसे और कब होगा यह प्रकट नहीं तो भविष्य के गर्भ में है, पर कुछ कदम जरूर उठाए गए हैं जैसे अध्यापकों का ‘निष्ठा’ नामक प्रशिक्षण चला।

कहा जा रहा नई शिक्षा नीति के कार्यान्वयन के अंतर्गत विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सभी विश्वविद्यालयों के लिए एक प्रवेश-परीक्षा लेने का प्रस्ताव रखा है। इस उपाय को प्रवेश की चुनौतियों से निबटने के लिए एक क्रांतिकारी कदम के रूप में सोचा गया है। शिक्षा के लिए उमड़ते विद्यार्थियों के हुजूम के लिए इस समाधान के क्या सुफल होंगे यह जानना आवश्यक है क्योंकि हम यह मान रहे हैं कि यह शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए सुझाया जा रहा है ।

यह नया स्पीड ब्रेकर क्या गुल खिलाएगा और उसके क्या परिणाम हो सकते हैं इस पर गौर करना ज़रूरी है । साथ ही विविधता में एकता लाने का यह प्रयास समाज के बौद्धिक स्तर के संवर्धन में कितना लाभकारी होगा यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए । सबका अनुभव है कि उच्च शिक्षा के अवसरों की उपलब्धता, खास तौर पर अच्छे संस्थानों और शिक्षा केन्द्रों पर, बेहद अपर्याप्त रही है और उसमें कोई ज्यादा वृद्धि नहीं हुई है। इसके चलते प्रतिस्पर्धा में सफलता पाने के लिए बारहवीं की परीक्षा के प्राप्तांकों को ही आधार बनाया गया । मेडिकल , इंजीनियरिंग और प्रबंधन जैसे व्यावसायिक शिक्षा में प्रवेश के लिए परीक्षा द्वारा प्रवेश की व्यवस्था पहले से ही लागू है। अब उसे सामान्य शिक्षा के क्षेत्र में भी लागू किया जा रहा है।

औपचारिक शिक्षा वाली परीक्षा में सामान्य अंकों को उपार्जित करने पर अतिरिक्त जोर पड़ा और उसमें सही गलत किसी भी तरह से बढ़त पाने की इच्छा का परिणाम कई समस्याओं को पैदा करता रहा है। मसलन पिछले सत्र में एक प्रदेश के बोर्ड में अप्रत्याशित रूप से शत-प्रतिशत अंक पाने वाले बड़ी संख्या में छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश को प्रस्तुत हुए और छा गए। शेष छात्र मुँह देखते रहे। प्रस्तावित प्रवेश परीक्षा के साथ पहले वाली औपचारिक परीक्षा भी बनी रहेगी पर उससे अधिक महत्त्व की होगी क्योंकि प्रवेश अंतत: नई परीक्षा के परिणाम द्वारा ही निर्धारित होगा। अर्थात अब छात्रों और अभिभावकों पर एक नहीं दो-दो परीक्षाओं का भूत सवार होगा ! एक परीक्षा की समस्या को दूर करने के लिए एक और परीक्षा लादी जा रही है। आज का घोर सत्य यही है कि शिक्षा प्रवेश और परीक्षा की दो चक्कियों के बीच पिस रही है और इससे पिस कर निकल सकने वाले को ही मोक्ष मिल पा रहा है। शिक्षा की यह त्रासदी दिन-प्रतिदिन जटिल होती जा रही है। इसके अवांछित प्रवाह को रोकने के लिए गति अवरोधक खड़े किए जाते रहे हैं।

दरअसल प्रवेश परीक्षा अभिक्षमता या ऐप्टिट्यूड का मापन करने के लिए होती है ताकि शिक्षा या प्रशिक्षण का लाभ उठा सकने वाले अभ्यर्थियों को चुना जा सके। पर हमने उसे एक सीढ़ी ऊपर उठाकर उपलब्धि या अचीवमेंट का मापक बना दिया और फिर वही सब होने लगा जो पहले की परीक्षा में होता था। परिणाम यह है कि विद्यालय की पढ़ाई से विद्यालय की परीक्षा की तैयारी और कोचिंग की पढ़ाई से व्यावसायिक परीक्षा की तैयारी, यह आज अभिभावक और विद्यार्थी के मन में एक स्पष्ट समीकरण बन गया है। इसी के अनुसार जीवन में आगे बढ़ने की कवायद चल रही है। सभी देख रहे हैं कि इस प्रक्रिया में विद्यालय की पढ़ाई गौण होती जा रही है और व्यावसायिक प्रवेश परीक्षा की पढ़ाई निहायत गुरु-गम्भीर और सीरियस मानी जाती है। इसकी इंतहा तो तब होती है जब कोचिंग संस्थान खुद ही विद्यालय वाली इंटर की परीक्षा का जिम्मा ले लेते हैं और विद्यार्थी विद्यालय भी नहीं जाता सिर्फ ‘परीक्षा फार्म‘ भरता है और यथासमय उसकी परीक्षा में शामिल हो जाता है।

शिक्षा की अधोगति की यह अद्भुत कथा एक सार्वजनिक सत्य है। आज अधिकांश इंटर कॉलेज विद्यार्थी शून्य होते जा रहे हैं। मेधावी बच्चे विद्यालय छोड़ कोचिंग की ओर रुख करते दिख रहे हैं। विद्यालयी शिक्षा के प्रति सरकार, समाज, विद्यार्थी सबका एक स्वर से समवेत घोर अविश्वास चिंताजनक हो रहा है। कहाँ तो इसकी रोकथाम की जानी चाहिए थी परंतु इस बात पर बिना विचार किए प्रस्तावित साझा प्रवेश परीक्षा इस अविश्वास की ही पुष्टि करती है और घोषित करती है कि विद्यालय की पढ़ाई जैसे हो रही थी, होती रहेगी यदि आगे पढ़ने-पढ़ाने की इच्छा है तो विद्यालयी परीक्षा के अतिरिक्त इस नई परीक्षा को अनिवार्य रूप से पास करना होगा। एक परीक्षा की जगह दूसरी परीक्षा को महत्व देने से विद्यालयी शिक्षा के स्तर में गिरावट ही होगी। परीक्षा देवी की महिमा की जय हो। विद्या को विमुक्ति का माध्यम कहते हैं परन्तु पर हम सब उसे जकड़बंद करने पर तुले हैं।

Dakhal News 17 April 2022

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