बदलाव की कगार पर संविधान का समाजशास्त्र
Sociology of Constitution on the verge

अभय कुमार दुबे 

दलितों और आदिवासियों के वर्गीकरण के बारे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला समाज और राजनीति के संबंधों को भीतर से बाहर तक बदलने की तरफ ले जा सकता है। इसका असर एससी-एसटी तक ही सीमित नहीं रहेगा, ओबीसी पर भी इसका रूपांतरकारी असर पड़ेगा।

अगले 10 से 15 साल के भीतर-भीतर देश की 60 से 70 प्रतिशत आबादी की राजनीतिक-सामाजिक पहचान पहले जैसी नहीं रह जाएगी। फैसले को गंभीर राजनीतिक-कानूनी रुकावटों का सामना भी करना पड़ सकता है।

संविधान-निर्माताओं ने समाज की नक्शानवीसी करते हुए उसे दो (पिछड़े और अगड़े) हिस्सों में बांटा था। इसके बाद पिछड़े वर्ग की विशाल बहुसंख्यक श्रेणी का विभाजन तीन हिस्सों (एससी, एसटी, ओबीसी) में कर दिया गया। इसी मानचित्र के अनुसार हमारी चुनावी गोलबंदी की संरचना बनी।

इसी के मुताबिक आरक्षण के जरिए यह तय होना शुरू हुआ कि राज्य के संसाधनों पर किसका कितना हक होगा। दूसरी तरफ इस संवैधानिक नक्शे में संशोधन की कोशिशें भी चलीं, पर इनमें से किसी को कानूनी दृष्टि से कामयाबी नहीं मिली।

अब बिहार में कर्पूरी ठाकुर के जमाने वाले उस मुंगेरी लाल कमीशन की प्रासंगिकता नए सिरे से समझ में आ सकती है, जिसने ओबीसी में नए समतामूलक वर्गीकरण का प्रस्ताव किया था। इसी तरह से मंडल कमीशन की रपट के साथ नत्थी आरएल नाइक (कमीशन के एकमात्र दलित सदस्य) की उस असहमति पर निगाह डालने की जरूरत महसूस होगी, जिसमें ओबीसी को खेतिहर और कारीगर जातियों में बांटकर उसी के मुताबिक आरक्षण का प्रतिशत अलग-अलग तय करने का आग्रह किया गया था।

मुंगेरी लाल और नाइक के प्रस्तावों के अलावा संभवत: हो सकता है कि यह फैसला काका कालेलकर कमीशन के सदस्य शिव दयाल सिंह चौरसिया द्वारा व्यक्त उस विस्तृत असहमति पर गौर करने की तरफ भी ले जाए, जिसमें आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के आग्रह की कड़ी आलोचना दर्ज है।

यानी अब ईडब्ल्यूएस पर पुनर्विचार की गुंजाइश पैदा हो सकती है। सरकार द्वारा बनाए रोहिणी कमीशन के आंकड़े पहले ही ओबीसी के पुन: वर्गीकरण की जमीन तैयार करने का काम कर रहे हैं। ये नए संदर्भ में और प्रभावी लगेंगे।

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की खास बात यह है कि उसने पंजाब समेत कुछ राज्य सरकारों द्वारा शुरू की गई उस प्रक्रिया पर कानूनी मुहर लगा दी है, जो एससी-एसटी श्रेणियों में वर्गीकरण की तरफ ले जाती है।

अगर यह फैसला पहले आ गया होता तो बिहार में नीतीश कुमार द्वारा बनाई गई महादलित श्रेणी में पासवान, पासी, धोबी और रविदास जातियां (कुल दलित समाज का 69%) राजनीतिक दबाव डालकर न घुस पातीं। उस सूरत में बिहार का दलित आरक्षण दो हिस्सों में बंट गया होता।

ज्यादा बड़ा हिस्सा उन 18 बिरादरियों को मिल रहा होता, जो संख्याबल में कमजोर और सामाजिक-शैक्षिक रूप से बहुत पीछे मानी जाती हैं। अगर यूपी सरकार चाहे तो बसपा के मुख्य जाटव जनाधार के आरक्षण पर दबदबे को घटाकर दूसरी लेकिन संख्याबल में कमजोर दलित जातियों को प्रमुखता दे सकती है। इस रोशनी में अदालती फैसले को लेकर चिराग पासवान और बसपा की बेचैनियों को आसानी से समझा जा सकता है।

भाजपा के लिए इस फैसले ने कई तरह की अनिश्चितताएं पैदा कर दी हैं। एक तरफ वह अतिदलित और अतिपिछड़ा वर्ग को नए आश्वासन देकर एक बार फिर अपनी तरफ खींच सकती है, और दूसरी तरफ इसकी प्रतिक्रिया में ओबीसी श्रेणी की शक्तिशाली खेतिहर जातियां उसका साथ छोड़ सकती हैं।

अगर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को दलित-आदिवासी और ओबीसी श्रेणियों में इस फैसले के मुताबिक उपश्रेणियां बनानी पड़ीं, तो उन्हें व्यवस्थित जातिगत जनगणना कराने की तरफ जाना ही होगा।

एक तरह से सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला देकर जातिगत जनगणना की मांग पर अघोषित मुहर लगा दी है। संघ के सिद्धांतकारों के लिए यह पूर्वानुमान लगाना मुश्किल है कि इस फैसले की रोशनी में हिंदू राजनीतिक एकता की नई परिभाषा क्या होगी।

जातिगत जनगणना के सवाल पर भाजपा फूंक-फूंककर कदम उठा रही है। जहां मजबूरी होती है (जैसे बिहार), वहां वह इसका समर्थन करती है। उसे समाज को तोड़ने वाला भी करार देती है। लेकिन कांग्रेस खुलकर इसके पक्ष में है।

Dakhal News 7 August 2024

Comments

Be First To Comment....

Video
x
This website is using cookies. More info. Accept
All Rights Reserved © 2024 Dakhal News.