इस्तीफे से अमरता चाहने की आतिशी कवायद
A fiery attempt to seek immortality

नवनीत गुर्जर 

राजनीति क्या है? वो हर परिस्थिति में निराश न होने वाली दिलेरी है! नफरत को मणि समझकर अपने मस्तिष्क में संभाले रखने वाली दिलेरी भी है!… और सपनों को ताश के पत्तों की भांति मिलाकर और बांटकर कोई खेल खेलने वाली दिलेरी भी! जिसमें कोई भी हार शाश्वत नहीं होती और कोई भी जीत स्थायी नहीं होती…क्योंकि पत्ते फिर से मिलाए या फेटे जा सकते हैं और जीत की आस फिर से बांधी जा सकती है!

‘आप’ वाले अरविंद केजरीवाल इस वक्त इनमें से किस दिलेरी को जी रहे हैं, ये तो वे ही जानें, लेकिन इतना सच है कि उनकी दुविधा विकट थी। पहाड़ जैसा संकट यही था कि कुछ महीनों के लिए ही सही, अपनी कुर्सी पर किसे बैठाएं? राजनीति के चक्रव्यूह और इसकी निष्ठाओं से तो वे भी भली-भांति परिचित हैं ही! दरअसल, दुविधा यह थी कि कब कोई जीतन राम मांझी बन जाए, कब कोई चंपई सोरेन हो जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता।

खैर, गहन मंथन के बाद आखिर वे अपनी विश्वस्त आतिशी को ‘डमी’ सीएम के रूप में चुनने में कामयाब हो गए। ‘डमी’ इसलिए कि कुर्सी पर चाहे जो बैठे, सिक्का तो केजरीवाल का ही चलता रहेगा, जैसा पन्नीरसेल्वम को मुख्यमंत्री बनाने पर जेल में बैठी जयललिता का चलता था।

पन्नीरसेल्वम मुख्यमंत्री बनकर भी जयललिता की कुर्सी छोड़कर बगल वाली कुर्सी पर बैठा करते थे और छाती से चिपकी जेब में उनका फोटो हमेशा रखते थे। कभी फोन आ जाए तो कुर्सी से उठकर बात किया करते थे। इस तरह की प्रतिबद्धता नक्की करने के बाद ही केजरीवाल ने भी आतिशी को उत्तराधिकारी चुना होगा, यह तय है।

अब सवाल यह उठता है कि यह पूरी कवायद आखिर क्यों? जब जेल में रहते हुए कुर्सी नहीं छूटी तो अब उसी प्यारी कुर्सी को बाहर (जमानत पर) आकर लतियाने का मतलब क्या? जवाब आसान है। अगली जनवरी-फरवरी में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हैं। केजरीवाल इन चार-पांच महीनों को अग्निपरीक्षा का समय मान रहे हैं।

वे इसमें से पवित्रता का वरदान चाह रहे हैं। कह रहे हैं कि अब जनता से पूछेंगे वह उन्हें ईमानदार मानती है या बेईमान? अगर ईमानदार मानती है तो जिताकर ईडी-सीबीआई सबको झूठा साबित कर दे। अगर वे जीत जाते हैं तो चार महीने के लिए कुर्सी छोड़कर जो अमरता वे चाह रहे थे, वह भी मिल जाएगी और चूंकि उनके नारे पर ही जीत मिलेगी, इसलिए पार्टी के भीतर किसी जीतन राम या किसी चंपई के उठ खड़े होने की संभावना भी पूरी तरह क्षीण हो जाएगी।

आखिर केजरीवाल की राजनीतिक चेतना उस बालबुद्धि के समान तो नहीं ही है, जिसे हर वस्तु एक अचंभा लगती है या जिसे छोटी से छोटी वस्तु में बड़ी दिलचस्पी पैदा हो जाती है।... और जो पल में बिलख पड़ती है और पल में हर्षित हो जाती है। वे चतुर सुजान हैं और राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी भी।

हालांकि चुनावी जीत किसी के ईमानदार होने की गारंटी नहीं हो सकती। इससे पहले भी जेल जाने या भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे होने के बाद भी जयललिता, करुणानिधि और ऐसे कई नेताओं ने प्रचंड जीत पाई है। फिर भी केजरीवाल की इस्तीफा-रणनीति है कमाल की! क्योंकि भले चार महीने के लिए हो या चार दिन के लिए, हिंदुस्तान में कुर्सी छोड़ना, रोटी छोड़ने से भी कठिन काम है। यही वजह है कि केजरीवाल अपने इस त्याग को छाती चीरकर दिखाएंगे। आगामी दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भी और मौजूदा हरियाणा चुनाव में भी।

भाजपा हालांकि केजरीवाल के इस ‘त्याग’ को नौटंकी बताते नहीं थक रही है, लेकिन सच ये है कि केजरीवाल का प्रचार-अभियान हरियाणा में उसे (भाजपा को) नई ऊर्जा देने वाला है। ‘आप’ को जितने वोट मिलेंगे, भाजपा को उतना फायदा होगा। जहां तक दिल्ली के चुनाव का सवाल है, यहां तो सुषमा स्वराज, मदनलाल खुराना और डॉ. हर्षवर्धन के बाद भाजपा के पास कोई स्थायी, स्थानीय और चुनाव-जिताऊ चेहरा ही नहीं रहा!

कुर्सी छोड़ना कठिन है...

केजरीवाल की इस्तीफा-रणनीति है कमाल की! क्योंकि भले चार महीने के लिए हो या चार दिन के लिए, हिंदुस्तान में कुर्सी छोड़ना, रोटी छोड़ने से भी कठिन काम है। चुनावों में केजरीवाल अपने इस त्याग को छाती चीरकर दिखाएंगे।

 

 

Dakhal News 18 September 2024

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