नाम में बहुत कुछ रखा है, मुसलमानों को आखिर आपत्ति क्यों?
There is a lot in the name

विक्रम उपाध्याय 

उत्तर प्रदेश में दुकानदारों के लिए मालिक का नाम लिखने को अनिवार्य क्या बना दिया गया, सेकुलर जमातों के बदन में आग लग गई। तरह-तरह के अनर्गल प्रलाप किए जाने लगे हैं। कोई यह कह रहा है कि यह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हिन्दू-मुसलमान में विभेद पैदा करने की कोशिश है तो कोई यह कह रहा है कि योगी हिटलर के नाजीवाद की तरह हिन्दूवाद फैला रहे हैं। गोया यह कि पहली बार कोई देश में मुसलमानों को पहचान बताने के लिए कह रहा है। राशन कार्ड से लेकर आधार कार्ड तक। स्कूल से लेकर नौकरी तक हर जगह देश के नागरिक को अपना नाम और धर्म के बारे में लिखना अनिवार्य है। यह कानूनी बाध्यता भी है और सभी धर्मों में प्रचलन भी। जिस उत्तर प्रदेश की बात हो रही है उसी प्रदेश में मुसलमानों की बस्तियां और उनके संस्थानों के नाम भी मुस्लिम हैं। केवल प्रदेश के मुसलमान ही नहीं, पूरे भारत के मुसलमान अपनी पहचान को आगे रख कर तब हमेशा चलते हैं, जब उनको लाभ लेना होता है, जब उनको वोट देना होता है, जब उनको सरकार या समाज के खिलाफ आंदोलन या प्रदर्शन करना होता है। और छोड़िए, देश के किसी भी कोने में चले जाइए। सुबह हो शाम, मुहल्ले में हो बाजार में, अधिकतर मुसलमान अपनी पहचान जताने के लिए सिर पर गोल टोपी धारण किए हुए दिखते हैं। 

हां, कुछ सालों में कुछ मुसलमानों ने तब अपनी पहचान छुपाई, जब उनको कोई अपराध करना होता है। जब स्कूल-काॅलेज गोइंग लड़कियों को अपने प्रेम जाल में फांसना होता है। कुछ मुसलमान तब अपना नाम बताने से गुरेज करते हैं जब उनको हिन्दू के मोहल्ले में जाकर सब्जियां, फल या कपड़े बेचने होते हैं। कुछ मुसलमान तब भी अपनी पहचान छिपाते हैं, जब उनको किसी हिन्दू लड़की से दूसरी या तीसरी शादी करनी होती है। ये कुछ उदाहरण नहीं हैं। बल्कि पिछले दिनों कई बार टेलीविजन स्क्रीन पर दिखाया जा चुका है कि किस तरह कोई मुसलिम रसोइया हिन्दू की शादियों या त्योहारों में खाना बनाने के बाद उसमें थूकते हैं। जावेद हबीब जैसे पढ़े-लिखे मशहूर लोग किसी के बाल संवारते वक्त उसके सिर में थूक की लेप लगाते हैं। ऐसा उत्तर प्रदेश में भी हुआ और देश के अन्य हिस्सों में। अब जो सेकुलर जमाती यह कह रहे हैं कि मुस्लिम दुकानदारों के नाम उजागर कर के उत्तर प्रदेश सरकार ने बड़ा पाप कर दिया है, क्या वे लोग इससे इनकार कर सकते हैं कि दुनिया का कोई भी मुसलमान अपने मजहब या अपने पैगंबर के अलावा किसी और को दिल से नहीं मानता। उसके लिए पवित्रता या श्रद्धा सिर्फ उसके मजहब तक ही सीमित है किसी भी और धर्म या मजहब के लिए सेवा या श्रद्धा भाव ऊपरी मन या स्थानीय दबाव के अलावा कुछ नहीं होता। 

क्या कोई बड़ा सेकुलर वि़द्वान यह बता सकता है कि कब किसी मुसलमान ने मंदिर में आकर तिलक लगाया है, या कब किसी मुस्लिम ने किसी मंदिर में श्रद्धा के दीपक जलाए हैं। यह संभव ही नहीं है, क्योंकि इस्लाम उन्हें इस बात की इजाजत ही नहीं देता कि वह ऐसा कर सके। यदि इस सच्चाई के बाद कोई सरकार यह इंतजाम करती है कि कांवड़ तीर्थयात्रियों की भक्ति में विघ्न ना पड़े, उनके व्रत का खंडन न हो या फिर उनके प्रति कोई शैतानी न कर सके तो इसमें गलत क्या है। जिस मनोयोग से शिवभक्त उपासक कांवड़ लेकर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर शिव मंदिर में जल चढ़ाने जाते हैं, सोचिए (सोचना ही होगा),  यदि उन्हें यह पता चलता है कि उनकी भक्ति दूषित हो गई है, उन्हें उन्हीं बर्तनों में किसी ने खाना खिला दिया है, जिन बर्तनों में वे हमेशा मांस पकाते या परोसते रहे हैं, तो उन पर क्या बीतेगी। यदि यही बात उन्हें कांवड़ के समय पता चलती है तो फिर माहौल क्या होगा। कांवड़ के दौरान दंगे-फसाद इसी उत्तर प्रदेश ने खूब देखे हैं, जिसे मुसलमान यूपी कहकर पुकारते हैं। 

हाय-तौबा मचा रहे सेकुलर जमातियों से यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि यदि दुकानदार अपनी दुकानों पर अपना नाम लिखते हैं तो यह उनके व्यवसाय पर हमला कैसे हो गया? उनके साथ यह भेदभाव कैसे हो गया? जिन लोगों को उनके यहां खाना हो या जिनके यहां से फल या सब्जी लेना हो उनको कौन रोकेगा। स्थानीय मुस्लिम होटल या हिन्दू होटल के बारे में लोगों को आमतौर पर पहले ही पता होता है। ज्यादातर होटलों के अपने बंधे-बंधाए ग्राहक भी होते हैं। अरे, सेकुलरवादियो बताओ भी, फिर नाम लिखने से उनका धंधा कैसे चौपट हो जाएगा? यह सावधानी तो सिर्फ उनके लिए बरती जाएगी, जो स्थानीय नहीं है। वर्ष में एक या दो बार ये कांवड़ तीर्थयात्री उस क्षेत्र से होकर गुजरते हैं। हरिद्वार से कांवड़ लेकर आने वाले श्रद्धालु केवल यूपी के नहीं होते, हरियाणा और राजस्थान के भी होते हैं। जो ज्यादातर सात्विक भोजन करने वाले होते हैं। उनको यूपी में पतित करने वालों से बचाने में किसी छिपे एजेंडे का काम कैसे हो सकता है। 

भारत में मुसलमानों की संख्या किसी भी मुस्लिम देश की जनसंख्या से ज्यादा है। इंडोनेशिया को छोड़ दें तो भारत में सबसे अधिक मुसलमान रहते हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या को किसी हिन्दू त्यौहार से खतरा हो जाए यह संभव नहीं है। यह भी संभव नहीं है कि किसी के कहने से देश के हिन्दू मुसलमानों के साथ कारोबार करने से इनकार कर दे। उनके साथ व्यापारिक लेनदेन बंद कर दें। उत्तर प्रदेश का हर शहर मुसलमान व्यापारियों से पटा पड़ा है। अधिकतर कारीगर मुस्लिम हैं। ये खूब फल-फूल भी रहे हैं। किसी हिन्दू के यहां ना इनका आना जाना रुक सकता है और ना इनसे कोई सामान लेने से इनकार कर सकता है। फिर यह तर्क क्यों दिया जा रहा है कि मुसलमानों के रोजगार को टारगेट करने के लिए दुकानदारों के नाम लिखवाए जा रहे है।

 

ऐसा हरगिज नहीं है। इसे इस तरह समझिए। जैसे मुसलमान साल के एक महीने पूरी तरह रोजा रखते हैं। उसमें किसी तरह की कोई कोताही या कोई चूक नहीं होने देना चाहते। वह इस पाक महीने में इस्लामिक नियमों का तसल्ली से पालन करते हैं। वे किसी और की दखल बर्दाश्त नहीं करते, उसी तरह हिन्दुओं के लिए भी सावन का एक ही महीना आता है जब वह सड़कों पर होते हैं। नये रूट से अपने मंदिरों की ओर जल भरकर लौटते हैं। उनको यह अधिकार है कि वह यह जानें कि वह जो भोजन कर रहे हैं, उनकी आस्था के अनुरूप है, जिनसे वह प्रसाद या पूजा की सामग्री खरीद रहे हैं, वह उन्हें उनकी धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा हुआ है और उसका आदर करता है। यह भाव कोई हिन्दू दीपावली या होली में उतना आग्रह से नहीं रखता। उसे मालूम हो या ना हो कि दीपावली का दिया बेचने वाला उसके धर्म का है कि नहीं, वह खरीदता ही है। मगर शिव साधना या गायत्री पूजन में यह लापरवाही नहीं करना चाहता। सेकुलर जमातों को यह समझ में आना चाहिए।

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

Dakhal News 20 July 2024

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