Dakhal News
4 October 2024अभय कुमार दुबे
हरियाणा चुनाव के सिलसिले में इस समय एक दिलचस्प बहस चल रही है। इसका एक पहलू यह सवाल है कि ‘आप’ और कांग्रेस के बीच समझौता टूट जाने के कारण क्या भाजपा सरकार के खिलाफ एंटी-इनकम्बेंसी बिखरकर कमजोर हो जाएगी? कुछ लोग इस सवाल का विस्तार भी कर रहे हैं।
वे एंटी-इनकम्बेंसी के सम्भावित बिखराव में चौटाला परिवार की दो पार्टियों के दो दलित-आधारित पार्टियों से गठजोड़ को भी जोड़ कर दिखा रहे हैं कि ये सभी राजनीतिक ताकतें वोट काटेंगी, और इससे भाजपा को फायदा हो सकता है। इसका दूसरा पहलू है चुनावी लड़ाई में बड़े पैमाने पर बागी उम्मीदवारों की मौजूदगी।
कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही 70-70 से ज्यादा बागी मैदान में हैं, और उनमें से कई स्थानीय स्तर पर शक्तिशाली भी माने जाते हैं। अंदेशा जताया जा रहा है कि इनके कारण लड़ाई सीधे-सीधे भाजपा और कांग्रेस के बीच न हो कर इतनी बहुकोणीय हो जाएगी कि एंटी-इनकम्बेंसी का फैक्टर उतना प्रभावी नहीं रह जाएगा।
सब लोग मान रहे हैं कि भाजपा सरकार के खिलाफ अच्छी-खासी ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ है। इसका एक मतलब यह भी है कि सरकार विरोधी भावनाएं मंद या नरम न होकर तीखी हैं। किसी भी समीक्षक को यह कहते नहीं सुना गया है कि यह दस साल के शासन में स्वाभाविक रूप से जमा हो जाने वाली नाराजगी से अधिक कुछ नहीं है।
स्पष्ट है कि अगर नाराजगी सरकार बदलने की हद तक चली गई तो भाजपा को दिक्कत हो सकती है। अगर ऐसी स्थिति न होती तो साढ़े नौ साल से सीएम रहे मनोहर लाल खट्टर को महज छह महीने पहले न हटाया जाता।
आलाकमान खट्टर से नाराज नहीं था, वरना वह उन्हें केंद्र में मंत्री न बनाता। रणनीतिकारों ने खट्टर को हटाकर दोहरा दांव खेला। अलोकप्रिय चेहरा नजरों से ओझल हो गया, और उसकी जगह एक ओबीसी चेहरे को दी गई, ताकि हरियाणा को पहली बार पिछड़े वर्ग का सीएम देने का श्रेय लिया जा सके।
जो भी हो, यह निर्विवाद है कि हरियाणा में भाजपा जबरदस्त एंटी-इनकम्बेंसी का सामना कर रही है। खराब शासन-प्रशासन की आम शिकायत के साथ-साथ ‘जवान-किसान-पहलवान’ की त्रिकोणात्मक समस्या ने इसे और मुश्किल बना दिया है।
जवान यानी फौज की नौकरी को बेहद प्राथमिकता देने वाले इस राज्य में अग्निपथ योजना से पैदा हुई गहरी कुंठा है। किसान यानी खरीद मूल्यों को कानूनी जामा पहनाने की मांग न माने जाने के खिलाफ अरसे से चल रहे आंदोलन का असर है। और राज्य की ‘पहलवान-पट्टी’ (जिसमें 12 से ज्यादा सीटें हैं) में पहलवान बेटियों के जंतर-मंतर आंदोलन से पैदा हुई विक्षोभ की आग, जिसमें विनेश फोगाट के ओलिम्पिक-प्रकरण ने घी डाल दिया है।
जब ऐसी राजनीतिक स्थिति बनती है तो आम मतदाता सरकार बदलने के लिए वोट डालने के बारे में सोचने लगता है। फिर वो यह नहीं देखता कि पार्टी कौन-सी है। वो ऐसा उम्मीदवार तलाश करता है, जो सत्तारूढ़ दल को हरा सके।
हरियाणा कांग्रेस बनाम भाजपा की आमने-सामने की टक्कर के लिए जाना जाता है। इसलिए ऐसे उम्मीदवारों की 90 फीसदी संख्या कांग्रेस की तरफ से पेश किए जाने की सम्भावना है। परिणामस्वरूप, अगर कोई जोरदार एंटी-इनकम्बेंसी है, तो उससे प्रभावित वोट कांग्रेस के ध्रुव पर ही गोलबंद होंगे।
कांग्रेस का कोई ताकतवर बागी, दलित प्रधान इलाकों में दोनों दलित-आधारित पार्टियों का स्थानीय स्तर पर लोकप्रिय कोई उम्मीदवार या ‘आप’ का कोई ऐसा ही प्रत्याशी भी बाकी दस फीसदी सीटों में ही सरकार विरोधी भावनाओं से लाभान्वित हो सकता है। लेकिन, इसका लाभ भाजपा को मिलेगा, सम्भावना कम से कम है। भाजपा को तो यह आकलन करना होगा कि वोटरों के जिस हिस्से को वह अपना आधार मानती है, उसमें इस नाराजगी के कारण कहां क्षय हो रहा है।
भले ही एंटी-इनकम्बेंसी परिस्थितिवश बिखराव का शिकार न बने, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या उसे पलटा नहीं जा सकता? भाजपा ने पिछले दस साल में गैर-जाट वोटरों को साधने की कोशिश की है। क्या एक बार फिर वह कांग्रेस को जाटों की पार्टी करार देकर गैर-जाट वोटों के दम पर चुनाव में वापसी नहीं कर सकती? चुनाव में हो तो सब-कुछ सकता है। लेकिन, आज की तारीख में उसकी संभावना नहीं दिखती।
उसके बागियों में अधिकतर वही नेता हैं, जिनके दम पर गैर-जाट जनाधार तैयार किया गया था। जिस तरह से टिकट बांटे गए हैं, उससे नहीं लगता कि भाजपा अब उस रणनीति का लाभ उठाने की स्थिति में है। भाजपा ने पिछले दस साल में गैर-जाट वोटरों को साधने की कोशिश की है। क्या एक बार फिर वह कांग्रेस को जाटों की पार्टी करार देकर गैर-जाट वोटों के दम पर चुनाव में वापसी नहीं कर सकती? इसकी संभावना तो नहीं दिखती।
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21 September 2024
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