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प्रवीण कक्कड़ प्रदेश के गुना में शिकारियों से मुठभेड़ में 3 पुलिसकर्मियों के शहीद होने की घटना दुखद और चिंताजनक है। खाकी वर्दी में पुलिस की नौकरी ऊपर से जितनी शानदार दिखती है, अंदर से उतनी ही चुनौतियां पुलिसकर्मियों के सामने होती हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण गुना की घटना है, जहां फर्ज निभाते हुए इन जांबाजों ने अपने प्राणों की आहूति दे दी। यह घटना केवल शिकारी और पुलिसकर्मियों की मुठभेड़ की नहीं है, बल्कि वेकअप कॉल है जो जाहिर कर रहा है कि अपराधियों में पुलिस का भय खत्म होता जा रहा है। आज समय है जब समाज, प्रशासन और राजनेताओं को पुलिसकर्मियों के हितों के बारे में विचार करना चाहिए। समाज की सुरक्षा करने वालों की सुरक्षा को भी जरूरी समझा जाना चाहिए। इस घटना पर नज़र डालें तो शिकारी न सिर्फ खुलेआम शिकार करने का दुस्साहस कर रहे हैं, बल्कि उनके मन में पुलिस का किसी तरह का भय भी नहीं है। सामान्य परिस्थितियों में पुलिस के ललकारने पर अपराधी मुठभेड़ करने के बजाए माल छोड़ कर भाग जाते हैं। लेकिन जब अपराधी इस तरह से मुकाबले की कार्रवाई करते हैं तो उसका मतलब होता है कि उस इलाके में पुलिस और प्रशासन का वकार कमजोर हो गया है। अपराधी अपराध करने को अपना अधिकार समझने लगे हैं और उनके मन में शासन का भय नहीं रह गया है। यह सिर्फ कानून व्यवस्था का मामला नहीं है, बल्कि यह सोचने का विषय भी है कि पुलिस को इस तरह के संसाधनों के अनुसार सुसज्जित किया जाए और अपराधियों को मिलने वाले इस तरह के संरक्षण को समाप्त किया जाए। इस घटना का यह महत्वपूर्ण पहलू है कि क्या शिकारियों और तस्करों से रात में मुठभेड़ करने के लिए पुलिस के पास पर्याप्त सुरक्षा के उपाय हैं या नहीं। जिन जगहों पर पुलिस कर्मियों को सीधे गोलियों के निशाने पर आने का खतरा है। क्या कम से कम उन जगहों पर तैनात पुलिसकर्मियों को बुलेट प्रूफ जैकेट और नाइट विजन कैमरा जैसे उपकरण मुहैया नहीं कराए जाने चाहिए। क्या पुलिस वालों की इस बात की ट्रेनिंग दी गई है कि अगर शिकारी या अपराधी बड़ी संख्या में हो और उनके पास हथियार हो तो उनसे किस तरह से मुकाबला किया जाए। क्योंकि बिना पर्याप्त सुरक्षा इंतजामों के और बिना अत्याधुनिक हथियारों के इस तरह की मुठभेड़ आखिर पुलिस वालों के लिए किस हद तक सुरक्षित है। मध्य प्रदेश जैसे राज्य में इस विषय पर बहुत ही गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि आज भी मध्य प्रदेश देश के सबसे ज्यादा वन क्षेत्रफल वाले राज्यों में शामिल है। प्रदेश में बड़ी संख्या में अभयारण्य और नेशनल पार्क हैं। जिसमें दुर्लभ प्रजाति के वन्य जीव पाए जाते हैं। सेना में भर्ती होने वाले लोगों के लिए चाहे वे सैनिक हों या उच्चाधिकारी बहुत सारी मानवीय सुविधाएं होती हैं। ऑफिसर्स के लिए अलग मैस होगा। सैनिकों का अपना मैस होता है। उनके बच्चों की पढ़ाई के लिए अलग से सैनिक स्कूल होते हैं। खेल कूद और व्यायाम के लिए शानदार पार्क और होते हैं। जवान खुद को चुस्त-दुरुस्त रख सकें इसके लिए बड़े पैमाने पर शारीरिक व्यायाम की सुविधा होती है। सेना के अपने अस्पताल होते हैं। जहां विशेषज्ञ डॉक्टर तैनात रहते हैं। इसके अलावा खेलों में सेना के जवानों का विशेष प्रतिनिधित्व हो सके इसके लिए पर्याप्त इंतजाम किए जाते हैं। निश्चित तौर पर सेना की जिम्मेदारी बड़ी है और उसे सरहदों पर देश की रक्षा करनी होती है लेकिन पुलिस की जिम्मेदारी भी कम नहीं है, उसे तो रात दिन बिना अवकाश के समाज की कानून व्यवस्था को बना कर चलना होता है। राज्य सरकारों को पुलिस के लिए नए आवासों के निर्माण के बारे में ध्यान से सोचना चाहिए। पुलिस कर्मियों के बच्चे अच्छे स्कूलों में शिक्षा ले सकें, इसलिए शहर के किसी भी कन्वेंट या सैनिक स्कूल के मुकाबले के स्कूल पुलिस कर्मियों के बच्चों के लिए खोले जाने चाहिए। मौजूदा दौर में सबसे जरूरी है कि पुलिस के पक्ष में सोचा जाए। कभी पुलिसकर्मियों को राजनीतिक हस्तक्षेप से तो जांबाजी से एनकाउंटर करने के बाद भी आयोगों की जांच में परेशान होना पड़ता है। एक पूर्व पुलिस अधिकारी होने के नाते मैं पुलिस सेवा के दौरान सामने आने वाली चुनौतियों को बखूबी समझ सकता हूं। आज पुलिस की सुरक्षा और संसाधनों के प्रति बढ़ाने हमें विचार करने की जरूरत है। इसके साथ ही परिदृश्य पर गौर करें तो राज्य पुलिस बलों में 24% रिक्तियां हैं,लगभग 5.5 लाख रिक्तियां। यानी जहां 100 पुलिस वाले हमारे पास होने चाहिए वहां 76 पुलिस वाले ही उपलब्ध हैं। इसी तरह हर एक लाख व्यक्ति पर पुलिसकर्मियों की स्वीकृत संख्या 181 थी, उनकी वास्तविक संख्या 137 थी। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र के मानक के अनुसार एक लाख व्यक्तियों पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए। इस तरह गौर करें तो राष्ट्रीय मानक से तो हम पीछे हैं ही अंतर्राष्ट्रीय मानक से तो बहुत पीछे हैं। गुना में हुई घटनाओं जैसे वेकअप कॉल में सभी का जागना जरूरी है, भले ही वे किसी भी पार्टी से जुड़े राजनेता हों, आला पुलिस अधिकारी हों या हमारा सिस्टम। ऐसी घटनाओं से सबक लेते हुए हमें पुलिस के लिए संसाधनों को बढाना होगा। सभी को मिलकर देशभक्ति और जनसेवा का जज्बा लिए पुलिसकर्मियों के लिए बेहतर प्रयास करने चाहिए। पुलिस पर हमला करने वालों को सख्त सजा मिले, शहीद हुए पुलिसकर्मियों के परिवार को मुआवजा मिले। इसके साथ ही ऐसी घटनाएं दोबारा न हों, इसके लिए भी पुख्ता सिस्टम तैयार हो। यही इन शहीद पुलिस जवानों को सच्ची श्रध्दांजलि होगी।
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-प्रो.संजय द्विवेदी भारत में ऐसा क्या है जो उसे खास बनाता है? वह कौन सी बात है जिसने सदियों से उसे दुनिया की नजरों में आदर का पात्र बनाया और मूल्यों को सहेजकर रखने के लिए उसे सराहा। निश्चय ही हमारी परिवार व्यवस्था वह मूल तत्व है, जिसने भारत को भारत बनाया। हमारे सारे नायक परिवार की इसी शक्ति को पहचानते हैं। रिश्तों में हमारे प्राण बसते हैं, उनसे ही हम पूर्ण होते हैं। आज कोरोना की महामारी ने जब हमारे सामने गहरे संकट खड़े किए हैं तो हमें सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संबल हमारे परिवार ही दे रहे हैं। व्यक्ति कितना भी बड़ा हो जाए उसका गांव, घर, गली, मोहल्ला, रिश्ते-नाते और दोस्त उसकी स्मृतियां का स्थायी संसार बनाते हैं। कहा जाता है जिस समाज स्मृति जितनी सघन होती है, जितनी लंबी होती है, वह उतना ही श्रेष्ठ समाज होता है। परिवार नाम की संस्था दुनिया के हर समाज में मौजूद हैं। किंतु परिवार जब मूल्यों की स्थापना, बीजारोपण का केंद्र बनता है, तो वह संस्कारशाला हो जाता है। खास हो जाता है। अपने मूल्यों, परंपराओं को निभाकर समूचे समाज को साझेदार मानकर ही भारतीय परिवारों ने अपनी विरासत बनाई है। पारिवारिक मूल्यों को आदर देकर ही श्री राम इस देश के सबसे लाड़ले पुत्र बन जाते हैं। उन्हें यह आदर शायद इसलिए मिल पाया, क्योंकि उन्होंने हर रिश्ते को मान दिया, धैर्य से संबंध निभाए। वे रावण की तरह प्रकांड विद्वान और विविध कलाओं के ज्ञाता होने का दावा नहीं करते, किंतु मूल्याधारित जीवन के नाते वे सबके पूज्य बन जाते हैं, एक परंपरा बनाते हैं। अगर हम अपनी परिवार परंपरा को निभा पाते तो आज के भारत में वृद्धाश्रम न बन रहे होते। पहले बच्चे अनाथ होते थे आज के दौर में माता-पिता भी अनाथ होने लगे हैं। यह बिखरती भारतीयता है, बिखरता मूल्यबोध है। जिसने हमारी आंखों से प्रेम, संवेदना, रिश्तों की महक कम कर भौतिकतावादी मूल्यों को आगे किया है। न बढ़ाएं फासले, रहिए कनेक्टः आज के भारत की चुनौतियां बहुत अलग हैं। अब भारत के संयुक्त परिवार आर्थिक, सामाजिक कारणों से एकल परिवारों में बदल रहे हैं। एकल परिवार अपने आप में कई संकट लेकर आते हैं। जैसा कि हम देख रहे हैं कि इन दिनों कई दंपती कोरोना से ग्रस्त हैं, तो उनके बच्चे एकांत भोगने के साथ गहरी असुरक्षा के शिकार हैं। इनमें माता या पिता, या दोनों की मृत्यु होने पर अलग तरह के सामाजिक संकट खड़े हो रहे हैं। संयुक्त परिवार हमें इस तरह के संकटों से सुरक्षा देता था और ऐसे संकटों को आसानी से झेल जाता था। बावजूद इसके समय के चक्र को पीछे नहीं घुमाया जा सकता। ऐसे में यह जरूरी है कि हम अपने परिजनों से निरंतर संपर्क में रहें। उनसे आभासी माध्यमों, फोन आदि से संवाद करते रहें, क्योंकि सही मायने में परिवार ही हमारा सुरक्षा कवच है। आमतौर सोशल मीडिया के आने के बाद हम और ‘अनसोशल’ हो गए हैं। संवाद के बजाए कुछ ट्वीट करके ही बधाई दे देते हैं। होना यह चाहिए कि हम फोन उठाएं और कानोंकान बात करें। उससे जो खुशी और स्पंदन होगा, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। परिजन और मित्र इससे बहुत प्रसन्न अनुभव करेगें और सारा दिन आपको भी सकारात्मकता का अनुभव होगा। संपर्क बनाए रखना और एक-दूसरे के काम आना हमें अतिरिक्त उर्जा से भर देता है। संचार के आधुनिक साधनों ने संपर्क, संवाद बहुत आसान कर दिया है। हम पूरे परिवार की आनलाईन मीटिंग कर सकते हैं, जिसमें दुनिया के किसी भी हिस्से से परिजन हिस्सा ले सकते हैं। दिल में चाह हो तो राहें निकल ही आती हैं। प्राथमिकताए तय करें तो व्यस्तता के बहाने भी कम होते नजर आते हैं। जरूरी है एकजुटता और सकारात्मकताः सबसे जरूरी है कि हम सकारात्मक रहें और एकजुट रहें। एक-दूसरे के बारे में भ्रम पैदा न होने दें। गलतफहमियां पैदा होने से पहले उनका आमने-सामने बैठकर या फोन पर ही निदान कर लें। क्योंकि दूरियां धीरे-धीरे बढ़ती हैं और एक दिन सब खत्म हो जाता है। खून के रिश्तों का इस तरह बिखरना खतरनाक है क्योंकि रिश्ते टूटने के बाद जुड़ते जरूर हैं, लेकिन उनमें गांठ पड़ जाती है। सामान्य दिनों में तो सारा कुछ ठीक लगता है। आप जीवन की दौड़ में आगे बढ़ते जाते हैं, आर्थिक समृद्धि हासिल करते जाते हैं। लेकिन अपने पीछे छूटते जाते हैं। किसी दिन आप अस्पताल में होते हैं, तो आसपास देखते हैं कि कोई अपना आपकी चिंता करने वाला नहीं है। यह छोटा सा उदाहरण बताता है कि हम कितने कमजोर और अकेले हैं। देखा जाए तो यह एकांत हमने खुद रचा है और इसके जिम्मेदार हम ही हैं। संयुक्त परिवारों की परिपाटी लौटाई नहीं जा सकती, किंतु रिश्ते बचाए और बनाए रखने से हमें पीछे नहीं हटना चाहिए। इसके साथ ही सकारात्मक सोच बहुत जरूरी है। जरा-जरा सी बातों पर धीरज खोना ठीक नहीं है। हमें क्षमा करना और भूल जाना आना ही चाहिए। तुरंत प्रतिक्रिया कई बार घातक होती है। इसलिए आवश्यक है कि हम धीरज रखें। देश का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसे ही पारिवारिक मूल्यों की जागृति के कुटुंब प्रबोधन के कार्यक्रम चलाता है। पूर्व आईएएस अधिकारी विवेक अत्रे भी लोगों को पारिवारिक मूल्यों से जुड़े रहने प्रेरित कर रहे हैं। वे साफ कहते हैं ‘भारत में परिवार ही समाज को संभालता है।’ जुड़ने के खोजिए बहानेः हमें संवाद और एकजुटता के अवसर बनाते रहने चाहिए। बात से बात निकलती है और रिश्तों में जमी बर्फ पिधल जाती है। परिवार के मायने सिर्फ परिवार ही नहीं हैं, रिश्तेदार ही नहीं हैं। वे सब हैं जो हमारी जिंदगी में शामिल हैं। उसमें हमें सुबह अखबार पहुंचाने वाले हाकर से लेकर, दूध लाकर हमें देने वाले, हमारे कपड़े प्रेस करने वाले, हमारे घरों और सोसायटी की सुरक्षा, सफाई करने वाले और हमारी जिंदगी में मदद देने वाला हर व्यक्ति शामिल है। अपने सुख-दुख में इस महापरिवार को शामिल करना जरूरी है। इससे हमारा भावनात्मक आधार मजूबूत होता है और हम कभी भी अपने आपको अकेला महसूस नहीं करते। कोरोना के संकट ने हमें सोचने के लिए आधार दिया है, एक मौका दिया है। हम सबने खुद के जीवन और परिवार में न सही, किंतु पूरे समाज में मृत्यु को निकट से देखा है। आदमी की लाचारगी और बेबसी के ऐसे दिन शायद भी कभी देखे गए हों। इससे सबक लेकर हमें न सिर्फ सकारात्मकता के साथ जीना सीखना है बल्कि लोगों की मदद के लिए हाथ बढ़ाना है। बड़ों का आदर और अपने से छोटों का सम्मान करते हुए सबको भावनात्मक रिश्तों की डोर में बांधना है। एक दूसरे को प्रोत्साहित करना, घर के कामों में हाथ बांटना, गुस्सा कम करना जरूरी आदतें हैं, जो डालनी होंगीं। एक बेहतर दुनिया रिश्तों में ताजगी, गर्माहट,दिनायतदारी और भावनात्मक संस्पर्श से ही बनती है। क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं?
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(प्रवीण कक्कड़) एक जमाने में कहा जाता था कि भारतीय समाज में 3 सी सबसे ज्यादा प्रचलित हैं। सिनेमा, क्रिकेट और क्राइम। लेकिन आज के सार्वजनिक संवाद को देखें तो इन तीनों से ज्यादा लोकप्रिय अगर कोई चीज है तो वह है पत्रकारिता। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल अपने इन तीनों स्वरूपों में पत्रकारिता 24 घंटे सूचनाओं की बाढ़ समाज तक पहुंचाती है और लोगों की राय बनाने में खासी मदद करती है। जैसे-जैसे समाज जटिल होता जाता है, वैसे वैसे लोगों के बीच सीधा संवाद कम होता जाता है और वे सार्वजनिक या उपयोगी सूचनाओं के लिए मीडिया पर निर्भर होते जाते हैं। उनके पास जो सूचनाएं ज्यादा संख्या में पहुंचती हैं, लोगों को लगता है कि वही घटनाएं देश और समाज में बड़ी संख्या में हो रही हैं। जो सूचनाएं मीडिया से छूट जाती हैं उन पर समाज का ध्यान भी कम जाता है। आजकल महत्व इस बात का नहीं है कि घटना कितनी महत्वपूर्ण है, महत्व इस बात का हो गया है कि उस घटना को मीडिया ने महत्वपूर्ण समझा या नहीं। जब मीडिया पर इतना ज्यादा एतबार है तो मीडिया की जिम्मेदारी भी पहले से कहीं अधिक है। आप सब को अलग से यह बताने की जरूरत नहीं है कि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के अलावा मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। मजे की बात यह है कि बाकी तीनों स्तंभ की चर्चा हमारे संविधान में अलग से की गई है और उनके लिए लंबे चौड़े प्रोटोकॉल तय हैं। लेकिन मीडिया को अलग से कोई अधिकार नहीं दिए गए हैं। संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी का जो अधिकार प्रत्येक नागरिक को हासिल है, उतना ही अधिकार पत्रकार को भी हासिल है। बाकी तीन स्तंभ जहां संविधान और कानून से शक्ति प्राप्त करते हैं, वही मीडिया की शक्ति का स्रोत सत्य, मानवता और सामाजिक स्वीकार्यता है। अगर मीडिया के पास नैतिक बल ना हो तो उसकी बात का कोई मोल नहीं है। इसी नैतिक बल से हीन मीडिया के लिए येलो जर्नलिज्म या पीत पत्रकारिता शब्द रखा गया है। और जो पत्रकारिता नैतिक बल पर खड़ी है, वह तमाम विरोध सहकर भी सत्य को उजागर करती है। संयोग से हमारे पास नैतिक बल वाले पत्रकारों की कोई कमी नहीं है। मीडिया को लेकर आजकल बहुत तरह की बातें कही जाती हैं। इनमें से सारी बातें अच्छी हो जरूरी नहीं है। पत्रकारिता बहुत से मोर्चों पर दृढ़ता से खड़ी है, तो कई मोर्चों पर चूक भी जाती है। आप सबको पता ही है की बर्नार्ड शॉ जैसे महान लेखक मूल रूप से पत्रकार ही थे। और बट्रेंड रसैल जैसे महान दार्शनिक ने कहा है कि जब बात निष्पक्षता की आती है तो असल में सार्वजनिक जीवन में उसका मतलब होता है कमजोर की तरफ थोड़ा सा झुके रहना। यानी कमजोर के साथ खड़ा होना पत्रकारिता की निष्पक्षता का एक पैमाना ही है। पत्रकारिता की चुनौतियों को लेकर हम आज जो बातें सोचते हैं, उन पर कम से कम दो शताब्दियों से विचार हो रहा है। भारत में तो हिंदी के पहला अखबार उदंत मार्तंड के उदय को भी एक सदी बीत चुकी है। टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदू जैसे अखबार एक सदी की उम्र पार कर चुके हैं। दुनिया के जाने माने लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने आधी सदी पहले एक किताब लिखी थी एनिमल फार्म। किताब तो सोवियत संघ में उस जमाने में स्टालिन की तानाशाही के बारे में थी लेकिन उसकी भूमिका में उन्होंने पत्रकारिता की चुनौतियां और उस पर पड़ने वाले दबाव का विस्तार से जिक्र किया है। जॉर्ज ऑरवेल ने लिखा की पत्रकारिता के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह नहीं है कि कोई तानाशाह उसे बंदूक की नोक पर दबा लेगा या फिर कोई धन्ना सेठ पैसे के बल पर पत्रकारिता को खरीद लेगा लेकिन इनसे बढ़कर जो चुनौती है वह है भेड़ चाल। यानी एक अखबार या एक मीडिया चैनल जो बात दिखा रहा है सभी उसी को दिखा रहे हैं। अगर किसी सरकार ने एक विषय को जानबूझकर मीडिया के सामने उछाल दिया और सारे मीडिया संस्थान उसी को कवर करते चले जा रहे हैं, यह सोचे बिना कि वास्तव में उसका सामाजिक उपयोग कितना है या कितना नहीं। बड़े संकोच के साथ कहना पड़ता है कि कई बार भारतीय मीडिया भी इस नागपाश में फंस जाता है। सारे अखबारों की हैडलाइन और सारे टीवी चैनल पर एक से प्राइमटाइम दिखाई देने लगते हैं। भारत विविधता का देश है, अलग-अलग आयु वर्ग के लोग यहां रहते हैं। उनकी महत्वाकांक्षा अलग है और उनके भविष्य के सपने भी जुदा हैं। ऐसे में पत्रकार की जिम्मेदारी है कि हमारी इन महत्वाकांक्षाओं को उचित स्थान अपनी पत्रकारिता में दें। वे संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों को मजबूत करें। कमजोर का पक्ष ले। देश की आबादी का 85% हिस्सा मजदूर और किसान से मिलकर बनता है। ऐसे में इस 85% आबादी को भी पत्रकारिता में पूरा स्थान मिले। मैंने तो बचपन से यही सुना है कि पुरस्कार मिलने से पत्रकारों का सम्मान नहीं होता, उनके लिए तो लीगल नोटिस और सत्ता की ओर से मिलने वाली धमकियां असली सम्मान होती हैं। राजनीतिक दल तो लोकतंत्र का अस्थाई विपक्ष होते हैं, क्योंकि चुनाव के बाद जीत हासिल करके विपक्षी दल सत्ताधारी दल बन जाता है और जो कल तक कुर्सी पर बैठा था, वह आज विपक्ष में होता है। लेकिन पत्रकारिता तो स्थाई विपक्ष होती है। जो सत्ता की नाकामियों और उसके काम में छूट गई गलतियों को सार्वजनिक करती है ताकि भूल को सुधारा जा सके और संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों के मुताबिक राष्ट्र का निर्माण किया जा सके। मध्यप्रदेश इस मामले में हमेशा से ही बहुत आगे रहा है प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर जैसे प्रसिद्ध संपादक मध्य प्रदेश की पवित्र भूमि की ही देन हैं। आज भी राष्ट्रीय पत्रकारिता के क्षेत्र पर मध्य प्रदेश के पत्रकार अपनी निष्पक्षता की छाप छोड़ रहे हैं। आशा करता हूं 21वीं सदी के तीसरे दशक में भारतीय पत्रकारिता उन बुनियादी मूल्यों का और दृढ़ता से पालन करेगी जिन्हें हम शास्वत मानवीय मूल्य कहते हैं।
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मप्र के गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा के जन्मदिन पर विशेष -डॉ. दुर्गेश केसवानी संसार में बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिनसे जितनी बार भी मिलें, हर बार की मुलाकात में एक नया अनुभव होता है। मप्र के गृहमंत्री माननीय डॉ. नरोत्तम मिश्रा भी ऐसी ही शख्सियत हैं, जिनसे हर मिलने पर मन आनंदित हो जाता है। वैसे तो गृहमंत्री जी से मेरी मुलाकात लगभग डेढ़ दशक पुरानी है, लेकिन इतने सालों में जितनी बार भी उनसे मिला। हर बार कुछ नया सीखने को अवसर मिला। आज जन्मदिन के अवसर पर आपको जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हुए आपके शतायु जीवन की कामना करता हूं। डॉ. नरोत्तम मिश्रा एक अच्छे राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक अच्छे पुत्र, एक अच्छे भाई, अच्छे पिता और अच्छे दादा भी हैं। उन्हें ईश्वर ने जीवन में जो भी जवाबदारी दी है। उसका उन्होंने पूरी ईमानदारी और लगन के साथ पालन किया है। बच्चों के साथ बच्चा बन जाना और बेजुबान जानवरों के साथ भी करुणा बनाए रखना। ऐसे गुण बिरले लोगों में ही मिलते हैं। इसके अलावा वे एक अच्छे मित्र भी हैं। जीवन के हर सुख-दुख में साथ देने के साथ ही सही बात को सराहते हैं और गलती होने पर सुधार करने की हिदायत भी देते हैं। सामाजिक और राजनैतिक जीवन में आने के बाद अपनी दिनचर्या में मर्यादा, गरिमा, दायित्वों और कर्तव्यों का पालन थोड़ा कठिन हो जाता है। आम लोगों का आप के प्रति भरोसा और प्रेम हमेशा बना रहे। इसके लिए अपने विचारों, भाषा और व्यवहार का खास ध्यान रखना होता है। डॉ. मिश्रा राजनीतिक जीवन के इन सभी बिंदुओं से परे आज स्वयं एक ऐसा उदाहरण बन चुके हैं, जो राजनीति में आए नौजवानों के लिए एक आदर्श के रूप में स्थापित हो चुकेहैं। उनके वर्तमान कार्यकाल की कुछ खास उपलब्धियों को आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं। अपराध मुक्त होने की दिशा में बढ़ रहा प्रदेश : मप्र के गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा के कार्यकाल में जहां अपराधियों पर लगाम लगी है। वहीं सनातन धर्म पर उंगली उठाने वालों पर भी वे सख्त तेवर दिखाते नजर आए हैं। गरीब असहाय लोगों की सहायता हो या फिर संकट में फंसे प्रदेशवासी अपने अदम्य साहस और प्रेम के बल पर डॉ. मिश्रा ने हमेशा ही हम सबका दिल जीता है। उनके कार्यकाल में प्रदेश अपराध मुक्त होने की दिशा में काम कर रहा है। वहीं प्रदेश में आकर सनातन धर्म पर टिप्पणी करने से पहले वामपंथी 100 बार सोच रहे हैं। अपराधियों पर कस दी लगाम : प्रदेश की सियासत में संकटमोचक माने जाने वाले डॉ. नरोत्तम मिश्रा वैसे तो हर वर्ग और हर समुदाय के चहेते हैं, लेकिन गृहमंत्री बनते ही उनके सख्त तेवरों को देख आम जनसमुदाय उनकी कार्यशैली का दीवाना हो गया है। पिछले साल 2021 में गृहमंत्री के मार्गदर्शन में आम लोगों की जमीनों पर कब्जा करने वाले 1705 भू माफियाओं को गिरफ्तार किया गया। इस दौरान अवैध शराब के भी 139556 मामले दर्ज किए गए। खास बात यह रही कि इन भूमाफियाओं और दुर्दान्त अपराधियों की अवैध संपत्तियों को बुलडोजर से ध्वस्त करने की कार्रवाई की गई। चिटफंड कंपनियों द्वारा 55774 निवेशकों से ठगे गए 179.50 करोड़ रुपए वापिस दिलवाए गए। इस अवधि में पुलिस विभाग द्वारा 15114 गुम बच्चों को भी वापिस ढूंढ लिया गया। इस कार्यकाल में 42 नए महिला थाने, 52 मानव दुर्व्यापार निरोधी ईकाई और 700 ऊर्जा महिला डेस्क की स्थापना भी की गई। महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए 4500 गुम बालिकाओं को सकुशल उनके घर पहुंचाया गया। अनुसूचित जाति और जनजाति के भाई-बहनों को न्याय मिले। इसके लिए इन जातियों से होने वाले हॉटस्पॉट क्षेत्रों को चिन्हित कर अपराधों में कमी लाने के लिए निरंतर काम किया जा रहा है। वहीं अनुसूचित जनजाति के भाई बहनों को भड़काने वाले संगठनों पर कड़ी नजर रख उन पर लगातार कार्रवाई की जा रही है। बारीक नजरों से न बच सका कोई : डॉ. नरोत्तम मिश्रा ने अपने कार्यकाल में वामपंथियों को एहसास करा दिया है कि सनातन धर्म पर डिजीटल हमले करना आसान नहीं है। यह उन्हीं के ही प्रयास हैं कि डाबर ने माफी मांगते हुए अपना विज्ञापन वापस लिया। विवाह जैसे पवित्र बंधन के नाम पर अश्लीलता परोसने वाले सब्यसाची ने अपना मंगलसूत्र का विज्ञापन वापिस लिया। इसके अलावा श्वेता तिवारी के विवादित बयान हों या अमेजन कंपनी द्वारा खुलेआम जहर की डिलीवरी करना जोमैटो द्वारा सड़क सुरक्षा का खुलेआम उल्लंघन या हिंदू धर्म पर हमला करने वाले कव्वाल, डॉ. मिश्रा की बारीक नजरों से कोई भी नही बच सका। आतंक मुक्त मप्र बनाने की पहल : गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा के नेतृत्व में मप्र पुलिस लगातार अपराधियों पर सख्त कार्रवाई कर रही है। साथ ही मप्र को नक्सलवाद मुक्त और आतंकी संगठनों के मंसूबे नाकाम करने में भी लगातार काम कर रही है। मप्र पुलिस ने वर्ष 2020 से अब तक लगभग 82 लाख रुपए के ईनामी नक्सलवादियों को या तो सलाखों के पीछे पहुंचा दिया या फिर उन्हें मुठभेड़ में ढेर कर दिया। इस पूरी कार्रवाई में अपनी जान-जोखिम में डाल अपने कर्तव्य का निर्वहन करने वाले 100 पुलिस पुलिसकर्मियों को क्रम से पूर्व ही पदोन्नत कर दिया गया। वहीं रतलाम में आतंकी संगठ अलसूफा के ईनामी आंतकी इमरान को भी गिरफ्तार किया गया और संगठन को जड़ से उखाड़ फेंका गया। वहीं मार्च माह में बांग्लादेशी आतंकी संगठन जमात उल मुजाहिद्दीन के 4 आतंकियों को गिरफ्तार किया गया। शक्तिशाली हुआ पुलिस प्रशासन : शहरों को अपराध मुक्त रखने और पुलिस के अधिक पॉवर देने वाली कमिश्नर प्रणाली भोपाल और इंदौर में डॉ. मिश्रा के ही कार्यकाल में लागू हुई। इससे अपराधियों पर नियंत्रण करने में पुलिस को अधिक पावर मिली। सायबर अपराधों पर लगाम लगाने और लोगों को जागरूक करने के लिए 1 लाख से अधिक लोगों को सायबर सुरक्षा पर आधारित सेमिनारों में बुलाकर जागरूक किया गया। इसी के साथ रेडियो, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और पोस्टर के माध्यम से लोगों में जागरूकता लाने कार्यक्रम आयोजित किए गए। सभी पुलिस अधीक्षक कार्यालयों में सायबर अपराधों के अनुसंधान व सहायता हेतु एडवांस टेक्निकल सेल की स्थापना की गई। ई एफआईआर की सुविधा शुरू की गई। इसके अलावा आम जनमानस को लाभ पहुंचाने हेतु डॉ. मिश्रा ने न जाने कितने कार्य किए हैं। यदि उन सबका उल्लेख करने बैठेंगे तो बात बहुत लंबी खिंच जाएगी। इसलिए किसी शायर की इन चंद पंक्तियों को डॉ. मिश्रा को समर्पित करते हुए अपनी बात को विराम देता हूं३ प्रेम है मुझे इस माटी से, देश के गद्दारों से लड़ने की तैयारी है लोगों की दौलत है पैसा, मेरी दौलत तो केवल ईमानदारी है सब लड़ते हैं सत्ता के लिए और मकसद है इनका चुनाव जीतना मैं तो हर अबला का बेटा हूं, दिलों को जीतने की मेरी तैयारी है -लेखक भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश के प्रदेश प्रवक्ता है।
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मप्र के गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा के जन्मदिन पर विशेष -डॉ. दुर्गेश केसवानी संसार में बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिनसे जितनी बार भी मिलें, हर बार की मुलाकात में एक नया अनुभव होता है। मप्र के गृहमंत्री माननीय डॉ. नरोत्तम मिश्रा भी ऐसी ही शख्सियत हैं, जिनसे हर मिलने पर मन आनंदित हो जाता है। वैसे तो गृहमंत्री जी से मेरी मुलाकात लगभग डेढ़ दशक पुरानी है, लेकिन इतने सालों में जितनी बार भी उनसे मिला। हर बार कुछ नया सीखने को अवसर मिला। आज जन्मदिन के अवसर पर आपको जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हुए आपके शतायु जीवन की कामना करता हूं। डॉ. नरोत्तम मिश्रा एक अच्छे राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ एक अच्छे पुत्र, एक अच्छे भाई, अच्छे पिता और अच्छे दादा भी हैं। उन्हें ईश्वर ने जीवन में जो भी जवाबदारी दी है। उसका उन्होंने पूरी ईमानदारी और लगन के साथ पालन किया है। बच्चों के साथ बच्चा बन जाना और बेजुबान जानवरों के साथ भी करुणा बनाए रखना। ऐसे गुण बिरले लोगों में ही मिलते हैं। इसके अलावा वे एक अच्छे मित्र भी हैं। जीवन के हर सुख-दुख में साथ देने के साथ ही सही बात को सराहते हैं और गलती होने पर सुधार करने की हिदायत भी देते हैं। सामाजिक और राजनैतिक जीवन में आने के बाद अपनी दिनचर्या में मर्यादा, गरिमा, दायित्वों और कर्तव्यों का पालन थोड़ा कठिन हो जाता है। आम लोगों का आप के प्रति भरोसा और प्रेम हमेशा बना रहे। इसके लिए अपने विचारों, भाषा और व्यवहार का खास ध्यान रखना होता है। डॉ. मिश्रा राजनीतिक जीवन के इन सभी बिंदुओं से परे आज स्वयं एक ऐसा उदाहरण बन चुके हैं, जो राजनीति में आए नौजवानों के लिए एक आदर्श के रूप में स्थापित हो चुकेहैं। उनके वर्तमान कार्यकाल की कुछ खास उपलब्धियों को आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं। अपराध मुक्त होने की दिशा में बढ़ रहा प्रदेश : मप्र के गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा के कार्यकाल में जहां अपराधियों पर लगाम लगी है। वहीं सनातन धर्म पर उंगली उठाने वालों पर भी वे सख्त तेवर दिखाते नजर आए हैं। गरीब असहाय लोगों की सहायता हो या फिर संकट में फंसे प्रदेशवासी अपने अदम्य साहस और प्रेम के बल पर डॉ. मिश्रा ने हमेशा ही हम सबका दिल जीता है। उनके कार्यकाल में प्रदेश अपराध मुक्त होने की दिशा में काम कर रहा है। वहीं प्रदेश में आकर सनातन धर्म पर टिप्पणी करने से पहले वामपंथी 100 बार सोच रहे हैं। अपराधियों पर कस दी लगाम : प्रदेश की सियासत में संकटमोचक माने जाने वाले डॉ. नरोत्तम मिश्रा वैसे तो हर वर्ग और हर समुदाय के चहेते हैं, लेकिन गृहमंत्री बनते ही उनके सख्त तेवरों को देख आम जनसमुदाय उनकी कार्यशैली का दीवाना हो गया है। पिछले साल 2021 में गृहमंत्री के मार्गदर्शन में आम लोगों की जमीनों पर कब्जा करने वाले 1705 भू माफियाओं को गिरफ्तार किया गया। इस दौरान अवैध शराब के भी 139556 मामले दर्ज किए गए। खास बात यह रही कि इन भूमाफियाओं और दुर्दान्त अपराधियों की अवैध संपत्तियों को बुलडोजर से ध्वस्त करने की कार्रवाई की गई। चिटफंड कंपनियों द्वारा 55774 निवेशकों से ठगे गए 179.50 करोड़ रुपए वापिस दिलवाए गए। इस अवधि में पुलिस विभाग द्वारा 15114 गुम बच्चों को भी वापिस ढूंढ लिया गया। इस कार्यकाल में 42 नए महिला थाने, 52 मानव दुर्व्यापार निरोधी ईकाई और 700 ऊर्जा महिला डेस्क की स्थापना भी की गई। महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए 4500 गुम बालिकाओं को सकुशल उनके घर पहुंचाया गया। अनुसूचित जाति और जनजाति के भाई-बहनों को न्याय मिले। इसके लिए इन जातियों से होने वाले हॉटस्पॉट क्षेत्रों को चिन्हित कर अपराधों में कमी लाने के लिए निरंतर काम किया जा रहा है। वहीं अनुसूचित जनजाति के भाई बहनों को भड़काने वाले संगठनों पर कड़ी नजर रख उन पर लगातार कार्रवाई की जा रही है। बारीक नजरों से न बच सका कोई : डॉ. नरोत्तम मिश्रा ने अपने कार्यकाल में वामपंथियों को एहसास करा दिया है कि सनातन धर्म पर डिजीटल हमले करना आसान नहीं है। यह उन्हीं के ही प्रयास हैं कि डाबर ने माफी मांगते हुए अपना विज्ञापन वापस लिया। विवाह जैसे पवित्र बंधन के नाम पर अश्लीलता परोसने वाले सब्यसाची ने अपना मंगलसूत्र का विज्ञापन वापिस लिया। इसके अलावा श्वेता तिवारी के विवादित बयान हों या अमेजन कंपनी द्वारा खुलेआम जहर की डिलीवरी करना जोमैटो द्वारा सड़क सुरक्षा का खुलेआम उल्लंघन या हिंदू धर्म पर हमला करने वाले कव्वाल, डॉ. मिश्रा की बारीक नजरों से कोई भी नही बच सका। आतंक मुक्त मप्र बनाने की पहल : गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा के नेतृत्व में मप्र पुलिस लगातार अपराधियों पर सख्त कार्रवाई कर रही है। साथ ही मप्र को नक्सलवाद मुक्त और आतंकी संगठनों के मंसूबे नाकाम करने में भी लगातार काम कर रही है। मप्र पुलिस ने वर्ष 2020 से अब तक लगभग 82 लाख रुपए के ईनामी नक्सलवादियों को या तो सलाखों के पीछे पहुंचा दिया या फिर उन्हें मुठभेड़ में ढेर कर दिया। इस पूरी कार्रवाई में अपनी जान-जोखिम में डाल अपने कर्तव्य का निर्वहन करने वाले 100 पुलिस पुलिसकर्मियों को क्रम से पूर्व ही पदोन्नत कर दिया गया। वहीं रतलाम में आतंकी संगठ अलसूफा के ईनामी आंतकी इमरान को भी गिरफ्तार किया गया और संगठन को जड़ से उखाड़ फेंका गया। वहीं मार्च माह में बांग्लादेशी आतंकी संगठन जमात उल मुजाहिद्दीन के 4 आतंकियों को गिरफ्तार किया गया। शक्तिशाली हुआ पुलिस प्रशासन : शहरों को अपराध मुक्त रखने और पुलिस के अधिक पॉवर देने वाली कमिश्नर प्रणाली भोपाल और इंदौर में डॉ. मिश्रा के ही कार्यकाल में लागू हुई। इससे अपराधियों पर नियंत्रण करने में पुलिस को अधिक पावर मिली। सायबर अपराधों पर लगाम लगाने और लोगों को जागरूक करने के लिए 1 लाख से अधिक लोगों को सायबर सुरक्षा पर आधारित सेमिनारों में बुलाकर जागरूक किया गया। इसी के साथ रेडियो, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और पोस्टर के माध्यम से लोगों में जागरूकता लाने कार्यक्रम आयोजित किए गए। सभी पुलिस अधीक्षक कार्यालयों में सायबर अपराधों के अनुसंधान व सहायता हेतु एडवांस टेक्निकल सेल की स्थापना की गई। ई एफआईआर की सुविधा शुरू की गई। इसके अलावा आम जनमानस को लाभ पहुंचाने हेतु डॉ. मिश्रा ने न जाने कितने कार्य किए हैं। यदि उन सबका उल्लेख करने बैठेंगे तो बात बहुत लंबी खिंच जाएगी। इसलिए किसी शायर की इन चंद पंक्तियों को डॉ. मिश्रा को समर्पित करते हुए अपनी बात को विराम देता हूं३ प्रेम है मुझे इस माटी से, देश के गद्दारों से लड़ने की तैयारी है लोगों की दौलत है पैसा, मेरी दौलत तो केवल ईमानदारी है सब लड़ते हैं सत्ता के लिए और मकसद है इनका चुनाव जीतना मैं तो हर अबला का बेटा हूं, दिलों को जीतने की मेरी तैयारी है -लेखक भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश के प्रदेश प्रवक्ता है।
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चौधरी मदन मोहन 'समर' कल रिलीव हो गया। परसों नई जगह ज्वाइन भी कर लूंगा। जिंदगी के दिन हमेशा की तरह करवट बदलकर अपने नए पथ नई जगह पर नए तौर-तरीकों से उदय-अस्त होने लगेंगे। लगभग सवा पांच साल तक मध्यप्रदेश पुलिस अकादमी भोपाल में शिक्षक की भूमिका से पुनः मैदान में वर्दी के उत्तरदायित्व निभाने चला हूँ। 30 वर्ष विभिन्न थानों का प्रभारी रहा, वह भूमिका भी बदल चुकी है। अब थानों का दिक़दर्शक रहूंगा, अपने अनुभव साझा करूंगा साथियों के साथ एसडीओपी के रूप में। (इस पद को कई प्रदेशों में सीओ भी कहते हैं। महानगरों में यह एसीपी कहलाता है।) एसडीओपी सुहागपुर जिला नर्मदापुरम (होशंगाबाद) अकादमी में बिताए दिन मेरे लिए विशेष स्मरणीय दिन रहेंगे। यहां पर मेरे वरिष्ठ अधिकारी हों अथवा मेरे समकक्ष साथी या मेरे कनिष्ठ सहयोगी, एक परिवार की तरह हमलोग रहे। सबका स्नेह मिला। सच बताऊँ यह सिर्फ कहने अथवा औपचारिक नहीं मेरे हृदय से कहा सच है, जो सम्मान मुझे यहां पर मिला है वह पूरा आकाश भर है। रत्तीभर भी कम नहीं।यहां हमारे आवासीय परिसर में रहने वाले परिवार मेरे अपने परिवार थे।तीज-त्यौहार पर उत्साह और उल्लास हमने मनाया। वर्ष में दो बार आने वाले नवरात्रि पर्व पर हमने ग्यारह बार मेरे घर महोत्सव का आनन्द लिया। हर परिवार मुझे मेरा कुल-गोत्र लगा। बहुत कुछ पाया यहां मैंने। जीवन भर के लिए स्नेहिल और मधुर रिश्ते, उनकी मिठास और अपनापन। किसका नाम लूँ विशेष रूप से। सभी तो अपने से भी बढ़ कर लगे। अकादमी में प्रशिक्षण हेतु मैं क्या योगदान दे पाया यह तो पता नहीं लेकिन 256 युवा उप पुलिस अधीक्षक, 1000 से अधिक उपनिरीक्षक, साथ ही विभिन्न कोर्स में आने वाले अनेक साथी मेरी स्मृतियों में रहेंगे। पूरे प्रदेश में मैं मौजूद हूँ मेरे इन साथियों के संग। मैं अपनी उस हर त्रुटि अथवा धृष्टता के लिए क्षमा चाहूंगा जो मुझसे किसी के प्रति हुई हो। मेरा AIG-7 का पता, जो अब बदल जायेगा का आंगन, इसमें मेरे साथ मुस्कुराने वाले पेड़-पौधे, गाने वाली गौरैया, मैना, बुलबुल, तोते, और तमाम पक्षी मुझे गुदगुदाते रहेंगे।आम अमरूद चीकू पपीते कटहल जामुन नींबू हमेशा फलते फूलते रहेंगे झूमकर। विदा भौरी, विदा अकादमी। लेकिन अलविदा नहीं। आता रहूंगा किसी न किसी रूप में।
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(प्रवीण कक्कड़) राज्य सरकार की जितनी सेवाएं होती हैं, उनमें पुलिस का एक खास महत्व है। हम चाहें या ना चाहें पुलिस हमारे सामाजिक जीवन के हर हिस्से से जुड़ी है। स्कूल की परीक्षाएं कराने से लेकर राजनैतिक समारोह तक सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस के पास ही है। परिवार का छोटा सा झगड़ा हो या बदमाशों का गैंगवार, मामला निपटाने की जिम्मेदारी अंततः पुलिस पर आती है। समाज में जिस तरह से छोटी-छोटी बातों को लेकर लोग ज्यादा उग्र होने लगे हैं, उसे देखते हुए पुलिस की भूमिका लगातार बढ़ती जा रही है। विशेषज्ञ इन समस्याओं और उनके प्रसार से लंबे समय से अवगत हैं। इसीलिए पुलिस सुधार की बात एक अरसे से चल रही है। पुलिस सुधार का मतलब क्या है? क्या पुलिस वालों के काम के तरीके को बदल देना? लेकिन इसमें कितना बदलाव आ सकता है, क्योंकि उनका मूल काम तो अपराध नियंत्रण का रहेगा ही। इसका मतलब है कि पुलिस सुधार का अर्थ कहीं व्यापक है। सबसे पहले तो यह देखना होगा कि पुलिस के ऊपर कहीं काम का ज्यादा बोझ तो नहीं है। राष्ट्रीय परिदृश्य पर गौर करें तो राज्य पुलिस बलों में 24% रिक्तियां हैं (लगभग 5.5 लाख रिक्तियां)। यानी जहां 100 पुलिस वाले हमारे पास होने चाहिए वहां 76 पुलिस वाले ही उपलब्ध हैं। हर एक लाख व्यक्ति पर पुलिसकर्मियों की स्वीकृत संख्या 181 है, उनकी वास्तविक संख्या 137 है। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र के मानक के अनुसार एक लाख व्यक्तियों पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए। इस तरह गौर करें तो राष्ट्रीय मानक से तो हम पीछे हैं ही अंतर्राष्ट्रीय मानक से तो बहुत पीछे हैं। राज्य पुलिस बलों में 86% कॉन्स्टेबल हैं। अपने सेवा काल में कॉन्स्टेबलों की आम तौर पर एक बार पदोन्नति होती है और सामान्यतः वे हेड कॉन्स्टेबल के पद पर ही रिटायर होते हैं। इससे वे अच्छा प्रदर्शन करने को प्रोत्साहित नहीं हो पाते। एक तथ्य और महत्वपूर्ण है। राज्य सरकारों को पुलिस बल पर राज्य के बजट का 3% हिस्सा खर्च करना चाहिए जो कि अभी नहीं हो रहा है। राज्य पुलिस पर कानून एवं व्यवस्था तथा अपराधों की जांच करने की जिम्मेदारी होती है, जबकि केंद्रीय बल खुफिया और आंतरिक सुरक्षा से जुड़े विषयों (जैसे उग्रवाद) में उनकी सहायता करते हैं। जब दोनों के काम लगभग समान है तो बजट भी समान होना चाहिए। यह तो वे पक्ष हुए जो यह बताते हैं कि पुलिस वालों को प्रशासन की और बेहतर कृपा दृष्टि की जरूरत है। अच्छी तरह से काम करने के लिए उन्हें बेहतर संसाधन चाहिए। दूसरा पक्ष भी बड़ा महत्वपूर्ण है। सेना में भर्ती होने वाले लोगों के लिए चाहे वे सैनिक हों या उच्चाधिकारी बहुत सारी मानवीय सुविधाएं होती हैं। ऑफिसर्स मैस होगा, सैनिक स्कूल, अस्पताल खेल कूद और व्यायाम के लिए पार्क और बड़े पैमाने पर शारीरिक व्यायाम की सुविधा होती है। इसके अलावा खेलों में सेना के जवानों का विशेष प्रतिनिधित्व हो सके इसके लिए पर्याप्त इंतजाम किए जाते हैं। मेजर ध्यानचंद जैसे महान खिलाड़ी इसी व्यवस्था से हमें प्राप्त हुए हैं। निश्चित तौर पर सेना की जिम्मेदारी बड़ी है और उसे सरहदों पर देश की रक्षा करनी होती है। लेकिन पुलिस की जिम्मेदारी भी कम नहीं है, उसे तो रात दिन बिना अवकाश के समाज की कानून व्यवस्था को बना कर चलना होता है। उसे अपने कानूनी दायित्व के साथ इस विवेक का परिचय भी देना होता है कि समाज में किसी तरह की अशांति ना फैले और बहुत संभव हो तो दो पक्षों का झगड़ा आपस की बातचीत से समाप्त हो जाए। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पुलिस के काम पर लगातार राजनीतिक नेतृत्व का एक खास किस्म का दबाव तो बना ही रहता है। ऐसे में पुलिस वालों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त उपाय करना पुलिस सुधार की पहली सीढ़ी होनी चाहिए। दूसरी बात यह होनी चाहिए कि भले ही कोई कांस्टेबल स्तर से भर्ती हुआ हो, लेकिन अगर वह पर्याप्त शैक्षणिक योग्यता हासिल कर लेता है तो इस तरह की परीक्षाएं उसे उपलब्ध हों जिससे वह शीर्ष पद तक पहुंच सके। अभी जिस तरह की पुलिस लाइन बनी हुई है, उनमें बहुत से सुधार की आवश्यकता है। उनकी क्षमता भी इतनी नहीं है कि एक शहर में पदस्थ सारे पुलिस वाले वहां रह सकें। ऐसे में पुलिस के लिए नए आवासों के निर्माण के बारे में ध्यान से सोचना चाहिए। पुलिस कर्मियों के बच्चे अच्छे स्कूलों में शिक्षा ले सकें, इसलिए सैनिक स्कूल के मुकाबले के स्कूल खोले जाने चाहिए। यहां न सिर्फ कक्षा की पढ़ाई होनी चाहिए बल्कि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी होनी चाहिए। राज्य पुलिस में अब पहले की तुलना में महिलाओं का योगदान बढ़ा है। पुलिस सेवा का पूर्व अधिकारी होने के नाते मैं अपने अनुभव से जानता हूं की महिलाओं के लिए पुलिस की नौकरी करना पुरुषों की अपेक्षा कठिन है। दिन भर धूप में खड़े रहना, धरना प्रदर्शन आदि को नियंत्रित करना और पुरुष पुलिस कर्मियों के साथ अपराध के स्थानों पर जाकर अपराध को नियंत्रण करना। भारत के पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को किस तरह की तकलीफों का सामना करना पड़ता है, इसे हम स्वीकार करें या ना करें, लेकिन समझ तो सकते ही हैं। खासकर ट्रैफिक पुलिस में बड़े पैमाने पर चौराहों पर ड्यूटी करती हुई महिला पुलिसकर्मी आपको मिल जाएंगी। किसी का चालान काटना, उसे ट्रैफिक नियमों का पालन करने की बात समझाना, इन मामलों में उन्हें वाहन चालकों के साथ कई तरह की बहस में पड़ना पड़ता है। इन सब परिस्थितियों से निपटने के लिए पुलिस के पुरुष और महिला कर्मचारियों की विशेष ट्रेनिंग होनी चाहिए। यह ट्रेनिंग इस तरह की ना हो कि नौकरी में भर्ती समय हो गई और बाकी समय वह पुराने ढर्रे पर काम करते रहें। कम से कम 6 महीने या 1 साल में हर बार नई परिस्थितियों के अनुसार विशेष ट्रेनिंग होनी चाहिए। पुलिस सुधार के यह वे पहलू हैं, जिनमें पुलिस को सक्षम बनाने के रास्ते बताए गए हैं। पुलिस के कामकाज में ऐसे बदलाव किस तरह किए जाएं कि जनता में पुलिस के प्रति समरसता का भाव उत्पन्न हो उसकी चर्चा हम इस लेख के दूसरे भाग में करेंगे।
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कौशल मूंदड़ा जी हां, आपने अबतक सुन ही लिया होगा, यूपी के शाहजहांपुर की बजरिया सब्जी मंडी से 60 किलो नींबू चोरी हो गए। चोरों ने लहसुन-प्याज और कांटा-बांट भी साथ लिया, लेकिन सर्वाधिक मात्रा में नींबू को टारगेट किया। भले ही, व्यापारी ने इसकी रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई हो, लेकिन घटना हुई और इसकी चर्चा और भी जोरों पर हुई। लेकिन, यह घटना अखबारों के अंदर के पन्नों में सिंगल कॉलम में सिमट गई, जबकि इसे तो फ्रंट पेज पर हाईलाइट किए जाने की जरूरत थी। जब नींबू के भाव 300 पार होने की खबर हाईलाइट की गई तो 60 किलो नींबू चोरी की खबर को भी उचित स्थान मिलना तो बनता है। खैर, इस बार नींबू ने प्याज की याद दिला दी। गर्मी में जितना प्याज जरूरी है, उतना ही नींबू भी। लाखों हैं जिन्हें रात को नींबू सोड़ा पिये बिना चैन नहीं मिलता और चिलचिलाती दुपहरी में लू से बचने के लिए पुदीने वाली नींबू शिकंजी का गिलास ठंडक देता है। ऐसे में जब नींबू महंगा हो गया है तो जाहिर है सोडे से लेकर शिकंजी के गिलास तक सभी महंगे होने ही हैं। तो जनाब, कल ही हमने एक सोड़ा-शिकंजी वाले से पूछ ही लिया कि दाम बढ़ा दिये भैया, उसका भी जवाब था, भाईसाब, नींबू को भी तो देख लो, क्या करते। यहां तक तो बात समझ में आई लेकिन अगले सवाल का जवाब आपको हैरान जरूर करेगा... जब हमने पूछा कि नींबू सस्ता होते ही दाम फिर से पुराने करेंगे क्या, तो खी-खी करते हुए उन जनाब ने कहा कि ऐसा कभी हुआ है कि चढ़ा हुआ भाव कम हुआ हो। अब समझ में आया कि इन्होंने भी आपदा में अवसर खोज ही लिया। आखिर दो साल कोरोना में सोडा-शिकंजी का जोर नहीं चला, इस बार नींबू रूपी ‘आपदा’ ने इन्हें सहारा प्रदान कर दिया। इधर, अभी नींबू की खोज खत्म नहीं हुई है। पाव-भाजी खाने बैठे तो यह सोच रखा था कि नींबू नहीं आएगा, लेकिन गलत..... नींबू प्रकट हुआ.... पर जैसे ही हमने उसे निचोड़ने का प्रयास किया तो समझ में आ गया कि रस कम-छिलका जाड़ा (मोटा) है....। मित्रों के चेहरों पर मुस्कान आ गई। फिर एक मित्र से पूछा, भई वो होटल में जो हाथ धोने के लिए गुनगुने पानी वाला बाउल आता है, उसमें नींबू बचा या नहीं.... उसने कहा कि कहीं है तो कहीं नहीं। इसी बात पर सभी को वह दिन याद आ गए जब प्याज की बजाय सलाद में मूली ने जगह बना ली थी। ना.... ना.... अभी तो नींबू कथा जारी है। हर मंगलवार और शनिवार को ‘नजर’ से बचाने के लिए प्रतिष्ठानों के मुख्य द्वार के केन्द्र पर लटकने वाली नींबू-मिर्च की लड़ी पर भी ‘नजर’ लग गई है। नींबू की जुदाई में मिर्ची को भी इंतजार करना पड़ रहा है। दरअसल, इस लड़ी का ‘भाव’ नियमित बंधी के कारण फिक्स रहता है। कुछ मित्र दुकानदारों ने बताया कि इस वस्तु के फिक्स रेट के कारण लाने वाला किसी न किसी बहाने ‘अनुपस्थिति’ दर्ज करा रहा है। जो सीधे ही बाजार से खरीदते हैं, वे जरूर पांच-दस रुपये ज्यादा देकर खरीद रहे हैं। हम यहीं नहीं रुके, नींबू की खोज फिर जारी रखी गई। हमने मित्रों और परिवारजनों में जिनके पास फार्म हाउस हैं, उनसे पूछा कि भई नींबू उतर रहे हों तो थोड़े बुक कर देना... तो वहां से भी जवाब आया कि यदि नींबू उतर ही रहे होते तो फोन करने की जरूरत ही कहां पड़ती, बाजार में ही खूब उपलब्ध होते। यानी इस बार प्रकृति ने नींबू की खटाई कम भेजी है। अलबत्ता, आम की मिठास का दौर शुरू हो चुका है। नींबू की चर्चा यहीं खत्म नहीं हो रही है जी, इन दिनों जितने स्नेह भोज हो रहे हैं उनमें भी नींबू चर्चा में सर्वोपरि है। फिलहाल चर्चा खाने के स्वाद और आइटमों की संख्या की नहीं हो रही, सबसे पहले नींबू देखा जा रहा है कि सलाद वाली जगह पर नींबू की उपस्थिति है या नहीं। भई, अभी तो जिस जगह सलाद में प्रचुर नींबू उपलब्ध है, वह ‘शाही’ भोज से कम नहीं। खैर, जानकारों का कहना है कि नींबू को नीचे आने में कुछ दिन और लग सकते हैं, क्योंकि अभी तो सीजन चल रहा है। सूर्यदेव ने भी इस बार नींबू की जरूरत चैत्र में ही पैदा कर दी, बाकी तो वैशाख-जेठ की गर्मी में ही नींबू का उठाव ज्यादा होता रहा है। पर ऐसा नहीं हो जाए कि नींबू के इस बार के भाव को देखकर अगली फसल में नींबू ‘सिरमौर’ हो जाए और ‘भाव’ ही न रहे। फिलहाल डिमांड और सप्लाई की खाई थोड़ी चौड़ी है, इसलिए नींबू की खोज जारी रहेगी। तब तक यदि आपके घर पर पुराना नींबू का अचार है तो उसकी खटास का चटखारा लगाइये। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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इंदौर। महात्मा गांधी के प्रति टिप्पणी को लेकर कानूनी कार्रवाई का सामना कर रहे कालीचरण का एक वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें वे हंसिया लहरा रहे हैं। उनका यह वीडियो वायरल होने के बाद कांग्रेस ने उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। वहीं, प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने इसे कांग्रेस की दोहरी मानसिकता बताया है। कालीचरण मंगलवार को इंदौर आए थे। उस दौरान उनके भक्तों ने एयरपोर्ट से उनका जुलूस निकाला था। वीडियो उसी दौरान का है, जिसमें कालीचरण किसी भक्त द्वारा भेंट किए गए हंसिये को लहराते नजर आ रहे हैं। इस पर कांग्रेस ने कड़ी आपत्ति जताई है। कांग्रेस ने कहा कि इंदौर में कालीचरण का खुलेआम तलवार और हंसिया लहराकर कानून को चुनौती देना यह सिद्ध करता है कि गोडसेवादी विचारधारा ने भाजपा पर कब्जा कर लिया है। वीडियो सामने आने के बाद भी पुलिस कमिश्नर खामोश हैं। आर्म्स एक्ट के तहत इस मामले में तीन साल की अधिकतम सजा हो सकती है। मप्र कांग्रेस कमेटी ने छत्तीसगढ़ के सीएम को वीडियो भेजकर कालीचरण की जमानत खारिज कराने का निवेदन किया है। इसके साथ ही मप्र के सीएम और डीजीपी से भी कालीचरण पर फिर से एफआईआर दर्ज कर रासुका के तहत कार्रवाई करने की मांग की है। वहीं, कांग्रेस के इस रवैये को लेकर गुरुवार को इंदौर पहुंचे गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा की टिप्पणी भी सामने आई है। उन्होंने मीडिया से चर्चा के दौरान तंज कसा कि गोरखपुर में जो आतंकवादी पकड़ा है उसके बारे में कांग्रेस का कोई ट्वीट सुना क्या? दिग्विजयिसिंह का, उनके दोस्त जाकिर नाइकजी का? जाकिर नाइक का जो पट्ठा गोरखपुर मंदिर में मिला, उसके बारे में कांग्रेसी नहीं बोलेंगे। लेकिन कालीचरण के मामले में जरूर बोलेंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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दैनिक हिंदुस्तान, गोरखपुर के संपादकीय विभाग में तैनात कर्मचारी पिछले 2 वर्षों से साप्ताहिक अवकाश के लिए तरस रहे हैं. आपको बता दें कि पिछले दिनों संपादकीय में तानाशाही के कारण लगभग दर्जनभर कर्मचारियों ने नौकरी छोड़ दी जिससे संपादकीय विभाग कर्मचारियों की कमी की समस्या से जूझने लगा। इस दौरान करोना लग गया और इसके कारण भर्तियां भी नहीं हो रही थी जिससे साप्ताहिक अवकाश बंद कर दिए गए। लेकिन वर्तमान में नियुक्तियां हो जाने के बाद भी कर्मचारियों को साप्ताहिक अवकाश नहीं मिल रहा है। इससे कर्मचारी अंदर ही अंदर आक्रोशित हैं लेकिन अभी तक सप्ताहिक अवकाश को लेकर कोई आदेश जारी नहीं किया गया। कर्मचारी भी कई बार साप्ताहिक अवकाश के लिए कह चुके लेकिन छुट्टी जारी न करने से वह तनाव में जी रहे हैं।
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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(प्रवीण कक्कड़) अगर आप अपनी जिंदगी को सुहाना बनाना चाहते हैं तो टूरिज्म का सहारा लीजिये। अधिकांश कामयाब लोगों के जीवन में एक चीज कॉमन है और वह हैं ट्रेवल यानी पर्यटन। हम सभी आज के दौर में एक रूटीन लाइफ जी रहे हैं। किसी को ऑफिस की चिंता है तो किसी को व्यापार की। ऐसे में हमारा दिमाग कुछ बातों में उलझ कर रह जाता है। पर्यटन हमारे दिमाग को खोलता है, हमें नई ऊर्जा देता है, स्ट्रेस से हमें दूर करता है और एक सामाजिक जीवन में हमें वापस लौटाता है। सही मायनों में टूरिज्म यानी पर्यटन आप की ग्रोथ करता है, आप में कॉन्फिडेंस का विकास होता है, आप में कम्युनिकेशन की कला विकसित होती है और आप अलग-अलग परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए खुद को तैयार कर पाते हैं। इसके साथ ही आपके लिए एक सुनहरी यादों का खजाना जुड़ जाता है जो जिंदगी भर के लिए एक अनमोल मेमोरी है। दुनिया में जो भी महान बना उसने सफर जरूर किया है। अगर त्रेता युग में श्रीराम की बात करें तो वह किसी एक वन में रहकर भी वनवास पूरा कर सकते थे लेकिन उन्होंने ऋषियों के आश्रम जाकर आशीर्वाद और प्रेरणाएं लीं, वनवासियों की समस्या जानी, भेदभाव मिटाये और विकट परिस्थिति आने पर रावण का वध भी किया। इन्हीं अनुभव के आधार पर उन्होंने राम राज्य की स्थापना की। इसी तरह द्वापर युग में श्री कृष्ण ने भी भ्रमण किया, इसी दौरान उन्हें बेहतर विकल्प नजर आया और उन्होंने मथुरा से अपने राज्य को द्वारका में स्थापित किया। अब कलयुग में आदिगुरु शांकराचार्य हों या स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी हों या धीरूभाई अंबानी सभी ने खूब भ्रमण किया और अनुभव लिये, परिस्थितियों को समझा और उन्हें जीवन में उतारकार महान बने। अगर गहराई में समझा जाए तो हर महान व्यक्ति ने टूरिज्म से दोस्ती कर खुद को रि-डिस्कवर किया। अलग-अलग समाज, भाषा, खानपान, जलवायु, परंपरा और लोगों के रहन-सहन को जानकर इन्होंने खुद में जरूरी परिवर्तन किए और लोगों तक बेहतर ढंग से अपने संदेश को पहुंचा भी पाए। गर्मियों का मौसम सामने है और इसके साथ ही गर्मियों की छुट्टी की तैयारी होने लगी है। 2 साल कोरोनाकाल के कारण गर्मियों की छुट्टी बहुत संकट में गुजरी हैं। पिछला साल तो खासकर ऐसा रहा कि हर तरफ दुख और बीमारी का मंजर था। लॉकडाउन की पाबंदियां हमारे चारों तरफ कायम थी। लेकिन इस बार ईश्वर की कृपा से स्थितियां बेहतर हैं। ऐसे में गर्मियों की छुट्टी आते समय प्लानिंग का ध्यान करना बहुत जरूरी है। देश और प्रदेश में कुछ पर्यटन स्थल बहुत चर्चित हैं और ज्यादातर लोग उन्हीं जगहों का रुख कर लेते हैं। ऐसे में इन पर्यटन स्थलों पर बहुत ज्यादा भीड़ हो जाती है, और पर्यटन का जो आनंद लेने हम जाते हैं, वह पीछे छूट जाता है। इसलिए स्थान का चयन करने में सावधानी जरूर बरतनी चाहिए, क्योंकि 2 साल बाद घूमने फिरने का मौका मिला है तो हम इस तरह का इंतजाम करें कि घर के बूढ़े बुजुर्ग बच्चे और पूरा परिवार साथ मिलकर छुट्टियां मना सके। घर के बुजुर्ग सामान्य तौर पर इस तरह के सैर सपाटे में जाने से मना करते हैं, लेकिन यह तो उनके बच्चों और परिवार वालों की जिम्मेदारी है कि वे उन्हें मनाए समझाएं और पूरी सुरक्षा के साथ पर्यटन पर ले जाएं। पर्यटन को सिर्फ मौज मस्ती का माध्यम नहीं समझना चाहिए। असल में यह तो खुद को तरोताजा करने और पुरानी थकान को भुलाकर नई शक्ति का संग्रहण करने का बहाना होता है। नई ताकत के साथ जब हम वापस काम पर लौटते हैं तो दिमाग नए तरह से सोचने की स्थिति में आ जाता है। पश्चिमी देशों में छुट्टियों का इस तरह का सदुपयोग लंबे समय से किया जाता है। बल्कि यह उनकी संस्कृति का एक हिस्सा है। बच्चों के लिए तो इस बार दोहरी खुशी है, पहले तो कई दिनों बाद स्कूल खुले तो बच्चों ने दोस्तों के साथ मस्ती की और अब परीक्षा के बाद की छुट्टी शुरू हो गई हैं। अब बच्चे छुट्टियों का आनंद लेना चाहते हैं। हमारा मध्य प्रदेश तो इस समय देश में पर्यटन का सबसे बड़ा गढ़ है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पूर्वोत्तर, कश्मीर जैसे राज्यों में घूमने की बहुत अच्छी जगह हैं और उनका खूब प्रचार भी है। मध्यप्रदेश में बहुत ही सुंदर रमणीक जगह घूमने लायक हैं। हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम न केवल वहां घूमने जाएंगे बल्कि अपने अपने स्तर पर उनकी अच्छाइयों का खूब प्रचार प्रसार करें।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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