ऐसी घटनाएं देख-सुनकर मांएं कब तक लज्जित महसूस करती रहेंगी?
mothers continue to feel ashamed

नवनीत गुर्जर 

जब उसके बचपन के दिन थे। चांद में परियां रहती थीं। हवाएं किसी हाकिम की मुट्ठी या कैदखाने में बंद नहीं होती थीं। उसके हिसाब से आया-जाया करती थीं। आजकल उसी बचपन को, वही चांद हड्डी बनकर चुभ रहा है। हवाएं शरीर पर कोड़े मार रही हैं।

कोलकाता में, बदलापुर में क्या हुआ?

ये तो दो बड़े मामले हैं… और भी देश के कई शहरों, कस्बों में क्या हो रहा है? कुछ लोगों की लालसा ने अपने लफ्जों के हाथों तलवारें क्यों थमा दी हैं? आखिर इसे क्या नाम दिया जाए? पागलपन या हवसीपना? बच्चियों, महिलाओं का नभ, जो सुबह नीला, सुंदर होता है, उसे दोपहर और शाम और रात तक लोग स्याह, काला करने पर क्यों तुले हुए हैं?

निश्चित ही समाज में ऐसे लोग कम ही होते हैं, लेकिन सवाल यह है कि वे उतने भी क्यों हैं?

जिस कोख को वे तितर-बितर करने पर, तहस-नहस करने पर तुले हुए हैं, आखिर वही उनकी जन्मदात्री भी तो है! वही उनके अस्तित्व की वजह भी तो है! क्यों ऐसे लोगों के नाखून जमाने भर से तेज होते जा रहे हैं?

कोई तो बताए कि ये और कितनी रातों तक कितनी रूहों को निगलते रहेंगे? जलाते-फूंकते रहेंगे?

आखिर इनकी भूख इतनी शैतानी क्यों है?

…और आखिर इस भूख के मिटने का कोई सिरा भी है या नहीं?

इन क्रूर और पिशाची घटनाक्रमों के बाद आंखों के नीचे पानी के कुछ कतरे रख लेने भर से अब कुछ नहीं होने वाला! इस स्याह अध्याय का कोई तो समाधान खोजना ही होगा।

चाहे वो कड़े कानून के तौर पर हो!

चाहे कड़ी और त्वरित या तुरंत सजा के रूप में हो।

आखिर इस अनाचार का कोई तो अंत होना ही चाहिए।

ऐसी घटनाओं को देख-सुनकर करोड़ों मांएं, बच्चियां और लड़कियां आखिर कब तक खुद को लज्जित महसूस करती रहेंगी? आखिर एक महिला ने पुरुष के लिए क्या नहीं किया! उम्रभर, गलती रही! बहती रही! एक नदी की तरह! उसका यह योगदान बड़ा होता है। किसी आसमान से भी बड़ा।

लेकिन इन चंद हैवानों ने उसे क्या दिया? सिवाय दु:ख के?

निर्भया के बाद अभया और इन दोनों के बीच के समय में जाने कितनी निर्भया, कितनी ही अभया ने वो सब कुछ झेला, जो ज्यादती की हद के पार था।

दबी-दबी सिसकियों को कोई क्यों नहीं सुनता?

वे दर्दअंगेज चीखें! वे ख्वाबों के अचानक टूटने, तहस-नहस होने की आवाज इन दानवों को क्यों सुनाई नहीं देती?

ऐसी घटनाओं से तो पेड़-पौधे तक बिलख उठते हैं। दरिया तक रो पड़ता है। ये तो आखिर हाड़-मांस के, जीते-जागते पुतले हैं। इन्हें कुछ क्यों महसूस नहीं होता?

ये पिशाच क्या हमेशा से पिशाच ही थे? मनुष्य या मनुष्यत्व से उनका कभी कोई नाता रहा ही नहीं?

अगर हां, तो ऐसा क्यों है?

सरकारें केवल कानून बना सकती हैं। उनका पालन करवा सकती हैं, जो वे फिलहाल पूर्ण रूप से या सही तरीके से नहीं कर पा रही हैं।

हर तरफ, हर मौके पर लीपापोती करना और करते रहना, सरकारों का स्वभाव बन गया है।

यह ढर्रा बदलना चाहिए।

यह रवैया सुधरना चाहिए।

जहां तक आम आदमी का सवाल है उसे चेतना होगा।

क्योंकि चेतना तो भीतर से ही आएगी। वो किसी सरकार के खीसे में नहीं पाई जाती।

इसे जागृत करना होगा।

मनुष्यत्व को अपना चैतन्य रूप दिखाना होगा।

यह ढर्रा बदलना चाहिए...

बच्चियों, महिलाओं का नभ, जो सुबह नीला, सुंदर होता है, उसे दोपहर और शाम और रात तक लोग स्याह, काला करने पर क्यों तुले हुए हैं? समाज में ऐसे लोग कम ही होते हैं, लेकिन सवाल यह है कि वे उतने भी क्यों हैं?

 

Dakhal News 28 August 2024

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