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डॉ. सत्यवान सौरभ
सूचना और संचार की इस तीव्र गति वाली दुनिया में मीडिया का प्रभाव जितना व्यापक हुआ है, उतना ही गहरा भी। आज किसी घटना की रिपोर्टिंग केवल सूचना देने तक सीमित नहीं है, बल्कि वह एक नैरेटिव, एक छवि और कभी-कभी एक पूर्वग्रह को भी जन्म देती है। जब स्त्री से जुड़ी घटनाओं की बात आती है, खासकर तब जब वह विवादास्पद हों-जैसे धोखाधड़ी, झूठे आरोप या ब्लैकमेलिंग,तो मीडिया का रुख कहीं अधिक सनसनीखेज और पक्षपाती हो जाता है। यह चिंता का विषय है।
पिछले कुछ वर्षों में कई ऐसी घटनाएं देखी गईं जहां महिलाओं पर पुरुषों को झूठे मामलों में फंसाने के आरोप लगे। कुछ मामलों में ये आरोप सही भी साबित हुए। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या इन गिने-चुने मामलों के आधार पर 'हर औरत भरोसे के लायक नहीं' जैसी सोच विकसित करना जायज है? क्या यह सही है कि मीडिया इन घटनाओं को इस तरह प्रस्तुत करे कि पूरा समाज स्त्रियों की नीयत पर शक करने लगे? वास्तव में यह सोच एक लंबे समय से पनप रही उस मानसिकता का हिस्सा है जो स्त्री को या तो देवी के रूप में पूजती है या खलनायिका के रूप में ठुकराती है। बीच का कोई स्थान बचा ही नहीं।
अखबार की सुर्खियां देखें या न्यूज चैनलों की हेडलाइन सुने, तो एक बात स्पष्ट नजर आती है-स्त्री से जुड़ी घटनाओं को ज्यादा उत्तेजक, भावनात्मक और आकर्षक तरीके से पेश किया जाता है। उदाहरण के लिए- प्रेमिका निकली सौतन की हत्यारिन, महिला टीचर ने छात्र से बनाए शारीरिक संबंध, बीवी ने पति को प्रेमी संग मिलकर मरवाया। ऐसी खबरें समाज में एक खास सोच को मजबूत करती हैं कि स्त्रियां कपटी, चालाक और अवसरवादी होती हैं। जबकि हकीकत यह है कि पुरुषों द्वारा किए गए अपराधों को इतनी सनसनी के साथ नहीं दिखाया जाता। वहां 'मानसिक तनाव', 'पारिवारिक दबाव' या 'सामाजिक अस्वीकृति' जैसे कारण खोज लिए जाते हैं।
मीडिया अकसर स्त्री को या तो पूरी तरह पीड़ित के रूप में दिखाता है, या फिर पूरी तरह अपराधिनी के रूप में। लेकिन हकीकत इससे कहीं अधिक जटिल है। हर महिला जो धोखा देती है, वह स्वाभाविक रूप से 'बुरी' नहीं होती, और हर महिला जो पीड़ित है, वह स्वाभाविक रूप से 'पवित्र' नहीं होती। इंसानी व्यवहार कई सामाजिक, मानसिक और भावनात्मक कारकों से बनता है। जब मीडिया इन पहलुओं की उपेक्षा करके केवल एक सनसनीखेज चेहरा दिखाता है, तो वह सच्चाई को तोड़-मरोड़कर पेश करता है।
हाल के वर्षों में कई ऐसे मामले सामने आए जिन्होंने इस विषय को और जटिल बना दिया। जैसे- फर्जी यौन उत्पीड़न के आरोप लगाकर ब्लैकमेलिंग का मामला महिला द्वारा पति को फंसाकर तलाक और संपत्ति हथियाने की कोशिश। सोशल मीडिया पर 'फेमिनिज्म ' का इस्तेमाल करके जनभावनाओं का दोहन। इन घटनाओं का मीडिया में खूब प्रचार हुआ, लेकिन इनसे जुड़ी कानूनी प्रक्रिया, जांच के निष्कर्ष, या महिला के पक्ष की गहराई से पड़ताल शायद ही कभी दिखाई गई।
यह बात माननी भी गलत होगा कि पुरुष वर्ग सदैव पीड़ित होता है। सैकड़ों-हजारों महिलाएं आज भी घरेलू हिंसा, बलात्कार, यौन उत्पीड़न और मानसिक शोषण की शिकार हैं। हर साल महिला सुरक्षा से जुड़े आंकड़े भयावह तस्वीर पेश करते हैं। ऐसे में यदि कुछ मामलों में महिलाएं दोषी पाई जाती हैं, तो उससे पूरे स्त्री वर्ग को कठघरे में खड़ा कर देना न केवल अन्याय है, बल्कि सामाजिक संतुलन के लिए भी खतरनाक है।
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है, लेकिन जब यह स्तंभ टीआरपी की दौड़ में नैतिकता भूल जाए, तो समाज की नींव डगमगाने लगती है। पत्रकारिता का काम सूचना देना है, विचार बनाना नहीं। लेकिन आज मीडिया अक्सर 'मूड' बनाता है, 'मत' गढ़ता है और 'फैसला' सुनाता है। यह प्रवृत्ति न्याय व्यवस्था से भी आगे निकलने का दावा करती है-जिसे हम मीडिया ट्रायल कहते हैं।
जहां मुख्यधारा मीडिया की सीमाएं हैं, वहीं सोशल मीडिया ने तो हर किसी को जज बना दिया है। व्हाट्सऐप, फॉरवर्ड, ट्विटर ट्रेंड और इंस्टाग्राम रील्स-हर जगह स्त्री के चरित्र और नीयत पर सवाल उठाए जा रहे हैं। 'हर औरत गोल्ड डिगर है', 'औरतें सिर्फ फायदे के लिए प्यार करती हैं'- जैसे जुमले सोशल मीडिया पर सामान्य हो चुके हैं। यह माहौल केवल स्त्रियों के लिए नहीं, बल्कि युवा पुरुषों के लिए भी हानिकारक है जो रिश्तों में भरोसे की जगह शक लेकर आते हैं।
हमारे समाज की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि हम एक घटना से पूरे वर्ग के लिए निष्कर्ष निकाल लेते हैं। किसी महिला ने धोखा दिया, इसका अर्थ यह नहीं कि हर महिला अविश्वसनीय है। उसी तरह एक पुरुष बलात्कारी निकला तो हर पुरुष को संदेह की नजर से नहीं देखा जा सकता। हमें घटना और व्यक्ति को उनके सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में देखने की आदत डालनी होगी। आज जब मीडिया समाज की सोच को तय कर रहा है, तब पत्रकारों, संपादकों और न्यूज रूम की जिम्मेदारी कहीं अधिक है। उन्हें यह तय करना होगा कि वे 'सच दिखा रहे हैं' या 'सच बेच रहे हैं'। साथ ही, हमें (दर्शकों, पाठकों और नागरिकों) यह जिम्मेदारी लेनी होगी कि हम हर खबर पर आंख मूंदकर विश्वास न करें। समाज तब ही संतुलित रहेगा जब हम स्त्री और पुरुष दोनों को गुण, दोष, भावना और सीमाओं के साथ इंसान समझें। मीडिया अगर इस संतुलन को नहीं समझेगा तो वह सूचना का वाहक नहीं, बल्कि पूर्वग्रह का प्रसारक बन जाएगा।
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