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प्रवीण कक्कड़
नवदुर्गा प्रकृति की शक्तियों की उपासना का पर्व है। केवल स्त्री के सम्मान और श्रद्धा की बात नहीं बल्कि यह लैंगिक समानता और स्त्री को मानव के रूप में मान्यता देने का पर्व भी है। स्त्री और पुरुष दोनों में देवीय तत्व है और दोनों के ईश्वरीय रूपांतरण की पूजा - अर्चना का विधान भारतीय वांगमय में किया गया है। ईश्वर या देवीय तत्व का कोई लिंग नहीं है। इसलिए अर्धनारीश्वर की कल्पना हमारी संस्कृति और हमारे धर्म में मौजूद है।
शिव महापुराण में उल्लेख है -
‘शंकर: पुरुषा: सर्वे स्त्रिय: सर्वा महेश्वरी ।’
इसका भाव यही है कि समस्त पुरुष भगवान सदाशिव के अंश और समस्त स्त्रियां भगवती शिवा की अंशभूता हैं, उन्हीं भगवान अर्धनारीश्वर से यह सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त हैं। इसे और अधिक स्पष्ट शब्दों में समझे तो स्त्री और पुरुष में भेद केवल उनकी नैसर्गिक जिम्मेदारियों का है। स्त्री जननी है उसे मां बनना है, सृष्टि के क्रम को चलायमान रखना है। जबकि पिता होने का दायित्व पुरुष को सृष्टि ने सौंपा है। इन दोनों दायित्व में कोई भी कमतर नहीं है और कोई भी उच्चतर नहीं है।
पद्मपुराण में कहा गया है कि पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तप है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं। जिसकी सेवा और सदगुणों से पिता-माता संतुष्ट रहते हैं, उस पुत्र को प्रतिदिन गंगा-स्नान का पुण्य मिलता है। शायद इसीलिए नवदुर्गा से पहले पितृपक्ष आता है।
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः॥
पितरौ यस्य तृप्यन्ति सेवया च गुणेन च।
तस्य भागीरथीस्नानमहन्यहनि वर्तते॥
दूसरी तरफ मातृत्व भी उतना ही उत्कृष्ट और उच्चतम गुण है, जो संसार में सृष्टि को आगे बढ़ाने का महत्वपूर्ण दायित्व निभाती है।
नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रपा॥
माता के समान कोई छाया नहीं, कोई आश्रय नहीं, कोई सुरक्षा नहीं। माता के समान इस विश्व में कोई जीवनदाता नहीं॥ माता सर्वतीर्थमयी है और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप है।
इसलिये स्त्री पुरुष दोनों ही महत्वपूर्ण है और कोई भी किसी से कम नहीं है। पितृपक्ष के बाद नवदुर्गा का पूजन मातृ पक्ष ही है। यह शक्ति के पूजन की परंपरा है। शक्ति जिससे संसार चलता है और जो अपनी रचनात्मकता से संसार को आगे बढ़ती है। स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर सृजन करते हैं। किसी एक की अनुपस्थिति में सृजन संभव नहीं।
लेकिन मध्यकाल में एक ऐसा दौर आया जब पाशविक बल को ही सर्वोच्च समझा जाने लगा और पुरुष को स्त्री से ज्यादा बलवान समझकर स्त्री को दबा कर रखा गया। उसे सीमाओं में बांधने की कोशिश की गई। शोषण, अपमान, घुटन और पीड़ा उसके हिस्से में आई। वर्ष में दो-दो बार नवदुर्गा के रूप में स्त्री शक्ति की पूजा करने वाले देश में स्त्रियों की स्थिति निरंतर खराब होती चली गई। किंतु अब वह बुरा दौर खत्म होने की तरफ है। आज की स्त्री चैतन्य है, अपनी शक्ति पहचानती है, अपनी सीमाओं को जानती है, और हर वह काम करना चाहती है जिस स्त्री के लिए एक समय में वर्जित किया गया था।
यही कारण है कि स्त्री चेतना के इस दौर में पुरुष प्रधान समाज को भी बाध्य होकर संसद और विधानसभा में स्त्रियों को 33% आरक्षण देने का निर्णय करना पड़ा है। यह बदलाव स्त्री शक्ति को सर्वोच्च मान्यता प्रदान करने के साथ-साथ स्त्री चेतना के प्रति सम्मान का प्रकटन भी है। अब जानना यह है कि समाज और पुरुष स्त्री को मानवी के रूप में स्वीकार करने के लिए कितना तत्पर है। इस नवदुर्गा का यही संदेश है कि जो सर्व शक्तिशाली है, जो जगदंबा है, जगतजननी है और सृष्टि की निर्मात्री है, उसे बराबरी का हक और सम्मान देना अब आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।
आप सभी के लिए नवरात्रि पर्व मंगलमय हो, आप सभी को दुर्गोत्सव की शुभकामनाएं
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