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शेफाली जरीवाला के बारे में खबर आ रही है कि वो anti aging pills ले रही थीं। उन्हें कम उम्र दिखना था, युवा दिखना था!!
पर आख़िर क्यों? उम्र को पकने से क्यों रोकना? पकती हुई उम्र में भी एक ग्रेस होती है।
पकी उम्र का अपना ही सौंदर्य होता है। गुलज़ार लिख गए हैं-
“बाद मुद्दत के मिली हो!
ये जो थोड़ी सी भर गई दो!!
ये वज़न तुम पर अच्छा लगता है!!!”
गुरूदत्त की फ़िल्म ‘प्यासा’ की वहीदा रहमान एक पकी हुई उम्र की अंतिम दहलीज़ पर खड़ी होकर भी अगर वसंत की सप्तपर्णी छांव सी सुमधुर और संगीतमय नज़र आती हैं तो ये भी एक ढलती हुई उम्र का ही ग्रेस है।
शास्त्रीय नृत्यांगना सोनल मानसिंह अगर 80 की दहलीज़ पारकर भी शाश्वत सौंदर्य के अनहद नाद सी पलकें झपकाती हैं तो ये भी उतरती हुई उम्र की सदावत्सल अमृत छाया का अक्षत आभामंडल है।
उम्र बढ़ने से सौंदर्य कम नहीं होता बल्कि अनुभूति और जिजीविषा की अमूल्य मथनी में मथकर वो और भी गाढ़ा हो जाता है।
पकती हुई उम्र एक आशीर्वाद की तरह होती है जो अनुभव के आभामंडल से घिरे हुए चेहरे को आँगन में उगी तुलसी सा पवित्र बनाती है। आत्मिक कलुष से रिक्त बनाती है। कैशोर्य की सीपियों पर गिरती स्वाति नक्षत्र की बूँदों सा सिक्त बनाती है!!
काश शेफाली ये समझ पातीं!!!!!
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