पंडित छन्नूलाल मिश्र : सुरों में गंगा की अविरल धारा
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चंद्रवेश पांडे

 

भारतीय संगीत परंपरा में कुछ ऐसे स्वरपुरुष हुए हैं जिनकी तान से न केवल श्रोता अभिभूत होते हैं, बल्कि उनके माध्यम से पूरी सांस्कृतिक धरोहर जीवंत हो उठती है। बनारस की माटी में जन्मे और उसी की गंगा-जमुनी तहज़ीब में पले-बढ़े पंडित छन्नूलाल मिश्र उन्हीं विरल हस्तियों में गिने जाते हैं। वे केवल गायक नहीं थे, बल्कि लोकजीवन, अध्यात्म और शास्त्र की सम्मिलित ध्वनि थे, जिनके सुर सुनकर लगता था मानो गंगा की लहरें ही गा रही हों। 

 

वाराणसी घराने की परंपरा से जुड़े पंडित मिश्र ने ख़ासकर ठुमरी, दादरा, चैती, कजरी और होरी को जिस गहनता और भाव-प्रवणता से प्रस्तुत किया, वह उन्हें अपने समकालीनों से अलग करता है। उनके गायन में बनारस की चौक-चौराहों पर गूंजने वाले लोकगीतों की मिठास भी थी और मंदिरों की आरती का अलौकिक कंपन भी। जब वे राग में आलाप करते तो लगता कि सुर किसी तपस्वी की साधना की तरह धीरे-धीरे खुल रहे हैं और श्रोताओं के भीतर तक उतरते चले जा रहे हैं।

 

पंडित छन्नूलाल मिश्र ने शास्त्रीयता को लोकजीवन से अलग नहीं किया, बल्कि दोनों को ऐसे पिरोया कि वह एक सांगीतिक महायज्ञ का रूप ले लेता। उनकी ठुमरी में श्रृंगार का रस था, किंतु उसमें अध्यात्म का स्पर्श भी झलकता। दादरा और कजरी में वे बनारसी बोली की मस्ती घोल देते और होरी गाते समय लगता जैसे पूरे ब्रज का रंग बरस रहा हो। उनकी आवाज़ में अदभुत रूहानियत थी- वह साधारण से साधारण श्रोता को भी भीतर से झकझोर देती थी।

 

उन्होंने केवल मंचीय प्रस्तुतियों तक अपने कला-संसार को सीमित नहीं रखा। वे गायक के साथ-साथ एक संवेदनशील सांस्कृतिक दूत भी थे, जो भारतीय संगीत की परंपरा को विश्वपटल पर ले गए। उन्होंने भारतीय राग-संगीत की गूंज देश दुनिया में  पहुँचाई। उनकी गायकी सुनकर विदेशी श्रोता भी भारतीय संस्कृति की गहराई का अनुभव करते थे।

 

पंडित मिश्र का जीवन भारतीय संगीत की उस सनातन धारा का उदाहरण था जिसमें कला केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि साधना और साधना से भी आगे जाकर भक्ति बन जाती है। वे स्वयं कबीर और तुलसी की काव्यधारा को उतनी ही सहजता से गा सकते थे जितनी सहजता से किसी ठुमरी का आलाप। यही कारण है कि उन्हें सुनना केवल संगीत-संवाद नहीं, बल्कि जीवन-संवाद जैसा लगता था।

 

संगीत जगत में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण और पद्म विभूषण से सम्मानित किया। परंतु पंडित छन्नूलाल मिश्र का असली सम्मान उनके श्रोताओं के हृदयों में था- जहाँ उनकी आवाज़ एक अमिट छाप छोड़ चुकी है। मध्यप्रदेश की धरती कई दफा उनके सुरों से सिक्त हुई है, ग्वालियर का तानसेन समारोह हो या कोई और आयोजन वे कई दफा अपनी गायकी का चुंबकीय असर छोड़कर गए। 

 

उनके निधन के साथ भारतीय संगीत ने अपने समय के एक जीवित पुराण को खो दिया है। वे अब मंच पर नहीं गाएंगे, किंतु उनकी रचनाएँ, उनकी ठुमरियाँ, उनकी गायी हुई भजनों की गूंज, और उनकी स्मित मुस्कान हमेशा याद दिलाती रहेगी कि संगीत केवल ध्वनि नहीं, बल्कि आत्मा की भाषा है।

 

पंडित छन्नूलाल मिश्र का जाना गंगा की एक लहर के थम जाने जैसा है, किंतु उनकी स्मृति उस अविरल धारा की तरह बहती रहेगी जो आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाएगी कि संगीत जीवन का उत्सव है, ईश्वर तक पहुँचने का सेतु है और मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने वाला सबसे सुरीला माध्यम है।

Dakhal News 5 October 2025

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