
Dakhal News

(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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(प्रवीण कक्कड़) चैत्र नवरात्रि प्रारंभ हो गईं हैं। घर-घर में माता की पूजा चल रही है। इसके साथ ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारतीय नव वर्ष भी शुरू हो गया है। शास्त्रोक्त तरीके से देखें तो भारत में वर्ष के लिए संवत शब्द बहुत पहले से प्रचलित है। हमारा यह नया वर्ष विक्रम संवत पर आधारित है। आजकल हम अपने इस्तेमाल के लिए जिस ग्रेगेरियन या सरल भाषा में कहें तो अंग्रेजी कलैंडर का प्रयोग करते हैं, उसकी तुलना में हमारा संवत्सर 57 साल पुराना है। यह सिर्फ हमारी प्राचीनता का द्योतक ही नहीं है, बल्कि यह भी बताता है कि खगोलीय गणनाओं, पृथ्वी की परिक्रमा, चंद्र और सूर्य की कलाओं और परिक्रमण की सटीक गणना भी हम बाकी संसार से बहुत पहले से न भी सही तो साथ-साथ जरूर कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि विक्रम संवत सिर्फ एक कैलेंडर नहीं है, बल्कि इतिहास के माथे पर भारत की विजयश्री का तिलक भी है। भविष्यत पुराण के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य परमार राजवंश के राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य ने उज्जैन से शकों को पराजित कर विजयश्री प्राप्त की थी। इसी विजय के लिए विक्रमादित्य को शक शकारि विक्रमादित्य भी कहा जाता है। इस तरह यह कैलेंडर राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव का भी प्रतीक है। आज के बच्चों को लग सकता है कि भले ही विक्रम कलैंडर कभी गौरव का विषय रहा हो, लेकिन अब तो हम इसका उपयोग करते नहीं हैं। उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। हम अपने दफ्तर और स्कूल के कार्यक्रम तो ग्रेगेरियन कैलेंडर से तय करते हैं, लेकिन हमारे धार्मिक और सांस्कृतिक तीज त्योहारों का निर्धारण तो आज भी भारतीय पंचांग से होता है। शादी ब्याह की शुभ वेला भी भारतीय कैलेंडर देखकर तय की जाती है। कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, वसंत पंचमी ये सारे त्योहार भारतीय पंचांग से ही तो तय होते हैं। कभी आपने सोचा कि जब ग्रेगेरियन भी पंचांग है और विक्रम संवत से भी पंचांग शुरू होता है तो फिर भारतीय पंचांग की तारीखें हर साल अंग्रेजी कैलेंडर से अलग क्यों हो जाती हैं। जैसे इस बार हमारा नव वर्ष 2 अप्रैल से शुरू हो रहा है, जबकि पिछले सालों में यह किसी और तारीख से शुरू हुआ था। इस साल की भांति हर साल वर्ष प्रतिपदा दो अप्रैल को ही क्यों नहीं आती। इसकी कथा भी बड़ी दिलचस्प और खगोल विज्ञान के रहस्य संजोए है। असल में अंग्रेजी कैलेंडर विशुद्ध रूप से सौर पंचांग है। यानी सूर्य की गति से उसका संबंध है। वहीं भारतीय पंचांग सौर और चंद्र दोनों की गतियों पर निर्भर है। हमारे यहां वर्ष की गणना सूर्य की गति से होती है, जबकि महीने और तारीखों की गणना चंद्रमा की कलाओं से होती है। हमारे महीने के दो हिस्से होते हैं शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। पूर्णिमा से अमावस्या के बीच में एक पक्ष पूरा हो जाता है। इस तरह हमारे हर महीने में 30 दिन ही होते हैं। जबकि सूर्य की चाल से मिलान के लिए अंग्रेजी कलैंडर में एक महीने में 28 से 31 दिन तक रखे गए हैं। अंग्रेजी कैलेंडर ने साल में 365 दिन करने के लिए महीनों में दिनों की संख्या समायोजित की है। वहीं भारतीय कैलेंडर में साल को 365 दिन का बनाए रखने के लिए महीने में दिनों की संख्या घटाने बढ़ाने के बजाय साल में सीधा महीना ही बढ़ा लिया जाता है। कभी हिंदी पंचांग को गौर से देखिये तो पचा चलेगा कि कई बार उसमें एक ही महीना दो बार आ जाता है। खगोल में आपकी दिलचस्पी हो तो इसे आप ज्योतिषाचार्यों से समझ सकते हैं। इतने सारे इतिहास और विज्ञान के बाद एक बाद और कहना जरूरी है कि भले ही विक्रम संवत विजय का प्रतीक हो लेकिन असल में तो यह विशुद्ध रूप से भारत के खेतिहर समाज का नववर्ष है। चैत्र के महीने में गेंहू की फसल कटकर घर आ जाती है। एक तरह से देखा जाए तो किसान को उसकी साल भर की मेहनत का फल मिल जाता है। इस नवान्न से वह अपने जीवन को नए सिरे से सजाता संवारता है। तो जो अन्न जीवन का नया प्रस्थान बिंदु लेकर आता है, उसी समय नव वर्ष मनाने का सबसे अच्छा मौका होता है। इस नव वर्ष में आप भी अपने लिये नए लक्ष्य और नए आनंदों का वरण करें। भारतीय नव वर्ष की बहुत शुभकामनाएं
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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विश्व दीपक- क्या आप जानते हैं? हमारे पड़ोसी देश, श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं. अखबार छापने के लिए कागज का स्टॉक लगभग खतम हो चुका है। इधर भारत में केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है. ये पहले लागू नहीं था. श्रीलंका में बहुत सारे लोगों को कई दिनों से दो जून का खाना नहीं मिल पा रहा। लोगों के पास रसोई गैस नहीं है. पेट्रोल भराने के लिए पैसे नहीं. जिनके पास पैसे हैं वो भरा नहीं पा रहे. कई लोग पेट्रोल भराने के लिए लाइन में खड़े-खड़े ही मर गए। उद्योग धंधे बंद होने लगे हैं. चारों तरफ छंटनी चल रही है. लोगों की नौकरियां जा रही हैं. स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे हैं। अस्पतालों ने इलाज करना बंद कर दिया है. बहुत जगहों पर ओपीडी बंद की जा रही है। कोलंबो में लाखों की जनता इकट्ठा है. राजपक्षे सरकार के खिलाफ जबर्दस्त प्रदर्शन हो रहे हैं. पूरा देश कर्ज में डूबा है. लाखों लोग देश छोड़कर भाग रहे हैं. भारत आना चाह रहे हैं. मेरा मानना है कि भारत को खुशी-खुशी श्रीलंका के लोगों अपनाना चाहिए. उन्हें व्यवस्थित तरीके से कई राज्यों में भेजकर उनके रहने, खाने-पीने का इंतजाम करना चाहिए. भारत इतना कर सकता है. जब प्रधानमंत्री के लिए 8 हज़ार करोड़ का प्लेन खरीदा जा सकता है तो कम से कम 80 हज़ार श्रीलंकाई नगारिकों की जान भी बचाई जा सकती है. कोई बड़ी बात नहीं. भारत को बड़ा भाई बनकर यह फर्ज निभाना चाहिए. सवाल यह है कि श्रीलंका की यह हालत क्यों हुई? जाहिर है कई कारण हैं लेकिन दो अहम हैं जिनके बारे में जानना चाहिए – बहुत आसान शर्तों पर चीन का दिया हुआ कर्जा. कई सालों से श्रीलंका, चीन के डेट ट्रैप में हैं. चीनी साम्राज्यवाद की जकड़न से श्रीलंका टूटा. कई अफ्रीकी देश श्रीलंका की राह पर हैं. दूसरा कारण है रूसी तानाशाह पुतिन का यूक्रेन पर युद्ध थोपना. पुतिन द्वारा शुरू किए गए युद्ध की वजह से श्रीलंकाई संकट की प्रक्रिया तेज़ हो गई. जो अफरा-तफरी छह महीने में मचनी थी वह एक महीने में ही सतह पर आ गई. पुतिन सिर्फ रूस-यूक्रेन का ही नहीं संपूर्ण मनुष्यता का अपराधी है. याद रखिए अगर कच्चे तेल की कीमत 170-200 डॉलर प्रति बैरल तक गई तो समझिए कि हमारा आपका भी मिटना तय है. पड़ोसी देश श्रीलंका में अखबार छपने बंद हो चुके हैं क्यूंकि उनके पास कागज़ ही नहीं है. वहां परीक्षाएं स्थगित कर दी गई हैं. प्रश्न पत्र छपने तक के लिए कागज़ नहीं. महंगा कागज़ खरीदने के लिए पैसे नहीं. इसके पीछे एक बड़ा कारण पुतिन द्वारा, यूक्रेन पर थोपा गया युद्ध है. ये सब आप जान चुके हैं. अब सुनिए भारत का हाल. केंद्र सरकार अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री पर भी जीएसटी लगाने की तैयारी कर रही है.पहले लागू नहीं था जीएसटी का न्यूनतम क्राइटेरिया भी 5% से बढ़ाकर 8% किया जा सकता है भारत में भी कागज़ की किल्लत है. हालांकि स्थिति संकट जैसी नहीं लेकिन पहले से काफी महंगा हो चुका है कागज़ भारत का 40 फीसदी कागज़ कनाडा से आता है जो देश में बनता है, उसकी कीमत दो साल पहले तक 35 रुपए प्रति किलो थी. आज 75 रुपए प्रति किलो. यानि बस दो साल में दोगुना से ज्यादा कीमत बढ़ी विदेश से आयात होने वाला कागज पिछले साल यानी 2020 में 375 डॉलर प्रति टन था. आज 1000 डॉलर प्रति टन है7.भारत में बनने वाले कागज की एक तो क्वालिटी खराब होती है दूसरा लुगदी से बनता था. अब लुगदी वाली कंपनियां पैकेजिंग के लिए काम आने वाले बॉक्स आदि बनाने लगी हैं क्योंकि उसमे मुनाफा ज्यादा है फकीरचन्द की सरकार सब कुछ ऑनलाइन कर देने पर जो इतना जोर दे रही है, पेपरलेस होने की जो इतनी कवायद कर रही है — उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है. समाज जितना पेपरलेस होगा, उतना ही माइंडलेस भी होगा. हां, एक फायदा हो सकता है. सरकार अब यह कहेगी कि कागज़ नहीं, मोबाइल दिखाओ.
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(प्रवीण कक्कड़) अगर आप अपनी जिंदगी को सुहाना बनाना चाहते हैं तो टूरिज्म का सहारा लीजिये। अधिकांश कामयाब लोगों के जीवन में एक चीज कॉमन है और वह हैं ट्रेवल यानी पर्यटन। हम सभी आज के दौर में एक रूटीन लाइफ जी रहे हैं। किसी को ऑफिस की चिंता है तो किसी को व्यापार की। ऐसे में हमारा दिमाग कुछ बातों में उलझ कर रह जाता है। पर्यटन हमारे दिमाग को खोलता है, हमें नई ऊर्जा देता है, स्ट्रेस से हमें दूर करता है और एक सामाजिक जीवन में हमें वापस लौटाता है। सही मायनों में टूरिज्म यानी पर्यटन आप की ग्रोथ करता है, आप में कॉन्फिडेंस का विकास होता है, आप में कम्युनिकेशन की कला विकसित होती है और आप अलग-अलग परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए खुद को तैयार कर पाते हैं। इसके साथ ही आपके लिए एक सुनहरी यादों का खजाना जुड़ जाता है जो जिंदगी भर के लिए एक अनमोल मेमोरी है। दुनिया में जो भी महान बना उसने सफर जरूर किया है। अगर त्रेता युग में श्रीराम की बात करें तो वह किसी एक वन में रहकर भी वनवास पूरा कर सकते थे लेकिन उन्होंने ऋषियों के आश्रम जाकर आशीर्वाद और प्रेरणाएं लीं, वनवासियों की समस्या जानी, भेदभाव मिटाये और विकट परिस्थिति आने पर रावण का वध भी किया। इन्हीं अनुभव के आधार पर उन्होंने राम राज्य की स्थापना की। इसी तरह द्वापर युग में श्री कृष्ण ने भी भ्रमण किया, इसी दौरान उन्हें बेहतर विकल्प नजर आया और उन्होंने मथुरा से अपने राज्य को द्वारका में स्थापित किया। अब कलयुग में आदिगुरु शांकराचार्य हों या स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी हों या धीरूभाई अंबानी सभी ने खूब भ्रमण किया और अनुभव लिये, परिस्थितियों को समझा और उन्हें जीवन में उतारकार महान बने। अगर गहराई में समझा जाए तो हर महान व्यक्ति ने टूरिज्म से दोस्ती कर खुद को रि-डिस्कवर किया। अलग-अलग समाज, भाषा, खानपान, जलवायु, परंपरा और लोगों के रहन-सहन को जानकर इन्होंने खुद में जरूरी परिवर्तन किए और लोगों तक बेहतर ढंग से अपने संदेश को पहुंचा भी पाए। गर्मियों का मौसम सामने है और इसके साथ ही गर्मियों की छुट्टी की तैयारी होने लगी है। 2 साल कोरोनाकाल के कारण गर्मियों की छुट्टी बहुत संकट में गुजरी हैं। पिछला साल तो खासकर ऐसा रहा कि हर तरफ दुख और बीमारी का मंजर था। लॉकडाउन की पाबंदियां हमारे चारों तरफ कायम थी। लेकिन इस बार ईश्वर की कृपा से स्थितियां बेहतर हैं। ऐसे में गर्मियों की छुट्टी आते समय प्लानिंग का ध्यान करना बहुत जरूरी है। देश और प्रदेश में कुछ पर्यटन स्थल बहुत चर्चित हैं और ज्यादातर लोग उन्हीं जगहों का रुख कर लेते हैं। ऐसे में इन पर्यटन स्थलों पर बहुत ज्यादा भीड़ हो जाती है, और पर्यटन का जो आनंद लेने हम जाते हैं, वह पीछे छूट जाता है। इसलिए स्थान का चयन करने में सावधानी जरूर बरतनी चाहिए, क्योंकि 2 साल बाद घूमने फिरने का मौका मिला है तो हम इस तरह का इंतजाम करें कि घर के बूढ़े बुजुर्ग बच्चे और पूरा परिवार साथ मिलकर छुट्टियां मना सके। घर के बुजुर्ग सामान्य तौर पर इस तरह के सैर सपाटे में जाने से मना करते हैं, लेकिन यह तो उनके बच्चों और परिवार वालों की जिम्मेदारी है कि वे उन्हें मनाए समझाएं और पूरी सुरक्षा के साथ पर्यटन पर ले जाएं। पर्यटन को सिर्फ मौज मस्ती का माध्यम नहीं समझना चाहिए। असल में यह तो खुद को तरोताजा करने और पुरानी थकान को भुलाकर नई शक्ति का संग्रहण करने का बहाना होता है। नई ताकत के साथ जब हम वापस काम पर लौटते हैं तो दिमाग नए तरह से सोचने की स्थिति में आ जाता है। पश्चिमी देशों में छुट्टियों का इस तरह का सदुपयोग लंबे समय से किया जाता है। बल्कि यह उनकी संस्कृति का एक हिस्सा है। बच्चों के लिए तो इस बार दोहरी खुशी है, पहले तो कई दिनों बाद स्कूल खुले तो बच्चों ने दोस्तों के साथ मस्ती की और अब परीक्षा के बाद की छुट्टी शुरू हो गई हैं। अब बच्चे छुट्टियों का आनंद लेना चाहते हैं। हमारा मध्य प्रदेश तो इस समय देश में पर्यटन का सबसे बड़ा गढ़ है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पूर्वोत्तर, कश्मीर जैसे राज्यों में घूमने की बहुत अच्छी जगह हैं और उनका खूब प्रचार भी है। मध्यप्रदेश में बहुत ही सुंदर रमणीक जगह घूमने लायक हैं। हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम न केवल वहां घूमने जाएंगे बल्कि अपने अपने स्तर पर उनकी अच्छाइयों का खूब प्रचार प्रसार करें।
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(प्रवीण कक्कड़) अगर आप अपनी जिंदगी को सुहाना बनाना चाहते हैं तो टूरिज्म का सहारा लीजिये। अधिकांश कामयाब लोगों के जीवन में एक चीज कॉमन है और वह हैं ट्रेवल यानी पर्यटन। हम सभी आज के दौर में एक रूटीन लाइफ जी रहे हैं। किसी को ऑफिस की चिंता है तो किसी को व्यापार की। ऐसे में हमारा दिमाग कुछ बातों में उलझ कर रह जाता है। पर्यटन हमारे दिमाग को खोलता है, हमें नई ऊर्जा देता है, स्ट्रेस से हमें दूर करता है और एक सामाजिक जीवन में हमें वापस लौटाता है। सही मायनों में टूरिज्म यानी पर्यटन आप की ग्रोथ करता है, आप में कॉन्फिडेंस का विकास होता है, आप में कम्युनिकेशन की कला विकसित होती है और आप अलग-अलग परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए खुद को तैयार कर पाते हैं। इसके साथ ही आपके लिए एक सुनहरी यादों का खजाना जुड़ जाता है जो जिंदगी भर के लिए एक अनमोल मेमोरी है। दुनिया में जो भी महान बना उसने सफर जरूर किया है। अगर त्रेता युग में श्रीराम की बात करें तो वह किसी एक वन में रहकर भी वनवास पूरा कर सकते थे लेकिन उन्होंने ऋषियों के आश्रम जाकर आशीर्वाद और प्रेरणाएं लीं, वनवासियों की समस्या जानी, भेदभाव मिटाये और विकट परिस्थिति आने पर रावण का वध भी किया। इन्हीं अनुभव के आधार पर उन्होंने राम राज्य की स्थापना की। इसी तरह द्वापर युग में श्री कृष्ण ने भी भ्रमण किया, इसी दौरान उन्हें बेहतर विकल्प नजर आया और उन्होंने मथुरा से अपने राज्य को द्वारका में स्थापित किया। अब कलयुग में आदिगुरु शांकराचार्य हों या स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी हों या धीरूभाई अंबानी सभी ने खूब भ्रमण किया और अनुभव लिये, परिस्थितियों को समझा और उन्हें जीवन में उतारकार महान बने। अगर गहराई में समझा जाए तो हर महान व्यक्ति ने टूरिज्म से दोस्ती कर खुद को रि-डिस्कवर किया। अलग-अलग समाज, भाषा, खानपान, जलवायु, परंपरा और लोगों के रहन-सहन को जानकर इन्होंने खुद में जरूरी परिवर्तन किए और लोगों तक बेहतर ढंग से अपने संदेश को पहुंचा भी पाए। गर्मियों का मौसम सामने है और इसके साथ ही गर्मियों की छुट्टी की तैयारी होने लगी है। 2 साल कोरोनाकाल के कारण गर्मियों की छुट्टी बहुत संकट में गुजरी हैं। पिछला साल तो खासकर ऐसा रहा कि हर तरफ दुख और बीमारी का मंजर था। लॉकडाउन की पाबंदियां हमारे चारों तरफ कायम थी। लेकिन इस बार ईश्वर की कृपा से स्थितियां बेहतर हैं। ऐसे में गर्मियों की छुट्टी आते समय प्लानिंग का ध्यान करना बहुत जरूरी है। देश और प्रदेश में कुछ पर्यटन स्थल बहुत चर्चित हैं और ज्यादातर लोग उन्हीं जगहों का रुख कर लेते हैं। ऐसे में इन पर्यटन स्थलों पर बहुत ज्यादा भीड़ हो जाती है, और पर्यटन का जो आनंद लेने हम जाते हैं, वह पीछे छूट जाता है। इसलिए स्थान का चयन करने में सावधानी जरूर बरतनी चाहिए, क्योंकि 2 साल बाद घूमने फिरने का मौका मिला है तो हम इस तरह का इंतजाम करें कि घर के बूढ़े बुजुर्ग बच्चे और पूरा परिवार साथ मिलकर छुट्टियां मना सके। घर के बुजुर्ग सामान्य तौर पर इस तरह के सैर सपाटे में जाने से मना करते हैं, लेकिन यह तो उनके बच्चों और परिवार वालों की जिम्मेदारी है कि वे उन्हें मनाए समझाएं और पूरी सुरक्षा के साथ पर्यटन पर ले जाएं। पर्यटन को सिर्फ मौज मस्ती का माध्यम नहीं समझना चाहिए। असल में यह तो खुद को तरोताजा करने और पुरानी थकान को भुलाकर नई शक्ति का संग्रहण करने का बहाना होता है। नई ताकत के साथ जब हम वापस काम पर लौटते हैं तो दिमाग नए तरह से सोचने की स्थिति में आ जाता है। पश्चिमी देशों में छुट्टियों का इस तरह का सदुपयोग लंबे समय से किया जाता है। बल्कि यह उनकी संस्कृति का एक हिस्सा है। बच्चों के लिए तो इस बार दोहरी खुशी है, पहले तो कई दिनों बाद स्कूल खुले तो बच्चों ने दोस्तों के साथ मस्ती की और अब परीक्षा के बाद की छुट्टी शुरू हो गई हैं। अब बच्चे छुट्टियों का आनंद लेना चाहते हैं। हमारा मध्य प्रदेश तो इस समय देश में पर्यटन का सबसे बड़ा गढ़ है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पूर्वोत्तर, कश्मीर जैसे राज्यों में घूमने की बहुत अच्छी जगह हैं और उनका खूब प्रचार भी है। मध्यप्रदेश में बहुत ही सुंदर रमणीक जगह घूमने लायक हैं। हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम न केवल वहां घूमने जाएंगे बल्कि अपने अपने स्तर पर उनकी अच्छाइयों का खूब प्रचार प्रसार करें।
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(प्रवीण कक्कड़) अगर आप अपनी जिंदगी को सुहाना बनाना चाहते हैं तो टूरिज्म का सहारा लीजिये। अधिकांश कामयाब लोगों के जीवन में एक चीज कॉमन है और वह हैं ट्रेवल यानी पर्यटन। हम सभी आज के दौर में एक रूटीन लाइफ जी रहे हैं। किसी को ऑफिस की चिंता है तो किसी को व्यापार की। ऐसे में हमारा दिमाग कुछ बातों में उलझ कर रह जाता है। पर्यटन हमारे दिमाग को खोलता है, हमें नई ऊर्जा देता है, स्ट्रेस से हमें दूर करता है और एक सामाजिक जीवन में हमें वापस लौटाता है। सही मायनों में टूरिज्म यानी पर्यटन आप की ग्रोथ करता है, आप में कॉन्फिडेंस का विकास होता है, आप में कम्युनिकेशन की कला विकसित होती है और आप अलग-अलग परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए खुद को तैयार कर पाते हैं। इसके साथ ही आपके लिए एक सुनहरी यादों का खजाना जुड़ जाता है जो जिंदगी भर के लिए एक अनमोल मेमोरी है। दुनिया में जो भी महान बना उसने सफर जरूर किया है। अगर त्रेता युग में श्रीराम की बात करें तो वह किसी एक वन में रहकर भी वनवास पूरा कर सकते थे लेकिन उन्होंने ऋषियों के आश्रम जाकर आशीर्वाद और प्रेरणाएं लीं, वनवासियों की समस्या जानी, भेदभाव मिटाये और विकट परिस्थिति आने पर रावण का वध भी किया। इन्हीं अनुभव के आधार पर उन्होंने राम राज्य की स्थापना की। इसी तरह द्वापर युग में श्री कृष्ण ने भी भ्रमण किया, इसी दौरान उन्हें बेहतर विकल्प नजर आया और उन्होंने मथुरा से अपने राज्य को द्वारका में स्थापित किया। अब कलयुग में आदिगुरु शांकराचार्य हों या स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी हों या धीरूभाई अंबानी सभी ने खूब भ्रमण किया और अनुभव लिये, परिस्थितियों को समझा और उन्हें जीवन में उतारकार महान बने। अगर गहराई में समझा जाए तो हर महान व्यक्ति ने टूरिज्म से दोस्ती कर खुद को रि-डिस्कवर किया। अलग-अलग समाज, भाषा, खानपान, जलवायु, परंपरा और लोगों के रहन-सहन को जानकर इन्होंने खुद में जरूरी परिवर्तन किए और लोगों तक बेहतर ढंग से अपने संदेश को पहुंचा भी पाए। गर्मियों का मौसम सामने है और इसके साथ ही गर्मियों की छुट्टी की तैयारी होने लगी है। 2 साल कोरोनाकाल के कारण गर्मियों की छुट्टी बहुत संकट में गुजरी हैं। पिछला साल तो खासकर ऐसा रहा कि हर तरफ दुख और बीमारी का मंजर था। लॉकडाउन की पाबंदियां हमारे चारों तरफ कायम थी। लेकिन इस बार ईश्वर की कृपा से स्थितियां बेहतर हैं। ऐसे में गर्मियों की छुट्टी आते समय प्लानिंग का ध्यान करना बहुत जरूरी है। देश और प्रदेश में कुछ पर्यटन स्थल बहुत चर्चित हैं और ज्यादातर लोग उन्हीं जगहों का रुख कर लेते हैं। ऐसे में इन पर्यटन स्थलों पर बहुत ज्यादा भीड़ हो जाती है, और पर्यटन का जो आनंद लेने हम जाते हैं, वह पीछे छूट जाता है। इसलिए स्थान का चयन करने में सावधानी जरूर बरतनी चाहिए, क्योंकि 2 साल बाद घूमने फिरने का मौका मिला है तो हम इस तरह का इंतजाम करें कि घर के बूढ़े बुजुर्ग बच्चे और पूरा परिवार साथ मिलकर छुट्टियां मना सके। घर के बुजुर्ग सामान्य तौर पर इस तरह के सैर सपाटे में जाने से मना करते हैं, लेकिन यह तो उनके बच्चों और परिवार वालों की जिम्मेदारी है कि वे उन्हें मनाए समझाएं और पूरी सुरक्षा के साथ पर्यटन पर ले जाएं। पर्यटन को सिर्फ मौज मस्ती का माध्यम नहीं समझना चाहिए। असल में यह तो खुद को तरोताजा करने और पुरानी थकान को भुलाकर नई शक्ति का संग्रहण करने का बहाना होता है। नई ताकत के साथ जब हम वापस काम पर लौटते हैं तो दिमाग नए तरह से सोचने की स्थिति में आ जाता है। पश्चिमी देशों में छुट्टियों का इस तरह का सदुपयोग लंबे समय से किया जाता है। बल्कि यह उनकी संस्कृति का एक हिस्सा है। बच्चों के लिए तो इस बार दोहरी खुशी है, पहले तो कई दिनों बाद स्कूल खुले तो बच्चों ने दोस्तों के साथ मस्ती की और अब परीक्षा के बाद की छुट्टी शुरू हो गई हैं। अब बच्चे छुट्टियों का आनंद लेना चाहते हैं। हमारा मध्य प्रदेश तो इस समय देश में पर्यटन का सबसे बड़ा गढ़ है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पूर्वोत्तर, कश्मीर जैसे राज्यों में घूमने की बहुत अच्छी जगह हैं और उनका खूब प्रचार भी है। मध्यप्रदेश में बहुत ही सुंदर रमणीक जगह घूमने लायक हैं। हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम न केवल वहां घूमने जाएंगे बल्कि अपने अपने स्तर पर उनकी अच्छाइयों का खूब प्रचार प्रसार करें।
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(प्रवीण कक्कड़) अगर आप अपनी जिंदगी को सुहाना बनाना चाहते हैं तो टूरिज्म का सहारा लीजिये। अधिकांश कामयाब लोगों के जीवन में एक चीज कॉमन है और वह हैं ट्रेवल यानी पर्यटन। हम सभी आज के दौर में एक रूटीन लाइफ जी रहे हैं। किसी को ऑफिस की चिंता है तो किसी को व्यापार की। ऐसे में हमारा दिमाग कुछ बातों में उलझ कर रह जाता है। पर्यटन हमारे दिमाग को खोलता है, हमें नई ऊर्जा देता है, स्ट्रेस से हमें दूर करता है और एक सामाजिक जीवन में हमें वापस लौटाता है। सही मायनों में टूरिज्म यानी पर्यटन आप की ग्रोथ करता है, आप में कॉन्फिडेंस का विकास होता है, आप में कम्युनिकेशन की कला विकसित होती है और आप अलग-अलग परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए खुद को तैयार कर पाते हैं। इसके साथ ही आपके लिए एक सुनहरी यादों का खजाना जुड़ जाता है जो जिंदगी भर के लिए एक अनमोल मेमोरी है। दुनिया में जो भी महान बना उसने सफर जरूर किया है। अगर त्रेता युग में श्रीराम की बात करें तो वह किसी एक वन में रहकर भी वनवास पूरा कर सकते थे लेकिन उन्होंने ऋषियों के आश्रम जाकर आशीर्वाद और प्रेरणाएं लीं, वनवासियों की समस्या जानी, भेदभाव मिटाये और विकट परिस्थिति आने पर रावण का वध भी किया। इन्हीं अनुभव के आधार पर उन्होंने राम राज्य की स्थापना की। इसी तरह द्वापर युग में श्री कृष्ण ने भी भ्रमण किया, इसी दौरान उन्हें बेहतर विकल्प नजर आया और उन्होंने मथुरा से अपने राज्य को द्वारका में स्थापित किया। अब कलयुग में आदिगुरु शांकराचार्य हों या स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी हों या धीरूभाई अंबानी सभी ने खूब भ्रमण किया और अनुभव लिये, परिस्थितियों को समझा और उन्हें जीवन में उतारकार महान बने। अगर गहराई में समझा जाए तो हर महान व्यक्ति ने टूरिज्म से दोस्ती कर खुद को रि-डिस्कवर किया। अलग-अलग समाज, भाषा, खानपान, जलवायु, परंपरा और लोगों के रहन-सहन को जानकर इन्होंने खुद में जरूरी परिवर्तन किए और लोगों तक बेहतर ढंग से अपने संदेश को पहुंचा भी पाए। गर्मियों का मौसम सामने है और इसके साथ ही गर्मियों की छुट्टी की तैयारी होने लगी है। 2 साल कोरोनाकाल के कारण गर्मियों की छुट्टी बहुत संकट में गुजरी हैं। पिछला साल तो खासकर ऐसा रहा कि हर तरफ दुख और बीमारी का मंजर था। लॉकडाउन की पाबंदियां हमारे चारों तरफ कायम थी। लेकिन इस बार ईश्वर की कृपा से स्थितियां बेहतर हैं। ऐसे में गर्मियों की छुट्टी आते समय प्लानिंग का ध्यान करना बहुत जरूरी है। देश और प्रदेश में कुछ पर्यटन स्थल बहुत चर्चित हैं और ज्यादातर लोग उन्हीं जगहों का रुख कर लेते हैं। ऐसे में इन पर्यटन स्थलों पर बहुत ज्यादा भीड़ हो जाती है, और पर्यटन का जो आनंद लेने हम जाते हैं, वह पीछे छूट जाता है। इसलिए स्थान का चयन करने में सावधानी जरूर बरतनी चाहिए, क्योंकि 2 साल बाद घूमने फिरने का मौका मिला है तो हम इस तरह का इंतजाम करें कि घर के बूढ़े बुजुर्ग बच्चे और पूरा परिवार साथ मिलकर छुट्टियां मना सके। घर के बुजुर्ग सामान्य तौर पर इस तरह के सैर सपाटे में जाने से मना करते हैं, लेकिन यह तो उनके बच्चों और परिवार वालों की जिम्मेदारी है कि वे उन्हें मनाए समझाएं और पूरी सुरक्षा के साथ पर्यटन पर ले जाएं। पर्यटन को सिर्फ मौज मस्ती का माध्यम नहीं समझना चाहिए। असल में यह तो खुद को तरोताजा करने और पुरानी थकान को भुलाकर नई शक्ति का संग्रहण करने का बहाना होता है। नई ताकत के साथ जब हम वापस काम पर लौटते हैं तो दिमाग नए तरह से सोचने की स्थिति में आ जाता है। पश्चिमी देशों में छुट्टियों का इस तरह का सदुपयोग लंबे समय से किया जाता है। बल्कि यह उनकी संस्कृति का एक हिस्सा है। बच्चों के लिए तो इस बार दोहरी खुशी है, पहले तो कई दिनों बाद स्कूल खुले तो बच्चों ने दोस्तों के साथ मस्ती की और अब परीक्षा के बाद की छुट्टी शुरू हो गई हैं। अब बच्चे छुट्टियों का आनंद लेना चाहते हैं। हमारा मध्य प्रदेश तो इस समय देश में पर्यटन का सबसे बड़ा गढ़ है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पूर्वोत्तर, कश्मीर जैसे राज्यों में घूमने की बहुत अच्छी जगह हैं और उनका खूब प्रचार भी है। मध्यप्रदेश में बहुत ही सुंदर रमणीक जगह घूमने लायक हैं। हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम न केवल वहां घूमने जाएंगे बल्कि अपने अपने स्तर पर उनकी अच्छाइयों का खूब प्रचार प्रसार करें।
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(प्रवीण कक्कड़) अगर आप अपनी जिंदगी को सुहाना बनाना चाहते हैं तो टूरिज्म का सहारा लीजिये। अधिकांश कामयाब लोगों के जीवन में एक चीज कॉमन है और वह हैं ट्रेवल यानी पर्यटन। हम सभी आज के दौर में एक रूटीन लाइफ जी रहे हैं। किसी को ऑफिस की चिंता है तो किसी को व्यापार की। ऐसे में हमारा दिमाग कुछ बातों में उलझ कर रह जाता है। पर्यटन हमारे दिमाग को खोलता है, हमें नई ऊर्जा देता है, स्ट्रेस से हमें दूर करता है और एक सामाजिक जीवन में हमें वापस लौटाता है। सही मायनों में टूरिज्म यानी पर्यटन आप की ग्रोथ करता है, आप में कॉन्फिडेंस का विकास होता है, आप में कम्युनिकेशन की कला विकसित होती है और आप अलग-अलग परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए खुद को तैयार कर पाते हैं। इसके साथ ही आपके लिए एक सुनहरी यादों का खजाना जुड़ जाता है जो जिंदगी भर के लिए एक अनमोल मेमोरी है। दुनिया में जो भी महान बना उसने सफर जरूर किया है। अगर त्रेता युग में श्रीराम की बात करें तो वह किसी एक वन में रहकर भी वनवास पूरा कर सकते थे लेकिन उन्होंने ऋषियों के आश्रम जाकर आशीर्वाद और प्रेरणाएं लीं, वनवासियों की समस्या जानी, भेदभाव मिटाये और विकट परिस्थिति आने पर रावण का वध भी किया। इन्हीं अनुभव के आधार पर उन्होंने राम राज्य की स्थापना की। इसी तरह द्वापर युग में श्री कृष्ण ने भी भ्रमण किया, इसी दौरान उन्हें बेहतर विकल्प नजर आया और उन्होंने मथुरा से अपने राज्य को द्वारका में स्थापित किया। अब कलयुग में आदिगुरु शांकराचार्य हों या स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी हों या धीरूभाई अंबानी सभी ने खूब भ्रमण किया और अनुभव लिये, परिस्थितियों को समझा और उन्हें जीवन में उतारकार महान बने। अगर गहराई में समझा जाए तो हर महान व्यक्ति ने टूरिज्म से दोस्ती कर खुद को रि-डिस्कवर किया। अलग-अलग समाज, भाषा, खानपान, जलवायु, परंपरा और लोगों के रहन-सहन को जानकर इन्होंने खुद में जरूरी परिवर्तन किए और लोगों तक बेहतर ढंग से अपने संदेश को पहुंचा भी पाए। गर्मियों का मौसम सामने है और इसके साथ ही गर्मियों की छुट्टी की तैयारी होने लगी है। 2 साल कोरोनाकाल के कारण गर्मियों की छुट्टी बहुत संकट में गुजरी हैं। पिछला साल तो खासकर ऐसा रहा कि हर तरफ दुख और बीमारी का मंजर था। लॉकडाउन की पाबंदियां हमारे चारों तरफ कायम थी। लेकिन इस बार ईश्वर की कृपा से स्थितियां बेहतर हैं। ऐसे में गर्मियों की छुट्टी आते समय प्लानिंग का ध्यान करना बहुत जरूरी है। देश और प्रदेश में कुछ पर्यटन स्थल बहुत चर्चित हैं और ज्यादातर लोग उन्हीं जगहों का रुख कर लेते हैं। ऐसे में इन पर्यटन स्थलों पर बहुत ज्यादा भीड़ हो जाती है, और पर्यटन का जो आनंद लेने हम जाते हैं, वह पीछे छूट जाता है। इसलिए स्थान का चयन करने में सावधानी जरूर बरतनी चाहिए, क्योंकि 2 साल बाद घूमने फिरने का मौका मिला है तो हम इस तरह का इंतजाम करें कि घर के बूढ़े बुजुर्ग बच्चे और पूरा परिवार साथ मिलकर छुट्टियां मना सके। घर के बुजुर्ग सामान्य तौर पर इस तरह के सैर सपाटे में जाने से मना करते हैं, लेकिन यह तो उनके बच्चों और परिवार वालों की जिम्मेदारी है कि वे उन्हें मनाए समझाएं और पूरी सुरक्षा के साथ पर्यटन पर ले जाएं। पर्यटन को सिर्फ मौज मस्ती का माध्यम नहीं समझना चाहिए। असल में यह तो खुद को तरोताजा करने और पुरानी थकान को भुलाकर नई शक्ति का संग्रहण करने का बहाना होता है। नई ताकत के साथ जब हम वापस काम पर लौटते हैं तो दिमाग नए तरह से सोचने की स्थिति में आ जाता है। पश्चिमी देशों में छुट्टियों का इस तरह का सदुपयोग लंबे समय से किया जाता है। बल्कि यह उनकी संस्कृति का एक हिस्सा है। बच्चों के लिए तो इस बार दोहरी खुशी है, पहले तो कई दिनों बाद स्कूल खुले तो बच्चों ने दोस्तों के साथ मस्ती की और अब परीक्षा के बाद की छुट्टी शुरू हो गई हैं। अब बच्चे छुट्टियों का आनंद लेना चाहते हैं। हमारा मध्य प्रदेश तो इस समय देश में पर्यटन का सबसे बड़ा गढ़ है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पूर्वोत्तर, कश्मीर जैसे राज्यों में घूमने की बहुत अच्छी जगह हैं और उनका खूब प्रचार भी है। मध्यप्रदेश में बहुत ही सुंदर रमणीक जगह घूमने लायक हैं। हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम न केवल वहां घूमने जाएंगे बल्कि अपने अपने स्तर पर उनकी अच्छाइयों का खूब प्रचार प्रसार करें।
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(प्रवीण कक्कड़) अगर आप अपनी जिंदगी को सुहाना बनाना चाहते हैं तो टूरिज्म का सहारा लीजिये। अधिकांश कामयाब लोगों के जीवन में एक चीज कॉमन है और वह हैं ट्रेवल यानी पर्यटन। हम सभी आज के दौर में एक रूटीन लाइफ जी रहे हैं। किसी को ऑफिस की चिंता है तो किसी को व्यापार की। ऐसे में हमारा दिमाग कुछ बातों में उलझ कर रह जाता है। पर्यटन हमारे दिमाग को खोलता है, हमें नई ऊर्जा देता है, स्ट्रेस से हमें दूर करता है और एक सामाजिक जीवन में हमें वापस लौटाता है। सही मायनों में टूरिज्म यानी पर्यटन आप की ग्रोथ करता है, आप में कॉन्फिडेंस का विकास होता है, आप में कम्युनिकेशन की कला विकसित होती है और आप अलग-अलग परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए खुद को तैयार कर पाते हैं। इसके साथ ही आपके लिए एक सुनहरी यादों का खजाना जुड़ जाता है जो जिंदगी भर के लिए एक अनमोल मेमोरी है। दुनिया में जो भी महान बना उसने सफर जरूर किया है। अगर त्रेता युग में श्रीराम की बात करें तो वह किसी एक वन में रहकर भी वनवास पूरा कर सकते थे लेकिन उन्होंने ऋषियों के आश्रम जाकर आशीर्वाद और प्रेरणाएं लीं, वनवासियों की समस्या जानी, भेदभाव मिटाये और विकट परिस्थिति आने पर रावण का वध भी किया। इन्हीं अनुभव के आधार पर उन्होंने राम राज्य की स्थापना की। इसी तरह द्वापर युग में श्री कृष्ण ने भी भ्रमण किया, इसी दौरान उन्हें बेहतर विकल्प नजर आया और उन्होंने मथुरा से अपने राज्य को द्वारका में स्थापित किया। अब कलयुग में आदिगुरु शांकराचार्य हों या स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी हों या धीरूभाई अंबानी सभी ने खूब भ्रमण किया और अनुभव लिये, परिस्थितियों को समझा और उन्हें जीवन में उतारकार महान बने। अगर गहराई में समझा जाए तो हर महान व्यक्ति ने टूरिज्म से दोस्ती कर खुद को रि-डिस्कवर किया। अलग-अलग समाज, भाषा, खानपान, जलवायु, परंपरा और लोगों के रहन-सहन को जानकर इन्होंने खुद में जरूरी परिवर्तन किए और लोगों तक बेहतर ढंग से अपने संदेश को पहुंचा भी पाए। गर्मियों का मौसम सामने है और इसके साथ ही गर्मियों की छुट्टी की तैयारी होने लगी है। 2 साल कोरोनाकाल के कारण गर्मियों की छुट्टी बहुत संकट में गुजरी हैं। पिछला साल तो खासकर ऐसा रहा कि हर तरफ दुख और बीमारी का मंजर था। लॉकडाउन की पाबंदियां हमारे चारों तरफ कायम थी। लेकिन इस बार ईश्वर की कृपा से स्थितियां बेहतर हैं। ऐसे में गर्मियों की छुट्टी आते समय प्लानिंग का ध्यान करना बहुत जरूरी है। देश और प्रदेश में कुछ पर्यटन स्थल बहुत चर्चित हैं और ज्यादातर लोग उन्हीं जगहों का रुख कर लेते हैं। ऐसे में इन पर्यटन स्थलों पर बहुत ज्यादा भीड़ हो जाती है, और पर्यटन का जो आनंद लेने हम जाते हैं, वह पीछे छूट जाता है। इसलिए स्थान का चयन करने में सावधानी जरूर बरतनी चाहिए, क्योंकि 2 साल बाद घूमने फिरने का मौका मिला है तो हम इस तरह का इंतजाम करें कि घर के बूढ़े बुजुर्ग बच्चे और पूरा परिवार साथ मिलकर छुट्टियां मना सके। घर के बुजुर्ग सामान्य तौर पर इस तरह के सैर सपाटे में जाने से मना करते हैं, लेकिन यह तो उनके बच्चों और परिवार वालों की जिम्मेदारी है कि वे उन्हें मनाए समझाएं और पूरी सुरक्षा के साथ पर्यटन पर ले जाएं। पर्यटन को सिर्फ मौज मस्ती का माध्यम नहीं समझना चाहिए। असल में यह तो खुद को तरोताजा करने और पुरानी थकान को भुलाकर नई शक्ति का संग्रहण करने का बहाना होता है। नई ताकत के साथ जब हम वापस काम पर लौटते हैं तो दिमाग नए तरह से सोचने की स्थिति में आ जाता है। पश्चिमी देशों में छुट्टियों का इस तरह का सदुपयोग लंबे समय से किया जाता है। बल्कि यह उनकी संस्कृति का एक हिस्सा है। बच्चों के लिए तो इस बार दोहरी खुशी है, पहले तो कई दिनों बाद स्कूल खुले तो बच्चों ने दोस्तों के साथ मस्ती की और अब परीक्षा के बाद की छुट्टी शुरू हो गई हैं। अब बच्चे छुट्टियों का आनंद लेना चाहते हैं। हमारा मध्य प्रदेश तो इस समय देश में पर्यटन का सबसे बड़ा गढ़ है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पूर्वोत्तर, कश्मीर जैसे राज्यों में घूमने की बहुत अच्छी जगह हैं और उनका खूब प्रचार भी है। मध्यप्रदेश में बहुत ही सुंदर रमणीक जगह घूमने लायक हैं। हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम न केवल वहां घूमने जाएंगे बल्कि अपने अपने स्तर पर उनकी अच्छाइयों का खूब प्रचार प्रसार करें।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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(प्रवीण कक्कड़) आपने एक शब्द सुना होगा सकारात्मक सोच या पॉजीटिव थिंकिंग। छात्र हो या खिलाड़ी, नौकरीपेशा हो या व्यापारी हर कोई अपने जीवन में सकारात्मक सोच लाना चाहता है, दूसरी ओर कोच हो या शिक्षक हर कोई अपने अनुयायी को सकारात्मक सोच की घुट्टी पिलाना चाहता है लेकिन इस प्रक्रिया में हम थोड़ी सी गलती करते हैं। सकारात्मक सोच का अर्थ है अपने काम को सकारात्मक बनाना न की केवल नतीजों के सकारात्मक सपनों में खो जाना। हम अपने कर्म, लगन और व्यवहार को सकारात्मक करने की जगह केवल मन चाहे नतीजे के सकारात्मक सपने पर फोकस करने लगते हैं और सोचतें हैं कि यह हमारी पॉजीटिव थिंकिंग हैं। ऐसे में हमारे सफलता के प्रयास में कमी आ जाती है और हमारे सपनों का महल गिर जाता है, फिर हम टूटने लगते हैं। नकारात्मकता हम पर हावी हो जाती है। ऐसे में जरूरत है कि हम सकारात्मकता के वास्तविक अर्थ को समझें। सकारात्मक सोच यह है कि हम अपनी काबिलियत पर विश्वास करें, लगन से काम में जुटें और पूरी ऊर्जा से काम को पूरा करें। फिर नतीजे अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जीवन में सकारात्मक सोच का होना बहुत जरूरी है। यह भी सच है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ते हैं व लक्ष्य को हासिल करते हैं लेकिन हमें समझना होगा कि सकारात्मक सोच है क्या… कुछ लोग कहते हैं जो मैं जीवन में जो पाना चाहता हूं वह मुझे मिल जाएगा, कुछ कहते हैं जैसा में सोच रहा हूं मेरे साथ वैसा ही होगा या कुछ कहते हैं मेरे साथ जीवन में कुछ बुरा हो ही नहीं सकता…अगर इस तरह के विचारों को आप सकारात्मक सोच मान रहे हैं तो मेरे अनुसार आप गलत हैं। केवल नतीजों के हसीन सपनों को लेकर खुशफहमी पाल लेना सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मक सोच का सही अर्थ है अपने प्रयासों को लेकर सकारात्मक होना, ऊर्जावान होना और लगनशील होना। जीवन में आसपास के हालातों से असंतुष्ट नहीं होना और अपना 100 प्रतिशन देकर किसी काम में जोश व जूनून के साथ जुटे रहना भी सकारात्मक सोच है। आप सभी ने कभी न कभी क्रिकेट जरूर खेला होगा। जब हम किसी बॉल को मिस कर जाते हैं तो क्या मैदान छोड़कर चले जाते हैं, नहीं… हम अगली बॉल का इंतजार करते हैं और उस पर शॉट लगाने के लिए फोकस होते हैं। ऐसे ही अगर किसी बॉल पर छक्का मार देते हैं तो क्या नाचते हुए मैदान से बाहर चले जाते हैं, नहीं ना, फिर अगली बॉल का इंतजार करते हैं और बेहतर शॉट लगाने की योजना बनाते हैं। जीवन के क्रिकेट में जब तक हम जीवित हैं तब तक हम कभी आऊट नहीं होते न ही कभी गेंद खत्म होती हैं, सफलता रूपी रन बनाने के लिए अवसर रूपी गेंद लगातार आती रहती हैं। जीवन में बस इस एप्रोच की जरूरत है कि कोई अवसर छूट गया तो उसका अफसोस न करें, न ही जीवन से हार मानें, बल्कि अगले अवसर पर फोकस करें। इसी तरह अगर कोई सफलता मिल गई तो उसकी आत्ममुग्धता में खोएं नहीं बल्कि अगली सफलता के लिए रास्ता तैयार करने में जुट जाएं… यही सकारात्मकता है। अगर आप छात्र हैं और आपने लक्ष्य बनाया कि मुझे 95 प्रतिशत अंक हासिल करना है लेकिन आप लक्ष्य से पिछड़ गए तो हतोत्साहित न हों क्योंकि जिंदगी की गेंदबाजी जारी है, अगली गेंद पर इससे बेहतर प्रदर्शन का अवसर खुला है। अगर आप नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं तो यह मत सोचिए कि नौकरी मुझे मिलेगी या नहीं, बल्कि यह सोचिए कि इस संस्थान को आगे बढ़ाने के लिए मैं क्या-क्या कर सकता हूं। अपना 100 प्रतिशत कैसे दे सकता हूं। यह उत्साह आपके व्यवहार में नजर आएगा और नौकरी आपको जरूर मिलेगी। स्वयं को काबिल बनाने में सकारात्मक सोच रखिए, नतीजे खुद-ब-खुद ही सकारात्मक आ जाएंगे।
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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बाराबंकी । रंगों के पर्व होली पर डीजे बजाने को लेकर हुए विवाद में पुलिस ने एक पत्रकार समेत तीन लोगों के ऊपर शांति भंग में चालान करके सलाखों के पीछे डाल दिया। पत्रकार के पक्ष की तमाम महिलाएं व पुरूष भी कोतवाली पंहुचे और पुलिस की तरफ से गई एकतरफ़ा कार्यवाई की निंदा करते हुए लोगों ने एक स्वर होकर कहा कि पुलिस ने बेवजह कार्यवाई की जो निंदनीय है। यदि शांतिभंग मे कार्यवाई करनी थी तो दोनो पक्षों के विरुद्ध करनी चाहिए थी। बताते चलें कि वर्षों तक अमर उजाला, दैनिक स्वतंत्र भारत में बतौर क्राईम रिपोर्टर काम कर चुके और अब एक न्यूज़ पोर्टल समाचार टुडे से वर्षों से जुड़े पत्रकार कपिल सिंह के घर शहर के पैसार इलाके में वर्षो से रंगारंग कार्यक्रम होता आया है. इस बार रंगारंग कार्यक्रम के लिये डीजे लगवाया गया था जिसमें पत्रकार कपिल सिंह इत्यादि डीजे की धुन पर नाच रहे थे. शुक्रवार की शाम किसी ने पीआरवी 112 को सूचना दी कि कुछ अराजक लोग शराब पीकर अश्लील गानों पर डांस कर रहे हैं. इसी सूचना पर पीआरवी 112 मौके पर पंहुची और पत्रकार कपिल सिंह को तत्काल हिरासत में लेकर कोतवाली नगर ले आई. यहां पर करीब एक घण्टे तक बाहर बिठाने के बाद कपिल सिंह व उनके साथ मौजूद दो अन्य युवकों को हवालात में भेज दिया. शुक्रवार देरशाम हुई इस कार्यवाई से जिले के पत्रकारों में रोष व्याप्त है. सभी पुलिस कार्रवाई पर सवालिया चिन्ह लगा रहे हैं कि ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी कि पत्रकार को रात भर हवालात में रखा जाए. होली को रातभर हवालात में रहे पत्रकार की मनोदशा क्या हो गई होगी, ये विचारणीय है. पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री योगी समेत अन्य वरिष्ठ लोगों को कार्रवाई के लिए पत्र लिखने की तैयारी की है.
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वैभव अग्रवाल- कल अलग अलग तरह के मार्केटिंग मॉडल के बारे में कुछ मित्र कंफ्यूज थे, उनकी जानकारी के लिये … B2B, B2C यह दोनो भारत मे सबसे मुख्य मॉडल थे, पर अब इनमें एक मॉडल और जुड़ गया है , जो कि है D2C. इनके अलावा और भी मॉडल है जैसे C2C, C2A, पर वो मुख्यत: e-कॉमर्स में यूज़ होते है। अधिक कॉम्प्लिकेटेड न करते हुए हम इसकी चर्चा नही करेंगे। इन मॉडल को समझने के लिये हम एक कॉमन example लेते है, जैसे मान लीजिए आपके मोबाइल में लगी आने वाले बैटरी.. अगर हम किसी मोबाइल बनाने वाली कंपनी (जैसे Samsung, Vivo आदि) से एक मोबाइल खरीदते है, तो साथ मे एक बैटरी फिट आती है। … जरुरी नही, मोबाइल कंपनी खुद उसे बनाये, सम्भव है वो किसी दूसरी कंपनी से बैटरी बनबा कर ले। … इस प्रकार से एक बिज़नेस द्वारा जो मैटेरियल दूसरे बिज़नेस को बेचा जाता है, वो B2B कहलाता है। … नोरेक्स का बिज़नेस डोमेन अधिकतम B2B है। जैसे हम अपने प्रोडक्ट, टूथपेस्ट, दवाई, फ़ूड, biscuit, केक बनाने वाली कंपनियों को बेचते है। आजकल सबसे ज्यादा पॉपुलर है D2C मॉडल, यह वैसे B2C का ही एक मोडिफाइड पार्ट है। … जिसमे डायरेक्ट 2 consumer बिज़नेस होता है। … अगर आप मोबाइल कंपनी की वेबसाइट से, या उसके ऐमज़ॉन , फ्लिपकार्ट स्टोर से सीधे ऑनलाइन बैटरी खरीद लेते है तो इसमे बीच में स्टॉकिस्ट, रिटेलर सबका मार्जिन, हैंडलिंग बच जाती है, यह सीधे Direct to consumer sale कहलाती है। … इसमे कस्टमर को फास्टर सर्विस मिलती है, और स्टॉकिस्ट और रिटेलर का मार्जिन कम होने से, बिज़नेस को प्रॉफिट अधिक मिलता है। ..पर उसे सीधे consumer को आकर्षित करने के लिये मार्केटिंग पर खर्च भी अधिक करना पड़ता है। म्मीद है मैं आपको B2B, B2C, D2C सही से समझा पाया हूँ।
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- प्रो. संजय द्विवेदी एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। वर्ष 2020 को लोग चाहे कोरोना महामारी की वजह से याद करेंगे, लेकिन एक मीडिया शिक्षक होने के नाते मेरे लिए ये बेहद महत्वपूर्ण है कि पिछले वर्ष भारत में मीडिया शिक्षा के 100 वर्ष पूरे हुए थे। वर्ष 1920 में थियोसोफिकल सोसायटी के तत्वावधान में मद्रास राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में डॉक्टर एनी बेसेंट ने पत्रकारिता का पहला पाठ्यक्रम शुरू किया था। लगभग एक दशक बाद वर्ष 1938 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को एक सर्टिफिकेट कोर्स के रूप में शुरू किया गया। इस क्रम में पंजाब विश्वविद्यालय, जो उस वक्त के लाहौर में हुआ करता था, पहला विश्वविद्यालय था, जिसने अपने यहां पत्रकारिता विभाग की स्थापना की। भारत में पत्रकारिता शिक्षा के संस्थापक कहे जाने वाले प्रोफेसर पीपी सिंह ने वर्ष 1941 में इस विभाग की स्थापना की थी। अगर हम स्वतंत्र भारत की बात करें, तो सबसे पहले मद्रास विश्वविद्यालय ने वर्ष 1947 में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की स्थापना की। इसके पश्चात कलकत्ता विश्वविद्यालय, मैसूर के महाराजा कॉलेज, उस्मानिया यूनिवर्सिटी एवं नागपुर यूनिवर्सिटी ने मीडिया शिक्षा से जुड़े कई कोर्स शुरू किए। 17 अगस्त, 1965 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने भारतीय जन संचार संस्थान की स्थापना की, जो आज मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में पूरे एशिया में सबसे अग्रणी संस्थान है। आज भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय एवं जयपुर में हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय पूर्ण रूप से मीडिया शिक्षण एवं प्रशिक्षण का कार्य कर रहे हैं। भारत में मीडिया शिक्षा का इतिहास 100 वर्ष जरूर पूर्ण कर चुका है, परंतु यह अभी तक इस उलझन से मुक्त नहीं हो पाया है कि यह तकनीकी है या वैचारिक। तकनीकी एवं वैचारिकी का द्वंद्व मीडिया शिक्षा की उपेक्षा के लिए जहां उत्तरदायी है, वहां सरकारी उपेक्षा और मीडिया संस्थानों का सक्रिय सहयोग न होना भी मीडिया शिक्षा के इतिहास की तस्वीर को धुंधली प्रस्तुत करने को विवश करता है। भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती है, तो प्रोफेसर के. ई. ईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन भारत में पत्रकारिता शिक्षा के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर ईपन का मानना था कि मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ साथ मीडिया में काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिए, तभी वे प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षण संस्थान, मीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिन्हें अकादमिक के साथ साथ पत्रकारिता का भी अनुभव हो। ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकें, ऐसा शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार कर सकें, जिसका उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं। पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एस. होना जरूरी है, वकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है? दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में, दूसरे, विश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों में, तीसरे, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में, चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या है, वो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी है, कि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें। मीडिया शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए आज मीडिया एजुकेशन काउंसिल की आवश्यकता है। इसकी मदद से न सिर्फ पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षा के पाठ्यक्रम में सुधार होगा, बल्कि मीडिया इंडस्ट्री की जरुरतों के अनुसार पत्रकार भी तैयार किये जा सकेंगे। आज मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का है, या फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई है, इसलिए पत्रकारिता शिक्षा में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैं, वैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं। अब हमें मीडिया शिक्षण में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगे, जिनमें विषयवस्तु के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो। न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण लाखों नौकरियां गई हैं। इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान देना होगा और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती है, जिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा है, जब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहां पाठ्यक्रम में मीडिया को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह की व्यवस्था कर सकते हैं, जिससे मीडिया शिक्षण को एक नई दिशा मिल सके। एक वक्त था जब पत्रकारिता का मतलब प्रिंट मीडिया होता था। अस्सी के दशक में रिलीज हुई अमेरिकी फिल्म Ghostbusters (घोस्टबस्टर्स) में सेक्रेटरी जब वैज्ञानिक से पूछती है कि ‘क्या वे पढ़ना पसंद करते हैं? तो वैज्ञानिक कहता है ‘प्रिंट इज डेड’। इस पात्र का यह कहना उस समय हास्य का विषय था, परंतु वर्तमान परिदृश्य में प्रिंट मीडिया के भविष्य पर जिस तरह के सवाल खड़े किये जा रहे हैं, उसे देखकर ये लगता है कि ये सवाल आज की स्थिति पर बिल्कुल सटीक बैठता है। आज दुनिया के तमाम प्रगतिशील देशों से हमें ये सूचनाएं मिल रही हैं कि प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल हैं। ये भी कहा जा रहा है कि बहुत जल्द अखबार खत्म हो जाएंगे। वर्ष 2008 में अमेरिकी लेखक जेफ गोमेज ने ‘प्रिंट इज डेड’ पुस्तक लिखकर प्रिंट मीडिया के खत्म होने की अवधारणा को जन्म दिया था। उस वक्त इस किताब का रिव्यू करते हुए एंटोनी चिथम ने लिखा था कि, “यह किताब उन सब लोगों के लिए ‘वेकअप कॉल’ की तरह है, जो प्रिंट मीडिया में हैं, किंतु उन्हें यह पता ही नहीं कि इंटरनेट के द्वारा डिजिटल दुनिया किस तरह की बन रही है।” वहीं एक अन्य लेखक रोस डावसन ने तो समाचारपत्रों के विलुप्त होने का, समय के अनुसार एक चार्ट ही बना डाला। इस चार्ट में जो बात मुख्य रूप से कही गई थी, उसके अनुसार वर्ष 2040 तक विश्व से अखबारों के प्रिंट संस्करण खत्म हो जाएंगे। मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिए, कि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के लिए पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करें, यह एक बड़ी जिम्मेदारी है। (लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं)
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उर्मिलेश- एक हिंदी-पत्रकार के तौर पर अपने लगभग चालीस वर्ष के अनुभव और देश-विदेश के अपने भ्रमण से अर्जित समझ के आधार पर पिछले कुछ वर्षो से यह बात मैं लगातार कहता आ रहा हूं. उसे आज फिर दोहराऊंगा. इस महामारी में भी नये सिरे से इसे कहने की जरुरत है. हमारा साफ शब्दों में कहना है कि अब उत्तर भारत के हिंदी-भाषी इलाकों के गरीबों और उत्पीड़ित समाज के लोगों को अपने बच्चों को शुरू से ही अंग्रेजी में शिक्षित करने का प्रबंध करना चाहिए. खर्च में कटौती करना पडे तो भी बच्चों की अच्छी शिक्षा पर कोई समझौता नही कीजिये. सामाजिक, धार्मिक या सामुदायिक संगठनों को गांव-गांव ऐसे स्कूल खोलने चाहिए, जहां बच्चों को शुरु से ही अंग्रेजी में शिक्षित किया जा सके. बेशक, वे एक भाषा के तौर पर हिंदी भी पढें-समझें! अपने को आपका हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं से भी यह सुनिश्चित कराइये कि वे सरकार में आने पर आपके बच्चों को भी अपने बच्चों की तरह अंग्रेजी में शिक्षा का प्रबंध करेंगे. हर चुनाव में आम लोग अपने नेताओं पर इसके लिए दबाव बनायें. याद रखिये, हर प्रमुख नेता(वह चाहे जिस जाति या धर्म का हो!) का बेटा अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ा होता है या पढ़ रहा होता है. इस महामारी(कोविड-19) के बाद जब हालात कुछ संभलेंगे तो अच्छी नौकरियां अंग्रेजी वालों को मिलेंगी और मजदूरी का काम हिंदी वालों को. अंग्रेजी के बगैर होम-डिलीवरी वाली कंपनियों की साधारण नौकरी भी नहीं मिलेगी. मामला सिर्फ नौकरी का नही है. सूचना, ज्ञान और विज्ञान की दुनिया से बेहतर परिचय के लिए भी अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान ज़रूरी है. हिंदी में पढ़कर आपके बच्चे सूचना के लिए हिंदी उन अखबारों को पढ़ने और, टीवीपुरम् के कथित न्यूज़ चैनलों को देखने के लिए अभिशप्त होंगे, जिनका न्यूज़ की दुनिया से अब कोई वास्ता नहीं, वे सब एक अमानवीय सोच, एक जनविरोधी राजनीतिक धारा और कारपोरेट प्रोपगेन्डा के संगठित मंच भर हैं. आपके बच्चे अगर फर्राटेदारअंग्रेजी नहीँ जानेंगे तो देश-विदेश के अपेक्षाकृत अच्छे मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग नहीं कर सकेंगे. घटिया प्रोपगेन्डा के घटिया मंच उनके दिमाग में घटिया विचार इंजेक्ट करेंगे. अब इस महामारी में ही देख लीजिये. हर जरूरी चीज का नाम अंग्रेजी में है: टीका का नाम सब भूल चुके हैं. अब उसे ‘हिंदी’, ‘हिंदू’ और ‘हिन्दुस्थान’ वाले भी ‘वैक्सीन’ कहते हैं. देश के हिंदी अखबारों में भी ‘वैक्सीन’ और ‘वैक्सीनेशन’ जैसे शब्द प्रयुक्त होते हैं. इसे वे ‘अप-मार्केट’ की भाषा ‘हिंग्लिश’ कहते हैं. फिर आपके बच्चे ऐसी घटिया भाषा क्यों बोलें? वे सीधे अंग्रेजी ही क्यों न बोलें? महामारी के बारे में हिंदी अखबारों में सार्थक और ज़रूरी खबरें बहुत कम छप रही हैं. हिंदी के न्यूज़ चैनल इतना सब सामने होता देखकर भी सरकारी भोंपू बने हुए हैं—पूरे के पूरे टीवीपुरम्! उनमें काम करने वाले भी ज्यादातर कुछ ही समुदायों के होते हैं. विदेश के अंग्रेजी अखबार-न्यूज चैनल ही आज भारत का सच बताते दिख रहे हैं. अगर देश में यह काम कोई कर रहा है तो वे भारत की अंग्रेजी न्यूज़ वेबसाइट हैं. इनमें कुछ दो भाषाओं मे भी हैं. देश के कुछेक अंग्रेजी चैनलों के कुछेक एंकर और विश्लेषक भी अच्छे कार्यक्रम पेश कर रहे हैं. वेबसाइटों की पहुंच अभी हमारे यहां ज़्यादा नहीं है. लेकिन यह बात सौ फीसदी सच है कि ज्ञान-विज्ञान का बड़ा खजाना अंग्रेजी मे है. हमारी सरकारों ने बीते 73 वर्षो में हिंदी को इस लायक बनाया ही नहीं. सरकारों के असल संचालक अंग्रेजी में सोचते और करते रहे, नेता हिंदी भाषी क्षेत्रों की गरीब और उत्पीड़ित जनता खो हिंदी के नाम पर बेवकूफ़ बनाते रहे! आज गरीबों के बच्चे हिंदी में क्यों पढें? क्या तर्क हैहिंदी-वादियो के पास? क्या सिर्फ मजदूरी करने के लिए हिंदी में पढ़ें? रिक्शा या टेम्पो चलाने के लिए? या कुछ ‘शक्तिशाली लोगों’ के इशारे पर काम करने वाली दंगाइयो की भीड़ का हिस्सा बनने के लिए ? इसलिए, हिंदी भाषी क्षेत्र के उत्पीड़ित समाजों के लोगों, अब आप अपने बच्चों को वैज्ञानिक, प्रोफेसर, रिसर्चर, समाज विज्ञानी, न्यायविद्, लेखक, आईआईटियन, कम्प्यूटर विज्ञानी और अंतरिक्ष विज्ञानी बनाने के लिए अंग्रेजी को उनकी शिक्षा का माध्यम बनाइये. पढ-लिखकर वे स्वयं भी बदलेंगे और अपने समाजों में बदलाव का प्रेरक भी बनेंगे. इस बारे में हिंदी क्षेत्र के कुछ बुजुर्ग होते नेताओं या कुछ आत्ममुग्ध हिंदी लेखकों-बुद्धिजीवियों की फ़ालतू और बासी दलीलो से कन्फ्यूज होने की जरूरत नहीं है. यही न कि वो आपसे कहने आयेंगे कि आप अपनी प्यारी हिंदी छोड़कर अपने बच्चों को अंग्रेजी में शिक्षा क्यों दिलाने लगे? आप पूछियेगा उनसे, उनमें कितनों के बच्चे निगम या पंचायत संचालित हिंदी वाले स्कूलों में पढ़ते हैं? फिर वे आपको बेवजह हिंदी-भक्त क्यों बनाये रखना चाहते हैं?सोचिये और बदलिये, वरना बहुत देर हो जायेगी!
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उर्मिलेश- एक हिंदी-पत्रकार के तौर पर अपने लगभग चालीस वर्ष के अनुभव और देश-विदेश के अपने भ्रमण से अर्जित समझ के आधार पर पिछले कुछ वर्षो से यह बात मैं लगातार कहता आ रहा हूं. उसे आज फिर दोहराऊंगा. इस महामारी में भी नये सिरे से इसे कहने की जरुरत है. हमारा साफ शब्दों में कहना है कि अब उत्तर भारत के हिंदी-भाषी इलाकों के गरीबों और उत्पीड़ित समाज के लोगों को अपने बच्चों को शुरू से ही अंग्रेजी में शिक्षित करने का प्रबंध करना चाहिए. खर्च में कटौती करना पडे तो भी बच्चों की अच्छी शिक्षा पर कोई समझौता नही कीजिये. सामाजिक, धार्मिक या सामुदायिक संगठनों को गांव-गांव ऐसे स्कूल खोलने चाहिए, जहां बच्चों को शुरु से ही अंग्रेजी में शिक्षित किया जा सके. बेशक, वे एक भाषा के तौर पर हिंदी भी पढें-समझें! अपने को आपका हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं से भी यह सुनिश्चित कराइये कि वे सरकार में आने पर आपके बच्चों को भी अपने बच्चों की तरह अंग्रेजी में शिक्षा का प्रबंध करेंगे. हर चुनाव में आम लोग अपने नेताओं पर इसके लिए दबाव बनायें. याद रखिये, हर प्रमुख नेता(वह चाहे जिस जाति या धर्म का हो!) का बेटा अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ा होता है या पढ़ रहा होता है. इस महामारी(कोविड-19) के बाद जब हालात कुछ संभलेंगे तो अच्छी नौकरियां अंग्रेजी वालों को मिलेंगी और मजदूरी का काम हिंदी वालों को. अंग्रेजी के बगैर होम-डिलीवरी वाली कंपनियों की साधारण नौकरी भी नहीं मिलेगी. मामला सिर्फ नौकरी का नही है. सूचना, ज्ञान और विज्ञान की दुनिया से बेहतर परिचय के लिए भी अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान ज़रूरी है. हिंदी में पढ़कर आपके बच्चे सूचना के लिए हिंदी उन अखबारों को पढ़ने और, टीवीपुरम् के कथित न्यूज़ चैनलों को देखने के लिए अभिशप्त होंगे, जिनका न्यूज़ की दुनिया से अब कोई वास्ता नहीं, वे सब एक अमानवीय सोच, एक जनविरोधी राजनीतिक धारा और कारपोरेट प्रोपगेन्डा के संगठित मंच भर हैं. आपके बच्चे अगर फर्राटेदारअंग्रेजी नहीँ जानेंगे तो देश-विदेश के अपेक्षाकृत अच्छे मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग नहीं कर सकेंगे. घटिया प्रोपगेन्डा के घटिया मंच उनके दिमाग में घटिया विचार इंजेक्ट करेंगे. अब इस महामारी में ही देख लीजिये. हर जरूरी चीज का नाम अंग्रेजी में है: टीका का नाम सब भूल चुके हैं. अब उसे ‘हिंदी’, ‘हिंदू’ और ‘हिन्दुस्थान’ वाले भी ‘वैक्सीन’ कहते हैं. देश के हिंदी अखबारों में भी ‘वैक्सीन’ और ‘वैक्सीनेशन’ जैसे शब्द प्रयुक्त होते हैं. इसे वे ‘अप-मार्केट’ की भाषा ‘हिंग्लिश’ कहते हैं. फिर आपके बच्चे ऐसी घटिया भाषा क्यों बोलें? वे सीधे अंग्रेजी ही क्यों न बोलें? महामारी के बारे में हिंदी अखबारों में सार्थक और ज़रूरी खबरें बहुत कम छप रही हैं. हिंदी के न्यूज़ चैनल इतना सब सामने होता देखकर भी सरकारी भोंपू बने हुए हैं—पूरे के पूरे टीवीपुरम्! उनमें काम करने वाले भी ज्यादातर कुछ ही समुदायों के होते हैं. विदेश के अंग्रेजी अखबार-न्यूज चैनल ही आज भारत का सच बताते दिख रहे हैं. अगर देश में यह काम कोई कर रहा है तो वे भारत की अंग्रेजी न्यूज़ वेबसाइट हैं. इनमें कुछ दो भाषाओं मे भी हैं. देश के कुछेक अंग्रेजी चैनलों के कुछेक एंकर और विश्लेषक भी अच्छे कार्यक्रम पेश कर रहे हैं. वेबसाइटों की पहुंच अभी हमारे यहां ज़्यादा नहीं है. लेकिन यह बात सौ फीसदी सच है कि ज्ञान-विज्ञान का बड़ा खजाना अंग्रेजी मे है. हमारी सरकारों ने बीते 73 वर्षो में हिंदी को इस लायक बनाया ही नहीं. सरकारों के असल संचालक अंग्रेजी में सोचते और करते रहे, नेता हिंदी भाषी क्षेत्रों की गरीब और उत्पीड़ित जनता खो हिंदी के नाम पर बेवकूफ़ बनाते रहे! आज गरीबों के बच्चे हिंदी में क्यों पढें? क्या तर्क हैहिंदी-वादियो के पास? क्या सिर्फ मजदूरी करने के लिए हिंदी में पढ़ें? रिक्शा या टेम्पो चलाने के लिए? या कुछ ‘शक्तिशाली लोगों’ के इशारे पर काम करने वाली दंगाइयो की भीड़ का हिस्सा बनने के लिए ? इसलिए, हिंदी भाषी क्षेत्र के उत्पीड़ित समाजों के लोगों, अब आप अपने बच्चों को वैज्ञानिक, प्रोफेसर, रिसर्चर, समाज विज्ञानी, न्यायविद्, लेखक, आईआईटियन, कम्प्यूटर विज्ञानी और अंतरिक्ष विज्ञानी बनाने के लिए अंग्रेजी को उनकी शिक्षा का माध्यम बनाइये. पढ-लिखकर वे स्वयं भी बदलेंगे और अपने समाजों में बदलाव का प्रेरक भी बनेंगे. इस बारे में हिंदी क्षेत्र के कुछ बुजुर्ग होते नेताओं या कुछ आत्ममुग्ध हिंदी लेखकों-बुद्धिजीवियों की फ़ालतू और बासी दलीलो से कन्फ्यूज होने की जरूरत नहीं है. यही न कि वो आपसे कहने आयेंगे कि आप अपनी प्यारी हिंदी छोड़कर अपने बच्चों को अंग्रेजी में शिक्षा क्यों दिलाने लगे? आप पूछियेगा उनसे, उनमें कितनों के बच्चे निगम या पंचायत संचालित हिंदी वाले स्कूलों में पढ़ते हैं? फिर वे आपको बेवजह हिंदी-भक्त क्यों बनाये रखना चाहते हैं?सोचिये और बदलिये, वरना बहुत देर हो जायेगी!
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उर्मिलेश- एक हिंदी-पत्रकार के तौर पर अपने लगभग चालीस वर्ष के अनुभव और देश-विदेश के अपने भ्रमण से अर्जित समझ के आधार पर पिछले कुछ वर्षो से यह बात मैं लगातार कहता आ रहा हूं. उसे आज फिर दोहराऊंगा. इस महामारी में भी नये सिरे से इसे कहने की जरुरत है. हमारा साफ शब्दों में कहना है कि अब उत्तर भारत के हिंदी-भाषी इलाकों के गरीबों और उत्पीड़ित समाज के लोगों को अपने बच्चों को शुरू से ही अंग्रेजी में शिक्षित करने का प्रबंध करना चाहिए. खर्च में कटौती करना पडे तो भी बच्चों की अच्छी शिक्षा पर कोई समझौता नही कीजिये. सामाजिक, धार्मिक या सामुदायिक संगठनों को गांव-गांव ऐसे स्कूल खोलने चाहिए, जहां बच्चों को शुरु से ही अंग्रेजी में शिक्षित किया जा सके. बेशक, वे एक भाषा के तौर पर हिंदी भी पढें-समझें! अपने को आपका हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं से भी यह सुनिश्चित कराइये कि वे सरकार में आने पर आपके बच्चों को भी अपने बच्चों की तरह अंग्रेजी में शिक्षा का प्रबंध करेंगे. हर चुनाव में आम लोग अपने नेताओं पर इसके लिए दबाव बनायें. याद रखिये, हर प्रमुख नेता(वह चाहे जिस जाति या धर्म का हो!) का बेटा अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ा होता है या पढ़ रहा होता है. इस महामारी(कोविड-19) के बाद जब हालात कुछ संभलेंगे तो अच्छी नौकरियां अंग्रेजी वालों को मिलेंगी और मजदूरी का काम हिंदी वालों को. अंग्रेजी के बगैर होम-डिलीवरी वाली कंपनियों की साधारण नौकरी भी नहीं मिलेगी. मामला सिर्फ नौकरी का नही है. सूचना, ज्ञान और विज्ञान की दुनिया से बेहतर परिचय के लिए भी अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान ज़रूरी है. हिंदी में पढ़कर आपके बच्चे सूचना के लिए हिंदी उन अखबारों को पढ़ने और, टीवीपुरम् के कथित न्यूज़ चैनलों को देखने के लिए अभिशप्त होंगे, जिनका न्यूज़ की दुनिया से अब कोई वास्ता नहीं, वे सब एक अमानवीय सोच, एक जनविरोधी राजनीतिक धारा और कारपोरेट प्रोपगेन्डा के संगठित मंच भर हैं. आपके बच्चे अगर फर्राटेदारअंग्रेजी नहीँ जानेंगे तो देश-विदेश के अपेक्षाकृत अच्छे मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग नहीं कर सकेंगे. घटिया प्रोपगेन्डा के घटिया मंच उनके दिमाग में घटिया विचार इंजेक्ट करेंगे. अब इस महामारी में ही देख लीजिये. हर जरूरी चीज का नाम अंग्रेजी में है: टीका का नाम सब भूल चुके हैं. अब उसे ‘हिंदी’, ‘हिंदू’ और ‘हिन्दुस्थान’ वाले भी ‘वैक्सीन’ कहते हैं. देश के हिंदी अखबारों में भी ‘वैक्सीन’ और ‘वैक्सीनेशन’ जैसे शब्द प्रयुक्त होते हैं. इसे वे ‘अप-मार्केट’ की भाषा ‘हिंग्लिश’ कहते हैं. फिर आपके बच्चे ऐसी घटिया भाषा क्यों बोलें? वे सीधे अंग्रेजी ही क्यों न बोलें? महामारी के बारे में हिंदी अखबारों में सार्थक और ज़रूरी खबरें बहुत कम छप रही हैं. हिंदी के न्यूज़ चैनल इतना सब सामने होता देखकर भी सरकारी भोंपू बने हुए हैं—पूरे के पूरे टीवीपुरम्! उनमें काम करने वाले भी ज्यादातर कुछ ही समुदायों के होते हैं. विदेश के अंग्रेजी अखबार-न्यूज चैनल ही आज भारत का सच बताते दिख रहे हैं. अगर देश में यह काम कोई कर रहा है तो वे भारत की अंग्रेजी न्यूज़ वेबसाइट हैं. इनमें कुछ दो भाषाओं मे भी हैं. देश के कुछेक अंग्रेजी चैनलों के कुछेक एंकर और विश्लेषक भी अच्छे कार्यक्रम पेश कर रहे हैं. वेबसाइटों की पहुंच अभी हमारे यहां ज़्यादा नहीं है. लेकिन यह बात सौ फीसदी सच है कि ज्ञान-विज्ञान का बड़ा खजाना अंग्रेजी मे है. हमारी सरकारों ने बीते 73 वर्षो में हिंदी को इस लायक बनाया ही नहीं. सरकारों के असल संचालक अंग्रेजी में सोचते और करते रहे, नेता हिंदी भाषी क्षेत्रों की गरीब और उत्पीड़ित जनता खो हिंदी के नाम पर बेवकूफ़ बनाते रहे! आज गरीबों के बच्चे हिंदी में क्यों पढें? क्या तर्क हैहिंदी-वादियो के पास? क्या सिर्फ मजदूरी करने के लिए हिंदी में पढ़ें? रिक्शा या टेम्पो चलाने के लिए? या कुछ ‘शक्तिशाली लोगों’ के इशारे पर काम करने वाली दंगाइयो की भीड़ का हिस्सा बनने के लिए ? इसलिए, हिंदी भाषी क्षेत्र के उत्पीड़ित समाजों के लोगों, अब आप अपने बच्चों को वैज्ञानिक, प्रोफेसर, रिसर्चर, समाज विज्ञानी, न्यायविद्, लेखक, आईआईटियन, कम्प्यूटर विज्ञानी और अंतरिक्ष विज्ञानी बनाने के लिए अंग्रेजी को उनकी शिक्षा का माध्यम बनाइये. पढ-लिखकर वे स्वयं भी बदलेंगे और अपने समाजों में बदलाव का प्रेरक भी बनेंगे. इस बारे में हिंदी क्षेत्र के कुछ बुजुर्ग होते नेताओं या कुछ आत्ममुग्ध हिंदी लेखकों-बुद्धिजीवियों की फ़ालतू और बासी दलीलो से कन्फ्यूज होने की जरूरत नहीं है. यही न कि वो आपसे कहने आयेंगे कि आप अपनी प्यारी हिंदी छोड़कर अपने बच्चों को अंग्रेजी में शिक्षा क्यों दिलाने लगे? आप पूछियेगा उनसे, उनमें कितनों के बच्चे निगम या पंचायत संचालित हिंदी वाले स्कूलों में पढ़ते हैं? फिर वे आपको बेवजह हिंदी-भक्त क्यों बनाये रखना चाहते हैं?सोचिये और बदलिये, वरना बहुत देर हो जायेगी!
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उर्मिलेश- एक हिंदी-पत्रकार के तौर पर अपने लगभग चालीस वर्ष के अनुभव और देश-विदेश के अपने भ्रमण से अर्जित समझ के आधार पर पिछले कुछ वर्षो से यह बात मैं लगातार कहता आ रहा हूं. उसे आज फिर दोहराऊंगा. इस महामारी में भी नये सिरे से इसे कहने की जरुरत है. हमारा साफ शब्दों में कहना है कि अब उत्तर भारत के हिंदी-भाषी इलाकों के गरीबों और उत्पीड़ित समाज के लोगों को अपने बच्चों को शुरू से ही अंग्रेजी में शिक्षित करने का प्रबंध करना चाहिए. खर्च में कटौती करना पडे तो भी बच्चों की अच्छी शिक्षा पर कोई समझौता नही कीजिये. सामाजिक, धार्मिक या सामुदायिक संगठनों को गांव-गांव ऐसे स्कूल खोलने चाहिए, जहां बच्चों को शुरु से ही अंग्रेजी में शिक्षित किया जा सके. बेशक, वे एक भाषा के तौर पर हिंदी भी पढें-समझें! अपने को आपका हितैषी बताने वाले राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं से भी यह सुनिश्चित कराइये कि वे सरकार में आने पर आपके बच्चों को भी अपने बच्चों की तरह अंग्रेजी में शिक्षा का प्रबंध करेंगे. हर चुनाव में आम लोग अपने नेताओं पर इसके लिए दबाव बनायें. याद रखिये, हर प्रमुख नेता(वह चाहे जिस जाति या धर्म का हो!) का बेटा अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ा होता है या पढ़ रहा होता है. इस महामारी(कोविड-19) के बाद जब हालात कुछ संभलेंगे तो अच्छी नौकरियां अंग्रेजी वालों को मिलेंगी और मजदूरी का काम हिंदी वालों को. अंग्रेजी के बगैर होम-डिलीवरी वाली कंपनियों की साधारण नौकरी भी नहीं मिलेगी. मामला सिर्फ नौकरी का नही है. सूचना, ज्ञान और विज्ञान की दुनिया से बेहतर परिचय के लिए भी अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान ज़रूरी है. हिंदी में पढ़कर आपके बच्चे सूचना के लिए हिंदी उन अखबारों को पढ़ने और, टीवीपुरम् के कथित न्यूज़ चैनलों को देखने के लिए अभिशप्त होंगे, जिनका न्यूज़ की दुनिया से अब कोई वास्ता नहीं, वे सब एक अमानवीय सोच, एक जनविरोधी राजनीतिक धारा और कारपोरेट प्रोपगेन्डा के संगठित मंच भर हैं. आपके बच्चे अगर फर्राटेदारअंग्रेजी नहीँ जानेंगे तो देश-विदेश के अपेक्षाकृत अच्छे मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग नहीं कर सकेंगे. घटिया प्रोपगेन्डा के घटिया मंच उनके दिमाग में घटिया विचार इंजेक्ट करेंगे. अब इस महामारी में ही देख लीजिये. हर जरूरी चीज का नाम अंग्रेजी में है: टीका का नाम सब भूल चुके हैं. अब उसे ‘हिंदी’, ‘हिंदू’ और ‘हिन्दुस्थान’ वाले भी ‘वैक्सीन’ कहते हैं. देश के हिंदी अखबारों में भी ‘वैक्सीन’ और ‘वैक्सीनेशन’ जैसे शब्द प्रयुक्त होते हैं. इसे वे ‘अप-मार्केट’ की भाषा ‘हिंग्लिश’ कहते हैं. फिर आपके बच्चे ऐसी घटिया भाषा क्यों बोलें? वे सीधे अंग्रेजी ही क्यों न बोलें? महामारी के बारे में हिंदी अखबारों में सार्थक और ज़रूरी खबरें बहुत कम छप रही हैं. हिंदी के न्यूज़ चैनल इतना सब सामने होता देखकर भी सरकारी भोंपू बने हुए हैं—पूरे के पूरे टीवीपुरम्! उनमें काम करने वाले भी ज्यादातर कुछ ही समुदायों के होते हैं. विदेश के अंग्रेजी अखबार-न्यूज चैनल ही आज भारत का सच बताते दिख रहे हैं. अगर देश में यह काम कोई कर रहा है तो वे भारत की अंग्रेजी न्यूज़ वेबसाइट हैं. इनमें कुछ दो भाषाओं मे भी हैं. देश के कुछेक अंग्रेजी चैनलों के कुछेक एंकर और विश्लेषक भी अच्छे कार्यक्रम पेश कर रहे हैं. वेबसाइटों की पहुंच अभी हमारे यहां ज़्यादा नहीं है. लेकिन यह बात सौ फीसदी सच है कि ज्ञान-विज्ञान का बड़ा खजाना अंग्रेजी मे है. हमारी सरकारों ने बीते 73 वर्षो में हिंदी को इस लायक बनाया ही नहीं. सरकारों के असल संचालक अंग्रेजी में सोचते और करते रहे, नेता हिंदी भाषी क्षेत्रों की गरीब और उत्पीड़ित जनता खो हिंदी के नाम पर बेवकूफ़ बनाते रहे! आज गरीबों के बच्चे हिंदी में क्यों पढें? क्या तर्क हैहिंदी-वादियो के पास? क्या सिर्फ मजदूरी करने के लिए हिंदी में पढ़ें? रिक्शा या टेम्पो चलाने के लिए? या कुछ ‘शक्तिशाली लोगों’ के इशारे पर काम करने वाली दंगाइयो की भीड़ का हिस्सा बनने के लिए ? इसलिए, हिंदी भाषी क्षेत्र के उत्पीड़ित समाजों के लोगों, अब आप अपने बच्चों को वैज्ञानिक, प्रोफेसर, रिसर्चर, समाज विज्ञानी, न्यायविद्, लेखक, आईआईटियन, कम्प्यूटर विज्ञानी और अंतरिक्ष विज्ञानी बनाने के लिए अंग्रेजी को उनकी शिक्षा का माध्यम बनाइये. पढ-लिखकर वे स्वयं भी बदलेंगे और अपने समाजों में बदलाव का प्रेरक भी बनेंगे. इस बारे में हिंदी क्षेत्र के कुछ बुजुर्ग होते नेताओं या कुछ आत्ममुग्ध हिंदी लेखकों-बुद्धिजीवियों की फ़ालतू और बासी दलीलो से कन्फ्यूज होने की जरूरत नहीं है. यही न कि वो आपसे कहने आयेंगे कि आप अपनी प्यारी हिंदी छोड़कर अपने बच्चों को अंग्रेजी में शिक्षा क्यों दिलाने लगे? आप पूछियेगा उनसे, उनमें कितनों के बच्चे निगम या पंचायत संचालित हिंदी वाले स्कूलों में पढ़ते हैं? फिर वे आपको बेवजह हिंदी-भक्त क्यों बनाये रखना चाहते हैं?सोचिये और बदलिये, वरना बहुत देर हो जायेगी!
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बहुत ही दुखद खबर है। आजतक के चर्चित एंकर और राइट विंग पत्रकार रोहित सरदाना की मौत हो गई है। बताया जा रहा है कि रोहित कोरोना से संक्रमित थे। मेट्रो अस्पताल नोएडा में भर्ती थे। डाक्टरों की देखरेख में उनका इलाज चल रहा था। अचानक इसी दौरान इन्हें हार्ट अटैक आ गया और बचाया न जा सका। रोहित के निधन की सूचना मिलते ही आजतक में मातम फैल गया है। किसी को इस मौत को लेकर यक़ीन नहीं हो रहा है। कुछ प्रतिक्रियाएं देखें- सुधीर चौधरी- अब से थोड़ी देर पहले @capt_ivane का फ़ोन आया। उसने जो कहा सुनकर मेरे हाथ काँपने लगे। हमारे मित्र और सहयोगी रोहित सरदाना की मृत्यु की ख़बर थी। ये वाइरस हमारे इतने क़रीब से किसी को उठा ले जाएगा ये कल्पना नहीं की थी। इसके लिए मैं तैयार नहीं था। ये भगवान की नाइंसाफ़ी है.. ॐ शान्ति! साक्षी जोशी- आज तक के एंकर रोहित सरदाना के निधन की खबर ने अंदर तक हिला दिया है। ये अत्यंत ही दुखद समाचार है। अब तक विश्वास नहीं हो पा रहा है। ये किसकी नज़र लग गई हमारे देश को। बस अभी निशब्द हूँ। चित्रा त्रिपाठी- हँसता-खेलता परिवार, दो छोटी बेटियाँ. उनके लिए इस दंगल को हारना नहीं था @sardanarohit जी.आज सुबह चार बजे नोएडा के निजी अस्पताल में ICU में आपको ले ज़ाया गया और दिन चढ़ने के साथ ये बहुत बुरी खबर. कुछ कहने को अब बचा ही नहीं. राणा यशवंत- रोहित तुम सदमा दे गए यार! बहुत क़ाबू करने के बावजूद ऐसा लग रहा है कि शरीर काँप रहा है। ये ईश्वर की बहुत बड़ी नाइंसाफ़ी है!! ऊपर अगर कोई दुनिया है तो तुमको वहाँ सबसे शानदार जगह मिले। तुम ज़बरदस्त इंसान थे। इससे ज़्यादा अभी कुछ भी कहने की हालत में नहीं हूँ। उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़!!
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बहुत ही दुखद खबर है। आजतक के चर्चित एंकर और राइट विंग पत्रकार रोहित सरदाना की मौत हो गई है। बताया जा रहा है कि रोहित कोरोना से संक्रमित थे। मेट्रो अस्पताल नोएडा में भर्ती थे। डाक्टरों की देखरेख में उनका इलाज चल रहा था। अचानक इसी दौरान इन्हें हार्ट अटैक आ गया और बचाया न जा सका। रोहित के निधन की सूचना मिलते ही आजतक में मातम फैल गया है। किसी को इस मौत को लेकर यक़ीन नहीं हो रहा है। कुछ प्रतिक्रियाएं देखें- सुधीर चौधरी- अब से थोड़ी देर पहले @capt_ivane का फ़ोन आया। उसने जो कहा सुनकर मेरे हाथ काँपने लगे। हमारे मित्र और सहयोगी रोहित सरदाना की मृत्यु की ख़बर थी। ये वाइरस हमारे इतने क़रीब से किसी को उठा ले जाएगा ये कल्पना नहीं की थी। इसके लिए मैं तैयार नहीं था। ये भगवान की नाइंसाफ़ी है.. ॐ शान्ति! साक्षी जोशी- आज तक के एंकर रोहित सरदाना के निधन की खबर ने अंदर तक हिला दिया है। ये अत्यंत ही दुखद समाचार है। अब तक विश्वास नहीं हो पा रहा है। ये किसकी नज़र लग गई हमारे देश को। बस अभी निशब्द हूँ। चित्रा त्रिपाठी- हँसता-खेलता परिवार, दो छोटी बेटियाँ. उनके लिए इस दंगल को हारना नहीं था @sardanarohit जी.आज सुबह चार बजे नोएडा के निजी अस्पताल में ICU में आपको ले ज़ाया गया और दिन चढ़ने के साथ ये बहुत बुरी खबर. कुछ कहने को अब बचा ही नहीं. राणा यशवंत- रोहित तुम सदमा दे गए यार! बहुत क़ाबू करने के बावजूद ऐसा लग रहा है कि शरीर काँप रहा है। ये ईश्वर की बहुत बड़ी नाइंसाफ़ी है!! ऊपर अगर कोई दुनिया है तो तुमको वहाँ सबसे शानदार जगह मिले। तुम ज़बरदस्त इंसान थे। इससे ज़्यादा अभी कुछ भी कहने की हालत में नहीं हूँ। उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़!!
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संगम पांडेय- अल बरूनी से लेकर मोहम्मद अली जिन्ना तक ने यह माना है कि इस्लाम और हिंदुत्व एक-दूसरे से इतने भिन्न हैं कि उनमें कोई तुलना संभव नहीं। लेकिन इस्लाम की तुलना ईसाइयत के साथ संभव है। क्योंकि दोनों में ही एक किताब, एक पैगंबर, धर्मांतरण, ईशनिंदा आदि एक जैसे कांसेप्ट मौजूद होने के साथ-साथ दोनों का ऐतिहासिक स्रोत भी एक ही है। पर इस्लामी समाजों में जहाँ ये कांसेप्ट हड़कंप का सबब बन जाते हैं वहीं ईसाई समाजों में इनका अक्सर उल्लंघन होता है और किसी को खास परवाह नहीं होती, जिसकी वजह है व्यक्ति की आजादी के सवाल को सबसे ऊपर रखना। दारियो फो के नाटक ‘कॉमिकल मिस्ट्री’ और टीवी शो ‘फर्स्ट मिरेकल ऑफ इन्फैंट जीसस’ को वेटिकन द्वारा सबसे भयंकर ब्लाशफेमी करार देने के बावजूद कई दशकों तक उनके प्रदर्शन वहाँ होते रहे। वहीं एक जमाने में धरती को ब्रह्मांड का केंद्र मानने की बाइबिल की धारणा से उलट राय व्यक्त करने पर गैलीलियो को जिस चर्च ने हाउस अरेस्ट की सजा सुनाई थी उसी चर्च ने अभी कुछ साल पहले कबूल किया कि ईश्वर जादूगर नहीं है और ‘बिग बैंग’ और ‘थ्योरी ऑफ ईवोल्यूशन’ दोनों ही अपनी जगह सही हैं। चर्च बदलते वक्त के मुताबिक अपनी नैतिकताओं में संशोधन या नवीकरण भी करती रहती है। सन 2009 में उसने ज्यादा धन को भी एक बुराई करार दिया था, जो शायद 1990 के बाद की आर्थिक प्रवृत्तियों के मद्देनजर ही होगा। इसी तरह धर्मांतरण को लेकर भी ईसाइयत इस्लाम की तरह उच्छेदवादी नहीं है। उसमें परंपराएँ छोड़ने और नाम बदलने के लिए नहीं कहा जाता, सिर्फ यीशु का भक्त और चर्च का अनुयायी होना ही इसके लिए काफी है। जबकि मुझे याद है इंडोनेशिया में (सुकर्ण पुत्री) मेगावती (जो पहले से ही मुसलमान थीं) के खिलाफ आवाजें उठी थीं कि सिर्फ इस्लाम अपनाने से काम नहीं चलेगा, नाम भी बदलो। यूरोप के उदाहरण से पता चलता है कि धर्म ही समाजों को नहीं बदलते बल्कि समाज भी धर्म को बदल देते हैं। और यह सिर्फ ईसाइयत के हवाले से ही अहम नहीं है, बल्कि यूरोप में एक मुल्क अल्बानिया भी है जहाँ मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। लेकिन वह देश उसी तरह समानता और व्यक्ति स्वातंत्र्य के नियमों को मानता है जैसे कि ज्यादातर अन्य यूरोपीय देश। यहाँ तक कि एक वक्त पर अनवर होजा ने वहाँ कम्युनिस्ट क्रांति भी कर दी थी, जो कि किसी मुस्लिम देश के लिए असंभव सी लगने वाली बात है। और न सिर्फ इतना बल्कि होजा ने अल्बानिया को एक नास्तिक राज्य भी घोषित कर दिया था। यूरोप की तुलना में एशिया की प्रवृत्ति लकीर के फकीर की है। उदाहरण के लिए हिंदुत्व को ही लें। करीब ढाई सौ साल पहले तक हिंदुओं को इस बात का ठोस अहसास तक नहीं था कि वे कोई कौम हैं। अब ये अहसास आया है तो बजाय इसके कि वे हिंदुत्व की खामियों के मुतल्लिक सुधार का कोई डॉक्ट्राइन प्रस्तावित करें, वे सारा गौरव अतीत में तलाश लेने पर आमादा हैं। हो सकता है यह प्रवृत्ति उन्होंने इस्लाम से उधार ली हो या हो सकता है उनकी अपनी हो; क्योंकि खुद गाँधी वर्णाश्रम को हिंदुत्व के लिए अनिवार्य मानते थे, जिनकी इस धारणा की अच्छी चीरफाड़ अंबेडकर ने अपनी किताब ‘जाति का विनाश’ में की है। फेसबुक पर इस प्रश्न को पर मैं खुद दो बार अनफ्रेंड किया जा चुका हूँ। दरअसल सेकुलर दृष्टिकोण जिस रीजनिंग से पैदा होता है उसकी हालत अपने यहाँ सुभानअल्ला किस्म की है। खुद को सेकुलर मानने वाले यहाँ के बुद्धिजीवी जिन नेहरू पर फिदा हैं वे नेहरू अपनी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में लिखते हैं कि ‘(अफगानों या तुर्कों के भारत पर आक्रमण को) मुस्लिम आक्रमण या मुस्लिम हुकूमत लिखना उसी तरह गलत है जैसे भारत में ब्रिटिश के आने को ईसाइयों का आना और उनकी हुकूमत को ईसाई हुकूमत कहा जाना।’ विश्लेषण के इस घटिया तरीके में दो भिन्न वास्तविकताओं को खींच-खाँचकर एक खोखली तुलना में फिट कर दिया जाता है। ऐसा वही लिख सकता है जो नहीं जानता कि इस्लाम में स्टेट और रिलीजन मजहबी एजेंडे के अंतर्गत मिक्स कर दिए जाते हैं, जिसके लिए धिम्मी, जजिया, शरिया आदि कई विधियों का प्रावधान है, जिस वजह से हमलावर के अफगान या तुर्क होने का फर्क मुस्लिम पहचान के मुकाबले अंततः एक बहुत कमतर किस्म का फर्क रह जाता है। साथ ही ऐसी खोखली तुलना वह कर सकता है जो नहीं जानता कि सोलहवीं शताब्दी में कैसे ब्रिटेन ने वेटिकन से नाता तोड़कर प्रोटेस्टेंटवाद का साथ दिया था, जिसके बाद कैथोलिज्म के रूढ़िवाद को वहाँ काफी संदेह और हिकारत से देखा जाता था। स्पष्ट ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद के मंतव्य मुस्लिम विस्तारवाद के मंतव्यों से बिल्कुल अलग थे, और मैग्ना कार्टा के बाद ब्रिटेन की यही आधुनिकता कालांतर में उसका वैश्विक साम्राज्य बना पाने में बड़ी सहायक वजह बनी। जो भी हो भारत के सेकुलर बुद्धिजीवी इसी नेहरू-पद्धति के तर्कों से आज तक काम चला रहे हैं। प्रसंगवश याद आया कि अंबेडकर निजी बातचीत में नेहरू को ‘चौथी कक्षा का लड़का’ कहा करते थे। ऐसा धनंजय कीर ने अंबेडकर की जीवनी में लिखा है। यह भी लिखा है कि एक बार गाँधी से अंबेडकर के विरोध को देखते हुए जमनालाल बजाज ने उन्हें सलाह दी कि ‘कुछ समय के लिए खुद के मत को दूर रख आप नेहरू के आदर्श का अनुसरण क्यों नहीं करते?’ अंबेडकर ने जवाब दिया- ‘तात्कालिक यश के लिए खुद की विवेक-बुद्धि की बलि देने वाला इंसान मैं नहीं हूँ।’
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राजेश अग्रवाल- हंसमुख, मृदुभाषी लेकिन समय-समय पर कटाक्ष कर आईना भी दिखाने वाले प्रदीप आर्य pradeep arya भाई का आज दोपहर करीब तीन बजे कोरोना संक्रमण के चलते निधन हो गया। खबर सुनकर व्यथित हूं। करीब तीन दशक का साथी रहा। हमने साथ-साथ लोकस्वर से काम शुरू किया और करीब 10 साल देशबन्धु में साथ रहे। रिपोर्टिंग और सम्पादन में निपुण होते हुए भी उनका एकमात्र लगाव कार्टून की ओर रहा। 90 के दशक में जब उन्होंने कार्टून बनाना शुरू किया तो जाहिर है, धार की कमी थी। मेरी आलोचना के शिकार हुआ करते थे। कई मौके आये जब किसी विषय पर बनाये गये कार्टून को बार-बार सुधारने कहा, फिर पेज पर जगह दी जा सकी। अपनी आलोचना का कभी बुरा नहीं माना और हमेशा खुद को परिष्कृत करते रहे। उन्हें तनख्वाह रिपोर्टिंग और डेस्क की मिलती थी पर पहचान कार्टून की वजह से थी। इन दिनों न केवल स्थानीय विषयों पर बल्कि राष्ट्रीय मुद्दों पर उनके कार्टून देखकर मैं हैरान होता रहा। कोरोना संक्रमण पर तो उन्होंने कई शानदार कार्टून बनाये। कुछ दिन पहले ही तेज धार, गहरी चोट वाले कार्टून तैयार करने पर मैंने उसे बधाई दी थी। सब साथी देशबन्धु छोड़कर अपनी-अपनी अलग राह निकल गये लेकिन उन्होंने वहां करीब 30 साल काम किया। बीते साल ही उन्होंने इस अख़बार से विदाई ली थी। कहा था- मायूसी के साथ छोड़ा, वजह की बात रहने दें। खैर, उनके मित्र दूसरे अख़बारों में बैठे हुए हैं। जो कभी साथ काम करते थे। इन दिनों रोजाना लोकस्वर में उनका कार्टून छप रहा था। सम्पादकीय पन्ने पर अब आपको उनके रेखाचित्र नहीं दिखेंगे। करीबी दोस्तों को पता है कि वे युवावस्था से ही आंख की बीमारी से जूझते रहे। बड़ी, फिर और बड़ी लैंस का चश्मा लगता रहा। वे काम करते-करते हर घंटे, आधे घंटे में चश्मा उतारकर आंखों से निकले पानी को पोंछते थे। आंखों की हिफाजत के लिये कई बार उन्हें चेन्नई, चंडीगढ़ जाकर भर्ती होना पड़ा। पर इस शारीरिक पीड़ा को उन्होंने कभी रोड़ा नहीं माना। खुशमिजाजी कम नहीं हुई। आंखें कमजोर थी मगर दृष्टि बड़ी तीखी थी। इसका प्रतिबिम्ब उनके कार्टून में दिखाई देता है। अपनी स्कूटर में अक्सर प्रदीप को घुमाने ले जाने वाले सहकर्मी, हमारे व्यंग्य कार मित्र अतुल खरे कह रहे थे कि खबर सुनकर स्तब्ध हूं। लग रहा है जैसे मेरे जिस्म का एक हिस्सा मुझसे अलग हो गया। विडम्बना ही कहूंगा कि मेरे घर से सिर्फ 50 कदम के भीतर वह आरबी अस्पताल है जहां प्रदीप ने अंतिम सांसें लीं, मगर न मैं उसका चेहरा देख पाया, न कांधा दे सका। मना किया गया। आपदा ही कुछ ऐसी है। प्रदीप भाई के परिवार को साहस, संबल मिले। हम सदा साथ हैं। दैनिक अखबारों में नियमित छपने वाले बिलासपुर के पहले कार्टूनिस्ट को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि। प्रदीप के साथ बरसों काम किये वरिष्ठ पत्रकार राजेश अग्रवाल की फेसबुक वाल से।
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ईशमधु तलवार- ज्ञानरंजन जी का अभी-अभी फोन आया। बताया कि “पहल” का आने वाला 125 वां अंक, आखिरी अंक होगा! सुनकर अच्छा नहीं लगा, लेकिन क्या करें! हिंदी साहित्य की इस प्रतिष्ठित पत्रिका का इस तरह अवसान होना मन को दुखी कर गया। ज्ञानजी ने बताया कि संसाधनों की भी दिक्कत नहीं थी, लेकिन स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा। ज्ञानजी हमेशा स्वस्थ बने रहें, यही शुभकामना।
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ईशमधु तलवार- ज्ञानरंजन जी का अभी-अभी फोन आया। बताया कि “पहल” का आने वाला 125 वां अंक, आखिरी अंक होगा! सुनकर अच्छा नहीं लगा, लेकिन क्या करें! हिंदी साहित्य की इस प्रतिष्ठित पत्रिका का इस तरह अवसान होना मन को दुखी कर गया। ज्ञानजी ने बताया कि संसाधनों की भी दिक्कत नहीं थी, लेकिन स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा। ज्ञानजी हमेशा स्वस्थ बने रहें, यही शुभकामना।
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अमिताभ ठाकुर- अभी-अभी ज्ञात हुआ कि केंद्र सरकार के निर्देशों पर UPGovt द्वारा दिसंबर 2016 से मुझे प्रदत्त सुरक्षा कल 01/04 रात्रि को यकबयक @CPLucknow @lucknowpolice के आदेशों से हटा दिया गया. बताया गया कि “ऊपर” से आदेश था- “संवेदनशील मामला है, तत्काल सुरक्षा हटाई जाये”. ज्ञात हो कि ताकतवर नौकरशाह अवनीश अवस्थी पर कल ही अमिताभ ठाकुर ने सवाल उठाए थे। आज सुरक्षा वापसी का आदेश हो गया। इससे पहले अमिताभ ठाकुर ने डीजीपी को पत्र लिख कर पारंपरिक तरीक़े से विदाई किए जाने की माँग की थी। कहा जा सकता है कि जबरन रिटायर किए जाने के बाद भी अमिताभ के तेवर ढीले नहीं पड़े हैं। वे अब भी सत्ता सिस्टम पर सवाल उठाकर उनकी आँखों की किरकिरी बने हुए हैं।
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न्यूज़ 24 में आउटपुट में 4 रिजाइन एक साथ गिरने से हलचल बढ़ गई है. अचानक 4 रिजाइन गिरने का कारण एचआर को बताया जा रहा है. सूत्रों से पता चला है कि सत्या ओझा आजकल आउटपुट में हर चीज में दखलंदाजी कर रहे थे. प्रोड्यूसर्स को काम सिखा रहे थे. हर रोज बढ़ती दखलंदाजी से नाराज होकर हिमांशु कौशिक, सरोज झा, वीरेश राव और उत्कर्ष तिवारी ने रिजाइन दे दिया है. कहा तो ये भी जा रहा है कि सत्या ओझा का भाई आउटपुट में ही है जो न्यूज रूम की बातों को अपने भाई तक पहुँचाता है. बताया जा रहा है कि न्यूज़24 में जबसे अजय आज़ाद की टीम आई है तब से खूब तानाशाही चल रही है. ऊपर से यहाँ के एचआर ने भी परेशान कर रखा है. इसी सबको देखते हुए प्रोडक्शन के 4 सीनियर लोगों ने एक साथ रिजाइन दे दिया.
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अवधेश बजाज हे गुरुदेव मैंने चौदह महीने पहले ही आपसे ये कहा था कि आपको कुछ नहीं होगा पर आप तो हार मान बैठे। मुझे आज ऐसा लग रहा है कि जैसे छह साल पहले मेरे पिता का साया मेरे सिर से उठा था वैसा ही साया आज उठ गया है।पत्रकारिता के संक्रमण काल में आप एक आशा की किरण थे। आपने हजारों हजार मेरे जैसे अवधेश बजाज पैदा किये होंगे। गुरुदेव मैं नि:शब्द हूं, स्तब्ध हूं। विश्वास नहीं हो रहा है कि अभी 7 फरवरी को आपसे बात हुई थी। आप 8 तारीख को मेरे कार्यक्रम में आने वाले थे। मैं सिर्फ इंतजार ही करता रहा गुरुदेव….. मेरी स्मृति में आप मेरे पिता श्री बनवारी बजाज के संघर्ष के साथी, मेरे अभिभावक, मेरे गुरू की तरह हमेशा मेरी स्मृतियों में रहेंगे। कमल दीक्षित 7 जनवरी 2020 को आपके लिए फेसबुक पर किया गया पोस्ट……. मैं आपका मानस पुत्र हूं आपको कुछ नहीं होगा आदरणीय कमल दीक्षित जी कुछ समय से बीमार हैं लेकिन पिछले एक सप्ताह से उनकी स्थिति गंभीर हो गयी है। कल मैं उनसे मिला मिलकर मन बहुत दुखी एवं द्रवित है क्योंकि मैं स्वयं को उनका मानस पुत्र मानता हूं। भगवान उन्हें स्वस्थ करे इसकी कामना करता हूं और उन्हें भी आश्वस्त कराना चाहता हूं कि गुरुदेव आपको कुछ नहीं होगा। दीक्षितजी के बारे में उद्गार व्यक्त करना मैं आसान नहीं समझता। क्योंकि इसके लिए मुझे खुद को कई प्रवृत्ति के मनुष्यों में परिवर्तित करना होगा। मुझे वह शिल्पी बनना होगा, जो शब्दों के गढऩे वाले हुनर के धनी दीक्षितजी के लिए एक-एक उत्कृष्ट अक्षर की रचना कर सके। उनके व्यक्तित्व को परिभाषित करने हेतु मात्र यही विकल्प बचता है कि मैं कलम में सियाही की जगह उनके प्रति अपनी अगाध श्रद्धा उड़ेलूं। कागज के स्थान पर अपने हृदय को बिछा दूं। शब्दों की पवित्रता के लिए के लिए वेदों की ऋचाओं से कुछ उधार की प्रार्थना करूं। वाक्य विन्यास की दीर्घायु के लिए मां के हृदय से निकले आशीर्वाद जैसे किसी तत्व की खोज करूं। क्या मुझ सरीखे किसी सामान्य इंसान के लिए यह संभव है! क्योंकि बहुत अच्छे असाधारण तत्व का मेरे जीवन में केवल एक पक्ष है। वह यह कि मुझे पत्रकारिता के जीवन की आरंभिक पायदान पर श्री दीक्षितजी का आशीर्वाद मिला। उनके सान्निध्य का ममतामयी आंचल हासिल हुआ। उनकी कृपाओं का पितृतुल्य साया मेरे ऊपर पड़ा। सन् 1985-86 का वह समय हमेशा याद आता है। सुबह की ओस जैसी पवित्रताओं में लिपटी हुई यादों के साथ। पिताजी ने मुझे पत्रकारिता जगत की ओर जाने का मार्ग दिखाया और दीक्षितजी ने वह रास्ता खोला, जिस पर चलकर वास्तविक पत्रकार बना जाता है। मेरा पत्रकार बनना दिवंगत पिताजी की अभिलाषा थी। मेरी उत्सुकता थी। ये दो भाव शिला की तरह तब तब निर्जीव ही पड़े रहे, जब तक दीक्षितजी के चरणों का उनसे स्पर्श नहीं हुआ। दीक्षितजी उस समय नवभारत के इंदौर संस्करण के संपादक हुआ करते थे। उन्होंने प्रयास किये, किंतु दुर्भाग्यवश इस अखबार में मेरा प्रवेश नहीं हो सका। मेरे युवा मन के लिए यह किसी बड़ी लडख़ड़ाहट साबित होता, यदि दीक्षितजी ने अपने व्यक्तित्व का सहारा देकर मुझे थाम न लिया होता। उन्होंने मेरे लिए नवभारत समाचार सेवा में स्थान बनाया। भोपाल में आवास की समस्या मेरे मुंह-बायें खड़ी थी। इसका पता चलते ही दीक्षितजी ने मेरे लिए दिवंगत रामगोपाल माहेश्वरी के आवास में प्रबंध कराया। उनसे हुए प्रत्येक वार्तालाप में मैं यह देखकर दंग रह जाता था कि आशा का संचार करने के कितने अनगिनत एवं विश्वसनीय स्रोत उनके सहचर बने हुए थे। वह सम्पूर्ण मनुष्य बनकर मेरे पथ प्रदर्शक बने रहे। मुझ सरीखे नये चेहरे को आगे बढ़ाने के लिए वह किसी अभिभावक की भूमिका में सक्रिय रहे। मेरे अंदर के बिखरे-बिखरे लेखक का रेजा-रेजा उन्होंने किसी कुशल कारीगर की तरह सहेजा और उसे एक मुकम्मल शक्ल प्रदान करने तक लगातार इसके लिए प्रयास करते रहे। सिखाने की प्रक्रिया में वह किसी सीनियर की तरह कभी-भी पेश नहीं आये। इसकी जगह उनके भीतर का वह गुरू सामने आया, जो स्वयं को मोमबत्ती की तरह जलाते हुए दूसरों के अंधेरे को हरने का कर्म करता है। आज यह सब लिखते समय मैं भावातिरेक से खुद को बचाने का पूरा प्रयास कर रहा हूं। भावावेश में व्यक्ति बहक जाता है। मैं इस लेखन के समय यह गुस्ताखी कतई नहीं कर सकता। हरेक शब्द की मैं पूरी क्रूरता से समीक्षा कर रहा हूं। उन्हें सुनार की भट्टी की आग में पिघलाने में मुझे किंचित मात्र भी पीड़ा महसूस नहीं हो रही। शब्दों की तलाश मुझे किसी हीरे की खदान में जमीन का बेदर्दी से सीना खोदते शख्स की तरह ही वसुंधरा की पीड़ा से विरत रख रही है। समुंदर के भीतर किसी सीप का पूरी निर्दयता से सीना चीरने वाले की ही तरह मैं भी निर्मिमेष भाव से शब्द रूपी मोती चुन रहा हूं। वजह केवल यह कि मामला गुरू दक्षिणा का है। मेरे गुरू ने शब्दों की जिस लहलहाती फसल का बीज मेरे भीतर बोया था, उन्हीं शब्दों को उनके लिए लिखना किसी गुरू दक्षिणा की पावन प्रक्रिया से भला अलग हो सकता है! इसलिए मैं अपने विचारों को कागज पर लाने से पहले सोने की तरह तपा रहा हूं। हीरे की तरह तराश रहा हूं। मोती की तरह तलाश रहा हूं। दीक्षितजी की दृष्टि में मैं यदि इनमें से किसी एक भी प्रयास में सफल रहा तो इसे अपने जीवन को धन्य करने वाले आशीर्वाद की तरह मानूंगा।
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दिल्ली । ‘साहित्य भारतीय भाषाओं में लिखा गया हो या भारतीय भूमि में या भारतीय संवेदनाओं के साथ लिखा गया हो, उसे भारतीय साहित्य के अंतर्गत परिगणित किया जाना चाहिए । भारतीय साहित्य को समझने के लिए भारत को समझना आवश्यक है । भारत एक नक्शा नहीं संस्कृति है अर्थात् भारत को एक भौगोलिक क्षेत्र के बजाए सांस्कृतिक क्षेत्र की तरह देखा जाना चाहिए ।’ हिंदू कॉलेज के हिंदी विभाग की हिंदी साहित्य सभा द्वारा आयोजित ऑनलाइन व्याख्यान में सुप्रसिद्ध आलोचक और इग्नू के समकुलपति प्रो. सत्यकाम ने उक्त विचार व्यक्त किए । उन्होंने ‘भारतीय साहित्य की अवधारणा’ विषय पर बोलते हुए कहा कि भारतीय साहित्य का सबसे बड़ा गुण लोकतांत्रिक होना है। भारतीय साहित्य जन-जन का विश्वास ग्रहण करता है । उसमें एक वर्ग या समुदाय का नहीं बल्कि समस्त समाज का चित्रण मिलता है । इससे पूर्व उन्होंने बल्गेरिया विश्वविद्यालय के अपने अनुभव को एक कहानी के रूप में साझा करते हुए कहा कि साहित्य को राष्ट्रीयता के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। साहित्य मानवतावाद, वैश्विकता और वसुधैव कुटुंबकम् की विराट अभिव्यक्ति है। उनके अनुसार भारतीय साहित्य एक ही है जो अनेक भाषाओं में लिखा जाता है किंतु कुछ आलोचकों द्वारा भारतीय साहित्य को अनेक कहना भारतीय साहित्य और उसकी भारतीयता को कमजोर करने का प्रयास है। भारत में हजारों जातियां, संस्कृतियां, सभ्यताएं, धारणाएं और भाषाएं हैं । नई शिक्षा नीति का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उसमें जो भाषा की विविधता है और विद्यालयी स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने की बात बहुत महत्वपूर्ण है। भारत की संकल्पना राजनीतिक या भौगोलिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक है और भारतीय साहित्य को समझने से पूर्व इस सांस्कृतिक संकल्पना को समझना जरूरी है । अपनी बात स्पष्ट करने के लिए उन्होंने महाभारत का उदाहरण देते हुए संजय द्वारा व्यक्त भारत की परिभाषा उद्धृत करते हुए कहा कि भारतीय साहित्य एक है और विविधताओं के साथ है क्योंकि हम उन विविधताओं के बीच ही जीते हैं । रवींद्रनाथ ठाकुर का कथन उद्धृत करते हुए उन्होंने भारतीयों के आध्यात्मिक के साथ-साथ भौतिक होने पर बल दिया। प्राचीन काल से साहित्य, दर्शन, कला और विज्ञान में कोई फर्क नहीं रहा । इन सभी क्षेत्रों में होने वाली रचनाएं (शून्य का आविष्कार आदि) हमारे भौतिक होने का प्रमाण है । भारतीय साहित्य मनुष्यता की खोज है। साहित्य के इतिहास पर बात करते हुए उन्होंने भक्तिकाल के साहित्य को जन-साहित्य कहा है जो आध्यात्मिकता, भौतिकता तथा सामूहिक भावना को सुंदर व्यक्त करता है । प्रो. सत्यकाम ने मीजो कविता के पाठ से अपने व्याख्यान का समापन किया जिसका हाल ही में उन्होंने अनुवाद किया था। प्रश्नोत्तरी सत्र में ‘दक्षिण भारत हिंदी के प्रति उत्कट विरोध भारतीय एकता की पुष्टि पर सवाल उठाते हैं’ को महत्वपूर्ण प्रश्न मानते हुए उन्होंने कहा तमिल सबसे प्राचीन भाषा है और भारत की कोई भी भाषा कमतर नहीं है । विरोध केवल राजनीतिक है । उसका कोई भी सामाजिक या सांस्कृतिक संदर्भ नहीं है । लेकिन हिंदी वालों को तमिल साहित्य पढ़ना-लिखना चाहिए और उनके मनोविज्ञान को समझने की भी ज़रूरत है तो उनमें भी हिंदी के प्रति सद्भावना उत्पन्न होगी । सभी प्रश्नों के विस्तार से उत्तर देते हुए उन्होंने विद्यार्थियों के मन में उत्पन्न जिज्ञासाएं शांत की । इस सत्र का संयोजन साहित्य सभा की उपाध्यक्ष गायत्री द्वारा किया गया। वेबिनार के प्रारंभ में विभाग के वरिष्ठ प्राध्यापक डॉ. विमलेंदु तीर्थंकर ने प्रो. सत्यकाम का स्वागत करते हुए उनके व्यक्तित्व की सरलता और सहजता को रेखांकित किया। उन्होंने प्रेमचंद द्वारा हिंदी साहित्य सभा की प्रथम अध्यक्षता को याद करते हुए इसके गौरवशाली इतिहास से भी श्रोताओं का परिचय कराया । प्राध्यापक नौशाद अली ने वक्ता का परिचय देते हुए करोनाकाल में उनके नव-परिवर्तन शैक्षिणिक कार्य, रिकॉर्डेड व्याख्यानों को विद्यार्थियों तक पहुंचाने की सक्रिय भूमिका पर प्रकाश डाला। धन्यवाद ज्ञापन करते हुए विभाग प्रभारी डॉ. पल्लव ने कहा कि ऐसे व्याख्यान न केवल विद्यार्थियों के लिए बल्कि प्राध्यापकों एवं सामान्य पाठकों के लिए भी लाभदायक हैं। उन्होंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों (झारखंड, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, गोवा आदि) से जुड़ने वाले साहित्य प्रेमियों का आभार व्यक्त किया। आयोजन का संयोजन प्राध्यापक डॉ धर्मेंद्र प्रताप सिंह ने किया। वेबिनार में विभाग के वरिष्ठ अध्यापको डॉ अभय रंजन, डॉ हरींद्र कुमार सहित अन्य विश्वविद्यालयों के प्रध्यापक, शोधार्थी और छात्र भी उपस्थित थे । दिशा ग्रोवर(कोषाध्यक्ष)हिंदी साहित्य सभा, हिंदू कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली – 110007
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Sanjaya Kumar Singh- बंगाल ड्रैगथन… द टेलीग्राफ अखबार में आज चुनाव की खबर लीड है और मुख्य शीर्षक पश्चिम बंगाल का चुनाव आठ चरण में कराए जाने पर केंद्रित है। एक लाइन और कुछ ही शब्दों का छोटा सा शीर्षक रखने की अपनी खास शैली को बनाए रखते हुए अखबार ने आज अंग्रेजी का एक नया शब्द गढ़ा है – ड्रैगेथन। यह अंग्रेजी के दो शब्दों – ड्रैग और मैराथन को मिलाकर बनाया गया है। ड्रैग मतलब होता है घसीटना और लंबी दौड़ की प्रतियोगिता या विशेष आयोजन को मैराथन कहते हैं। बंगाल में चुनाव को लंबे समय तक घसीटने की इस घोषणा को अखबार ने बंगाल ड्रैगथन कहा है। और बेशक सही तुलना है। इस मुख्य शीर्षक के साथ उपशीर्षक है, राज्य अलग दिखाई दे रहा है क्योंकि सबसे लंबा चुनाव होगा। बंगाल का अखबार बंगाल के साथ किए गए भेदभाव (या विशेष पैकेज, राहत, लाभ आप जो मानिए) को विशेष बता रहा है। बंगाल ड्रैगेथन 27 मार्च से 29 अप्रैल तक चलेगा, मतगणना 2 मई को है – यही खबर है। वरना आम चुनाव भी इतना लंबा कहां चलता है और यह भी नई बीमारी है। बहुत हाल तक आम चुनाव इससे बहुत कम समय में हो जाते थे। अखबार ने अपनी इस खबर के साथ अखबार ने प्रमुखता से बताया है कि किस राज्य में कितनी सीट है और कितने चरण में चुनाव होंगे। इसके साथ यह भी बताया गया है कि मतदान का दिन कौन सा है। पश्चिम बंगाल में आठ दिन मतदान है तो असम में तीन दिन , तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में सिर्फ एक दिन 6 अप्रैल को और मतगणना 2 मई यानी इतवार को होगी। एक नजर में सब कुछ – कोई आरोप, कोई शिकायत भी नहीं।
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