हाथी पागल हो रहा है अंकुश जरूरी है
bhopal,  elephant is going mad, it needs to be controlled

विजय मनोहर तिवारी

 

कृपा करके, नौकरियों के ऊंचे अवसर छोड़कर अनिश्चितताओं से भरे मीडिया में अपने कॅरिअर बनाने आ रही नई पीढ़ी के संजीदा युवाओं के बारे में सोचिए। एक के बाद एक ऐसे बेहूदा बेलगाम कवरेज देखकर मीडिया से उनके मोहभंग हो रहे हैं। उनके लिए चैनलों का यह दृश्य बेहद निराशाजनक है। वे समाज में अपनी सकारात्मक भूमिका के लिए पत्रकार बनना चाहते हैं, मदारी नहीं...

------- 

 

कट टू कट। सिंदूर की बंपर कवरेज के बाद परदे पर आई सुपरहिट सोनम। टीवी चैनलों के लिए ब्लॉक बस्टर मूवी टाइप लॉटरी। मजे की बात यह है कि मूवी मेकर्स को तो स्टोरी, स्टार कास्ट, लोकेशन, सेट्स, म्युजिक, स्पेशल इफेक्ट, वीएफएक्स और डायरेक्शन से लेकर प्रोडक्शन की ढेर सारी खर्चीली प्रक्रियाओं से गुजरना होता है तब कहीं जाकर एक ब्लॉक बस्टर दे पाते हैं। नोएडा के स्टुडियोज में विराजित एंकर और एंकरियों के लिए सिंदूर हो या सोनम, हर्र लगे न फिटकरी टाइप मामला है। दो पैसे खर्च किए बिना चौबीस घंटे चलने वाले शो के लिए मूवी तैयार है।

 

मीडिया के नीति नियामक अगर होश-हवास में हैं तो उन्हें स्वत: संज्ञान लेकर आगे आना चाहिए। यह अति है। एक शक्तिशाली समाचार माध्यम को बंदर के हाथ में उस्तरा बनने से रोकिए। सूचना प्रसारण की कोई मर्यादाएँ अगर नहीं हैं तो बनाइए। कठोर आचार संहिताएँ तय कीजिए। इनकी चौबीस घंटा निगरानी कीजिए। नोटिस दीजिए। जरूरत पड़े और कानून इजाजत देता हो तो दो-चार के प्रसारण रोकिए। कानून इजाजत न देता हो तो कानून बनवाइए। हाथी पागल हो रहा है, अंकुश जरूरी है। 

 

भारत में चौबीस घंटे के सैटेलाइट न्यूज चैनलों को पच्चीस साल से ऊपर हो चुके हैं। अनुभव के इस अंतराल में आकर एक गधा भी घोड़ा बन जाता है। मगर चैनलों का बचपना गया नहीं है। बल्कि वे बचपने में भी नहीं है। बढ़ती उम्र के साथ बुद्धि का विकास न हो तो वह स्पेशल चाइल्ड होता है। मुझे लगता है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ यह त्रासदी घट गई है और जब ऐसे बच्चे की पहचान हो जाए कि वह स्पेशल है तो उस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत हो जाती है। भारत में मीडिया के नीति नियामकों को सब काम छोड़कर (मुझे पता नहीं उनके पास और क्या-क्या काम हैं) इस स्पेशल चाइल्ड के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

 

सिंदूर को उन्होंने दिन-रात इतना घिसा कि उसके चटख रंग उड़ा दिए। सोनम के हाथ लगते ही न्यूम रूम बैठकों में ईद-दिवाली एक साथ आ गई। इस क्राइम स्टोरी में वह सब था जो नेत्रहीन को आंख की तरह बौद्धिक रूप से दिवालिया हो चुके चैनलों को चाहिए था। किरदारों के नाम ठीकठाक थ- राजा और सोनम। हनीमून पर शिलांग की लोकेशन भी बढ़िया मिली। जब क्राइम का राजफाश हुआ तो मुख्य विलेन का नाम आया-राज। यह भी सोने पर सुहागा। 

 

अब मध्यप्रदेश के सबसे बड़े मिनी मुंबई कहलाने वाले इंदौर से स्टोरी जुड़ी और शिलांग होकर गाजीपुर का ढाबा भी आ गया। चैनलों के डायरेक्टर-प्रोड्यूसर अलबर्ट आइंस्टीन के जीवन के उस क्षण की भावदशा अनुभूति को उपलब्ध हुए होंगे जब उन्होंने ईबराबरएमसीस्क्वेयर खोज लिया था। उसके बाद भारत का शक्तिशाली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऑपरेशन सिंदूर से शिफ्ट होकर अपने हाथों अपना ही सिंदूर उजाड़ने वाली सोनम के कृतित्व को समर्पित हो गया।

 

एक समय गाँव-कस्बों में मदारी आया करते थे। तब टीवी चैनल नहीं थे। मनोरंजन की स्थानीय परंपराओं में मदारी और सर्कस ही आकर्षण हुआ करते थे। मदारी एक लो बजट मनोरंजन था। एक बदहाल सा आदमी, सहायक के रूप में उसके साथ एक बेटी या बेटा, एक बंदर या रीछ। वह जोर-जोर से अपने संवाद बोलता हुआ बीच-बीच में एक हाथ से डमरू पीटता था। वह बैकग्राउंड म्युजिक था।

 

-"साहेबान…कदरदान…।' डमरू की आवाज के साथ इन दो शब्दों से वह शो का आगाज करता था, "हमारे बंदर भाई शहर से पढ़कर आ  गए हैं और अब शादी की जिद पर अड़े हैं…बच्चे लोग दूर हो जाएँ…आप सब गोल घेरा बना लें…बंदर भाई बहुत गुस्से में हैं…आज सुबह से जिद पर अड़े हैं कि शादी करूंगा तो हेमा मालिनी से करूंगा….साहेबान-कदरदान…।' सिखाए हुए बंदर से डमरू की ताल पर कुछ कलाबाजियाँ हर उम्र के दर्शकों को पसंद आती थीं। आधेक घंटे के मनोरंजन के बाद उसके बेटे-बेटी दर्शकों से मिली दस-पाँच पैसे की चिल्लर जमा कर रहे होते थे। लेकिन वह मेहनत की कमाई थी।

 

दुनिया बदल गई है। पुराने पोस्टर उतर गए हैं। अब अनगिनत चौराहों पर अनगिनत मदारी, बंदर और बंदरियाँ सजे हैं। समाज उन्हें मसाला दे रहा है। कभी वे राजनीति से किसी बयान की कोई चिंदी उठा लाएंगे तो कभी सरकार का कोई कदम उन्हें तेल-मिर्च-मसाला मुहैया करा देगा और जब कुछ नहीं होगा तो एक सौ चालीस करोड़ के देश में क्राइम की क्या कमी है? सोनम तो मिल ही जाएगी। टीवी चैनलों ने क्राइम को भी सेलिब्रिटी स्टेटस दे दिया है। 

 

अगर राजा-सोनम की स्टोरी में इंदौर की जगह खाईखेड़ा नाम का गाँव और शिलांग की जगह सूखी सेवनिया होता। सोनम की जगह कलावती बाई और राजा की जगह श्रीमान् सड्डू आदिवासी होते तो इसी कहानी को कोई भाव नहीं मिलते। जरा सोचिए इतने चमकदार लिपे-पुते चेहरों वाले एंकर-एंकरियों के मुंह से ये नाम कैसे निकलते। तब यह एक ड्राई और डाउन मार्केट स्टोरी होती। एक मिनट का पैकेज भी नहीं बनता। दिन भर के शो को तो गोली मारिए। अभी तो कारोबार कितना दूर तक चला गया-इंदौर से लेकर गाजीपुर के ढाबे तक कैमरे-माइक लिए हमारे मीडिया वीर डमरू की पुरानी भूली-बिसरी यादों को ताजा करते हुए दिखाई दिए-"साहेबान-कदरदान…सोनम ने ढाबे पर जाने के पहले इसी दुकान पर चाय पी थी और मैं अपने कैमरामेन से कहूँगा कि वे इस जगह को दिखाएं…सोनम यहीं... ठीक इसी जगह पर टैक्सी से उतरी थी…।' 

 

एक दूसरी टीम इंदौर में रघुवंशी परिवार के घर को घेरे खड़ी थी और देश को बताया जा रहा था कि सोनम के भाई राजा के घर पहुंच चुके हैं। वे राजा की मां से गले लगकर फूट-फूटकर रो रहे हैं। 

 

इतने बड़े देश में दिखाने के लिए क्या कोई ढंग के विषय नहीं बचे? क्या चंद ऐसे लोग भी नहीं हैं जो कुछ ऐसा कर रहे हों, जिसे देखकर बाकी लोगों को दिशा और प्रेरणा मिले। सरकार ने कुछ कर दिया, समाज में कुछ उल्टा-सीधा हो गया तो क्या ही आपको दिखाना है? आपका अपना दिमाग कहीं गिरवी रखा गया है क्या? यह क्या कवरेज है? आप टीवी के डाकिए की भूमिका में हैं तो यहाँ-वहाँ की डाक उठाकर स्क्रीन के जरिए लोगों के पास फैंके जा रहे हैं।

 

शहरों में कूड़ा बीनने वाले देखे होंगे। वे सुबह से एक बोरा उठाए सड़कों पर पन्नी, डिब्बे, ढक्कन, बोतल, टीन, टुकड़े बटोरते हैं और कहीं ले जाकर उसे जमा करते हैं। मुझे लगता है कि हमारे माइक और कैमराधारी परमवीरों से तो वे कूड़ा बीनने वाले बेहतर हैं। ये तो समाज का सब तरह का कूड़ा बटोरकर हमारे घरों में हमारे दिमागों में ठेल रहे हैं। कवरेज के नाम पर यह अपराध है।

 

2047 का बलशाली भारत मीडिया के मदारी नहीं बनाएँगे…

(लेखक एमसीयू के कुलगुरु हैं)

Dakhal News 12 June 2025

Comments

Be First To Comment....

Video
x
This website is using cookies. More info. Accept
All Rights Reserved © 2025 Dakhal News.