विस्थापन के नाम पर 1,700 करोड़ रुपए की लूट
बांध पीडि़तों के साथ अब तक का सबसे बड़ा फर्जीवाड़ाविनोद कुमार उपाध्यायनर्मदा नदी पर जितने भी बांध बने हैं उनके निर्माण से विस्थापितों के पुनर्वास तक में फर्जीवाड़ा सामने आता रहा है, लेकिन सरदार सरोवर बांध में विस्थापितों के पुनर्वास के नाम पर ऐसा फर्जीवाड़ा सामने आया है। इससे जबलपुर हाईकोर्ट भी अचंभित है। सरदार सरोवर परियोजना में वैसे तो हर स्तर पर भ्रष्टाचार हुआ है, लेकिन सबसे चौंकाने वाला भ्रष्टाचार रिटायर्ड जज जस्टिस एसएस झा की अध्यक्षता वाली कमेटी की रिपोर्ट में सामने आया है।1800 फर्जी रजिस्ट्रियां करीब सात साल की पड़ताल के बाद कमेटी ने अपनी रिपोर्ट जबलपुर हाईकोर्ट को सौंप दी है। विस्थापन के दौरान किस तरह से व्यापक गड़बडिय़ा की गई है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खेती की 3636 रजिस्ट्रियों में से 1800 फर्जी बताई जा रही हैं। सबसे बड़ी बात यह भी सामने आई है कि इसमें कई रसूखदार भी शामिल हैं। कई फर्जी रजिस्ट्रियां ऐसी भी साnarmada5_650_062813081457मने आई हैं जिसमें दर्शाए गए भू-खंड पर किसी रसूखदार का कब्जा है, जबकि रजिस्ट्री किसी विस्थापित के नाम पर है। अनुमान लगाया जा रहा है कि विस्थापन की आड़ में हुई फर्जी रजिस्ट्रियों का यह भ्रष्टाचार 1,700 करोड़ से अधिक का हो सकता है। चार जनवरी को सरदार सरोवर बांध विस्थापितों को फर्जी रजिस्ट्री के जरिए छले जाने के मामले की जांच के लिए गठित जस्टिस एसएस झा आयोग रिपोर्ट पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने रिपोर्ट को रिकॉर्ड पर लेकर आगे की कार्रवाई सुनिश्चित करने की व्यवस्था दे दी है। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस अजय माणिकराव खानविलकर व जस्टिस केके त्रिवेदी की डबल बेंच ने इस मामले की सुनवाई की। इस दौरान जनहित याचिका पेश करते हुए नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रमुख मेधा पाटकर ने अपना पक्ष स्वयं रखा। पाटकर कहती हैं कि हाईकोर्ट में पेश रिपोर्ट सरदार सरोवर परियोजना में हुए भ्रष्टाचार की पोल खोलेगी। रिपोर्ट में पुनर्वास के नाम पर किए गए अधिकांश कार्यों में भारी अनियमितताएं एवं घोटाला सामने आया है। इस रिपोर्ट को सात साल की जांच के बाद तैयार की गई है।4 तरह के भ्रष्टाचार की 7 साल चली जांच2008 में मामले को गंभीरता को देखते हुए हाईकोर्ट ने जस्टिस एसएस झा आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने 7 साल तक गहरी जांच के बाद 4 तरह के भ्रष्टाचार का लेखा-जोखा तैयार किया है। नर्मदा बचाओ आंदोलन की ओर से कहा गया है कि किसानों को कानून के अनुसार जमीन के बदले विशेष पुनर्वास अनुदान से कितनी फर्जी रजिस्ट्री के जरिए छला गया है। इसका आंकड़ा रिपोर्ट के जरिए सामने आएगा। साथ ही इस फर्जीवाड़े के लिए जो दोषी हैं, उनके नामों का भी खुलासा होगा। राज्य शासन ने महज 686 रजिस्ट्री फर्जी मानी थीं, जबकि शेष के आगे सही का निशान लगा दिया था। जस्टिस झा आयोग की रिपोर्ट सामने आने के बाद साफ होगा कि वास्तविक आंकड़ा 3 से 4 गुना अधिक है। यही नहीं आयोग की जांच से 88 पुनर्वास स्थलों पर हुए करोड़ों रूपए के निर्माण कार्य की गुणवत्ता और खर्च के समीकरण में कितना भ्रष्टाचार और अनियमितताएं हुई हैं, यह भी स्पष्ट होगा। एक अंदाज के मुताबिक आवंटित किए गए 2300 करोड़ में से कम से कम 1000 से 1500 करोड़ रूपया शासन की तिजोरी से व्यर्थ चला गया। आयोग की रिपोर्ट सभी घपलों पर से पर्दा उठाएगी।पंजीयन विभाग के अधिकारियों से साठगांठ कर हर स्तर पर किया फर्जीवाड़ा सरदार सरोवर दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बांध है। यह नर्मदा नदी पर बना 800 मीटर ऊंचा है। नर्मदा नदी पर बनने वाले 30 बांधों में सरदार सरोवर और महेश्वर दो सबसे बड़ी बांध परियोजनाएं हैं और इनका लगातार विरोध होता रहा है। अब से करीब 55 साल पहले 5 अप्रैल 1961 को जवाहर लाल नेहरू ने इस बांध का शिलान्यास किया था। तभी से यह विवादों में है। पहले इस परियोजना से जुड़े राज्यों के बीच आपसी सहमति न बनने के कारण परियोजना रुकी रही। 1979 में मामला नर्मदा जल विवाद प्राधिकरण में पहुंचा। जहां उन राज्यों में सहमति बनीं। विश्व बैंक ने इस परियोजना के लिए धन स्वीकृत किया। यही वह कालखंड है जब स्थानीय लोगों ने नर्मदा बचाओ आंदोलन के तहत इस बांध के निर्माण का विरोध करना शुरू कर दिया था। नर्मदा बचाओ आंदोलन की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में बांध निर्माण रोकने के लिए जनहित याचिका दायर की गई। सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2000 में फैसला सुनाया कि बांध उतना ही बनाया जाना चाहिए, जहां तक लोगों का पुर्नस्थापन और पुनर्वास हो चुका है। बांध की ऊंचाई को लेकर समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले आते रहे हैं। दूसरी तरफ विरोध, राजनीति और सहमति का खेल चलता आ रहा है। दरअसल, इन परियोजनाओं का उद्देश्य गुजरात के सूखाग्रस्त इलाकों में पानी पहुंचाना और मध्य प्रदेश के लिए बिजली पैदा करना है लेकिन इन परियोजनाओं के निर्माण में इसके डूब प्रभावित क्षेत्र में आने वाले लोगों का पुनर्वास करना सबसे बड़ी समस्या थी। इस परियोजना के चलते गुजरात सरकार ने डूब प्रभावितों के पुनर्वास के लिए 2300 करोड़ रुपए मप्र सरकार को दिए थे। इतनी बड़ी रकम मिलते ही दलालों और अफसरों ने इसे हड़पने की तैयारी कर ली। नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर कहती हैं कि किसानों और हमारे कार्यकर्ताओं ने सूचना के अधिकार में फर्जी रजिस्ट्रियों का मामला 2005 में सामने लाए थे। तब मुख्यमंत्री को भी बताया गया लेकिन प्रदेश सरकार ने ध्यान नहीं दिया। आखिर केंद्र और केंद्रीय सतर्कता आयोग तक शिकायत करनी पड़ी। इसके बाद झा आयोग बनाया गया। अनुमान है कि विशेष पुनर्वास पैकेज और पुनर्वास स्थलों के निर्माण में 1,000 से 1,500 करोड़ से अधिक का घोटाला हुआ है। दरअसल, सरकार ने डूब प्रभावितों को जमीन के बदले जमीन देना तय किया था। देश का यह पहला प्रोजेक्ट था, जिसमें इतने बड़े पैमाने पर जमीन उपलब्ध न होने पर विस्थापितों को अपने स्तर पर ही कहीं भी जमीन खरीदने के लिए विशेष पुनर्वास पैकेज दिया था। विशेष पैकेज का पैसा हासिल करने के लिए शर्त रखी थी कि विस्थापित को खरीदी गई जमीन की रजिस्ट्री पेश करनी होगी। इस पैसे को निकालने के लिए मालवा और निमाड़ की नर्मदा घाटी में बड़े पैमाने पर दलाल खड़े हो गए। उन्होंने नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण, राजस्व और पंजीयन विभाग के अधिकारियों से साठगांठ कर हर स्तर पर फर्जीवाड़ा किया। फर्जीवाड़े की लगातार शिकायतें मिलने के बाद नर्मदा बचाओ आंदोलन ने इसके खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी। नर्मदा बचाओ आंदोलन की शिकायतों और तथ्यों के बाद हाईकोर्ट ने सेवानिवृत्त न्यायाधीश एसएस झा की अध्यक्षता में अक्टूबर 2008 में जांच आयोग गठित किया था। जांच आयोग ने पुनर्वास स्थलों की तकनीकी जांच मैनिट भोपाल और आईआईटी पवई के इंजीनियरों की टीम से कराई तकनीकी रिपोर्ट से पुनर्वास स्थलों की हकीकत सामने आई।जमीन की खरीदी-बिक्री में ऐसे किया गया फर्जीवाड़ाजमीन की खरीदी-बिक्री में चार स्तर पर धांधली हुई। एक ही जमीन की 5 से 10 बार रजिस्ट्री हो गई। कई मामलों में जमीन बेचने वालों के नाम भी काल्पनिक हैं। खरगोन की झिरन्या तहसील, कसरावद तहसील के भट्याण बुजुर्ग, कुंडारा गांवों में ऐसे उदाहरण हैं। खरगोन में 1312 रजिस्ट्रियां हुई जिसमें लगभग 800 रजिस्ट्री फर्जी बताई जा रही हैं। देवास जिले के बागली में 316 रजिस्ट्री हुई, इनमें 90 फीसदी रजिस्ट्रियां बोगस हैं। आलीराजपुर जिले में 65 रजिस्ट्री हुई हैं जिसमें एक रजिस्ट्री को छोड़कर सब फर्जी की श्रेणी में हैं। धार की मनावर और कुक्षी तहसील में भी कई फर्जी रजिस्ट्रियां हुई हैं। न सर्वे नंबर सही, न गांव में उस नाम का व्यक्ति है और जमीन बिक गई। धार की कुक्षी तहसील के ननोदा, कुंडारा, खंडवा इसकी बानगी हैं। बड़वानी जिले की ठीकरी तहसील के कालापानी गांव में एक ही जमीन की रजिस्ट्री 10 बार हो गई। रिकॉर्ड में विस्थापित का नाम है, जबकि कब्जा किसी और का है। पैसा निकालने के लिए रजिस्ट्रियां घर-परिवार में ही आपसी करार से हो गईं। ससुर ने दामाद को, पिता ने पुत्र को और बहन ने भाई को जमीन बेच दी बड़वानी जिले सेमल्दा, अवल्दा और धार के निसरपुर, सेमल्दा में ऐसे केस है।कई मामलों में पटवारियों ने लोगों को लोन दिलाने के नाम पर जमीन की पावती ली और उनके हस्ताक्षर करवाकर वही जमीन बेच डाली। धार जिले की धरमपुरी तहसील में देवल्दा, देदला, झिर्वी और कोठड़ा गांवों में ऐसे मामले आए कि गरीब विस्थापितों को शराब पिलाकर लोन देने के नाम पर रजिस्ट्री करवा ली। खरगोन के जामली गांव में मंदिर, सरकारी स्कूल, तालाब और सड़क के नाम की जमीनें भी बिक गईं चरनोई की भूमि भी बेच डाली। पुनर्वास स्थलों की जांच में सामने आया कि बड़वानी जिले के धनोरा गांव में रिकॉर्ड में 15 चबूतरे बनाना बताया गया, लेकिन मौके पर एक भी नहीं पाया गया एक चबूतरे की लागत 90 हजार रुपए बताई गई थी। फर्जी रजिस्ट्रियों की जांच की शुरुआत में 2007 में ही राज्य शासन और एनवीडीए ने माना था कि 686 रजिस्ट्रियां फर्जी हैं शिकायकर्ताओं ने इससे अधिक रजिस्ट्रियां फर्जी होने का दावा किया था इस मामले में पंजीयन विभाग के कुछ सब रजिस्ट्रार और पटवारियों के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज हुई थी। जांच आयोग के अध्यक्ष एसएस झा कहते हैं कि आयोग का कार्यकाल 31 दिसंबर को समाप्त हो गया। रिपोर्ट हाईकोर्ट जबलपुर के समक्ष पेश कर दी गई है।बताया जाता है कि गुजरात सरकार से मिली रकम को हड़पने के लिए अफसरों ने सुनियोजित तरीके से फर्जीवाड़ा किया। मुआवजे का पैसा निकलवाने के लिए नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए) से लेकर कलेक्टर कार्यालय, पंजीयन विभाग में कई दलाल खड़े हो गए। इसमें बड़े पैमाने पर अधिकारियों और कर्मचारियों की मिलीभगत भी रही। ये फर्जीवाड़ा बड़वानी, धार, खरगोन, खंडवा, आलीराजपुर, झाबुआ और देवास जिलों में हुआ। एक ही जमीन की चार-पांच बार रजिस्ट्री हो गई। कई काल्पनिक रजिस्ट्रियां हो गईं जिनके सर्वे नंबर ही नहीं थे। अधिकारियों की मिलीभगत से कई अपात्रों को भी मुआवजा मिल गया, जबकि हजारों वास्तविक प्रभावित आज भी पुनर्वास के लिए भटक रहे हैं। मेधा पाटकर का कहना है कि अफसरों ने न केवल भ्रष्टाचार किया है बल्कि लोगों के साथ धोखाधड़ी और छल भी किया है। 55 गांवों सहित धरमपुरी शहर को भी डूब से बाहर करने का खेल किया गया, लेकिन इसे पर्यावरण विभाग द्वारा नकारने के बाद लोगों को राहत मिली है।तंगहाली में काम करता रहा आयोगआपको जानकर आश्चर्य होगा कि विस्थापन में हुए फर्जीवाड़े की जांच करने वाले झा आयोग को कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। अंतिम दौर में तो आयोग को आर्थिक तंगी से जूझना पड़ा। आलम यह रहा कि मध्यप्रदेश सरकार ने दो-तीन माह से आयोग के खर्चों का भुगतान नहीं किया। इस कारण आयोग के कार्यालय का किराया नहीं दिया जा सका। यहां तक कि रिपोर्ट तैयार करने के लिए स्टेशनरी खरीदने की भी दिक्कत आ गई थी। इसे लेकर आयोग ने जबलपुर हाईकोर्ट के प्रिंसिपल रजिस्ट्रार को भी पत्र लिखा था। आयोग के सचिव की ओर से लिखे पत्र में बताया गया था कि प्रदेश शासन ने कार्यालयीन खर्चों के बिलों पर रोक लगा दी है। टेलीफोन कनेक्शन भी कट गए। बिजली बिल भी नहीं भरा जा सका। अतिरिक्त बजट उपलब्ध कराने के लिए हाईकोर्ट के माध्यम से शासन को भी लिखा गया। दरअसल, हाई कोर्ट के आदेश पर ही सरकार को जांच आयोग बनाना पड़ा। आयोग का कार्यकाल अक्टूबर 2015 में पूरा हो गया था, लेकिन रिपोर्ट तैयार करने में लगने वाले समय के कारण दो माह का अतिरिक्त समय दिया गया था। झा आयोग के सचिव बीपी शर्मा कहते हैं कि करीब तीन माह से आयोग के कार्यालय का किराया, बिजली का बिल नहीं दे पाए। बिल न चुकाने पर तीन-चार बार टेलीफोन भी कट गए। स्टेशनरी का पैसा भी नहीं रहा। आयोग ने अपनी समस्याओं के बारे में हाई कोर्ट को लिखा था। तब जाकर राज्य शासन ने पैसा मंजूर किया। मेधा पाटकर कहती हैं कि शुरू से ही आयोग को सरकार की ओर से सहयोग नहीं किया गया। अब हम चाहते हैं आयोग की अनुशंसाओं पर सरकार कार्रवाई करे।अभी भी हजारों देख रहे विस्थापन का रास्ता…करोड़ों रुपए के घपले-घोटाले की वजह से विस्थापितों का दर्द 31 साल के संघर्ष के बाद भी दूर नहीं हुआ है। कई विस्थापित अब भी पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं। कुछ जगहों पर कागजी खानापूर्ति कर ली गई, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि विस्थापन तो हुआ, लेकिन पुनर्वास नहीं। गरीब जनता के हकों को मारा गया। अब जनता तिल-तिल कर सरकार को कोस रही है, लेकिन सरकार के पास अपने दावों को साबित करने के लिए अपने सबूत हैं। इसी से मामला उलझा है।नर्मदा बचाओ आंदोलन का कहना है कि एक ओर राज्य सरकार द्वारा बार-बार यह कहा जा रहा है कि सरदार सरोवर परियोजना के डूब क्षेत्र में संपूर्ण पुनर्वास हो चुका है और जीरो बेलेंस है। वहीं दूसरी ओर वास्तविता यह है कि हजारों लोग विस्थापन का रास्ता देख रहे हैं। धार व बड़वानी जिले के पुनर्वास स्थलों पर स्थिति बदतर है। पुनर्वास व विस्थापन पर सरकार सिर्फ भ्रम फैला रही है। सरदार सरोवर बांध निर्माण के लिए पुनर्वास के बाद सरकार अब फिर से जमीन हथियाना चाहती है। 30 परिवारों से जमीन छीन ली तथा एक हजार परिवार से जमीन लौटाने को कहा जा रहा है। जबकि 6 हजार परिवारों का अभी भी पुनर्वास नहीं किया गया है। आज भी बांध के डूब में करीब 48 हजार परिवार निवास कर रहे हैं। मप्र में ही 45 हजार परिवारों का भविष्य अंधेरे में है। यहां हजारों किसानों, आदिवासियों से खेती लायक, सिंचित जमीन का हक तथा भूमिहीनों, मछुआरों, कुम्हारों से आजीविका का हक छीनकर जीवित गांवों को डुबाया जा रहा है। वह कहती है कि बांध से मध्य प्रदेश को कोई फायदा भी नहीं हुआ। 3900 से ज्यादा परिवारों को जमीन के बदले जमीन मिलने की पात्रता है, लेकिन जमीन नहीं मिली। सरकार कोर्ट में देनदारी जीरो बताती है, पर ऐसा नहीं हुआ। 40-45 हजार लोग पुनर्वास के इंतजार में हैं। सरदार सरोवर की ऊंचाई 139 मीटर करने से मध्यप्रदेश जलसमाधि के लिए तैयार हो चुका है। पाटकर ने आरोप लगाया कि मध्यप्रदेश ने प्रदेशवासियों के हितों को ताक पर रखकर गुजरात के साथ गठजोड़ कर लिया है। गुजरात नर्मदा का पानी उद्योगों को दे रहा है। 4 लाख हैक्टेयर कृषि भूमि पर सिंचाई होनी थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।30 साल में मात्र 30 प्रतिशत नहरें ही बन पाई: सरादार सरोवर बांध में अब तक करीब 90,000 हजार करोड़ रूपए फूंके जा चुके हैं लेकिन 30 सालों में मात्र 30 प्रतिशत नहरें ही बन पाई हैं वो भी पहले से ही सिंचित क्षेत्र की खेती को उजाड़ कर बनाई जा रही है। इसलिए गुजरात के किसानों ने अपनी जमीन नहरों के लिए देने से इंकार कर दिया है। 122 मी. ऊंचाई पर 8 लाख हैक्टेयर सिंचाई का वादा था जबकि वास्तविक सिंचाई मात्र 2.5 लाख हैक्टेयर से भी कम हुई है। बांध के लाभ क्षेत्र से 4 लाख हेक्टेयर जमीन बाहर करके कंपनियों के लिए आरक्षित की गई है। पीने का पानी भी कच्छ-सौराष्ट्र को कम, गांधीनगर, अहमदाबाद, बड़ौदा शहरों को अधिक दिया जा रहा है जो कि बांध के मूल उद्देश्य में था ही नहीं। पर्यावरणीय हानिपूर्ति के कार्य अधूरे हैं और गाद, भूकंप, दलदल की समस्याएं बनी हुई है। सरदार पटेल की लोहे की बड़ी मूर्ति बनाने के बहाने बांध विस्थापित किसानों के पुनर्वास समेत सभी अन्य शर्तों को धता बताने का दौर चल गया। यह बात कोई नहीं देख पा रहा है कि जितना बांध बना है उसका भी पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है। शायद यह भारत का पहला बांध है जिसमें महाराष्ट्र और गुजरात में 11,000 परिवारों को भूमि आधारित पुनर्वास मिला है। किंतु हर कदम पर लड़ाई करने के बाद। जिस मप्र और महाराष्ट्र को मुफ्त बिजली के झूठे राजनीतिक वादे किए जा रहे हैं जो कि असलियत से कही दूर है। वहां आज भी पुनर्वास के लिए 30,000 एकड़ जमीन जरूरत है। जमीन न देने और पुनर्वास पूरा दिखाने डूब में आ रहे 55 गांवों और धरमपुरी शहर को डूब से बाहर कर दिया गया है।शर्तें अब तक पूरी हो सकी हैं साल 2000 और 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में साफ कहा है कि सरदार सरोवर की ऊंचाई बढ़ाने के छह महीने पहले सभी प्रभावित परिवारों को ठीक जगह और ठीक सुविधाओं के साथ बसाया जाए। मगर 8 मार्च, 2006 को ही बांध की ऊंचाई 110 मीटर से बढ़ाकर 121 मीटर के फैसले के साथ प्रभावित परिवारों की ठीक व्यवस्था की कोई सुध नही ली गई और 2014 में बांध की ऊंचाई 138.68 मीटर करने की मंजूरी मिल गई है, लेकिन विस्थापन की व्यवस्था अभी भी अधर में है। तत्कालीन मध्य प्रदेश सरकार ने भी स्वीकारा था कि वह इतने बड़े पैमाने पर लोगों का पुनर्वास नहीं कर सकती। इसीलिए 1994 को राज्य सरकार ने एक सर्वदलीय बैठक में बांध की ऊंचाई कम करने की मांग की थी ताकि होने वाले आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक और पर्यावरणीय नुकसान को कम किया जा सके। 1993 को विश्व बैंक भी इस परियोजना से हट गया था। इसी साल केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय के विशेषज्ञ दल ने अपनी रिपोर्ट में कार्य के दौरान पर्यावरण की भारी अनदेखी पर सभी का ध्यान खींचा था। इन सबके बावजूद बांध का काम जारी रहा। अगर सरदार सरोवर परियोजना में लाभ और लागत का आंकलन किया जाए तो बीते 20 सालों में यह परियोजना 42,000 करोड़ रूपए से बढ़कर करीब 70,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गई है।आंदोलन नहीं आया कामआज भले ही कहा जा रहा है कि नर्मदा बचाओ आंदोलन के कारण लोगों का कुछ हद तक पुनर्वास हो पाया है, लेकिन करीब 31 सालों में नर्मदा बचाओ आंदोलन बांधों के निर्माण में केवल व्यवधान उत्पन्न करने के अलावा कुछ नहीं कर पाया है। आंदोलन का नारा था कोई नहीं हटेगा, बांध नहीं बनेगा लेकिन बांध तो बने। एक, दो नहीं, सरकारी योजना के मुताबिक सारे बांध बने। और इस योजना का प्रतीक सरदार सरोवर बांध भी धड़ल्ले से बना। बाकायदा सुप्रीम कोर्ट की रजामंदी के साथ बना। यह 121 मीटर ऊंचा बन चुका है और 139 मीटर तक चढऩे वाला है। आंदोलन की तरफ से आंकड़े गिनाए जा सकते थे। मसलन यह कहा जा सकता था कि इस आंदोलन के चलते कोई 11,000 विस्थापित परिवारों को भूमि के बदले भूमि मिली। इतनी बड़ी मात्रा में जमीन पहले कभी नहीं मिली। इसी आंदोलन के चलते सुप्रीम कोर्ट ने इस सिद्धांत को मान्यता दी कि डूब से पहले पुनर्वास अनिवार्य है। इसी सिद्धांत के सहारे आज भी विस्थापितों ने बांध की ऊंचाई बढ़ाने के विरूद्ध स्टे लिया। इस आंदोलन ने पुनर्वास के हकदार हर परिवार को सूचीबद्ध किया, जिससे पता लगा कि किनका हक मारा जा रहा है। पुनर्वास में हर कदम पर हो रहे भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ भी इसी आंदोलन ने किया। जब सरदार सरोवर बांध की योजना बनी तो अनुमानित लागत कोई 9,000 करोड़ रूपए थी। अब उससे दस गुना ज्यादा लागत का अनुमान है। इतने में गुजरात के किसानों के लिए कितने छोटे बांध बन सकते थे? वादा था कि 8 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सकेगी लेकिन वास्तव में 2.5 लाख हेक्टेयर में भी सिंचाई का लाभ नहीं मिला। किसान के बदले सरदार सरोवर का पानी अब उद्योगों और शहरों को दिया जा रहा है। कच्छ की प्यास बुझाने की बजाय यह पानी कोका-कोला जैसी कंपनियों को बेचा जा रहा है। क्या इसलिए हजारों परिवारों, मंदिर-मस्जिदों और जंगल को डुबाया गया था?पर्यावरणीय उपायों के शर्तों का घोर उल्लंघनभारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा भारतीय वन सर्वेक्षण के पूर्व महानिदेशक डॉ. देवेन्द्र पांडेय की अध्यक्षता एवं 9 अन्य सदस्यों वाली नियुक्त की गई विशेषज्ञ समिति ने नर्मदा घाटी में अति विवादास्पद सरदार सरोवर परियोजना (एसएसपी) और इंदिरा सागर परियोजना (आईएसपी) के सुरक्षा उपायों से संबंधित सर्वेक्षण, अध्ययन व योजनाओं एवं उनके कार्यान्वयन पर मंत्रालय को अपनी दूसरी अंतरिम रिपोर्ट प्रस्तुत की है। सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत हासिल हुई यह रिपोर्ट वास्तव में सरदार सरोवर परियोजना के लिए चार राज्य सरकारों, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं राजस्थान द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों एवं आईएसपी के लिए मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज पर आधारित है।रिपोर्ट में इन दो महाकाय परियोजनाओं के जलग्रहण क्षेत्र उपचार, लाभ क्षेत्र विकास, जीव, जंतुओं एवं वहन क्षमता, क्षतिपूरक वनीकरण एवं स्वास्थ्य पर पडऩे वाले असरों सहित अति महत्वपूर्ण पर्यावरणीय पहलुओं के अनुपालन पर चौंकाने वाली जानकारियां हैं। समिति के रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि परियोजना प्राधिकारों द्वारा ‘शर्तों का घोर उल्लंघन’ किया गया है। सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड (एसएसएनएनएल), गुजरात सरकार एवं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए), मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र सरकार द्वारा शर्तों के घोर उल्लंघन की वजह से ‘पर्यावरण को अपूरणीय क्षति’ हो रही है। दोनों परियोजनाओं को पहली बार 1987 में सशर्त पर्यावरणीय मंजूरी मिलने के 28 साल बाद भी इन सबका अनुपालन नहीं हुआ है। इस तरह इनके बगैर लाभों की प्राप्ति एवं टिकाऊ प्रवाह और पर्यावरणीय लागत एवं क्षति का न्यूनीकरण संभव नहीं है।जलग्रहण क्षेत्र उपचार (कैट) के मामले में विशेषज्ञ स्मिति का निष्कर्ष है कि सरदार सरोवर परियोजना के लिए कुल 4,29,000 हैक्टेयर क्षेत्र का जलग्रहण क्षेत्र उपचार किया जाना है जबकि उसमें से सिर्फ 1,61,000 हैक्टेयर का ही उपचार हो पाया है, जो कि कुल क्षेत्र का मात्र 38 फीसदी है। सरदार सरोवर परियोजना में जलाशय का 80 फीसदी हिस्सा भर दिया गया है, जबकि संबंधित राज्यों की रिपोर्ट के अनुसार जलग्रहण क्षेत्र का उपचार केवल 45 फीसदी ही हो पाया है। इस तरह एनवीडीए ने कैट के निर्धारित शर्तों का घोर उल्लंघन किया है।लाभ क्षेत्र विकास के मामले में समिति का कहना है कि सिंचाई परियोजना मेें वर्षा आधारित क्षेत्र को सिंचित क्षेत्र में बदला जाता है। इस तरह उस जमीन में नियमित रूप से पानी आने लगता है, जबकि वह जमीन इसके अनुकूल नहीं होता है। इसलिए लाभ क्षेत्र के विकास के लिए कुछ दिशानिर्देश तय किए जाते हैं। सरदार सरोवर परियोजना के लिए पर्यावरण मंत्रालय ने 1987 में, योजना आयोग ने 1988 में एवं ईएसजी की बैठकों में 1988 से 2005 के बीच अलग अलग दिशा निर्देश तय किए गए थे। इन्हीं के आधार पर लाभ क्षेत्र के विकास की योजना का क्रियान्वयन एवं सिंचाई का पर्यावरण पर पडने वाले असरों की निगरानी सुनिश्चित की जानी चाहिए। प्रारम्भ में गुजरात द्वारा 21.24 लाख हैक्टेयर को सिंचाई के लिए चुना था, जबकि राजस्थान ने 75,000 हैक्टेअर और मध्य प्रदेश में 1.23 लाख हैक्टेअर क्षेत्र को सिंचाई के लिए चुना गया था। परियोजना की मंजूरी के शर्तों के अनुसार पर्यावरणीय कार्य योजना नहर निर्माण के पहले तैयार हो जाना चाहिए और उसका क्रियान्वयन सिंचाई शुरू करने से पहले हो जाना चाहिए। लेकिन दोनों ही परियोजनाओं में किसी भी राज्य में ऐसा नहीं हुआ है।गुजरात में अब तक ड्रेनेज योजना तैयार नहीं हुआ है जबकि पहले चरण के नहर निर्माण का काम पूरा हो गया है और सन 2003 में ही अनियोजित सिंचाई का काम शुरू हो चुका है। पहले चरण में 52 ब्लॉकों में माइक्रो लेवल की योजना तैयार होनी चाहिए थी जबकि अब तक केवल 5 ब्लॉकों के लिए ही योजना तैयार हो सकी है। राजस्थान में भी पर्यावरणीय कार्य योजना को अंतिम रूप नहीं दिया गया है, जबकि नहर के निर्माण का काम लगभग पूरा हो गया है और सन 2008 से सिंचाई शुरू भी हो चुकी है। इसी तरह मध्य प्रदेश में अक्तूबर 2009 में पर्यावरणीय कार्य योजना का मसौदा तैयार हुआ है जबकि सन 2007 से ही अनियोजत सिंचाई चालू है। इस तरह स्पष्ट है कि तीनों राज्यों ने पर्यावरणीय कार्य योजना के शर्तों का उल्लंघन किया है।वन भूमि का पूरी तरह हस्तांतरणक्षतिपूरक वनीकरण के मामले में तीनो राज्यों ने शर्तों का घोर उल्लंघन किया है। सरदार सरोवर परियोजना में 13,386 हैक्टेयर वनभूमि डूब के अंतर्गत और 42 हैक्टेयर वनभूमि पुनर्वास के लिए हस्तांतरण किया गया था। जबकि इंदिरा सागर परियोजना के लिए 41,112 हैक्टेयर वनभूमि डूब के अंतर्गत हस्तांतरित हुआ। वन संरक्षण अधिनियम 1980 के अनुसार इन जमीनों के हस्तांतरण के लिए क्षतिपूरक वनीकरण कानूनी रूप से बाध्यकारी है। समिति ने पाया कि तीनों राज्यों ने वन भूमि का पूरी तरह हस्तांतरण कर लिया। गुजरात ने क्षतिपूरक वनीकरण के लिए अंतिम अधिसूचना अभी तक जारी नहीं किया है जबकि मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र ने करीब 90 प्रतिशत के लिए ही अधिसूचना जारी किया है। इसके अलावा समिति का सुझाव है कि, Óन तो एसएसपी में और न आईएसपी में आगे जलाशय को तब तक नहीं भरा जाय जब तक कि एसएसपी और आईएसपी दोनों के जलग्रहण क्षेत्र का पूरी तरह उपचार न हो जाय और जीव व जंतुओं के संरक्षण के लिए मास्टर प्लान तैयार करने एवं वन्य जीव अभयारण्य तैयार करने सहित बची हुई सारी आवश्यकताएं पूरी न हो जाएं। नहर के नेटवर्क निर्माण का काम और आगे न किया जाय और यहां तक कि मौजूदा नेटवर्क से भी सिंचाई की अनुमति तब तक न दी जाय जब तक कि जल प्रबंधन के अलावा लाभ क्षेत्र के विभिन्न पर्यावरणीय मानदंडों का पालन साथ साथ न हो।[बिच्छू डॉट कॉम से ]