डीएवीपी नयी विज्ञापन नीति/ न लोकतंत्र की चिंता न राष्ट्रवादी सोच
डीएवीपी नयी विज्ञापन नीति

ओंकारेश्वर पांडेय

डीएवीपी ने अपनी नयी विज्ञापन नीति में हाल में कुछ संशोधन तो कर दिया है। लेकिन इसके बावजूद देश के हजारों छोटे और मझोले अखबार आंदोलन की राह पर हैं।  इन अखबारों से सीधे व परोक्ष रूप से जुड़े लाखों लोगों के सामने रोजी रोटी का संकट पैदा हो गया है।  देश भर में छोटे और मझोले अखबारों से जुड़े मालिक, संपादक व पत्रकार 'अखबार बचाओ - लोकतंत्र बचाओ' आंदोलन चला रहे हैं. कहा जा रहा है कि ये नीति देश में प्रिंट मीडिया खासकर छोटे-मझोले अखबारों का सफाया कर देगी।  आखिर इसका सच क्या है - यह जानने के लिए डीएवीपी की विज्ञापन नीति और उसके पीछे की मंशा को समझना होगा। 

डीएवीपी की नयी नीति क्यों बनी

कहते हैं कि यूपीए सरकार के शासनकाल से ही केन्द्र सरकार को यह शिकायतें मिल रही थीं कि डीएवीपी - प्रिंट मीडिया के लोग मिलकर भ्रष्टाचार कर रहे हैं। कम प्रसार वाले अखबार ज्यादा प्रसार संख्या दिखाकर और कई तो नियमित अखबार छापे बिना भी विज्ञापन ले लेते हैं और जाहिर है कि ऐसे अखबारों को विज्ञापन बिना डीएवीपी के अधिकारियों की मिलीभगत के हो नहीं सकता, लिहाजा वे भी शक के दायरे में आ गये।  सरकार ने जब अंदरूनी सर्वेक्षण कराया तो ऐसे भी तमाम मामले सामने आये जिसमें डीएवीपी से जुड़े कर्मियों के परिजनों द्वारा भी अनेक अखबार नाम मात्र को चलाने और खूब विज्ञापन वसूलने के उदाहरण सामने आये।  यानी भ्रष्टाचार बाहर और भीतर दोनों जगह था।  उधर छोटे व मझोले अखबारों को हमेशा से शिकायत रही है कि सरकार उन्हें समुचित विज्ञापन नहीं देती, और डीएवीपी से विज्ञापन तो बिना मिली भगत के मिल ही नहीं सकता।  ये आरोप बहुत हद तक सही भी रहा है।  यहां तक कि बड़े बड़े अखबारों के मीडिया मैनेजर भी डीएवीपी में लॉबिंग करते रहे हैं  और अगर आपने ज्यादा सवाल किये तो आपके अखबार को विज्ञापन मिलना बंद ही समझो।  तो ऐसे हालात में सूचना प्रसारण मंत्रालय में डीएवीपी के विज्ञापनों को जारी करने के लिए ऐसी नीति बनाने की कवायद शुरु हुई, जिसमें ज्यादा से ज्यादा पारदर्शिता हो, जिम्मेवारी हो, प्रोफेशनलिज़्म हो और भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही कम हो। 

डीएवीपी की नयी नीति - प्वाइंट सिस्टम

और तब मंत्रालय के बड़े बड़े अफसरों ने माथापच्ची कर एक नया फार्मूला निकाला, प्वाइंट सिस्टम का. 7 जून 2016 को डीएवीपी ने एक पत्र जारी कर कहा कि अब 25 हजार प्रतियों से ज्यादा प्रसार संख्या बताने वाले समाचार पत्रों को तभी विज्ञापन मिलेंगे, जब उनके पास एबीसी और आरएनआई का प्रमाण पत्र हो।  इसके लिए 25 अंक रखे गए।  इसी तरह कुल 100 अंकों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया गया है और न्यूनतम अनिवार्य 45 अंक प्राप्त करने वाले को ही विज्ञापन देना तय कर दिया गया है - 

(1) आरएनआई/एबीसी सर्कुलेशन सर्टीफिकेट होने पर 25 अंक

(2) ईपीएफ कटता है तो 20 अंक प्रति कर्मचारी एक अंक के हिसाब से

(3) अपनी प्रिटिंग मशीन है तो 10 अंक

(4) समाचार एजेंसी की सेवा है तो 15 अंक

(5) प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की लेवी फीस जमा की है तो 10 अंक

(6) समाचार पत्र की पेज संख्या के आधार पर 20 अंक

(अगर आपका अखबार 8 पेज का है, तो 12 अंक, 10 पेज का है तो 14 अंक, 12 पेज पर 16 अंक, 14 पेज पर 18 और 16 पेज अथवा इससे ज्यादा होने पर पूरे 20 अंक मिलेंगे )

मुझे लगता है कि अखबारों-पत्रकारों में इस नयी नीति को लेकर देशव्यापी स्तर पर भय व्यप्त हो गया है। सोशल मीडिया और व्हाट्सअप पर सैकड़ों समूहों में इस पर दिन रात चल रही चर्चा से साफ है कि प्रिंट मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अस्तित्व के संकट से गुजर रहा है और उनके अंदर सरकार की नयी नीति को लेकर गंभीर आक्रोश भरा हुआ है।  अखबारों के दर्जनों संगठनों ने प्रधानमंत्री से लेकर विभिन्न केन्द्रीय मंत्रियों को पत्र लिखे और जन प्रतिनिधियों से लिखवाकर दिये भी हैं।  पर सरकार ने मामूली संशोधन कर चुप्पी साध ली है। 

चूंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं देश में भ्रष्टाचार समाप्त करने का नारा देकर सरकार में आये हैं, इसलिए हर विभाग भ्रष्टाचार मिटाने के लिए अपने अपने तरीके से कदम उठाने में लगा है।  उठाना भी चाहिए - मीडिया भ्रष्टाचार से मुक्त रहे, ये देश के लोकतंत्र के लिए जरूरी है।  पर साथ ही जरूरी ये भी है कि देश में मीडिया रहे, ताकि लोकतंत्र बचा रहे।  अगर मीडिया में भ्रष्टाचार हुआ तो लोकतंत्र प्रभावित होगा।  मीडिया में पारदर्शिता, व्यावसायिकता और जिम्मेवारी का होना तो आवश्यक है ही, सकारात्मकता भी हो और राष्ट्रीयता की भावना भी हो जो कि सौभाग्य से भारतीय प्रेस में आजादी के पहले से रही है।  कहने की आवश्यकता नहीं कि देश की आजादी की लड़ाई से लेकर आज उच्चतम स्तर तक भ्रष्टाचार को उजागर करने और लोकतंत्र को मजबूत बनाये रखने में इसी मीडिया की भूमिका रही है।  इसलिए हर हाल में मीडिया को बचाना और इसे आगे बढ़ाना भी देश और समाज की जिम्मेवारी है। 

तो डीएवीपी की नयी विज्ञापन नीति पर बिंदुवार बात कर लें

(1) प्रसार संख्या के आधार पर विज्ञापन देने की अवधारणा ही आज के डिजिटल युग में सही नहीं है. प्रिंट में छपे अखबार और उसके समाचार आज डिजिटल के माध्यम से पूरी दुनिया में पहुंच जाते हैं।  इसलिए प्रसार संख्या को आधार बनाना ही गलत है।  इसपर नये सिरे से विचार करना चाहिए। वेब संस्करणों पर आकर अखबार सोशल मीडिया और व्हाट्सअप जैसे माध्यमों से कहां कहां नहीं पहुंच रहे।  सरकार को इस बारे में पुनर्विचार करना चाहिए।  

अभी तक आरएनआई और एबीसी सर्टीफिकेट की मांग 75000 से ज्यादा प्रसार संख्या वाले अखबारों से की जाती थी, जिसे नयी नीति में घटाकर अब 45000 कर दिया है। हुजूर, तो क्या आप ये कह रहे हैं कि 45000 तक फर्जीवाड़ा मान्य है, उससे ज्यादा करोगे तो नहीं मानेंगे?? क्योंकि अगर सीए सर्टिफिकेट गलत है तो 45 हजार तक भी मत मानिये।  वैसे प्रसार तो सर्वाधिक मनोहर कहानियां जैसी पत्रिकाओं का होता है।  डिजिटल पर सर्वाधिक हिट्स पोर्न साइट्स के हैं, तो डीएवीपी उनको ज्यादा विज्ञापन देगी? क्या सरकार की निगाह में कंटेंट का कोई मूल्य नहीं?

डीएवीपी ने प्रसार संख्या में नये नियम को तुरंत लागू करने का आदेश भी दे दिया है।  क्या एबीसी और आरएनआई इतनी बड़ी संख्या में इतनी जल्दी अखबारों के प्रसार का वेरीफिकेशन करने में सक्षम हैं? सच तो ये है कि आरएनआई अभी सर्कुलेशन सार्टिफिकेट जारी ही नहीं कर रही है। और आरएनआई उन्हीं अखबारों के प्रसार की जांच को वरीयता देती है। जिनके पास स्वयं का प्रिंटिंग प्रेस हो। 

(2) ईपीएफ - कर्मचारियों के भविष्य निधि को प्वाइंट सिस्टम में लाने का फैसला निस्संदेह पत्रकारों के हित में है।  इसका पालन होना चाहिए. लेकिन ये भी सच है कि बड़ी संख्या में छोटे-मझोले समाचार पत्रों के पास इतने कर्मचारी नहीं होते जो ईपीएफ खाता संख्या प्राप्त कर सकें। आज खर्च बचाने के लिए लोग मल्टी टास्किंग कर रहे हैं।  क्या ऐसा करना गलत है? लघु या मझोले समाचार पत्र लगभग 7-8 कर्मचारियों से प्रकाशित हो जाते हैं। जबकि ईपीएफ के लिए सामान्यतया 10 कर्मचारी अनिवार्य होते हैं।

(3) अपनी प्रिटिंग मशीन रखना कौन अखबार वाला नहीं चाहेगा? लेकिन एक तरफ तो सरकार कह रही है कि वह पत्र-पत्रिकाओं के पंजीयन में उनको वरीयता देगी, जिनके पास पत्रकारिता का अनुभव और प्रमाण हो और दूसरी तरफ आप कह रहे हैं कि आप इतने धनी भी हों कि अपना प्रिंटिंग प्रेस रख सकें।  प्रेस लगाना करोड़ों का प्रोजेक्ट है, जो हर समाचार पत्र मालिक के सामर्थ्य के बाहर की बात है? छोटे अखबार जो घंटे या तीन चार घंटे में छप जाते हैं, उनके लिए करोड़ों का प्रेस लगाने की परोक्ष अनिवार्यता उनको हतोत्साहित करना ही तो है।  यह नियम तो पेशेवर पत्रकारों का मीडिया मालिक बनने का रास्ता ही बंद कर देगा।  फिर आप क्यों कहते हैं कि बिल्डर माफिया आदि आदि मीडिया में आ रहे हैं। 

(4) पहले डीएवीपी ने महज तीन समाचार एजेन्सियों में से किसी एक की सेवा लेना अनिवार्य किया था, जो अब पीआईबी से मान्यता प्राप्त किसी भी एजेंसी से लेने की अनुमति दे दी गयी है।  इसके पीछे सरकार की मंशा ये है कि लोग मूल स्रोतों से खबरें लें।  मंशा ठीक है।  पर क्या सरकार को पता है कि खबरों के मामले में पीटीआई-यूएनआई को छोड़ बड़ी बड़ी एजेंसियों का क्या हाल है ? और अगर अखबार अपने संवाददाताओं से काम चला रहे हों, उनको वेतन दे रहे हों और ज्यादातर क्षेत्रीय समाचारों का प्रकाशन करते हों तो यह अनिवार्यता कहां तक उचित है? 

आज मीडिया प्रधानमंत्री की खबरें भी उनके ट्वीट से लेते हैं, दुनिया भर के तमाम अखबारों से लेकर टीवी चैनल भी गूगल से खबरें लेते हैं, पर आप कह रहे कि एजेंसी से लो - क्यों भई? आजकल पीआईबी, डीआईपीआर पीआर व स्थानीय निकाय समाचार पत्रों को नियमित व दैनिक नि:शुल्क समाचार वेबसाइट पर फोटो समेत उपलब्ध कराते हैं या ईमेल से भेजते हैं जो काफी होता है। 

(5) डीएवीपी की नीति के अनुसार प्रिंटिंग एरिया न्यूनतम 7600 सेमी होनी चाहिए। नई नीति में 8 कम पृष्ठ संख्या वाले अखबारों को शून्य अंक दिया गया है। ये हास्यास्पद नीति है।  कम पृष्ठ वाले अखबार भी बेहतर अखबार हो सकते हैं और ज्यादा पृष्ठ वाले भी बेकार।  फिर तो कम पृष्ठों वाले अखबारों को डीएवीपी के पैनल में ही न रखें। 

वास्तव में डीएवीपी की नयी नीति के अनेक बिंदु न सिर्फ लघु व मझोले अखबारों के लिए घोर अन्यायपूर्ण व असंगत हैं, बल्कि लोकतंत्र व भारतीय संविधान की उस मूल भावना के विपरीत हैं, जिसके तहत सरकार सबसे पिछली कतार में खड़े व्यक्ति को लाभ पहुंचाने की घोषणा करती है और तदनुरूप सारी नीतियां बनाती है।  यह नीति तो स्पष्टतया बड़े यानी अमीर अखबारों को अतिरिक्त लाभ पहुंचाने वाली है और छोटे-मझोले अखबारों को समाप्त कर देने वाली।  इस नीति से तो देश में पेड-न्यूज जैसी बीमारियां और फैलेंगी। 

सरकार कहती है कि देश का विकास गांवों के विकास से होगा।  और मीडिया के मामले में सरकार चाहती है कि गांवों-कस्बों और छोटे शहरों का मीडिया बंद हो।  क्या इससे देश में चल रहे हजारों मीडिया प्रशिक्षण संस्थानों के सामने भी बंदी के हालात नहीं पैदा होंगे? सरकार की मौजूदा नीति में 50 फीसदी विज्ञापन बड़े अखबारों को दिया जाएगा।  उसके बाद उन्हें अलग अलग पृष्ठों पर प्रीमियम भी दिया जाएगा।  तो छोटे अखबारों के लिए प्रैक्टिकली कितना बजट बचेगा।  ध्यान रहे कि डीएवीपी की इस नीति से जब छोटे अखबारों को सरकारी विज्ञापन मिलने बंद हो जाएगे तो वे निजी विज्ञापनों के भरोसे रह जाएंगे।  ऐसे में क्या ऐसे छोटे अखबार पेड न्यूज जैसे रास्ते अपनाने को मजबूर नहीं होंगे ? तो क्या एक तरह से सरकार छोटे अखबारों को पेड न्यूज जैसे अनैतिक रास्ते अपनाने को परोक्ष रूप से प्रोत्साहित नहीं कर रही?

इस नीति की सबसे बड़ी खामी ये है कि इसमें न तो अखबार की कंटेंट क्वालिटी का ध्यान है और न ही सकारात्मक पत्रकारिता का।  एक तरफ जहां संघ, भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश में राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाने की बात कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर यूपीए सरकार के काल में बनी ये विज्ञापन नीति मोदी सरकार की जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रही है।  विरोधियों ने मोदी की काट के लिए मोदी की भ्रष्टाचार विरोधी नीति का ही इस्तेमाल करना शुरु कर दिया है।  भ्रष्टाचार खत्म करना है तो डीएवीपी के पैनल में आ चुके हर अखबार को हर माह अनिवार्य रूप से मिलने वाले विज्ञापनों की संख्या टांग दीजिये।  या स्वयं ये जांच कर लें कि किसी को कम किसी को ज्यादा अखबार क्यों मिलते हैं।  मोदी सरकार ने स्टार्ट अप इंडिया से लेकर तमाम योजनाएं युवाओं, महिलाओं और नये उद्यमियों के लिए बनायी हैं, पर देश में लोकतंत्र की रक्षा करने वाले सर्वाधिक रिस्क उठाकर भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वाले और देश में जागरूकता फैलाने में अहम योगदान देने वाले मीडिया के लिए प्रोत्साहन की बजाय ये घातक योजना क्यों ? अगर भ्रष्टाचार है तो वह संसद में भी है, तो क्या संसद को ही खत्म कर दिया जाय?

Dakhal News 27 September 2016

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