लोकपाल मामला: लोकसभा में राहुल और राज्यसभा में सोनिया हारीं
सुरेश शर्मा याद करिये आपातकाल के पहले के राजनीतिक लम्हों को, देश ने सबसे ताकतवर नेता श्रीमती इंदिरा गांधी को चुनाव में पराजित कर दिया था। उन्होंने आपातकाल लगा कर देश को छलने का प्रयास किया। सभी विरोधी नेताओं को मीसा में निरूद्ध कर दिया था। वे हार को नहीं पचा पाईं थीं। देश उनके ईशारे पर चलता था तो उनको दंभ होना स्वभाविक था। लेकिन देश ने उनके दंभ को मिटा दिया और उन्हें 1977 की आंधी में तिनके की तरह उड़ा दिया था। आज न तो श्रीमती इंदिरा गांधी की तरह देश में स्वीकार्य कांग्रेस का नेतृत्व है और न ही सोनिया-राहुल में वह सब प्रतिभा। सरकार सहयोगियों के रहमोकरम पर चल रही है और लोकपाल मामले में देश कांग्रेस के खिलाफ खड़ा हुआ है। ऐसे में जो ड्रामा कांग्रेस ने खेला है उससे न केवल पार्टी व सरकार की किरकिरी हुई है बल्कि लोकसभा में पार्टी के युवराज हारे हैं और राज्यसभा में पार्टी सुप्रीमों। हिन्दूस्तान वह देश है जिसकी प्रज्ञा में ज्ञान का संचार होता है। गांव में काम करने वाला मजदूर हो या अन्न्दाता किसान, सब समझता है। वह न बोले तो क्या है जब उसे कहना होता है मतपेटियों में उसका जवाब मिल जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी के काम की कौन तारीफ नहीं करता लेकिन प्रमोद महाजन और उन सरीखे नेताओं के कारण चुनाव परिणाम वे आये जिनके बारे में भाजपा सोचती भी नहीं थी। जब अटल जी का नाम दूर करके लालकृष्ण आडवानी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचना चाहते थे तो किसी की भी कल्पना में यह नहीं था कि सत्ता से वे इतने दूर हो जायेंगे। तो कांग्रेस किस भाव से यह मुगालता पाल रही है कि वह अन्ना को धोखा देकर देश को भी गुमराह कर देगी। देश की जनता महंगाई और भ्रष्टाचार से कहार रही है। मनमोहन सरकार लाचार होकर आये दिन पेट्रोल के भावों को बढ़ाने की स्वीकृति दे देती है। क्या तेल कंपनियों की मनमानी पर केन्द्र सरकार पल्ला झाड़ सकती है? नहीं। क्या ए. राजा और कलमाड़ी के भ्रष्ट खेल से केन्द्र सरकार पल्ला झाड़ सकने की स्थिति में है? नहीं? क्या भ्रष्टाचार और काले धन को लेकर आन्दोलन करने वाले बाबा रामदेव पर रात के अंधेरे में लाठियां भांजने के अपराध से केन्द्र सरकार पिंड छुड़ा सकती है? और देश से भ्रष्टाचार मिटाने के लिये लोकपाल बनाने का आग्रह, आन्दोलन और व्यापक विरोध करने वाले अन्ना को गुमराह, अपमानित और धमकाने के कारनामें से केन्द्र सरकार और कांग्रेस पार्टी अपने आपको जनता की अदालत में बरी करवा सकती है? जवाब फिर आयेगा नहीं? सभी समझते हैं कि श्री मनमोहन सिंह को श्री प्रणव मुखर्जी की बजाये प्रधानमंत्री बनाने का श्रीमती सोनिया गांधी का निर्णय कोई देशहित को ध्यान में रख कर लिया गया निर्णय था? नहीं। परिवार हित को ध्यान में रखकर लिया गया निर्णय था। आज सबके सामने है। बाबा रामदेव को जिस तरह से काले धन की मांग करने पर रातों रात खदेड़ा गया वह अंग्रजों के जमाने की याद दिलाता है। लेकिन अन्ना हजारे के द्वारा लोकपाल बिल बनाये जाने की मांग पर अनशन करने का उपचार जिस प्रकार किया गया और बाद उन्हें धोखा दिया गया और देश को गुमराह किया गया वह भी अपने आप में देश को पीछे धकेलने के बराबर है। संसद सर्वोपरी है यह सवाल उठाने का क्या औचित्य है? कब अन्ना हजारे ने कहा कि उनका बिल पारित घोषित किया जाता है। सब जानते हैं जब तक लोकसभा अध्यक्ष हां की जीत हुई हां की जीत हुई विधेयक पारित हुआ नहीं कह देते हैं कोई कितना भी कहता रहे कानून नहीं बनता है। लेकिन सब अन्ना को गलत और संसद को कमजोर करने वाला बताते रहे। अब सवाल यह उठता है कि कांग्रेस के युवराज और सरकार के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी का लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने का ऐलान सरकार की प्राथमिकता में कहां था? क्यों राहुल गांधी को संसद में कांग्रेसियों ने हराया। जब सरकार की संविधान संशोधन करने की स्थिति नहीं थी तो सहयोगी दलों या लोकपाल चाहने वाले दलों को साथ लेने का प्रयास क्यों नहीं किया गया? कानून का मसौदा देशहित में बनाने की बजाये अपराधियों के हित में बनाने का प्रयास सरकार की ओर से क्यों किया गया? यही कारण था कि कानून बनाने का बहुमत सरकार के पास था तो उसे पास करा लिया गया लेकिन संवैधानिक दर्जा देने के मामले में सरकार का साथ देने के लिये साथ मलाई चाटने वाले भी नहीं आये। सरकार चलाने वाले अन्ना को सबक सिखाने की आड़ में राहुल गांधी की किरकिरी करवा बैठे। राहुल गांधी यूपी में बता रहे हैं कि दर्जा क्यों नहीं मिला। बूते से ज्यादा वजन उठाने का प्रयास किया और सरकार बेनकाब हो गई। कांग्रेसी यही नहीं संभल पाये और राज्यसभा में पार्टी सुप्रीमों की भी किरकिरी करवा बैठे। स्पीकर चाहे तो संशोधनों पर एक साथ मत ले सकते हैं। पहले तो राज्यसभा में एक दिन बिगाड़ा गया और बाद में मतदान कराने से भागने का प्रयास किया गया। इस घटनाक्रम में कांग्रेस सोनिया गांधी की लाज नहीं बचा पाई यह तो एक पक्ष है ही लेकिन दूसरा खतरनाक पक्ष और भी है जो दिखाई दे रहा है लेकिन कहा कम जा रहा है। उप राष्ट्रपति राज्यसभा के सभापति होते हैं। उनकी लोकपाल बिल पर कर्यप्रणाली सवालों के घेरे में आती दिखाई दे रही है। वे सरकार को बचाने के लिये रास्ता निकालें यह तो समझ में आता है लेकिन बिना किसी कारण सदन का समय बर्वाद कर दें और बाद में मतदान कराने की बजाये सदन को अनिश्चित काल के लिये स्थगित कर दें यह देश के साथ न्याय नहीं है। हमारे सामने गंभीर सवाल इस लोकपाल बिल ने छोड़ दिये हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि क्या राज्यसभा रात के 12 बजे के बाद नहीं चल सकती थी? चल सकती थी क्योंकि संसद लगातार चल रही है और सदन की सहमति से उसे चलाया जा सकता था। राष्ट्रपति की अधिसूचना का उल्लंधन उस स्थिति में होता जब सदन को स्थगित कर दिया जाता। हमने देखा है कि पीठासीन अधिकारी अनेकों बार यह कहता है कि बिल पर चर्चा होने तक सदन के समय में बढ़ोतरी की जाती है मैं समझता हूं कि सदन इससे सहमत है। ऐसे में देश को गुमराह मत करिये। दूसरी बात यह है कि अब इस बिल का स्टेटस क्या है? बिल मरा नहीं है और न ही लेप्स हुआ है। इस बिल पर चर्चा जारी है और जब फिर से सदन समवेत होगा इसी बिल पर चर्चा की जा सकती है। सरकार की सबसे बड़ी लापरवाही यह है कि जब लोकसभा में संविधान संशोधन करने लायक बहुमत नहीं है और राज्यसभा में साधारण बहुमत ही नहीं है तो सभी दलों खास कर सहयोगी दलों के साथ मिलकर देशहित का कानून बनाने की बजाये राजनीतिक हेकड़ी दिखाने की क्या जरूरत थी? देश के सामने यह सरकार भ्रष्टों और कालेधन वालों की पैरोकार के रूप में अधिक दिखी देशभक्तों के साथ खड़ी कम। केन्द्र सरकार ने संसद को गुमराह, अन्ना हजारे को अपमानित और देश को धोखा देने का प्रयास किया है। तो यह नहीं मानना चाहिये कि देश की जनता को जवाब देना नहीं आता है वह अपना मानस बना चुकी है परिणाम आने दीजिये।(दखल)