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21 November 2024गिरीश उपाध्याय
पिछले एक सप्ताह के दौरान मुझे मीडिया से जुड़े दो कार्यक्रमों में जाने और वहां बोलने का मौका मिला। पहला कार्यक्रम इंडियन मीडिया सेंटर के भोपाल चैप्टर का था और उसका विषय था- ‘’भारत की संचार एवं मीडिया नीति: मुद्दे एवं सुझाव’’। मेरी आदत है कि ऐसे कार्यक्रमों में, जिनमें भागीदारी करनी हो,जाने से पहले नई पुरानी चीजों को टटोल लेता हूं। इससे विषय को ठीक से समझने में भी आसानी होती है और बात करने में भी। तो मैंने यूं ही गूगल पर तीन शब्द एक साथ सर्च कर डाले इंडिया, मीडिया और पॉलिसी… इसके जवाब में गूगल ने एक बहुत दिलचस्प दस्तावेज मेरे सामने प्रस्तुत किया।
यह दस्तावेज अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी द्वारा 1998 में लड़े गए लोकसभा चुनाव के दौरान जनता के सामने रखे गए चुनाव घोषणा पत्र का वह हिस्सा था जिसमें भाजपा ने मीडिया, सिनेमा और आर्ट्स पर नीति संबंधी विचार रखे थे। दस्तावेज के अनुसार भाजपा ने वादा किया था कि उसका विश्वास ऋग्वेद की उस ऋचा पर है जो कहती है ‘’आनो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:’’ अर्थात विश्व के समस्त कल्याणकारी विचार, सभी दिशाओं से हमारे पास आएं।
वास्तव में ऋग्वेद की यह ऋचा किसी भी संचार या मीडिया नीति का सशक्त एवं तार्किक आधार हो सकती है। क्योंकि अंतत: मीडिया और संचार का उद्देश्य विश्व का, समाज का और व्यक्ति का कल्याण ही तो है।
भाजपा के इसी दस्तावेज में ऋग्वेद की इस ऋचा के आगे गांधी जी को भी उद्धृत करते हुए कहा गया था कि- ‘’हम अपनी सारी खिड़कियां खोलकर रखें ताकि वहां से ताजी हवा हम तक आ सके, लेकिन इसके साथ ही हम अपनी दीवारों को भी पुख्ता बनाएं, ताकि किसी भी आंधी में हमारे पैर न उखड़ जाएं…’’ उस समय भाजपा ने वादा किया था कि मीडिया से व्यवहार करते समय उसके लिए ये ही दो बातें मार्गदर्शी सिद्धांत की तरह होंगी।
यह बात अलग है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़े गए 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में मीडिया की नीति आदि को लेकर ऐसी कोई स्पष्ट बात नहीं कही थी।
लेकिन संयोगवश हाथ लगा, देश में सत्तारूढ़ दल की मीडिया नीति या मीडिया से रिश्तों का स्वरूप बताने वाला यह पुराना दस्तावेज, आज कई सवाल, तर्क,विश्लेषण आदि के लिए उकसाता है। ‘कथनी और करनी’ को लेकर अच्छी खासी वाद विवाद प्रतियोगिता हो सकती है। अस्तु, ज्यादा पचड़े में न पड़ते हुए, मैं इस संबंध में सारा निर्णय अपने पाठकों पर छोड़ते हुए, अपनी बात को आगे बढ़ाता हूं…
निश्चित रूप से किसी कल्याणकारी राज्य के लिए उसकी प्रथम और अंतिम नीति ‘जन कल्याण’ ही होना चाहिए। इस भावना को, महात्मा गांधी और भाजपा के ‘विचार पुरुष’ दीनदयाल उपाध्याय दोनों ने, अपनी अपनी भाषा में सर्वहारा से लेकर अंत्योदय और सीमांत से लेकर सर्वोदय जैसे शब्दों में परिभाषित किया है। और इसी अंत्योदय या सर्वोदय का बीजमंत्र है ‘लोक कल्याण’।
लेकिन क्या आज मीडिया अथवा सरकार के केंद्र में यह‘कल्याण’ शब्द प्रतिष्ठित हुआ नजर आता है? हां, यह शब्द मौजूद जरूर है, लेकिन वह परमार्थ के अर्थों में नहीं, बल्कि स्वार्थ के अर्थ में। कल्याण अर्थात् मेरा कल्याण, मेरे परिवार का कल्याण, ज्यादा हुआ तो मेरी पार्टी का कल्याण या फिर मेरी सरकार का कल्याण। उसी तरह मीडिया में भी मेरे अखबार का कल्याण, मेरे अखबार की आड़ में चलने वाले मेरे समस्त उद्योग धंधों का कल्याण, मेरी सात पीढि़यों का कल्याण आदि…
ऐसे में आप किसी सुविचारित या सुसंगत मीडिया नीति का निर्माण करना तो दूर, उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। जिस तरह यह ‘गुड गवर्नेंस’ यानी सुशासन का नहीं, बल्कि ‘स्पॉन्सर्ड गवर्नेंस’ यानी प्रायोजित शासन का जमाना है, उसी तरह मीडिया में यह ‘क्रॉस सोसायटी वेलफेयर’ का नहीं बल्कि‘क्रॉसमीडिया ऑनरशिप’यानी मीडिया व संचार के समस्त उपक्रमों को चंद मुट्ठियों में दबा लिए जाने का समय है।
ऐसे कठिन समय में अव्वल तो नीति बनाएगा ही कौन? और यदि कोई मजबूरी हुई भी, तो वे कौन लोग होंगे जो उसे बनाएंगे और वे कौनसे हाथ होंगे जो उस नीति का संचालन या क्रियान्वयन करेंगे? आज मीडिया/संचार का क्षेत्र गुणी और अवगुणी के पालों में नहीं बल्कि बड़े और छोटे, अथवा समर्थ और असमर्थ मीडिया में तब्दील हो गया है। जो बात 18 साल पहले भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में ऋग्वेद की ऋचा या गांधीजी के हवाले से कही गई थी, वैसी स्थितियां दूर दूर तक दिखाई नहीं देतीं।
आज की स्थितियां चारों दिशाओं से कल्याणकारी विचारों के आगमन की नहीं, बल्कि एक चुनिंदा दिशा से, सिर्फ स्वयं के कल्याण की धारा के प्रवाह की हैं। आज का चलन, ताजी हवा के लिए खिड़कियां खोलने का नहीं, बल्कि उन्हें बंद रखने का है, ताकि कमरे में हवा का कतरा तक न पहुंच सके। यह ‘सिंगल विंडो’ का जमाना है…, और यह एकल खिड़की, सारे काम एक ही जगह से संपन्न करने के इरादे से नहीं, बल्कि सारी शक्तियां एक ही जगह केंद्रित रखने के लिए बनाई गई है। लिहाजा मीडिया नीति के निर्माण का मसला बहुत पेचीदा भी है और संवेदनशील भी…।
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26 December 2016
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