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21 November 2024सारे दौलतमंद पत्रकार आज दहाड़ें मारकर रो रहे हैं। राजदीप सरदेसाई। सागरिका घोष। कमर वाहिद नक़वी। रवीश कुमार उर्फ रवीश पांडे। ओम थानवी। इनमें से सबकी आमदनी 30 फीसदी की सर्वोच्च आयकर सीमा के पार है। क्या कभी आपने इन्हें किसी स्ट्रिंगर के निकाले जाने पर आंसू बहाते देखा है? कभी किसी आम पत्रकार के निकाले जाने पर इन्होंने छाती पीटी है?
जब IBN7 में करीब 300 पत्रकार एक झटके में निकाल दिए गए। उनके बच्चों की स्कूल फीस बंद हो गई। उनकी ईएमआई रुक गयी। उनकी बीबियां सोने चांदी की दुकानों पर अपने ब्याह के गहने गिरवी रखने की लाइन में लग गईं। तब क्या आपने इनमें से पत्रकारिता के एक भी कथित खुदा को अपने जमीर के सीने पर कान धरते देखा था? जब एनडीटीवी से सैकड़ों पत्रकार झींगुर और तिलचट्टों की तरह मुनाफे की गरम चिमटियों से पकड़कर फेंक दिए गए। तब क्या इस रवीश पांडे उर्फ रवीश कुमार नाम के गणेश शंकर विद्यार्थी के फूफा को उनके समर्थन में एक लफ्ज़ भी कहीं लिखते देखा था? ये सब उसके ही साथी थे। जिनकी मजबूरियों के मुर्दा जिस्म पर खड़ा होकर ये आदमी अपने मालिको को 21 तारीफों की सलामी ठोंक रहा था।
मगर आज इन सभी का चैन लुट गया है। नींद उड़ गई है।आज इनके कुछ दौलतमंद साथी निकाले गए हैं। जिनकी तनख्वाह का औसत 8 से 15 लाख महीना हुआ करता था। सो आज देश मे आपातकाल आ गया है। आज पत्रकारिता की दसवीं है और ये सब के सब बाल मुंडवाने की खातिर लाइन लगा चुके हैं। और तो और हमे पत्रकारिता की नैतिकता का प्रवचन भी दे रहे हैं। आदर्शों और सिद्धांतों की गीता पढ़ रहे हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने टीआरपी की खातिर हर कर्म- कुकर्म किए। बिना ड्राइवर की कार भी चलवाई और सांप-बिच्छु भी जमकर नचवाये। टीआरपी कम होने पर अपने अधीनस्थों की नौकरियां खाई। उनकी ज़िम्मेदारियाँ बदलीं। इस बीच ईएमआई पर जीने वाले आम पत्रकार कीड़े मकोड़ों की तरह मसले-पीसे जाते रहे। मगर पत्रकारिता की कायनात के ये स्वघोषित खुदा मोटी तनख्वाहों वाले थ्रीडी चश्मे लगा जमकर अट्टहास करते रहे।
आज यही फिक्रमंद हैं। आज ये डरे हुए हैं। ये अपने पूरे करियर टीआरपी के पीछे मजनुओं से नाचते रहे। टीआरपी लाने की खातिर “कुंजीलाल की मौत” का बेहूदा तमाशा दिखाते रहे। पर आज रिटायर होते ही ये “पत्रकारिता के रामप्रसाद बिस्मिल” बन चुके हैं। इनके दौलतमंद साथी इसी टीआरपी के कहर में मारे गए। अपनी निरी अयोग्यता और भीषण एजेंडेबाज़ी के चलते इनके कार्यक्रमों को दो कौड़ी की टीआरपी भी नही नसीब हो पाई और आखिरकार धक्के मारकर निकाले गए।
इन्हीं दौलतमंदों के निकाले जाने पर कुछ दौलतमंद इस कदर आंसू बहा रहे हैं कि दिल्ली में बाढ़ का खतरा बढ़ गया है। यमुना खतरे के निशान को पार कर गयी है। इस बीच यूपी के मऊ का स्ट्रिंगर खून के आंसू रो रहा है। उसे तनख्वाह तक नही मिलती और निकालने वाले निकालते वक़्त अपनी घड़ियों में वक़्त तक नही देखते। कभी कभी तो रात के 12 बजे भी फायर कर देते हैं। गुजरात के मोरबी का स्ट्रिंगर देर रात तक मोटरसाइकिल चलाने के बाद अगली सुबह के पेट्रोल की चिंता में अब भी जाग रहा है। ईएमआई के छोटे-छोटे क्वाटरों में सहमे सिकुड़े न जाने कितने पत्रकार, कभी जबरिया लिखवा लिए गए इस्तीफे को देखते हैं, तो कभी नन्ही बच्ची की डायरी में लिखी हुई स्कूल फीस की नोटिस को। उन्हें नींद नही आती है। वे जीते जी पागल हो जाते हैं। मगर सवाल वही है। उनके लिए कौन रोता है? ये पूंजीपतियों गिरोह है। ये सिर्फ पूंजीपतियों के लिए रोता है।
सरकार से लड़ना है तो प्रभाष जोशी बनना पड़ेगा। काली कमाई की मोटी तनख्वाहें लेने वाले। एक ईमानदार इनकम टैक्स कमिश्नर को लगभग 10 साल सस्पेंड रखवाने वाले। मैनेजिंग एडिटर की कुर्सी पर गिद्ध दृष्टि लगाकर पत्रकारिता के “अघोषित आपातकाल” का कलमा पढ़ने वाले भला क्या खाकर सरकार से लड़ेंगे! पुण्य प्रसून वाजपेयी, अभिसार शर्मा और रवीश कुमार उर्फ रवीश पांडे का निपट जाना तो प्राकृतिक न्याय है। ये सब इसी के काबिल हैं। जिनकी भी प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत में आस्था है, उनके लिए आज जश्न का दिन है। लीजिए एक सिरे से इन सारे धंधेबाजों के मूल चरित्र को पहचानिए और इस बात का शोक मनाइए कि आज प्रभाष जोशी नही हैं। उनकी जगह ये रंगे हुए…..हैं।
सबसे पहले अभिसार शर्मा। ये वो शख्स हैं जिनकी मोदी सरकार से सारी खुंदक ही इसी बात की है कि इनकी इनकम टैक्स कमिश्नर पत्नी के खिलाफ चल रही जांच अब अंजाम तक पहुंच रही है। ये ईमानदारी के पुतले महाशय जब एनडीटीवी में काम कर रहे थे, उसी वक़्त इनकी पत्नी की कलम से एनडीटीवी को करोड़ों के रिफंड मिल रहे थे। वो भी सारे नियम कानून को रसूख के बुलडोजरों से कुचलते हुए। बदले में एनडीटीवी की ओर से मिला सपरिवार यूरोप यात्रा का मलाईदार पैकेज। एनडीटीवी के खिलाफ राउंड ट्रिपिंग और मनी लॉन्ड्रिंग की जितनी भी शिकायतें आती रहीं, पति पत्नी पूरी तन्मयता से उन्हें किनारे सरकाते रहे और बदले में मोटी सैलरी और बड़ी गाड़ी वाली पत्रकारिता के वाटर कूलर से अपना अपना गला तर करते रहे।
इन लोगों के रसूख ने संजय श्रीवास्तव नाम के एक ईमानदार इनकम टैक्स कमिश्नर को यूपीए सरकार के 10 सालों में लगभग लगातार सस्पेंड कराकर रखा क्योंकि उसने इनकी सारी कारगुजारियों का कच्चा चिट्ठा खोल दिया था जो बाद की जांच में सही भी पाया गया। सोचिए, उन्हीं संजय श्रीवास्तव को एक निजी अस्पताल से झूठी रिपोर्ट तैयार कराकर पागल तक करार दिया गया। वो तो भला हो एम्स का जिसने उनका फिर से परीक्षण किया और उन्हें पूरी तरह नार्मल घोषित किया। संजय श्रीवास्तव आज फिर से नौकरी पर हैं। इस शख्स का धुर विरोधी भी इसकी ईमानदारी की मिसाल देता है। कभी उनसे मिलिएगा और पूछियेगा कि उनके परिवार ने गुज़रे 10 सालों में इस सफेदपोश एजेंडेबाज़ कथित पत्रकार के चलते क्या क्या नही झेला! फिर से सोचिए कि ये आदमी व्यवस्था से लड़ने और भगत सिंह का फूफा बनने की बात कर रहा है। चैनल के प्लेटफार्म पर अपनी निजी खुंदक निकालते रंगे हाथों पकड़े गए इस शख्स की कहानी किसी एबीपी न्यूज़ वाले की जुबानी सुन लीजियेगा। बड़ा रस आएगा।
अब पुण्य प्रसून वाजपेयी। इनकी भी तारीफ सुन लीजिए। ये इतने बड़े धंधेबाज पत्रकार हैं कि ज़ी न्यूज़ में रहते हुए अपने सम्पादक सुधीर चौधरी की गिरफ्तारी को पत्रकारिता का “अघोषित आपातकाल” बता रहे थे। उस वक़्त इनकी निगाह जनरल जिया उल हक की आंख की तरह जुल्फिकार अली भुट्टो की “कुर्सी” पर गड़ी हुई थी। लग रहा था कि अब मैनेजिंग एडिटर की कुर्सी अपने हाथ मे आई कि तब आई। मगर जैसे ही अंगूर खट्टे हैं का एहसास हुआ, ये सरकार क्रांतिकारी बन गए और इस्तीफा पटककर चलते बने। ये इतने बड़े सच्चाई और ईमानदारी के स्वघोषित हरिश्चंद्र हैं कि एडिटर इन चीफ बनने की हवस में देश के गरीब निवेशकों के हज़ारों करोड़ हड़पने के आरोपी सहारा के पैरों में पछाड़ खाकर गिर गए। वही सहारा ग्रुप जिसके गिरेबान पर सेबी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक की मार के निशान हैं। जिसकी कमाई के स्रोत पर देश की सर्वोच्च अदालत टिप्पणी कर चुकी है। उसी सहारा के दफ्तर में बैठकर ये अपने “पुण्य” की लालटेन में “पाप” का मिट्टी का तेल उड़ेल रहे थे। इनकी अयोग्यता का ये आलम है कि उस चैनल की रही सही रेटिंग भी डुबो आए और अपने बड़बोलेपन के चलते एक रोज़ धक्के मारकर निकाले गए।
एबीपी न्यूज़ में आते ही बड़े अहंकार के साथ सरकार ने दावा किया था कि अब हम आए हैं तो टीआरपी भी आएगी ही मगर इनका शो “मास्टर स्ट्रोक” टीआरपी को रेस में इस कदर फिसड्डी साबित हुआ कि अगर मोदी सरकार उसे संजीवनी न देती तो वो बहुत पहले ही बंद हो जाता। इस शो को जो भी फायदा हुआ वो इसके प्रसारण के दौरान इसके सिग्नल ब्रेक होने से मिली चर्चा से हुआ वरना इसे कब की फ़ालिज मार गयी थी। सोचिए, एक बेहद ही लिजलिजे, मैनेजिंग एडिटर बनने के नाम पर किसी भी चप्पल पर भहरा जाने वाले और चरम अहंकारी व्यक्ति को एक चैनल से उम्मीद थी कि वो उसे अपना व्यक्तिगत एजेंडा चलाने की फ्रेंचाइजी दे दे। ताकि वो एक रोज़ फिर प्रयोजित इंटरव्यू के तुरंत बाद “क्रांतिकारी, बहुत क्रांतिकारी” की सेटिंग करता पकड़ा जाए। ऐसे सेटिंगबाज़ नमूने भला क्या खाकर सरकार से लड़ेंगे! ये प्रभाष जोशी के पैर के नाखून की मैल भी नही हो सकते।
और आखिर में रवीश पांडेय उर्फ रवीश कुमार। वो आदमी जिसकी लाखों की तनख्वाह और शानदार गाड़ी का खर्चा एक ऐसे चैनल से आता है जो कांग्रेस के ज़माने से ही काली कमाई के एक नही अनेक मामलों में फंसा हुआ है। वो आदमी जो एक दलित लड़की की आबरू नोचने के आरोपी “बिहार कांग्रेस के पूर्व उपाध्यक्ष” अपने सगे भाई के खिलाफ एक लाइन तक अपने चैनल पे नही चलने देता है। वो भी तब जब इंडियन एक्सप्रेस से लेकर दैनिक जागरण और आजतक से लेकर एबीपी न्यूज़ तक हर अखबार और हर चैनल में इसके सगे आरोपी कांगेसी भाई की कहानियां छाई हुई थीं। जो अपने चैनल से भारी तदाद में गरीब मीडिया कर्मियों के बेदर्दी से निकाल दिए जाने पर आह तक नही करता और उल्टा सूट बूट नापते हुए दलितों और गरीबों की संवेदना बेचने का कारोबार करता है। सोचिए, ऐसे दोगली और दोहरी सोच के कारोबारी क्या खाकर सरकार से लड़ेंगे? बर्गर खाकर? या फिर पिज़्ज़ा?
हां, आज अगर प्रभाष जी होते तो सरकार और विपक्ष दोनों के झूठ की ईंट से ईंट बजा देते। उनका अपना कोई एजेंडा नही था। जो था वो पत्रकारिता का था। उनके भीतर वो नैतिक साहस था। सच्चाई की वो आग थी। ईमानदारी की वो छटपटाहट थी। ये बहुरुपिये और धंधेबाज भला क्या खाकर सरकार से लड़ेंगे! ये इस दुकान से उठेंगे तो उस दुकान पर गिरेंगे। आखिर में एक बार फिर से, आज प्रभाष जी होते तो सरकार और विपक्ष दोनों को मालूम पड़ जाता कि पत्रकारिता क्या होती है! [ पत्रकार अभिषेक उपाध्याय इंडिया टीवी में कार्यरत ,यह आलेख उनकी की एफबी वॉल से ]
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4 August 2018
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