प्रवीण दुबे
मैंने कभी अपनी दादी को नहीं देखा वो मेरे पैदा होने से पहले गुज़र गई थीं लेकिन दादी के रोल मे बुआ को ज़रूर देखा है । बाबूजी से बहुत बड़ी थीं और उनमे दादियों टाईप के सभी गुण थे। सफ़ेद झक साड़ी, अपनी अलग बादशाहत, खुश होने पर पैसा देने की आदत, नाराज़ होने पर कान खींचने की प्रवृत्ति। कब आओगे,कहाँ जा रहे हो बिना नागा टोकने का दादीपना। बहरहाल , वो अक्सर पूजा के पहले बुदबुदाती थीं "राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट, अंतकाल पछताओगे जब प्राण जाएँगे छूट" आज के बाबाओं को देखकर मुझे अपनी बुआ की वो लाइनें याद आती हैं ।
सब साले राम नाम को लूट रहे हैं.... रामपाल, आसाराम और ये नया फ़ितूरी, सनकी रामवृक्ष। इन कलयुगी पाखंडियों के अनुयायी भी ढेरों की तादात मे हैं। एक अकेले आदमी कैसे पूरी सत्ता को व्यवस्था को चुनौती दे देता है, ये मैंने तीनों के मामलों मे देखा। दो के मामले को रिपोर्टिंग करते हुये क़रीब से देखा और तीसरे को दूर बैठकर देख रहा हूँ ।.... इस रामवृक्ष नाम के प्राणी के बारे मे बहुत दिनों पहले सुना था लेकिन "पागल है" सोचकर इग्नोर कर दिया था । मुझे पूरा इत्मीनान है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने मेरी तरह नहीं सोचा था । उसे कुछ न कुछ फायदा इस रामनामी मे ज़रूर दिखा होगा, तभी तो उसे इतना बड़ा होने दिया । ये तमाचा सिर्फ मथुरा के या उत्तर प्रदेश के प्रशासन पर नहीं है बल्कि हम सभी पर है ।
इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि दूसरा रामनामी पाखंडी अब नहीं होगा । फिर कोई आयेगा, फिर पूजा जाएगा, समानान्तर सत्ता का केंद्र बनेगा और फिर उसके बाद शुरू होगी उसकी टीआरपी की चीर-फाड़ । मेरे पैदा होने से पहले एक बड़े विद्वान साहित्यकार हुये और चले गए, जो इसी पाखंडी के हमनाम थे......रामवृक्ष बेनीपुरी । बिहार के भूमिहार, बेनीपुर मे पैदा हुये इसलिए बेनीपुरी कहलाए । उन्होने अपने निबंध गेंहू और गुलाब मे लिखा है..."वह कमाता हुआ गाता था और गाते हुये कमाता था....पृथ्वी पर चलता हुआ वह आकाश को नहीं भूला था और जब आकाश की ओर देखता तो उसे याद रहता था कि उसके पैर धरती पर ही हैं ।" इस रामवृक्ष को शायद आकाश की तरफ देखते वक़्त ये याद नहीं रहा या फिर यूपी सरकार ने याद नहीं दिलाया कभी । और जब याद दिलाने की बारी आई तब तक ये ज़मीन से चार फुट ऊपर चलना सीख गया था । ऐसे रामनामियों को शुरुआत मे ही जूते क्यूँ नहीं लगाए जाने चाहिए ...? सरकार तो सरकार आम लोग भी उन्हे क्यूँ सिर आँखों पर बैठा लेते हैं ...? क्यूँ इनकी हरकत पहले अदा दिखती हैं और बाद मे उन्ही हरकतों की चीर-फाड़ होती है । दरअसल, इसकी एक वजह सरोकारी पत्रकारिता से मीडिया का कटना भी है । उस इलाक़े का कोई स्ट्रिंगर कभी ऐसी खबरें भेजा भी होगा, तो उसे यह कह डंप करा दिया गया होगा कि "छोड़ो उसे कौन जानता है । क्यूँ मामूली बाबा को ग्लोरीफ़ाई कर रहे हो ।" अब वही मामूली बाबा इतना बड़ा हो गया कि सरोकारी पत्रकारिता का तमगा लेकर घूमने वाले न्यूज़ चैनल का भी एक रिपोर्टर वहाँ तैनात है और "वरिष्ठ बुद्धिजीवी एंकर " उससे प्राइम टाइम मे पूछ रहे हैं...."फलाने.....तुम ये बताओ, इस बाबा की करतूत क्या डीएम या लोकल प्रशासन को नहीं दिख रही थी...? फलाने का जवाब होता है.......जी बुद्धिजीवी जी, यही तो हैरत की बात है, जबकि डीएम की कोठी यहाँ से सटी हुई है ।'' भाईसाहब, कुछ सरोकार आप भी दिखाओ...आपके पास तो चैनलों की भीड़ से अलग दिखने का स्वयंभू तमगा है। चलाओ ऐसे बाबाओं के खिलाफ के मुहिम.....हर दिन एक बुलेटिन तय कर दो इन बाबाओं के नाम। पूछो ढेरों सवाल उस इलाक़े के डी एम से...माफ करना, आपसे अच्छे वे दूसरे चैनल हैं, जिनके बारे मे आप ही कई बार अपने चैनल कटाक्ष करते रहते हो, वे लगभग रोज़ किसी न किसी बाबा की 12 तो बजाते हैं । आपकी तरह अचानक सरोकारी तो नहीं होते । मुझे तो लगता है आप भी इन पाखंडी रामनामियों की तरह आकाश की तरफ देखते समय ये भूल जाते हो कि आपके पैर भी धरती पर नहीं हैं।[प्रवीण दुबे की वॉल से ]