इको फ्रेंडली महाकुम्भ
मध्यप्रदेश में सिंहस्थ की तैयारियां चल रही हैं। ऐसे में नगरीय प्रशासन मंत्री कैलाश विजयवर्गीय की ईको फ्रेंडली अवधारणा ने भारतीय धार्मिक परंपराएं और आयोजन कभी पूर्णत: ईको फ्रेंडली ही हुआ करते थे लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद कृत्रिम तरीके से पैदा हुए उत्पादों ने इस स्थिति को ध्वस्त कर दिया है। आज चारों तरफ धार्मिक परंपराओं में प्लास्टिक रसायन और कृत्रिम उत्पादों को प्रचालन लगातार बड़ रहा है। इससे इस बात पर अधिक ध्यान गया कि हम सिंहस्थ जैसे विशाल आयोजनों को ईको फ्रेंडली तरीके से आयोजित करें। हालांकि इस अवधारणा को और व्यापक बनाने की आवश्यकता है। पूरी तरह से अमल में नहीं आई है, जैसे जैसे यह अवधारण गति करेगी कई नई चीजों को पता भी चलेगा। अभी इसमें ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की बात की जा रही है, यातायात आदि को इसमें शामिल किया है। आने वाले वक्त में इसमें पानी की स्वच्छता, प्लास्टिक उत्पादों को रोकने, रसायनों के न्यूनतम इस्तेमाल और कचरे का वैज्ञानिक तरीकों से निपटान को शामिल किया गया है।धार्मिक परंपराओं के तहत किसी समय पेड़ों की पूजन, जंगलों की रक्षा, पानी की स्वच्छता को बनाए रखने की परंपराएं कायम थीं लेकिन अब ये समाप्त हो चुकी हैं और कुछ समाप्त होने के करीब हैं। पर्यावरण अनुकूल आयोजनों में इन सब बातों का ख्याल रखना एक बड़े बदलाव का संकेत हो सकता है। इन आयोजनों में वृक्षा रोपड़ को भी शामिल किया जा सकता है। कुछ वृक्षों को अनादि काल से आज तक पूजा जाता है। लोक-आस्था और लोक-विश्वास के अतिरिक्त धार्मिक ग्रंथों में इनकी महिमा, गुण एवं उपयोगिता वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरती है। कुछ वृक्षों को वैसा ही सम्मान दिया जाता है, जैसे पुरातन पुरुषों को दिया जाता है। कुछ वृक्ष केवल वंदनीय ही नहीं होते, अपितु औषधीय गुणों से परिपूर्ण होते हैं, इसलिए सेवन करने के लिए उपयोगी होते हैं। आंवला, बहेड़ा, आम आदि वृक्ष बेहद उपयोगी होते हैं। इसलिए यज्ञ में समिधा के निमित्त इनकी लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है। इस तरह इन वृक्षों के साथ हमारा गहरा और आत्मीय रिश्ता है। सदाबहार वन अगर इस धरती को शीतल छाया और समृद्धि प्रदान करते हैं तो उसकी गोद से निकली धाराएं अपने अमृत से धरती को सींचती हैं और प्राणीयों के जीवन को आधार भी प्रदान करती है। वन, वायु, जल, भूमि, आकाश हमारे लिए प्रकृति के अमूल्य उपहार हैं। मानव की संस्कृति का विकास इन्हीं के मध्य हुआ है। मानव ने अपनी संस्कृति व सभ्यता का विकास नदियों के किनारों से किया। नदियां हमारे अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जल देती हैं, इसलिए ये हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। वायु और जल, पृवी पर जीवन के अस्तित्व के लिए नितांत आवश्यक हैं। वेदों में इनके प्रति हार्दिकता का गान गाया है। ऐसे में मानवीय सभ्यता की समझ जब विकसित हो रही है तो हमें अपनी परंपराओं में इसको जोड़ना ही होगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण अब हर आयोजन के साथ जोड़ी जानी चाहिए।