मर्द को भी दर्द होता है...
ashutosh nadkar
 
आशुतोष नाडकर
 
अभी  पढ़ा कि माँ बनने को लेकर पूछे गये एक सवाल पर सानिया ने धाकड़ पत्रकार राजदीप सरदेसाई की लू उतार दी.. कुछ दिन पहले ही तुलसी... सॉरी स्मृति ईरानी ने डियर को लेकर एक मंत्री की खटिया खडी करने की कोशिश की थी.. और सुपरस्टार सुल्तान की जुबान भी कुछ ऐसी फिसली की लाखों महिलाओं के दिलों पर राज करने वाला ये 50 साल का नौजवान अचानक महिलाओं के ही निशाने पर दिखाई देने लगा। 
 
इन सब घटनाओं में एक समानता जरुर है। वह ये कि देश में महिलाओं की खिलाफ बात करने वालों को आडें हाथों लिया जा रहा है। परंपरागत भारतीय समाज में आ रहे इस बदलाव को एक बेहतर संकेत भी माना जा सकता है। बीच सड़क या चौराहे पर मनचलों की पिटाई करने वाली युवतियों को वीरांगनाओं का दर्जा भी दिया जा रहा है, लेकिन इस सब के बीच एक पक्श उन पुरुषों का भी है, जो बेचारे सरल, सज्जन या शरीफ है..(यकीन मानिये कई पुरुष ऐसे भी होते हैं) ये कहानी एक ऐसे ही बेचारे सज्जन पुरुष की है। कहानी के नायक को हिन्दुस्तान के औसत, मध्यवर्गीय, बेचारे मर्दों का प्रतिनिधि भी माना जा सकता है। 
 
मर्द को भी दर्द होता है...
 
परदे पर अमितावच्चन ( अमिताभ बच्चन) को गुंडों की पिटाई करते देखना करते देखना मुझे हमेशा से बहुत भाता था.. शायद मैं १२ साल का था जब मनमोहन देसाई की मर्द फिल्म में प्रभु  अमिताभ बच्चन के श्रीमुख से ये सुना कि "मर्द को दर्द नहीं होता".. इसे अमिताभ की अदाकारी का कमाल कहें या फिर मेरी बाल सुलभ मूर्खता कहें, मैंने भी मान लिया की मर्द को दर्द नहीं होता.. स्कूल में जब मास्साब खडी स्केल से मेरी पिटाई करते था तो मैैं इसी डायलॉग को मंत्र मानकर  दर्द की अनदेखी करता रहा.. मास्साब ने इसे उनकी 'मारक क्षमता' पर चुनौती मान लिया.. अब मैं अदना सा छात्र मास्टर के संकल्प के आगे क्या खाक ठहर पाता.. उनकी स्केल ने मेरे कूल्हे का रंग लाल कर दिया और मेैं 'टैं' बोल गया.. यानि मेरे मुँह से चीख निकल ही गई..मास्टर की पिटाई और परीक्षा में फेल होने से ज्यादा मुझे दुख इस बात का था कि मर्द को दर्द आखिर दर्द क्यों हुआ..?
 
फिर मैंने सोचा की मैं अभी बच्चा हूँ.. शायद वयस्क मर्द होने पर शायद इस दर्द से पार पा लूँ.. लेकिन जोडों के दर्द से जूझते दादाजी को देखकर मेरी ये गलतफहमी भी दूर हो गई.. हाँ पिताजी को कभी किसी दर्द की शिकायत करते नहीं सुना था सो मैं ये मानने लगा था कि  इंदर राज आनंद (फिल्म के डायलॉग राइटर) की ये सूक्ति जवां मर्दों पर लागू होती होगी.. पर पिताजी के अपेन्डिक्स पेन ने एक दिन घर में ऐसा कोहरारम मचाया कि इंदर राज आनंद का झूठ मेरे सामने बेनकाब हो गया। 
 
तो जनाब ये बात तो साफ हो गई कि मर्द को भी दर्द होता है.. तो फिर सवाल ये है कि आनंद साहब ने ये संवाद लिखा किस आधार पर.. और लिखा तो लिखा ये संवाद इतना पॉपुलर कैसे हुआ..? क्या इस डायलॉग पर तालियाँ पीटने और सिक्के उछालने वालों को दर्द नहीं होता.. मुझे लगता है कि दर्द तो जरुर होता है, लेकिन हमारी समाजिक व्यवस्था ये अपेक्षा करती है कि मर्द को दर्द नहीं होना चाहिए.. और इसी प्रवृत्ति ने इस डायलॉग को जन्म दिया। 
 
मर्द चाहे ५ साल का बच्चा ही क्यों ने उससे दर्द न होने की अपेक्षा बचपन से की जाती है.. जब में चौथी क्लास में एक बार मैं सितोलिया खेलते हुए अपनी कोहनियाँ और घुटने छिलवा बैठा.. रोते हुए घर पहुँचा तो चचा ने डाँटते हुए कहा- "क्या लडकियों की तरह टेसुएँ बहा रहा है..?" अब चचा का ये कथन कितना महिला विरोधी है ये तो नारीवादी जाने लेकिन चचा के ताने ने मेरे जैसे बच्चे की मर्दानगी को भी झकझोर  कर कुछ देर के लिये तो जगा ही दिया था.. घुटने छिलने का दर्द तो मैं जैसे-तैसे झेल गया लेकिन जैसे-जैसे बडा होता गया ये सवाल  बार-बार सामने आने लगा कि  क्या रोने का हक केवल जनाना है.. ? रोने से मर्दानगी कम हो जाती है..?  भई महिला और पुरुष दोनों ही ऊपरवाले के बनाये हाड-माँस के पुतले हैं .. तो फिर चोट लगने पर मर्द को रोने का हक क्यों न हो..? फिल्म में  इमोशनल सीन पर औरतें चाहें रो-रोकर कई रुमाल गीले कर डालें.. मर्द के लिये आँखे भर आना भी शर्मनाक क्यों है.?. मानों आँसू गिरने का तात्लुक सीधे पौरुष क्षमता में कमी से हो.. और ज्यादा आंसू बह गये तो मर्द को सीधे डॉ शाहनी की शरण लेनी पडेगी। 
 
मेरी दर्द भरी कहानी की शुरुआत उसी दिन हो गई थी जब मैंने मर्द के रुप में एक पढे-लिखे मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म लिया था.. चार भाई-बहनों में एक बहन मुझसे डेढ साल बडी और दो बहनें मुझसे छोटी थी..  हमारे देश में बेटियों को गर्भ में मार देने का महापाप किया जाता है.. मर्दों को गर्भ में भले न मारा जाता हो.. लेकिन खुर्राट किस्म के बाप इस बात की कमी बेटों के जवाँ होने तक हर कभी उन्मुक्त भाव से उनकी सुताई कर पूरी कर ही लेते हैं..  कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक मेरे द्वारा किये गये सर्वे के मुताबिक भारतवर्ष के नब्बे फीसदी पिताजी, बाऊजी, पापा, बापू, डैड, बाबा, अण्णा, अप्पा (संबोधन चाहे इनमें से कौन सा भी हो) पर हर एक बाप खुर्राट ही होता है..  बेटियों पर हाथ न उठाने के लिये दृढसंकल्पित मेरे पिता ने मुझे कभी संटी, कभी बेल्ट, कभी चप्पल जैसे उपकरणों से(आप इस फेहरिस्त को अपने अनुभव के आधार पर आगे भी बढा सकते हैं)  कितनी बार सूता है इसकी गिनती न उन्हें याद होगी न ही मुझे। 
 
पढने में मैं हमेशा से गधा था.. और बड़की के हाल तो मुझसे भी बुरे थे.. मुझसे एक कक्षा आगे पढने वाली बडकी छटवीं कक्षा में फेल हो गई और हम दोनों एक ही क्लास में आ गये.. परीक्षा के समय मुझे ये समझ आ गया कि आखिर बडकी फेल क्यों हुई..एलजेब्रा और ज्योमेट्री के  सवालों के भंवर में उलझकर मेरा गणित उलझ ही गया.. मैं पहली बार और बड़की लगातार दूसरी बार छटवीं में फेल हो गये.. मुझे पूरा विश्वास था कि पिताजी ने घर पर पिटाई के सारे उपकरण पहले ही जुटा लिये होंगे.. लेकिन एक संतोष भी था कि मैं अकेला नहीं हूँ जिस पर इन उपकरणों का इस्तेमाल होने वाला है.. लेकिन तमाम पूर्वानुमान धराशाई हुए और उपकरणों का इस्तेमाल केवल और केवल मुझपर हुआ.. बड़की को ये कहते हुए 'डिस्काउंट' दे दिया गया कि- "उसकी तो हम शादी कर देंगे.. साले.. लेकिन तेरा यही हाल रहा तो तुझे जिंदगी भर कौन खिलायेगा.." मुझे फिर अपने मर्द होने पर कोफ्त हुई.. आखिर पिताजी मेरी शादी कराने की बाद इतनी आसानी से क्यों नहीं कहते। 
 
बड़की देखने में सुंदर थी.. ग्रेज्युएशन किये बिना ही उसकी शादी कर दी गई.. मैंने और मंझली ने  जैसे-तैसे ग्रेज्युएशन पूरा किया.. पहले पढ़ाई को लेकर गरियाने वाले मेरे पिता के पास अब मुझे गरियाने की नई वजह थी, मेरा बेरोजगार होना.. "खा-खाकर सांड हो गया है.." ये जुमला अक्सर मेरे कानों में मिश्री घोलता रहता था.. लेकिन मंझली  का बेकार घर में बैठना उन्हें कभी नहीं खला.. मझली खूबसूरत नहीं थी.. सो उसकी शादी में दान-दहेज की चिंता पिताजी को ज्यादा रहती थी.. और उनका ये मानसिक तनाव मेरे सर पर फटना लाजमी था.. क्योंकि मैं उनका एकलौता बेटा यानि की मर्द था..
 
सबसे छोटी यानि छुटकी पापा की आँखों का नूर था.. पढ़ने में तेज, बोल्ड एंड ब्यूटीफुल.. छुटकी लडकों तरह कपड़े पहनती थी.. कई बार तो वो मेरे टी-शर्ट भी पहन लेती थी.. पिताजी अक्सर अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच फ़ख्र से छुटकी के कंथे पर हाथ रखकर कहते थे- "ये बेटा है मेरा.. बेटा.." कई बार मुझे लगा कि पिताजी से पूछना चाहिए कि कुदरत ने जब छुटकी को लड़की बनाया है तो आप उसकी तारीफ में ही सही उसे बेटा क्यों कह रहे हैं.. क्या मेरे जनाना कपडे पहनने पर वे ये बात गर्व से कहेंगे की ये मेरा बेटा नहीं बल्कि बेटी है बेटी। 
 
मुझे पेंटिंग का काफी शौक था.. लेकिन पिताजी का कहना था कि ये क्या लौंडियों के तरह के शौक पाल रखे हैं.. और मेरी पेंटिग्स से उन्हें कोई आर्थिक फायदा भी नज़र नहीं आ रहा था.. लिहाजा मेरी चित्रकारी को दो गज ज़मीन के नीचे दफ़न कर दिया गया..  पिताजी के तानों के चलते मेरे पास मामूली सी नौकरी करने के सिवाय कोई चारा नहीं था.. मर्द होने के कारण घर चलाने में पिताजी की मदद करने की जिम्मेदारी मेरी थी..  मेरी कमाई की पाई-पाई की जानकारी रखने वाले पिताजी मुझसे जेबखर्च तक का पूरा हिसाब लेते थे.. उधर  छुटकी ने अव्वल नंबरों से इंजीनियरिंग की डिग्री ली और नौकरी भी करने लगी.. आर्थिक संकट के बावजूद पिताजी ने छुटकी से वेतन लेना तो दूर कभी उसकी सैलेरी का हिसाब तक नहीं मांगा.. यहाँ तक कि जब छुटकी ने अपने ही एक सहकर्मी से शादी का फैसला किया तो मामूली सी ना-नकुर के बाद उन्होंने इस विजातीय रिश्ते के लिये भी हामी दे दी..
 
इस बीच मेरे विवाह की दुर्घटना भी हो ही गई.. जी नहीं, मेरे पिताश्री दकियानूसी नहीं थे.. उन्होंने न केवल मुझे प्रेम विवाह करने की अनुमित दी बल्कि मेरी पत्नी को अपनी बेटियों के समान स्नेह भी दिया.. लेकिन मेरी लिये उनका स्नेह झिडकियों और गालियों के जरिये ही प्रकट होता था.. मंझली की शादी अब तक नहीं हो पाई थी..  पंद्रह हजार की नौकरी में मेरे लिये घर चलाना अब मुश्किल हो गया था.. मैं जिस कंपनी में सुपरवाइजर था उसी कंपनी में कंप्यूटर ऑपरेटर की दरकार थी.. मैंने अपनी पत्नी और मंझली दोनों से इस नौकरी के लिये प्रयास करने को कहा.. लेकिन यहाँ भी मेरे 'सुलझे हुए विचारों वाले पिता' के नारी स्वतंत्रता और अस्मिता के विचार आडे आने लगे..  पिताजी ने टांग अड़ाते हुए फरमान जारी किया कि दोनों यदि खु़द चाहेंगी तभी नौकरी करेंगी..(जब भी पिताजी बेटियों के लिये ऐसी बातें करते थे तो मेरी मर्द होने की कोफ्त और बढ जाती है और लगता है कि हाय मैं इनकी बेटी क्यों न हुआ)  शायद मेरी किस्मत अच्छी थी कि दोनों ने ही नौकरी को हामी भर दी.. और आर्थिक संकट के भंवर में फंसी हमारे परिवार की नैया को दो खेवैये और मिल गये थे।                    
 
आर्थिक परेशानियाँ कुछ कम जरूर हुई, लेकिन मुसीबतें अब भेस बदलकर आने लगी थीं.. घऱ में मर्दाना समझे जाने वाले काम जैसे पानी भरना, चक्की से गेहूँ पिसवा के लाना, बैंक के काम तो मैं पहले से ही किया करता था लेकिन अब तो सब्जी काटने जैसे काम भी कई बार मेरे हिस्से में आने लगे थे.. पिताजी ने अतिरिक्त सह्रदयता दिखाते हुए बहू और मंझली को ऑफिस जाने के लिये स्कूटी भी खरीद दी थी.. पेट्रोल इंडिकेटर  की ओर देखे  बिना स्कूटी को लगातार चलाना और फिर पेट्रोल खत्म होने के बाद मुझे फोन कर बुलाने का कारनामा ये दोनों कई बार कर चुकीं थीं.. इस प्रकार की मूर्खता से परेशान होकर यदि मेरा सब्र का बांध कभी टूट जाता था.. तो पिताजी फौरन उनके लिये रक्षा कवच बन जाते थे.. " तुम्हें फोन कर बुला लिया तो कौन सा पहाड़ टूट पडा, तुम क्या बिल गेट्स या अंबानी हो, जो आधा-पौन घंटा जाया होने से करोडों का नुक्सान हो जायेगा.. बऱखुरदार, इतना गुस्सा करना है तो पहले इतना तो कमा लो कि बहन और पत्नी को नौकरी न करना पडे। "
 
हालाँकि ये परेशानी भी मुझे ज्यादा समय तक नहीं झेलनी पडी.. दिवाली के मौके पर मेरी पत्नी को उनके सेक्शन इंचार्ज  ने छुट्टी नहीं दी.. दोनों के बीच कुछ वाद-विवाद हुआ और मेरी पत्नी ने तत्काल नौकरी को अलविदा कह दिया.. मैंने पत्नी को समझाने की कोशिश की कि ऐसी मामूली  सी तकरार तो नौकरी में होती ही रहती हैं.. लेकिन वह नहीं मानी.. शाम को घर पहुँचा तो पिताजी अपनी बहू की पीठ थपथपाते दिखे- " बहुत अच्छा किया बेटा, आत्मसम्मान से समझौता कर नौकरी करने की कोई जरुरत नहीं है. " मुझे देखते ही पिताजी मुझसे मुखातिब हुए- "सीखो बहू से की आत्मसम्मान क्या होता "  पिताजी के ये शब्द मुझे कुछ साल फ्लैश बैक में ले गये.. तब उन्होंने मुझे जबरदस्ती  एक फैक्ट्री में नौकरी पर लगवाया था .. सुपरवाईजर बेहद बदतमीज और सनकी किस्म का आदमी था.. बात-बात या फिर बिना बात भी सुपरवाईजर की  डाँट-फटकरा का मैं आदी हो चुका था, लेकिन एक दिन पानी सिर से गुजर गया.. सुपरवाईजर मुझे माँ-बहन की नंगी गालियाँ देने पर उतर आया.. दिल तो था कि सुपरवाईजर की तबीयत से मरम्मत करुँ, लेकिन पिताजी की याद आई तो महज अपनी आपत्ति दर्ज करवाकर नौकरी छोड दी.. घर पहुँचकर जब पिताजी को सारा वाकया सुनाया तो तमाम लानतों के साथ पिताजी ने  मुझे इतनी गालियां बकी, मानों कान में किसी ने पिघला सीसा घोल दिया हो...  सुपरवाईजर की गालियाँ बहुत ही मामूली लगने लगीं.. उस दिन से आज तक तमाम गालियाँ झेलकर भी नौकरी किये जा रहा हूँ.. क्योंकि मैं एक मर्द हूँ.. चाहूँ या न चाहूँ पैसे कमाना मेरी मजबूरी है, रोना आने पर आँसुओं को सुखा देना मेरी और मेरे जैसे करोडों लोगों की मजबूरी है.. और हाँ मंझली की शादी पर पिताजी ने उसके कमाये सारे पैसे मय ब्याज के उसके एकाउंट में ट्रांसवर कर दिये। 
 
 
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Dakhal News 19 July 2016

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