बिना भवनों के लड़खड़ाती शिक्षा व्यवस्था
मध्यप्रदेश के शासकीय प्राथमिक और माध्यमिक शालाओं में एक लाख 40 हजार से अधिक भवनों की कमी है। जिन स्कूलों में भवन नहीं हैं वहां कक्षाएं एक ही कक्ष में संचालित होती हैं। ऐसे में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की सार्थकता साबित नहीं हो पा रही है। इस संदर्भ में शिक्षा के अधिकार को देखें तो इस कानून को लागू हुए करीब पांच वर्ष हो रहे हैं, लेकिन शालाओं में भवनों की स्थिति नहीं सुधर सकी है। एक अनुमान के अनुसार करीब 11 फीसदी प्राथमिक एवं माध्यमिक शालाओं के लिए भवन नहीं हैं। आरटीई के तहत हर शिक्षक के लिए बच्चों को पढ़ाने के लिए अलग कक्ष होना चाहिए। वर्ष 2013 की स्थिति के अनुसार स्कूलों में 1 लाख 41 हजार कमरों की कमी है। इस संदर्भ में एक और खबर आई थी कि करीब पचास हजार शिक्षकों के पद स्कूलों में खाली हैं। ये दो समाचार शासन और समाज दोनों की शिक्षा व्यवस्था की उपेक्षा को दर्शाते हैं।यानी बौद्धिक और संसाधनगत दोनों स्तरों पर शिक्षा की उपेक्षा जारी है। शिक्षा एक समाज की नींव होती है, जो कि एक मजबूत तथा समृद्ध देश का गठन करती है। परन्तु राज्यों की शिक्षा व्यवस्था एक तरह से शिक्षा का परिहास है, इसमें बिना बदलाव के हम एक स्वस्थ, मानसिक तथा शारीरिक तौर पर स्थिर समाज की कल्पना नहीं कर सकते। हमारी वर्तमान शिक्षा नीति, एक नैतिक तथा प्रतिभावान चरित्र के किशोर और युवा पैदा करने में असफल है। शिक्षा व्यवस्था यह साफ दिखाई देता है कि जिन सुधारों की जरूरत शिक्षा व्यवस्था को थी एक औपनिवेशिक प्रक्रिया से निकलकर के और एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया बनने के लिए उन सुधारों के अमल में बहुत परेशानियां आती रही हैं। ऐसा नहीं है कि कोई सुधार नहीं हुआ, लेकिन हम कुछ बुनियादी मुद्दों पर सुधारों की बात करें तो हमें लगेगा कि आजादी के बाद जो पहला राष्ट्रीय आयोग बना था, मुदलियार आयोग, जिसका मुख्य फोकस माध्यमिक शिक्षा पर था। उसके नजरिये से अगर देखें, 1952-53 का यह आयोग है, तो ऐसा लगता है कि शिक्षा व्यवस्था की कुछ बुनियादी कमजोरियां परिलक्षित हुईं, पहचानी गईं लेकिन उनको सुधारने के लिए जितनी बड़ी मुहिम या कि जिस तरह की एक इच्छा शक्ति की आवश्यकता थी उसकी कमी राज्यों और केंद्र सरकारों में लगातार बनी रही। आज जब लोग राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा जो 2005 में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड द्वारा स्वीकार की गई है, उस सन्दर्भ में बात करते हैं तो हम उन सभी कमजोरियों को दुबारा एक तरह से सुधार के एंजेडा पर लाने की बात करते हैं। इनमें से सबसे बड़ी कमजोरी है बच्चे के दृष्टिकोण से पढ़ाई को संचालित न कर पाने की विवशता और संसाधनों का अभाव। इसके लिए संविधान परिवर्तनकारी भूमिका शिक्षा को देता है। संविधान बहुत स्पष्टता से निर्धारित कर देता है कि शिक्षा को किन मूल्यों के लिए और किन आदर्शों के लिए काम करना चाहिए। ये हमारे संविधान के बिलकुल शुरुआती हिस्से में रखे गए हैं कि हम शिक्षा की भूमिका समाज के सन्दर्भ में बड़ी आसानी से पहचान सकते हैं। उम्मीद है शासन भी इसे समझेगा।