देश ने खो दिया एक महान राजनेता
एल.एस. हरदेनिया कांग्रस के वरिष्ठ नेता अर्जुन सिंह के निधन से देश ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का एक महान योद्धा, अत्यधिक कुशल राजनीतिज्ञ, दक्ष प्रशासक, महान पुस्तक प्रेमी और हर दृष्टि से एक उत्कृष्ट बुद्धिजीवी खो दिया है । अर्जुन सिंह जिस पद पर भी रहे, उस पद से जुड़ी जिम्मेदारियों को उन्होंने अत्यंत कुशलता से निभाया । उनका राजनीतिक कैरियर सन्-१९५७ से प्रारंभ हुआ था, जब वे एक निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर नवगठित मध्यप्रदेश की प्रथम निर्वाचित विधानसभा के सदस्य चुने गए थे । एक नौजवान विधायक के रूप में उन्होंने विधानसभा को अपनी वक्तव्य कला से प्रभावित किया था । उनकी प्रतिभा से प्रभावित हाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें कांग्रेस में शामिल होने का निमंत्रण दिया, जिसका अर्जुन सिंह ने सहर्ष स्वीकार कर लिया । इसके बाद वे सन् १९६२ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार बने और चुनाव जीतकर विधायक बने । सन्-१९६३ में पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र मुख्यमंत्री बने और उन्होंने अर्जुन सिंह को राज्यमंत्री के रूप में अपनी मंत्रिपरिषद में शामिल किया । अर्जुन सिंह की काम करने की लगन देखकर पं० मिश्र उनसे बहुत प्रभावित थे । दुर्भाग्य से वे सन् १९६७ का चुनाव हार गए, लेकिन कुछ अंतराल के बाद वे पुनः विधायक बने और मिश्रजी ने उन्हें दुबारा अपनी मंत्रिपरिषद में शामिल किया । सन्-१९६७ में प्रदेश में एक भारी दलबदल के परिणामस्वरूप कांग्रेस के हाथ से सत्ता छिन गई थी । इसके बाद अर्जुन सिंह ने अन्य कांग्रेसी नेताओं की तरह प्रतिपक्ष की भूमिका निभाई। उनकी वह भूमिका इसलिए यादगार है, क्योंकि सत्तापक्ष उनके सवाल सुन-सुनकर परेशान हो जाता था । सन्-१९७२ में वे पुनः विधायक बने और प्रकाशचंद्र सेठी की मंत्रिपरिषद में शामिल हुए । सन्-१९७५ से १९७७ तक देश में आपातकाल रहा । आपातकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस की भारी हार हुई और अर्जुन सिंह विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने । प्रतिपक्ष के नेता के रूप में उनकी भूमिका काबिले तारीफ रही । सन्-१९८० में कांग्रेस पुनः सत्ता में आई और अर्जुनसिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने । मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए । उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में प्रदेश में औद्योगीकरण के मामले में महत्वपूर्ण पहल की गई । गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोगों के हित में अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाए गए । झुग्गी-झोपड़ी वालों को पट्टे दिए गए । सन्-१९८५ का विधानसभा चुनाव अर्जुन सिंह के नेतृत्व में लड़ा गया और कांग्रेस को भारी जीत हासिल हुई । अर्जुन सिंह पुनः मुख्यमंत्री बने, लेकिन अत्यधिक नाटकीय ढंग से मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के मात्र दो दिन बाद उन्हें पंजाब का राज्यपाल बनाने का निर्णय ले लिया गया । उस समय पंजाब आतंकवाद की गिरफ्त में था और वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू था । अर्जुन सिंह ने पंजाब में आतंकवाद की समाप्ति की पहल की और अकाली नेता संत हरचंद सिंह लोंगोवाल और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच एक ऐतिहासिक समझौता कराया । पंजाब के राज्यपाल का पद छोड़ने के बाद उन्हें कांग्रेस का उपाध्यक्ष्ज्ञ और फिर केन्द्रीय मंत्री बनाया गया । मुख्यमंत्री का पद छोड़ने के लगभग दो वर्ष बाद वे पुनः मुख्यंत्री बने । इस बार मुख्यमंत्री बनते समय वे विधानसभा के सदस्य नहीं थे । उन्होंने छत्तीसगढ़ के खरसिया से विधानसभा का चुनाव लड़ा। चुनाव के पूर्व उन्होंने तेंदूपत्ता के व्यापार का सहकारीकरण किया । इस कदम से तेंदूपत्ता तोड़ने वाले लाखों मजदूरों को लाभ हुआ । यह अर्जुन सिंह का ऐतिहासिक कदम था । उन्होंने मुख्यमंत्री की हैसियत से कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कदम उठाए । भारत भवन उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में बना, जो आज कला और संस्कृति का एक महान केन्द्र बन गया है । अर्जुन सिंह ने केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री के रूप में जिस कल्पनाशीलता का परिचय दिया, उसे सदैव याद रखा जाएगा । उनसे पहले सीबीएसई के पाठ्यक्रम का भगवाकरण हो चुका था । उसको इस दलदल से अर्जुन सिंह ने ही बाहर निकाला । सांप्रदायिक शक्तियों ने उन पर हमले तो खूब किए, पर अर्जुन सिंह नहीं रूके । वे एक राजनीतिक योद्धा थे और अपने विरोधियों को परास्त करने में उन्हें जबर्दस्त महारथ हासिल थी । उनको जिसने भी चुनौती दी, कुछ ही समय बाद वह चारों खाने चित्त हो जाता था । वे अत्यधिक प्रभावशाली वक्ता थे। एक बार विधानसभा में किसी सदस्य ने उनके पिता के संदर्भ में कुछ अशोभनीय बात कही, तो उन्होंने उस सदस्य को यह कहकर निरूत्तर कर दिया था कि ÷ पिता चुनने का अधिकार तुम्हें रहा होगा, मुझे नहीं था ।' इसी तरह उनके अनेक भाषण चिरस्मरणीय हैं । उन्होंने नरसिंहराव केप्रधानमंत्रित्वकाल में कांग्रेस छोड़ी और सोनिया गांधी द्वारा नेतृत्व संभालने पर वे पुनः कांग्रेस में आ गए । वे कुछ समय तक लोकसभा में कांग्रेस दल के नेता भी रहे । उनकी प्रतिष्ठा कम बोलने वाले, रणनीति बनाने में विशेषज्ञ और कला प्रेमी के रूप में थी । वे मध्यप्रदेश के एक महान सपूत थे । जहां तक हमारे संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का सवाल है, तो उनकी प्रतिबद्धता सौ प्रतिशत थी । इसीलिए अल्पसंख्यक उन्हें अपना मसीहा मानते थे । अल्पसंख्यकों के हितों पर जब भी प्रहार हुआ, अर्जुनसिंह ने उसका मुखर विरोध किया । उनकी एक और खास बात यह थी कि वे बुद्धिजीवी नेता थे । आज की राजनीति में बृद्धिजीवियों का अकाल-सा हो गया है । अर्जुन सिंह चुनावी जनसंभाएं संबोधित करने के बाद भी किताबें पढ़ने का समय निकाल लेते थे । आप किसी भी विषय पर उनसे बात कर सकते थे । ज्ञान का अथाह भंडार उनके पास था । वे शेरो-शायरी भी पसंद करते थे । नेता संवेदनशील है या नहीं, इस बात की कसौटी यह होती है कि वह जनता के किस हद तक जुड़ा हुआ है । आजकल के अधिकतर नेता लोग जनता से केवल चुनाव के समय ही मिलते हैं, जब उन्हें वोट मांगने जाना पड़ता है । अर्जुन सिह ऐसे नहीं थे। वे किसी भी पद पर रहे हों या न रहे हों, जनता के लिए उनके दरवाजे हमेशा खुले रहते थे । जो भी उनके पास पहुंच गया, उनको उन्होंने कभी निराश नहीं किया । वे जनता की समस्याओं को गंभीरता से सुनते थे और उनका फौरन निराकरण कराते थे । वे देश-प्रदेश की कांग्रेस की राजनीति में कई नए लोगों को लाए और उनको काम करने का मौका दिया । कांग्रेस में आज भी कई नेता ऐसे हैं, जिन पर अर्जुन सिंह की पारखी नजर नहीं पड़ी होती, तो शायद उन्हें राजनीति में आने का मौका तक नहीं मिलता । अर्जुन सिंह गरीबों की आवाज थे, दलितों-पिछड़ों के हितों के प्रवक्ता थे और अल्पसंख्यकों के संरक्षक थे । उनके निधन से देश, कांग्रेस और भारतीय राजनीति को अपूरणीय क्षति हुई है। उनके न रहने से मध्यप्रदेश को जो नुकसान हुआ है, उसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती । मैं मध्यप्रदेश के महान सपूत अर्जुन सिंह को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ । (दखल)