जहरीली दवा बनी अभिशाप
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मध्यप्रदेश और राजस्थान में सर्दी-खांसी की दवा के सेवन से 16 बच्चों की मौत हो गई। इन बच्चों को कोल्ड्रिफ कफ सीरप स्वास्थ्य लाभ के लिए दिया गया था, किंतु वह मौत का कारण बन गया। इसकी गुणवत्ता संदेह के दायरे में है। मध्य प्रदेश के खाद्य एवं दवा नियंत्रक दिनेश कुमार मौर्य ने कहा है कि संदिग्ध सिरप को परीक्षण के लिए 1 अक्टूबर को तमिलनाडु भेजा था। इसकी रिपोर्ट तीसरे दिन मिल गई थी। किंतु मप्र में 29 सितंबर से जांच जारी है, जो अभी तक पूरी नहीं हुई। जबकि इसी बीच स्वास्थ्य विभाग का कार्य देख रहे प्रदेश के उपमुख्यमंत्री राजेंद्र शुक्ल ने सार्वजनिक बयान दे दिया कि सीरप के नौ नमूनों में हानिकारक तत्व नहीं मिले हैं।

 

यह सीरप श्रीसन कंपनी बनाती है, जिसकी उत्पादन इकाई तमिलनाडु के कांचीपुरम में है। मप्र सरकार के कहने पर तमिलनाडु सरकार के औषधि प्रशासन विभाग ने कंपनी की उत्पादन इकाई से नमूने लेकर जांच की तो एसआर-13 बैच में हानिकारक रसायन डायथिलीन ग्लायकल (डीईजी) पाया गया। दवा में इसकी निर्धारित मात्रा 0.1 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए, जबकि इसका प्रतिशत जांच में 48 प्रतिशत से अधिक पाया गया। इस रिपोर्ट के बाद प्रदेश सरकार सक्रिय हुई और इसके उपयोग एवं विक्रय पर रोक लगा दी। मृतक बाल-गोपालों का इलाज करने वाले छिंदवाड़ा के चिकित्सक डॉ प्रवीण सोनी के खिलाफ मामला दर्ज करके, फिलहाल जमानत पर रिहा कर दिया है। इन मौतों और इस रिपोर्ट के बाद सतर्कता बरतते हुए कई राज्य सरकारों ने इस दवा को प्रतिबंधित कर दिया है। केंद्र सरकार ने भी सलाह दी है कि दो वर्ष से छोटे बच्चों को कफ सीरप नहीं पिलाया जाए। इस पूरी प्रक्रिया से लगता है कि प्रदेश में ही नहीं देश में निगरानी तंत्र कमजोर है।

यूपीए सरकार ने जब नकली दवाओं से छुटकारे के नजरिए से औषधीय एवं सौंदर्य प्रसाधन अधिनियम बनाया था तब यह मान लिया गया था कि अब नकली दवाओं पर कमोबेश प्रतिबंध लग जाएगा। क्योंकि इस कानून के तहत न केवल इस धंधे को गैर जमानती बना दिया गया था, बल्कि दवा बनाने वालों से लेकर बेचने वालों तक को दस साल से लेकर आजीवन कारावास का प्रावधान रखा गया था। लेकिन देखने में आया है कि दवा दुकानों पर लगातार नकली दवाओं के भण्डार बरामद हो रहे हैं और लोग बेमौत मारे जा रहे हैं। साफ है, नकली दवा कारोबार न केवल बेखौफ जारी है बल्कि इसमें बेइंतहा इजाफा भी हो रहा है। यही नहीं ये दवाएं सरकारी अस्पतालों के माध्यम से भी धड़ल्ले से उपयोग में लाई जा रही हैं। इससे जाहिर होता है कि सरकारी चिकित्सा-तंत्र का एक बड़ा हिस्सा इस कारोबार को ताकत दे रहा है।


इसके पहले 2019-20 में जम्मू के रामनगर में भी एक फार्मा कंपनी के बनाए सीरप से 12 बच्चों ने दम तोड़ दिया था। कंपनी पर एफआईआर हुई, लेकिन मामला अभी भी लंबित है। वर्ष 2022 में हरियाणा की दवा कंपनी के सीरप से गांबिया में 70 और उज्बेकिस्तान में 65 बच्चों की मौतें हो गई थीं। सितंबर 2008 में भारत की सबसे बड़ी दवा कंपनी रैनबैक्सी की तीस जेनेरिक दवाओं को अमेरिका ने प्रतिबंधित किया था। रैनबैक्सी की देवास (मध्य प्रदेश) और पांवटा साहिब (हिमाचल प्रदेश) में बनने वाली दवाओं के आयात पर अमेरिका ने रोक लगाई थी। अमेरिका की सरकारी संस्था फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) का दावा था कि रैनबैक्सी की भारतीय इकाइयों से जिन दवाओं का उत्पादन हो रहा है उनका मानक स्तर अमेरिका में बनने वाली दवाओं से घटिया है। ये दवाएं अमेरिकी दवा आचार संहिता की कसौटी पर भी खरी नहीं उतरी थीं। जबकि भारत की रैनबैक्सी ऐसी दवा कंपनी है जो अमेरिका को सबसे ज्यादा जेनेरिक दवाओं का निर्यात करती है। रैनबैक्सी एक साल में कई हजार करोड़ की दवाएं देश व दुनिया में बेचती है।

 

ऐसी ही बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसी आचार संहिता के पालन के पक्ष में नहीं हैं। किसी बाध्यकारी कानून को अमल में लाने में भी ये रोड़ा अटकाने का काम करती हैं क्योंकि ये अपना कारोबार विज्ञापनों व चिकित्सकों को मुनाफा देकर ही फैलाये हुए हैं। छोटी दवा कंपनियों के संघ का तो यहां तक कहना है कि चिकित्सकों को उपहार देने की कुप्रथा पर कानूनी तौर से रोक लग जाए तो दवाओं की कीमतें 50 फीसदी तक कम हो जाएंगी। चूंकि दवा का निर्माण एक विशेष तकनीक के तहत किया जाता है और रोग व दवा विशेषज्ञ चिकित्सक ही पर्चे पर एक निश्चित दवा लेने को कहते हैं। दरअसल, इस तथ्य की पृष्ठभूमि में यह मकसद अंतर्निहित है कि रोगी और उसके अभिभावक दवाओं में विलय रसायनों के असर व अनुपात से अनभिज्ञ होते हैं इसलिए वे दवा अपनी मर्जी से नहीं ले सकते। इस कारण चिकित्सक की लिखी दवा लेना जरूरी होती है।


इंसान की जीवन-रक्षा से जुड़ा दवा करोबार अपने देश में तेजी से मुनाफे की अमानवीय व अनैतिक हवस में बदलता जा रहा है। चिकित्सकों को महंगे उपहार देकर रोगियों के लिए मंहगी और गैर जरुरी दवाएं लिखवाने का प्रचलन लाभ का धंधा हो गया है। इस गोरखधंधे पर लगाम लगाने के नजरिये से कुछ समय पहले केन्द्र सरकार ने दवा कंपनियों से ही एक आचार संहिता लागू कर उसे कड़ाई से अमल में लाने की अपील की थी। लेकिन संहिता का जो स्वरूप सामने लाया गया, वह राहत देने वाला नहीं था। संहिता में चिकित्सकों को उपहार व रिश्वत देकर न तो अनैतिक कारगुजारियों को लेकर कोई साफगोई है और न ही संहिता की प्रस्तावित शर्तें व कानून बाध्यकारी हैं। इन प्रस्तावों को लेकर दवा संघों में भी मतभेद हैं।


विज्ञान की प्रगति और उपलब्धियों के सरोकार आदमी और समाज के हितों में निहित हैं। लेकिन हमारे देश में मुक्त बाजार की उदारवादी व्यवस्था के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से जिस तेजी से व्यक्तिगत व व्यवसायजन्य अर्थ-लिप्सा और लूटतंत्र का विस्तार हुआ है, उसके शिकार चिकित्सक तो हुए ही, निगरानी तंत्र भी इसकी चपेट में है। नतीजतन देखते-देखते भारत के दवा बाजार में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की 70 प्रतिशत से भी ज्यादा की भागीदारी हो गई। इनमें से 25 फीसदी दवा कंपनियां ऐसी हैं जिन पर व्यवसायजन्य अनैतिकता अपनाने के कारण अमेरिका भारी आर्थिक दण्ड दे चुका है।


ऐसे हालात में चिकित्सक अनैतिकता और दवा कंपनियां केवल लाभ का दृष्टिकोण अपनाएंगी तो आर्थिक रूप से कमजोर तबका तो स्वास्थ्य चिकित्सा से बाहर होगा ही, जो मरीज दवा ले रहे हैं उनके मर्ज की दवा सटीक दी जा रही हैं अथवा नहीं इसकी गारंटी भी नहीं रह जाएगी? इस कारण सरकार ने 2009 के आरंभ में दवा कंपनियों के संघ से स्वयं एक आचार संहिता बनाकर अपनाने को कहा था। साथ ही सरकार ने यह हिदायत भी दी थी कि यदि कंपनियां इस अवैध गोरखधंधे पर अंकुश नहीं लगातीं तो सरकार को इस बाबत कड़ा कानून लाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। लेकिन सरकारी चेतावनी की परवाह किए बिना दवा कंपनियों का संघ जो नई आचार संहिता सामने लाया, उसमें उपहार के रूप में लाभ देने का केवल तरीका बदला गया। मसलन तोहफों का सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा। संहिता में केवल दवा निर्माताओं से उम्मीद जताई गई है कि वे चिकित्सकों को टीवी, फ्रिज, एसी, लैपटॉप, सीडी, डीवीडी जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण व नकद राशि नहीं देंगे। लेकिन वैज्ञानिक सम्मेलन, कार्यशालाओं और परिचर्चाओं के बहाने उपहार देने का सिलसिला और चिकित्सकों की विदेश यात्राएं जारी रहेंगी।

 

जाहिर है आचार संहिता के बहाने चिकित्सक और उनके परिजनों को विदेश यात्रा की सुविधा को परंपरा बनाने का फरेब संहिता में जानबूझकर डाला गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन का दावा है कि भारत में बनने वाली दवाएं करीब 35 प्रतिशत नकली होती हैं। एसौचेम के मुताबिक देश में 25 प्रतिशत की दर से हर साल इस कारोबार में इजाफा हो रहा है। बहरहाल, भारत सरकार को दवाओं पर निगरानी के लिए मजबूत तंत्र खड़ा करने की जरूरत है।

 
Dakhal News 12 October 2025

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