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‘साहिब, बीबी और गुलाम’ 7 दिसंबर, 1962 को अबरार अलवी के निर्देशन में प्रदर्शित हुई थी। यह फिल्म अपने समय से आगे की थी और हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुई। गुरुदत्त के विजन के साथ तैयार हुई इस फिल्म में कई गहरे प्रतीक और शानदार अभिनय थे।
विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म को गुरुदत्त ने बनाया था। अपने प्रदर्शन पर इसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी, लेकिन इसमें ‘छोटी बहू’ के चरित्र के माध्यम से स्त्री के सेक्सुअल डिजायर को पर्दे पर चित्रित किया गया था। छह दशक पहले ऐसे विषय को पर्दे पर उतारना मुश्किल था, लेकिन गुरुदत्त ने इसे संभव किया।
मीना कुमारी ने छोटी बहू की भूमिका निभाई थी। शादी के बाद जब वह जमींदार चौधरी की हवेली में प्रवेश करती है, तो उसकी पहचान बदल जाती है। वह चौधरी खानदान की स्त्रियों की तरह हवेली की चौखट के अंदर ही रहती है। परिवार और विवाह को निभाने के लिए वह सारे जतन करती है, लेकिन उसका जमींदार पति कहता है कि चौधरियों की काम वासना को उनकी पत्नियां कभी तृप्त नहीं कर सकतीं। यह सुनकर छोटी बहू के अंदर कुछ दरकता है और वह पति का ध्यान खींचने के लिए तमाम जतन करती है।
फिल्म में फीमेल सेक्सुअलिटी के बारे में भी पति से खुलकर बात की गई है, जिसमें उसकी स्वयं की संतुष्टि की अपेक्षा भी शामिल है। इन दृश्यों को ‘साहिब, बीबी और गुलाम’ में जिस संवेदनशीलता के साथ फिल्माया गया है, उसे रेखांकित किया जाना चाहिए।
1962 की फिल्म में नायिका के संवाद में आता है कि मर्दानगी की डींगे हांकने के बावजूद छोटे बाबू नपुंसक हैं। इस संवाद और दृश्य को उस समय के दर्शक पचा नहीं पाए थे। ‘मिर्जापुर’ वेब सीरीज में भी नायिका और उसके पति के बीच इस तरह के संवाद हैं, जिन्हें नोटिस भी नहीं किया जाता है।
समाज बदल गया है और दर्शकों की मानसिकता भी बदल गई है। अब दर्शक इन दृश्यों और संवाद को सहजता से लेते हैं। फीमेल सेक्सुअलिटी पर समाज में खुलकर बात होने लगी है। जब गुरुदत्त ने यह सोचा था, तब भारतीय समाज इस विषय पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करने को तैयार नहीं था। विमल मित्र ने तो फिल्म के प्रदर्शन से वर्षों पहले अपने उपन्यास में यह सब लिख दिया था। माना जाता है कि साहित्य में जो विषय पहले आते हैं, वे फिल्मों में बाद में आते हैं।
फिल्म के उत्तरार्ध का एक सीन बदलने को लेकर गुरुदत्त ने 1963 में सेल्यूलाइड पत्रिका में लिखे अपने लेख ‘कैश एंड क्लासिक्स’ में लिखा कि विमल मित्र के उपन्यास पर ‘साहिब, बीबी और गुलाम’ नाम से फिल्म बनाने को फिल्म समीक्षकों ने उचित तरीके से नहीं लिया। धर्म-कर्म में आस्था रखने वाली घरेलू महिला को अपने पति का दिल जीतने के लिए शराब पीते दिखाना बेहद जोखिम भरा निर्णय था। मेरे इस फैसले का प्रेस ने स्वागत किया था और दर्शकों की प्रतिक्रिया भी उत्साहवर्धक रही।
फिल्म के प्रदर्शन पर मुंबई के दर्शकों में केवल दो सीन को लेकर गुस्सा दिखा। पहला, जब छोटी बहू आकर्षण में आकर अपना सिर भूतनाथ की गोद में रख देती है और दूसरा, जब वह अपने पति से कहती है कि मुझे शराब का घूंट पीने दो, केवल अंतिम बार। हमने दोनों सीन फिल्म से निकाल दिए।
‘साहिब, बीबी और गुलाम’ एक असाधारण फिल्म है। इसका निर्देशन भले ही अबरार अल्वी ने किया, लेकिन पूरी फिल्म पर गुरुदत्त की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। गुरुदत्त चाहते थे कि भूतनाथ की भूमिका शशि कपूर करें, लेकिन वह संभव नहीं हो पाया। इस भूमिका के लिए विश्वजीत को भी संपर्क किया गया था, पर वह भी नहीं आए। अंत में उन्होंने स्वयं यह भूमिका निभाई। इसी तरह छोटी बहू की भूमिका को लेकर नर्गिस से संपर्क किया गया था।
गुरुदत्त ने इस फिल्म के लिए लंदन में रह रहे अपने सिनेमेटोग्राफर मित्र जितेंद्र आर्य की पत्नी छाया को तैयार कर लिया। वह लंदन से मुंबई शिफ्ट भी हो गए। गुरुदत्त के सामने जब छोटी बहू के गेटअप में छाया की तस्वीरें आईं, तो वह निराश हो गए और उन्हें मना कर दिया। इतना ही नहीं, गुरुदत्त इस फिल्म का संगीत निर्देशन एस. डी. बर्मन से करवाना चाहते थे, लेकिन वह बीमारी के कारण कर नहीं सके, तो हेमंत कुमार को लिया गया। साहिर ने मना कर दिया, तो शकील बदायूं से गीत लिखवाए गए।
सिर्फ जब्बा की भूमिका के लिए वहीदा रहमान पहले दिन से तय थीं। जो टीम बनी, उसने ऐसी फिल्म दी, जो आज पूरी दुनिया में फिल्म निर्माण कला के लिए देखी जाती है और विद्यार्थियों को दिखाकर फिल्म निर्माण की बारीकियां बताई भी जाती हैं।
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