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मध्य प्रदेश के दतिया जिले की एक बेटी ने अपनी दिव्यांगता को अपनी ताकत बनाया और साबित कर दिया कि प्रयास करने वालों की कभी हार नहीं होती। "बेटी बोझ नहीं, बेटी वरदान है"—यह नारा सिर्फ शब्दों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज में बदलाव लाने का एक महत्वपूर्ण संदेश है। इस कहानी की नायिका मंजेश हैं, जो दतिया के थरेट थाना स्थित छपरा गांव की रहने वाली हैं।
मंजेश दिव्यांग होने के बावजूद अपने संघर्ष और हिम्मत से हर मुश्किल को पार करती आई हैं। उन्होंने मुंह से कलम पकड़कर बी.एड और ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की। मंजेश ने दखल न्यूज से बातचीत में कहा, "मैंने कभी अपनी दिव्यांगता को अपनी पढ़ाई के आड़े नहीं आने दिया। मेरा सपना है कि मैं एक शिक्षक बनूं और अपने जैसे बच्चों को प्रेरणा दूं।"
मंजेश ने कई बार जिला प्रशासन और नेताओं से मदद की गुहार लगाई, लेकिन हर बार सिर्फ आश्वासन ही मिला। उनके अनुसार, "आज भी मैं अपने परिवार के लिए सरकार से मदद की उम्मीद कर रही हूं।" मंजेश की कहानी केवल मेहनत की नहीं, बल्कि संघर्ष और उम्मीद की है।
मंजेश का परिवार आर्थिक तंगी से जूझ रहा है। उनकी मां और बहन भी दिव्यांग हैं, जबकि उनके पिता वृद्ध हैं। परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करना भी मुश्किल हो जाता है। ऐसे में मंजेश की शिक्षा और भविष्य के लिए सरकार से मिलने वाली सहायता बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन अभी तक उन्हें कोई ठोस मदद नहीं मिली है।
मंजेश की स्थिति यह दर्शाती है कि सरकार की योजनाओं का लाभ ऐसे लोगों तक नहीं पहुंच पाता, जिन्हें सबसे ज्यादा इसकी जरूरत होती है। एक दिव्यांग बेटी की उम्मीद और संघर्ष का यह मामला इस बात का सबूत है कि सरकार को ऐसे परिवारों के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है, ताकि वे अपनी कड़ी मेहनत से समाज में अपना स्थान बना सकें।
मंजेश की कहानी हम सभी के लिए एक प्रेरणा है, लेकिन यह भी एक गंभीर सवाल खड़ा करती है कि सरकार अपने दिव्यांग नागरिकों के लिए क्या कर रही है। क्या वाकई सरकारी योजनाएं उन तक पहुंच पा रही हैं, जिन्हें सबसे अधिक मदद की जरूरत है?
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