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कभी ट्रेन में इस वक़्त फ़र्स्ट एसी में मयखाना सज जाया करता था। टिकट तो होता थर्ड या सेकंड एसी का पर रेल विभाग के पियक्कड़ों के सौजन्य से आँखों ही आँखों में इशारा हो जाता। फिर अपन सब की महफ़िल फ़र्स्ट क्लॉस वाली शुरू हो जाती।
जो भी आता जाता झांकता मुस्कराता उसे लखेद कर पिला दिया जाता। हालाँकि अपन सब उतने भी असभ्य नहीं जितना इतिहासकारों ने वर्णित किया है। कर्टसी के तहत पहले पूछा जाता- लोगे गुरु एक पैग! कोच अटेंडेंट से लेकर ज़्यादातर स्टाफ़ सेवा में लग जाता। टीटी साहब सबसे आख़िर में शरीक होते। डिब्बा डब्बा चेक चाक कर नौकरी बजाने के बाद।
जगह जगह स्टेशनों पर जंता को इत्तला एडवांस में कर दिया जाता कि बाबा फ़लाँ नम्बर की फ़लाँ ट्रेन से वाया फ़लाँ शहर फ़लाँ वक्त पर गुजर रहे हैं। जंता लोग वेज-नोनवेज बीयर दारू लेकर खड़े मिलते।
ट्रेन में या जीवन में, जो भी प्रेम से मिला हम उसी संग चीयर्स कर लिए।
एक दफे एक डिप्टी एसपी के साथ ट्रेन में जो पियक्कड़ी शुरू हुई तो सिलसिला ट्रेन के मंज़िल तक पहुँचने से बस एक स्टेशन पहले टूटा। स्टेशन आते जाते, ब्लैक डॉग के अद्धे गिरते जाते। क्रम यूँ बना रहता कि कोई किसी पर अहसान न लाद सके। किसी एक टेशन पर जय हिंद मारते हुए पुलिसकर्मी मदिरा लेकर आते तो अगले टेशन पर पत्रकार साथी अद्धा समर्पित कर देते।
आज बस चाय चिप्स है तो अतीत की नशीली रेल यात्राएँ दिलो दिमाग़ में छुकछुक कर गईं!
#dryyear21
#पियक्कड़_डायरी
भड़ास एडिटर यशवंत सिंह की एफबी वॉल से.
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