निरर्थक आंदोलन को खींचने की कवायद
bhopal,Exercise to pull , fruitless movement
डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
किसानों के नाम पर चल रहे आंदोलन के छह माह पूरे होने पर काला दिवस मनाया गया। ऐसा लगता है कि आंदोलन के नेताओं का काला शब्द से लगाव है। इन्होंने तीनों कृषि कानूनों को भी काला ही बताया था। ग्यारह दौर की वार्ताओं में सरकार पूंछती रही कि इन कानूनों में काला क्या है लेकिन आंदोलन के किसी भी प्रतिनिधि ने इसका जवाब नहीं दिया था। उनका यही कहना था कि यह काला कानून है। इसको वापस लिया जाए। इसके आगे फिर वही तर्कविहीन व निराधार आशंकाएं। कहा गया कि किसानों की जमीन छीन ली जाएगी, कृषि मंडी बन्द हो जाएंगी। कानून लागू होने के छह महीने हो गए। आंदोलनकारियों की सभी आशंकाएं निर्मूल साबित हुई है। ऐसे में आंदोलन पूरी तरह निरर्थक साबित हुआ है लेकिन आंदोलन के कतिपय नेताओं ने इसे अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा पूरी करने का माध्यम बना लिया है। इसलिए अब आंदोलन को किसी प्रकार खींचने की कवायद चल रही है।
 
हकीकत यह है कि इन छह महीनों में इस आंदोलन की चमक पूरी तरह समाप्त हो चुकी।आंदोलन का सर्वाधिक असर पंजाब में था। लेकिन कानून लागू होने के बाद कृषि मंडी से सर्वाधिक खरीद हुई। यहां नौ लाख किसानों से एक सौ तीस लाख टन से अधिक की गेहूं की खरीद की गई। कृषि कानूनों के कारण पहली बार खरीद से बिचौलिए बाहर हो गए। यही लोग आंदोलन में सबसे आगे बताए जा रहे थे। नरेंद्र मोदी सरकार की नीति के अनुरूप तेईस हजार करोड़ रूपये का भुगतान सीधे किसानों के बैंक खातों में किया गया।
 
नए कानून के अनुसार सरकार ने किसानों को अनाज खरीद नामक पोर्टल पर रजिस्‍टर किया गया। पंजाब देश का पहला राज्‍य बन गया है जहां किसानों के जमीन संबंधी विवरण जे फार्म में भरकर सरकार के डिजिटल लॉकर में रखा गया है। इससे किसी प्रकार के गड़बड़ी की आशंका दूर हो गई। कृषि कानून लागू होने से पहले सरकारी एजेंसियां आढ़तियों बिचैलियों के माध्यम से खरीद करती थी। केवल पंजाब में करीब तीस हजार एजेंट थे। खरीद एजेंसी इनकी कमीशन देती थी। ये किसानों से भी कमीशन लेते थे। अनुमान लगाया जा सकता है कि कृषि कानूनों से किसको नुकसान हो रहा था। किसानों को तो अधिकार व विकल्प दिए गए थे। केंद्र सरकार ने पहले ही कह दिया था कि किसानों को सीधे भुगतान की अनुमति नहीं दी गई तो सरकार पंजाब से गेहूं खरीद नहीं करेगी। इसके बाद ही पंजाब सरकार किसानों के बैंक खातों में सीधे अदायगी पर तैयार हुई।
 
आंदोलन की गरिमा तो गणतंत्र दिवस के दिन ही चली गई थी। फिर भी कुछ नेताओं की जिद पर आंदोलन चलता रहा। अब तो इसके आंतरिक विरोध भी खुलकर सामने आ गए हैं। कोई सरकार से पुनः बात करना चाहता है, कोई इसका विरोध कर रहा है। सच्चाई यह कि इसके नेताओं को आंदोलन में बैठे लोगों, उनके परिजनों व उनके गांवों की कोई चिंता नहीं है। अन्यथा कोरोना की इस आपदा में आन्दोलन को स्थगित तो किया जा सकता था। नए कृषि कानूनों में किसान हितों के खिलाफ कुछ भी नहीं है। पुरानी व्यवस्था कायम रखी गयी है, इसके साथ ही नए विकल्प देकर उनके अधिकारों में बढ़ोत्तरी की गई। ऐसे में किसानों की नाराजगी का कारण नजर नहीं आता। फिर भी किसानों के नाम पर आंदोलन चल रहा है। यह सामान्य किसान आंदोलन नहीं है। इस लंबे और सुविधाजनक आंदोलन के पीछे मात्र किसान हो भी नहीं सकते।
 
जाहिर है कि आंदोलन केवल किसानों का नहीं है। इसमें वे लोग भी शामिल हैं, जो अबतक किसानों की मेहनत का लाभ उठाते रहे हैं। कृषि कानून से इनको परेशानी हो सकती है। नरेंद्र मोदी ने कहा भी था कि बिचौलियों के गिरोह बन गए थे। वह खेतों में मेहनत के बिना लाभ उठाते थे। कृषि कानून से किसानों को अधिकार दिया गया है। पिछली सरकार के मुकाबले नरेंद्र मोदी सरकार ने किसानों की भलाई हेतु बहुत अधिक काम किया है। किसानों के नाम पर चल रहे आंदोलन का क्षेत्र अत्यंत सीमित है। राष्ट्रीय स्तर पर वास्तविक किसानों की इसमें सहभागिता नहीं है। क्षेत्र विशेष की समस्या का समाधान हेतु केंद्र सरकार लगातार प्रयास भी कर रही है। उसने अपनी तरफ से आंदोलनकारियों के प्रतिनिधियों को वार्ता हेतु आमंत्रित किया था। कई दौर की वार्ता हुई। सरकार जानती है कि कृषि कानून का विरोध कल्पना और आशंका पर आधारित है। इसको भी दूर करने के लिए सरकार ने लिखित प्रस्ताव दिए है। लेकिन आंदोलनकारियों ने अनुकूल रुख का परिचय नहीं दिया। वह हठधर्मिता का परिचय दे रहे थे। यह कहा गया कि सरकार कुछ प्रस्ताव जोड़ने की बात कर रही है। इसका मतलब की कानून गलत है। इसको समाप्त किया जाए। जबकि ऐसा है नहीं।
 
इसमें कोई सन्देश नहीं कि पिछले अनेक दशकों से कृषि आय कम हो रही थी। छोटे किसानों का कृषि से मोहभंग हो रहा था। गांव से शहरों की तरफ पलायन पिछली सभी सरकारें देखती रही। आज उन्हीं दलों के नेता किसानों से हमदर्दी दिखा रहे है। मोदी सरकार ने इस कमी को दूर करने का प्रयास किया। नए कानूनों के माध्यम से खेती के क्षेत्र में निजी निवेश गांव तक पहुंचाने की व्यवस्था की गई थी। जिससे किसान अगर अपनी उपज वहीं रोकना चाहता है तो उसके लिए पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्टर का प्रावधान किया गया। किसान को मनचाही कीमत पर अपना उत्पादन बेचने को स्वतंत्र किया गया। किसान को आजतक ये अधिकार क्यों नहीं मिला। वह अपना उत्पादन कहां बेचे और किस दाम पर बेचे इसकी स्वतन्त्रता नहीं थी। कानून के माध्यम से किसानों को स्वतंत्रता देने का प्रयास किया है।
 
कृषि मंत्री ने नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कांट्रेक्ट फार्मिंग से किसान को लाभ होगा। उनकी आय बढ़ेगी। छोटे किसान को यदि बुआई के पहले ही निश्चित कमाई की गारंटी मिल जाए तो ऐसे में उसकी रिस्क लेने की क्षमता बढ़ेगी वो महंगी फसलों की ओर जाने का फैसला ले सकता है।किसान आधुनिक तकनीक का उपयोग कर सकता है। कानून में कृषि उत्पाद हेतु बाजार की व्यवस्था का प्रावधान किया गया। इससे महंगी फसलों का अधिक दाम मिलना संभव होगा। राज्य सरकार खुद रजिस्ट्रेशन कर सकेगी।
 
आंदोलन के नेताओं ने कहा कि विवाद का समय एसडीएम नहीं कोर्ट करे। सरकार ने इस पर सकारात्मक रुख दिखाया। उसने अपनी स्थिति भी स्पष्ट की। सरकार ने छोटे किसानों के हित को ध्यान में रखकर निर्णय किया था। कोर्ट में की प्रकिया लंबी होती है। जबकि एसडीएम किसान के सबसे करीब का अधिकारी है। सरकार ने यह भी तय किया कि एसडीएम को तीस दिन में विवाद का निराकरण करना होगा। वह किसान की भूमि के विरुद्ध किसी भी प्रकार की वसूली का निर्णय नहीं दे सकेगा। नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि साठ वर्ष के ऊपर के किसान को हर महीने तीन हजार पेंशन मिलेगी। कई लाख किसान इसमें रजिस्टर्ड हो चुके हैं। इसकी ओर अभी तक किसी सरकार ने ध्यान नहीं दिया था। सरकार पहले से ही बारह करोड़ किसानों को किसान सम्मान निधि प्रदान कर रही है। खाद्य प्रसंस्करण के माध्यम से लोगों को रोजगार भी मिलेगा। किसान सम्मान निधि के माध्यम से पचहत्तर हजार करोड़ रुपए हर साल किसान के खाते में पहुंचाने का काम किया गया। आंदोलन में कितने किसान हैं, इसको लेकर भी सवाल उठते रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

 

Dakhal News 28 May 2021

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