डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
देश में किसान को समझने के सार्थक प्रयास हुए ही नहीं। आजादी के बाद से ही राजनीतिक दलों के लिए किसान सत्ता की सीढ़ी चढ़ने का माध्यम बने रहे। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि सत्ता की वैतरणी पार करने के लिए किसान प्रमुख माध्यम रहा है। कर्ज माफी ऐसा नारा रहा है जो पिछले पांच दशक से छाया रहा है। किसानों को ब्याजमुक्त ऋण से लेकर ऋण माफी का लंबा सिलसिला चला आ रहा है पर जो ठोस प्रयास होने चाहिए वह प्रयास देश के कोने-कोने में अपने बलबूते पर प्रयास कर रहे अन्नदाता का ही है जो पद्मश्री या कृषि विज्ञानी पुरस्कार पाने के बाद भी उस मुकाम को प्राप्त नहीं कर सके हैं जो हासिल होना चाहिए।
यह सही है कि किसानों की बदहाली और खेती किसानी से होने वाली आय को लेकर आज सभी राजनीतिक दल चिंतित हैं। लगभग सभी दल और किसानों से जुड़े संगठन किसानों की ऋणमाफी की बात तो करते ही हैं तो कोई कृषि उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने, कोई अनुदान बढ़ाने या कोई किसानों को दूसरी रियायतें देने पर जोर दे रहे हैं। मजे की बात यह है कि अब तो ऋणमाफी या एक-दूसरे की घोषणाओं पर तंज कसते हुए अपनी योजनाओं को अधिक किसान हितैषी बताने की जुगत में भी लगे हैं। मजे की बात यह है कि ऋणमाफी या दूसरी इसी तरह की घोषणाएं किसानों की तात्कालिक समस्या को तो हल कर रही है पर दीर्घकालीन कृषि विकास में ऋणमाफी जैसी घोषणाएं कितनी कारगर होगी, यह आज भी सवालों के घेरे में है।
आजादी के बाद देश में कृषि विज्ञानियों ने शोध व अध्ययन के माध्यम से तेजी से कृषि उत्पादन बढ़ाने की दिशा में काम किया। अधिक उपज देने वाली व प्रदेश विशेष की भौगोलिक स्थिति के अनुसार जल्दी तैयार होने वाली किस्मों का विकास हुआ। रोग प्रतिरोधक क्षमता व उर्वरा शक्ति बढ़ाने के नए-नए प्रयोग हुए। खेती किसानी को आसान बनाने के लिए एक से एक कृषि उपकरण बाजार में आए। इस सबके बावजूद हमारी खेती अंधाधुंध प्रयोगों की भेंट चढ़ती गई। आज एक ओर उर्वरकों और कीटनाशकों के संतुलित प्रयोग की बात की जा रही है तो दूसरी और ऑरगेनिक खेती व परंपरागत खेती को बढ़ावा देने की आवश्यकता प्रतिपादित की जा रही है। आज तकनीक के अत्यधिक प्रयोग से पशुपालन पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। हालांकि अब किसानों की आय को दोगुणा करने के संकल्प के चलते कंपोजिट खेती की बात की जा रही है, जिसमें खेती के साथ ही अतिरिक्त आय के लिए पशुपालन, मत्स्य पालन, मधुमक्खी पालन और इसी तरह के अन्य कार्यों को साथ-साथ करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।
इन सबके बीच देश के कोने-कोने मेें प्रगतिशील किसानों द्वारा अपने बल पर या कहें कि संकल्पित होकर खेत को ही प्रयोगशाला बनाकर कुछ नया करने में जुटे कृषि विज्ञानियों को सामने लाने की पहल जाने-माने कृषि लेखक डॉ. महेन्द्र मधुप ने की है। डॉ. मधुप ने देश के 13 प्रदेशों के 56 प्रगतिशील किसानों को एक माला में पिरोते हुए उनके नवाचारों को पहचान दिलाने का प्रयास किया है। अन्वेषक किसान के नए अवतार में लाख कठिनाइयों से जूझते हुए खेती के लिए कुछ नया करने के प्रयासों को इस पुस्तक में समाहित किया है। कहने को हमारे यहां जुगाड़ शब्द का आम चलन है पर जुगाड़ ही इनमें से कई किसानों के प्रयासों से खेती आसान हुई है। सबसे अच्छी बात यह कि यह सब अपने बलबूते और कठिन संघर्ष के बाद हासिल हुआ। इन प्रगतिशील किसान विज्ञानियों ने प्रयोगशाला या कागज-पेन के सहारे नहीं, खेत-खलिहान की वास्तविक प्रयोगशाला में प्रयोग किए हैं। यही कारण है कि चाहे महाराष्ट्र के सुभाष पालेकर हों या राजस्थान के जगदीश पारीक या हरियाणा के धर्मवीर कंबोज या इस पुस्तक में स्थान पानेे वाले अन्य 56 कर्मवीर किसान अपनी मेहनत से मुकाम हासिल कर पाए हैं।
सबसे जरूरी है सरकार अपने बजट का कुछ हिस्सा खेत से सीधे जुड़े इन प्रयोगधर्मी किसानों के खेत को ही योजनाओं के क्रियान्वयन, किसानों के शिक्षण-प्रशिक्षण और विजिट का व्यावहारिक केन्द्र बनाने की दिशा में आगे बढ़े तो इन विज्ञानियों को न केवल प्रोत्साहन मिलेगा अपितु किसानों को धरातलीय अनुभव का लाभ मिलेगा। किसी भी योजना या किसानों के प्रशिक्षण का कुछ प्रावधान रखा जाता है तो यह खेती किसानी को नई दिशा दे सकेगा। इसके लिए इस क्षेत्र में कार्य कर रहे गैरसरकारी संगठनों को भी आगे आना होगा। आशा की जानी चाहिए कि गुदड़ी के लाल इन अन्वेषी किसानों की पहल को प्रोत्साहित करने के सकारात्मक प्रयास होंगे, तभी डॉ. मधुप की मेहनत रंग लाएगी। सरकार किसानों की आय को दोगुणा करने की दिशा में आगे बढ़ रही है, ऐसे में इन अन्वेषी किसानों के प्रयोगों से किसानों को जोड़ने के प्रयास करने ही होंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)