विरोधियों को चाहिए बहाना
bhopal, Opponents need excuse
सियाराम पांडेय 'शांत'
 
कुछ लोगों की बेवजह लड़ने, विरोध अथवा मीन-मेख निकालने की आदत होती है। जहां जरूरत न हो, वहां भी विवाद-फसाद की जमीन तैयार कर लेते हैं। वहीं, कुछ लोग सहजता में ऐसे काम कर जाते हैं जो विपरीत धारा के लोगों को न केवल उद्वेलित और विचलित करते हैं बल्कि उन्हें विरोध करने की आधारभूमि भी मुहैया कराते हैं। अच्छा होता कि नए प्रयोगों को अंजाम देने से पूर्व जनसम्मति ले ली जाती। विरोधियों की भी राय जान ली जाती। विरोधी से समर्थन की अपेक्षा बेमानी है लेकिन सबका दिल जीतने के प्रयास होते ही रहने चाहिए।
 
देश में महाकाल एक्सप्रेस को भी लेकर राजनीतिक विवाद आरंभ हो गया है। यह विवाद उसे धार्मिकता से जोड़ने को लेकर है। ट्रेन राष्ट्रीय संपत्ति है और इसे धार्मिक स्वरूप दिया जाना चाहिए या नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन अकारण विवाद की स्थिति पैदा करना किसी लिहाज से ठीक नहीं। ट्रेन का नाम कुछ भी रखा जा सकता है। पहले भी देवी-देवताओं और महापुरुषों के नाम पर ट्रेनों का संचालन हुआ लेकिन कभी प्रतिवाद नहीं हुआ। काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस लंबे समय से चल रही है लेकिन इसमें बाबा विश्वनाथ के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं की गई। इसमें कोई मंदिर नहीं बनाया गया। कामाख्या एक्सप्रेस में भगवती कामाख्या का एक भी चित्र नहीं लगाया गया। वैद्यनाथ धाम एक्सप्रेस के साथ भी कमोबेश यही स्थिति रही है। अनेक ऐसी ट्रेन हैं जो देवी-देवताओं या तीर्थस्थलों के नाम पर हैं। सवाल उठता है कि जब बाकी ट्रेनों में इस तरह के प्रयोग नहीं हुए तो इसका क्या औचित्य है? कुछ लोग इस बात पर आपत्ति जाहिर कर सकते हैं कि सरकार ट्रेनों का भगवाकरण कर रही है लेकिन इस विचारधारा पर सम्यक चिंतन और मनन की भी आवश्यकता है।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16 फरवरी को अपने संसदीय क्षेत्र से महाकाल एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। चूंकि यह ट्रेन महाकाल के नाम से शुरू की गई है, इसलिए रेलवे ने उसे महत्व देने की कोशिश की। इसके लिए उसने नवोन्मेष भी किया है। यह पहली ट्रेन है जिसमें कोच बी-5 में एक सीट भगवान महाकाल के लिए आरक्षित की गई है। अनजाने में कोई उस सीट पर बैठ न जाए, इसलिए सीट पर महाकाल का मंदिर बना दिया गया है। यह पहली ट्रेन है जिसमें इस तरह की व्यवस्था की गई है लेकिन इसपर राजनीति शुरू हो गई है। एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन औवेसी ने तो प्रधानमंत्री कार्यालय को ट्वीट कर ट्रेन की सीट पर शिव मंदिर बनाए जाने को लेकर सवाल उठा दिया है। उन्होंने अपने ट्वीट में संविधान की प्रस्तावना भी साझा की है और यह बताने-जताने की कोशिश की है कि संविधान में सभी धर्मों के लोगों के साथ समानता का व्यवहार करने की बात कही गई है।
किसी ट्रेन के चलने और उसमें धार्मिक वातावरण बनाए रखने में किसी को क्या ऐतराज हो सकता है? रही बात महाकाल एक्सप्रेस की तो यह काशी, उज्जैन और ओंकारेश्वर को जोड़ती है। देश के दो राज्यों उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच की यात्रा को आसान बनाती है। काशी विश्वनाथ, महाकाल, ओंकारेश्वर और मम्लेश्वर के प्रति शिवभक्तों की अपार आस्था है। उनकी श्रद्धा और विश्वास को यह ट्रेन मजबूती प्रदान करेगी, इतनी उम्मीद की जा सकती है। यात्री जिस स्थल पर जा रहा है, अगर उसके साथ सकारात्मक आध्यात्मिकता का समावेश हो, शुचिता और सद्भाव बना रहे तो इसमें बुराई क्या है? इस ट्रेन में भारत या दुनिया का कोई भी भारत आया पर्यटक भी यात्रा कर सकता है। किसी के लिये भी इस ट्रेन में न बैठने देने जैसा कोई नियम नहीं बनाया गया है, ऐसे में समानता के अधिकारों का हनन कहां होता है?
 
महाकाल एक्सप्रेस में भक्ति संगीत की व्यवस्था भी की गई है। हर कोच में दो निजी गार्ड होंगे और केवल शाकाहारी भोजन मिलेगा। हर कोच में पांच सुरक्षाकर्मियों की तैनाती होगी मतलब यात्री सुरक्षित और निरापद यात्रा कर सकेंगे, इस बात का विश्वास तो किया ही जा सकता है। जिस तरह महाकाल एक्सप्रेस का इंदौर में भजन गाकर स्वागत किया गया, वह काबिलेतारीफ है। यह स्वागत का सिलसिला रोज नहीं चलेगा, यह सबको पता है लेकिन इससे जनभावना का प्रकटीकरण तो होता ही है। ट्रेन में इंदौर का पोहा, काशी की कचौरी, पूड़ी-भाजी और भोपाल के आलूबड़े का स्वाद यात्री ले सकेंगे, यह क्या कम है? ट्रेन का न्यूनतम किराया भले ही अधिक हो लेकिन प्रति यात्री दस लाख रुपये का बीमा उम्मीद बढ़ाता है।
 
असदुद्दीन ओवैसी को इसे राजनीतिक चश्मे से नहीं देखना चाहिए। वैसे भी ओवैसी ने सही निर्णयों पर भी सवाल उठाए हैं लेकिन उनकी देखादेखी अन्य राजनीतिक दल भी अपनी रोटी सेंक सकते हैं। बेहतर तो यही होगा कि इसे सकारात्मक नजरिये से ही देखा जाए। ट्रेनों में यात्रियों की सुरक्षा के साथ उनके स्वस्थ मनोरंजन का भी ध्यान रखा जाए। इस बहाने रोजगार के नए अवसर सृजित किए जाएं। अच्छा होता कि अन्य धर्मों के लोगों को सम्मान देते हुए और भी इस तरह की नई ट्रेनें चलाई जाएं। इससे देश में सांप्रदायिक सौहार्द और सामाजिक समरसता का माहौल बनेगा।
विरोध का बहाना ढूंढते बहुत दिन हो गए, अब विरोध में भी सकारात्मकता झलकनी चाहिए। विरोध जोश में नहीं, पूरी तरह होश में किया जाना चाहिए। आचार्य रजनीश ने कहा है कि अच्छे काम भी होश में रहकर किया जाना चाहिए और बुरे काम भी। आप अपने में बड़ा परिवर्तन देखेंगे, ऐसा परिवर्तन जिसकी आपने कल्पना भी नहीं की होगी। रेलवे विभाग धार्मिक हो रहा है या अधार्मिक, यह उतना मायने नहीं रखता, जितना यह कि वह यात्रियों के मनोविज्ञान को समझ रहा है और बेहतर व्यावसायिकता को तरजीह दे रहा है। वह यात्रियों की सुरक्षा-संरक्षा, उनके स्वास्थ्य और मनोरंजन का ध्यान रख रहा है, विचार तो इसपर होना चाहिए।
 
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
Dakhal News 18 February 2020

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