आजादी की वेदी पर दी शहादत
bhopal,  Martyrdom on the altar of independence

(असहयोग आंदोलन के पहले शहीद पत्रकार पंडित रामदहिन ओझा के शहादत दिवस 18 फरवरी पर विशेष)

विनय के. पाठक

देश की आजादी के आंदोलन से पत्रकारिता का विशेष संबंध रहा है। आजादी के आंदोलन में आम लोगों के बीच अलख जगाने में तत्कालीन अखबारों और पत्रकारों की भूमिका, दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों से कम नहीं है। अनेक पत्रकारों ने आजादी के आंदोलन में घर-परिवार छोड़ देश पर सर्वस्व न्योछावर कर दिया। अपनी लेखनी के बल पर उन्होंने अनगिनत लोगों को आजादी के आंदोलन से जोड़ा। इसकी वजह से उन्हें तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों का सामना करना पड़ा, कठोर कारावास तक की सजा भुगतनी पड़ी और कुछ ने तो स्वतंत्रता की वेदी पर बलिदान तक दिया। ऐसे ही आजादी के मतवाले पत्रकारों में एक नाम पंडित रामदहिन ओझा का भी है, जिन्हें गांधीजी के असहयोग आंदोलन के दौरान देश के लिए शहादत देने वाला पहला पत्रकार माना जाता है।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में देश का हर कोना अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ समर्पित हो चला था। शायद ही कोई भौगोलिक क्षेत्र, समुदाय अथवा वर्गीय लोग हों, जिन्होंने इस यज्ञ में आहुति न दी हो। पत्रकार और पत्रकारिता तो देश के लिए इस लड़ाई में सबसे आगे रहने वाला हिस्सा था। ऐसे ही पत्रकार सेनानियों में एक थे कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) से 1923-24 में प्रकाशित होने वाले हिन्दी साप्ताहिक 'युगांतर' के सम्पादक पंडित रामदहिन ओझा। उत्तर प्रदेश के बलिया जिलान्तर्गत बांसडीह कस्बे के रहने वाले पंडित रामदहिन ओझा अपनी ओजस्वी लेखनी और आजादी के लिए जन आंदोलन में अपने भाषणों के आरोप में कई बार गिरफ्तार किए गये। जिस समय बलिया जेल में उनकी शहादत हुई, उनकी उम्र सिर्फ 30 वर्ष थी। उनके साथी रहे स्वतंत्रता सेनानी हमेशा कहते रहे कि पंडित रामदहिन ओझा के खाने में धीमा जहर दिया जाता रहा और इसी कारण उनकी मृत्यु हुई।

ऐसे सेनानी के बारे में संक्षेप में कहें तो मात्र 30 वर्ष के उनके सम्पूर्ण जीवन के बहुआयामी पक्ष हैं। कवि, पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उनके सारे आयाम देश को समर्पित थे। उस दौर में जब पूर्वी उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश के अधिकांश क्षेत्र में प्रगति का नामोनिशान तक नहीं था, प्रारम्भिक शिक्षा के बाद रामदहिन ओझा के पिता उन्हें आगे की शिक्षा के लिए कलकत्ता ले गये। क्रांतिकारियों की इस धरती पर उन्हें मातृभूमि के लिए समर्पण की प्रेरणा मिली। बीस वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते देशभक्त लेखक पत्रकार रामदहिन ओझा की कलकत्ता और बलिया में स्वतंत्रता योद्धाओं और सुधि राष्ट्रसेवियों के बीच पहचान बन चुकी थी। कलकत्ता के 'विश्वमित्र', 'मारवाणी अग्रवाल' आदि पत्र-पत्रिकाओं में कुछ स्पष्ट नाम तो कुछ उपनाम से उनके लेख और कविताएं छपने लगी थीं। उन्होंने कलकत्ता, बलिया और गाजीपुर की भूमि को सामान्य रूप से अपना कार्यक्षेत्र बनाया। आजादी के लिए अनुप्रेरक उनकी लेखनी और ओजस्वी भाषण ही था, जिसके चलते उन्हें पहले बंगाल, बाद में बलिया और गाजीपुर से निष्कासन का आदेश थमा दिया गया। उनकी 'लालाजी की याद में' और 'फिरंगिया' जैसी कविताओं पर प्रतिबंध लगा। वर्ष 1921 में छह अन्य सेनानियों के साथ बलिया में पहली गिरफ्तारी में बांसडीह कस्बे के जिन सात सेनानियों को गिरफ्तार किया गया, पंडित रामदहिन ओझा उनमें सबसे कम उम्र के थे। गांधीजी ने इन सेनानियों को असहयोग आंदोलन का सप्तऋषि कहा था।

रामदहिन ओझा 1922 और 1930 में फिर गिरफ्तार किये गये। अंतिम गिरफ्तारी में 18 फरवरी 1931 का वो काला दिन भी आया जब रात के अंधेरे में बलिया जेल और जिला प्रशासन ने मृतप्राय सेनानी को उनके मित्र, प्रसिद्ध वकील ठाकुर राधामोहन सिंह के आवास पहुंचा दिया। उन्हें बचाया नहीं जा सका। बाद में पद्मकांत मालवीय कमेटी ने अपनी जांच में पाया कि पंडित ओझा के खाने में मीठा जहर मिलाया जाता रहा, इसके चलते उनकी मौत हुई। इस तरह एक युवा सेनानी 1931 के प्रारम्भ में ही शहीद हो गया। उनके बलिदान और 1921 तथा 1930-31 में देशसेवा के उल्लेखनीय योगदान ने बलिया के सेनानियों में ऐसी ऊर्जा का संचार किया, जिसका प्रस्फुटन 1942 की जनक्रांति में दिखाई देता है। बंगाल के मेदिनीपुर और महाराष्ट्र के सतारा की तरह बलिया के सेनानियों ने 1942 में ही कुछ दिनों के लिए अपनी आजाद सरकार चलाई थी। निश्चित ही इसकी प्रेरणा पंडित रामदहिन ओझा जैसे सेनानियों से भी मिली होगी।

वैसे भी आजादी की लड़ाई में उत्तर प्रदेश के बलिया का हमेशा ही विशेष उल्लेख किया जाता है। 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में बलिया के मंगल पांडेय की पहली शहादत हुई थी तो 1942 में बंगाल के मेदिनीपुर और महाराष्ट्र के सतारा की तरह बलिया भी कई दिनों तक स्वाधीन रहा। इसके नायक चित्तू पांडेय थे। इसी तरह माना जाता है कि असहयोग आंदोलन में किसी पत्रकार की पहली शहादत बलिया के ही पंडित रामदहिन ओझा की थी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

Dakhal News 17 February 2020

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