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उमेश त्रिवेदी
बंगाल की फायर-ब्राण्ड मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने विमुद्रीकरण के विरोध में सियासी-जंग छेड़ते हुए ’मोदी हटाओ, देश बचाओ’ जैसा नारा उछाल कर देश में पक्ष-विपक्ष की राजनीति को रिवर्स मोड में खड़ा कर दिया है। ममता बैनर्जी के इस अधकचरे और असामयिक आह्वान के साथ भारत की राजनीति 45 साल पुराने उस दौर में जा पहुंची है, जब 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ ’इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’ जैसा नारा परिवर्तन का वाहक बनकर जनता के बीच दहक रहा था। ममता बैनर्जी का कहना है कि अब उनका एक मात्र उद्देश्य प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सत्ता से बेदखल करना है। मोदी और उनके चार साथी मिलकर देश को चाहे जैसा चला रहे हैं। ’अली-बाबा और उनके चार साथी’ अपने मनमानेपन और सनक के बुलडोजर से देश को रौंद रहे हैं। बकौल ममता बैनर्जी शुरुआत में विमुद्रीकरण का समर्थन करने वाले नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू को भी समझ में आने लगा है कि देश के लिहाज से बड़ी गफलत हो चुकी है।
मोदी और इंदिरा गांधी के बीच इस नारे के राजनीतिक समीकरणों की व्याख्या करें तो पाएंगे कि समय के फलक पर वर्तमान के फड़फड़ाते पन्नों में आम जनता की गरीबी, गुरबत और गर्दिशों के साये फिर लंबे होते जा रहे हैं। मोदी को हटाकर देश को बचाने की ये राजनीतिक चिंगारियां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विमुद्रीकरण के बाद उड़ना शुरू हुई हैं, जबकि इंदिरा गांधी के खिलाफ यह राजनीतिक आघात आपातकाल के बाद शुरू हुआ था। दोनों घटनाक्रमों में फर्क इतना है कि इंदिरा गांधी के विरुद्ध यह नारा उनके पदारोहण के ग्यारह साल बाद जन्मा था, जबकि नरेन्द्र मोदी के खिलाफ यह आग मात्र ढाई साल में सुलगने लगी है। इंदिराजी 1966 में देश की प्रधानमंत्री बनी थीं, और विपक्ष ने आपातकाल के बाद 1977 में इंदिरा हटाओ, देश बचाओ के नारे के साथ उनके खिलाफ युद्ध का शंखनाद किया था। नरेन्द्र मोदी और इंदिरा गांधी की राजनीतिक परिस्थितियों में एक समानता स्पष्ट दिखती है कि दोनों अपने वक्त के निर्विवाद और निरंकुश नेता रहे हैं। 1977 के पहले इंदिरा गांधी के राजनीतिक बहीखाते में बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रिवीपर्स की समाप्ति, पोखरण में परमाणु विस्फोट और बंगला देश विजय जैसे सफलता के तमगे लगे थे, जबकि पिछले ढाई वर्षों में विमुद्रीकरण मोदी का पहला बड़ा जोखिम भरा राजनीतिक फैसला है। इंदिराजी के राजनीतिक-आतंक के आगे समूची कांग्रेस वैसे ही नतमस्तक थी, जैसा इन दिनों भाजपा मोदी के आगे है। कांग्रेस-अध्यक्ष देवकांत बरुआ का स्तुतिगान खुशामद की पराकाष्ठा को रेखांकित करता है कि ’इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’। इंदिरा गांधी को स्तुतियों का लाभांश आठ-दस सालों बाद बंगला देश जैसा युद्ध जीतने के बाद मिला था, जबकि नरेन्द्र मोदी उपलब्धियों का बही-खाता शून्य होने के बावजूद मात्र ढाई वर्षों में उस मुकाम पर पहुंच गए हैं। पिछले दिनों संसदीय-कार्य और सूचना-प्रसारण मंत्री वैंकय्या नायडू ने फरमाया था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश को ईश्वर की देन हैं। मोदी की यह विरुदावली अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग धुनों में गाई जाती रही है।
इंदिरा गांधी ने राजनीति में पहली बार 1971 में गरीबी को तुरुप का इक्का बनाकर चुनाव के मैदान में फेंका था। इंदिराजी के ’गरीबी हटाओ’ नारे के कारण कांग्रेस ने जबरदस्त बहुमत हासिल किया था। इंदिरा गांधी के राजनीतिक-मर्म का अनुसरण करते हुए मोदी ने भी एक हजार और पांच सौ की नोटबंदी को भावनात्मक रूप से गरीबों से जोड़ दिया है। मोदी जनता को यह समझा रहे हैं कि नोटबंदी का कदम गरीबों की भलाई की दिशा में ऐतिहासिक कदम है। 1977 से पहले 1971 में इंदिराजी ने देश में रोटी, कपड़ा और मकान के समाजवादी सपनों को गरीबी हटाओ के नारे की पैकेजिंग के साथ चुनाव में सफलतापूर्वक बेचा था। नरेन्द्र मोदी भी नोटबंदी में आतंकवाद, काला धन की चमक में गरीबी के कारगर पैकेजिंग के साथ विधानसभा चुनाव की तैयारियां कर रहे हैं। आतंकवाद और काले धन के साथ गरीबी का पैकेजिंग ममता बैनर्जी के मोदी हटाओ नारे पर भारी पड़ रहा है। वैसे भी ममता बैनर्जी के आह्वान से राजनीति में बवण्डर बनना शुरू नहीं हुए हैं। तृणमूल कांग्रेस के अलावा अन्य दलों ने किसी भी तरीके से इसमें सहभागिता के संकेत नहीं दिए हैं। गरीबी की राजनीतिक-तुरुप ने काले-धन के सारे पांसे पलट दिए हैं। [लेखक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।]
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