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अजय कुमार शर्मा
ओपी नैय्यर को ज्यादातर संगीत प्रेमी तांगे वाले या घोड़े की टापों वाले संगीतकार के रूप में जानते-पहचानते हैं। उन्हें लता मंगेशकर के रहते आशा भोसले की मतवाली आवाज को घर-घर पहुंचाने का श्रेय भी दिया जाता है। उस समय यह एक बड़ी बात थी क्योंकि विभाजन के दौरान नूरजहां जैसी लोकप्रिय गायिका के पाकिस्तान चले जाने और इस दौरान 'महल', 'अंदाज' और 'बरसात' जैसी फिल्मों की सफलता के कारण लता मंगेशकर हिंदी सिनेमा की नंबर एक गायिका हो चुकी थीं। उनके चाहने न चाहने से ही फिल्मों के संगीतकारों का चयन किया जाता था और फिल्मों के डिस्ट्रीब्यूटर फिल्म खरीदने से पहले पूछा करते थे कि इसमें लता जी के कितने गाने हैं? ऐसे में यह कल्पना भी बेहद मुश्किल है कि कोई लता जी के बिना सफल संगीतकार तो बने ही बल्कि लंबे समय तक फिल्मों में टिका भी रहे, लेकिन यह करिश्मा पहली और अंतिम बार ओपी नैय्यर ने ही किया ।
16 जनवरी, 1926 को लाहौर के एक मध्यवर्गीय पंजाबी परिवार में जन्मे ओपी नैय्यर विभाजन के समय पाकिस्तान से भारत आए थे। कुछ दिनों अमृतसर में रहने के बाद वे काम की तलाश में बंबई आए। लाहौर के परिचित एसएन भाटिया और अभिनेता श्याम की सिफारिश पर उस समय के प्रसिद्ध निर्माता दलसुख पंचोली और लोकप्रिय निर्देशक एस मुखर्जी से मिले लेकिन कुछ बात बनी नहीं। आखिरकार मई, 1951में उन्हें पंचोली साहब की फिल्म 'आसमान' में संगीत देने के लिए अनुबंधित किया गया। अब इसे किस्मत कहा जाए या नियति ...। लता मंगेशकर के साथ उनके तनाव की पृष्ठभूमि उनकी पहली ही फिल्म से तैयार हो गई।
'आसमान ' के एक गीत के लिए उन्होंने लता जी से संपर्क करना चाहा। यह गीत फिल्म की सहनायिका पर फिल्माया जाना था। लता जी को यह जानकारी भी प्राप्त हुई कि फिल्म की नायिका के लिए गीता दत्त की आवाज का इस्तेमाल किया जा रहा है। उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगी। वे उन्हें टालती रहीं और थक-हारकर ओपी नैय्यर ने यह गाना राजकुमारी से गवा लिया। गाने के बोल थे- जब से पी भी संग नैना लागे ... लेकिन लता जी के इस व्यवहार से नैय्यर साहब के अहम को भारी ठेस पहुंची। उन्होंने अपने आप को अपमानित महसूस किया। इस बीच एक और घटना घटी।
गुरुदत्त की फिल्म 'आरपार' के लिए ओपी नैय्यर का दिया संगीत हिट हो गया तो कई फिल्म निर्माताओं ने वितरकों के दबाव में अपने पहले से साइन किए संगीतकारों के बदले ओपी नैय्यर को साइन कर लिया। ऐसी ही फिल्म 'महबूबा' के निर्माता के.अमरनाथ ने संगीतकार रोशन को हटाकर ओपी को साइन कर लिया, जबकि तब तक लता मंगेशकर इस फिल्म के लिए चार गाने गा चुकी थीं। लता जी को जब यह पता चला तो रोशन को बीच फिल्म में हटाए जाने के विरोध में इस फिल्म के लिए गाना गाने से इनकार कर दिया। जब यह बात ओपी नैय्यर को पता चली तो उन्होंने गुस्से में प्रेस को बयान दे दिया कि वे तो इस फिल्म के शेष गाने लता जी से गंवाने की सोच ही नहीं रहे थे। लता जी के दबाव के चलते यह विवाद सिने म्यूजिक डायरेक्टर एसोसिएशन के पास चला गया जिसके अध्यक्ष उस समय अनिल विश्वास थे। नौशाद और अनिल विश्वास को मामला सुलझाने के लिए नैय्यर साहब से मिलना पड़ा, लेकिन उन्होंने जवाब दिया कि उनके निर्माताओं ने मेरे कहने पर नहीं बल्कि स्वयं ही अपने संगीतकारों को अपनी फिल्मों से बाहर किया है। ओपी नैय्यर को लता जी का इस मामले मैं इस तरह सक्रिय होना अच्छा नहीं लगा और उन्होंने अपनी धुनों के लिए लता की आवाज कभी भी न लेने का पक्का फैसला कर लिया।
चलते चलते
ओपी नैय्यर (ओंकार प्रसाद नैय्यर) का जिक्र हो और आशा भोंसले का नाम न आये, ये तो संभव ही नहीं है। ओपी को आशा भोंसले की आवाज का इस्तेमाल करने की सलाह सर्वप्रथम फिल्म 'छम छमा छम' के निर्देशक और गीतकार पीएल संतोषी ने दी थी। ओपी के लिए पहला गाना आशा ने "आ परदेशी बालमा मोरे अंगना" फिल्म 'छम छमा छम' के लिए ही गाया था। आशा भोंसले की गायिकी को निखारने में और उनको उनका सही मुकाम दिलाने में ओपी का बहुत बड़ा हाथ था। ओपी से जुड़ने से पहले फिल्म निर्माता तभी आशा भोंसले को याद किया करते थे, जब लता उपलब्ध नहीं होती थीं या उनकी फिल्म का बजट कम होता था। आशा को अधिकतर कैबरे या लता मंगेशकर के द्वारा छोड़े गए गीत ही गाने को मिलते थे, किंतु ओपी ने आशा को लता की छोटी बहन की छवि से बाहर निकाल कर, आशा भोंसले को उनकी एक अलग छवि, पहचान और मुकाम दिया। उनके अंदर अपनी आवाज के प्रति आत्मविश्वास पैदा किया और लता मंगेशकर को टककर देने का जज्बा भी।
(लेखक- राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। नब्बे के दशक में खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए ख्यातिलब्ध रही प्रतिष्ठित पहली हिंदी वीडियो पत्रिका कालचक्र से संबद्ध रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)
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