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21 January 2025उमेश त्रिवेदी
पहले भी हम लिखा-पढ़ा और सुना करते थे और आज भी करते हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है और अस्सी करोड़ से ज्यादा लोग देहातों में बसते हैं। अर्थ व्यवस्था में इसके योगदान की चर्चा करें तो पाएंगे कि जीडीपी में खेती-किसानी का योगदान 14-15 प्रतिशत है। आजादी के पहले 10-20 वर्षों में जब लोग ताजा-ताजा गांवों को छोड़ कर शहरों में रोटी-रोजगार के लिए आए थे, तब गुरबत-बदहाली के बावजूद अपने-अपने देहातों के साथ एक अजीबोगरीब रूमानियत भरा रिश्ता महसूस होता था। सांझ-सकारे, अम्मा-दादी और नाना-बाबा के किस्सों में रोजाना अपने गांव और ओटलों से रूबरू होना जिंदगी का हिस्सा था। लेकिन गांवों के साथ यह हिस्सेदारी अब खत्म हो चली है, रूमानियत मिटने लगी है, क्योंकि खेतों का स्वभाव बदलने लगा है, जमीन में पथरीलापन और पगडंडियों में कांटे उगने लगे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि देश बदल रहा है... हमारे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कहते हैं कि मेरे गांव बदल रहे हैं, लेकिन यदि महाकवि नागार्जुन के चूल्हे-चक्की के पुराने प्रतीकों को छोड़ दिया जाए तो देहातों में किसानों के हालात आज भी वैसे ही हैं, जैसे कि उन्होंने करीब पचास साल पहले अपनी कविता ''अकाल और उसके बाद'' में बयां किए थे। किसान और उसकी झोपड़ी की मनोदशाओं के शब्द-चित्र को उकेरते हुए उन्होंने लिखा था कि- 'कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास, कई दिनों तक काली कुतिया सोई उसके पास, दाने आए घर के भीतर कई दिनों के बाद, धुंआ उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद... चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद, कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद...।'
सरकार के राजनीतिक-कारोबार में दिन दूनी रात चौगुनी वृध्दि के अलावा हिन्दुस्तान के देहातों में गुरबत और गरीबी के हालात वैसे ही हैं, जैसे कि बाबा नागार्जुन ने शब्दों में पिरोए हैं। यह राजनीतिक-कारोबार भी किसानों की तकलीफों का सबसे बड़ा कारक है, जो किसानों का इस्तेमाल करके उन्हें कूड़े में फेंक देता है।
नागार्जुन के किसानों का यह शब्द-चित्र जहन को एकाएक इसलिए कुरेदने लगा कि मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में गोलीबारी से मारे गए किसानों को असामाजिक तत्व कह कर दुत्कारा जा रहा है, अथवा उनकी वेशभूषा के आधार पर नकारा जा रहा है। गांवों में किसानों की वेश-भूषा के अलावा कुछ नहीं बदला है... किसान अभी भी एक चाबुक से, एक साथ हंकाली जाने वाली, वही पुरानी निरीह भेड़ों के झुण्ड समान हैं, जिनके बालों को नोचना पहले जमींदारी और साहूकारी व्यवस्था का अंग था, अब उन्हें लहूलुहान करना सरकारी राजतंत्र का कर्तव्य है।
मुंशी प्रेमचंद के 'होरी' ने मैली-कुचैली, फटी-पुरानी बंडी-धोती के बदले टी-शर्ट और जींस-पेंट्स को धारण करना शुरू कर दिया है। उसके वेश बदलने के यह मायने नहीं है कि उनका सामाजिक परिवेश भी बदल गया है। बदलाव मार्केट की मजबूरी का सबब है। बंडी अब मिलती नहीं है और जींस-पेंट धोती से सस्ती हैं। बकौल नागार्जुन उनके 'आस-पास जमींदार हैं, साहूकार हैं, बनिया हैं, व्यापारी हैं...। अन्दर-अन्दर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी हैं...। बदहाली और शोषण की व्यवस्था के दुष्चक्र की कहानी पहले होल्डर-दवात से लिखते थे, अब उसके बदले पारकर, मॉण्टब्लां जैसे सोने की निब वाले पेन आ गए हैं।
उधारी का चक्रव्यूह आज भी बरकरार है। चैत में उसके खेत-खलिहानों में रखे गेहूं-चने की रौनक बमुश्किल एक पखवाडे में साल भर की उधारी चुकाने में भाप जैसी उड़ जाती है। किसान कपडे-लत्ते समेट रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने वाली हर चीज साल भर की उधारी पर महंगे भाव में लेता है। साल भर की उधारी का ब्याज भी उसी के खाते से जाता है। चैत में पहली फुर्सत में गेहूं-चना बेचकर यह उधारी चुकाना उसकी नियति है। दिसम्बर 2016 में केन्द्र सरकार ने राज्यसभा में बताया था कि देश में 9 करोड़ किसान-परिवारों में से करीब पौने पांच करोड़ परिवार कर्जदार हैं।
गांव और खेत-खलिहान उधारी के महाजनी-चरित्र से मुक्त नहीं हो पाए हैं। चक्रवृध्दि ब्याज की चाबुक किसानों की खाल उधेड़ती रहती है। पहले महाजन खेतों में खड़ी फसल कटवा लेता था, आजकल बैंकों की ओर से वसूली करने वाले दबंग दादा-पहलवान खेतों में ऱखे ट्रॉली-ट्रेक्टर और मोटर सायकल उठा ले जाते हैं। सरकारी एजेंसियों की घटिया कीटनाशक दवाएं, रासायनिक खाद और बीज की शिकायतें पहले की तरह अनसुनी रह जाती हैं। साल में बारहों महीने खाली हाथ रहना किसानों की सबसे बड़ी विडम्बना है।
राजनीतिक भ्रष्टाचार और दुराव के कारण किसान आज भी दुरवस्था के घेरे में खड़े हैं। अभी तक दुरवस्था की आंच मध्य प्रदेश का गांवों तक नहीं पहुंची थी, लेकिन मंदसौर में 6 किसानों की मौत के बाद चेतावनी का बिगुल मध्य प्रदेश में भी बज चुका है।
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9 June 2017
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