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कालाहांडी में मानवता को शर्मसार करने वाला नाजारा । फोटो में दिख रहे व्यक्ति की पत्नी का कल रात अस्पताल में निधन हो गया था ,गरीबी की मार झेल रहे व्यक्ति के पास घर और श्मशान जाने तक पैसे नहीं थे ,अन्तोगत्वा उसने लाश को कन्धे पर लेकर पैदल घर (60कि.मी.) चल पड़ा ।पीछे उसकी बारह साल की बच्ची रोते हुये जा रही है । यह तो भला हो कुछ उन लोगों और मीडिया का कि उसने मामले की गम्भीरता को समझते हुए तुरन्त एम्बुलेंस की व्यवस्था करवाई । लेकिन तब तक ये गरीब 10 कि मी का सफर तय कर चुका था । मानवता को शर्मसार करने वाली घटना जब सुर्खी बनी तो अस्पताल प्रशासन का बयान आया कि यह व्यक्ति शराब पिया हुआ था और रात में किसी को बताये बिना अपनी पत्नी का शव लेकर चला गया । आब आप ही सोचिये क्या ऐसा हो सकता है ? क्या शराब पिया हुआ व्यक्ति इतना बोझ अपने कन्धे पर डालकर 10 कि मी तक चल सकता है ? जब यह व्यक्ति मृतिका का शव लेकर जा रहा था तब क्या अस्पताल में कोई नहीं था ?
उस इंसान के कंधे पर पत्नी की नहीं...
देश की अंतरात्मा की लाश थी !!
एक व्यक्ति को अपनी पत्नी के शव को मजबूरन अपने कंधे पर लादकर 10 किलोमीटर तक चलना पड़ा। हैरत की बात तो यह है कि उसे अस्पताल से शव को गांव तक ले जाने के लिए कोई वाहन नहीं मिल सका। दरअसल व्यक्ति की पत्नी भावनीपटाना में जिला मुख्यालय अस्पताल में टीबी की बीमारी का इलाज करा रही थी लेकिन 42 वर्षीय महिला की मंगलवार रात को उसकी मौत हो गई। पत्नी की मौत के बाद उस व्यक्ति को अस्पताल से शव को घर तक ले जाने के लिए एम्बुलेंस नहीं मिली।
इस मामले की सोशल मीडिया पर कड़ी आलोचनाएं हो रही हैं। वरिष्ठ पत्रकार अरविंद शेष ने लिखा है....
यह असभ्य, संवेदनहीन, सामंती कुंठा से बजबजाते निर्लज्जों का जमावड़ा है, इंसान दिखने वालों का समाज नहीं..! यह कोई मैराथन की दौड़ नहीं थी। यह सरकारी योजनाओं के टीबी उन्मूलन कार्यक्रम के बावजूद अस्पताल में उसकी पत्नी का मर जाना था... ओड़िशा के एक आदिवासी दाना मांझी की जेब में एक पैसा भी नहीं होना था... पत्नी अमंग देई की लाश को घर ले जाने के लिए अस्पताल से लेकर आसपास के तमाम लोगों से खारिज यह गुहार थी कि कोई गाड़ी दिलवा दे...!
इसके बाद उसने चादर में पत्नी की लाश को लपेटा और कंधे पर टांग कर अपनी बेटी के साथ पैदल चल पड़ा... साठ किलोमीटर दूर अपने गांव की ओर...! बारह किलोमीटर तक वह खुद को मेले की तरह देखते हजारों लोगों के बीच चलता रहा... टीवी वाले से लेकर न जाने कितने लोग वीडियो बनाते रहे... फोटो खींचते रहे... मगर किसी ने आगे बढ़ कर उसे एक बार भी नहीं कहा कि 'मैं हूं...!' बारह किलोमीटर के बाद किसी लड़के ने मरी हुई सरकार के किसी अफसर को फोन किया और बेइज्जती के डर से एक गाड़ी भेजी गई।
समझ में नहीं आता कि देश और समाज पर गर्व करने की धमकी देते हुए लोगों को क्या कहूं... सत्तर साल की बूढ़ी होती आजादी को क्या कहूं... इस देश की व्यवस्था को क्या कहूं जो सिर्फ उन लोगों की तेल-मालिश के लिए है, जो पहले ही दाना मांझी जैसे लोगों का खून पीकर तृप्त और अघाए हुए हैं!
समाज की दिमागी गुलामी की हालत पर अगर कर सकिए तो गर्व कीजिए कि उसी जगह किसी कार वाले का पहिया किसी गड्ढे में फंस गया होता या किसी 'मालिक' छाप चेहरे वाले को धूप लग गई होती तो केवल पानी नहीं, अपना खून हाजिर करके वे लोग अपना बेड़ा पार हो गया समझते...! टीवी चैनल वाला वीडियो बनाने से पहले किसी अफसर को फोन करके उसे जवाब मांगता कि ये क्या है... क्या तुम्हारी पैदाइश सिर्फ 'मालिक-संप्रदाय' का थूका हुआ चाटने के लिए हुई है...! संवेदना से मर चुके लोग अगर जिंदा होते तो फोटो खींचते तो खींच लेते, लेकिन तुरंत उसकी ओर हाथ बढ़ा देते...!
लेकिन यही व्यवस्था है... इसी में बना-पला-बढ़ा गर्व की दुहाई परोसता समाज है... गर्व कर सकें तो कीजिए...!
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